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Monday, March 24, 2014

लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपराधियों को संसद और विधानमंडलों से बाहर रखना होगा


शेष नारायण सिंह
आजकल राजनीति में भले आदमियों के साथ साथ अपराधी भी बड़ी संख्या में देखे जाते हैं . लोकसभा और विधान सभाओं में इनकी संख्या खासी है. पहली बार १९८० में बड़ी संख्या में विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में बड़ी संख्या में कांग्रेस के तत्कालीन युवराज संजय गांधी ने अपराधियों या आपराधिक चावी वाले दबंगों को टिकट बांटी थी. उसके बाद तो सभी पार्टियों में अपराधियों को टिकट देने का फैशन हो गया . एक से एक अपराधी और बाहुबली लोग लोकतंत्र के इन पवित्र केन्द्रों में पंहुचने लगे. दोनों बड़ी पार्टियों के अलावा क्षेत्रीय पार्टियों में भी बड़ी तादाद अपराधियों की है .सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया की किसी भी विधान मंडल का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को अपनी आपराधिक छवि का रिकार्ड हलफनामे की शक्ल में जमा करना पडेगा . सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि जब जनता को मालूम हो जाएगा कि आपराधिक छवि के लोग उम्मीदवार हैं तो वह उनको वोट नहीं देगी .अपने एक विद्वत्तापूर्ण लेख में विद्वान् राजनीतिक विश्लेषक सर्वमित्रा  सुरजन ने लिख दिया था कि  परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो आपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंपरंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है। 'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनलने अपनी रिपोर्ट में संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत को स्थान 72वां प्रदान किया है।
स्वतंत्रता के बाद पिछले 60 वर्ष में अपने देश में लोकतंत्र मजबूत तो हुआ हैलेकिन राजनीति का अपराधीकरण भी बढ़ा हैजिससे चुनावों के साफ-सुथरे होने पर संदेह के बादल गहराने लगे हैं। दिनों-दिन यह मुद्दा लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से अहम होता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपराधी तत्वों की सहायता लेना तो अब बहुत छोटी बात हो गई है अब तो बाकायदा उनकों टिकट देकर उपकृत किया जा रहा है।  भारत का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें किसी न किसी प्रकार के अपराधी न हो। 
लोकसभा और राय विधानसभाओं में यदि अपराधियों का रिकॉर्ड देखा जाए तो यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि अपराधियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया था कि यदि कोई व्यक्ति संसद या विधानसभा के चुनाव का प्रत्याशी है तो वह यह हलफनामा देगा कि उसके खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह अनुमान था कि जब वोटरों को किसी व्यक्ति का आपराधिक रिकॉर्ड मालूम होगा तो वह उसे किसी हालत में वोट नहीं देगा। परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो अपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंपरंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है।'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनलने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत का स्थान 72वां है। यहां तक कि संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लगभग एक तिहाई सांसद हैंजिन पर कुल 413 मामले लंबित हैं।
लोकसभा और विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या तब और ज़्यादा बढ़ गई जब एक पार्टी के बदले कई पार्टियों की मिलीजुली सरकार बनने लगीखासकर क्षेत्रीय पार्टियों में इतने अपराधी भर पड़े हैं कि उनकी कोई गणना भी नहीं कर सकता है। तर्क दिया जाता है कि जब तक किसी व्यक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपराध साबित नहीं हो जाता है तब तक उसे अपराधी कैसे कह सकते हैं। पिछले अनेक वर्षों से तमाम संगठन अपराधियों के निर्वाचित होने के अधिकार पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। फिर भी विधानसभाओं तथा संसद में अपराधियों की संख्या कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। कोई भी यह नहीं बताता है कि जनता आखिर अपराधियों को क्यों चुन कर भेजती है। यह तो तय है कि उनके गले पर अपराधियों की बन्दूकें नहीं लगी होतीं । और तो और अब तो बात यहाँ तक आ चुकी है कि जो जितना बड़ा अपराधी होगा उसके जीतने की उम्मीद भी अधिक होगी । 
