Friday, September 16, 2011

साम्प्रदायिक हिंसा रोकने वाले बिल की सही आलोचना की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार की ओर से राष्ट्रीय एकता परिषद् के सामने पेश किया साम्प्रदायिक हिंसा रोकने वाला बिल मुंह के बल गिर पड़ा . होना भी यही चाहिए था. सोनिया गांधी के प्रिय संगठन , नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल नाम की शहरी मंडली ने एक मसौदा बनाया था जिसमें बहुत खामियां थीं .लेकिन सोनिया जी की इच्छा को कानून मानने वाले डॉ मनमोहन सिंह ने उसे बिल की शक्ल दिलवाई और राष्ट्रीय एकता परिषद् के सामने पेश कर दिया . बिल अपने मौजूदा स्वरुप में पास नहीं होगा यह तो अब पक्का हो चुका है . लेकिन जिन मुद्दों पर उसका विरोध हो रहा है वह भी बेमतलब है . जिन राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें हैं उनको इस बात पर एतराज़ है कि यह बिल अगर क़ानून बन गया तो राज्य में उनकी सरकार और उनकी पार्टी के खिलाफ काम करने वालों को धमकाने की उनकी ताक़त कम हो जायेगी.. अजीब बात है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इस बेकार के बिल का इसलिए विरोध नहीं कर रही है कि इसके कानून बन जाने के बाद राज काज का पूरा व्याकरण बदल जाएगा जो कि राष्ट्र हित के खिलाफ भी जा सकता है . नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल वालों का दावा है कि इस बिल के पास हो जाने के बाद धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के बारे में समाज और देश के रूप में हमारी प्रशानिक नज़र बदल जायेगी. यह बात कहने में ठीक लगती है लेकिन इसमें कमियाँ बहुत हैं .सबसे बड़ी कमी तो यही है कि यह कानून सरकारी तंत्र को बहुत ज्यादा ताक़त दे देगा . ज़रूरी नहीं कि उस ताक़त का सही इस्तेमाल ही हो . बिल की बुनियादी सोच में ही खोट है . इस बिल को बनाने वाले यह मानकर चलते हैं कि भविष्य में भी भारत में दंगे उतने ही खूंखार होंगें जितने कि अब तक होते रहे हैं . इस बिल की मंशा है कि प्लानिंग कमीशन की तर्ज़ पर एक अथारिटी बनायी जायेगी जिसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी केंद्र सरकार के सचिव स्तर का एक अफसर होगा . उस अथारिटी में बहुत सारे सदस्य होंगें जिनको केंद्र सरकार के राज्य मंत्री का दर्ज़ा दिया जाएगा . इस अथारिटी का अध्यक्ष कैबिनेट रैंक का मंत्री होगा . इस का भावार्थ यह हुआ कि एक और सरकारी विभाग खड़ा कर दिया जाएगा जो परमानेंट होगा और जो चौबीसों घंटे दंगों आदि को संभालने के लिए काम करता रहेगा. इस सोच में बहुत भारी दोष है . सोनिया जी की मंडली के लोगों को लगता है कि इस देश में दंगा अब एक स्थायी चीज़ के रूप में बना रहेगा . कोई भी कानून बनाने के लिए यह बिलकुल गलत बुनियाद है .

इस बिल का घोषित उद्देश्य अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करना है .इस उद्देश्य में कहीं कोई बुराई नहीं है .ऐसा लगता है कि दिल्ली में बैठकर जिन लोगों ने इस बिल को बनाया है वे हर बात को साबित करने के लिए २००२ के गुजरात को उदाहरण के रूप में पेश करते हैं . गुजरात में २००२ में जो कुछ भी हुआ ,उसको कोई सही नहीं मानता .यहाँ तक कि जिन लोगों ने उस काम को किया था अब वे भी उसके पक्ष में नहीं बोलते .सारी दुनिया के सभ्य समाजों में उसकी निंदा की जा रही है .उसको आधार मानकर कोई भी कानून नहीं बनाया जा सकता. गुजरात में २००२ में जिन लोगों ने नर संहार किया था ,उनको मुकामी नौकरशाही का आशीर्वाद प्राप्त था . उसी नौकरशाही को निरंकुश ताक़त देने की बात करने वाले इस बिल से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी की बात सोचना ठीक नहीं है. इस बिल में प्रावधान है कि जिन अधिकारियों को इलाके में साम्प्रदायिक दंगा होगा उन्हें दण्डित किया जाएगा. जो भी भारत की नौकरशाही को समझता है उसे मालूम है कि अपनी नौकरी बचाने के लिए अपने देश का अफसर कुछ भी कर सकता है . इस प्रावधान को कानून में शामिल कर लेने से इस बात का पूरा ख़तरा बना रहेगा कि दंगा रोकने के लिए मिले हुए अधिकार का प्रयोग सम्बंधित सरकारी अफसर अपनी मनमानी करने के लिए भी करेगा. बिल में लिखा है कि अगर कहीं साम्प्रदायिक हिंसा होती है तो यह मान लिया जाएगा कि उस इलाके के अधिकारी ने कानून द्वारा दिया गए अपने विधि सम्मत अधिकार का प्रयोग नहीं किया है और उसे ड्यूटी को सही तरीके से न करने के लिए दोषी माना जाएगा . इस दोष के लिए उसे दंड मिलेगा . यह दंड बहुत ही कठोर होगा. सरसरी तौर पर देखने तो यह बात ठीक लगती है . आई ए एस और आई पी एस अफसरों की सेवा शर्तों में साफ़ लिखा है कि वे भारत में संविधान का राज कायम करने के लिए ही काम करेगें . लेकिन अक्सर देखा गया है कि वे ऐसा नहीं करते . लेकिन उनको बता दिया जाए कि अगर उन्होंने संविधान के पालन को मुकम्मल तौर पर सुनिश्चित नहीं किया तो उनकी नौकरी भी जा सकती है तो यह अफसर कुछ भी कर सकते हैं .बिल को बनाने वाले यह मानकर चल रहे हैं कि अफसर को व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार ठहरा देने पर वह कानून का राज कायम कर देगा.लेकिन सरकारी अफसरों के बारे में इस तरह का विचार रखना सही नहीं है . वह किसी भी नए कानून को शोषण या धन वसूली का भी जरिया भी बना सकता है .

