Wednesday, July 29, 2009

सेक्स ट्रेड माफिया के निशाने पर भारत

समलैंगिकता पर शुरू हुई बहस एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है। दिल्ली से छपने वाले एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक अखबार ने इस मुद्दे पर पड़े मकडज़ाल को साफ करने की कोशिश की है। अखबार ने लिखा है कि किसी गैर सरक़ारी संगठन के कंधे पर बंदूक चलाने वाला कोई और नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सेक्स माफिया को कंट्रोल करने वाले व्यापारी बैठे हैं। उनके इस गोरखधंधे में दिल्ली और मुंबई में बैठे कुछ अति आधुनिकता का स्वांग भरने वाले फैशन परस्त लोग हैं। इस बिरादरी के लोग बड़े अखबारों और टी.वी. चैनलों में भी घुसपैठ कर चुके हैं।

अखबार के मुताबिक इस तरह के लोग आम तौर पर भाड़े के टट्टू टाइप लोग हैं। शायद इसीलिए जब दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आया तो सबसे पहले मीडिया वालों में से वह वर्ग सक्रिय हुआ जो पी.आर. एजेंसियों की कृपा से पहले से फिट किया जा चुका था। दिल्ली के जंतर मंतर पर दस-बीस लोग नाचते गाते इकट्ठा हुए। उनको कुछ टी.वी. चैनलों ने इस तरह पेश किया, मानो कोई बहुत बड़ी राजनीतिक घटना हो गई हो। एक अंग्रेजी अखबार की कवरेज देखकर तो लगता था कि देश ने किसी बहुत बड़ी लड़ाई में जीत हासिल की हो। साप्ताहिक पत्र के अनुसार मैक्सिको और मलयेशिया के बाद अब भारत निशाने पर है।

अंतर्राष्ट्रीय सेक्स व्यापार माफिया की कोशिश है कि भारत को सैक्स का हब बनाया जाय। इसीलिए समलैंगिकता पर हाईकोर्ट के फैसले को एक जीत के रूप में पेश किया जा रहा है। इन लोगों की कोशिश होगी कि आगे चलकर वेश्यावृत्ति को भी जायज घोषित करवा दिया जाय जिसके बाद से भारत को सैक्स पर्यटन का केंद्र बनाकर पूरी दुनिया के लोगों को यहां बुलाया जाय। अगर यह सच है तो यह बहुत ही खतरनाक है और सरकार, राजनीतिक दल, न्यायपालिका और आम आदमी को सावधान हो जाना चाहिए। एड्स की चपेट में पड़ चुकी दुनिया में अगर सेक्स माफिया के चक्कर में पड़कर भारत गाफिल पड़ गया तो देश तबाही की तरफ चल पड़ेगा। मामले की गंभीरता को देखते हुए न्यायपालिका ने तो पहल कर दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और हाईकोर्ट में मुकदमा दाखिल करने वाले एन.जी.ओ. से जवाब तलब कर लिया है। किसी ज्योतिषी की अपील पर मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 20 जुलाई की तारीख दी है। विचाराधीन मामले में समलैंगिक शादियों पर रोक लगाने के साथ साथ यह भी प्रार्थना की गई थी कि दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले पर भी रोक लगा दी जाय जिसके अनुसार भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) की धारा 377 को अपराध मानने से मना कर दिया गया है। सुनवाई के दौरान अपीलकर्ता के वकील ने बताया कि हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद समलैंगिक शादियों का दौर शुरू हो गया है जिस पर रोक लगाई जानी चाहिए।

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि हाईकोर्ट के आदेश में विवाह कानून बदलने जैसी तो कोई बात की नहीं गई है, इसलिए शादियों की बात का कोई मतलब नहीं है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि जल्दबाजी में फैसले पर रोक लगाना ठीक नहीं है। दस दिन में पूरी सुनवाई ही कर ली जाएगी। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि 377 के ज्यादातर मामले छोटे बच्चों के यौन शोषण से संबंधित होते हैं। उन्होंने अदालत में कहा कि पूरे कैरियर में उनके सामने 377 का ऐसा कोई मामला नहीं आया जिसमे ंकोई रज़ामंद वयस्क वादी या प्रतिवादी हो। इसका सीधा मतलब है कि समलैंगिता को अपराध की सूची से हटवाने वाले गिरोहों की कोशिश है कि छोटे बच्चों को सेक्स के गुलाम की तरह बेचने के उनके कारोबार की वजह से उन पर कोई आपराधिक मुकदमा न चले।