जब तक इस सवाल का जवाब नहीं तलाशा जाएगा कि आम जनता ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले  नेताओं को छोड़कर अपराधियों को ही वोट क्यों देती हैतबतक अपराधियों को निर्वाचित होने से नहीं रोका जा सकता है। यह तय है कि अपराधियों को निर्वाचित होने से रोकने के लिये बनाए जाने वाले कानून एक दिन स्वयं लोकतंत्र का ही गला घोंट देंगे। एक और चौंकाने वाली बात है कि स्विस सरकार के नवीन घोषणा के अनुसार यदि भारत सरकार उनसे मांगे तो वह यह बता सकते हैं कि उनके बैंकों में किन भारतीयों के कितने पैसे जमा है। हालत बहुत ही चिंताजनक हैं लेकिन इसी में से कहीं उम्मीद भी नज़र आने लगी है .
केंद्र सरकार के विधि आयोग ने अपनी २४४वीं रिपोर्ट दाखिल कर दिया है .सुप्रीम कोर्ट ने एक मुक़दमें की सुनवाई के दौरान विधि आयोग को आदेश दिया था कि चुनाव जन प्रतिनिधित्व कानून १९५१ में सुधार के लिए सुझाव तैयार किये जाएँ . माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अपराधियों को राजनीति से बाहर रखना बहुत ज़रूरी है और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं .सरकार ने अब इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश कर दिया है .दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश  जस्टिस ए पी शाह की अध्यक्षता वाले इस आयोग की रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए हैं वे अपराधियों को राजनीति से बाहर रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं . आयोग की रिपोर्ट में सख्त प्रावधान तो  हैं लेकिन ऐसे सुझाव भी हैं जिनको लागू किये जाने पर कानून का दुरुपयोग रोक जा सकेगा .रिपोर्ट का नाम ही " चुनावी अयोग्यताएं " बताया गया है .इसमें एक  महत्वपूर्ण प्रावधान तो यही है कि गलत हलफनामा देने वाले को जेल की सज़ा बढ़ा दी जानी चाहिए . अभी तक का प्रावधान यह है कि जब तक  मुक़दमे  का फैसला न हो जाए तब  तक किसी को चुनाव लड़ने से रोक नहीं  जा सकता . मौजूदा रिपोर्ट में लिखा है कि जब किसी भी अभियुक्त के खिलाफ आरोप तय हो जाएँ उसके बाद से उसे चुनाव के लिए पर्चा दाखिल करने से रोक दिया जाए . हालांकि जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि एफ आई आर लिखे जाने के बाद ही अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए लेकिन विधि आयोग का मानना  है कि यह उचित नहीं है . रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने से किसी नेता को चुनाव रोकने से रोकना संभव होने लगेगा तो पुलिस की मनमानी बढ़ जायेगी .इसलिए जब तक किसी स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया से न गुज़र जाए तब तक किसी भी जांच को  प्रामाणिक नहीं माना जाना चाहिए .अभी नियम यह  है कि किसी भी अदालत से सज़ा पाने वालों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए .आयोग का कहना है कि अगर नियम का दुरुपयोग रोकने की सही यवस्था की  जा सके तो अपराध तय होने के बाद ऐसे अभियुक्तों को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है जिनके अपराध में कम से कम पांच साल की सज़ा का प्रावधान हो . अभी तक देखा गया है कि सज़ा हो जाने के बाद अपराधी को रोकने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं है .भारतीय न्याय व्यवस्था की एक सच्चाई यह भी है कि मुक़दमों के अंतिम निर्णय में बहुत समय लगता है . बहुत सारे मामले ऐसेहैं जहां सबको मालूम रहता  है कि अपराधी कौन है लेकिन वह अदालत से बरी हो जाता है .हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की संभावना भी कम नहीं  है लेकिन लेकिन आयोग का कहना है की इसमें ऐसे नियम बनाए जा सकते हैं जिससे कानून का दुरुपयोग न हों .एक सुझाव यह भी है कि एम पी और एम एल ए के खिलाफ दाखिल मुक़दमों में साल भर के अन्दर फैसला आ जाना चाहिए . सुप्रीम कोर्ट ने इस एक सुझाव को मान लिया है और इस सन्दर्भ में फैसला भी दे दिया है .
विधि आयोग की मौजूदा सिफारिशों को मान लेने से अपराधियों को बाहर रखने में ज़रूरी मदद मिलेगी . यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि अगर फौरन कार्रवाई न हुयी तो बहुत देर हो जायेगी .इस चुनाव में भी साफ़ नज़र आ रहा  है कि ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है जो पूरी तरह से अपराधी हैं और संसद की गरिमा को निश्चित रूप से गिरायेगें . ऐसे लोगों पर लगाम लगाए जाने की ज़रुरत है .

