शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२४ दिसंबर . पांच राज्यों की विधान सभाओं के लिए आम चुनाव का ऐलान कर दिया गया है . जनवरी और फरवरी में चुनाव कराये जायेगें और पांचो राज्यों में वोटों की गिनती ४ मार्च को होगी. उत्तर प्रदेश में चुनाव सात फेज़ में होंगें जबकि बाकी अन्य राज्यों में चुनाव केवल एक फेज़ में होगा. उत्तर प्रदेश में पहला फेज़ ४ फरवरी २०१२ को है जबकि आख़री फेज़ २८ फरवरी को पडेगा. पंजाब और उत्तराखंड में ३० जनवरी ,मणिपुर में २८ जनवरी और गोवा में तीन मार्च को होगा. आचार संहिता तुरंत से ही लागू हो गयी है . इन राज्यों के सभी सरकारी कर्मचारी अब केंद्रीय चुनाव आयोग के कंट्रोल में आ गए हैं . वे सभी चुनाव आयोग के पास डेपुटेशन पर माने जायेगें.इस बार पेड न्यूज़ के बारे में सरकार बहुत ही सख्त है . जिला ,राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया के लिए मानीटरिंग कमेटी बनेगी. हर कमेटी में ४ सदस्य होंगें जिसमें एक पत्रकार होगा. पत्रकार को प्रेस कौंसिल की ओर से नामित किया जाएगा . चुनाव खर्च के मामले में बहुत ही सख्त तरिके अपनाए जायेगें. सभी उम्मीदवारों को चुनाव खर्च के लिए एक नया खाता खोलना पडेगा और उसी खाते से निकाल कर पैसा खर्च करना पडेगा. खर्च पर नज़र रखने के लिए मानिटरिंग आब्ज़र्वर होंगें.जबकि चुनाव पर जनरल आब्ज़र्वर नज़र रख रहे होंगें.चुनाव खर्च पर नज़र रखने के लिए अभी से बस अड्डों , रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों पर नज़र रखी जायेगी . किसी भी तरह के कैश की आवाजाही पर इनकम टैक्स वालों की नज़र रहेगी और वे सीधे चुनाव आयोग को सूचना देते रहेगें.इस बार अपराधियों के लिए खासी मुश्किल आने वाली है क्योंकि अबकी बार फ़ार्म ऐसा बनाया गया है कि उसमें उम्मीदवारों के परिवार के भी किसी अपराधी की जानकारी भरनी पड़ी. इस बार यह भी इंतज़ाम किया गया है कि अगर कोई व्यक्ति जो एस सी या एस टी नहीं है और वह किसी एस सी या एस टी वोटर को धमकाता है कि तो उसे दलित एक्ट के तहत पकड़ा जाएगा.
चुनाव आयोग के खचाखच भरे हाल में आज मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने पांच राज्यों के चुनाव की घोषणा कर दी. इन सभी राज्यों में अगले छः महीने से भी कम समय में विधान सभाओं का कार्यकाल ख़त्म होने वाला है . गोवा का १४ जून ,मणिपुर का १५ मार्च, पंजाब का १४ मार्च,उत्तरखंड का १२ मार्च और उत्तर प्रदेश २० मई २०१२ को कार्यकाल ख़त्म हो जाये़या. चुनाव आयोग को अधिकार है वह संविधान के अनुच्छेद ३७१ और ३२४ के आधार पर वहां चुनाव करवाए जहां की विधान सभा का कार्यकाल ख़त्म होने वाला .है.गोवा में विधान सभा की ४०, मणिपुर में ६० पंजाब में ११७ ,उत्तरखंड में ७० और उत्तर प्रदेश में ४०३ सीटें हैं . इन सब के लिए चुनाव करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा वोटर हैं यू पी में करीब ११ करोड़ बीस लाख वोटर हैं जो सात फेज़ के चुनावों में मत डालेगें. राज्य में ९८ प्रतिशत लोगों को मतदाता पहचान पत्र दे दिए गए हैं . श्री कुरेशी ने कहा कि जिन लोगों के पास पहचान पत्र नहीं है वे फ़ौरन बनवा लें क्योंकि बिना पहचान पत्र के वोट नहीं ड़ालने दिए जायेगें. हर जगह इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन होगी. .विकालांगों के लिए ख़ास इंतज़ाम किया गया है . दृष्टि विकलांग लोगों के लिए ब्रेल लिपि वाली मशीनों का इंतज़ाम भी किया गया है .
चुनाव में सुरक्षा को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है . केंद्रीय सुरक्षा बलों को हर पोलिंग पार्टी के साथ लगाया जाएगा. केंदीय बल आम तौर पर बूथों की सुरक्षा में रहेगें . उनके जिम्मे ही ई वी एम मशीनों के स्ट्रांग रूम की सुरक्षा रहेगी. पोलिंग कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का काम भी केंदीय बल करेगें.कानून व्यवस्था का काम राज्य के अधिकारी और पुलिस वाले देखेंगें.इस बार वोटरों को पर्ची देने का काम चुनाव आयोग के अफसर करेगें यह काम बिहार में शुरू किया गया था और वहां सफल रहा था.किसी भी धार्मिक स्थल का इस्तेमाल चुनाव पचार के लिए नहीं किया जाएगा और चुनाव से सम्बंधित हर गतिविधि पर आब्ज़र्वर की नज़र होगी. स्थानीय स्तर पर भी आब्ज़र्वर होगा जो जिले के बज़र्वर को रिपोर्ट करेगा.
पंजाब से शिकायत आई थी कि वहां अफीम आदि का इस्तेमाल होने की आशंका है. मुख्य चुनाव आयुक्त ने बाया कि नारकोटिक्स विभाग एक महानिदेशक को कह दिया गया कि इस बात पर नज़र रखेगें और ज़रूरी कार्रवाई करेगें.
Sunday, December 25, 2011
लोकपाल बिल लोकसभा में पेश करके कांग्रेस का जीत का दावा
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,२२ दिसंबर . आज लोकसभा में लोकपाल और लोकायुक्त बिल २०११ पेश कर दिया गया. सदन में ४ अगस्त को इसी विषय पर पेश किया गया बिल वापस ले लिया गया है. लोकपाल बिल को संसद में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने पाइलट किया. अध्यक्ष के आसन पर फ्रांसिस्को सरदिन्हा मौजूद थे. बिल को पेश करने में ही जो दिक्क़तें आयीं उनसे साफ लगता है कि लोकपाल बिल पास होने में खासी मुश्किल होगी. बहस की शुरुआत सदन की नेता, सुषमा स्वराज ने किया. उन्होंने कुछ कारणों से बिल को आज पेश किये जाने का विरोध किया . उन्होंने कहा कि यह बिल भारत के संघीय ढांचे पर हमला करता है . सुषमा स्वराज ने कहा कि संविधान में यह व्यवस्था है और सुप्रीम कोर्ट के कई आदेश हैं कि रिज़र्वेशन किसी भी हालत में ५० प्रतिशत से ज्यादा नहीं किया जा सकता है .लेकिन इस बिल में कहा गया है कि रिज़र्वेशन ५० प्रतिशत से कम नहीं होगा. यानी यह ९ सदस्यों के लोकपाल में कम से कम ५ सदस्यों को रिज़र्वेशन देने की बात कही गयी है . उनको इस बात पर भी एतराज़ था कि इसमें अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन दिया गया है .उनका कहना था कि जब संविधान में धार्मिक आधार पर रिज़र्वेशन नहीं दिया गया है तो संविधान का विरोध करके क्यों ऐसा कानून बनाया जा रहा है जो सुप्रीम कोर्ट में जाकर फेल हो जाए. बहस के आखिर में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है . और अगर ऐसा है भी तो उसे जब इस बिल पर २७ दिसम्बर से सिलसिलेवार बहस होगी तब ठीक कर लिया जाये़या.
