पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ, बिहार, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश के कुछ इलाकों में कई वर्षों से चल रहे वामपंथी आतंकवादियों के प्रकोप के नतीजे अपने बर्बर रूप में सामने आने लगे है। मंगलवार को, पश्चिम बंगाल में रेलगाड़ी रोककर तोड़फोड़ की वारदात जहां एक तरफ आतंकवादियों की बढ़ती ताकत का डंका है, वहीं इन राज्यों की सरकारों की घिग्घी बंधने का ऐलान भी। सभी को मालूम है कि इस इलाके में चल रहा आतंकवादियों का शासन पिछले बीस साल से इस इलाके में राज करने वाली सरकारों के नाकारापन का नमूना है।
यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि इस नकारापन के खेल में सभी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं। आज कल टी.वी. चैनलों पर एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है वह बिलकुल बेमतलब है। वामपंथी आतंकवाद के सहारे वोट लेने की कोशिश करने वाली ममता बनर्जी को चाहिए कि भस्मासुरी राजनीति का तिरस्कार करें वरना भस्मासुर का वर्ग चरित्र ही ऐसा है कि वह बाकी लोगों को भस्म करने के बाद अपने रचयिता का सर्वनाश करता है। इन आतंकवादियों को राजनीतिक पार्टी के सदस्य कहने वाले वाममोर्चे के नेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में अति वामपंथ और तृणमूल-दक्षिण पंथ के मोर्चे के खिलाफ वाम मोर्चे की निद्रा भी उतनी ही जिम्मेदार है, जितना आंध्रपेदश की कांग्रेस सत्ता जिम्मेदार है। वामपंथी आतंकवाद के प्रसार में इन दो पार्टियों के अलावा बीजेपी, जद (यू) और राजद का भी उतना ही हाथ है, इसलिए इनमें से किसी को एक दूसरी पार्टी पर हमला करने का हक नहीं है।
इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदमियों को गरीबी के खौफनाक अंधेरे में ढकेलने वाली यही राजनीतिक पार्टियां हैं। इन क्षेत्रों की अकूत खनिज संपदा की लालच में दुनिया भर की कंपनियों और पूंजीपतियों की नजर भारत के इन आदिवासी इलाकों पर है। रिश्वत की गिज़ा पर ऐश करने वाले भारतीय नेताओं और बाबुओं की मामूली इच्छाओं की पूर्ति के लिए भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को दाव पर लगा दिया गया है। अब जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया संगठन, सरकारी प्रशासक और आम आदमी छुद्र स्वार्थों की दुनिया को अलविदा कहें और इस आतंकवादी हमले को नाकाम करने में तन मन से जुट जायं। नेपाली राजशाही के समर्थकों के भारतीयों के एक नेता का बयान आज अखबारों में छपा है जिससे राजनीतिक रोटियां सेंके जाने की इच्छा की बू आ रही है। इस तरह की हरकतों पर फौरन लगाम लगाना होगा वरना बहुत देर हो जायेगी। आतंकवाद चाहे जिस रूप में हो उसका विरोध किया जाना चाहिए। तथाकथित लाल कॉरिडर के इलाके में राह से खटक चुके वामपंथियों के कुछ लालची नेताओं ने इस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को मार्क्सवादी लफ्फाजी के जाल में फंसाकर जो लूट और आतंक का साम्राज्य बना रखा है, उसकी सभ्य समाज में चौतरफा निंदा हो रही है लेकिन इन बर्बर आतंकवादियों को सभ्य समाज की परवाह नहीं है। इन शठों के साथ शठता के साथ ही निपटा जा सकता है।
वामपंथियों का एक वर्ग यह भी कह रहा है कि इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदिवासी लोगों को सरकार ने नजरअंदाज किया जिसकी वजह से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हुआ और वामपंथी आतंकवादियों ने खाली जगह भर लिया। यह तर्क बिलकुल बेमतलब है। वामपंथियों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में राजनीतिक जागरूकता का प्रचार करने का दम भरने वाले कम्युनिस्टों ने लालगढ़ के आसपास के इलाके में क्यों नहीं कोई जागरूकता फैलाई। आदिवासियों को राम भरोसे छोड़ने वाले राजनेताओं में कम्युनिस्ट नेताओं का नाम सबसे ऊपर लिखा जायेगा। इसलिए उनका यह आरोप बेमतलब है कि केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के कल्याण में कोताही की। आर.एस.एस. की तरफ से इन इलाकों में वनवासी कल्याण की योजनाएं चलाई जा रही थी लेकिन वामपंथी आतंकवादियों के बढ़ चुके प्रस्ताव के मद्देनजर अब इस बात में कोई शक नहीं है कि आर.एस.एस. का काम ऐसा नहीं था जो इन आतंकवादियों के झटके को झेल सकता। वैसे भी संघ बिरादरी वहां मौजूद स्थानीय रीति रिवाजों को हटाकर अपनी विचारधारा को थोपने की कोशिश कर रही थी। ज़ाहिर है शाखे नाजुक पर बनने वाला आशियाना कमजोर ही होता है। इसलिए इन इलाकों में कुछ वर्षों तक तो वोट का लाभ लेने में संघ परिवार कामयाब रहा लेकिन जब विचारधारा और गरीब की पक्षधरता के नाम पर माओवादियों ने काम शुरू किया तो सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को भागना पड़ा।
इस इलाके में कांग्रेस का रुख सबसे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना रहा है। आजादी के बाद से अब तक कभी भी कांग्रेस ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों को राजनीतिक एजेंडे पर लाने की कोशिश ही नहीं की जिसका नतीजा है कि यह लोग हमेशा अजूबे की तरह देखे जाते रहे। अजीब बात है कि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल राज्य बनने के बाद वहां से स्थानीय तौर पर राजनीतिक प्रक्रिया के तहत विकसित नेताओं की भारी कमी है। वहां भी उन्हीं लोगों के वंशज राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ हैं जो इन इलाकों की खनिज संपदा की लूट में बड़ी कंपनियों के मामूली ठेकेदार बनकर आए थे। यहां के नेताओं का दूसरा वर्ग उन दलालों का है जिन पर दिल्ली में बैठे नेता लोग दांव लगाते है।
ऐसे माहौल में अब राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के दौर से बाहर निकल कर नेताओं को चाहिए कि वामपंथी आतंकवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों में चल रहे बर्बरता के राज को फौरन खत्म करें। पश्चिम बंगाल में राजधानी एक्सप्रेस का अपहरण करके और भविष्य में ऐसी ही वारदात को फिर अंजाम देने की धमकी देकर आतंकवादियों ने सभ्य समाज और राजनेताओं के पाले में चुनौती की गेंद फेंक दी है। और राष्ट्र के सामने इन्हें कुचल देने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार)
Sunday, November 1, 2009
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