इस तरह की खबरें अकसर आती रहती हैं कि सेक्स व्यापार के धंधेबाजों ने गरीब मां बाप के बच्चों का अपहरण करवा कर या खरीद कर विदेश भेजने की कोशिश की। अगर समलैंगिकता अपराध नहीं रह रह जाएगा तो इस तरह के धंधेबाज, बच्चों को विदेश भेजने की कोशिश नहीं करेंगे। यहीं अपने देश में ही सेक्स टे्रड के अड्डे खुल जाएंगे। समलैंगिकता के मामले को दूसरी आज़ादी की तरह पेश करने वाले अज्ञानी नेताओं और बुद्घिजीवियों को फौरन संभल जाना चाहिए। पी.आर. एजेंसियों की मीडिया को प्रभावित कर सकने की ताकत का इस्तेमाल करके समलैंगिकता को जायज करार दिलवाने की कोशिश कर रहे माफिया की ताकत बहुत ज्यादा है।

इस माफिया ने पैसा तो कुछ चुनिंदा एनजीओ और लॉबी करने वालों को दिया होगा लेकिन मीडिया का इस्तेमाल करके इसे मानवाधिकार का मामला बनाने की कोशिश कर रहे हैं। एक बार अगर यह मानवाधिकार का मामला बन गया तो लॉबी करने वालों का एक नया वर्ग भी इससे जुड़ जाएगा जो बात को और पेचीदा बना देगा। देखा गया है कि कुछ नेता भी इस मामले में गोल मटोल बात कर रहे हैं, इन लोगों को फौरन संभल जाना चाहिए। अगर यह मुगालता है कि समलैंगिक लोगों की आबादी बहुत ज्यादा है तो उसे दुरुस्त कर लेने की जरूरत है। यह सब मीडिया में बैठे कुछ समलैगिक लोगों की बनाई कहानी है, इसको गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। सभी धर्मों के नेताओं ने इस मामले में अपनी राय दे दी है।

सबने एकमत से इसका विरोध किया है। सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट की 20 जुलाई की सुनवाई पर लगी हैं। सबको उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट, सेक्स टे्रड माफिया और उसके कारिंदे एन.जी.ओ. के खेल को खत्म करेगा और देश की मर्यादा पर आंच नहीं आने देगा।

ज़रदारी की पीड़ा

जब तक बिल्ली अपने खूनी पंजों से दूसरों को लहुलहान करती रही तब तक पाकिस्तानी शासक बड़ी ही स्पष्टता से इस सच्चाई को नकारते रहे कि इस खूनी बिल्ली से उनका कोई रिश्ता है और वो यह भी कहते रहे कि बिल्ली को पालने वाले तथा उसे दूध और गोश्त की आपूर्ति करने वालों को भी वो नहीं जानते लेकिन जब उस खूंखार बिल्ली ने उनके ही मुंह पर पंजे गड़ाने शुरु किए तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को भी कहना पड़ा कि 'हमारी बिल्ली हम ही से म्याऊं'।

कहने का तात्पर्य यह है कि जब सारी दुनिया चीख चीख कर कह रही थी कि पाकिस्तान आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह बन गया है तो पाकिस्तान सरकार इन आरोपों को निराधार बताकर अपना दामन साफ बचाती रही जिसका दुष्परिणाम यह निकला कि पाकिस्तान के हालात अब इतने भयानक हो गए है कि जिनकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है। इसीलिए विगत दिन राष्टï्रपति आसिफ अली जरदारी को अपने निवास पर उच्च अधिकारियों व सेवानिवृत संघीय सचिवों की बैठक में बिना लाग लपेट के इस कड़वी सच्चाई को हलक से उतारकर यह स्वीकार करना पड़ा कि आतंकवादी पाकिस्तान में ही तैयार हो रहे है।