आज दिन में सदन शुरू में स्थगित करना पड़ा लेकिन जब साढ़े तीन बजे सदन की बैठक दुबारा शुरू हुई तो बिल को पेश करने के स्तर पर ही खासी लम्बी बहस हो गयी. समाजवादी पार्टी के नेता, मुलायम सिंह यादव ने इस बात पर आपत्ति की लोकपाल की संस्था ऐसी बनने जा रही है जो किसी के प्रति ज़िम्मेदार नहीं होगा. उन्होंने कहा कि जो लोग अन्ना हजारे के साथ हैं वे दूध के धुले नहीं है . इस बात का डर है कि लोकपाल भी भ्रष्टाचार के एक नए केंद्र के रूप में स्थापित हो जाये़या . वह सब को ब्लैकमेल करेगा. इसके बाद राजद के नेता, लालू प्रसाद यादव ने बहुत ज़ोरदार तरीके से अपने बात रखी . उन्होंने इस बात पर सख्त एतराज़ किया किया कि कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयंभू नेता बन गए हैं और संसद सदस्यों को अपमानित कर रहे हैं .उन्होंने कहा कि किसी भी आन्दोलन की धमकी के बाद सरकार को कोई भी कानून नहीं बनाया जाना चाहिए. इसमें जल्दी मचाने के ज़रुरत नहीं है उन्होंने भी इस बात को जोर देकर कहा कि प्रधान मंत्री को इसके दायरे से बाहर रखा जाये .जनता दल यू के शरद यादव , आल इण्डिया अन्ना द्रमुक के थाम्बी दुराई , सी पी एम के बासुदेव आचार्य ने संघीय ढाँचे को तोड़ने के किसी भी कोशिश का विरोध किया . बीजेपी के यशवंत सिन्हा ने भी ज़ोरदार विरोध किया कि सरकार अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन देने की कोशिश कर रही हैं .
शिवसेना ने लोकपाल का ज़बरस्त विरोध किया और अन्ना हजारे और उनकी टीम को गैरज़िम्मेदार बताया. पार्टी के सदस्य ने कहा कि उनकी पार्टी के नेता, बाल ठाकरे को इस बात की आशंका है कि इस लोकपाल को इतना ताक़तवर बना कर कहीं देश तानाशाही की तरफ तो नहीं बढ़ रहा है .सी पी आई के गुरुदास दासगुप्ता ने कहा कि कुछ लोगों को इस बात का हक नहीं है कि वे संसद को धमकाएं लेकिन उनकी इस बात पर सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने उन्हें याद दिलाया कि वे अपने पार्टी के नेता को समझाएं कि वे जन्तर मंतर के धरनामंच पर न जाएँ. कानून बनाने का काम संसद को ही करने दें . बहरहाल बिल लोकसभा में पेश हो गया और कांग्रेस इस बात पर बहुत खुश है कि उसने २७ अगस्त को सदन में पास हुए प्रस्ताव की रोशनी में वह बिल पेश कर दिया जिसका उन्होंने वायदा किया था.
बिल को पास करने या न करने के लिए लोकसभा की बैठक २७ से २९ दिसंबर तक होगी . अभी बिल के पास होने के बारे में कोई बात नहीं कही जा सकती है क्योंकि जो पार्टियां पहले अन्ना हजारे के साथ थीं वे भी आज पेश किये गए बिल को कमज़ोर बताकर उस से बच निकलने के चक्कर में हैं .
नई दिल्ली ,२२ दिसंबर . आज लोकसभा में लोकपाल और लोकायुक्त बिल २०११ पेश कर दिया गया. सदन में ४ अगस्त को इसी विषय पर पेश किया गया बिल वापस ले लिया गया है. लोकपाल बिल को संसद में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने पाइलट किया. अध्यक्ष के आसन पर फ्रांसिस्को सरदिन्हा मौजूद थे. बिल को पेश करने में ही जो दिक्क़तें आयीं उनसे साफ लगता है कि लोकपाल बिल पास होने में खासी मुश्किल होगी. बहस की शुरुआत सदन की नेता, सुषमा स्वराज ने किया. उन्होंने कुछ कारणों से बिल को आज पेश किये जाने का विरोध किया . उन्होंने कहा कि यह बिल भारत के संघीय ढांचे पर हमला करता है . सुषमा स्वराज ने कहा कि संविधान में यह व्यवस्था है और सुप्रीम कोर्ट के कई आदेश हैं कि रिज़र्वेशन किसी भी हालत में ५० प्रतिशत से ज्यादा नहीं किया जा सकता है .लेकिन इस बिल में कहा गया है कि रिज़र्वेशन ५० प्रतिशत से कम नहीं होगा. यानी यह ९ सदस्यों के लोकपाल में कम से कम ५ सदस्यों को रिज़र्वेशन देने की बात कही गयी है . उनको इस बात पर भी एतराज़ था कि इसमें अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन दिया गया है .उनका कहना था कि जब संविधान में धार्मिक आधार पर रिज़र्वेशन नहीं दिया गया है तो संविधान का विरोध करके क्यों ऐसा कानून बनाया जा रहा है जो सुप्रीम कोर्ट में जाकर फेल हो जाए. बहस के आखिर में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है . और अगर ऐसा है भी तो उसे जब इस बिल पर २७ दिसम्बर से सिलसिलेवार बहस होगी तब ठीक कर लिया जाये़या.
