Sunday, March 21, 2010

वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है

गौहर रज़ा की ग़ज़ल

यूं कुफ्र के फतवे तो बहुत आये हैं हम पर,
वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है

दुश्नाम ही सजते हैं तेरे मुंह पे मेरे दोस्त
मुंह पर तेरे कुरान मुझे कुफ्र लगे है

वाइज़ पे यक़ीं है तुझे, मुझ को है बहुत शक़
तुझ मुझ से करे बात, मुझे कुफ्र लगे है

दिल है के धड़कने पे अभी तक यह मुसिर है
कमबख्त की हर चाल मुझे कुफ्र लगे है

वह अर्श पे पहुंचेंगी जो उठेंगी ज़मीं से
खामोश हो फ़रियाद, मुझे कुफ्र लगे है

क्यूं कुफ्र में डूबो जो कहो और को काफ़िर
खुद को कहो सआदात, मुझे कुफ्र लगे है

शब जाएके मंज़र पे तो शुकराना अदा हो
ज़ुल्मत पे थे ‘दमसाध’, मुझे कुफ्र लगे है

नासेह तुझे किस तौर मैं समझाऊं, न समझा
समझूं जो तेरी बात, मुझे कुफ्र लगे है

ज़ालिमाना और सामंती सोच से सत्ता को आज़ाद करने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह
उसके गाँव में चमार शब्द का उपयोग किसी को गाली देने के लिए किया जाता था .और हिदायत थी कि चमार को छूना नहीं है . वह भी बचपन में ऐसे ही करता था . लेकिन जब प्राइमरी स्कूल में गया तो दलितों के बच्चों के साथ टाट पर बैठना शुरू हुआ. हर साल गर्मियों में वह अपने मामा के यहाँ चला जाता था ,जौनपुर शहर से लगा हुआ गाँव . वहां भी उसकी दोस्ती एक दलित लडके से हो गयी. उसके अपने गाँव में गाली और अपमान के ज़्यादातर सन्दर्भ ऐसे थे जिसमें चमार शब्द का इस्तेमाल होता था. जब वह आठवी में था तो उसकी मुलाक़ात शीतला बनिया के रिश्तेदार राम मनोहर से हो गयी. . शीतला के रिश्तेदार ने उसकी दुनिया में तूफ़ान ला दिया. उसको पता चला कि चमार भी उसकी तरह के ही इंसान होते हैं . उसने अपने बाबू की दलितों संबंधी जानकारी को गलत मानना शुरू कर दिया .बाबू के उस तर्क को उसने खारिज करना शुरू कर दिया जसमें शूद्र को पीटने की बात को ज़मींदार का कर्त्तव्य बताया जा था. उसके बाबू पढ़ाई लिखाई के भी खिलाफ थे . उनका कहना था कि पढ़ लिख कर लडके किसी काम के नहीं रह जाते . दसवीं के बाद उसकी पढ़ाई पर रोक लग गयी. लेकिन माँ ने जिद करके अपने मायके ले जाकर जौनपुर में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए नाम लिखवा दिया .वह जौनपुर गया तो उसके बचपन के दलित साथी ने पढ़ाई छोड़ दी थी, उसका गौना आ गया था और वह उसके मामा के घर ही खेती के काम के लिए हलवाहा बन गया था. . अपने हीरो ने उस से सम्बन्ध बनाए रखा. उसके गाँव में दलितों के बच्चों के नाम ऐसे होते थे जो ठाकुरों ब्राह्मणों के नाम से अलग लगते थे . ढिलढिल ,फेरे, मतन, बुतन्नी, बग्गड़ ,मतई ,दूलम,दुक्छोर, बरखू, हरखू आदि . अगर किसी दलित बच्चे का नाम ठाकुरों के बच्चों से मिलता जुलता रख दिया जाता था तो व्यंग्य में कहा जाता था कि बिटिया चमैनी कै नाउ राजरनियाँ. यह कहावत उसके दिमाग में घुसी हुई थी . और जब उसके मामा के हलवाहे और उसके बचपन के मित्र के घर बेटी पैदा हुई तो उसने उसका नाम राजरानी रखवा दिया. जब उसके बाबू को पता चला तो वे बहुत खफा हुए और परंपरा तोड़ने का आरोप लगा कर अपने ही बेटे को अपमानित किया , मारा पीटा .

