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Thursday, June 30, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान के पीछे कहीं साम्प्रदायिकता की राजनीति तो नहीं

शेष नारायण सिंह

बहुत दिन बाद कुछ चुनिन्दा पत्रकारों से मुखातिब हुए मनमोहन सिंह ने अपनी बात बतायी. उनके मीडिया सलाहकार के पांच मित्र पत्रकारों के कान में उन्होंने कुछ बताया लेकिन जब देखा कि वहां से निकलकर वे संपादक लोग प्रेस कानफरेंस करने लगे हैं और प्रधान मंत्री की बात पर अपनी व्याख्या कर रहे हैं तो हडबडी में करीब नौ घंटे बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाईट पर सरकारी पक्ष भी रख दिया गया.उनके दफतर वालों की मेहनत से जारी की गयी ट्रान्सक्रिप्ट पर नज़र डालें तो साफ़ लगता है कि दिल्ली के सत्ता के गलियारों में तैर रही बहुत सारी कहानियों को खारिज करने के लिए प्रधानमंत्री ने इन पंज प्यारों को तलब किया था.उन्होंने एक बार फिर ऐलान किया कि वे कठपुतली प्रधानमंत्री नहीं हैं . राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान को भी उन्होंने अपने तरीके से हैंडिल करने की कोशिश की . कांग्रेस के एक वर्ग की तरफ से चल रहे उस अभियान को भी उन्होंने दफन करने की कोशिश की जिसके तहत दिल्ली में यह कानाफूसी चल रही है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ में प्रधानमंत्री ही हैं . देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अपने आप को बचाने के लिए ही वे प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के घेरे में नहीं आने देना चाहते . लेकिन डॉ मनमोहन सिंह ने बहुत ही बारीकी से यह बात स्पष्ट कर दी कि दरअसल कांग्रेस का वह वर्ग प्रधानमंत्री को लोकपाल से बाहर रखने के चक्कर में है जो भावी प्रधानमंत्री की टोली में है. जहां तक उनका सवाल है , वे तो प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच में लाना चाहते हैं . राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने की कोशिश में लगे नेताओं को उनके इस बयान का असर कम करने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ेगी. संपादकों से प्रधानमंत्री के संवाद की यह वे बातें हैं जो आम तौर पर सबकी समझ में आयीं और टेलिविज़न में काम करने वाले कुछ अफसर पत्रकारों ने इसे टी वी के ज़रिये पूरी दुनिया को बताया और सर्वज्ञ की मुद्रा में बहसों को संचालित किया . दिल्ली शहर में बुधवार को कई ऐसे पत्रकारों के दर्शन हुए जो कई वर्षों से प्रधानमंत्री और उनके मीडिया सलाहकार के ख़ास सहयोगी माने जाते थे लेकिन संवाद में नहीं बुलाये गए. उनके चहरे लटके हुए थे. जो लोग नहीं बुलाये गए थे उन्होंने अपने अपने चैनलों पर बाकायदा प्रचारित करवाया कि प्रधानमंत्री अपनी कोशिश में फेल हो गए हैं .इन बातों का कोई मतलब नहीं है , दिल्ली में यह हमेशा से ही होता रहा है .ज़्यादातर प्रधानमंत्री इन्हीं मुद्दों में घिरकर अपने आपको समाप्त करते रहे हैं .केवल जवाहरलाल नेहरू ऐसे व्यक्ति थे जिनको हल्की बातों में कभी नहीं घेरा जा सका.प्रधानमंत्री ने आर एस एस और बीजेपी की अगुवाई में शुरू किये गए उस अभियान को पकड़ने की कोशिश की जिसके बल पर हर बार आर एस एस ने देश की जनता को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाने में सफलता पायी है . उन्होंने संसद, सी ए जी और मीडिया से अपील की उनकी सरकार को सबसे भ्रष्ट सरकार साबित करने की आर एस एस की कोशिश का हिस्सा न बनें और पूरी दुनिया के माहौल को नज़र में रख कर फैसले करें.उन्होंने कहा कि निहित स्वार्थ के लोग उनकी सरकार को लुंजपुंज सरकार साबित करने की फ़िराक़ में हैं और मीडिया उनको हवा दे रहा है. उन्होंने मीडिया से अपील की कृपया सच्चाई की परख के बाद ही अपनी ताक़त का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ करें.
भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की आर एस एस और बीजेपी की कोशिश को पकड़कर प्रधानमंत्री ने निश्चित रूप से दक्षिणपंथी राजनीति को अर्दब में लेने की कोशिश की है .यह बात स्पष्ट कर देने की ज़रुरत है कि १९६७ से लेकर अबतक लगभग सभी सरकारें भ्रष्ट रही हैं . उन पर विस्तार से चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सब को मालूम है कि टाप पर फैले भ्रष्टाचार का शिकार हर हाल में गरीब आदमी ही होता है और उसे मालूम है कि सरकार भ्रष्ट है . लेकिन भारत के समकालीन इतिहास में तीन बार केंद्रीय सरकार को भ्रष्ट साबित करके आर एस एस ने अपने आपको मज़बूत किया है. यह अलग बात है कि २००४ के चुनावों में कांग्रेस ने भी बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को महाभ्रष्ट साबित करके एन डी ए की सरकार को पैदल किया था . लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश के बाद हमेशा ही आर एस एस के हाथ सत्ता लगती रही है . इस विषय पर थोड़े विस्तार से चर्चा कर लेने से तस्वीर साफ़ होने में मदद मिलेगी. १९७४ में जब जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन शुरू हुआ तो उसमें बहुत कम संख्या में लोग शामिल थे लेकिन जब के एन गोविन्दाचार्य ने पटना में उनसे मुलाकात की और आर एस एस को उनके पीछे लगा दिया तो बात बदल गयी. राजनीति की सीमित समझ रखने वाली इंदिरा गाँधी ने थोक में गलतियाँ कीं और १९७७ में अर एस एस के सहयोग से केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बन गयी. महात्मा गाँधी की हत्या के आरोपों की काली छाया में जी रहे संगठन को जीवनदायिनी ऊर्जा मिल गयी.