बिल का जो मौजूदा स्वरुप है उसके अनुसार सांप्रदायिक सद्भाव और इंसाफ़ को सुनिश्चित करने के लिए एक नए नौकरशाही के ढाँचे को तैयार किया जाना है .साम्प्रदायिक सद्भाव और इंसाफ़ के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय अथारिटी और उसके मातहत संगठनों के नाम पर एक सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की एक बहुत बड़ी फौज तैयार हो जायेगी. सरकारी तनखाहों और सरकारी कर्मचारियों की पेंशन की मार झेल रहे इस मुल्क पर इतना बड़ा आर्थिक बोझ लादना बिलकुल गलत होगा. खासकर जब इस तरह की सरकारी नौकरशाही की कोई ज़रुरत न हो . वास्तव में किसी नए सरकारी तंत्र की ज़रुरत नहीं है . ज़रुरत इस बात की है कि साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए ज़रूरी नियम कानून ऐसे बनाए जाएँ जिसको राज्य सरकारें मजबूती के साथ लागू कर सकें . इंसाफ़ की डिलीवरी के काम में पारदर्शिता के निजाम की आवश्यकता भी है . लेकिन उस मकसद को हासिल करते हुए यह भी देखना ज़रूरी है कि केंद्र -राज्य सम्बन्ध की जो संविधान की मौलिक व्यवस्था है वह भी खंड खंड न हो जाए.
दंगों के समाजशास्त्र का कोई भी जानकार बता देगा कि दंगे आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों में ज्यादा होते हैं . दिल्ली का १९८४ का सिख विरोधी क़त्ले-आम और २००२ का गुजरात का नरसंहार केवल दो केस हैं जहां साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार संपन्न वर्ग भी हुये थे. इसलिए साम्प्रदायिक दंगों के बार बार होने की संभावना घट रही है क्योंकि देश के ज़्यादातर इलाकों में लोग शिक्षा और सम्पन्नता की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर स्थायी नौकरशाही के ढाँचे के जरूरत नहीं रह जायेगी. मनमोहन सरकार के साम्प्रदायिकता विरोधी बिल के वर्तमान स्वरुप का विरोध तो किया जाना चाहिए लेकिन उसमे जो असली खामियां हैं उनको आलोचना का विषय बनाया जाना चाहिए . बेमतलब की आलोचना से बचना चाहिए