Friday, May 4, 2012

संसद में राम गोपाल यादव --उनकी पार्टी परिणामी ज्येष्ठता के खिलाफ है लेकिन आरक्षण की समर्थक



 शेष नारायण सिंह 


नई दिल्ली,३ मई. उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से  नौकरियों में परिणामी ज्येष्ठता के मुद्दे पर आज समाजवादी पार्टी ने  राज्य सभा में बहुजन समाज पार्टी को घेरने की कोशिश की. समाजवादी पार्टी के महासचिव राम गोपाल यादव ने कहा कि अगर उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों में परिणामी ज्येष्ठता  का नियम लागू रहा तो अगले दस वर्षों में उत्तर प्रदेश में किसी भी विभाग का मुख्य अधिकारी सामान्य या ओ बी सी श्रेणी से हो  ही नहीं सकेगा. उन्होंने कहा कि  समाजवादी पार्टी सरकारी नौकरियों में आरक्षण का समर्थन करती है , सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के मामलों में वर्तमान सरकारी नीति का समर्थन करती है  लेकिन उनकी पार्टी परिणामी ज्येष्ठता के उत्तर प्रदेश सरकार  पदोन्नति वाले नियम ८ ए का विरोध करती है .

बहुजन समाज पार्टी के नेता सतीश मिश्र ने आज राज्य सभा में अल्पकालिक चर्चा के माध्यम से सरकारी नौकरियों में परिणामी ज्येष्ठता के विषय में चर्चा  की शुरुआत की.  भोजन के अवकाश के पहले का लगभग पूरा समय उन्हें  मिला और उन्होंने संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के हवाले से ऐसा माहौल बनाया जैसे सुप्रीम कोर्ट के २७ अप्रैल को  एम नागराज के  केस  में फैसला आ जाने के बाद देश से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों का आरक्षण ही समाप्त हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं  है . हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकारी नौकरियों  में पदोन्नति के समय के  आरक्षण को ख़त्म कर दिया गया है .  सतीश मिश्रा की पार्टी  की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने प्रधान मंत्री को इस सम्बन्ध में एक पत्र लिखा है कि उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जान जाति के कर्मचारियों एवं अधिकारियों को पिछले १८ वर्षों की सेवा में प्रोन्नति के समय मिलने वाले आरक्षण और वरिष्ठता की सुविधा को माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिनांक २७-०४-२०१२ ने एम नागराज के केस  के निर्णय के अंतर्गत असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है . मायावती ने लिखा है कि इस निर्णय का दूरगामी परिणाम केवल उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के  कर्मचारियों  पर ही नहीं बल्कि पूरे देश के ऐसे सभी अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर पडेगा . उन्होंने अपनी चिट्ठी में दावा किया कि इस फैसले के बाद पूरे देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जान नाती के अधिकारियों और कर्मचारियों में रोष व्याप्त है .  अपने भाषण में सतीश मिश्रा ने भी दावा किया था कि मायावती के आग्रह पर पूरे देश का  अनुसूचित जाति का आदमी गुस्से में है . मायावती के पहल के बारे में जानकारी मिलने पर लोग शांत हैं . लेकिन अगर  सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद  संविधान में संशोधन न किया गया तो ठीक नहीं होगा.
समाजवादी पार्टी ने मायावती के पत्र में लिखी हुई बातों को गलत बताया और आरोप लगाया कि ऐसा माहौल बनाने की  कोशिश की जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरक्षण ही ख़त्म हो जाएगा. पार्टी के नेता , राम गोपाल यादव ने बताया कि किसी भी तरह की अफवाह नहीं  फैलाई जानी चाहिये . आरक्षण में कोई परिवर्तन नहीं होने जा रहा  है . सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उसका कहीं कोई विरोध नहीं किया गया है . उन्होंने कहा कि  समाजवादी पार्टी  ने उत्तर प्रदेश की पूर्व सरकार के उस फैसले का विरोध  किया  था जिसमें उन्होंने नियमावली में नया  नियम , ८ए जोड़कर परिणामी ज्येष्ठता का प्रावधान कर दिया था . जिसके चलते एक ही साथ सर्विस में आने वाले सामन्य और ओ बी सी  श्रेणी के कर्मचारी को पदोन्नति के अवसर बहुत कम हो गए थे. उन्होंने कहा कि  आज उत्तर प्रदेश में रिज़र्वेशन पूरी  तरह से लागू है , कहीं कोई बैकलाग  नहीं है . इसके लिए मुलायम सिंह यादव की सरकार ने १९९४ में यह नियम बना दिया था कि अगर कोई अधिकारी आरक्षण के काम में कोताही करेगा तो उसे सज़ा दी जायेगी .राम गोपाल यादव के  भाषण के दौरान सदन में ही मौजूद मायावती ने  कहा कि वह हमने दबाव डाल कर करवाया था. संसद के  कई सदस्यों से बात करने से ऐसा लगा कि  लोग बहुजन समाज पार्टी की तरफ से ऐसा माहौल बनाने से असंतुष्ट थे जिसमें यह कहा जा रहा था कि जैसे आरक्षण ही ख़त्म हो रहा हो.उन्होंने कहा कि किसी को भी ऐसा माहौल नहीं बनाना  चाहिये जिस से लगे कि आरक्षण ख़त्म हो रहा है . सच्चाई यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर करने के लिए अगर किसी पार्टी का एजेंडा पूरे देश पर थोपा गया तो ठीक नहीं होगा.बहस में कांग्रेस , सी पी एम  समेत कई और पार्टियों के नेता भी चर्चा में शामिल हुए लेकिन सभी आरक्षण के पक्ष में बोलते रहे .  जबकि सच्चाई यह है कि  उत्तर प्रदेश की सरकार परिणामी ज्येष्ठता का विरोध करती है , आरक्षण का नहीं .