आर एस एस की ओर से बीजेपी में सक्रिय ,उस वक़्त के सबसे बड़े नेता, नानाजी देशमुख ने खुद तो मंत्री पद नहीं स्वीकार किया लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को कैबिनेट में अहम विभाग दिलवा दिया . जनता पार्टी की सरकार में आर एस एस के कई बड़े कार्यकर्ता बहुत ही ताक़तवर पदों पर पंहुच गए. बाद में समाजवादी चिन्तक और जनता पार्टी के नेता मधु लिमये ने इन लोगों को काबू में करने की कोशिश की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी . आर एस एस वालों ने जनता पार्टी को तोड़ दिया और बीजेपी की स्थापना कर दी. लेकिन आर एस एस के नियंत्रण में एक बड़ी राजनीतिक पार्टी आ चुकी थी. आज के बीजेपी के सभी बड़े नेता उसी दौर में राजनीति में आये थे और आज उनके सामने ज़्यादातर पार्टियों के नेता बौने नज़र आते हैं .राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, सुशील कुमार मोदी सब उसी दौर के युवक नेता हैं .दिलचस्प बात यह है कि केवल राजनीतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया गया था क्योंकि सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी की सरकार अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेस से भी ज्यादा भ्रष्ट साबित हुई .
दूसरी बार भ्रष्टाचार के खिलाफ जब आर एस एस ने अभियान चलाया तो मस्कट के रूप में राजीव गाँधी के वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे किया गया . राजीव गाँधी की टीम में राजनीतिक रूप से निरक्षर लोगों का भारी जमावड़ा था . उन लोगों ने भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को ठीक से नहीं संभाला और वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बना दी गयी. उस सरकार का कंट्रोल पूरी तरह से आर एस एस के हाथ में था और बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा देने के लिए जितना योगदान वी पी सिंह ने किया उतना किसी ने नहीं किया . वी पी सिंह के अन्तःपुर में सक्रिय सभी बड़े नेता बाद में बीजेपी के नेता बन गए. अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान और सतपाल मलिक का नाम प्रमुखता से वी पी सिंह के सलाहकारों में था . बाद में सभी बीजेपी में शामिल हो गए.बाबरी मस्जिद के मुद्दे को पूरी तरह से गरमाने के बाद भ्रष्टाचार और बोफर्स को भूल कर आर एस एस ने केंद्र में सत्ता स्थापित करने की रण नीति पर काम करना शुरू कर दिया था..
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को लामबंद करके सत्ता हासिल करने के नुस्खे को आर एस एस ने बार बार आजमाया है.यह भी पक्की बात है कि उसके बाद सत्ता भी मिलती है . लेकिन इस बार लगता है कि मनमोहन सिंह उनकी इस योजना की हवा निकालने का मन बना चुके हैं . आर एस एस ने पहले तो अन्ना हजारे को आगे करने की कोशिश की लेकिन सोनिया गाँधी ने उनको अपना बना लिया .बीजेपी के नेता बहुत निराश हो गए .अन्ना हजारे का इस्तेमाल मनमोहन सिंह के खिलाफ तो हो रहा है लेकिन वे बीजेपी के राजसूय यज्ञ का हिस्सा बनने को तैयार नहीं हैं . इस खेल के फेल होने पर बीजेपी अध्यक्ष ,नितिन गडकरी ने योग के टीचर रामदेव को आगे किया लेकिन भ्रष्टाचार की हर विधा में गले तक डूबे रामदेव अब उनकी जान की मुसीबत बने हुए हैं . इन सारे नहलों पर बुधवार को चुनिन्दा और वफादार संपादकों को बुलाकर प्रधान मंत्री ने भारी दहला मारा और साफ़ संकेत दे दिया कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की मंशा को वे उजागर कर देंगें . ज़ाहिर है इस संकेत में यह भी निहित है कि वे पब्लिक डोमेन यह सूचना भी डाल देने वाले हैं कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आर एस एस अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को चमकाने के फ़िराक़ में है . जानकार समझ गए हैं कि प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार को निहित स्वार्थों का एजेंडा साबित करने की कोशिश करके अपनी पार्टी के उन लोगों को भी धमकाने की कोशिश की है जो उनको राहुल गाँधी का नाम लेकर डराते रहते हैं . जहां तक बीजेपी का सवाल है उनको तो सौ फीसदी घेरे में लेने की योजना साफ़ नज़र आ रही है . जो भी हो अगले कुछ महीने साम्प्रदायिक राजनीति के विमर्श में इस्तेमाल होने वाले हैं . अगर प्रधानमंत्री ने देश की सेकुलर जमातों को अपना ,मकसद समझाने में सफलता हासिल कर ली तो एक बार बीजेपी फिर बैकफुट पर आ जायेगी

