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Friday, May 4, 2012

संसद में राम गोपाल यादव --उनकी पार्टी परिणामी ज्येष्ठता के खिलाफ है लेकिन आरक्षण की समर्थक



 शेष नारायण सिंह 


नई दिल्ली,३ मई. उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से  नौकरियों में परिणामी ज्येष्ठता के मुद्दे पर आज समाजवादी पार्टी ने  राज्य सभा में बहुजन समाज पार्टी को घेरने की कोशिश की. समाजवादी पार्टी के महासचिव राम गोपाल यादव ने कहा कि अगर उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों में परिणामी ज्येष्ठता  का नियम लागू रहा तो अगले दस वर्षों में उत्तर प्रदेश में किसी भी विभाग का मुख्य अधिकारी सामान्य या ओ बी सी श्रेणी से हो  ही नहीं सकेगा. उन्होंने कहा कि  समाजवादी पार्टी सरकारी नौकरियों में आरक्षण का समर्थन करती है , सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के मामलों में वर्तमान सरकारी नीति का समर्थन करती है  लेकिन उनकी पार्टी परिणामी ज्येष्ठता के उत्तर प्रदेश सरकार  पदोन्नति वाले नियम ८ ए का विरोध करती है .

बहुजन समाज पार्टी के नेता सतीश मिश्र ने आज राज्य सभा में अल्पकालिक चर्चा के माध्यम से सरकारी नौकरियों में परिणामी ज्येष्ठता के विषय में चर्चा  की शुरुआत की.  भोजन के अवकाश के पहले का लगभग पूरा समय उन्हें  मिला और उन्होंने संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के हवाले से ऐसा माहौल बनाया जैसे सुप्रीम कोर्ट के २७ अप्रैल को  एम नागराज के  केस  में फैसला आ जाने के बाद देश से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों का आरक्षण ही समाप्त हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं  है . हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकारी नौकरियों  में पदोन्नति के समय के  आरक्षण को ख़त्म कर दिया गया है .  सतीश मिश्रा की पार्टी  की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने प्रधान मंत्री को इस सम्बन्ध में एक पत्र लिखा है कि उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जान जाति के कर्मचारियों एवं अधिकारियों को पिछले १८ वर्षों की सेवा में प्रोन्नति के समय मिलने वाले आरक्षण और वरिष्ठता की सुविधा को माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिनांक २७-०४-२०१२ ने एम नागराज के केस  के निर्णय के अंतर्गत असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है . मायावती ने लिखा है कि इस निर्णय का दूरगामी परिणाम केवल उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के  कर्मचारियों  पर ही नहीं बल्कि पूरे देश के ऐसे सभी अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर पडेगा . उन्होंने अपनी चिट्ठी में दावा किया कि इस फैसले के बाद पूरे देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जान नाती के अधिकारियों और कर्मचारियों में रोष व्याप्त है .  अपने भाषण में सतीश मिश्रा ने भी दावा किया था कि मायावती के आग्रह पर पूरे देश का  अनुसूचित जाति का आदमी गुस्से में है . मायावती के पहल के बारे में जानकारी मिलने पर लोग शांत हैं . लेकिन अगर  सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद  संविधान में संशोधन न किया गया तो ठीक नहीं होगा.
समाजवादी पार्टी ने मायावती के पत्र में लिखी हुई बातों को गलत बताया और आरोप लगाया कि ऐसा माहौल बनाने की  कोशिश की जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरक्षण ही ख़त्म हो जाएगा. पार्टी के नेता , राम गोपाल यादव ने बताया कि किसी भी तरह की अफवाह नहीं  फैलाई जानी चाहिये . आरक्षण में कोई परिवर्तन नहीं होने जा रहा  है . सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उसका कहीं कोई विरोध नहीं किया गया है . उन्होंने कहा कि  समाजवादी पार्टी  ने उत्तर प्रदेश की पूर्व सरकार के उस फैसले का विरोध  किया  था जिसमें उन्होंने नियमावली में नया  नियम , ८ए जोड़कर परिणामी ज्येष्ठता का प्रावधान कर दिया था . जिसके चलते एक ही साथ सर्विस में आने वाले सामन्य और ओ बी सी  श्रेणी के कर्मचारी को पदोन्नति के अवसर बहुत कम हो गए थे. उन्होंने कहा कि  आज उत्तर प्रदेश में रिज़र्वेशन पूरी  तरह से लागू है , कहीं कोई बैकलाग  नहीं है . इसके लिए मुलायम सिंह यादव की सरकार ने १९९४ में यह नियम बना दिया था कि अगर कोई अधिकारी आरक्षण के काम में कोताही करेगा तो उसे सज़ा दी जायेगी .राम गोपाल यादव के  भाषण के दौरान सदन में ही मौजूद मायावती ने  कहा कि वह हमने दबाव डाल कर करवाया था. संसद के  कई सदस्यों से बात करने से ऐसा लगा कि  लोग बहुजन समाज पार्टी की तरफ से ऐसा माहौल बनाने से असंतुष्ट थे जिसमें यह कहा जा रहा था कि जैसे आरक्षण ही ख़त्म हो रहा हो.उन्होंने कहा कि किसी को भी ऐसा माहौल नहीं बनाना  चाहिये जिस से लगे कि आरक्षण ख़त्म हो रहा है . सच्चाई यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर करने के लिए अगर किसी पार्टी का एजेंडा पूरे देश पर थोपा गया तो ठीक नहीं होगा.बहस में कांग्रेस , सी पी एम  समेत कई और पार्टियों के नेता भी चर्चा में शामिल हुए लेकिन सभी आरक्षण के पक्ष में बोलते रहे .  जबकि सच्चाई यह है कि  उत्तर प्रदेश की सरकार परिणामी ज्येष्ठता का विरोध करती है , आरक्षण का नहीं .

Monday, April 30, 2012

अखिलेश यादव को मायावती जैसा साबित करने के चक्कर में हैं दिल्ली दरबार के कुछ पत्रकार


 

शेष नारायण सिंह 

करीब डेढ़ महीने पहले उत्तर प्रदेश में नई सरकार ने शपथ ली थी. इन पैंतालीस दिनों में  बहुत कुछ बदला है . लेकिन अजीब बात है कि उस परिवर्तन के बारे में कुछ भी लिखा नहीं जा  रहा है . दिल्ली के सत्ता के गलियारों में जहां कहीं भी एकाध लोग यह कहते पाए जाते हैं कि उत्तर प्रदेश में हालात पहले से बेहतर हैं , उन्हें फ़ौरन नकलेल लगाने  की कोशिश की जाती है .उन्हें डांट दिया जाता है कि सरकार की चापलूसी करने की ज़रुरत नहीं है . पत्रकार के रूप में हमारा कर्त्तव्य है कि हम सरकारों के खिलाफ लिखते  रहें, उनको हमेशा  चौकन्ना रहने के लिए मजबूर करते रहें. यह उपदेश देने वालों में वे लोग भी शामिल होते हैं जो राहुल गांधी के दलित प्रेम के बारे में टेलिविज़न पर  राग दरबारी में राहुल रासो गाया करते थे. दिल्ली में एक अजीब माहौल बन रहा है कि  उत्तर प्रदेश की मौजूदा  सरकार के खिलाफ कुछ न कुछ लिखना ज़रूरी है  वरना निष्पक्ष पत्रकार के रूप में पहचान नहीं बन पायेगी. यहाँ  इस विषय पर बात नहीं की जायेगी कि राहुल  गांधी की छींक को भी खबर बनाकर अभिभूत होने वालों और अखिलेश यादव के राजनीतिक  निर्णयों को मामूली बताने वालों की मानसिकता क्या है .अभी डेढ़ महीने पहले उत्तर प्रदेश की जनता ने इस मानसिकता  वालों को उनकी औकात बता दी थी और राजनीति के जनवादीकरण की मिसाल पेश की थी.  दिल्ली में एक ऐसा वर्ग है  जो लगातार कोशिश कर रहा है कि उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार को राज्य की पिछली सरकार के खांचे से बाहर ही न आने दिया जाए. दोनों सरकारों की तुलना ऐसे बिन्दुओं पर की जाए जिनपर डेढ़ महीने में कोई बदलाव हो ही नहीं सकता . मसलन अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के साथ साथ  ही  टेलिविज़न चैनलों पर  हाहाकार मच गया था कि राज्य में अपराध बढ़ रहा है . अब सब को मालूम है कि जिस राज्य में अपराध और राजनीति में चोली दामन का साथ है वहां बिजली के स्विच ऑन  या ऑफ़ करने से अपराध पर रोक नहीं लग जायेगी. उन मुद्दों पर चर्चा होने ही नहीं दी जा रही है जहां मौलिक परिवर्तन हो रहे हैं .   इसके साथ ही एक और कोशिश हो रही है कि अगर कोई पत्रकार अखिलेश यादव की सकारात्मक बातों का उल्लेख करता है तो उसे  हड़का कर यह बता दिया जाये कि भाई अखिलेश यादव की तारीफ़ करोगे तो पत्रकारिता की कसौटी पर खरे नहीं उतरोगे. ऐसे माहौल में राज्य में पिछले ४५ दिनों की राजनीति का सही आकलन करना बहुत पेचीदा काम हो गया है लेकिन आकलन होना ज़रूरी है क्योंकि दिल्ली में बैठे अकबर रोड या अशोक रोड वाली पार्टियों के  कृपापात्र पत्रकारों के नागपाश से तो राजनीतिक  विश्लेषण को बाहर लाना ही पड़ेगा. इस काम को करने के लिए उन नौजवान पत्रकारों को भी आगे झोंकना ठीक नहीं होगा जो अभी पत्रकारिता में अपनी रोज़ी रोटी तलाश करने के लिए मजबूर हैं और उनके अखबार में शीर्ष  पदों  पर  वही लोग विद्यमान हैं जो अपनी सोच  को ही राजनीतिक विश्लेषण बना कर पेश कर देते हैं . उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मुख्यमंत्री के काम काज की जांच परख के लिए किसी ऐसे विश्लेषक की ज़रुरत है  जिसे दिल्ली के सत्ताधीश पत्रकार मजबूर न कर सकें  और जिसे वेब पोर्टल की वैकल्पिक मीडिया की दुनिया में सर पर कफ़न बाँध कर घूम रहे नौजवान पत्रकार, अपना बंदा मानते हों .  वैकल्पिक मीडिया के उन्हीं सूरमाओं की  सदिच्छा  के पाथेय के साथ यह विश्लेषण करने की कोशिश की जा रही है .

