शेष नारायण सिंह
दिल्ली दरबार में आजकल बड़े बड़े खेल हो रहे हैं . सबसे बड़ा खेल तो खेल के मैदानों में होना है लेकिन उसके पहले के खेल भी कम दिलचस्प नहीं हैं. जैसा कि आदि काल से होता रहा है किसी भी आयोजन में राजा के दरबारी अपनी नियमित आमदनी से दो पैसे ज्यादा खींचने के चक्कर में रहते हैं . दिल्ली में आजकल दरबारियों की संख्या में भी खासी वृद्धि हुई है . जवाहरलाल नेहरू के टाइम में तो इंदिरा गाँधी की सहेलियां ही लूटमार के खेल की मुख्य ड्राइविंग फ़ोर्स हुआ करती थीं. वैसे लूटमार होती भी कम थी . दिल्ली में जब १९५६ में संयुक्त राष्ट्र की यूनिसेफ की कान्फरेन्स हुई तो एक आलीशान होटल की ज़रूरत थी . जवाहरलाल नेहरू जहां अशोका होटल बन रहा था ,उस जगह पर खुद ही अपनी मार्निंग वाक में जाकर खड़े हो जाते थे. ज़ाहिर है लूटमार की संभावना बहुत कम होती थी .सरकारी प्रोजेक्ट में लूटमार का सिलसिला सही मायनों में तब शुरू हुआ, जब संजय गाँधी दिल्ली की सडकों पर सक्रिय हुए. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से लेकर अर्जुन दास तक जो भी दिल्ली वाले सरकारी धन की लूट में शामिल हुए ,उन्होंने इसी रास्ते को अपनाया. मोरारजी देसाई के काल में लूट के कई दरबार खुल गए थे. उनका अपना अधेड़ बेटा भी इसी धंधे में था और भी कई दरबार थे . लेकिन सरकारी खजाने की लूट का सबसे बड़ा खेल तब शुरू हुआ जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में गठबंधन सरकार बनी जिसमें भ्रष्टाचार के भांति भांति के शिरोमणि शामिल हुए . उसके बाद देवगौड़ा आये जिनका खुद का रिकार्ड ही एक मामूली ठेकेदार का था . जब १९९८ में बी जे पी वाले सत्ता में आये उसके बाद से खजाने की लूट की विधा को एक ललित कला के रूप में विकसित किया गया. कोई बम्बई का ठग था तो कुछ लोग दिल्ली की सडकों पर पत्रकार बन कर टहल रहे थे. कोई दामाद का अभिनय कर रहा था तो कोई दक्षिण की रानी की सहेली का भतीजा था . कोई किसी साहूकार का दलाल था तो कोई खुद ही दलाल भी था और साहूकार भी. कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा बाकी सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने घर वालों को लूट का साम्राज्य सौंप दिया. जिनके तन पर कपड़ा नहीं था वे कपड़ा मंत्री बन गए और लूट के नए नए आयाम तलाशे गए. कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जो लूट हो रही है उसमें कोई भी दोषी नहीं पाया जाएगा क्योंकि जैन हवाला काण्ड की तरह सभी पार्टियों के नेताओं के रिश्तेदारों को पूना से आये बांके ने बाकायदा हिस्सा दिया है . उस बेचारे से ग़लती केवल यह हुई कि उसने एक बड़े मीडिया ग्रुप की बात को गंभीरता से नईं लिया और उसे ठेका नहीं दिया और उसने पोल खोल दी . वरना सारे लोग मिलजुल कर खेल कर जाते और देशवासी टापते रह जाते. बहर हाल पूरी उम्मीद है कि खेलों के ख़त्म होने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा और एक आयोग बैठाया जाएगा जिसका काम यह यह होगा कि वह पता लगाए कि क्या वास्तव में लूट हुए है लेकिन उसको हिदायत दे दी जायेगी कि उसे यह साबित करना होगा कि कहीं कोई लूट हुई ही नहीं है. ऐसा इसलिए संभव होगा कि आजकल कांग्रेस और बी जे पी में बहुत अच्छी जुगलबंदी चल रही है . चाहे अमरीकी हुक्म से परमाणु समझौता हो या भोपाल काण्ड , दोनों पार्टियां एक ही राग गा रही हैं . इसकी वजह शायद यह है कि कांग्रेसी मालिकों को तो पूना वाला शेख बाकायदा हफ्ता पंहुचा रहा है और विपक्ष के हाकिमों के रिश्तेदार ठेके का लुत्फ़ उठा रहे हैं ..