Thursday, June 10, 2010

प्रधान मंत्री की श्रीनगर यात्रा एक ज़रूरी पहल है

शेष नारायण सिंह

(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )

प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह की कश्मीर यात्रा से दिल्ली के शासकों को बहुत उम्मीदें हैं . पिछले २० वर्षों से भी ज्यादा वक़्त से आतंकवादी हमलों को झेल रहे कश्मीरी अवाम को कुछ सुकून देने की केंद्र सरकार की कोशिश साफ़ नज़र आ रही है. आतंकवाद पर दुनिया भर में दबाव बना हुआ है. ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की कोशिश है कि विकास के मुद्दों को पुरजोर तरीके से चर्चा का विषय बनाया जाए. उनकी मौजूदा यात्रा नयी दिल्ली के नीति नियामकों की इसी सोच का नतीजा है . यात्रा के पहले दिन ही प्रधान मंत्री ने सभी वर्गों के लोगों से बात की . उनको भरोसा दिलाने की कोशिश की कि केंद्र सरकार राज्य के विकास को गंभीरता से लेती है..अलगाववादियों की गतिविधियों को भी बेमानी साबित करने की दिशा में गंभीर पहल की गयी . उन्होंने जब यात्रा शुरू होने के पहले यह ऐलान कर दिया कि शान्ति और विकास के लिए किसी से भी बात करने में कोई हर्ज़ नहीं है, तो आतंक वालों का आधा खेल तो पहले ही बिगड़ गया था . बाकी वहां जाकर दुरुस्त करने की कोशिश की . विकास का हमला करने की मनमोहन सरकार की रणनीति के सफल होने की उम्मीद दिल्ली और इस्लामाबाद में की जा रही है . हालांकि सरहद के दोनों तरफ की अतिवादी ताकतें अभी इस फ़िराक़ में हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच झगडा बना रहे . दर असल इन अतिवादी ताक़तों की राजनीति की बुनियाद ही यही है . लेकिन मनमोहन सिंह ने विकास के रास्ते शान्ति की पहल कर दी है . वक़्त ही बतायेगा कि भारत सरकार का यह जुआ शान्ति की दिशा में सही क़दम साबित होता है कि नेताओं और अफसरों के लिए रिश्वत की गिज़ा का माध्यम बनता है . प्रधान मंत्री ने राज्य के मुख्य मंत्री की बहुत तारीफ़ की और कहा कि जिस तरह से उमर अब्दुल्ला ने राज्य के विकास और उसके लिए ज़रूरी केंद्रीय मदद की मांग की , उस से वे बहुत प्रभावित हुए हैं . इसका मतलब यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर सरकारी धन भेजा जाने वाला है . लगता है कि प्रधानमंत्री की पुनर्निर्माण योजना के वे ६७ प्रोजेक्ट भी शुरू हो जायेंगें जो अर्थव्यवस्था के ११ क्षेत्रों को कवर करते हैं और उन पर केंद्र सरकार २४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना बना चुकी है . डॉ मनमोहन सिंह की जम्मू-कश्मीर यात्रा का शान्ति के हित में बहुत ही अधिक महत्व है . राज्य के वे लोग जो अब तक गलत राजनीतिक सोच की वजह से परेशान रहे हैं उनको भी उम्मीद का एक अवसर नज़र आना चाहिए .

