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Friday, May 6, 2011

उत्तर प्रदेश की आख़िरी लड़ाई बीजेपी और मायावती के बीच होगी

शेष नारायण सिंह


उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए शुरू हो चुके घमासान में प्रधानमंत्री ने भी अपनी हाजिरी लगवा दी है . राहुल गांधी के प्रिय क्षेत्र , बुंदेलखंड में उन्होंने ३० अप्रैल को जो भाषण दिया,उसे हर तरह से चुनावी भाषण ही माना जाएगा. राहुल गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जिनका सीधा लाभ चुनावों में मिलता है . हालांकि विधान सभा का कार्यकाल २०१२ के प्रारंभ में पूरा होगा लेकिन जानकर बता रहे हैं कि चुनाव इस साल के अंत में ही हो जायेगें . सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है . उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है . बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि मई के अंत तक उनके टिकट भी तय हो जायेगें. २००७ के चुनावों के ठीक पहले जो राजनीतिक हालात थे अब वे नहीं हैं . उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ गँवा चुकी कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपने आपको मायावती और मुलायम सिंह यादव की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश की है . लोकसभा २००९ में उसे मिली सीटें इस बात को साफ़ कर देती हैं.मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनावी राजनीति में सफलता की ताकत को बहुत ज्यादा गंवाया है . उनकी हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में जहां वे अपनी पुत्रवधू की जीत पक्की नहीं कर सके ,वहीं पंचायत चुनावोंमें उनेक परिवार के कई सदस्य चुनाव हार गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी नाराज़गी बहुत है . उनके बहुत करीबी रिश्तेदार तक उनके क्षेत्र में उनके खिलाफ काम कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उनके कई विधायक अजित सिंह और बहुजन समाज पार्टी की टिकटों की जुगत भिड़ा रहे हैं . आम तौर पर मुसलमान पिछले २० वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था . उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता,आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे. दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे ,जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे .नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए .इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी . लोकसभा २००९ में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया . नतीजा सामने है . बीजेपी के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली. इसलिए आगामी विधान सभा चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है . वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो बीजेपी को कमज़ोर करता हो. राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए. लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा . इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं . उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में बीजेपी के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए. अब उन्हें किसी पार्टी की तलाश है . मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है . मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है . इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए . कांग्रेस की रण नीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले पांच साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगें और मायावती से नाराज़ मतदाता कांग्रेस को सत्ता देकर मायावती से बदला लेने की कोशिश करेगें . २००७ के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था जब मुलायम सिंह ने नाराज़ सभी वर्गों ने मायावती को जितवाकर अपना बदला चुकाया था .

जहां तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं .उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर ज़रूरी बहुमत सुनिश्चित कर सकते हैं . इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के अगले चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की लड़ाई है . जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मायावती से नाराज़ वोटर अपने आप आ जाएगा . फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं . कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ऐलानियाँ राजपूतों की राजनीति कर रहे हैं . इस मुहिम में उन्होंने अमर सिंह को भी साथ ले लिया है . यह अलग बात है कि अमर सिंह राजपूतों के नेता नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों का सघन दौरा किया और राजपूतों के प्रभाव वाले कुछ क्षेत्रों में उनके प्रति सहानुभूति है . दिग्विजय सिंह की कोशिश है कि उन लोगों को भी साथ लिया जाए . अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा . कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मायावाती से नाराज़ लोग कांग्रेस को प्राथमिकता देगें और राहुल गाँधी का उत्तर प्रदेश को कांग्रेस के लिए मज़बूत करने के सपने को ताक़त मिलेगी . लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बीजेपी इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी. उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले . राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह की सभाएं हो रही हैं. लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाकर उन्हें पूरे देश में घुमाकर दिल्ली वाले नेता उनको लगभग निपटा ही चुके हैं . आडवाणी ने ही राजनाथ सिंह का सबसे ज्यादा नुकसान किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के कमज़ोर हो जाने की वजह से आडवाणी के उस वक़्त के साथियों ने राजनाथ सिंह के खिलाफ माहौल बना दिया था लेकिन अब वही साथी आडवानी को बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर ला चुके हैं .लाल कृष्ण आडवानी बीजेपी के संस्थापक और बड़े नेता थे . हर हाल में राजनाथ सिंह का क़द उनके और वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में बीजेपी की राजनीति के भाग्य विधाता हैं , उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं . ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दुबारा अपना ले. अगर ऐसा हुआ तो मायावती की मुख्य विरोधी पार्टी का रुतबा बीजेपी को ही मिल जाएगा . बीजेपी की कोशिश अभी से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की चल रही है . वरुण गाँधी की राजनीति के पैरोकार लोग उस काम में लग गए हैं . अगर मुसलमानों को लगा कि बीजेपी को कमज़ोर करने में कांग्रेस से ज्यादा मायावती कारगर होंगीं तो वह एकमुश्त बहुजन समाज पार्टी के साथ ही चला जाएगा .ज़ाहिर है कि अभी तस्वीर बहुत धुंधली है . लेकिन बिसात बिछ चुकी है और उत्तर प्रदेश के बहुत ही दिलचस्प होने की संभावना है. हाँ इस बात में दो राय नहीं है कि खेल किसी भी शतरंज के मुकाबले से बेहतर होगा .इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश में आख़िरी लड़ाई बीजेपी और बहुजन समाज पारते के बीच ही होगी. ऐसी हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव का दल बैकग्राउंड में चले जायेगें .