केंद्रीय कार्यक्रमों के रास्ते अपनों को फिट करने की कांग्रेसी कोशिश

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली ,१५ सितम्बर . ग्राम विकास मंत्रालय के ज़रिये केंद्र सरकार हर गाँव में अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने की रणनीति पर काम कर रही है . केंद्र सरकार की तरफ से चलाई जा रही योजनाओं के ज़रिये इस हस्तक्षेप की योजना बन रही है .केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की प्रमुख योजनाओं--प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना और मनरेगा की मौजूदगी देश के लगभग हर गाँव में है. इसके अलावा भी छः और योजनायें चल रही हैं लेकिन अभी वे अपेक्षाकृत कम चर्चा में है . देश के ६० नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की नई दिल्ली में न आयोजित कार्यशाला में सरकार की मंशा सामने आई. कार्यशाला के बाद जो कागज़ तैयार किये गए हैं उनमें लिखा है कि नक्सल प्रभावित हर जिले में ५०० लोगों को कार्यकर्ता के रूप में भर्ती किया जाएगा जिनका काम प्रशासन और जनता के बीच कड़ी के रूप में काम करना होगा. केंद्र सरकार की ओर से चल रही गाँव के विकास योजनाओं पर इनकी नज़र रहेगी . इनको केंद्र सरकार की ओर से पैसा दिया जाएगा . इनकी न्यूनतम योग्यता के बारे में कुछ ख़ास नहीं बताया गया. है .यह काम अभी ६० नक्सल प्रभावित जिलों में किया जाएगा . बाद में इसको बाकी जिलों में भी लागू किया जा सकता है . इसके अलावा हर जिले में कलेक्टर की मदद के लिए केंद्र सरकार की ओर से २५-३० साल के ३ नौजवानों को फेलो के रूप में नियुक्त किया जाएगा . इनको २-३ साल तक के लिए कपार्ट के लिए निरधारित फंड से पैसा दिया जाएगा. सिविल सोसाइटी के लोगों को भी ग्राम विकास की योजनाओं को लागू करने के काम में शामिल करने की योजना पर भी काम कर रहा है . ग्रामीण विकास मंत्रालय की इस योजना को विपक्षी पार्टियां शक़ की निगाह से देखती हैं .भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अनजान ने कहा कि कांग्रेस पार्टी मौजूदा राजनीतिक हालत से घबडा गयी है और उसी घबडाहट में इस तरह के काम कर रही है . इस तरह के कदम से कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं आयेगा और न ही कांग्रेस को कोई तात्कालिक लाभ होगा. एक संशयात्मा सरकारी अफसर ने कहा कि यह योजना कहने को तो बड़ी आदर्शवादी बतायी जा रही है लेकिन इसका असली मकसद हर जिले में ५०० कांग्रेसियों को काम पर लगाना है . कमज़ोर पड़ रही कांग्रेस अब सरकारी योजनाओं के कन्धों पर बैठ कर राजनीतिक सफलता हासिल करना चाहती है.

६० नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की एक दिन की कार्यशाला के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जो निष्कर्ष निकाले हैं उनके बारे में एक पर्चा तैयार किया गया है . यह पर्चा सार्वजनिक रूप तो से जारी नहीं किया गया है लेकिन यह जानकार लोगों के ज़रिये मीडिया तक पंहुच गया है . इसमें ही कुछ लोगों को काम देकर उनको अपने साथ की लेने की बात की गयी है . इस पर्चे में और भे एबहुत सारी योजनाओं का ज़िक्र है .प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना में सड़क बनाने का प्रावधान तो है लेकिन छोटी पुलिया बनाने की मंजूरी उसके तहत नहीं दी जाती . प्रस्ताव है कि साठ नक्सल प्रभावित जिलों में अब पुलिया के निर्माण को भी प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना में शामिल कर लिया जाए. इस काम को शुरू करने के लिए ५०० करोड़ रूपये की ज़रूरत होगी. बाद में अगले तीन साल के अंदर करीब ३५ हज़ार करोड़ रूपये लगेंगें . ग्रामीण विकास मंत्रालय इस दिशा में आगे क़दम बढ़ाएगा और विस्तृत प्रस्ताव प्रधान मंत्री के पास भेजेगा. . इन जिलों में अब तारकोल की जगह कांक्रीट की सड़कें बनायी जायेगीं . केंद्र सरकार का मुख्य हस्तक्षेप मनरेगा को दुरुस्त करने की दिशा में होगा . नक्सल प्रभावित ६० जिलों में हर ग्राम पंचायत में एक पंचायत विकास अधिकारी तैनात किया जायेगा . इसके अलावा एक जूनियर इंजीनियर भी भर्ती किया जायेगा. . यह स्टाफ बाहर से नहीं लाया जाएगा. यह सब मुकामी लोग होंगें और इनका वेतन भी केंद्र सरकार देगी.बैंकों और डाकखानों में खाली पड़ी जगहों को भी मुकामी लोगों से भरा जाएगा. मनरेगा के अन्तार्गत अब खेल के मैदान भी बनाए जा सकेगें . अभी तक इसकी मनाही थी . अभी तो यह मंजूरी केवल साठ जिलों के लिए है लेकिन बाद में इसे पूरे देश में भी लागू किया जा सकता है . अभी तक खेल के मैदान मनरेगा की योजना में शामिल नहीं थे इनकी मनाही थी . नक्सल प्रभावित ६० ज़िलों में अगले पांच वर्षों के अंदर राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका कार्यक्रम के तहत तीन लाख युवकों को नौकरी दी जायेगी. . ज़ाहिर है जयराम रमेश की अगुवायी में ग्रामीण विकास मंत्रालय सत्ताधारी पार्टी का एक दयालु चेहरा पेश करने की कोशिश करेगा.