डेढ़ महीने पहले सत्ता में आई सरकार ने बहुत कुछ बदलने की शुरुआत की है .  सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि लखनऊ में एकाधिकारवादी सत्ता  का पर्याय बन चुके पंचम तल के आतंक को कम किया है .पिछली सरकार में सब कुछ पंचम तल से ही तय होता था और उसमें किसी से भी राय सलाह नहीं ली जाती थी. मुख्य मंत्री का सीधा संवाद केवल एक अफसर से था और उसको भी केवल हुक्म सुनाया जाता था . उसकी ड्यूटी थी  कि वह मुख्य मंत्री के हुक्म का पालन करवाए. बताते हैं कि हुक्म का पालन करवाने के चक्कर में वह अफसर जिलों में तैनात आई ए एस और आई पी एस  अफसरों को  भद्दी भद्दी गालियाँ भी  देता था. जब मुझे यह पता लगा तो मैं सन्न रह गया था क्योंकि आई ए एस या आई पी एस में भर्ती होना कोई हंसी खेल नहीं है . वैसे भी इन सेवाओं में आते वक़्त नौजवान केवल संविधान को लागू करने की शपथ लेता है और उसके अनुसार ही काम करने की क़सम के साथ सरकार में प्रवेश करता है . उसे गाली देने का हक किसी को नहीं है . लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उसे अपनी गरिमा का रक्षा खुद ही करनी चाहिए . अगर उसने गाली खाकर प्रतिरोध नहीं किया तो वह भी अपनी हालत के लिए जिम्मेवार है . हो सकता  है कि रिश्वत की गिज़ा  के चक्कर में वह  फजीहत झेल रहा हो . क्योंकि उसी लखनऊ में ऐसे बहुत सारे अफसर हैं जो अपनी गरिमा के साथ राज्य सरकार की सेवा कर रहे हैं . किसी भी पंचम तल वाले की बेअदबी के मोहताज  नहीं है .पिछले डेढ़ महीने में यह परिवर्तन आया है . अब कोई भी कलेक्टर या पुलिस कप्तान , पंचम तल के किसी अफसर की गाली नहीं खा  रहा है . यह बड़ा  परिवर्तन है . इसी से जुड़ा हुआ एक और परिवर्तन भी पता चल रहा है कि ट्रांसफर पोस्टिंग का धंधा भी बंद हो चुका है . पिछले पांच वर्षों के दौरान जिन लोगों ने यू पी पर नज़र रखा है  उन्हें मालूम है कि किसी भी मलाईदार तैनाती के लिए  तत्कालीन पंचम  तल के किसी एजेंट के पास रक़म  पंहुचा कर ही अफसर  चैन की साँस लेता था. किसी भी सरकार की नीतियों को लागू करने का काम अफसरों का   ही होता है. अगर वे ही घूस की ज़िंदगी जी रहे हों  तो जनहित का काम कर पाना उनके बूते की बात नहीं है. अगर कोई  सरकार अफसरों को भय मुक्त माहौल में काम करने की सुविधा दे रही है तो उत्तर प्रदेश की समकालीन हालात में यह भी अपने आप में बड़ी उपलब्धि है . 
पिछले डेढ़ महीने में एक और संकेत बिकुल साफ़ नज़र आ  रहा है . पंचम तल का आतंक खतम होने के साथ ही  लखनऊ में सत्ता का विकेंद्रीकरण हो रहा  है . अब  किसी भी विभाग में हो रही गड़बड़ियों के लिए सम्बंधित मंत्री की आलोचना हो रही है .इसका मतलब यह है कि अब मंत्री लोग अपने विभागों की फाइलें निपटा रहे हैं और फैसले ले रहे हैं.उत्तर प्रदेश के बाहर वालों को यह बात अजीब लग सकती है लेकिन सच्चाई यह है कि मायावती की सरकार में हर फैसला मुख्यमंत्री के दफ्तर में ही  होता था.  किसी भी मंत्री  की औकात नहीं थी कि वह कोई फैसला ले ले . मंत्रियों को उनके विभाग के फैसले की जानकारी तक नहीं दी जाती थी. हाँ कुछ मंत्री पंचम तल तक अपना  रसूख बनाये रहते थे तो उन्हें अपने विभाग के फैसलों के बारे में अखबारों में छपने के पहले पता लग जाता था.   मायावती के राज में पंचम तल पर जो बहुत सारे अफसर तैनात थे उन के बीच  सरकार के विभाग  बाँट दिए गए थे और वे ही फैसले लेते थे . मंत्री बेचारे को तो अखबारों के ज़रिये ही पता लगता था  या अगर उसने अपने विभाग के प्रमुख सचिव की कृपा अर्जित कर  रखी थी तो उसे अखबारों में जाने के पहले  खबर का पता लग जाता था. आज स्थिति बिलकुल अलग है . हर विभाग का मंत्री अपने फैसले ले रहा है लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं कि मुख्य मंत्री के अधिकार में किसी तरह की कमी आई है .
नौकरशाही को उसकी सही जगह पर लाने की जो कोशिश मौजूदा मुख्यमंत्री ने की है उसके नतीजे अभी  आना शुरू नहीं हुए हैं. लेकिन यह तय है कि नौकरशाही को उसकी ज़िम्मेदारी  निभाने के लिए जो स्पेस चाहिए  वह बहुत दिन बाद मिलना शुरू हो गया है. उत्तर प्रदेश से मुहब्बत करने वालों को उम्मीद हो गयी है कि अब  सरकारी अफसर भी अपना काम नियमानुसार करेगें और अपने मातहत अफसरों को अपना काम करने देगें. 

पिछले पंद्रह वर्षों में जो भी मुख्यमंत्री आया है उसने गौतम बुद्ध नगर जिले के नॉएडा और ग्रेटर नॉएडा का खूब आर्थिक दोहन किया है .मायावती के राज में यह काम खुद माननीय मुख्यमंत्री या उनके भाई साहेब की सरपरस्ती में होता था . मुलायम सिंह यादव के राज में यह  काम उनके बहुत करीबी  नेता और बाबू साहेब के नाम से  विख्यात उनकी पार्टी के महामंत्री जी किया करते  थे.  बीजेपी के सत्ता में रहने पर तो कई ऐसे केंद्र थे जहां से  गौतम बुद्ध नगर जिले की आर्थिक घेराबंदी की जाती थी.  अखिलेश यादव की सरकार आने के साथ  ही इलाके में एक अफवाह फैल गयी कि अब गौतम बुद्ध नगर जिले का काम समाजवादी पार्टी के महामंत्री , प्रोफ़ेसर राम गोपाल यादव देखेगें . दिल्ली में रहकर उत्तर प्रदेश या समाजवादी पार्टी की बीट कवर करने वाले पत्रकारों को मालूम है कि राजनीतिक शब्दावली में राम गोपाल यादव  होने के क्या मतलब है . सबको मालूम है  कि वे कभी भी एक पैसे की हेराफेरी नहीं होने देगें . बहुत लोगों को यह भी मालूम है कि जब  मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहते   बाबू साहेब का लूट युग चल रहा था तो रामगोपाल यादव चुप रहते थे लेकिन कभी भी उस तंत्र को अपने करीब नहीं आने दिया . जानकार बताते हैं कि बाबू साहेब को पार्टी से निकालने का सख्त फैसला भी राम गोपाल यादव की प्रेरणा से ही  लिया गया था. जो भी हो , इस अफवाह का फायदा यह हो रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश  के भूमाफिया के लोग आजकल डरे हुए हैं और उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि अखिलेश  यादव सरकार में किस तरह से लूट तंत्र वाली पुरानी व्यवस्था को कायम किया जाए. सबको मालूम है कि राम गोपाल यादव इस खेल को कभी नहीं होने देगें.ज़ाहिर है अपनी छवि को सही तरीके से पेश करने में अखिलेश यादव को इस स्थिति का निश्चित फायदा होगा.
 
अखिलेश यादव ने जो पिछले डेढ़ महीने में सबसे अहम काम किया है वह यह है कि उन्होंने आबादी के लोकतन्त्रीकरण  की कोशिश  शुरू कर दी है . मायावती के राज में ऐसा माहौल बना दिया गया था कि  मुख्यमंत्री तक कोई भी नहीं पंहुच सकता .अगर कोई उनसे मिलने की  कोशिश करता तो उसे भगा दिया  जाता था  . मुख्य मंत्री और आम आदमी के बीच  बहुत ही भारी डिस्कनेक्ट था .चुनावी विश्लेषणों के दौरान यह बात कई बार चर्चा  में आई भी कि इसी डिस्कनेक्ट के कारण मायावती चुनाव हार गयी थीं. हो सकता  यह सच भी लेकिन   मायावती की आम आदमी से दूरी बनाए रखने की नीति के कारण आम आदमी  की सत्ता से किसी तरह की भागीदारी ख़त्म हो गयी थी. अब वह सब कुछ इतिहास है . अब महीने में दो बार मुख्यमंत्री अपने घर पर मेला लगाकर लोगों से मिलेगें. इसका फायदा यह होगा कि नौकरशाही पर राजनीतिक  सत्ता की हनक  बनी रहेगी और सरकारी अफसर मनमानी नहीं कर सकेगा . उसको मालूम है कि  पीड़ित इंसान मुख्यमंत्री के पास पंहुच जाएगा  और मुख्यमंत्री की नाराज़गी का भावार्थ उत्तर प्रदेश  के सरकारी अफसरों से ज्यादा कोई नहीं समझ  सकता .  उन्होंने पिछले पांच वर्षों में उसको बाकायदा झेला है . ज़ाहिर है कि राज्य में शासन का लोकतंत्रीकरण एक बड़ी शुरुआत है और इसके चलते ही अपराध भी ख़त्म होगें और भ्रष्टाचार भी ख़त्म होगा. पिछले डेढ़ महीने के सरकारी फैसलों पर नज़र डालें तो साफ़ लग जाएगा कि  उत्तर प्रदेश की सरकार ने इस काम को करने का संकल्प लिया है. इसलिए किसी जिले में होने वाली अपराध की घटना को  मुख्यमंत्री की असफलता के रूप में पेश  करना जल्दबाजी होगी . लोकतंत्र  में लाजिम है कि अपराध खत्म करने का  एक संस्थागत ढांचा बनाया जाया. अब तक की प्रगति से  तो यही लगता है कि मौजूदा मुख्य मंत्री उसी ढाँचे की तलाश में है . 

Tuesday, April 10, 2012

मायावती के वोट बैंक को कमज़ोर करेगी समाजवादी पार्टी की सरकार

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,९ अप्रैल .उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को राजनीतिक रूप से कमज़ोर करने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है . राज्य की पिछड़ी जातियों के एक वर्ग को अनुसूचित जातियों की सूची में डालने की योजना पर काम शुरू हो गया है . अगर ऐसा हो गया तो अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों, विधायिका और पंचायतों में रिज़र्व सीटों में हिस्सा बंटाने राज्य की अति पिछड़ी जातियों के सदस्य भी पंहुच जायेगें.राज्य सरकार ने अखिलेश यादव के उस वायदे को पूरा करने के लिए तैयारी शुरू कर दी है जिसमें उन्होंने कहा था कि पिछड़ी जातियो में अति पिछड़ी जातियों को दलितों जैसी सुविधाएं दी जायेगीं .योजना के मुताबिक मल्लाह, कहार और कुम्हार जाति को अब अनुसूचित जाति का सदस्य बना दिया जाएगा और इन जातियों के लोगों को अनुसूचित जातियों नके लिए रिज़र्व सीटों के लिए हक़दार माना जायेगा. समाजवादी पार्टी के सासद धर्मेन्द्र यादव का कहना है कि राज्य सरकार अपने चुनाव घोषणा पत्र में किये गए वायदों को बहुत ही गंभीरता से ले रही है . उसी राजनीतिक सोच के अनुसार सरकार बनने के बाद मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही बेरोज़गारी भत्ता देने का फैसला कर लिया गया था . अति पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में दलितों के सामान अधिकार देना भी समाजवादी पार्टी के चुनावी वायदों में शामिल है .

राज्य सरकार अपने उस प्रस्ताव को फिर से जिंदा करना चाहती है जिसके तहत मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य सरकार ने केंद्र सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें मांग की गयी थी कि मल्लाह , कहार और कुम्हार जाति की कुछ उपजातियों को अनुसूचित जाति माना जाए.उन दिनों अमर सिंह का ज़माना था और समाजवादी पार्टी की कांग्रेस से दूरी हुआ करती थी . मुलायम सिंह की सरकार के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया और मामला लटक गया. २००७ में जब मायावती की सरकार आ गयी तो उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया . मल्लाह जाति के लोगों को अपने साथ लेना समाजवादी पार्टी की करीब १५ साल पुरानी रणनीति का हिस्सा है. जब कांशीराम ने मुलायम सिंह के साथ गठबंधन तोड़कर मायावती को बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बना दिया था ,उसी वक़्त मुलायम सिंह यादव ने तय कर लिया था कि कांशी राम-मायावती के दलित वोट बैंक के बराबर का ही एक और वोट बैंक तैयार कर लेगें. उन्होंने उन दिनों इस संवाददाता को बताया था कि जाटवों की उत्तर प्रदेश में जितनी संख्या है , मल्लाहों की संख्या उसकी ७० प्रतिशत है . अगर मलाह पूरी तरह से समाजवादी पार्टी के साथ हो जायेगें तो दलितों के मायावती के साथ जाने से समाजवादी पार्टी को कोई नुकसान नहीं होगा. इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने मलाहों की अस्मिता की पहचान बन चुकी डाकू फूलन देवी को अपनी पार्टी में शामिल किया था और उन्हें लोकसभा की सदस्य बनवाया था. समाजवादी पार्टी का दावा है कि राज्य में मलाह, कहार और कुम्हार जातियों की संख्या जाटवों की कुल संख्या से ज़्यादा है . इसलिए इन जातियों को अगर अनुसूचित जाति में शामिल कर दिया जाए तो इन्हें राजनीतिक रूप से अपने साथ जोड़ा जा सकता है . इस योजना का दूसरा लाभ यह होगा कि मायवती के कोर समर्थकों को अपने आरक्षण में से उन जातियों को भी हिस्सा देना पड़ेगा जो कि चुनावों में मायावती के खिलाफ वोट कर रहे होगें.
उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियो में अति पिछड़ी जातियों के सहारे राजनीति करने की कोशिश बीजेपी ने भी की थी. जब राजनाथ सिंह मुख्य मंत्री थे तो उन्होने अति पिछड़ों के लिए अलग से रिज़र्वेशन की बात की थी. और उसी हिसाब से नियम कानून भी बना दिया था. लेकिन उनकी राजनीति की धार के निशाने पर मुलायम सिंह यादव और उनकी राजनीति को कमज़ोर करना था. वे ओबीसी के आरक्षण में से काट कर अति पिछड़ी जातियों को सीटें देना चाहते थे . लेकिन समाजवादी पार्टी ने अति पिछड़ों को आरक्षण भी दे दिया है और अपने ओबीसी वर्ग के समर्थन को और मज़बूत कर दिया है . क्योंकि अगर मलाह , कुम्हार और कहार जाति के लोग दलित कोटे से सीटें ले रहे हैं तो ओबीसी के लिए जो २७ प्रतिशत का आरक्षण है उसमें से यादव आदि जातियों को ज़्यादा सीटें मिलेगीं.
इन जातियों को अनुसूचित जाति घोषित करने की प्रक्रिया को सरकार ने शुरू भी कर दिया है . मुख्य सचिव जावेद उस्मानी ने सम्बंधित विभाग से आंकड़े तलब कर लिए हैं और जल्दी ही प्रक्रिया पूरी कर दी जायेगी.

