Sunday, March 21, 2010

वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है

गौहर रज़ा की ग़ज़ल

यूं कुफ्र के फतवे तो बहुत आये हैं हम पर,
वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है

दुश्नाम ही सजते हैं तेरे मुंह पे मेरे दोस्त
मुंह पर तेरे कुरान मुझे कुफ्र लगे है

वाइज़ पे यक़ीं है तुझे, मुझ को है बहुत शक़
तुझ मुझ से करे बात, मुझे कुफ्र लगे है

दिल है के धड़कने पे अभी तक यह मुसिर है
कमबख्त की हर चाल मुझे कुफ्र लगे है

वह अर्श पे पहुंचेंगी जो उठेंगी ज़मीं से
खामोश हो फ़रियाद, मुझे कुफ्र लगे है

क्यूं कुफ्र में डूबो जो कहो और को काफ़िर
खुद को कहो सआदात, मुझे कुफ्र लगे है

शब जाएके मंज़र पे तो शुकराना अदा हो
ज़ुल्मत पे थे ‘दमसाध’, मुझे कुफ्र लगे है

नासेह तुझे किस तौर मैं समझाऊं, न समझा
समझूं जो तेरी बात, मुझे कुफ्र लगे है

1 comment:

  1. हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

    लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

    अनेक शुभकामनाएँ.

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