जम्मू -कश्मीर इस बात का उदाहरण है कि गलत राजनीतिक फैसलों से किस तरह देश का भविष्य तबाह किया जा सकता है . जिस कश्मीर की तुलना स्वर्ग से की जाती थी , वहां रहने वाले लोग देश के सबसे खस्ताहाल इलाके के नागरिक कहे जाते हैं . कश्मीर बहुत पहले से गलत राजनीतिक सोच का शिकार रहा है. पुराने इतिहास में न जाकर देश विभाजन के वक़्त की राजनीति को ही देखने से कश्मीरी अवाम की बदकिस्मती का एक खाका दिमाग में उभरता है . उस वक़्त का कश्मीर नरेश एक अजीब इंसान था . विभाजन के दौरान ,बहुत दिनों तक वह पाकिस्तान से सौदेबाजी करता रहा कि वह उनके साथ जाना चाहता था. वो तो जब पाकिस्तान ने कबायलियों के साथ अपने फौजी भेजकर ज़बरदस्ती कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की तब उसकी समझ में आया कि वह कितनी बड़ी बेवकूफी का शिकार हो रहा था .बहर हाल वह सरदार पटेल की शरण में आया और उन्होंने उसे अपने साथ मिला लिया और पाकिस्तानी फौज़ को वापस खदेड़ दिया गया . शेख अब्दुल्ला उस दौर के हीरो थे. सरदार पटेल ने जब जम्मू-कश्मीर को अपने साथ लिया था तो राज्य को एक विशेष दर्जा देने का वचन दिया था . उसी वचन को पूरा करने के लिए संविधान में अनुच्छेद ३७० की व्यवस्था की गयी. लेकिन जो पार्टियां आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्हें सरदार पटेल के वचन या भारतीय संविधान का सम्मान करने की तमीज नहीं थी और उन्होंने उसका विरोध शुरू कर दिया . नतीजा यह हुआ कि कई फैसलों में गलतियां हुईं और जवाहर लाल नेहरू ने १९५३ में शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया . उसके बाद तो गलत फैसलों की बाढ़ सी आ गई. राज्य के सबसे लोकप्रिय नेता को गिरफ्तार करके केंद्र सरकार ने वह गलती की जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . दिल्ली की पसंद की सरकार बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर में हमेशा राजनीतिक अड़ंगेबाज़ी का सिलसिला चलता रहा. बताते हैं कि शेख साहेब की गिरफ्तारी के बाद पहली बार राज्य में निष्पक्ष चुनाव १९७७ में ही हुए . लेकिन उसके बाद पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज हो गया और वह १९७१ की पाकिस्तानी फौज की हार का बदला लेना चाहते थे और भारत को कमज़ोर करना उनका प्रमुख उद्देश्य था . पहले तो उसने पंजाब में आतंकवाद को हवा दी और साथ साथ कश्मीर में भी काम शुरू करवा दिया .इधर दिल्ली में भी अदूरदर्शी लोगों के हाथ में सत्ता आ गयी. इंदिरा गाँधी के दूसरे कार्यकाल में अरुण नेहरू बहुत बड़े सलाहकार बन कर उभरे. उन्होंने इंदिरा और राजीव ,दोनों को ही कश्मीर मामले में गलत फैसले करने के लिए उकसाया , अरुण नेहरू ने ही वह गैर ज़िम्मेदार बयान दिया था जिसमें कहा गया था कि कश्मीर में चल रहा अलगाव वादियो का आन्दोलन वास्तव में कानून व्यवस्था की समस्या है . कोई अज्ञानी ही इतनी बड़ी समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या कह सकता है . अरुण नेहरू ने इसी स्तर की सलाह राजीव गाँधी को उपलब्ध कराई जिसकी वजह से केंद्र सरकार ने थोक में गलत फैसले किये . नतीजा सामने है . बाद में जब जगमोहन को वहां राज्यपाल बनाकर भेजा गया तब तो मूर्खता पूर्ण फैसलों का दौरदौरा शुरू हो गया . जगमोहन ने तो अपनी मुस्लिम विरोधी सोच की सारी कारस्तानियों को अंजाम दिया . मीरवाइज़ फारूक की शव यात्रा पर गोली चलवाना जगमोहन के दिमाग की ही उपज हो सकता था . जगमोहन ने ही निर्दोष मुसलमानों को फर्जी तरीके से फंसाना शुरू कर दिया . मुफ्ती मुहम्मद सईद का गृह मंत्री होना , कश्मीर का सबसे बड़ा दुर्भाग्य माना जाता है . उनके शासनकाल में ही वहां आतंकवाद खूब पला बढा . बाद में केंद्र में ऐसी सरकारें आती रहीं जिनके पास स्पष्ट जनादेश नहीं था. लिहाज़ा सब कुछ गड़बड़ होता रहा . उधर पाकिस्तान में आई एस आई और फौज की ताक़त बहुत बढ़ गयी . पाकिस्तान ने आतंक के ज़रिये भारत को दबाने की कोशिश की . यह अलग बात है कि उसी चक्कर में पाकिस्तान खुद ही नष्ट हो गया लेकिन भारत का नुकसान तो हुआ .उसी नुक्सान को संभालने के लिए आज मुल्क हर स्तर पर कोशिश कर रहा है . प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए . अभी यह उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा कि सब कुछ जल्दी ही दुरुस्त हो जाएगा लेकिन यह तो तय है कि सही दिशा में क़दम उठा दिया गया है . नतीजा भविष्य की कोख में है.