Sunday, April 24, 2011

अन्ना हजारे के आन्दोलन को उत्तर प्रदेश की पिच पर तौल रहे हैं कांग्रेस और बीजेपी वाले

शेष नारायण सिंह

अन्ना हजारे के आन्दोलन ने अलग अलग राजनीतिक खेमों में अलग अलग असर डाला है . जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसने पक्के तौर पर इस आन्दोलन को बीजेपी की गोद से छीनकर अपनी अध्यक्ष सोनिया गाँधी की छवि को दुरुस्त करने की कोशिश में शुरुआती सफलता हासिल कर ली है . जब अन्ना हजारे ने सरकारी दखल वाली ड्राफ्टिंग कमेटी में आपने बन्दों के साथ शामिल होने का फैसला किया तो बीजेपी के हाथ बड़ी निराशा लगी. नागपुर जिले के बीजेपी नेता और मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी खासे नाराज़ हुए और उन्होंने इस आन्दोलन में सबसे अहम भूमिका निभा रहे बाबा रामदेव से आपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर कर दी. दिल्ली में मौजूद उनके प्रवक्ताओं ने उसी राग में अपनी बात कहनी शुरू कर दी .शायद इसलिए कि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर बीजेपी नेताओं का राजनीतिक ज्ञान अखबारों को पढ़कर ही आता है . इस बीच कांग्रेस ने अपनी सर्वोच्च नेता सोनिया गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय महान नेता साबित करने के चक्कर में अन्ना हजारे के साथियों के खिलाफ उल जलूल बयान देना शुरू कर दिया .दिग्विजय सिंह ने शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया . एक फर्जी सी डी को बाज़ार में डालकर अन्ना के साथियों को भ्रष्ट साबित करने की मुहिम को तेज़ कर दिया गया .ज़ाहिर है कि देश में कांग्रेस की इस दोहरी चाल के खिलाफ माहौल बनने लगा . वेब मीडिया की कृपा से सबको मालूम पड़ गया कि कांग्रेस का खेल क्या है . बीजेपी को इस आन्दोलन की समर्थक बता कर कांग्रेस की तरफ से किया गया हमला अब बेअसर हो चुका है .उधर बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पटना से आये बयान ने नए राजनीतिक समीकरणों का संकेत दे दिया है .उनके बयान से लगता है कि अब बीजेपी अन्ना के आन्दोलन का जितना भी इस्तेमाल कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए कर पायेगी ,करेगी. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की कोशिश है कि जन लोक पाल बिल को बेमतलब कर दिया जाए . लोकपाल बिल की मसौदा समिति के सदस्यों के खिलाफ शुरू हुए कांग्रेस के अभियान को वे इस सांचे में फिट करके अन्ना के अभियान से ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक लाभ लेने की बात करते नज़र आते हैं . हालांकि उन्होंने किसी को भी क्लीन चिट देने से इनकार किया लेकिन बिल का मसौदा तैयार होने के पहले ही उसमें तरह तरह के पेंच फंसाने के कांग्रेस के अभियान को आड़े हाथों लिया . राजनाथ सिंह का बयान कोई निजी बयान नहीं है .यह इस बात का संकेत है कि बीजेपी में अन्ना के आन्दोलन को लेकर जो दुविधा बनी हुई थी , वह अब दूर हो रही है . लगता है कि दिल्ली में बसने वाले बीजेपी के जड़ विहीन नेताओं की ज़द से अब रणनीति बाहर आ चुकी है और अब उसमें ज़मीनी राजनीति के दिग्गज भी शामिल किये जा रहे हैं . राजनाथ सिंह की पहचान देश के उन बीजेपी नेताओं के रूप में होती है जिन्होंने ज़मीनी राजनीति के बल पर मौजूदा ऊंचाइयां तय की हैं . भागते भूत की लंगोटी पर क़ब्ज़ा करने की उनकी रणनीति से बीजेपी को शायद बहुत वोटों का फायदा न हो लेकिन बीजेपी वालों को एक मौक़ा और मिल गया है जब वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार की पोषक पार्टी के रूप में पेश कर सकते हैं . राजनीति की ज़बान में कहा जाए तो यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.