Tuesday, July 5, 2011

यू पी में २०१२ का युद्ध मायावती और बीजेपी के बीच होने की संभावना बढ़ी

शेष नारायण सिंह

राजनाथ सिंह को अपनी पार्टी का उत्तर प्रदेश में आला मालिक बनाकर बीजेपी ने उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव की तैयारियों को टाप गियर में डाल दिया है.कांग्रेस के दो सबसे ताक़तवर महासचिव पिछले कई महीने से उत्तर प्रदेश के बारे में ही चिंता करते पाए जा रहे हैं . ग्रेटर नोयडा के गाँव भट्टा और पारसौल में राहुल गाँधी का नाटकीय अंदाज़ मीडिया के लिए बहुत ही अच्छे विजुवल का मौक़ा था , उनके सबसे करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह भी आजकल वही राग चला रहे हैं. दिग्विजय सिंह और राहुल गाँधी को उम्मीद है कि अगर किसी एक वर्ग का वोट अपने नाम मुक़म्मल तरीके से ले लिया जाए तो मुसलमानों के वोट कांग्रेस को मिल जायेगें . इसी रणनीति के तहत अब किसानों के एक बड़े वर्ग को साथ लेने की कोशिश चल रही है . अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट , गूजर और राजपूत किसानों में कांग्रेस की आंशिक पैठ बन गयी तो इस इलाके के प्रभावशाली मुसलमानों को कांग्रेस की तरफ खींचने की कोशिश के कुछ कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक नतीजे हो सकते हैं . इसके पहले दिग्विजय सिंह ने मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश को ठाकुरों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी. उसी अभियान में उन्होंने अमर सिंह को भी इस्तेमाल करने की योजना बनाई थी लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. राज्य के मज़बूत राजपूत कांग्रेसी सांसदों ने दिग्विजय सिंह को जमने नहीं दिया . जगदम्बिका पाल , संजय सिंह , हर्षवर्धन आदि ऐसे कांग्रेसी सांसद हैं जो अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . जब दिग्विजय सिंह को इस खेल का अंदाज़ लगा तो उन्होंने ठाकुरों वाले प्रोजेक्ट को तिलांजलि दे दी और अब मुस्लिम बहुल इलाकों में सभी जातियों के किसानों के हितचिंतन की पिच पर राहुल गाँधी को घुमा रहे हैं. भट्टा पारसौल और अलीगढ की सभा का मकसद यही है . लेकिन दिग्विजय सिंह जैसा मंजा हुआ खिलाड़ी यह कैसे भूल जाता है कि " किसान " नाम का कोई वोट बैंक नहीं होता. किसान आम तौर पर जातियों में बंटा होता है और जब वोट देने की बात आती है तो वह अपनी जाति के हिसाब से वोट देता है .इसलिए किसान को केंद्र में रख कर राजनीतिक अभियान चलाने का दिग्विजय सिंह का कार्यक्रम राहुल गाँधी को व्यस्त रखने से ज्यादा खुछ नहीं है .
उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य फिरोजाबाद लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव बहुत अजीब तरीके से बदल गया था . जब फिरोजबाद जैसी सीट पर मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधू चुनाव हार गयी तो राजनीति के बड़े बड़े जानकार सन्न रह गए थे. लेकिन सच्चाई यह है कि माहौल बदल गया था . उस चुनाव में मुलायम सिंह यादव को शिकस्त देने के बाद कांग्रेस के हौसले भी बढ़ गए थे. उसे भी उत्तर प्रदेश की सीधी लड़ाई को त्रिकोणीय करने की रणनीति पर काम करने का मौक़ा मिल गया था . उन दिनों ऐसा लगता था कि बीजेपी ने राज्य में हार मान ली है और मायावती की ताक़त के सामने उसकी कोई औकात नहीं है . शायद इसी लिए बीजेपी ने कुछ मनोरंजक नेताओं को सामने करने का फैसला किया था . वरुण गाँधी जैसे लोग उसी योजना के तहत सामने लाये गए थे . दिल्ली के कुछ शहरी नेताओं को उत्तर प्रदेश में रणनीति संचालन का काम दिया गया . पूरा माहौल ऐसा था कि लगता था कि बीजेपी ने स्वीकार कर लिया है कि वह अब देश के सबसे बड़े राज्य में हाशिये पर ही रहेगी. कांग्रेस ने लोकसभा २००९ में कई राजपूतों को जिताया था तो वह राजपूतों को अपने साथ लाने की योजना पर काम कर रही थी. उम्मीद यह थी कि अगर कांग्रेस के जीतने की कोई उम्मीद बनेगी तो मुसलमान उसके साथ चला जाएगा. इस बात में दो राय नहीं है कि मुसलमानों के बीच में कांग्रेस की विश्वसनीयता बढ़ रही है . लेकिन मुसलमान किसी भी कीमत पर बीजेपी को नहीं जीतने देना चाहता .अगर कांग्रेस के साथ कोई और वोट बैंक न जुड़ा तो मुसलमान का बीजेपी को हराने की बजाय उसे जिताने में काम आ जायेगा . रायबरेली ,अमेठी और प्रतापगढ़ के अलावा उत्तर प्रदेश के किसी जिले में ठाकुर अब कांग्रेस के साथ नहीं है. यह बात बीजेपी के रणनीतिकारों की समझ में आ गयी है .राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का पूरी तरह से इंचार्ज बनाने के पीछे पार्टी की मंशा यह है कि एक राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े नेता के क़द का फायदा उठाया जाए. इस बीच मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी यू पी में लगा दिया गया है . हालांकि मायावती के सामने उनके टिक पाने की संभावना बहुत कम है लेकिन ज़मीन से जुडी एक महिला राजनेता की मौजूदगी से लाभ तो होगा ही.उधर मीडिया में मौजूद आर एस एस के कार्यकर्ताओं ने भी अपना काम शुरू कर दिया है और मायावती की सरकार के खिलाफ रोज़ ही कुछ न कुछ प्रमुखता से सुर्ख़ियों में मिल रहा है.राजनाथ सिंह को कमान सौंपने के बीजेपी के फैसले में यह भी निहित है कि जो तिकड़म की राजनीति करने वाले नेता यू पी में मुखिया बने बैठे थे अब वे आराम करेगें. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने लिखा है कि उत्तरप्रदेश में जितने भी बीजेपी नेता है लगभग सभी कभी न कभी वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती के समर्थक रह चुके हैं . राजनाथ सिंह अकेले ऐसे बीजेपी नेता हैं जिनकी छवि मायावती के धुर विरोधी की है . ऐसी हालत में उनको वे वोट भी मिल सकते हैं जो मौजूदा सरकार को हराना चाहते हैं . जहां तक मायावती का सवाल है उत्तर प्रदेश में सबसे मज़बूत जनाधार उनका ही है . और अगर यह लगा कि उनको सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी से मिल रही है तो मुसलमान थोक में मायावती के साथ चले जायेगें . उस हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह दोनों ही कमज़ोर पड़ेगें और उत्तर प्रदेश की लड़ाई पूरी तरह से मायावती बनाम बीजेपी हो जायेगी . बाकी लोग केवल हाशिये के खिलाड़ी के रूप में ही उत्तर प्रदेश चुनाव २०१२ में शामिल हो सकेंगें.

Friday, May 6, 2011

उत्तर प्रदेश की आख़िरी लड़ाई बीजेपी और मायावती के बीच होगी

शेष नारायण सिंह


उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए शुरू हो चुके घमासान में प्रधानमंत्री ने भी अपनी हाजिरी लगवा दी है . राहुल गांधी के प्रिय क्षेत्र , बुंदेलखंड में उन्होंने ३० अप्रैल को जो भाषण दिया,उसे हर तरह से चुनावी भाषण ही माना जाएगा. राहुल गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जिनका सीधा लाभ चुनावों में मिलता है . हालांकि विधान सभा का कार्यकाल २०१२ के प्रारंभ में पूरा होगा लेकिन जानकर बता रहे हैं कि चुनाव इस साल के अंत में ही हो जायेगें . सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है . उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है . बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि मई के अंत तक उनके टिकट भी तय हो जायेगें. २००७ के चुनावों के ठीक पहले जो राजनीतिक हालात थे अब वे नहीं हैं . उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ गँवा चुकी कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपने आपको मायावती और मुलायम सिंह यादव की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश की है . लोकसभा २००९ में उसे मिली सीटें इस बात को साफ़ कर देती हैं.मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनावी राजनीति में सफलता की ताकत को बहुत ज्यादा गंवाया है . उनकी हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में जहां वे अपनी पुत्रवधू की जीत पक्की नहीं कर सके ,वहीं पंचायत चुनावोंमें उनेक परिवार के कई सदस्य चुनाव हार गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी नाराज़गी बहुत है . उनके बहुत करीबी रिश्तेदार तक उनके क्षेत्र में उनके खिलाफ काम कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उनके कई विधायक अजित सिंह और बहुजन समाज पार्टी की टिकटों की जुगत भिड़ा रहे हैं . आम तौर पर मुसलमान पिछले २० वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था . उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता,आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे. दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे ,जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे .नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए .इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी . लोकसभा २००९ में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया . नतीजा सामने है . बीजेपी के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली. इसलिए आगामी विधान सभा चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है . वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो बीजेपी को कमज़ोर करता हो. राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए. लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा . इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं . उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में बीजेपी के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए. अब उन्हें किसी पार्टी की तलाश है . मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है . मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है . इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए . कांग्रेस की रण नीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले पांच साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगें और मायावती से नाराज़ मतदाता कांग्रेस को सत्ता देकर मायावती से बदला लेने की कोशिश करेगें . २००७ के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था जब मुलायम सिंह ने नाराज़ सभी वर्गों ने मायावती को जितवाकर अपना बदला चुकाया था .

जहां तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं .उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर ज़रूरी बहुमत सुनिश्चित कर सकते हैं . इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के अगले चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की लड़ाई है . जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मायावती से नाराज़ वोटर अपने आप आ जाएगा . फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं . कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ऐलानियाँ राजपूतों की राजनीति कर रहे हैं . इस मुहिम में उन्होंने अमर सिंह को भी साथ ले लिया है . यह अलग बात है कि अमर सिंह राजपूतों के नेता नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों का सघन दौरा किया और राजपूतों के प्रभाव वाले कुछ क्षेत्रों में उनके प्रति सहानुभूति है . दिग्विजय सिंह की कोशिश है कि उन लोगों को भी साथ लिया जाए . अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा . कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मायावाती से नाराज़ लोग कांग्रेस को प्राथमिकता देगें और राहुल गाँधी का उत्तर प्रदेश को कांग्रेस के लिए मज़बूत करने के सपने को ताक़त मिलेगी . लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बीजेपी इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी. उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले . राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह की सभाएं हो रही हैं. लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाकर उन्हें पूरे देश में घुमाकर दिल्ली वाले नेता उनको लगभग निपटा ही चुके हैं . आडवाणी ने ही राजनाथ सिंह का सबसे ज्यादा नुकसान किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के कमज़ोर हो जाने की वजह से आडवाणी के उस वक़्त के साथियों ने राजनाथ सिंह के खिलाफ माहौल बना दिया था लेकिन अब वही साथी आडवानी को बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर ला चुके हैं .लाल कृष्ण आडवानी बीजेपी के संस्थापक और बड़े नेता थे . हर हाल में राजनाथ सिंह का क़द उनके और वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में बीजेपी की राजनीति के भाग्य विधाता हैं , उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं . ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दुबारा अपना ले. अगर ऐसा हुआ तो मायावती की मुख्य विरोधी पार्टी का रुतबा बीजेपी को ही मिल जाएगा . बीजेपी की कोशिश अभी से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की चल रही है . वरुण गाँधी की राजनीति के पैरोकार लोग उस काम में लग गए हैं . अगर मुसलमानों को लगा कि बीजेपी को कमज़ोर करने में कांग्रेस से ज्यादा मायावती कारगर होंगीं तो वह एकमुश्त बहुजन समाज पार्टी के साथ ही चला जाएगा .ज़ाहिर है कि अभी तस्वीर बहुत धुंधली है . लेकिन बिसात बिछ चुकी है और उत्तर प्रदेश के बहुत ही दिलचस्प होने की संभावना है. हाँ इस बात में दो राय नहीं है कि खेल किसी भी शतरंज के मुकाबले से बेहतर होगा .इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश में आख़िरी लड़ाई बीजेपी और बहुजन समाज पारते के बीच ही होगी. ऐसी हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव का दल बैकग्राउंड में चले जायेगें .