Sunday, October 25, 2009

अमरीका का कारिन्दा बन कर रहना ठीक नहीं

अमरीका अब भारत को एशिया में अपना सामरिक सहयोगी बनाने के चक्कर में है .उनकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि भारत के साथ जो परमाणु समझौता हुआ है वह एक सामरिक संधि की दिशा में अहम् क़दम है . जब परमाणु समझौते पर वामपंथियों और केंद्र सरकार के बीच लफडा चल रहा था तो बार बार यह कहा गया था कि अमरीका की मंशा है कि भारत को इस इलाके में अपना सैन्य सहयोगी घोषित कर दे लेकिन सरकार में मौजूद पार्टियां और कांग्रेस के सभी नेता कहते फिर रहे थे कि ऐसी कोई बात नहीं है .लेकिन अब बात खुलने लगी है . अगर ऐसा हो गया तो जवाहरलाल नेहरु का वह सपना हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा जिसमें उन्होंने भारत को एक गुट निरपेक्ष देश के रूप में विश्व मंच पर स्थापित करने की कोशिश की थी. इमकान यह है कि नवम्बर में जब मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाक़ात होगी तो वे बहुत सारी सूचनाएं सार्वजनिक कर दी जाएँगीं जो अब तक परदे के पीछे रखी गयी हैं .
अमरीकी विदेश नीति के एकाधिकारवादी मिजाज की वजह से हमेशा ही अमरीका को दुनिया के हर इलाके में कोई न कोई कारिन्दा चाहिए होता है.अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीकी प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है .शुरू से लेकर अब तक अमरीकी विदेश विभाग की कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलें. यह काम भारत को औकात बताने के उद्देश्य से किया जाता था लेकिन पाकिस्तान में पिछले ६० साल से चल रहे पतन के सिलसिले की वजह से अमरीका का वह सपना तो साकार नहीं हो सका लेकिन अब उनकी कोशिश है कि भारत को ही इस इलाके में अपना लठैत बना कर पेश करें.भारत में भी आजकल ऐसी राजनीतिक ताक़तें सत्ता और विपक्ष में शोभायमान हैं जो अमरीका का दोस्त बनने के लिये किसी भी हद तक जा सकती हैं .वामपंथियों को अपनी राजनीतिक ज़रुरत के हिसाब से अमरीका विरोध की मुद्रा धारण करनी पड़ती है लेकिन सी पी एम के वर्तमान आला अफसर की सांचा बद्ध सोच के चलते देश में कम्युनिस्ट ताक़तें हाशिये पर आने के ढर्रे पर चल चुकी हैं .इस लिए अमरीका को एशिया में अपनी हनक कायम करने में भारत का इस्तेमाल करने में कोई दिक्क़त नहीं होगी.