बीजेपी की बदली हुई सोच का अंदाज़ कांगेस को भी लग चुका है .शायद इसीलिये हर मंच से अब कांग्रेसी नेता संतोष हेगड़े की तारीफ़ कर रहे हैं . यहाँ तक कि दिग्विजय सिंह भी पिछले एकाध दिन से बदले बदले नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी संतोष हेगड़े की तारीफ़ की और आजकल शान्ति भूषण और उनके बेटे के खिलाफ बयान नहीं दे रहे हैं . अमर सिंह भी थोडा ढीले पड़े हैं . हालांकि 'भूषण गरियाओ अभियान' के दौरान तो वे दिग्विजय सिंह के भाई ही बन गए थे .दोनों भाइयों ने फर्रुखाबाद जाकर एक ही मंच से भाषण दिया और एक माला साथ साथ पहनी . लेकिन लगता है कि दिग्विजय सिंह ने इतनी बार अन्ना के आन्दोलन के खिलाफ बयान दे दिया है कि वे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा चुके हैं . ऐसे माहौल में राजनाथ सिंह का बयान दिग्विजय सिंह को बहुत नुकसान पंहुचाएगा. इस खेल के अंदर का खेल समझने की कोशिश की जाए तो तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी सामने आता है. आजकल उत्तर प्रदेश में मायावाती से नाराज़ ठाकुरों को अपनी तरफ करने का अभियान चल रहा है . कांग्रेस की कोशिश है कि अगर ठाकुर जाति के लोग एक वोट बैंक के रूप में उसके साथ जुड़ जाएँ तो मुसलमानों को समझाया जा सकता है कि ठाकुर उनके साथ हैं और अगर मुसलमान भी साथ आ जाएँ तो बीजेपी को कमज़ोर किया जा सकता है .उत्तर प्रदेश में दिग्विजय सिंह का यह एक प्रमुख एजेंडा है . लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश के आम ठाकुरों की बात तो जाने दीजिये ,वहां के कांग्रेसी राजपूत भी उनको अपना नेता नहीं मानते . वे अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . बीजेपी की भी यही कोशिश है . अगर राजपूत थोक में उसके पास आ गए तो मुसलमान कांग्रेस का चक्कर छोड़कर सीधे बी एस पी में जाएगा. ऐसी हालत में बीजेपी को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बी एस पी के खिलाफ खडी सबसे मज़बूत पार्टी के रूप में अपने आपको पेश करने का मौक़ा लगेगा.यानी बीजेपी की भी मजबूरी है कि वह अब राजनाथ सिंह को ज्यादा गंभीरता से ले क्योंकि उत्तर प्रदेश में जो भी मज़बूत होगा ,दिल्ली में उसकी सत्ता स्थापित होने की संभावना बहुत बढ़ जायेगी.

Saturday, November 28, 2009

राजनाथ सिंह होंगें हिन्दुत्व के नए अलम्बरदार

शेष नारायण सिंह

ख़बरों में बने रहकर भारतीय राजनेता बहुत कुछ हासिल कर लेता है. खबर चाहे पक्ष में हो या खिलाफ हो, वह नेताओं के बड़े काम की होती है. जब १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आई तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कांग्रेस और उसकी नेता इंदिरा गाँधी को जनता ने हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है . इंदिरा गाँधी की समझ में भी नहीं आ रहा था कि क्या करें. आपराधिक राजनीति का विशेषज्ञ उनका बेटा , जो इमरजेंसी की तानाशाही के लिए बराबर का ज़िम्मेदार था , अपने ऊपर चल रहे आपराधिक मुक़दमों की पैरवी में व्यस्त हो गया था लेकिन इंदिरा गाँधी के सामने दिशाभ्रम की स्थिति थी. ठीक ऐसे वक़्त में तत्कालीन गृहमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गाँधी को संजीवनी दे दी .इंदिरा गाँधी की राजनीतिक गिरफ्तारी का आदेश दे दिया और सी बी आई के एक अति उत्साही अफसर ने इंदिरा गाँधी को गिरफ्तार भी कर लिया . अगले दिन इंदिरा गाँधी हर अखबार के पहले पेज पर छा गयीं. और भारत की राजनीति में उनकी धमाकेदार वापसी का रास्ता खुल गया. इसलिए राजनीति में अगर कोई व्यक्ति या पार्टी अखबारी सुर्ख़ियों में बना रहने में सफलता हासिल कर लेता है तो उसे राजनीति में अपनी मंजिल पाने में आसानी होती है . खबर चाहे नकारात्मक कारणों से ही छपे , उसका फायदा होता है.