Saturday, October 16, 2010

बिहार की चुनावी राजनीति में परिवर्तन की दस्तक

शेष नारायण सिंह

बिहार चुनाव में एक और आयाम जुड़ गया है . बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने बुधवार को अपना पहला चुनावी दौरा करके यह साबित कर दिया है कि वे बिहार को अपनी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं में बहुत ऊपर रख कर चल रही हैं . इसके बाद भी मायावती बिहार में चुनाव प्रचार करने जायेगीं और हर दौर के पहले कुछ चुनिन्दा विधानसभा क्षेत्रों में लोगों से वोट मागेगीं. पिछले दिनों बिहार में हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी को एक सीट मिली थी . ज़ाहिर है कि राज्य में उनकी विचारधारा की स्वीकार्यता है. उनकी कोशिश है कि इस राजनीतिक स्थिति को चुनावी सफलता की कसौटी पर कसा जाय. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक साख बिहार के मतदाताओं के एक वर्ग में सौ फीसदी है . उत्तर प्रदेश में इस प्रयोग के राजनीतिक नतीजे सब के सामने हैं . इसलिए बिहार में मायावती के राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से बहुत सारे सपनों के धूल में मिल जाने की आशंका है . उनके दखल का फौरी नुकसान तो रामविलास पासवान को होगा क्योंकि रामविलास पासवान हालांकि अपने को दलित नेता कहते हैं लेकिन मायावती के टक्कर में उनकी वोट बटोरने की योग्यता का मीलों तक कहीं पता नहीं चलेगा . जिन वोटों के बल पर रामविलास पासवान ने बिहार में अपनी राजनीतिक हैसियत बनायी थी , उन वोटों में अब उनकी साख नहीं है . बिहार पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राज्य के दलितों में उनके विकल्प की तलाश गंभीरता से शुरू हो गयी है . बिहार के मौजूदा राजनीतिक क्षितिज पर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो शोषित पीड़ित वर्गों में विश्वास जगा सके .शायद इसीलिये गरीब आदमियों का एक वर्ग कांग्रेस की तरफ झुकता नज़र आ रहा था लेकिन मायावाती के प्रवेश के बाद सब कुछ बदल सकता है. मुसलमानों में भी नीतीश कुमार की बी जे पी से मुहब्बत को लेकर बहुत ऊहापोह के हालात हैं . बी जे पी के खूंखार छवि के नेताओं , नरेंद्र मोदी और वरुण गाँधी के खिलाफ खड़े होने का अभिनय करके नीतीश कुमार ने मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की है लेकिन वह प्रयास सफल होता नज़र नहीं आ रहा है . अब तक मुसलमान का झुकाव कांग्रेस की तरफ था लेकिन ३० सितम्बर को बाबरी मस्जिद के टाइटिल के फैसले के बाद सब कुछ बदल रहा है . हालांकि फैसला हाई कोर्ट का है लेकिन आम मुसलमान को शक़ हो गया है कि इसमें कांग्रेस का हाथ है . इसलिये कांग्रेस की तरफ उसके झुकाव में बहुत पक्के तौर पर कमी आई है . अब वह बी जे पी और उसके दोस्तों को हराने के लिए वैकल्पिक राजनीतिक समीकरण की तलाश कर रहा है . ऐसी हालत में उसे मायावती सूट करती हैं क्योंकि वरुण गांधी छाप खूंखार आतंकी राजनीति को मायावाती ने काबू करके दिखाया है . मुसलमानों के हाथ काट लेने वाले उनके भाषण के बाद मायावती ने उनको जेल में ठूंस दिया था और तब छोड़ा था जब गुप्त तरीके से जुगाड़ की राजनीति खेली गयी थी और वरुण गांधी को हड़का दिया था कि अगर दुबारा गैरजिम्मेदार भाषण करोगे तो रासुका लगा देगें. उसके बाद वरुण गांधी को सारी शेखी भूल गयी थी. ज़ाहिर है नीतीश के ज़बानी जमा खर्च की तुलना में वरुण गाँधी टाइप खूंखार भाषणबाज़ लोगों को काबू में करने का मायावती का तरीका लोगों को ज्यादा पसंद आता है . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि नीतीश के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रहे मुस्लिम राजनीति के नेताओं को कांग्रेस और नीतीश की तुलना में मायावती की राजनीति ज्यादा पसंद आयेगी. ऐसी स्थिति में बिहार में मायावती की राजनीतिक इंट्री बहुत ही दूरगामी राजनीतिक परिणामों को जन्म दे सकती है . बिहार की मौजूदा राजनीतिक पार्टियों से ऊब चुका दलित-पीड़ित तबका अगर मायावाती के रूप में अपने मसीहा को देखना शुरू कर देगा तो बिहार के राजनीतिक समीकरणों में बुनियादी बद्लाव आ जाये़या .

बिहार में मायावती के प्रवेश के बाद बहुत सारे राजनेताओं के भविष्य की इबारत भी बदल जायेगी . सबसे ज्यादा असर तो कांग्रेस के महामंत्री, राहुल गांधी की राजनीतिक क्षमता पर पडेगा . उन्होंने बिहार में बहुत सारा समय लगाया है . उनका निशाना नौजवान और मुसलमान हैं . जहां तक नौजवानों का सवाल है ,वे पूरे देश की तरह बिहार में भी जातियों में बँटे हैं . इसलिए वहां वोट की तलाश करना बेमतलब है. मुसलानों के बीच कांग्रेस के प्रति कुछ आकर्षण देखा गया था लेकिन अब मायावती के आ जाने के बाद समीकरण निश्चित रूप से बदल जायेगें. उत्तर प्रदेश में उन्होंने बहुत गंभीर तरीके से मुसलमानों को साथ लेने की राजनीति का सबूत दिया है .उनकी पार्टी ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया था .लोकसभा और विधानसभा में बड़ी संख्या में मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुने भी गए हैं. वरुण गांधी के साथ उनकी सरकार ने जैसा व्यवहार किया था, मुस्लिम इलाकों में उसकी बहुत इज्ज़त है . ज़ाहिर है कि मायावाती बिहार में मुसलमानों को अपनी राजनीति की तरफ खींच सकने की क्षमता रखती हैं . उनके साथ दलित वोट अपने आप खिंचे चले आते हैं . मुस्लिम-यादव वोट की राजनीति करके लालू प्रसाद यादव ने बिहार में पंद्रह साल तक राज किया था . अगर दलित और मुसलमान मिल गए तो मायावती बिहार की सरकार में प्रभावी दखल रख सकती हैं. उनकी उम्मीदवारों की सूची देखने से लगता है कि उन्होंने जीत सकने लायक ही लोगों को टिकट दिया है . अगर उम्मीदवार अपनी जाति का वोट लेने में कामयाब हो गया तो मायावती के करिश्मा की वजह से मिलने वाला दलित और मुस्लिम वोट उसे विधानसभा तक पंहुचा देगा . अभी यह सारी बातें राजनीतिक विश्लेषण के स्तर पर हैं लेकिन आने वाले वक़्त में उम्मीद की जानी चाहिये कि बिहार की चुनावी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन की दस्तक पड़ रही है

Wednesday, September 29, 2010

हर औरत के पाँवो में बंधी होती है एक ज़ंज़ीर

शेष नारायण सिंह


आज के बड़े अखबारों में गरीब की बेटी भी पहले पेज पर है .हालांकि ज़्यादातर खबरें हस्बे-मामूल सम्भ्रान्त वर्गों की मिजाज़ पुरसी करती नज़र आ रही हैं लेकिन अपना सब कुछ गँवा दने वाली कुछ गरीबों की बेटियों को भी पहले पेज पर जगह दी गयी है . और राष्ट्रमंडल खेल के नाम पर पचास हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा रक़म लूट चुके नेताओं और अयोध्या की मस्जिद के बहाने राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे नेताओं,अफसरों और दलालों की ख़बरों के बीच कुछ खबरें ऐसी हैं जो शोषित पीड़ित लोगों की कहानी भी बताती हैं.देश के सबसे बड़े अखबार में खबर है कि उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री के गाँव के आस पास, गौतम बुद्ध नगर और बुलंद शहर जिलों में , दलित लड़कियों की अस्मत लूटी गयी , उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और एक मामले में सबूत मिटाने की गरज से लड़की को जला कर मार डालने की कोशिश की गयी. एक बहुत बड़े अंग्रेज़ी अखबार के पहले पन्ने पर खबर है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके में उसी जिले में तैनात के डिप्टी कलेक्टर के बेटे की अगुवाई में ६-७ लफंगों ने एक दलित बच्ची को पकड़कर उसके साथ बलात्कार किया और अपने जघन्य कार्य का मोबाइल फ़ोन पर वीडियो उतारा और उसे अपने दोस्तों के बीच सर्कुलेट करना शुरू कर दिया . पुलिस की विश्वसनीयता इतनी कम है कि पीड़ित बच्ची के माता पिता की हिम्मत नहीं पड़ी कि वे थाने में जाकर रिपोर्ट लिखाने की हिम्मत जुटा सकें . जब पुलिस को मोबाइल फोन पर सर्कुलेट हो रही तस्वीरों के ज़रिये पता चला तो अधिकारी पीड़ित लड़की के घर गए. वहां जाकर पता चला कि बच्ची के माता पिता और पड़ोसी इस अपराध के बारे में जानते थे. उन्होंने मामले को पुलिस के पास ले जाना इसलिए ठीक नहीं समझा कि अफसर का बेटा ही मुख्य अपराधी है ,अगर उनके खिलाफ शिकायत की तो मुसीबत में पड़ जायेगें.

यह घटनाएं एक समाज के रूप में हमारे अस्तित्व को चुनौती देती हैं .ऐसा क्यों है कि जिसके पास भी घूस या चोरी के रास्ते कुछ पैसा आ जाता है ,वह सबसे पहले लड़कियों की इज्ज़त पर हमला बोलता है .उनको अपमानित करता है , उनके साथ बलात्कार करता है और उन्हें मार डालने की कोशिश करता है . इन लड़कियों ने इन दरिंदों का क्या बिगाड़ा है . दूसरा सवाल यह है कि हर मामले में इस जघन्य मानसिकता का शिकार गरीब लड़कियां ही क्यों होती हैं . गाँव में गरीब लड़कियां ज़्यादातर दलित परिवारों से आती हैं . और शहरों में गरीब वे हैं जो गाँव में अपना सब कुछ छोड़कर, दो जून की रोटी की तलाश में शहरों की ओर भागने के लिए अभिशप्त हैं. गाँव में छोटी मोटी खेती की ज़मीन अब रोटी नहीं देती ,उसमें क़र्ज़ उपजता है . खेती के चक्कर में बिजली खाद, बीज और मजदूरी में लगने वाला धन, बरास्ते क़र्ज़ उसकी ज़िंदगी पर सवार होता रहता है और बहुत सारे मामलों में तो किसान आत्मह्त्या कर लेता है . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों में सल्फास का नाम नहीं सुना गया था , वहां सल्फास अब कहावतों का हिस्सा बन चुका है . सल्फास एक केमिकल है जिसको खाकर अब गाँवों में किसान अपनी निराशा और हताशा भरी ज़िंदगी को ख़त्म करता है. इसी सल्फास की रेंज में रहकर अपनी ज़िन्दगी बिता रहे लोगों की बेटियाँ घूसखोरों, नरेगा का पैसा चुराने वाले ठेकेदारों ,नेताओं, दलालों और उनके चमचों के बिगडैल लड़कों की हवस का शिकार हो रही हैं .