अब जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि एशिया में अमरीकी खेल के नायक के रूप में भारत को प्रमुख भूमिका मिलने वाली है तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद के अमरीकी एकाधिकारवादी रुख की पड़ताल करना दिलचस्प होगा. शीत युद्ध के दिनों में जब माना जाता था कि सोवियत संघ और अमरीका के बीच दुनिया के हर इलाके में अपना दबदबा बढाने की होड़ चल रही थी तो अमरीका ने एशिया के कई मुल्कों के कन्धों पर रख कर अपनी बंदूकें चलायी थीं. यह समझना दिलचस्प होगा कि इराक से जिस सद्दाम हुसैन को हटाने के के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र तक को ब्लैकमेल किया , वह सद्दाम हुसैन अमरीका की कृपा से ही पश्चिम एशिया में इतने ताक़त वर बने थे . उन दिनों सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल इरान पर हमला करने के लिए किया जाता था . सद्दाम हुसैन अमरीकी विदेश नीति के बहुत ही प्रिय कारिंदे हुआ करते थे . बाद में उनका जो हस्र अमरीका की सेना ने किया वह टेलिविज़न स्क्रीन पर दुनिया ने देखा है .और जिस इरान को तबाह करने के लिए सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल किया जा रहा था उसी इरान और अमरीका में एक दौर में दांत काटी रोटी का रिश्ता था. शाह इरान, रजा पहलवी , एशिया, खासकर पश्चिम एशिया में अमरीकी लठैतों के सरदार के रूप में काम करते थे .जिस ओसामा बिन लादेन को तबाह करने के लिए अमरीका ने पाकिस्तान को फौजी छावनी में तब्दील कर दिया है और अफगानिस्तान को रौंद डाला , वहीं ओसामा बिन लादेन अम्र्रेका के सबसे बड़े सहयोगी थे और उनका कहीं भी इस्तेमाल होता रहता था. जिस तालिबान को आज अमरीका अपना दुश्मन नंबर एक मानत है उसी के बल पर अमरीकी विदेश नीति ने अफगानिस्तान में कभी विजय का डंका बजाया था . अपने हितों को सर्वोपरि रखने के लिए अमरीका किस्सी का भी कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है. जब सोवियत संघ के एक मित्र देश के रूप में भारत आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा था तो , एक के बाद एक अमरीकी राष्ट्रपतियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल किया था . बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत के खिलाफ अपने परमाणु सैन्य शक्ति से लैस सातवें बेडे के विमानवाहक पोत , इंटरप्राइज़, से हमला करने की धमकी तक दे डाली थी. उन दिनों यही पाकिस्तान अमरीकी विदेश नीति का ख़ास चहेता हुआ करता था. बाद में भी पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होता रहा था. पंजाब में दिग्भ्रमित सिखों के ज़रिये पाकिस्तानी खुफिया तंत्र ने जो आतंकवाद चलाया, उसे भी अमरीका का आर्शीवाद प्राप्त था . अमरीकी हठधर्मिता की हद तो उस वक़्त देखी गयी जब चीन के नाम पर ताइवान को सुरक्षा परिषद् में बैठाया गया. . पश्चिम एशिया के सभी देशों को एक दुसरे के खिलाफ इस्तेमाल करने की अमरीकी विदेश नीति का ही जलवा है कि इजरायल आज भी सभी अरब देशों को धमकाता रहता है.

वर्तमान कूटनीतिक हालात ऐसे हैं अमरीका की छवि एक इसलाम विरोधी देश की बन गई है. अमरीका को अब किसी भी इस्लामी देश में इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जाता . यहान तक कि पाकिस्तानी अवाम भी अमरीका को पसंद नाहीं करता जबकि पाकिस्तान की रोटी पानी भी अमरीकी मदद से चलती है. इस पृष्ठभूमि में अमरीकी विदेश नीति के नियंता भारत को अपना बना लेने के खेल में जुट गए हैं .उन्हनें इस स्क्षेत्र में चीन की बढ़ रही ताक़त से दहशत है. जिसे बैलेंस करने के लिए ,अमरीका की नज़र में भारत सही देश है. पाकिस्तान में भी बढ़ रहे अमरीका विरोध के मदद-ए-नज़र , अगर वहां से भागना पड़े तो भारत में शरण मिल सकती हाई. भारत में राजनीतिक महाल भी अमरीकाप्रेमी ही है. सत्ता पक्ष तो है ही मुख्य विपक्षी पार्टी का भी अमरीका प्रेम जग ज़ाहिर है. ऐसे माहौल में भारत से दोस्ती अमरीका के हित में है .लेकिन भारत के लिए माहौल इतना पुर सुकून नहीं है . अमरीका की दोस्ती के अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका किसी से दोस्ती नहीं करता, वह तो बस देशों को अपने राष्ट्र हित में इस्तेमाल करता है.इस लिए भारत के नीति निर्धारकों को चाहिए कि अमरीकी राष्ट्र हित के बजाय अपने राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर नित बनाएं और एशिया में अमरीकी हितों के चौकीदार बनने से बचे. दुनिया जानती है कि अमरीका से दोस्ती करने वाले हमेशा अमरीका के हाथों अपमानित होते रहे हैं . इस लिए अमरीकी सामरिक सहयोगी बनना भारत के हित में नहीं हैl