राजनीति की सफलता का यह मन्त्र बी जे पी वालों ने खूब अच्छी तरह से समझ लिया है. इसीलिए पार्टी के नेता अक्सर विवादों में छाये रहते हैं .आजकल नया विवाद लोकसभा में लिब्रहान आयोग पर होने वाली बहस के सन्दर्भ में है .पहले विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सदन में उपनेता सुषमा स्वराज को इस विषय में होने वाली बहस को शुरू करने की जिम्मेदारी दी थी लेकिन चंदौली वाले बाबू साहब ने खेल बदल दिया है .अब लोकसभा में बहस की शुरुआत पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह करेंगे। इस घटनाक्रम से पार्टी में लोकसभा में आडवाणी के उत्तराधिकारी को लेकर अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं। अभी तक सुषमा स्वराज को ही इसका स्वाभाविक दावेदार माना जाता रहा है।
बी जे पी को उम्मीद थी कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट राजनीतिक हलकों में तूफान खड़ा कर देगी. लेकिन ऐसा न हो सका . मीडिया में जो लोग आर एस एस के बन्दे माने जाते हैं वे भी लिब्रहान पर कोई तूफ़ान नहीं पैदा कर सके लेकिन बी जे पी की कोशिश है कि उस पर होने वाली बहस को जोरदार बनाया जाए. जैसी की उम्मीद थी , रिपोर्ट में बी जे पी और आर एस एस के आला नेताओं को अपराधी की तरह पेश किया गया है इसलिए भाजपा ने इस पर बहस की शुरुआत के लिए दोनों सदनों के अपने प्रखर वक्ताओं राज्यसभा में अरुण जेटली व लोकसभा में सुषमा स्वराज को तय किया था। लेकिन गुरुवार को अचानक भाजपा ने सुषमा स्वराज की जगह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लोकसभा में बहस शुरू कराने का फैसला किया। सुषमा स्वराज पार्टी की दूसरी प्रमुख वक्ता होंगी, जबकि अयोध्या मामले से सीधे जुड़े रहे दोनों प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी व डा मुरली मनोहर जोशी बहस में हस्तक्षेप करेंगे। राजनाथ सिंह का नाम तय होने का किस्सा जितना रोचक है, उतना ही पार्टी की अंदरूनी राजनीति को लेकर संवेदनशील भी है। उपनेता सुषमा स्वराज ने लोकसभा में अपने बगल में बैठे राजनाथ सिंह से चर्चा करते हुए उनसे सदन में किसी बहस में हिस्सा लेने के बारे में पूछा. राजनाथ सिंह ने कहा कि वे ऐसी किसी बहस में हिस्सा लेने के लिए तैयार हैं, जिसकी तारीख तय हो. सुषमा स्वराज ने उनसे लिब्रहान आयोग पर अगले मंगलवार को होने वाली बहस में हिस्सा लेने की बात कही. राजनाथ सिंह राजी हो गए.अब सुषमा के सामने कोई चारा नहीं था उन्होंने बहस की शुरुआत करने के लिए राजनाथ को संकेत किया और उन्होंने सहमति दे दी .सुषमा स्वराज ने खुद को दूसरे वक्ता के रूप में रखा और इस बदलाव की जानकारी लालकृष्ण आडवाणी को दे दी. राजनाथ सिंह अयोध्या आंदोलन के समय पार्टी के बड़े नेता नहीं थे, लेकिन सक्रिय थे जबकि सुषमा स्वराज दिल्ली में ही रहती थीं और सत्ता के गलियारों की माहिर के रूप में उनकी पहचान होती थी. सच्ची बात यह है कि १९९२ तक राजनाथ सिंह की पहचान बनारस से आये एक नौजवान कार्यकर्ता के रूप में होती थी, वे उत्तर प्रदेश के बड़े नेताओं में भी नहीं गिने जाते थे. अडवाणी गुट के खिलाफ, आर एस एस की शह पर उनको राष्ट्रीय नेता के रूप में विकसित किया गया है .कोशिश है कि उन्हें हिन्दुत्व-वादी राजनीति के नए अलंबरदार के रूप में स्थापित किया जाए. ज़ाहिर है इस डिजाइन को अमली जामा पहनाने के लिये इस मुद्दे पर उनको बोलने का मौक़ा देकर पार्टी को संसद में एक हिंदुत्ववादी छवि के नेता के रूप में उन्हें आगे बढ़ाने का मौका भी मिलेगा। अभी लोकसभा में आडवाणी व डा जोशी प्रख्रर हिंदुत्ववादी व संघ विचारधारा के प्रमुख नेता हैं। हालांकि इस बदलाव से लोकसभा में आडवाणी के भावी उत्तराधिकारी को लेकर नई सुगबुगाहट शुरू हो गई है।