आज दिन में सदन शुरू में स्थगित करना पड़ा लेकिन जब साढ़े तीन बजे सदन की बैठक दुबारा शुरू हुई तो बिल को पेश करने के स्तर पर ही खासी लम्बी बहस हो गयी. समाजवादी पार्टी के नेता, मुलायम सिंह यादव ने इस बात पर आपत्ति की लोकपाल की संस्था ऐसी बनने जा रही है जो किसी के प्रति ज़िम्मेदार नहीं होगा. उन्होंने कहा कि जो लोग अन्ना हजारे के साथ हैं वे दूध के धुले नहीं है . इस बात का डर है कि लोकपाल भी भ्रष्टाचार के एक नए केंद्र के रूप में स्थापित हो जाये़या . वह सब को ब्लैकमेल करेगा. इसके बाद राजद के नेता, लालू प्रसाद यादव ने बहुत ज़ोरदार तरीके से अपने बात रखी . उन्होंने इस बात पर सख्त एतराज़ किया किया कि कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयंभू नेता बन गए हैं और संसद सदस्यों को अपमानित कर रहे हैं .उन्होंने कहा कि किसी भी आन्दोलन की धमकी के बाद सरकार को कोई भी कानून नहीं बनाया जाना चाहिए. इसमें जल्दी मचाने के ज़रुरत नहीं है उन्होंने भी इस बात को जोर देकर कहा कि प्रधान मंत्री को इसके दायरे से बाहर रखा जाये .जनता दल यू के शरद यादव , आल इण्डिया अन्ना द्रमुक के थाम्बी दुराई , सी पी एम के बासुदेव आचार्य ने संघीय ढाँचे को तोड़ने के किसी भी कोशिश का विरोध किया . बीजेपी के यशवंत सिन्हा ने भी ज़ोरदार विरोध किया कि सरकार अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन देने की कोशिश कर रही हैं .
शिवसेना ने लोकपाल का ज़बरस्त विरोध किया और अन्ना हजारे और उनकी टीम को गैरज़िम्मेदार बताया. पार्टी के सदस्य ने कहा कि उनकी पार्टी के नेता, बाल ठाकरे को इस बात की आशंका है कि इस लोकपाल को इतना ताक़तवर बना कर कहीं देश तानाशाही की तरफ तो नहीं बढ़ रहा है .सी पी आई के गुरुदास दासगुप्ता ने कहा कि कुछ लोगों को इस बात का हक नहीं है कि वे संसद को धमकाएं लेकिन उनकी इस बात पर सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने उन्हें याद दिलाया कि वे अपने पार्टी के नेता को समझाएं कि वे जन्तर मंतर के धरनामंच पर न जाएँ. कानून बनाने का काम संसद को ही करने दें . बहरहाल बिल लोकसभा में पेश हो गया और कांग्रेस इस बात पर बहुत खुश है कि उसने २७ अगस्त को सदन में पास हुए प्रस्ताव की रोशनी में वह बिल पेश कर दिया जिसका उन्होंने वायदा किया था.
बिल को पास करने या न करने के लिए लोकसभा की बैठक २७ से २९ दिसंबर तक होगी . अभी बिल के पास होने के बारे में कोई बात नहीं कही जा सकती है क्योंकि जो पार्टियां पहले अन्ना हजारे के साथ थीं वे भी आज पेश किये गए बिल को कमज़ोर बताकर उस से बच निकलने के चक्कर में हैं .
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उत्तर प्रदेश में बड़े नेताओं को हाशिये पर करके बीजेपी ने अपना नुकसान किया
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव अब कुछ हफ़्तों के अंदर हो जायेगें. विधान सभा चुनाव के पहले के समीकरण इतनी तेज़ी से बदल रहे हैं कि किसी भी राजनीतिक समीक्षक के लिए नतीजों के बारे में इशारा कर पाना भी असंभव है . इसके बावजूद कुछ बातें बिलकुल तय हैं . मसलन सत्ताधारी पार्टी से नाराज़ लोगों की संख्या के बारे में कोई भी आकलन नहीं लगाया जा सकता . छः महीने पहले तक यह माना जा रहा था कि मुख्यमंत्री मायावती की पार्टी सबसे मज़बूत पार्टी थी, आज इस बात को कहने वालों की संख्या में खासी कमी आई है . जब अन्ना हजारे का रामलीला मैदान वाला कार्यक्रम चल रहा था और कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह की उत्तर प्रदेश में यात्रायें चल रही थीं तो लगने लगा था कि बीजेपी का कार्यकर्ता भी चुनाव में सक्रिय रूप से तैयार है . उत्तर प्रदेश में राज नाथ सिंह और कलराज मिश्र की बिरादरी वाले चुनाव की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं . लेकिन जब से बीजेपी ने राज्य के दिग्गजों को चुनाव मैदान में उतार कर उनकी औकात नापने की योजना बनायी है , बीजेपी के लोग निराश हैं . उनका कहना है कि जिन लोगों के कारण आज उत्तर प्रदेश में पार्टी के दुर्दशा हुई है उनको जनता दुबारा झेलने को तैयार नहीं है . उधर कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह के जो समर्थक अपने नेताओं की हनक बनाने के लिए सक्रिय नज़र आ रहे थे , अब ठंडे पड़ गए हैं . लगता है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने ऐसी को योजना बना ली है कि बीजेपी के यू पी वाले नेताओं को जीरो कर के दोबारा पार्टी को मज़बूत बनाया जाये़गा. हो सकता है इसका आगे चल कर लाभ भी हो लेकिन फिलहाल तो आज बीजेपी बिलकुल पिछड़ी नज़र आ रही है . बीजेपी आलाकमान का एक और फैसला भी ख़ासा मनोरंजक माना जा रहा है . उमा भारती को यू पी में सक्रिय करके पता नहीं बीजेपी वाले क्या हासिल करना चाहते हैं . लेकिन उनकी इस रणनीति के कारण यू पी के बीजेपी नेता और कार्यकर्ता बहुत निराश हैं . सुना है कि उमा भारती राज्य की मुख्यमंत्री बनने की योजना भी बना रही है . जो भी हो ,कुल मिलाकर हालात ऐसे बन गए हैं कि लगता है कि बीजेपी लड़ाई से बाहर हो गयी है .