Friday, August 5, 2011

शातिर अपराधियों को संसद और विधानसभा में नहीं घुसने देगें

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार ने ऐसी पहल की है कि आने वाले दिनों में अपराधियों के लिए चुनाव लड़ पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. कानून मंत्रालय ने केंद्रीय मंत्रिपरिषद के विचार के लिए एक प्रस्ताव भेजा है जिसमें सुझाया गया है कि उन लोगों पर भी चुनाव लड़ने से रोक लगा दी जाए जिनको ऊपर किसी गंभीर अपराध के लिए चार्ज शीत दाखिल कर दी गयी है . अभी तक नियम यह है कि है जिन लोगों को दो साल या उस से ज़्यादा की सज़ा सुना दी गयी हो वे चुनाव नहीं लड़ सकते. इस नियम से अपराधियों को रोक पाना बहुत ही मुश्किल हो रहा है .मौजूद समाज की जो हालत है उसमें इलाके के दबंग को सज़ा दिला पाना बिलकुल असंभव होता है . लगभग सभी मामलों में गवाह नहीं मिलते . उनको डरा धमकाकर गवाही देने से हटा दिया जाता है . अगर किसी मामले में निचली अदालत से सज़ा हो भी गयी तो हाई कोर्ट में अपील होते है और वहां कई कई साल तक मुक़दमा लंबित रहता है . अपने देश के हाई कोर्टों में बयालीस हज़ार से ज्यादा मुक़दमें विचाराधीन हैं . ऐसी हालत में अपराधी इस बिना पर चुनाव लड़ता रहता है कि उसका केस अभी अपील में है. लुब्बो लुबाब यह है कि संसद और विधान सभाओं में अपराधी लोग बहुत ही आराम से पंहुचते रहते हैं . सब को मालूम रहता है कि चुनाव अपराधी व्यक्ति लड़ रहा है लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता क्योंकि कानून उसे अपील के तय होने तक निर्दोष मानने की सलाह देता है . यह भी देखा गया है कि चुनाव में बहुत सारे दबंग लोग आतंक के सहारे चुनाव जीत लेते हैं .

कानून मंत्रालय का नया प्रस्ताव अपराधियों को संसद और विधान सभाओं में पंहुचने से रोकने का कारगर उपाय साबित होने की क्षमता रखता है . प्रस्ताव यह है कि गंभीर अपराधों के अभियुक्त उन लोगों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाए जिनके खिलाफ ट्रायल कोर्ट में चार्जशीट दाखिल हो चुकी हो. प्रस्ताव में गंभीर अपराधों की लिस्ट भी दी गयी है जिसमें आतंक ,हत्या,अपहरण, नक़ली स्टैम्प पेपर या जाली नोटों से जुड़े हुए अपराध , बलात्कार के मामले , मादक द्रव्यों से सम्बंधित अपराध और देशद्रोह के मामले शामिल हैं . अगर प्रस्ताव को मंत्रिमंडल की मंजूरी मिली तो इसे संसद में विचार करने के लिए लाया जाएगा .वहां पास हो जाने के बाद इन अपराधों में पकडे गए लोगों को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा. पिछले कई वर्षों से अपराधियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की कोशिश होती रही है लेकिन बात को यह कह कर रोक दिया जाता है कि अगर अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोकने की बात को कानून बना दिया गया तो पुलिस के पास अकूत पावर आ जाएगा और वह किसी को भी पकड़ कर अभियुक्त बनाकर उसे चुनाव लड़ने से रोक देगी. अपने देश में पुलिस की यही ख्याति है , हर इलाके में ऐसे कुछ न कुछ ऐसे मामले मिल जायेगें जहां पुलिस ने लोगों को फर्जी तरीके से फंसाया हो. ज़ाहिर है जब भी इस तरह का मामला आया तो लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधर जमातों ने विरोध किया . नतीजा यह हुआ कि राजनीति में अपराधियों की संख्या बढ़ती गयी. पुलिस को किसी को राजनीति के दायरे से बाहर रख सकने की ताक़त देना लोकतंत्र के खिलाफ होगा लेकिन लोकतंत्र को अपराधियों के कब्जे से बचाने की कोशिश भी करना होगा. इसी सोच का नतीजा है कानून मंत्रालय का नया सुझाव . नए सुझाव में यह प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति पुलिस की मनमानी का शिकार नहीं होगा . गंभीर अपराधों के आरोप में पुलिस जिसको भी गिरफ्तार करेगी वह तब तक चुनाव लड़ने के लिए योग्य माना जाता रहेगा जब तक कि पुलिस की अर्जी पर अदालत अभियुक्त के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने का हुक्म न सेना दे. यानी नए प्रावधान में पुलिस की मनमानी की संभावना पर पूरी तरह से नकेल लगाने की व्यवस्था कर दी गयी है .नए सुझावों में यह भी इंतज़ाम किया गया है कि उन लोगों को भी चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा जिनको निचली अदालत से सज़ा मिल चुकी है और उनका केस ऊपरी अदालतों में अपील के तहत विचाराधीन है . अभी तक अपील के नाम पर चुनाव लड़ने वाले अपराधियों को भी इस नए सुझाव से रोका जा सकेगा.