सवाल यह उठाता है कि क्या समाज की इन सारी विकृतियों का शिकार लड़कियों को ही क्यों बनाया जा रहा है .जवाब साफ़ है ---क्योंकि उनके पास राजनीतिक ताक़त नहीं है . इसके लिए ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है . अपने समाज में माता पिता ही अपने लड़कों और लड़कियों में भेद करते हैं . अव्वल तो लड़कियों की शिक्षा प्राथमिकता सूची में ही नहीं होती और अगर बच्ची को स्कूल भेजा भी जाता है तो उसके लिए दोयम दर्जे के स्कूलों की ही तलाश की जाती है . लड़कियों के खेलने और बाहर निकलने के बारे में हर समाज में एक आचार संहिता होती है जिसमें उसे हर मामले में लड़कों से कमज़ोर माना जाता है . ऐसी व्यवस्था की जाती है कि बच्ची हमेशा अपने को कमज़ोर माने . समाज को इस स्थिति से बाहर आना पड़ेगा . इसके लिए किसी सुधार की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति या संगठन जो सुधार करने की कोशिश करेगा वह पूरी बात नहीं होने देगा . वह चाहेगा कि उसका हित भावी व्यवस्था में सुरक्षित रहे . इसलिए किसी समाज सुधार की साज़िश से महिलाओं के भविष्य को मुक्त रखना पडेगा. महिलाओं के बारे में सारी मान्यताएं और नियम पुरुष प्रधान समाज ने बनाए हैं . आगे भी ऐसा ही हो सकता है . इस खतरे से बचने के लिए ज़रूरी है कि महिलायें को इस सड़ी-गली व्यवस्था में इज्ज़त दिलाने का काम महिलाओं के ही कंधों पर डाला जाए. ऐसा अवसर उपलब्ध हैं. लोकसभा ने महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी देने के लिए एक बिल मौजूद है जिसे अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देकर पास कर दिया जाए तो असली परिवर्तन शुरू हो सकता है .हालांकि यह मुगालता भी नहीं पालना चाहिये इस कानून से कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होगा. क्योंकि शुरू में तो सत्ता प्रतिष्टानों के ठेकदारों की हुक्म बजाने वाली उनके घरों की महिलायें ही सत्ता में आयेंगीं लेकिन बाद में जनता भी आयेगी क्योंकि जनता के तूफ़ान को कभी कोई नहीं रोक सकता है . इसलिए हमारी बेटियों को अपराधियों की हवस से बचाने का एक ही रास्ता है कि उन्हे राजनीतिक सत्ता की चाभी दे दी जाए.

Tuesday, July 6, 2010

जाति के विनाश का डॉ आम्बेडकर का सपना पूरा कर सकती हैं मायावती

शेष नारायण सिंह


दिल्ली के उपनगर, उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोयडा में एक गाँव के लोग इसलिए बेईज्ज़त किये जा रहे हैं कि वे जाटव हैं . यह मामला इसलिए और भी हैरतअंगेज़ है कि जिस गाँव की यह खबर है उससे बहुत करीब के एक गाँव की एक लड़की उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री है. दलितों के सम्मान के अभियान के नायक डॉ अंबेडकर के विचारों को लागू करने के लिए बनायी गयी पार्टी का उत्तर प्रदेश में शासन है और वहीं मुख्यमंत्री के जिले में दलितों का अपमान इसलिए किया जा रहा है कि ऊंची जाति की किसी लड़की ने एक दलित लड़के से दोस्ती की , उस से प्रेम किया और सवर्ण आतंक से बचने के लिए अपने प्रेमी के साथ घर छोड़ कर कहीं भाग गयी. अब खबर आई है कि सवर्ण दबंगों ने गाँव के दलितों को हुक्म सुना दिया है कि वे लोग उनकी बिरादरी की लडकी को फ़ौरन से पेशतर हाज़िर करें वरना, उनके परिवार की लड़कियों को उठा लिया जाएगा. इसके बाद पुलिस फ़ौरन हरकत में आ गयी और तुगलकी फरमान जारी करने वालों को पकड़ लिया गया और बताया गया है कि उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम यानी रासुका के तहत मामला दर्ज किया जा रहा है . इसके बाद वे ख़ासा वक़्त जेलों में बितायेगें और सारी हेकड़ी भूल जायेगें. सवाल यह उठता है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हमारी राजनीतिक बिरादरी ने जाति के इस खूंखार भूत को दफन करने में सफलता क्यों नहीं पायी. हमारी आज़ादी का इथोस यही था कि बराबरी पर आधारित एक भारतीय समाज की स्थापना की जायेगी. महात्मा गाँधी ने तो आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी के साथ ही छुआछूत के खात्मे को भी रख दिया था जबकि राम मनोहर लोहिया और डॉ अंबेडकर ने साफ़ कहा था कि जाति की संस्था का ही विनाश हो जाना चाहिए. डॉ अंबेडकर का साहित्य बहुत बड़ा है लेकिन उनकी सबसे मह्त्व पूर्ण किताब का नाम है ," जाति का विनाश ". इस किताब में साफ़ लिखा है जब तक सभी जातियों के लोग आपस में शादी ब्याह नहीं करने लगेगें , जाति का विनाश हो ही नहीं सकता . अब दुनिया भर के समाज शास्त्री और राजनीति विज्ञान के ज्ञाता इस बात पर सहमत हैं कि अगर भारत में जाति प्रथा समाप्त हो जाए ,तो विकास की गति इतनी तेज़ हो जायेगी कि बहुत कम वक़्त में यह दुनिया की एक मज़बूत ताक़त बन जाएगा. हमारे अपने नेता भी इस बात को सही मानते हैं . जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि इस सबके बावजूद जाति की प्रथा को ख़त्म करने के लिए कोशिश क्यों नहीं की जाती,? इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता क्यों नहीं बनाया जाता ?.अगर जातिप्रथा को ख़त्म कर दिया गया तो देश की बहुत सारी समस्याएं अपने आप ख़त्म हो जायेगीं . सबसे बड़ा तो यही कि अलग जाति में शादी करने के कारण हो रही हिंसक वारदातें अपने आप शांत हो जायेगीं. उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में सामाजिक सर्व नाश का एक और ज़हर घुल गया है जिसे दहेज़ के नाम से जाना जाता है . आज दहेज़ इतना खूंखार रूप धारण कर चुका है कि वह समाज को तबाह करने के कगार पर है. बेटी के बाप को अपना खेत खलिहान बेच कर बेटी ब्याहनी पड़ रही है क्योंकि पारंपरिक रूप से तय बिरादरी और गोत्र में ही शादी करनी है .अगर जाति प्रथा का विनाश हो गया तो यह सारी स्थितियां अपने आप ख़त्म हो जायेगीं . पहले माना जाता था कि जाति के विनाश में सबसे बड़ी बाधा तथाकथित ऊपरी जातियां हैं , वहीं नहीं चाहतीं कि जाति का विनाश हो . लेकिन अब साफ़ हो गया है कि ऐसा नहीं है. वास्तव में जाति के विनाश में सबसे बड़ी बाधा वे राजनीतिक पार्टियां हैं जो जाति को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल कर रही हैं. दुःख की बात यह है कि जाति के विनाश के दर्शनशास्त्र के सबसे बड़े हिमायती डॉ अंबेडकर के विचारों को लागू करने के लिए बनायी गयी पार्टी भी इस दिशा में कोई पहल नहीं कर रही है . इसके पलट बहुजन समाज पार्टी सारी जातियों को अलग अलग खांचों में फिट करके उनका वोट लेने की राजनीति पर काम कर रही है . कई नेताओं से बात चीत के आधार पर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि राजनीतिक बिरादरी जाति को ख़त्म करने के पक्ष में हैं ही नहीं . उनका यह तर्क है कि जब तक एक सामाजिक आन्दोलन नहीं होगा , जाति प्रथा को ख़त्म नहीं किया जा सकता . लेकिन अनुभव बताता है कि इस तर्क में कोई दम नहीं है . उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ महीनों में सफाई कर्मियों की भर्ती हुई है . पारंपरिक रूप से सफाई कर्मी दलित जातियों के होते रहे हैं लेकिन सरकारी नौकरी के चक्कर में बड़ी संख्या में ब्राह्मणों और ठाकुरों के बच्चे भर्ती हो गए हैं .ज़ाहिर है सफाई कर्मी बनने वाले सवर्ण जातियों के लोग अपने को जाति के खेल में ऊंचा मानने से बाज़ नहीं आयेगें लेकिन जन्मना जाति के ब्राह्मणवादी शिकंजे से अलग होने का ऐलान सफाईकर्मी की भर्ती की इस व्यवस्था ने कर दिया है . और इसके लिए कोई सामाजिक आन्दोलन नहीं चलाया गया. इसी तरह से और भी पहल की जा सकती है . लेकिन यह पहल अनजाने में हुई है . दुर्भाग्य की बात यह है कि जाति के नाम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आतंक मचा रही पंचायतों के खिलाफ ठीक से पुलिस कार्रवाई तक नहीं हो रही है . जाति के बाहर जाकर शादी करने वाले लड़के लड़कियों को दिल्ली के आस पास के शहरों में रोज़ मारा पीटा जा रहा है और क़त्ल किया लेकिन उनकी रक्षा के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है. जाति की पुरातनपंथी सोच को ख़त्म करने के लिए डॉ अंबेडकर की विरासत की उत्तराधिकारी , मायावती को फ़ौरन पहल करनी चाहिए क्योंकि अगर वे जाति ख़त्म करने में सफल हो गयीं तो राजनीति के इतिहास में वे अमर हो जायेगीं. जिस तरह से मार्क्स के विचारों को लागू करके लेनिन महान हो गए , उसी तरह अगर मायावाती चाहें तो डॉ भीम राव अंबेडकर के जाति के विनाश संबंधी विचारों को लागू करके आने वाली पीढ़ियों के सामाजिक ताने बाने पर अपना अमिट छाप छोड़ सकती हैं