कांग्रेस ने अजित सिंह को साथ लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ सीटें जीतने के प्लान पर काम शुरू कर दिया है .हो सकता है कि इसका फायदा कांग्रेस को मिल जाए .केंद्र सरकार का बैकवर्ड मुसलमानों को दिया गया साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण भी एक मज़बूत चुनावी नुस्खा है .लोकसभा २००९ में भी देखा गया था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमान कांग्रेस की ओर खिंचे थे. अगर इस बार भी उन्हें लगा कि कांग्रेस बीजेपी को कमज़ोर करने में प्रभावी भूमिका निभाने जा रही है तो कांग्रेस के हाथ मुसलमानों के वोट आ सकते हैं . ऐसी हालत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह और कांग्रेस मिल कर बहुजन समाज पार्टी को असरदार चुनौती दे सकेंगें . राज्य के बँटवारे के बारे में विधानसभा में प्रस्ताव पास करवाकर मायावाती ने कोशिश की थी कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में अजित सिंह समेत सभी पार्टियों को कमज़ोर कर दें लेकिन केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने जिस सिलसिलेवार तरीके से मायावती के प्रस्ताव का जवाब भेजा है उसके बाद अखबार पढने वाले लोगों की समझ में आ गया है कि मायावाती का इरादा चुनावी समीकरण बदलने का ही था और कुछ नहीं . वे केवल चुनावी नारा दे रही थीं . उनके प्रस्ताव में कोई दम नहीं था. ऐसी हालत में लगता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनको अजित सिंह और कांग्रेस के गठबंधन से ज़बरदस्त चुनौती मिलेगी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक और दिलचस्प बात सामने आ रही है . वह यह कि मुलायम सिंह यादव भी इस इलाके में कुछ क्षेत्रों में बहुत ही प्रभावशाली नज़र आ रहे हैं ,हालांकि पहले उनको यहाँ जीरो माना जा रहा था . ऐसा लगने लगा है कि कुछ इलाकों में वे मायावाती से नाराज़ वोटरों को अपनी तरफ खींच लेने में कामयाब हो जायेगें. अगर ऐसा हुआ तो उनका कोर समर्थक मुसलमान उनका साथ देने से कोई परहेज़ नहीं करेगा . कुल मिलाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आज की जो राजनीतिक हालत है उसमें लगता है कि मुसलमानों की मदद की ताक़त के कारण कांग्रेस-अजित सिंह और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार मायावती की पार्टी के उम्मीदवारों को धकियाने में सफल हो जायेगें.
मध्य उत्तर प्रदेश में इस बार मुलायम सिंह यादव कोई भी चांस नहीं ले रहे हैं . उन्होंने यादव बहुल एटा में अपनी चुनावी सभाओं की शुरुआत की . उस चुनाव सभा के पहले और बाद में वहां आये लोगों से बात करने का मौक़ा मुझे मिला था . और ऐसी धारणा बनी थी कि हालांकि मुलायम सिंह की बहू फिरोजाबाद से चुनाव हार गयी थी लेकिन अब माहौल बदल गया है . पिछड़े और मुसलमान उनके साथ हैं जो उनकी पार्टी को उनके अपने इलाके में बढ़त दिलाने में सफल रहेगें.. यहाँ अजित सिंह का कोई प्रभाव नहीं है लेकिन कुछ इलाकों में कांग्रेस नज़र आ रही है लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अपने इलाके में मुलायम सिंह यादव मायावती की पार्टी को सीधी चुनौती देगें . और शायद बहुत सारी सीटों पर बढ़त भी दर्ज करें. ज़ाहिर है कि जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में हुए घाटे को वे यहाँ बराबर कर लेगें .
सरकार बनाने की असली शक्तिपरीक्षा अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में होने वाली है . इस इलाके में अमेठी और रायबरेली में तो कांग्रेस मज़बूत है हालांकि वहां भी हर सीट पर उनकी जीत पक्की नहीं है . बीजेपी बहुत कमज़ोर है लेकिन मायावती का पक्का वोट बैंक यहाँ ताक़तवर है .करीब तीन महीने पहले जब यह लगता था कि बीजेपी मजबूती से लडेगी तो जानकारों ने लगभग ऐलान कर दिया था कि बीजेपी को हराने के लिए मुसलमान पूरी तरह से बहुजन समाज पार्टी के साथ चला जाएगा लेकिन अब ऐसा नहीं है . बीजेपी के बहुत कमज़ोर हो जाने का नतीजा यह है कि अब मुसलमान के पास कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में से किसी के भी साथ जाने का विकल्प मौजूद है . ज़ाहिर है कि यहाँ भी लड़ाई दिलचस्प हो गयी है . मायावती से नाराज़ वोटर के सामने भी अब समाजवादी पार्टी का मज़बूत विकल्प उपलब्ध है . इसी क्षेत्र से मायावती ने बहुत सारे भ्रष्ट मंत्रियों और बाहुबली लोगों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है . जबकि उन्हीं लोगों की सीट के बल पर पिछली बार उन्हें स्पष्ट बहुमत मिला था . ज़ाहिर है कि वे लोग इस बार मायावती को हराने के लिए माहौल बनायेगें . हालांकि मायावाती को हरा पाना बहुत आसान नहीं है क्योंकि उनका कोर वोटर हर हाल में उनके साथ रहेगा . लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि उन्हें हराने के लिए मुलायम सिंह भी एडी चोटी का जोर लगा रहे हैं और पूरी संभावना है कि मायावती से नाराज़ वोटर उनके साथ चला जाए .
पूर्वी उत्तर प्रदेश की भी हालत सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत ठीक नहीं है . शुरू में कहा जा रहा था कि वहां बीजेपी मज़बूत पड़ेगी क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश कलराज मिश्र ,राजनाथ सिंह, सूर्य प्रताप शाही, रमापति राम त्रिपाठी ,मुरली मनोहर जोशी आदि बड़े नेताओं की कर्मभूमि है . लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी की नई योजना में यह सारे लोग हाशिये पर आ गए हैं और २०१२ विधान सभा चुनाव के पहले तो बीजेपी की हालत बहुत कमज़ोर दिख रही है . ऐसी हालत में मुलायम सिंह यादव फिर भारी पड़ सकते हैं. लगता है कि जिन कारणों से २००७ में मायावती ने मुलायम सिंह को बेदखल किया था ,उन्हीं कारणों से इस बार मुलायम सिंह यादव भी मायावती को कमज़ोर करने में सफल होगें .
दिसंबर के आख़री हफ्ते में जो राजनीतिक तस्वीर उभर रही है उससे तो यही लगता है कि राज्य की राजनीतिक स्थिति ऐसी है जहां नेगेटिव वोट की खासी भूमिका रहेगी और जो भी अपने आप को मायावती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल हो जाएगा वही लखनऊ की गद्दी पर बैठ जाएगा. राज्य में कुछ वोट काटने वाली पार्टियां भी मैदान में हैं लेकिन लगता है कि जनता की जागरूकता में वृद्धि के मद्दे नज़र वोट काटने वाली पार्टियों की भूमिका भी बहुत कम रह जायेगी . यह अलग बात है कि कुछ उपचुनावों में पीस पार्टी जैसी कुछ छोटी पार्टियों ने अपनी ताक़त दिखायी थी.