Tuesday, July 28, 2009

अमेरिका के लिए भारत बना खास

अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिटन जब तीन दिन की यात्रा पर चीन गयी तो भारत में चिंता की जा रही थी कि नये अमेरिकी हुकमरान की प्राथमिकताएं बदल रही है। चीन को भारत से ज्य़ादा महत्व दिया जा रहा है। लेकिन पांच दिन की भारत यात्रा पर आकर हिलेरी क्लिंटन ने ये बात साफ कर दी है कि भारत अभी भी अमेरिका की नज़र में महत्वपूर्ण देश है।


दुरस्त माहौल की शुरुआत

क्लिटन की यात्रा से साफ हो गया है कि अमेरिका भारत से हर तरह की दोस्ती का रिश्ता रखना चाहता है। भारत और अमेरिका की संभावना के बीच, आज की तारीख़ में सबसे अहम मुद्दा परमाणु समझौता है। हिलेरी क्लिंटन की यात्रा से एक बात बिल्कुल साफ हो गयी है कि परमाणु समझौता और उससे जुड़े मसले में अब किसी तरह की बहस की दरकार नहीं रखते। दोनों ही देशों के बीच पूरी तरह से समझदारी का माहौल है। हिलेरी क्लिंटन की ये यात्रा एक तरह से माहौल दुरुस्त करने की यात्रा थी। यहां आकर उन्होंने देश के बड़े उद्योगपतियों से मुलाकात की उसी होटल में विश्राम किया जिस पर 26/11 के दिन आतंकवादी हमला हुआ था।


उनकी यात्रा शुरू होने के पहले ही पाकिस्तान की सरकार ने स्वीकार कर लिया कि मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में उसके नागरिकों का हाथ था। जाहिर है पाकिस्तान की हुकूमत ने ये कदम अमेरिकी दबाव में ही उठाया है। विदेशमंत्री हिलेरी ने इस बात को भी जोर-शोर से मीडिया को बतलाया कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के शुरू होने के बाद भारत के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह पहले शासनाध्यक्ष होगें जो अमेरिका की यात्रा करेगें अपने दिल्ली प्रवास के दौरान, हिलेरी क्लिंटन ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हर इंसान से मुलाकात की।


परमाणु मुद्दे पर बात साफ

विदेशमंत्री एसएम कृष्णा और वे अब हर साल मिला करेगे। अपने कार्यकाल में वो कम से कम दो बार और भारत यात्रा पर आयेगी। परमाणु मुद्दे पर सारी बात साफ कर ली गयी है, खासकर जो दुविधा की स्थिति जी-8 सम्मेलन के बाद पैदा हो गयी थी। इस तरह से अमेरिकी विदेश मंत्री की यात्रा को दोनों देशों की कूटनीतिक संभावनाओं में एक खास मुकाम माना जा रहा है। विदेश मंत्री हिलेरी की इस यात्रा से एक और संदेश बहुत साफ नजर आ रहा है।


अपने देश में कुछ रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है, जो अपने को कूटनीति का सर्वज्ञ मानते है, इनमें से कुछ विदेश मंत्रालय की नौकरी में थे, तो कुछ रक्षा मंत्रालय की नौकरी में। बड़ी संख्या में टेलीविजन चैनलों के खबर के कारोबार में घुस जाने की वजह से इन लोगों का ज्ञान प्रवाहित होता रहता है। सच्ची बात ये है कि ये पुराने सरकारी कर्मचारी ये तो जान सकते है कि किसी कूटनीति समझौता का मतलब क्या है, लेकिन इन्हें ये नहीं पता होता कि राजनीतिक स्तर पर क्या सोचा जा रहा है। इसलिए ये लोग जब संभावनाओं की अभिव्यक्ति करते है, तो सब गड़बड़ हो जाता है।


इन बेचारों की ट्रेनिंग ऐसी नहीं होती कि ये लीक से हटकर सोच सके। इसलिए ये हर परिस्थिति की उल्टी सीधी अभिव्यक्ति करते है। आजकल भी इन लोगों का प्रवचन टीवी चैनलों पर चल रहा है। अमेरिका और भारत की संभावना की बारीकियों को समझने के लिए इन विद्वानों से बचकर रहना होगा। मौजूदा भारत-अमेरिकी संबंधों की सच्चाई यह है कि अमेरिका अब भारत को पाकिस्तान के बराबर का देश नहीं मानता और पाकिस्तान की परवाह किये बिना भारत के साथ संबंध रखना चाहता है।