जरदारी का कहना है कि उनके देश ने ही आतंकवाद और कट्टरपंथ को पाल-पोस कर बड़ा किया है क्योंकि ऐसा करने के पीछे कोई तात्कालिक लाभ हासिल करना था। जरदारी का कहना है कि ऐसा भी नहीं है कि देश में आतंकवाद और कट्टरपंथ इस वजह से फला-फूला कि पाकिस्तान की राजनीतिक व प्रशासनिक ताकत कमजोर हुयी थी बल्कि कुछ राजनीतिक उद्देश्यों को तुरंत प्राप्त करने के लिए आतंकवाद को एक सशक्त हथियार के रूप में खड़ा करने की नीति अपनायी गयी। वही नीति अब पाकिस्तान की तबाही व बर्बादी का सबब बन रही है।

हालांकि जरदारी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि वो तत्कालिक लाभ क्या थे जिन्हें हासिल करने के लिए पाक शासकों को आतंकवाद का सहारा लेना पड़ा लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वो तात्कालिक लाभ भारत को कमज़ोर करना ही था। जहां तक भारत का सवाल है तो वो पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दंभ झेल रहा है और वो कहता रहा है कि कश्मीर में आतंकवाद के व्यापक प्रचार व प्रसार में सारा धन व बल पाकिस्तान की ज़मीन से ही मिल रहा है।

लेकिन पाकिस्तनी शासक जानबूझ कर इस सच्चाई पर पर्दा डालते रहे। मगर इस हकीकत से सारी दुनिया अच्छी तरह बाखबर थी! इसलिए जहां तक राष्टï्रपति जरदारी की बात है तो उन्होंने कोई बहुत बड़ा रहस्योदघाटन नहीं किया है बस एक सच्चाई को अपने मुंह से बयान कर सरकारी मुहर लगायी है। यद्यपि वो आतंकवाद के खिलाफ शुरु से ही बोलते रहे है लेकिन मुबंई हमलों के बाद सारी सच्चाई जानते हुए भी उनके विचार जिस तरह रोज़ रंग बदलकर सामने आए थे तो यही लगा था कि सच कहने से वो भी बच रहे हैं।

पर अब न जाने उन्हें यह साधूवाद अचानक कैसे प्राप्त हुआ कि एक ही झटके में उन्होंने अपने देश के पूर्व शासकों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया। इसकी बड़ी वजह यही हो सकती है कि आज पाकिस्तान गृहयुद्घ के कगार पर है अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, प्रांतवाद व विभिन्न सम्प्रदायों के बीच वैमनस्य चरम पर है। एक ओर तालिबान व अलकायदा के गुर्गे अपने बनाए हुए 'इस्लाम' के अनुसार खून की होली खेल रहे है तो दूसरी ओर पूर्व राष्टï्रपति जनरल जियाउल हक के काल में सशस्त्र की गयी धार्मिक जमाअतें भी आतंक का खेल खेल रही है। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में शासन नाम की कोई चीज ही नहीं है।

इन हालात में राष्ट्रपति ज़रदारी की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है। पाकिस्तान विकास के मार्ग पर अग्रसर हो, आम जनता खुशहाल, हो, शांति व्यवस्था का वातावरण कायम हो यह भारत ओर पाकिस्तान दोनों के हित में है। लेकिन भारत की ओर से शांति व सहअस्तित्व के निरंतर प्रयासों के बावजूद पाकिस्तानी शासक 'कश्मीर' से बाहर ही निकलना नहीं चाहते पाकिस्तान के शासक अब तक भारत विरोधी रणनीति अपना ही देश पर शासन करते रहे हैं, अफगानिस्तान को रूस से मुक्त कराने केलिए अमेरिका से मिले धन व हथियार जनरल जियाउलहक ने धर्म व सम्प्रदायों के नाम उपजी कट्टर संस्थाओं में बांट कर तात्कालिक लाभ हासिल किया, वो खुद तो हवा में ही बिखर गए लेकिन देश को आतंक के जाल में फंसा गए।

पाकिस्तान को समझना चाहिए कि भारत के साथ अपने सामाजिक, व्यापारिक व सांस्कृतिक रिश्तों को मजबूत करके ही वो आगे बढ़ सकता है। इसलिए पाकिस्तान के पूर्व शासकों की गलतियों को सुधारने का अगर ज़रदारी में दम है तो वो आतंकवाद के खातमे के लिए आर-पार की लड़ायी के लिए उठ खड़े हों बशर्त सेना भी उनका साथ दे तो एक पाक साफ पाकिस्तान बनने में कोई ज्य़ादा समय नहीं लगेगा।