Saturday, February 27, 2010

मीडिया,शोषित-पीड़ित वर्गों की राजनीति और मौजूदा बजट

शेष नारायण सिंह

अब तक बजट पर जितनी प्रतिक्रियाएं आई हैं उनमें मायावती की टिप्पणी सबसे सही है . उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि "बजट में विदेशी पूंजीपतियों को खुले बाजार में अनाप-शनाप मुनाफा कमाने का मौका दिया गया है। यह बजट पूंजीपति समर्थक तथा धन्नासेठों को माला-माल करने वाला है." एक अन्य प्रतिक्रिया में मायावती ने कहा है "कि बजट में सोशल सेक्टर, ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के निर्धन लोगों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया गया है ,बल्कि आंकड़ों की बाजीगरी से देश के लोगों को गुमराह करने की कोशिश की गयी है."
हो सकता है कि यह टिप्पणी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की लफ्फाजी के हिसाब से बहुत उपयुक्त न हो , अर्थशास्त्र की सांचाबद्ध सोच से हट कर हो लेकिन यह पक्का है कि देश के अवाम की भाषा यही है . यह भी हो सकता है कि यह दिल्ली और मुंबई के काकटेल सर्किट वालों की समझ में भी न आये और दिल्ली में अड्डा जमाये पूंजीपतियों के संगठनों के नौकर अर्थशास्त्री इस तर्क को टालने की कोशिश करें लेकिन आम आदमी का सच यही है यह सच है कि जब से कांग्रेस ने विकास का समाजवादी रास्ता छोड़ने की राजनीति पर काम करना शुरू किया उसी वक़्त से वह शोषित-पीड़ित वर्ग जो महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस में अपना भविष्य देख रहा था ,उसने उस से कन्नी काटना शुरू कर दिया . राजनीतिक प्रक्रिया का यह विकास उत्तर प्रदेश में सबसे प्रमुखता से देखा जा रहा था.. इस क्षेत्र में दलितों के पक्षधरता की राजनीति के आधुनिक युग के विद्वान्, कांशीराम भी अपना प्रयोग कर रहे थे . उन्होंने कांग्रेस के पूंजीपति परस्त झुकाव को भांप लिया था और तय कर लिया था कि देश के गरीब आदमी को कांग्रेसी स्टाइल के विकास से बचा लेंगें जिसमें शोषित पीड़ित जनता को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के विकास का साधन बनाना था. आम आदमी कहीं सस्ते मजदूर के रूप में तो कहीं पूंजीपतियों के कारखानों में बनाए गए फालतू सामान के खरीदार के रूप में इस्तेमाल हो रहा था. .कांशीराम को तो यह भी मालूम था कि पूंजीपति वर्ग के क़ब्ज़े वाला प्रेस भी उनकी बात को नहीं छापेगा ,शायद इसी लिए उन्होंने बहुत ही सस्ते कागज़ पर छपे हुए पम्फलेटों के ज़रिये अपनी बात दलितों और शोषितों तह पंहुचायी थी.. संवाद कायम करने की दिशा में उनका यह प्रयोग लगभग क्रांतिकारी था..उन्होंने गावों में अनुसूचित जातियों के कुछ शिक्षित नौजवानों की पहचान कर ली थी . संगठन का काम देखने वाले डी एस फोर( बहुजन समाज पार्टी का पूर्व अवतार) के लोग इन नौजवानों से संपर्क में रहते थे. कांशीराम के पम्फलेट दिल्ली में करोलबाग़ और शाहदरा के कुछ प्रेसों में छापे जाते थे और लगभग पूरे उत्तर प्रदेश के इन कार्यकर्ताओं तक पंहुच जाते थे . . उन्होंने अखबारों का इस्तेमाल अपनी बात पंहुचाने के लिए कभी नहीं किया. डाइरेक्ट संवाद की इस विधा का कांशीराम ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया . उनका कहना था कि प्रेस और मीडिया पर मनुवादियों का क़ब्ज़ा है . वे अगर दलितों की कोई बात छापेंगें तो उसे तोड़-मरोड़ कर अपनी बात साबित करने के लिए ही छापेंगें . इस लिए कई बार वे अपनी मीटिंग से तथाकथित मुख्य धारा के पत्रकारों को भगा भी देते थे ... इस तरीके का इस्तेमाल करके उन्होंने बड़ी से बड़ी सभाएं कीं. अखबारों में कहीं ज़िक्र तक नहीं होता था और रैली के दिन अपनी अपनी साइकिलों से या पैदल बहुत बड़ी संख्या में दलित जनता इकट्ठा हो जाती थी. . एक बार सितम्बर १९९४ में मुझे उन्होंने,लखनऊ से दिल्ली के जहाज़ में मुझे पकड़ लिया . उस हफ्ते राष्ट्रीय सहारा अखबार के सम्पादकीय पृष्ठ पर मेरा एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था कि "जब जाति टूटेगी,तभी समता होगी". परिचय होने पर उन्होंने कहा कि समता के लिए जाति का टूटना ज़रूरी नहीं है . उत्तर प्रदेश में उन्होंने मुलायम सिंह यादव की सरकार बनवा दी थी . उन्होंने कहा कि जाति के टूटने के पहले ही समता आ जायेगी. सत्ता पर शोषित पीड़ित जनता के कब्जे का फायदा सामाजिक बराबरी कायम करने में होगा मैंने जब कहा कि वह लेख डॉ. अंबेडकर के विचारों के हवाले से लिखा गया है तो उन्होंने साफ़ कहा था कि आप अपनी सोच बदलिए . नयी राजनीतिक सच्चाई यह है कि जाति भी रहेगी और समता भी रहेगी. आज करीब १५ साल बाद उनकी बाद सही होती नज़र आ रही है.हालांकि उस वक़्त मैं उनकी बात से सहमत नहीं हुआ था .लेकिन उनकी सोच की जो मौलिकता थी, वह हमेशा याद आ जाती है समता मूलक समाज की शुरुआत की उनकी बात १५ साल बाद सही साबित होने की डगर पर है..आज जब मायावती का बजट संबंधी बयान अखबारों में देखा तो एक बार लगा कि बहुत ही सीधे और सपाट तरीके से , साधारण भाषा में आम आदमी की तकलीफों का उन्होंने ज़िक्र कर दिया है .कांशी राम के आन्दोलन में अभिजात्य वर्ग की राजनीतिक समझ से लोहा लेना था , सो उन्होंने अपना तरीका अपनाया . आज ज़रुरत इस बात की है कि उसी आभिजात्य और सामंती सोच वाले वर्ग की आर्थिक समझ के खिलाफ शोषित पीड़ित जनता की आवाज़ को उठाया जाए . और मायावती उस काम को बखूबी निभा रही हैं .बजट का विरोध, बी जे पी के नेतृत्व में कुछ अन्य पार्टियों ने भी लिया लेकिन उस विरोध को उनकी अपने हित की लड़ाई कहना ही ठीक होगा क्योंकि उन सभी पार्टियों के लोग कभी नं कभी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं और लगभग सभी पर पूंजीवादी साम्राज्यवादी सत्ता के हित चिन्तक होने के आरोप लग चुके हैं. हो सकता है कि यह आरोप गलत होने लेकिन इस पार्टियों के बड़े नेताओं के बड़े पूंजीपतियों से मधुर सम्बन्ध की सच्चाई को इनकार नहीं किया जा सकता .

पिछले १८ वर्षों से देश में आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के नाम पर देश की कमाई का एक बड़ा हिस्सा विदेशी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है . दुर्भाग्य यह है कि देश में वामपंथी पार्टियों के अलावा कोई इसका विरोध नहीं कर रहा है ..वामपंथी नेता भी अपनी सांचाबद्ध सोच के बाहर जाने को तैयार नहीं हैं. ऐसी हालत में मायावती का दो टूक बयान स्वागत करने की चीज़ है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.. और हो सकता है कि देश के दलितों और गरीब आदमियों की बात को उनकी भाषा में समझने के लिए दिल्ली की रायसीना पहाड़ियों पर रहने वाले शासक वर्गों को भी मजबूर किये जा सकें

Friday, February 5, 2010

किसी पुरानी बहस में मेरी शिरकत

शेष नारायण सिंह

कुछ महीने पहले किसी पोर्टल पर चल रही किसी बहस में मैंने एक टिप्पणी की थी . आज किसी शुभचिंतक ने उसे भेजा तो मुझे बहुत अच्छा लगा. मन कहता है कि इस टिप्पणी को अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर दूं जिससे मुझे भी याद रहे कि प्रभाष जी के अंत के पहले चल रही उस बहस में मेरी क्या पोजीशन थी, .यह है वह टिप्पणी.-----------

"मैं जो कहना चाहता हूँ, वह तो मुझे मालूम है और पिछले चालीस साल से मालूम है.. आप समझना क्या चाहते हैं , वह आप तय कीजिये.और श्रीमान जी ," यह आपके प्रभाष जोशी "जैसा जुमला इस्तेमाल करके इतनी गंभीर बहस को क्यों हल्का करना चाहते हैं. प्रभाष जोशी मेरे रिश्तेदार नहीं हैं.. जहां तक जाति के विनाश की बात है , उस पर मेरी एक निश्चित राय है..मैं नहीं जानता कि प्रभाष जोशी या आप क्या सोचते हैं इस बारे में. अगर आप लोग जाति को जिंदा रखना चाहते हैं तो मेरी राय सुन लें. जाति को एक संस्था के रूप में जिंदा रखने वालों को मैं वोट याचक मानता हूँ.यह आप को और प्रभाष जोशी को तय करना है कि आप लोग जाति के विनाश वालों की जमात में हैं या मायावती, मुलायम सिंह यादव,लालू प्रसाद, सोनिया गाँधी, राजनाथ सिंह, जयललिता, शरद पवार जैसे लोगों की जमात में हैं जो जाति की कृपा से रोटी खाते हैं. और ध्यान रखियेगा , जाति की कृपा से रोटी खाने वाले साहित्य में भी हैं और पत्रकारिता में भी. आप शायद मुझे जानते नहीं वर्ना मेरे लिए "आपके प्रभाष जोशी" जैसी बात न करते. मैं सब की इज्ज़त करता हूँ और यह इज्ज़त उसकी अच्छाइयों के लिए करता हूँ अच्छाइयां प्रभाष जी में निश्चित रूप से हैं और आप में भी होंगीं . जहां तक आपके और उनके हल्केपन का सवाल है , उसे आप लोग खुद संभालिये. मैं किसी के भी छिछोरपन से व्यथित होता हूँ . वह चाहे आप में हो या प्रभाष जी में."

Thursday, November 12, 2009

दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते

शेष नारायण सिंह

कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .

वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.

Thursday, September 10, 2009

मूर्तियां जरूरी कि सूखा राहत

मायावती सरकार के मूर्ति बनाने के अभियान पर सुप्रीम कोर्ट का ब्रेक लग गया है। सूखे से त्राहि त्राहि कर रहे उत्तरप्रदेश की सरकार, राज्य में हजारों करोड़ रुपए खर्च करके दलित नेताओं और हाथियों की मूर्तियों लगवाने और कांशीराम का स्मारक बनवाने की इतनी हड़बड़ी में है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की भी अनदेखी कर रही है।

बहरहाल मंगलवार को मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की दलीलों को कोई महत्व नहीं दिया और ऐसे सवाल पूछे जो सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं। स्टे आर्डर तो नहीं दिया लेकिन सरकार से अंडरटेकिंग लिखवा ली कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की तरफ से विचाराधीन मामले में कोई फाइनल फैसला नहीं हो जाता, मूर्ति और स्मारक का निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा।
जस्टिस बी.एन. अग्रवाल और जस्टिस आफताब आलम की बेंच ने उत्तरप्रदेश सरकार के फैसला लेने की प्रक्रिया की भी न्यायिक समीक्षा की संभावना पर गौर करने की बात की है। बेंच ने कहा कि इस बात की जांच की जाएगी कि क्या किसी भी सरकार को इस तरह के खर्च करने की मंजूरी संविधान में दी गई है।

उत्तरप्रदेश सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्र ने दलील दी कि राजनीतिक कारणों से उनके मुवक्किल यानी उत्तरप्रदेश सरकार पर इस तरह के मुकदमे दायर किए जा रहे है। न्यायालय ने उन्हें तुरंत टोका कि उनका काम मामले के संवैधानिक और कानूनी पहलू पर गौर करना है, राजनीति से अदालत का कोई मतलब नहीं है। उत्तरप्रदेश सरकार के वकील के इस दावे को भी अदालत ने सिरे से खारिज कर दिया कि मायावती कांशीराम और अंबेडकर की मूर्तियों और स्मारकों की स्थापना का फैसला संविधान सम्मत है, अदालत ने क्योंकि उसे मंत्रिपरिषद की मंजूरी मिल चुकी है तो माननीय न्यायालय ने कहा कि मामले के इस पहलू की भी जांच की जाएगी कि किसी भी सरकार को जनता के पैसे को इस तरह की योजनाओं पर खर्च करने का संवैधानिक अधिकार है कि नहीं।

सतीश मिश्रा ने यह भी दलील दी कि नेहरू गांधी परिवार की मूर्तियों पर इतना खर्च हो चुका है तो दलितों की मूर्तियों के लिए क्यों मना किया जा रहा है। अदालत ने इस हास्यास्पद दलील पर गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा। सवाल उठता है कि मायावती ने इन मूर्तियों को बनवाने का काम युद्घ स्तर पर क्यों शुरू कर रखा है। इस वक्त उत्तरप्रदेश में किसान सूखे से तड़प रहा है, राज्य में सिंचाई के कोई भी सरकारी साधन नहीं हैं, निजी ट्यूबवेल से सिंचाई नहीं हो पा रही है क्योंकि राज्य में हफ्तों बिजली नहीं आ रही है, खरीफ की फसल तबाह हो चुकी है।

राज्य सरकार के पास कर्मचारियों की तनखाह देने के लिए पैसे भी बड़ी मुश्किल से जुट रहे हैं, कानून व्यवस्था ऐसी है कि कहीं भी, कोई भी किसी को भी झापड़ मार दे रहा है। कई जिलों में मुख्यमंत्री के खास कहे जाने वाले पुलिस वाले मनमानी कर रहे है। अपहरण और लूटमार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही है। अपना खर्च चलाने के लिए राज्य सरकार केंद्र से अस्सी हजार करोड़ रुपए की मांग कर रही है और मायावती इसे राज्य बनाम केंद्र का मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हैं।

किसी भी समझदार मुख्यमंत्री को सूखे जैसी मुसीबत के वक्त अपने लोगों के साथ खड़े रहना चाहिए। उनकी जो भी खेती संभल सके उसमें मदद करनी चाहिए लेकिन उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मूर्तियों और स्मारकों के निर्माण में इस तरह से जुटी है जैसे अब उन्हें दुबारा मौका ही नहीं मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट तो अपना संवैधानिक कर्तव्य निभा रहा है लेकिन सरकार को अपना कर्तव्य करने की प्रेरणा देने के लिए सभ्य समाज और जागरूक जनमत का भी कोई फर्ज है।

जरूरत इस बात की है कि उत्तरप्रदेश सरकार को इस बात की जानकारी दी जाये कि राज्य में हाहाकार मचा हुआ है और सरकार का काम है जनता को राहत देना। यह काम आमतौर पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं लेकिन उत्तरप्रदेश सरकार का रवैया ऐसा है कि विधान सभा की कोई भूमिका ही नहीं रह गई है। मुख्यमंत्री की सलाहकार सभा में ऐसे लोगों की भरमार है जो राजनीतिक और सामाजिक समझ से दूर रहते हैं और जी हजूरी की कला में पारंगत है। अगर सलाहकार राजा को सही सलाह देने के बजाय चापलूसी करने लगे तो न तो राजा का भला होगा और न ही राज्य का।

उसी तरह, अगर हकीम रोगी की मर्जी से इलाज करे तो भी बहुत ही मुश्किल होगी। उत्तरप्रदेश की हालत को सुधारने के लिए कुछ ऐसे लोगों की जरूरत है जो सच्चाई बयान कर सकें। अगर फौरन ऐसा न हुआ तो बहुत देर हो जाएगी। फिर मूर्तियों को देखने वाले बहुत कम हो जाएंगे या यह भी हो सकता है कि शोषित पीडि़त जनता इन मूर्तियों का वह हाल कर दे जो बाकी तानाशाहों की मूर्तियों का होता रहा है।

Saturday, August 8, 2009

ग़रीब लड़की चोरी नहीं करती...