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव अब कुछ हफ़्तों के अंदर हो जायेगें. विधान सभा चुनाव के पहले के समीकरण इतनी तेज़ी से बदल रहे हैं कि किसी भी राजनीतिक समीक्षक के लिए नतीजों के बारे में इशारा कर पाना भी असंभव है . इसके बावजूद कुछ बातें बिलकुल तय हैं . मसलन सत्ताधारी पार्टी से नाराज़ लोगों की संख्या के बारे में कोई भी आकलन नहीं लगाया जा सकता . छः महीने पहले तक यह माना जा रहा था कि मुख्यमंत्री मायावती की पार्टी सबसे मज़बूत पार्टी थी, आज इस बात को कहने वालों की संख्या में खासी कमी आई है . जब अन्ना हजारे का रामलीला मैदान वाला कार्यक्रम चल रहा था और कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह की उत्तर प्रदेश में यात्रायें चल रही थीं तो लगने लगा था कि बीजेपी का कार्यकर्ता भी चुनाव में सक्रिय रूप से तैयार है . उत्तर प्रदेश में राज नाथ सिंह और कलराज मिश्र की बिरादरी वाले चुनाव की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं . लेकिन जब से बीजेपी ने राज्य के दिग्गजों को चुनाव मैदान में उतार कर उनकी औकात नापने की योजना बनायी है , बीजेपी के लोग निराश हैं . उनका कहना है कि जिन लोगों के कारण आज उत्तर प्रदेश में पार्टी के दुर्दशा हुई है उनको जनता दुबारा झेलने को तैयार नहीं है . उधर कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह के जो समर्थक अपने नेताओं की हनक बनाने के लिए सक्रिय नज़र आ रहे थे , अब ठंडे पड़ गए हैं . लगता है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने ऐसी को योजना बना ली है कि बीजेपी के यू पी वाले नेताओं को जीरो कर के दोबारा पार्टी को मज़बूत बनाया जाये़गा. हो सकता है इसका आगे चल कर लाभ भी हो लेकिन फिलहाल तो आज बीजेपी बिलकुल पिछड़ी नज़र आ रही है . बीजेपी आलाकमान का एक और फैसला भी ख़ासा मनोरंजक माना जा रहा है . उमा भारती को यू पी में सक्रिय करके पता नहीं बीजेपी वाले क्या हासिल करना चाहते हैं . लेकिन उनकी इस रणनीति के कारण यू पी के बीजेपी नेता और कार्यकर्ता बहुत निराश हैं . सुना है कि उमा भारती राज्य की मुख्यमंत्री बनने की योजना भी बना रही है . जो भी हो ,कुल मिलाकर हालात ऐसे बन गए हैं कि लगता है कि बीजेपी लड़ाई से बाहर हो गयी है .
कांग्रेस ने अजित सिंह को साथ लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ सीटें जीतने के प्लान पर काम शुरू कर दिया है .हो सकता है कि इसका फायदा कांग्रेस को मिल जाए .केंद्र सरकार का बैकवर्ड मुसलमानों को दिया गया साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण भी एक मज़बूत चुनावी नुस्खा है .लोकसभा २००९ में भी देखा गया था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमान कांग्रेस की ओर खिंचे थे. अगर इस बार भी उन्हें लगा कि कांग्रेस बीजेपी को कमज़ोर करने में प्रभावी भूमिका निभाने जा रही है तो कांग्रेस के हाथ मुसलमानों के वोट आ सकते हैं . ऐसी हालत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह और कांग्रेस मिल कर बहुजन समाज पार्टी को असरदार चुनौती दे सकेंगें . राज्य के बँटवारे के बारे में विधानसभा में प्रस्ताव पास करवाकर मायावाती ने कोशिश की थी कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में अजित सिंह समेत सभी पार्टियों को कमज़ोर कर दें लेकिन केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने जिस सिलसिलेवार तरीके से मायावती के प्रस्ताव का जवाब भेजा है उसके बाद अखबार पढने वाले लोगों की समझ में आ गया है कि मायावाती का इरादा चुनावी समीकरण बदलने का ही था और कुछ नहीं . वे केवल चुनावी नारा दे रही थीं . उनके प्रस्ताव में कोई दम नहीं था. ऐसी हालत में लगता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनको अजित सिंह और कांग्रेस के गठबंधन से ज़बरदस्त चुनौती मिलेगी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक और दिलचस्प बात सामने आ रही है . वह यह कि मुलायम सिंह यादव भी इस इलाके में कुछ क्षेत्रों में बहुत ही प्रभावशाली नज़र आ रहे हैं ,हालांकि पहले उनको यहाँ जीरो माना जा रहा था . ऐसा लगने लगा है कि कुछ इलाकों में वे मायावाती से नाराज़ वोटरों को अपनी तरफ खींच लेने में कामयाब हो जायेगें. अगर ऐसा हुआ तो उनका कोर समर्थक मुसलमान उनका साथ देने से कोई परहेज़ नहीं करेगा . कुल मिलाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आज की जो राजनीतिक हालत है उसमें लगता है कि मुसलमानों की मदद की ताक़त के कारण कांग्रेस-अजित सिंह और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार मायावती की पार्टी के उम्मीदवारों को धकियाने में सफल हो जायेगें.
मध्य उत्तर प्रदेश में इस बार मुलायम सिंह यादव कोई भी चांस नहीं ले रहे हैं . उन्होंने यादव बहुल एटा में अपनी चुनावी सभाओं की शुरुआत की . उस चुनाव सभा के पहले और बाद में वहां आये लोगों से बात करने का मौक़ा मुझे मिला था . और ऐसी धारणा बनी थी कि हालांकि मुलायम सिंह की बहू फिरोजाबाद से चुनाव हार गयी थी लेकिन अब माहौल बदल गया है . पिछड़े और मुसलमान उनके साथ हैं जो उनकी पार्टी को उनके अपने इलाके में बढ़त दिलाने में सफल रहेगें.. यहाँ अजित सिंह का कोई प्रभाव नहीं है लेकिन कुछ इलाकों में कांग्रेस नज़र आ रही है लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अपने इलाके में मुलायम सिंह यादव मायावती की पार्टी को सीधी चुनौती देगें . और शायद बहुत सारी सीटों पर बढ़त भी दर्ज करें. ज़ाहिर है कि जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में हुए घाटे को वे यहाँ बराबर कर लेगें .
सरकार बनाने की असली शक्तिपरीक्षा अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में होने वाली है . इस इलाके में अमेठी और रायबरेली में तो कांग्रेस मज़बूत है हालांकि वहां भी हर सीट पर उनकी जीत पक्की नहीं है . बीजेपी बहुत कमज़ोर है लेकिन मायावती का पक्का वोट बैंक यहाँ ताक़तवर है .करीब तीन महीने पहले जब यह लगता था कि बीजेपी मजबूती से लडेगी तो जानकारों ने लगभग ऐलान कर दिया था कि बीजेपी को हराने के लिए मुसलमान पूरी तरह से बहुजन समाज पार्टी के साथ चला जाएगा लेकिन अब ऐसा नहीं है . बीजेपी के बहुत कमज़ोर हो जाने का नतीजा यह है कि अब मुसलमान के पास कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में से किसी के भी साथ जाने का विकल्प मौजूद है . ज़ाहिर है कि यहाँ भी लड़ाई दिलचस्प हो गयी है . मायावती से नाराज़ वोटर के सामने भी अब समाजवादी पार्टी का मज़बूत विकल्प उपलब्ध है . इसी क्षेत्र से मायावती ने बहुत सारे भ्रष्ट मंत्रियों और बाहुबली लोगों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है . जबकि उन्हीं लोगों की सीट के बल पर पिछली बार उन्हें स्पष्ट बहुमत मिला था . ज़ाहिर है कि वे लोग इस बार मायावती को हराने के लिए माहौल बनायेगें . हालांकि मायावाती को हरा पाना बहुत आसान नहीं है क्योंकि उनका कोर वोटर हर हाल में उनके साथ रहेगा . लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि उन्हें हराने के लिए मुलायम सिंह भी एडी चोटी का जोर लगा रहे हैं और पूरी संभावना है कि मायावती से नाराज़ वोटर उनके साथ चला जाए .