आपसी हित के लिए संबंध

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर एक देश है अगर अमेरिका नाराज़ हो जाएं तो पाकिस्तान मुसीबत में पड़ सकता है क्योंकि उसका खर्चा-पानी अमेरिका की मदद से ही चल रहा है। लेकिन भारत के साथ अमेरिका के संबंध आपसी हित की बुनियाद पर आधारित है। शायद इसलिए अमेरिकी कूटनीति की कोशिश है कि भारत के साथ सामरिक रिश्ते बनाएं। इस वक्त देश में ऐसी सरकार है जो अमेरिका से अच्छा रिश्ता बनाने के लिए कुछ भी कर सकती है इसके पहले की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार तो अमेरिका की बहुत बड़ी समर्थक थी।

वामपंथी पार्टी आजकल अपने अंदरूनी लड़ाई के चलते ही परेशान है इसलिए भारत अमेरिका सामरिक रिश्तों ने बहुत आगे तक बढ़ जाने की आशंका है। ये देश की आत्मनिर्भरता और सम्मान के लिए ठीक नहीं होगा। अगर ये हो गया तो ख़तरा है कि अमेरिकी फौज के जनरल भारत के राष्ट्रपति से भी उसी तरह बात करने लगेंगे जिस तरह वे पाकिस्तान राष्ट्रपति मुर्शरफ और जरदारी के साथ करते है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भारत और अमेरिका के बीच कोई सामरिक समझौता न हो जाए।

Sunday, July 26, 2009

भारत का मित्र नहीं अमेरिका

इस सूचना से उत्साहित होने से बचा जाना चाहिए कि लंदन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच आपसी विश्वास बढ़ाने वाली बातचीत हुई। नि:संदेह भारत-अमेरिका के संबंध दिन-प्रतिदिन और प्रगाढ़ होने के प्रबल आसार हैं, क्योंकि दोनों स्वाभाविक मित्र हैं तथा दोनों को एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है, लेकिन पाकिस्तान में पोषित हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में अमेरिकी प्रशासन ने जैसा रवैया अपना रखा है वह भारतीय हितों के अनुकूल नहीं है।

भले ही मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाकात को इस रूप में रेखांकित किया जा रहा हो कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में भारत एवं अमेरिका एकजुट हैं, लेकिन इस शाब्दिक एकजुटता से पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान का यह बयान है कि वह रुकी पड़ी शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए कोई शर्त स्वीकार नहीं करेगा।

यह बयान मनमोहन सिंह के इस कथन के जवाब में आया है कि संवाद शुरू करने के लिए पहले पाकिस्तान मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों को दंडित करने का काम करे। स्पष्ट है कि भारत यह मानकर संतुष्ट नहीं हो सकता कि अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है, क्योंकि पाकिस्तानी शासक एक बार फिर दुष्प्रचार का सहारा लेकर यह साबित करने की कोशिश में हैं कि भारत उनसे बातचीत करने के मामले में उन पर शर्ते थोप रहा है।

इससे भी अधिक चिंताजनक बराक ओबामा का यह सुझाव है कि जब दोनों देशों की सबसे बड़ी शत्रु गरीबी है तब भारत-पाकिस्तान के बीच प्रभावशाली संवाद आवश्यक है। क्या ऐसे किसी सुझाव का तब कोई मतलब हो सकता है जब पाकिस्तान उन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में नित-नए बहाने बना रहा हो जो भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं? यह सही समय है जब भारत इस अमेरिकी रट के खिलाफ दृढ़ता का परिचय दे कि उसे पाकिस्तान से बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बराक ओबामा के बयान के बाद पाकिस्तान इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि अमेरिकी प्रशासन तो उसका पक्ष ले रहा है।

भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान में बेकाबू हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में लगभग उसी नीति पर चल रहा है जिस पर बुश प्रशासन चल रहा था। मौजूदा अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान और अफगानिस्तान में कथित उदार आतंकियों की भी तलाश कर रहा है। इसके अतिरिक्त वह यह मानकर भी चल रहा है कि पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देकर वहां पनप रहे आतंकवाद को आसानी से समाप्त किया जा सकता है।

नि:संदेह पाकिस्तान को आर्थिक मदद की जरूरत है, लेकिन तभी जब वह उसका उपयोग आतंकी संगठनों से लडऩे में करे। अमेरिका का कुछ भी मानना हो, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की एक मात्र कोशिश आतंकी संगठनों की गतिविधियों पर पर्दा डालने की है। इसके लिए वह विश्व समुदाय की आंखों में धूल झोंक रहा है, लेकिन अमेरिका असलियत समझने से इनकार कर रहा है।