देवरिया जिले के किसी गांव में बिट्‌टन नाम की एक लड़की रहती है, गरीब है, दलित है और मेहनत मजूरी करके दो जून की रोटी का इंतजाम करती है। गांव में ही कोई राय साहब रहते हैं उनका भरा-पूरा परिवार है, ग्रामीण हिसाब से संपन्न हैं और बिट्‌टन की गरीबी पर भारी पड़ते हैं। बिट्‌टन इन्हीं राय साहब के घर मजदूरी करती थी, घर का काम टहल करती थी, जूठा खाती थी, पुराने कपड़े पाकर धन्य हो जाती थी और राय साहब के घर की नौकरानी होने की वजह से अपने आस-पड़ोस में भी उसकी हनक थी।

यह सब खत्म हो गया क्योंकि बिट्‌टन पर चोरी का आरोप लगाकर राय साहब और उनके घर वालों से बिट्‌टन को पीटा, उसके शरीर के नाजुक अंगों में लोहे की गर्म सलाखों से निशान लगा दिए और बिट्‌टन की जिंदगी तबाह कर दी। बिट्‌टन की उम्र यही कोई 15-16 साल होगी। पूरी संभावना है कि बिट्‌टन की नानी 1947 के बाद पैदा हुई हो, यानी आज़ाद भारत मे जन्म लेने वाले गरीब दलितों की तीसरी पीढ़ी को भी इस देश का दबंग वर्ग लोहे की रॉड से दागता है और आजादी की लड़ाई में शामिल हर महापुरुष की विरासत को मुंह चिढ़ाता है।

कैसे होता है यह सब, खासकर उत्तरप्रदेश में जहां दलित की एक बेटी राज कर रही है, राज्य से गुंडो का सर्वनाश करने का बीड़ा उठाकर सत्ता में आई है और दलितों को आत्मसम्मान से जिंदा रहने का अधिकार देना उसकी राजनीति का बुनियादी आधार है?????

बिट्टन को असहाय किसने बनाया? आजादी के बासठ साल बाद भी बिट्‌टन पर ही चोरी का इल्जाम क्यों लगता है, जबकि इस बात की पूरी संभावना है कि राय साहब के घर में चोरी उनके परिवार के ही किसी व्यक्ति ने की हो, या उनकी पत्नी ने ही की हो, कथित रूप से जिनका मंगलसूत्र चोरी हुआ है। लेकिन संभ्रांत मानसिकता के दल-दल में फंसा हुआ प्रशासन, पुलिस, समाज यह मान ही नहीं सकता कि राय साहब का कोई संपन्न रिश्तेदार चोरी कर सकता है। चोरी करे या ना करे इलजाम तो बिट्टन पर ही लगेगा। इसलिए नहीं कि वह गरीब है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी रक्षा में खड़ी नहीं हो सकती।

बिट्‌टन को इतना असहाय किसने बनाया। सीधा सा जवाब है-अगर आजादी के बाद पैदा हुई बिट्‌टन की नानी ने गांव के पास के प्राइमरी स्कूल में जाकर शिक्षा ले ली होती तो पूरी संभावना है कि बिट्‌‌टन की मां किसी सरकारी नौकरी में होती और बिट्टन आज एक पढ़ी-लिखी लड़की होगी और किसी भी राक्षसनुमा राय साहब के यहां मजूरी न कर रही होती। बिट्टन की दुर्दशा पर आज क्रोध, निराशा, हताशा और पछतावा सब कुछ है।

जब आजादी के बाद सबको शिक्षा देने का इंतजाम कर दिया गया था तो बिट्टन की नानी के हाथ से तख्ती किसने छीन ली, क्यों हमारे देश में गरीबी और बदहाली को जिंदा रखने की राजनीति खेली जा रही है। सामाजिक बराबरी से परहेज यह मामला उत्तरप्रदेश का है लेकिन मायावती को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा, कायरता होगी। जरूरत इस बात की है कि यह समझा जाए आजादी मिलने के तीन पीढ़ियों बाद तक लोग क्यों गुलामी की जिंदगी बसर करने पर मजबूर क्यों हैं। जब महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर और राममनोहर लोहिया ने समतामूलक, छुआछूत विहीन समाज की बात की थी तो उनके अनुयायियों ने आजादी के बाद उनकी राजनीतिक सोच को कार्यरूप में क्यों नहीं बदला।

शुरू के बीस साल उत्तरप्रदेश में गांधी नेहरू की पार्टी का राज रहा। बाद में भी कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में पंद्रह साल राज किया। गांधी ने कहा था कि छुआछूत को समाज से मिटाना होगा, जाति के आधार पर शोषण के निजाम को खत्म करना होगा। महात्मा जी ने जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात तो नहीं की थी लेकिन जाति को शोषण का आधार बनाने की हर स्तर पर मुखालफत की थी। सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के अलावा किसी कांग्रेसी ने कोई योजना चलाने की नहीं सोची। उल्टे इंदिरा गांधी के बाद के कांग्रेसियों ने ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम राजाओं महाराजाओं को इतनी अहमियत दी कि कभी-कभी तो लगने लगा कि ब्रिटिश हुकूमत फिर लौट आई है।

डा.राम मनोहर लोहिया ने साफ कहा था कि जातिप्रथा का विनाश किया जाना चाहिए इसके लिए उन्होंने अपने सभी शिष्यों से कहा था कि सोचने या भाषण देने से जातिप्रथा समाप्त नहीं होगी। उसके लिए अंर्तजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना होगा और छुआछूत को मिटाना होगा। जातिवाद की दलदललोहिया के चेलों में जिन लोगों ने राज किया उनमें प्रमुख हैं, कर्पूरी ठाकुर, लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार। इन लोगों ने क्या कभी भी अपने राज्य में सह विवाह और सह भोजन की बात की? क्या कभी इन्होंने सरकारी नीतियों में कोई ऐसी राजनीतिक लाइन डालने की कोशिश की जिससे जाति प्रथा का जहर खत्म हो।

पिछले चालीस साल के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो कहीं भी इस तरह की राजनीतिक सोच के बारे में जानकारी होने तक का पता नहीं लगता। डा.अंबेडकर का तो पूरा राजनीतिक दर्शन ही जाति के विकास के सिद्घांत पर आधारित है। उनका कहना था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी का सपना पूरा नहीं होगा। पिछले पंद्रह साल से उत्तरप्रदेश की राजनीति में दखल रखने वाली मायावती ने एक बार भी डा.अंबेडकर के इस सपने को पूरा करने की कोशिश क्यों नहीं की, यह पहेली समझ पाना थोड़ा मुश्किल जरूर है, असंभव नहीं। लगता है कि सभी पार्टियों के बड़े नेता किसी न किसी जाति के मतदाताओं को अपना खास समर्थक मानते हैं और उस जाति की पहचान से छेड़छाड़ नहीं करना चाहते शायद इसीलिए गांधी, लोहिया और अंबेडकर के बताए रास्ते में चलने के बजाय जातिवाद के दलदल में फंसते गए।

लोकसभा चुनाव 2009 से कुछ संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि जातियां किसी भी पार्टी के साथ अब बहुत दिन तक चिपकी रहने वाली नहीं हैं। मसलन दलितों ने उत्तरप्रदेश में कई क्षेत्रों में मायावती के उम्मीदवार को हराने की कोशिश की। उत्तरप्रदेश के बाहर तो मायावती को दलित वोट लगभग न के बराबर मिला। बाकी दलों का भी यही हाल है। जाति को राजनीति का आधार बनाने वाली पार्टियों को आने वाले चुनावों में और तरीकों पर गौर करना होगा।

इसलिए उम्मीद बंधती है कि जाति को समाप्त करने की राजनीतिक आवश्यकता पर इनका ध्यान जायेगा और जाति का विनाश एक वास्तविकता की शक्ल अख्तियार करेगा। ऐसी हालत में सामाजिक और आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा और कोई बिट्‌टन इसलिए नहीं अपमानित होगी कि वह दलित है।

Wednesday, August 5, 2009

बुंदेलखंड की राजनीतिक लड़ाई

उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में अपनी खोई हुई राजनीतिक हैसियत को दोबारा हासिल करने के लिए कांग्रेस ने बुंदेलखंड का रास्ता चुना है। बुंदेलखंड में ही राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से जीवित करने के अपनी योजना का परीक्षण किया था इलाके के दलितों के यहां भोजन करके उन्होंने राज्य की सबसे बड़ी पार्टी की नेता और मुख्यमंत्री मायावती को चुनौती दी थी।

काफी हद तक कामयाब रहे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस आज बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को बराबर की टक्कर दे रही है। रीता बहुगुणा जोशी को गिरफ्तार करवाने की योजना की सफलता के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। जानकार बताते हैं कि रीता बहुगुणा की गिरफ्तारी करवाने की रणनीति के पीछे कांग्रेस की योजना वास्तव में राज्य में विपक्ष के स्पेस पर कब्जा करने की थी लेकिन गिरफ्तारी के साथ-साथ मायावती की पार्टी और सरकार ने राजनीतिक भूल कर दी। रीता बहुगुणा का किराए का घर जलवा दिया।

बस फिर क्या था पूरे देश में इस प्रशासनिक बर्बरता के खिलाफ माहौल बन गया। जिसका कांग्रेस को बड़ा फायदा हुआ। हर जिले में जो भी कुछ लोग कांग्रेसी कार्यकर्ता के नाम पर बचे खुचे थे, सड़कों पर आ गए और हर जिले में कांग्रेस का मामूली ही सही संगठन खड़ा हो गया। अजीब संयोग है कि उत्तर प्रदेश में कांशीराम की राजनीतिक कुशलता के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन खत्म हुआ था, जब मुलायम सिंह और बीजेपी का विरोध करने के नाम पर काशीराम ने कांग्रेस से विधानसभा चुनाव के लिए सीटों का समझौता किया था।

425 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को 134 सीटों पर सीमित कर दिया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। आज उन्हीं कांशीराम की शिष्या मायावती की एक राजनीतिक गलती से उत्तर प्रदेश के हर गांव में कांग्रेसी लामबंद हो रहे हैं और मामूली ही सही, एक संगठन का स्वरूप ले रहे हैं। रीता बहुगुणा का घर जलना, कांग्रेस के पुनर्जीवन की पहली सीढ़ी बन गया है। पिछले 20 साल से उत्तर प्रदेश में खाली बैठे कांग्रेसियों का एका एक कुछ काम मिल गया है और राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का सपना पूरा होने की तरफ बढ़ रहा है।

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में उम्मीद से ज्यादा सीटें पाकर कांग्रेस के नेतृत्व में भी उत्साह है। इसी उत्साह के चलते पार्टी में उत्तर प्रदेश को लेकर सक्रियता बढ़ गई है। राज्य के सांसदों का जो दल प्रधानमंत्री से मिलकर बुंदेलखंड की तरक्की के लिए अलग संगठन बनाने की बात कर रहा था, वह राजनीतिक शतरंज की बहुत अहम चाल को अंजाम दे रहा था। दुनिया जानती है कि बुंदेलखंड देश का सबसे पिछड़ा इलाका है।

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में 2009 के पहले तक मायावती की पार्टी सबसे मजबूत थी लेकिन मायावती ने सरकार बनाने के बाद इलाके की उपेक्षा की। नतीजा यह हुआ कि वहां राजनीतिक स्पेस बन गया। राहुल गांधी ने इसी राजनीतिक स्पेस को भरने की कोशिश शुरू कर दी है। चुनाव के पहले दलितों के यहां खाना पीना एकदम सोची समझी रणनीति के तहत किया गया था और अब बुंदेलखंड के विकास की बात कराना उसी स्पेस को भरने की तैयारी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसी सांसदों ने उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की तरक्की की बात को मुख्य एजेंडा बनाकर राजनीतिक शतरंज की ऐसी शह दी है जो दोनों ही राज्यों में मौजूदा राजनीतिक ता$कतों को मात देने की ताकत रखती है।