पूर्वी उत्तर प्रदेश की भी हालत सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत ठीक नहीं है . शुरू में कहा जा रहा था कि वहां बीजेपी मज़बूत पड़ेगी क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश कलराज मिश्र ,राजनाथ सिंह, सूर्य प्रताप शाही, रमापति राम त्रिपाठी ,मुरली मनोहर जोशी आदि बड़े नेताओं की कर्मभूमि है . लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी की नई योजना में यह सारे लोग हाशिये पर आ गए हैं और २०१२ विधान सभा चुनाव के पहले तो बीजेपी की हालत बहुत कमज़ोर दिख रही है . ऐसी हालत में मुलायम सिंह यादव फिर भारी पड़ सकते हैं. लगता है कि जिन कारणों से २००७ में मायावती ने मुलायम सिंह को बेदखल किया था ,उन्हीं कारणों से इस बार मुलायम सिंह यादव भी मायावती को कमज़ोर करने में सफल होगें .
दिसंबर के आख़री हफ्ते में जो राजनीतिक तस्वीर उभर रही है उससे तो यही लगता है कि राज्य की राजनीतिक स्थिति ऐसी है जहां नेगेटिव वोट की खासी भूमिका रहेगी और जो भी अपने आप को मायावती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल हो जाएगा वही लखनऊ की गद्दी पर बैठ जाएगा. राज्य में कुछ वोट काटने वाली पार्टियां भी मैदान में हैं लेकिन लगता है कि जनता की जागरूकता में वृद्धि के मद्दे नज़र वोट काटने वाली पार्टियों की भूमिका भी बहुत कम रह जायेगी . यह अलग बात है कि कुछ उपचुनावों में पीस पार्टी जैसी कुछ छोटी पार्टियों ने अपनी ताक़त दिखायी थी.
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शेष नारायण सिंह
उस देश का वासी हूँ जिसमें किसान आत्महत्या करते हैं
शेष नारायण सिंह
किसानों की आत्मह्त्या देश की राजनीतिक पार्टियों को हमेशा मुश्किल में डालती रहती है .हालांकि मीडिया आम तौर पर किसानों की आत्महत्या को इग्नोर ही करता है लेकिन कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो इस मामले पर समय समय बहस का माहौल बनाते रहते हैं. देश के कुछ इलाकों में तो हालात बहुत ही बिगड़ गए हैं और लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि समस्या का हल किस तरह से निकाला जाए.हो सकता है कि इन्हीं कारणों से संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा ने समय निकाला और किसानों की आत्महत्या से पैदा हुए सवाल पर दो दिन की बहस कर डाली . बीजेपी के वेंकैया नायडू की नोटिस पर नियम १७६ के तहत अल्पकालिक चर्चा में बहुत सारे ऐसे मुद्दे सामने आये जिसके बाद कि संसद ने इस विषय पर बात को आगे बढाने का मन बनाया. बहस के दौरान सदस्यों ने मांग की कि इसी विषय पर चर्चा के लिए सदन का एक विशेष सत्र बुलाया जाए .बहस के अंत में इस बात पर सहमति बन गयी कि सदन की एक कमेटी बनायी जाए जो किसानों की आत्महत्या के कारणों पर गंभीर विचार विमर्श करे और सदन को जल्द से जल्द रिपोर्ट पेश करे.बाद में लोकसभा में सी पी एम के नेता और कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति के अध्यक्ष, बासुदेव आचार्य ने लोक सभा की स्पीकर से मिल कर आग्रह किया कि राज्यसभा की जो कमेटी बनने वाली है है उसमें लोकसभा के सदस्य भी शामिल हो जाएँ तो कमेटी एक जे पी सी की शक्ल अख्तियार कर लेगी.
राज्यसभा में बहस की शुरुआत करते हुए बीजेपी के वेंकैया नायडू ने किसानों की आत्मह्त्या और खेती के सामने पेश आ रही बाकी दिक्क़तों का सिलसिलेवार ज़िक्र किया . उन्होंने कृषि लागत और मूल्य आयोग की आलोचना की और कहा कि उस संस्था का तरीका वैज्ञानिक नहीं है .वह पुराने लागत के आंकड़ों की मदद से आज की फसल की कीमत तय करते हैं जिसकी वजह से किसान ठगा रह जाता है .फसल बीमा के विषय पर भी उन्होंने सरकार को सीधे तौर पर कटघरे में खड़ा किया . खेती की लागत की चीज़ों की कीमत लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की बात को कोई भी सही तरीके से नहीं सोच रहा है जिसके कारण इस देश में किसान तबाह होता जा रहा है .उन्होंने कहा कि जी डी पी में तो सात से आठ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर केवल २ प्रतिशत के आस पास है . उन्होंने कहा कि किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह बहुत कम है . उन्होंने इसके लिए भी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया .बहस में कई पार्टियों के सदस्यों ने हिस्सा लिया लेकिन नामजद सदस्य,मणिशंकर अय्यर ने किसानों की समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में लाने की कोशिश की. उन्होंने साफ़ कहा कि आत्महत्या करने वाले किसान वे नहीं होते जो खाद्यान्न की खेती में लगे होते हैं और आमतौर पर सरकारी समर्थन मूल्य पर निर्भर करते हैं . किसानों की आत्मह्त्या के ज़्यादातर मामले उन इलाकों से सुनने में आ रहे हैं जहां कैश क्राप उगाई जा रही है .कैश क्राप के लिए किसानों को लागत बहुत ज्यादा लगानी पड़ती है . कैश क्राप के किसान पर देश के अंदर हो रही उथल पुथल का उतना ज्यादा असर नहीं पड़ता जितना कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अर्थव्यवस्था के उतार-चढाव का पड़ता है . जब उनके माल की कीमत दुनिया के बाजारों में कम हो जाती है तो उसके सामने संकट पैदा हो जाता है .वह अपनी फसल में बहुत ज़्यादा लागत लगा चुका होता है. लागत का बड़ा हिस्सा क़र्ज़ के रूप में लिया गया होता है . माल को रोकना उसके बूते की बात नहीं होती. सरकार की गैर ज़िम्मेदारी का आलम यह है कि खेती के लिए क़र्ज़ लेने वाले किसान को छोटे उद्योगों के लिए मिलने वाले क़र्ज़ से ज्यादा ब्याज देना पड़ता है.