करीब तीस वर्षों से अपराधी छवि के लोग चुनाव मैदान में उतरने लगे है.इसके पहले बड़े नेताओं की सेवा में ही अपराधी तत्व पाए जाते थे.लेकिन अस्सी के लोकसभा चुनाव में बहुत सारे शातिर अपराधियों को टिकट मिल गया था. उसके बाद तो यह सिलसिला ही शुरू हो गया .हर पार्टी में अपराधी छवि के लोग शामिल हुए और चुनाव जीतने लगे . बाद के वर्षों में जब टिकट दिया जाता था तो इंटरव्यू के वक़्त टिकटार्थी यह दावा करता था कि वह ज्यादा से ज्यादा बूथों पर क़ब्ज़ा कर सकता है .बूथ पर क़ब्ज़ा कर सकने की क्षमता के बल पर राजनीति में अपराधियों की जो आवाजाही शुरू हुई,उसी का नतीजा है कि आज राजनीति में अपराधियों का चौतरफा बोलबाला है . कई बार अपराधियों को रोकने की पहल हुई लेकिन लगभग सभी पार्टियां उसमें अडंगा लगा देती थीं क्योंकि उनकी पार्टियों के बहुत सारे नेताओं पर आर्थिक अपराध की धाराएं लगी हुई होती थी. देश भर में बहस शुरू हो जाती थी कि निजी दुश्मनी निकालने के लिए पुलिस वाले किसी को भी फंसा सकते हैं और इस तरह से मुक़दमों के चलते कोई भी चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो सकता है यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है . वैसे भी देश के बहुत सारे बड़े नेता आर्थिक अपराधों में फंसे हुए हैं.ज़ाहिर है वे ऐसा कोई भी कानून नहीं बनने देंगें जो उनकी राजनीतिक सफलता की यात्रा में बाधक होगा . कानून मंत्रालय से जो नए सुझाव आये हैं उनकी खासियत यह है कि आर्थिक अपराध वालों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की बात नहीं की गयी है . इसका नतीजा यह होगा कि राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता इस कानून के दायरे के बाहर हो जायेगें.गंभीर अपराधों की श्रेणी से आर्थिक अपराधों को बाहर रखकर सरकार ने बड़े नेताओं को बचाने की कोशिश की है लेकिन इसका फायदा यह होगा कि यह सुझाव संसद में पास हो जायेगें.हत्या,बलात्कार,देशद्रोह जैसे अपराधों में देश का कोई भी बड़ा नेता शामिल नहीं है . अपनी राजनीतिक बिरादरी को जानने वालों को विश्वास है कि अगर बड़े नेता खुद नहीं फंस रहे हैं तो वे शातिर अपराधियों को दरकिनार करने में संकोच नहीं करेगें. वैसे भी नए प्रस्तावों में पुलिस पर लगाम लगाने की पूरी व्यवस्था है. पुलिस के आरोप लगाने मात्र से कोई चुनाव लड़ने से वंचित नहीं हो जाएगा . पुलिस अगर किसी को गंभीर अपराध के आरोप में पकड़ती है तो उसे तफ्तीश करने के बाद ट्रायल कोर्ट में जाना होगा . अगर अदालत से चार्ज फ्रेम करने की अनुमति मिलेगी तभी कोई नेता चुनाव लड़ने से वंचित हो सकेगा . ज़ाहिर है कि नए कानून में राजनीतिक व्यवस्था को अपराधियों से मुक्त करनी की दिशा में क़दम उठाने की क्षमता है .हालांकि अभी बहुत ही शुरुआती क़दम है लेकिन आज देश के एक बड़े अखबार में खबर छप जाने के बाद इस विषय पर पूरे देश में बहस तो शुरू हो ही जायेगी और उम्मीद की जानी चाहिए कि बहस के बाद जो भी सुधार चुनाव प्रक्रिया में होगा , उससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को फायदा होगा.

Tuesday, July 27, 2010

महिलाओं का हुजूम देगा संसद पर दस्तक

शेष नारायण सिंह

नयी दिल्ली में महिला संगठनों की नेताओं ने आज ऐलान किया कि अब संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने से सरकार बच नहीं सकती. अपनी बात को और जोरदार तरीके से कहने के लिए महिलाओं का एक बड़ा हुजूम २९ जुलाई को नयी दिल्ली के जंतर मंतर के पास इकठ्ठा होगा और संसद के तरफ कूच करेगा . महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में पास हो चुका है . अब उसे लोक सभा को पास करना है . लोक सभा में पास होने के बाद कम से कम १५ राज्यों की विधान सभाओं में उसे मंज़ूर लेनी पड़ेगी . जिसके बाद राष्ट्रपति के दस्तख़त के बाद वह कानून बन जाएगा. यह आसान नहीं होगा और दिल्ली में जुटी महिला नेताओं को यह मालूम भी है . इसी लिए महिलाओं ने ऐलान किया है कि अब लड़ाई आर पार की होगी . और राजनीतिक दल महिलाओं को उनका हक देने में आनाकानी नहीं कर सकते . प्रेस कांफेरेंस को अनहद की शबनम हाशमी, जनवादी महिला समिति की सुधा सुन्दरम, सेंटर फोर सोशल रिसर्च की रंजना कुमारी और नेशल फेडरेशन ऑफ़ इन्डियन वीमेन की एनी राजा ने संबोधित किया . एनी राजा ने कहा कि यू पी ए सरकार ने बार बार कहा है कि वह बिल को पास करवाना चाहते हैं लेकिन लगता है कि उनके पास राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है .. जो दल महिला आरक्षण का विरोध कर रहे हैं वे महिलाओं की पुरुषों से बराबरी की बात को नहीं मानते . यह बात महिला अधिकार नेता, ज्योत्सना चटर्जी ने भी दोहराया . उन्होंने कहा कि पिछले १५ वर्षों से वे सभी पार्टियों के नेताओं से समर्थन के मांग करती रही हैं . जो लोग विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि उनके लिए महिलाओं के लिए १८० सीट छोड़ देने का फैसला करना बड़ा ही मुश्किल काम है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सुधा सुन्दरम ने कहा कि बिल का विरोध करने वाले पितृसत्तात्मक समाज को समर्थन करते हैं और आम सहमति के राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल करके महिला आरक्षण बिल को रोक रहे हैं .डॉ रंजना कुमारी ने कहा कि जब राज्य सभा में बिल पास कराया गया तो तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने तय कर रखा था . हालांकि बी जे पी, कांग्रेस और वाम मोर्चे में कहीं कोई भी राजनीतिक समझ का रिश्ता नहीं है सब एक दूसरे की मुखालिफ जमाते हैं लेकिन बिला पास हुआ क्योंकि यह आज के दौर की ऐतिहासिक आवश्यकता है . हम पूरी कोशिश करेगें कि बिल इस मानसून त्र में ही हर हाल में पास कर लिया जाए.. .