दोनों ही राज्यों में बुंदेलखंड का इलाका सदियों से उपेक्षित है। यह भी सही है कि इस उपेक्षा के लिए कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है लेकिन वह अब इतिहास का हिस्सा है। आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि जवाहर लाल नेहरू का एक वंशज बुंदेलखंड के रास्ते लखनऊ और भोपाल की रियासतों पर कब्ज़ा करने की मंसूबाबंदी कर चुका है।

हालांकि कांग्रेस की बुंदेलखंड नीति से उत्तर प्रदेश में बीएसपी और मध्यप्रदेश में बीजेपी को नु$कसान होने की संभावना है लेकिन घबराहट बीएसपी में ही ज्य़ादा है। बीजेपी ने तो सोमवार को लोकसभा में कांग्रेस की नीयत को कटघरे में लाने की कोशिश की लेकिन लखनऊ की सरकार में तो बुंदेलखंड के मैदान में राहुल को हर क़ीमत पर शिकस्त देने की कोशिश चल रही है। कहीं समरा कमेटी की रिपोर्ट का हवाला दिया जा रहा है जिसने बुंदेलखंड के विकास के लिए 3866 करोड़ रुपये के पैकेज की बात की थी तो मुख्यमंत्री खुद 80, 000 करोड़ की सहायता की मांग कर रही है।

राजनीति के जानकार बताते हैं कि बुंदेलखंड की लड़ाई आंकड़ों के खेल के दायरे से बाहर जा चुकी है, अब कुछ शुद्घ रूप से राजनीतिक युद्घ है जिसमें मैदान बेशक बुंदेलखंड का हो, हथियार और मकसद शुद्घ रूप में राजनीतिक है। सांसद में बीजेपी और बीएसपी के शोर गुल के बाद सरकार की तरफ से स्पष्टीकरण आ गया कि बुंदेलखंड के विकास के लिए किसी सरकारी एजेंसी का गठन पर अभी सरकार कोई विचार नहीं कर रही है।

बहुत सही बात है, सरकार ऐसी कोई योजना नहीं बना रही है। लेकिन एक बात और सच है कि बुंदेलखंड पर जो कांग्रेस की तरफ से जो चालें चली जा रही हैं, वे भी सरकारी नहीं है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात शुद्घ रूप से आइडिया के स्तर पर है लेकिन इस आइडिया ने अपना काम कर दिया है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात करके कांग्रेस ने यह बात साफ कर दिया है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारें इला$के के विकास के प्रति गंभीर नहीं हैं और कांग्रेसी बेचारे बहुत चिंतित हैं।

गेंद अब मायावती और शिवराज सिंह चौहान के पाले में है और उनके जवाब की ता$कत से ही बुंदेलखंड में कांग्रेस को पछाड़ा जा सकता है, दिल्ली में सरकार के सामने हल्ला गुल्ला करके राजनीतिक लड़ाई की बात सोचना भी दीवालियापन की श्रेणी में आएगा। बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी देश की राष्टï्रीय पार्टियां हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें और बुंदेलखंड में हो रहे कांग्रेसी हमले का जवाब राजनीतिक तरीके से दें क्योंकि राजनीतिक लड़ाई के फैसले प्रशासनिक हथियारों से नहीं होते।

Tuesday, July 28, 2009

राजनीतिक बयानबाजी बनाम विकास का एजेंडा

उत्तरप्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने राज्य का बहुत नुकसान किया है। मुख्यमंत्री मायावती को उनके कर्तव्यों को याद दिलाने के लिए शुरू हुए जनता के आंदोलन को उन्होंने पटरी से उतार दिया है। राज्य में बढ़ रही बद अमनी और जंगलराज के खिलाफ जो टिप्पणी उन्होंने मुरादाबाद में की उसके पहले हिस्से के बाद ही अगर वे चुप हो जाती तो राज्य पर बड़ा उपकार होता लेकिन वे अपनी रौ में बह गईं और ऐसी बात कह दी जिसके लिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए।

उनके बयान के बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, जेल में रखा और अब अदालत में उन पर मुकदमा चलाने की प्रकिया शुरू हो गई है। भारतीय दंड संहिता और दलित ऐक्ट के तहत उन पर मुकदमा चलाया जाएगा। उनकी आपत्तिजनक टिप्पणी से नाराज बसपा कार्यकर्ताओं ने उनका घर फूंक दिया, लूटपाट की और आपराधिक कार्य किया। पुलिस को उनके खिलाफ भी कार्रवाई करनी चाहिए। एफआईआर दर्ज हो गया है और मामला तफतीश की स्टेज पर है। इस बीच मायावती को कहीं से पता चला है कि रीता बहुगुणा जोशी के घर पर लूटपाट करने वाले लोग बसपाई नहीं, कांग्रेसी थे। अपनी तफतीश में पुलिस को मुख्यमंत्री के इस बयान को शामिल कर लेना चाहिए जिससे कि जांच में सुविधा मिलेगी।

आम आदमी की रुचि केवल इस बात में है कि जो भी अपराधी हो उस पर मुकदमा कायम हो और उसे सजा दी जाय। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि मायावती और रीता बहुगुणा के बीच वाक्युद्घ की राजनीति शुरु हो गई है। कांग्रेस की कोशिश है कि उत्तरप्रदेश में मायावती के विरोध की राजनीति के स्पेस पर कब्जा किया जाय। अगर कांग्रेस अपने आपको मायावती विरोधी स्पेस में स्थापित कर लेती है तो राज्य की सत्ता की वापसी में उसे बहुत फायदा होगा। अभी मायावती के विरोध का स्पेस मुलायम सिंह यादव के पास है।

इस बयानबाजी की राजनीति की मदद से उत्तरप्रदेश की सरकार को भी मौका मिल गया है कि राज्य में विकास और कुशासन के मामले में अलग थलग पड़ी बहुजन समाजपार्टी कांग्रेस के खिलाफ हल्ला गुल्ला करके बहस के दायरे से विकास के मसले को बाहर कर दे। पिछले कई महीनों से जागरूक जनमत और मीडिया के सहयोग से उत्तरप्रदेश की चर्चाओं में विकास एक प्रमुख विषय के रूप में उभरा था। इस संदर्भ में मायावती का योगदान भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने विकास की किसी भी पहल की बाट जोह रहे राज्य को मूर्तियों और स्मारकों से नवाजने का जो अभियान चलाया उसकी वजह से चारों तरफ से आवाज उठने लगी थी कि फिजूल खर्ची बनाम विकास पर बहस होनी चाहिए।

रीता बहुगुणा जोशी के गैर जिम्मेदार बयान की वजह से बहुजन समाजपार्टी ने बहस का स्तर और दिशा बदलने की कोशिश शुरू कर दी है। अगर मीडिया और जागरूक जनमत संभल न गया तो राज्य में विकास की संभावना पर फिर सवालिया निशान लग जाएगा। रीता बहुगुणा के बयान की वजह से यह अवसर सत्ता पक्ष के हाथ आया है और वे पूरी तरह से जुट गए हैं कि बहस विकास और सुशासन के दायरे से बाहर चली जाय।देखने में आ रहा है कि मीडिया भी बयानबाजी की राजनीति का माध्यम बन रहा है। अगर ऐसा हुआ तो बहुत बुरा होगा।

जहां तक मीडिया का सवाल है, उसका कर्तव्य है कि वह उत्तरप्रदेश सरकार को बताए कि मुरादाबाद में एक कांग्रेसी ने आपत्तिजनक बयान दिया, उसके खिलाफ जो भी कार्रवाई ठीक हो, की जाय। लखनऊ में उस कांग्रसी का घर जलाया गया घर जलाने वालों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। यह दोनों ही घटनाएं निंदनीय हैं, और इनकी जांच कानून के दायरे में रहकर की जानी चाहिए, मुकदमा कायम करके न्याय का शासन स्थापित किया जाना चाहिए। यह काम यहीं खत्म हो जाता है, जहां तक सरकार का ताल्लुक है। इसके बाद सरकार को वह काम शुरू कर देना चाहिए जिसके लिए उसे जनता ने चुना है। वह काम है विकास, और सुशासन। मीडिया का भी यही दायित्व है कि वह राज्य सरकार को उसके कर्तव्यों की याद दिलाता रहे और आगजनी या अपमानजनक बयानबाजी के बहाने भटकने न दे।

कांग्रेस भी लोकसभा में सम्मानजनक सीटें हासिल करने के बाद उत्तरप्रदेश की अगली सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है और बहुजन समाज पार्टी की तो सरकार है ही।इस पृष्ठभूमि में उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री को डा. बी.आर. अंबेडकर के 1916 के उस पत्र की याद दिलाई जानी चाहिए जिसमें उन्होंने लिखा था कि किसी की मूर्ति लगाने से अच्छा है कि शिक्षा संस्थानों की स्थापना की जाय। अमरीका के कोलंबिया विश्वविद्यालय के छात्र अंबेडकर ने बॉम्बे क्रॉनिकल अखबार में चिठ्ठी लिखकर उस वक्त की बॉम्बे सरकार के उस प्रस्ताव की आलोचना की थी जिसके अनुसार बंबई नगर निगम के सामने 1915 में स्वर्गीय हुए फीरोज शाह मेहता की मूर्ति लगाने की बात की गई थी। डा. अंबेडकर की बात आज भी उतनी ही सच है।

उत्तरप्रदेश में शिक्षा का स्तर रोज ही गिर रहा है। यहां यह साफ करना जरूरी है कि इसके लिए केवल बहुजन समाजपार्टी को जिम्मेदार ठहराना गलत होगा। शिक्षा के स्तर में भारी गिरावट का सिलसिला 70 के दशक में ही शुरू हो गया था। इसके लिए कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी की सरकारें जिम्मेदार है। मायावती की मौजूदा सरकार के पास इसे दुरुस्त करने का मौका है लेकिन सरकार के करीब डेढ़ साल तो गुजर चुके हैं और इस दिशा में अभी कोई पहल नहीं हुई है। सरकार को इस दिशा में फौरन पहल करनी चाहिए। दूसरा क्षेत्र जिसमें सरकार को फौरन ध्यान देना चाहिए वह है खेती के विकास का।

राज्य का मुख्य धंधा खेती है। किसान त्राहि-त्राहि कर रहा है, न बिजली है, न पानी है, न बीज है और खाद के कारोबार पर कालाबाजारी करने वाले कुंडली मार कर बैठे हैं। यह राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है कि इन लोगों को दुरुस्त करे और अगर इन स्वार्थी लोगों को पता लग जाय कि राज्य सरकार का इरादा जनता का पक्षधर बनने का है तो अपने आप ही रास्ते पर आ जाएंगे। इसी तरह से जिसके घर में खेती की बुनियादी व्यवस्था ही न हो वह हवेली नहीं बनवाता। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री को मूर्तियां स्थापित करके अमर होने के मोह से उबरना पड़ेगा। जितने खर्च में मूर्तियां लग रही हैं, उतने ही खर्च में अगर दलित महापुरुषों के नाम पर राज्य की हर कमिश्नरी में बड़े अस्पताल खोल दिए जाएं, डा. अंबेडकर और कांशीराम के नाम पर हर जिले में बिजली घर बना दिए जायं तो भावी पीढिय़ा भी उन्हें याद रखेंगी।

इसी तरह से अगर शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था को अनुशासन की सीमा में लाकर कम शुरू कर दिया जाय तो बहुत ही अच्छा होगा। इन्हीं प्राइमरी स्कूलों से पढ़कर राज्य में बड़े से बड़े विद्वान अफसर और वैज्ञानिक पैदा हुए हैं। अगर प्राइमरी शिक्षकों को उनकी ड्यूटी करने के लिए मुख्यमंत्री जी मजबूर कर सकें तो राज्य का भविष्य सुधर जाएगा।समता मूलक समाज की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा जाति व्यवस्था है। डा. राम मनोहर लोहिया और डा. भीमराव अंबेडकर दोनों ही महापुरुषों ने इसके विनाश की बात की है।

पिछले 18 वर्षों से राज्य में ऐसी कोई सरकार नहीं बनी है जिसमें लोहिया और अंबेडकर के अनुयायी न रहे हों लेकिन न मुलायम सिंह ने जातिव्यवस्था खत्म करने की दिशा में कोई पहल की और न ही मायावती ने। सरकार को अपने बाकी बचे हुए वक्त में इस विषय पर भी ध्यान देना चाहिए। जरूरी है कि सरकार और बहुजन समाजपार्टी का एजेंडा विकास और सुशासन बनाए रखने में मीडिया और जागरूक जनमत के प्रतिनिधि सहयोग करें। रीता बहुगुणा जोशी के अभद्र बयान पर कार्रवाई करने के लिए नियम कानून हैं, उस पर राजनीतिक ताकत की बर्बादी नहीं होनी चाहिए। राज्य सरकार को विकास की डगर से विचलित नहीं होना चाहिए।