एक बार भी अगर फसल खराब हो गयी तो दोबारा पिछली फसल के घाटे को संभालने के लिए वह अगली फसल में ज्यादा पूंजी लगा देता है . अगर लगातार दो तीन साल तक फसल खराब हो गयी तो मुसीबत आ जाती है. किसान क़र्ज़ के भंवरजाल में फंस जाता है . जिसके बाद उसके लिए बाकी ज़िंदगी बंधुआ मजदूर के रूप में क़र्ज़ वापस करते रहने के लिए काम करने का विकल्प रह जाता है . किसानों की आत्म हत्या के कारणों की तह में जाने पर पता चलता है कि ज़्यादातर समस्या यही है . राज्यसभा में बहस के दौरान यह साफ़ समझ में आ गया कि ज़्यादातर सदस्य आपने इलाकों के किसानों की समस्याओं का उल्लेख करने के एक मंच के रूप में ही समय बिताते रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने समस्या के शास्त्रीय पक्ष पर बात की ,सदन में भी और सदन के बाहर भी . उन्होंने सरकार की नीयत पर ही सवाल उठाया और कहा कि अपने जवाब में कृषिमंत्री ने जिस तरह से आंकड़ों का खेल किया है वह किसानों की आत्महत्या जैसे सवाल को कमज़ोर रोशनी में पेश करने का काम करता है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि २००७ के एक जवाब में सरकार ने कहा था कि नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा किसानों की आत्महत्या के मामले में ही सही आंकड़ा है जबकि जब राज्यसभा में इस विषय पर हुई दो दिन की बहस का जवाब केन्द्रीय कृषि मंत्री महोदय दे रहे थे तो उन्होंने राज्य सरकारों से मिले आंकड़ों का हवाला दिया .सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि यह सरकार की गलती है . कोई भी मुख्यमंत्री या राज्य सरकार आमतौर पर यह स्वीकार करने में संकोच करती है कि उसके राज्य में किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं.. उन्होंने उन अर्थशास्त्रियों को भी आड़े हाथों लिया जो आर्थिक सुधारों के बल पर देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने की कोशिश कर रहे हैं .सीताराम ने साफ़ कहा कि जब तक इस देश के किसान खुशहाल नहीं होगा तह तह अर्थव्यवस्था में किसी तरह की तरक्की के सपने देखना बेमतलब है .उन्होंने साफ़ कहा कि जब तक खेती में सरकारी निवेश नहीं बढाया जाएगा, भण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का बंदोबस्त नहीं होगा तब तक इस देश में किसान को वही कुछ झेलना पड़ेगा जो अभी वह झेल रहा है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर खेती से जुडी हर लाभकारी स्कीम को एम एन सी के हवाले करने की जो योजना सरकारी चर्चाओं में सुनने में आ रही है वह बहुत ही चिंताकारक है.
एक दिन की बहस के बाद जब कृषिमंत्री शरद पवार ने जवाब दिया तो लगभग तस्वीर साफ़ हो गयी कि सरकार इतने अहम मसले पर भी लीपापोती का काम करने के चक्कर में है .सरकार की तरफ से कृषि मंत्री ने एक हैरत अंगेज़ बात भी कुबूल कर डाली . उन्होंने कहा कि इस देश में २७ प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो खेती को लाभदायक नहीं . बाद में जनता दल ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने कहा कि कृषिमंत्री के बयान से लगता है कि २७ प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं . उन्होंने कहा कि यह २७ प्रतिशत किसान का मतलब यह है कि देश के करीब १७ करोड़ किसान खेती से पिंड छुडाना चाहते हैं . यह बात बहुत ही चिंता का कारण है .भारत एक कृषिप्रधान देश है और यहाँ आबादी का एक बड़ा हिस्सा खेती से अलग होना चाहता है. कृषिमंत्री ने इस बात को भी स्वीकार किया कि रासायनिक खादों को भी किसानों को उपलब्ध कराने में सरकार असमर्थ है . उन्होंने कहा कि दुनिया के कई देशों में खाद उत्पादन करने वाली बड़ी कंपनियों ने गिरोह बना रखा है और वे भारत सरकार से मनमानी कीमतें वसूल कर रहे हैं . सरकार ऐसी हालत में मजबूर है . उन्होंने इस बात पार भी लाचारी दिखाई कि सरकार किसानों को सूदखोरों के जाल में जाने से नहीं बचा सकती . बहरहाल सरकार की लाचारी भरे जवाब के बाद यह साफ़ हो गया है कि इस देश में किसान को कोई भी राजनीतिक या सरकारी समर्थन मिलने वाला नहीं है. किसान को इस सरकार ने रामभरोसे छोड़ दिया है .
किसानों की आत्मह्त्या देश की राजनीतिक पार्टियों को हमेशा मुश्किल में डालती रहती है .हालांकि मीडिया आम तौर पर किसानों की आत्महत्या को इग्नोर ही करता है लेकिन कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो इस मामले पर समय समय बहस का माहौल बनाते रहते हैं. देश के कुछ इलाकों में तो हालात बहुत ही बिगड़ गए हैं और लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि समस्या का हल किस तरह से निकाला जाए.हो सकता है कि इन्हीं कारणों से संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा ने समय निकाला और किसानों की आत्महत्या से पैदा हुए सवाल पर दो दिन की बहस कर डाली . बीजेपी के वेंकैया नायडू की नोटिस पर नियम १७६ के तहत अल्पकालिक चर्चा में बहुत सारे ऐसे मुद्दे सामने आये जिसके बाद कि संसद ने इस विषय पर बात को आगे बढाने का मन बनाया. बहस के दौरान सदस्यों ने मांग की कि इसी विषय पर चर्चा के लिए सदन का एक विशेष सत्र बुलाया जाए .बहस के अंत में इस बात पर सहमति बन गयी कि सदन की एक कमेटी बनायी जाए जो किसानों की आत्महत्या के कारणों पर गंभीर विचार विमर्श करे और सदन को जल्द से जल्द रिपोर्ट पेश करे.बाद में लोकसभा में सी पी एम के नेता और कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति के अध्यक्ष, बासुदेव आचार्य ने लोक सभा की स्पीकर से मिल कर आग्रह किया कि राज्यसभा की जो कमेटी बनने वाली है है उसमें लोकसभा के सदस्य भी शामिल हो जाएँ तो कमेटी एक जे पी सी की शक्ल अख्तियार कर लेगी.