अनहद की संयोजक शबनम हाशमी ने कहा कि समाज के पुरातन पंथी लोग धर्म का इस्तेमाल करके बिल को रोकना चाहते हैं उन्होंने मांग की कि यू पी ए के नेताओं को चाहिए कि सामंती सोच के लोगों के मशविरे को दरकिनार करके महिला आरक्षण बिल्ल्के समर्थन में सामने आयें और सामाजिक बराबरी की दिशा में यह महान क़दम उठायें

Wednesday, August 5, 2009

जनता की संपत्ति की पूंजीवादी बंदर बांट

कृष्णा गोदावरी बेसिन से निकलने वाली गैस राष्ट्रीय और प्राकृतिक संपदा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के चक्कर में इस क्षेत्र की गैस की तलाश का काम अस्सी के दशक में रिलायंस ग्रुप की किसी कंपनी को दे दिया गया था। दिल्ली की राजनीति में रिलायंस और उसके सेठ धीरूभाई अंबानी का पिछले तीस साल से बहुत प्रभाव है। धीरूभाई ने उद्योग और व्यापार की दुनिया में बहुत तेजी से ऊंचाइयां तय की हैं। उनके निधन के बाद उनके दोनों बेटों ने कारोबार संभाल लिया था लेकिन कुछ दिन बाद ही मतभेद शुरू हो गए।

आज दोनों भाई अलग हैं और खूब लड़ रहे हैं। जैसा कि पूंजीवादी समाजों में होता है, एक-एक पैसे के लिए लड़ाई चल रही है। धीरूभाई अंबानी के जीवनकाल में ही इस परिवार का देश की राजनीति पर भारी प्रभाव था। उनके जाने के बाद उनके दोनों बेटों की राजनीतिक ताकत बिलकुल कम नहीं हुई है। आजकल कृष्णा गोदावरी गैस का मामला उद्योग व्यापार के साथ-साथ राजनीति के दायरे में भी आ चुका है।

पिछले हफ्ते लोकसभा में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस उत्तर प्रदेश के दादरी पावर प्लांट को दिए जाने में सरकारी गैर जिम्मेदारी का मामला जोर शोर से उठाया था और लोकसभा की कार्यवाही तक स्थगित हो गई थी। मामले के राजनीतिक महत्व के मद्देनजर सरकार ने सोमवार को बयान देने का वायदा किया था। वह बयान आ चुका है। लोकसभा में सरकारी बयानों की सधी हुई भाषा का इस्तेमाल करते हुए पेट्रोलियम मंत्री ने जो बयान दिया है, उससे हर तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं।

उन्होंने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के कृष्णा गोदावरी बेसिन से मिलने वाली गैस का बंटवारा करने के लिए एक नीति बनाई गई है, उसी नीति के हिसाब से बंटवारा होगा। यह नीति क्या है इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। ज़ाहिर है कि नीति है तो सरकारी कागजों में कहीं न कहीं दर्ज ज़रूर होगी। हां उनके बयान का अगला हिस्सा अनिल अंबानी खेमे को मायूस करने वाला है। उसमें मंत्री जी ने कहा कि कृष्णा गोदावरी बेसिन के डी ब्लाक की गैस ऐसे किसी प्लांट को एलाट नहीं की गई है जो उत्पादन की स्टेज तक नहीं पहुंचा है। यानी अनिल अंबानी ग्रुप के दादरी पावर प्लांट का कहीं कोई जिक्र नहीं है।

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुंख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में उत्तर प्रदेश के हितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया था। पेट्रोलियम मंत्री ने कहा कि दादरी प्लांट जब चल ही नहीं रहा है तो उसे गैस देने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने साफ किया जब प्लांट चलने लगेगा तो गैस की उपलब्धता की रौशनी में उसे गैस एलाट करने की बात पर विचार किया जाएगा। अपने इस बयान से पेट्रोलियम मेंत्री ने अंबानी बंधुओं के झगड़े और उससे संबद्घ राजनीति को एकदम नई दिशा दे दी है और निश्चित रूप से यह राउंड बड़े भाई मुकेश अंबानी की झोली में डाल दिया है। अनिल अंबानी की शिकायत यह नहीं है कि दादरी प्लांट चालू होने पर उन्हें गैस मिलेगी कि नहीं।