दिल्ली की मौजूदा लूट के कुछ सबक भी हैं. कांग्रेसी नेता, सोनिया गाँधी के परिवार के करीबी और पूर्व खेल मंत्री , मणिशंकर अय्यर इस लूट का सबसे बेहतरीन वर्णन करते हैं . उनका कहना है कि उनके खेल मंत्री बनने के पहले ही दिल्ली में उन्नीसवां कामनवेल्थ खेल आयोजित करने का फैसला हो चुका था . जब वे मंत्री बने तो उन्होंने इस खर्च पर सवाल उठाये लेकिन विरासत का हवाला देकर उनको चुप करा दिया गया. मणिशंकर अय्यर के कई सवाल थे . मसलन उन्होंने कहा कि अगर खेल कूद के इतने बड़े आयोजन से एक नया शहर बसाने के रास्ते खुल सकते हैं तो उत्तरी दिल्ली के बवाना गाँव के पास जो खाली जगह पड़ी है वहां एक नया शहर बसाया जाए और वहीं पर बिना किसी रोक टोक सभी सुविधायें बनाई जाएँ . उस वक़्त कामनवेल्थ खेलों के आयोजन पर कुल छः हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना थी . लेकिन वे हटा दिए गए और नयी व्यवस्था में सब कुछ बदल गया . छः हज़ार करोड़ का खर्च अब दस गुना हो चुका है . खेल कूद के आयोजन के नाम पर दिल्ली शहर के हर कोने में लूटमार मची है . पता चला है कि दिल्ली के कनाट प्लेस को ही चमकाने के लिए एक हज़ार करोड़ का ठेका दे दिया गया. और जिसे ठेका दिया गया उसकी आर्थिक हैसियत बीस करोड़ की भी नहीं है .नतीजा सामने है खिलाड़ी आ चुके हैं और कनाट प्लेस खुदा पड़ा है . अब कहा जा रहा है कि उस से कोई फर्क नहीं पड़ता . कनाट प्लेस में कोई खेल तो होना नहीं है . सवाल उठता है कि जब कनाट प्लेस की खेलों के आयोजन में कोई भूमिका ही नहीं थी तो सरकारी खजाने से एक हज़ार करोड़ रूपया झटकने की क्या ज़रुरत थी. ज़ाहिर है कि किसी ख़ास बन्दे ने इस ठेके में आर्थिक मदद पायी है . लेकिन यह भी उम्मीद करने की ज़रूरत नहीं है कि आने वाले वक़्त में इसका पता चल पायेगा क्योंकि इस सारे भ्रष्टाचार की जब जांच होगी तो दिल्ली दरबार के अमीर उमरा अपने ख़ास लोगों को बचा लेगें . इसी तरह से दिल्ली शहर में तमाम फालतू विकास कार्य चल रहे हैं जिनका खेलों से कोई लेना देना नईं है लेकिन उनका पैसा खेलों के नाम पर ही खींचा जा रहा है और दिल्ली के अमीर उमरा के रिश्तेदार ठेके की गिज़ा उड़ा रहे हैं . पता चला है कि दिल्ली की ज़्यादातर सडकों के फुटपाथों पर जो पत्थर लगे थे, वे सब ठीक हालत में थे. लेकिन सब को उखाड़कर नया पत्थर लगाने का फसिअला कर लिया गया और हज़ारों करोड़ का खेल कर दिया गया. मुराद यह है कि दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जम कर लूट हुई और ऐसे काम के लिए हुई जिसका खेलों से कोई लेना देना नहीं था. खेल गाँव के ठेके में ही दिल्ली के बहुत ताक़तवर लोगों के एक रिश्तेदार को आर्थिक रूप से खस्ता हाल डी डी ए से करीब नौ सौ करोड़ रूपये दिलवा दिया गया . अब खेल गाँव बन कर तैयार है . वहां के फ़्लैट करोड़ों में बेचे जायेगें और उसका फायदा इसी ताक़तवर नेता के मामा को होगा. दिलचस्प बात यह है कि इस खेल में ज़रूरी नहीं कि कांग्रेसी को ही फायदा हुआ हो . इस बार की लूट में सभी शामिल हैं .
Thursday, September 30, 2010
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