राज्यसभा में बहस की शुरुआत करते हुए बीजेपी के वेंकैया नायडू ने किसानों की आत्मह्त्या और खेती के सामने पेश आ रही बाकी दिक्क़तों का सिलसिलेवार ज़िक्र किया . उन्होंने कृषि लागत और मूल्य आयोग की आलोचना की और कहा कि उस संस्था का तरीका वैज्ञानिक नहीं है .वह पुराने लागत के आंकड़ों की मदद से आज की फसल की कीमत तय करते हैं जिसकी वजह से किसान ठगा रह जाता है .फसल बीमा के विषय पर भी उन्होंने सरकार को सीधे तौर पर कटघरे में खड़ा किया . खेती की लागत की चीज़ों की कीमत लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की बात को कोई भी सही तरीके से नहीं सोच रहा है जिसके कारण इस देश में किसान तबाह होता जा रहा है .उन्होंने कहा कि जी डी पी में तो सात से आठ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर केवल २ प्रतिशत के आस पास है . उन्होंने कहा कि किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह बहुत कम है . उन्होंने इसके लिए भी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया .बहस में कई पार्टियों के सदस्यों ने हिस्सा लिया लेकिन नामजद सदस्य,मणिशंकर अय्यर ने किसानों की समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में लाने की कोशिश की. उन्होंने साफ़ कहा कि आत्महत्या करने वाले किसान वे नहीं होते जो खाद्यान्न की खेती में लगे होते हैं और आमतौर पर सरकारी समर्थन मूल्य पर निर्भर करते हैं . किसानों की आत्मह्त्या के ज़्यादातर मामले उन इलाकों से सुनने में आ रहे हैं जहां कैश क्राप उगाई जा रही है .कैश क्राप के लिए किसानों को लागत बहुत ज्यादा लगानी पड़ती है . कैश क्राप के किसान पर देश के अंदर हो रही उथल पुथल का उतना ज्यादा असर नहीं पड़ता जितना कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अर्थव्यवस्था के उतार-चढाव का पड़ता है . जब उनके माल की कीमत दुनिया के बाजारों में कम हो जाती है तो उसके सामने संकट पैदा हो जाता है .वह अपनी फसल में बहुत ज़्यादा लागत लगा चुका होता है. लागत का बड़ा हिस्सा क़र्ज़ के रूप में लिया गया होता है . माल को रोकना उसके बूते की बात नहीं होती. सरकार की गैर ज़िम्मेदारी का आलम यह है कि खेती के लिए क़र्ज़ लेने वाले किसान को छोटे उद्योगों के लिए मिलने वाले क़र्ज़ से ज्यादा ब्याज देना पड़ता है.एक बार भी अगर फसल खराब हो गयी तो दोबारा पिछली फसल के घाटे को संभालने के लिए वह अगली फसल में ज्यादा पूंजी लगा देता है . अगर लगातार दो तीन साल तक फसल खराब हो गयी तो मुसीबत आ जाती है. किसान क़र्ज़ के भंवरजाल में फंस जाता है . जिसके बाद उसके लिए बाकी ज़िंदगी बंधुआ मजदूर के रूप में क़र्ज़ वापस करते रहने के लिए काम करने का विकल्प रह जाता है . किसानों की आत्म हत्या के कारणों की तह में जाने पर पता चलता है कि ज़्यादातर समस्या यही है . राज्यसभा में बहस के दौरान यह साफ़ समझ में आ गया कि ज़्यादातर सदस्य आपने इलाकों के किसानों की समस्याओं का उल्लेख करने के एक मंच के रूप में ही समय बिताते रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने समस्या के शास्त्रीय पक्ष पर बात की ,सदन में भी और सदन के बाहर भी . उन्होंने सरकार की नीयत पर ही सवाल उठाया और कहा कि अपने जवाब में कृषिमंत्री ने जिस तरह से आंकड़ों का खेल किया है वह किसानों की आत्महत्या जैसे सवाल को कमज़ोर रोशनी में पेश करने का काम करता है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि २००७ के एक जवाब में सरकार ने कहा था कि नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा किसानों की आत्महत्या के मामले में ही सही आंकड़ा है जबकि जब राज्यसभा में इस विषय पर हुई दो दिन की बहस का जवाब केन्द्रीय कृषि मंत्री महोदय दे रहे थे तो उन्होंने राज्य सरकारों से मिले आंकड़ों का हवाला दिया .सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि यह सरकार की गलती है . कोई भी मुख्यमंत्री या राज्य सरकार आमतौर पर यह स्वीकार करने में संकोच करती है कि उसके राज्य में किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं.. उन्होंने उन अर्थशास्त्रियों को भी आड़े हाथों लिया जो आर्थिक सुधारों के बल पर देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने की कोशिश कर रहे हैं .सीताराम ने साफ़ कहा कि जब तक इस देश के किसान खुशहाल नहीं होगा तह तह अर्थव्यवस्था में किसी तरह की तरक्की के सपने देखना बेमतलब है .उन्होंने साफ़ कहा कि जब तक खेती में सरकारी निवेश नहीं बढाया जाएगा, भण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का बंदोबस्त नहीं होगा तब तक इस देश में किसान को वही कुछ झेलना पड़ेगा जो अभी वह झेल रहा है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर खेती से जुडी हर लाभकारी स्कीम को एम एन सी के हवाले करने की जो योजना सरकारी चर्चाओं में सुनने में आ रही है वह बहुत ही चिंताकारक है.
एक दिन की बहस के बाद जब कृषिमंत्री शरद पवार ने जवाब दिया तो लगभग तस्वीर साफ़ हो गयी कि सरकार इतने अहम मसले पर भी लीपापोती का काम करने के चक्कर में है .सरकार की तरफ से कृषि मंत्री ने एक हैरत अंगेज़ बात भी कुबूल कर डाली . उन्होंने कहा कि इस देश में २७ प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो खेती को लाभदायक नहीं . बाद में जनता दल ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने कहा कि कृषिमंत्री के बयान से लगता है कि २७ प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं . उन्होंने कहा कि यह २७ प्रतिशत किसान का मतलब यह है कि देश के करीब १७ करोड़ किसान खेती से पिंड छुडाना चाहते हैं . यह बात बहुत ही चिंता का कारण है .भारत एक कृषिप्रधान देश है और यहाँ आबादी का एक बड़ा हिस्सा खेती से अलग होना चाहता है. कृषिमंत्री ने इस बात को भी स्वीकार किया कि रासायनिक खादों को भी किसानों को उपलब्ध कराने में सरकार असमर्थ है . उन्होंने कहा कि दुनिया के कई देशों में खाद उत्पादन करने वाली बड़ी कंपनियों ने गिरोह बना रखा है और वे भारत सरकार से मनमानी कीमतें वसूल कर रहे हैं . सरकार ऐसी हालत में मजबूर है . उन्होंने इस बात पार भी लाचारी दिखाई कि सरकार किसानों को सूदखोरों के जाल में जाने से नहीं बचा सकती . बहरहाल सरकार की लाचारी भरे जवाब के बाद यह साफ़ हो गया है कि इस देश में किसान को कोई भी राजनीतिक या सरकारी समर्थन मिलने वाला नहीं है. किसान को इस सरकार ने रामभरोसे छोड़ दिया है .
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