उनका आरोप है कि भाइयों के बीच कारोबार के बंटवारे के वक्त तय हुआ था कि अनिल अंबानी की कंपनियों के लिए कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस सस्ते दाम पर मिलेगी। हालांकि यह बात सार्वजनिक स्तर पर तो किसी को नहीं मालूम है लेकिन अंदर की बात को बुनियाद बनाकर गैस के बारे में समझौता हुआ था। आमतौर पर माना जाता है कि सरकार और रिलायंस के बीच हुए गैस के बंटवारे के समझौते में रिलायंस को बहुत ही रियायतें दी गई थीं। भाइयों के झगड़े के वक्त इन रियायतों को रिकॉर्ड पर तो नहीं लाया जा सकता था लेकिन अनिल अंबानी को अपनी कंपनियों के लिए मिलने वाली गैस की रियायती कीमत के जरिए बात दुरुस्त कर ली गई थी।

अब बाजार के रेट से गैस देने की बात करके मुकेश अंबानी खेमा अनौपचारिक समझौते से मुकर रहा है। सारी परेशानी की जड़ यही है। जहां तक राजनीतिक बिरादरी का सवाल है, वह इस मुद्दे पर पूरी तरह से विभाजित है। मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेसी नेता और पेट्रोलियम मंत्री पर आरोप लगाया है कि वह मुकेश अंबानी का पक्ष ले रहे हैं जबकि पेट्रोलियम मंत्री के करीबी लोगों का कहना है कि मुलायम सिंह यादव दूसरे अंबानी का पक्ष ले रहे हैं। इस सारी मारामारी में जनता की पक्षधरता वाली राजनीति बहुत कमजोर पड़ रही है।

सवाल पूछा जा रहा है कि कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस वास्तव में जनता से क्यों छीनी जा रही है जबकि जमीन की नीचे की हर संपदा राष्ट्र की संपत्ति होती है और राष्ट्र जनता का है। जब अस्सी के दशक में रिलायंस इंडस्ट्रीज को कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस ढूंढने का काम दिया गया था तो वह एक ठेकेदार की हैसियत से वहां गए थे। पिछले बीस वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि अंबानी परिवार जनता की उस संपत्ति का मालिक बन बैठा। यह सवाल बहुत ही गंभीर है और इसकी पूरी गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। नेताओं को भी चाहिए कि पूंजीपतियों के हित के साथ-साथ थोड़ा बहुत जनता का भी ध्यान दें।

Wednesday, July 29, 2009

लालू की घेराबंदी और ममता का श्वेतपत्र

रेल बजट के दिन से ही बिहार के नेता लालू प्रसाद पर राजनीतिक मुसीबतों के आने का खतरा शुरू हो गया हैं। राज्यसभा में भाजपा संसदीय दल के नेता अरुण जेटली ने रेल मंत्रालय को एक ऐसे मंत्रालय के रूप में पेश किया जो अपने काम के अलावा पूरी दुनिया के काम करता रहता है। मेडिकल कालेज खोलना, अखबार निकालना कुछ ऐसे काम हैं जो रेल मंत्रालय की मुख्य प्राथमिकता नहीं है लेकिन सरकार उसी पर ध्यान ज्यादा दे रही है।

रेल सुरक्षा और यात्री सुविधा जैसे जरूरी काम रेल मंत्रालय की मुख्य सूची से हट गए हैं। उन्होंने रेलमंत्री का मजाक उड़ाते हुए कहा कि वासुमती मंदिर ट्रस्ट को अधिग्रहीत कर के उसके अखब़ार निकालने की योजना का रेल मंत्रालय से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। रेल बजट के दिन दिए जाने वाले रेलमंत्री के भाषण पर समाजवादी पार्टी के प्रोफेसर राम गोपाल यादव ने बहुत ही गंभीर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि रेलमंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव ने कुछ घोषणाएं की थीं जो अब रिकार्ड में नहीं हैं।

उपसभापति ने कहा कि यह मामला दूसरे सदन का है लिहाजा वे उस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते लेकिन इस बात की गंभीरता के मद्देनजर इसकी जांच की प्रक्रिया शुरू कराई जाएगी। रामगोपाल यादव ने सरकार पर और भी गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव ने अपने बजट भाषण में मैनपुरी होते हुए एक रेलवे लाइन की बात की थी। उनके भाषण का वह हिस्सा रिकॉर्ड में नहीं है। उन्होंने कहा कि भाषण की सी.डी. उपलब्ध है। उसको दिखाकर वे अपनी बात को सिद्घ करेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे।

प्रो. यादव ने आरोप लगाया कि रेलमंत्री के भाषण को सरकार गंभीरता से नहीं लेती। उनका आरोप है कि रेलमंत्री के रूप में माधवराव सिंधिया ने बजट भाषण के दौरान जो वायदे किए थे, उनको भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। बाद के भाषणों का भी वही हश्र हुआ कुछ ऐसी योजनाओं पर भी अभी काम शुरू नहीं हुआ है जिनका उदघाटन तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। प्रो. यादव ने सुझाव दिया कि रेल मंत्रालय को चाहिए कि वह बजट भाषणों के दौरान पहले के मंत्रियों के वायदों को पूरा करने की एक योजना बनाए।