लालू की घेराबंदी और ममता का श्वेतपत्र

रेल बजट के दिन से ही बिहार के नेता लालू प्रसाद पर राजनीतिक मुसीबतों के आने का खतरा शुरू हो गया हैं। राज्यसभा में भाजपा संसदीय दल के नेता अरुण जेटली ने रेल मंत्रालय को एक ऐसे मंत्रालय के रूप में पेश किया जो अपने काम के अलावा पूरी दुनिया के काम करता रहता है। मेडिकल कालेज खोलना, अखबार निकालना कुछ ऐसे काम हैं जो रेल मंत्रालय की मुख्य प्राथमिकता नहीं है लेकिन सरकार उसी पर ध्यान ज्यादा दे रही है।

रेल सुरक्षा और यात्री सुविधा जैसे जरूरी काम रेल मंत्रालय की मुख्य सूची से हट गए हैं। उन्होंने रेलमंत्री का मजाक उड़ाते हुए कहा कि वासुमती मंदिर ट्रस्ट को अधिग्रहीत कर के उसके अखब़ार निकालने की योजना का रेल मंत्रालय से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। रेल बजट के दिन दिए जाने वाले रेलमंत्री के भाषण पर समाजवादी पार्टी के प्रोफेसर राम गोपाल यादव ने बहुत ही गंभीर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि रेलमंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव ने कुछ घोषणाएं की थीं जो अब रिकार्ड में नहीं हैं।

उपसभापति ने कहा कि यह मामला दूसरे सदन का है लिहाजा वे उस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते लेकिन इस बात की गंभीरता के मद्देनजर इसकी जांच की प्रक्रिया शुरू कराई जाएगी। रामगोपाल यादव ने सरकार पर और भी गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव ने अपने बजट भाषण में मैनपुरी होते हुए एक रेलवे लाइन की बात की थी। उनके भाषण का वह हिस्सा रिकॉर्ड में नहीं है। उन्होंने कहा कि भाषण की सी.डी. उपलब्ध है। उसको दिखाकर वे अपनी बात को सिद्घ करेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे।

प्रो. यादव ने आरोप लगाया कि रेलमंत्री के भाषण को सरकार गंभीरता से नहीं लेती। उनका आरोप है कि रेलमंत्री के रूप में माधवराव सिंधिया ने बजट भाषण के दौरान जो वायदे किए थे, उनको भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। बाद के भाषणों का भी वही हश्र हुआ कुछ ऐसी योजनाओं पर भी अभी काम शुरू नहीं हुआ है जिनका उदघाटन तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। प्रो. यादव ने सुझाव दिया कि रेल मंत्रालय को चाहिए कि वह बजट भाषणों के दौरान पहले के मंत्रियों के वायदों को पूरा करने की एक योजना बनाए।

अगर अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पूरा करने पर ही ध्यान रखा जाय तो देश का बहुत भला होगा। लालू प्रसाद की मित्र पार्टी के नेता की ओर से की गई इस टिप्पणी का मतलब बहुत ही गंभीर है। यह इस बात का भी संकेत है कि राजद के अध्यक्ष बहुत तेजी से मित्र खो रहे हैं। रेलमंत्री ममता बनर्जी के भाषण के दौरान लालू पर हुए कटाक्ष राजद सुप्रीमो के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं थे। उसी भाषण में उन्होंने लालू प्रसाद के ऊपर रेल प्रशासन को ठीक से न चलाने का भी संकेत दिया था।

उनका आरोप था कि अंतरिम बजट के दौरान जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनको हासिल कर पाना संभव है नहीं है लिहाजा ममता के बजट में लक्ष्यों में संशोधन किए जा रहे हैं। यह बहुत ही गंभीर बात है क्योंकि यह अंतरिम बजट पेश करने वाले की राजनीतिक क्षमता पर टिप्पणी भी है। लेकिन लालू प्रसाद के लिए इससे भी गंभीर बात यह है कि ममता बनर्जी ने घोषणा कर दी कि रेलमंत्रालय के पिछले पांच साल के कामकाज पर एक श्वेतपत्र लाया जायेगा।