बात आई गयी हो गयी . राजरानी को अफसर बनने लायक शिक्षा दिलवाने में अपने हीरो ने बहुत पापड़ बेले . तरह तरह के लोगों ने विरोध किया लेकिन लड़की कुशाग्रबुद्धि थी , पढ़ लिख गयी . और उत्तर प्रदेश पुलिस में सब इन्स्पेक्टर हो गयी . . जब उसने अपने पिता के मित्र के बाबू जी के घर जाकर उनसे मुलाक़ात की तो वे सन्न रह गए और कहा कि मैं तो पहले ही कहता था कि यह लड़की बहुत ऊंचे मुकाम तक जायेगी. हालांकि यह बात उन्होंने कभी नहीं कहे एथी . वे तो उसको गाली ही देते रहते थे .सच्चाई यह है कि उन बाबू साहेब की मुखालफत के बावजूद लडकी ने तरक्की की . अगर माकूल माहौल मिलता तो शायद और ऊंचे पद पर जाती. इस कहानी की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि इस बात का मुगालता नहीं होना चाहिए कि अर्ध शिक्षित और अशिक्षित सर्वरों के एमानासिकता कभी नहीं बदले गी. यहाँ उन अर्ध शिक्षितों को भी शामिल करना होगा जो डिग्रीधारी हैं . अगर सामाजिक बराबरी की लड़ाई लड़ने वाले लड़कियों की शिक्षा पर ज़्यादा ध्यान दें तो मकसद को हासिल करना ज्यादा आसान होगा ..
महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान मंडलों में सीटें रिज़र्व करने की बहस में बहुत सारे आयाम जुड़ गए हैं.. संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी दलितों को उनका हक नहीं मिल पाया है जबकि संविधान के निर्माताओं को उम्मीद थी कि आरक्षण की व्यवस्था को दस साल तक ही रखना होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जिन लोगों के हाथों में सत्ता का कंट्रोल आया उनकी सोच जालिमाना और सामंती थी . शायद इसी लिए दलितों को उनका हक नहीं मिला. शिक्षा, न्याय, प्रशासन, राजनीति ,व्यापार , पत्रकारिता आदि जैसे जितने भी सत्ता के आले थे ,सब पर दलित विरोधियों का क़ब्ज़ा था. जाति व्यवस्था का सबसे क्रूर पहलू दलितों के लिए ही आरक्षित था . उनके लिए संविधान के तहत जो अवसर मुहैया कराये गए थे , उन पर भी जाति व्यवस्था का सांप कुण्डली मार कर बैठा हुआ था . डॉ अंबेडकर और कांशी राम ने जाति व्यवस्था की बंदिश को तोड़ने की जो कोशिश की उसका भी वह नतीजा नहीं निकला जो निकलना चाहिए था . आरक्षण की वजह से जो दलित लोग उस चक्रव्यूह से बाहर आये उनमें से काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो शहरी मध्य वर्ग के सदस्य बन गए और उनकी भी सोच सामंती हो गयी. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन और बराबरी के लिए वह नहीं किया जो उनको करना चाहिए था. आज ज़रुरत इस बात की है कि मनुवादी व्यवस्था के वारिसों को तो दलित अधिकारों की चेतना से अवगत कराया ही जाए लेकिन दलित परिवारों से आये भाग्य विधाता नेताओं और नौकरशाहों को भी चेताया जाये कि जब तक सभी दलितों की आर्थिक स्थिति नहीं सुधरेगी सामाजिक बराबरी का सपना देखना भी बेमतलब है . अगर ऐसा हुआ तो नयी पीढी की राजरानी सब इन्स्पेक्टर नहीं होगी, वह सीधे आई पी एस में भर्ती होगी.