अगर अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पूरा करने पर ही ध्यान रखा जाय तो देश का बहुत भला होगा। लालू प्रसाद की मित्र पार्टी के नेता की ओर से की गई इस टिप्पणी का मतलब बहुत ही गंभीर है। यह इस बात का भी संकेत है कि राजद के अध्यक्ष बहुत तेजी से मित्र खो रहे हैं। रेलमंत्री ममता बनर्जी के भाषण के दौरान लालू पर हुए कटाक्ष राजद सुप्रीमो के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं थे। उसी भाषण में उन्होंने लालू प्रसाद के ऊपर रेल प्रशासन को ठीक से न चलाने का भी संकेत दिया था।

उनका आरोप था कि अंतरिम बजट के दौरान जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनको हासिल कर पाना संभव है नहीं है लिहाजा ममता के बजट में लक्ष्यों में संशोधन किए जा रहे हैं। यह बहुत ही गंभीर बात है क्योंकि यह अंतरिम बजट पेश करने वाले की राजनीतिक क्षमता पर टिप्पणी भी है। लेकिन लालू प्रसाद के लिए इससे भी गंभीर बात यह है कि ममता बनर्जी ने घोषणा कर दी कि रेलमंत्रालय के पिछले पांच साल के कामकाज पर एक श्वेतपत्र लाया जायेगा।

ममता बनर्जी के रेल भाषण में कही गईं बहुत सी बातें पूरी नहीं हो पाएंगी इसमें दो राय नहीं है। अब तक यह बात सभी जानते थे लेकिन मंगलवार के दिन राज्यसभा में प्रो. रामगोपाल यादव की घोषणा, कि रेलमंत्री के भाषण के कुछ अंशों को रिकार्ड से गायब कर दिया गया है, बहुत ही गंभीर है। श्वेत पत्र में इस बात पर भी चर्चा हो सकती है जो लालू के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा करेगी। एक बात और महत्वपूर्ण है कि बजट भाषण की बाकी बातें भले भूल जायं लेकिन लालू को नुकसान पहुंचाने की गरज से उनके बारे में प्रस्तावित श्वेत पत्र के मामले में कोई चूक नहीं होगी।

लालू की पोल खोलने के लिए व्याकुल रेल मंत्रालय के कुछ अफसर इस बात को ठंडे बस्ते में कभी नहीं जाने देगे। जब भी कभी श्वेतपत्र आएगा लालू यादव की कार्यशैली पर एक बार चर्चा अवश्य होगी जोकि लगभग निश्चित रूप से राजनीतिक नुकसान पहुंचाएगी। लालू के आजकल के आचरण को देखकर भी लगने लगा है कि वे आजकल झल्लाए हुए हैं। बजट भाषण के दौरान ममता बनर्जी को भी उन्होंने कई बार टोकने की कोशिश की जिसका ममता पर तो कोई खास असर नहीं पड़ा लेकिन लालू प्रसाद की झुंझलाहट बढ़ाने में सहायक रहा।

लोकसभा में फिर लालू प्रसाद की झल्लाहट नजर आई। सदन में प्रश्नकाल के दौरान अध्यक्ष ने नक्सल हिंसा के बारे में लालू प्रसाद को पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति दी। उठकर उन्होंने नक्सल समस्या पर भाषण देना शुरू कर दिया। जब अध्यक्ष ने उन्हें चेताया कि वे अपना प्रश्न पूछें तो लालू जी नाराज हो गए और अध्यक्ष पर ही आरोप जड़ दिया कि हम जानते हैं कि आप हमें नहीं बोलने देंगी। झल्लाहट लालू प्रसाद के व्यक्तित्व का हिस्सा कभी नहीं रहा। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वे संतुलित रहते हैं लेकिन आजकल उनके व्यक्तित्व का यह नया स्वरूप देखकर लगता है कि उनको अंदाज है कि कांग्रेस उनके आगे के राजनीतिक सफर को मुश्किल करने की मंसूबाबंदी कर चुकी है।

ममता बनर्जी का प्रस्तावित श्वेत पत्र लालू को मुश्किल में डाल सकता है। इस बारीकी को समझने के लिए लोकसभा चुनाव 2009 की कुछ झलकियों पर नजर डालना पड़ेगा। चुनाव के पहले लालू प्रसाद अकसर कहा करते थे कि उनके बिना कोई सरकार नहीं बनेगी। बातों बातों में वे कांग्रेस की खिल्ली भी उड़ाया करते थे। उसी दौर में एक बार मीडिया से मुखातिब प्रणब मुखर्जी ने कह दिया था कि केंद्र सरकार में लालू की भूमिका बहुत पक्की नहीं है, यहां तक कि उनकी अपनी कुर्सी की भी बहुत संभावना अधिक नहीं होगी।

लालू प्रसाद ने इस बात का बुरा माना था और सोनिया गांधी से शिकायत की थी। संयेाग की बात कि लालू का वही राजनीतिक भविष्य हुआ जिसकी प्रणब मुखर्जी ने संभावना जताई थी। सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी और प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक संबंध आजकल बहुत ही ठीक हैं इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के बंगाल स्कूल के नेता मिलकर लालू यादव को औकात बोध का ककहरा पढ़ा रहे हो और उनको एहसास करा रहे हों कि सत्ता पाने पर भी अपनी सीमाओं की पहचान रखना भलमन साहत का लक्षण तो है ही, अच्छी राजनीति का बुनियादी सिद्घांत भी है।