ममता बनर्जी के रेल भाषण में कही गईं बहुत सी बातें पूरी नहीं हो पाएंगी इसमें दो राय नहीं है। अब तक यह बात सभी जानते थे लेकिन मंगलवार के दिन राज्यसभा में प्रो. रामगोपाल यादव की घोषणा, कि रेलमंत्री के भाषण के कुछ अंशों को रिकार्ड से गायब कर दिया गया है, बहुत ही गंभीर है। श्वेत पत्र में इस बात पर भी चर्चा हो सकती है जो लालू के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा करेगी। एक बात और महत्वपूर्ण है कि बजट भाषण की बाकी बातें भले भूल जायं लेकिन लालू को नुकसान पहुंचाने की गरज से उनके बारे में प्रस्तावित श्वेत पत्र के मामले में कोई चूक नहीं होगी।

लालू की पोल खोलने के लिए व्याकुल रेल मंत्रालय के कुछ अफसर इस बात को ठंडे बस्ते में कभी नहीं जाने देगे। जब भी कभी श्वेतपत्र आएगा लालू यादव की कार्यशैली पर एक बार चर्चा अवश्य होगी जोकि लगभग निश्चित रूप से राजनीतिक नुकसान पहुंचाएगी। लालू के आजकल के आचरण को देखकर भी लगने लगा है कि वे आजकल झल्लाए हुए हैं। बजट भाषण के दौरान ममता बनर्जी को भी उन्होंने कई बार टोकने की कोशिश की जिसका ममता पर तो कोई खास असर नहीं पड़ा लेकिन लालू प्रसाद की झुंझलाहट बढ़ाने में सहायक रहा।

लोकसभा में फिर लालू प्रसाद की झल्लाहट नजर आई। सदन में प्रश्नकाल के दौरान अध्यक्ष ने नक्सल हिंसा के बारे में लालू प्रसाद को पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति दी। उठकर उन्होंने नक्सल समस्या पर भाषण देना शुरू कर दिया। जब अध्यक्ष ने उन्हें चेताया कि वे अपना प्रश्न पूछें तो लालू जी नाराज हो गए और अध्यक्ष पर ही आरोप जड़ दिया कि हम जानते हैं कि आप हमें नहीं बोलने देंगी। झल्लाहट लालू प्रसाद के व्यक्तित्व का हिस्सा कभी नहीं रहा। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वे संतुलित रहते हैं लेकिन आजकल उनके व्यक्तित्व का यह नया स्वरूप देखकर लगता है कि उनको अंदाज है कि कांग्रेस उनके आगे के राजनीतिक सफर को मुश्किल करने की मंसूबाबंदी कर चुकी है।

ममता बनर्जी का प्रस्तावित श्वेत पत्र लालू को मुश्किल में डाल सकता है। इस बारीकी को समझने के लिए लोकसभा चुनाव 2009 की कुछ झलकियों पर नजर डालना पड़ेगा। चुनाव के पहले लालू प्रसाद अकसर कहा करते थे कि उनके बिना कोई सरकार नहीं बनेगी। बातों बातों में वे कांग्रेस की खिल्ली भी उड़ाया करते थे। उसी दौर में एक बार मीडिया से मुखातिब प्रणब मुखर्जी ने कह दिया था कि केंद्र सरकार में लालू की भूमिका बहुत पक्की नहीं है, यहां तक कि उनकी अपनी कुर्सी की भी बहुत संभावना अधिक नहीं होगी।

लालू प्रसाद ने इस बात का बुरा माना था और सोनिया गांधी से शिकायत की थी। संयेाग की बात कि लालू का वही राजनीतिक भविष्य हुआ जिसकी प्रणब मुखर्जी ने संभावना जताई थी। सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी और प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक संबंध आजकल बहुत ही ठीक हैं इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के बंगाल स्कूल के नेता मिलकर लालू यादव को औकात बोध का ककहरा पढ़ा रहे हो और उनको एहसास करा रहे हों कि सत्ता पाने पर भी अपनी सीमाओं की पहचान रखना भलमन साहत का लक्षण तो है ही, अच्छी राजनीति का बुनियादी सिद्घांत भी है।