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Sunday, July 26, 2009

भारत का मित्र नहीं अमेरिका

इस सूचना से उत्साहित होने से बचा जाना चाहिए कि लंदन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच आपसी विश्वास बढ़ाने वाली बातचीत हुई। नि:संदेह भारत-अमेरिका के संबंध दिन-प्रतिदिन और प्रगाढ़ होने के प्रबल आसार हैं, क्योंकि दोनों स्वाभाविक मित्र हैं तथा दोनों को एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है, लेकिन पाकिस्तान में पोषित हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में अमेरिकी प्रशासन ने जैसा रवैया अपना रखा है वह भारतीय हितों के अनुकूल नहीं है।

भले ही मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाकात को इस रूप में रेखांकित किया जा रहा हो कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में भारत एवं अमेरिका एकजुट हैं, लेकिन इस शाब्दिक एकजुटता से पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान का यह बयान है कि वह रुकी पड़ी शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए कोई शर्त स्वीकार नहीं करेगा।

यह बयान मनमोहन सिंह के इस कथन के जवाब में आया है कि संवाद शुरू करने के लिए पहले पाकिस्तान मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों को दंडित करने का काम करे। स्पष्ट है कि भारत यह मानकर संतुष्ट नहीं हो सकता कि अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है, क्योंकि पाकिस्तानी शासक एक बार फिर दुष्प्रचार का सहारा लेकर यह साबित करने की कोशिश में हैं कि भारत उनसे बातचीत करने के मामले में उन पर शर्ते थोप रहा है।

इससे भी अधिक चिंताजनक बराक ओबामा का यह सुझाव है कि जब दोनों देशों की सबसे बड़ी शत्रु गरीबी है तब भारत-पाकिस्तान के बीच प्रभावशाली संवाद आवश्यक है। क्या ऐसे किसी सुझाव का तब कोई मतलब हो सकता है जब पाकिस्तान उन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में नित-नए बहाने बना रहा हो जो भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं? यह सही समय है जब भारत इस अमेरिकी रट के खिलाफ दृढ़ता का परिचय दे कि उसे पाकिस्तान से बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बराक ओबामा के बयान के बाद पाकिस्तान इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि अमेरिकी प्रशासन तो उसका पक्ष ले रहा है।

भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान में बेकाबू हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में लगभग उसी नीति पर चल रहा है जिस पर बुश प्रशासन चल रहा था। मौजूदा अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान और अफगानिस्तान में कथित उदार आतंकियों की भी तलाश कर रहा है। इसके अतिरिक्त वह यह मानकर भी चल रहा है कि पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देकर वहां पनप रहे आतंकवाद को आसानी से समाप्त किया जा सकता है।

नि:संदेह पाकिस्तान को आर्थिक मदद की जरूरत है, लेकिन तभी जब वह उसका उपयोग आतंकी संगठनों से लडऩे में करे। अमेरिका का कुछ भी मानना हो, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की एक मात्र कोशिश आतंकी संगठनों की गतिविधियों पर पर्दा डालने की है। इसके लिए वह विश्व समुदाय की आंखों में धूल झोंक रहा है, लेकिन अमेरिका असलियत समझने से इनकार कर रहा है।