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Monday, August 5, 2013

उत्तर प्रदेश ने हमेशा ही देश की राजनीति को दिशा दी है


शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में आज अराजकता का माहौल है ,कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है लेकिन राजनीतिक रूप से राज्य की ताक़त कभी कम नहीं हुई ,आज भी राजनीतिक हैसियत कम नहीं है . गंगा नदी के प्रवाह के इस मुख्य क्षेत्र में हमेशा से भारतीय राजनीति की दिशा तय होती रही है . आज़ादी के लिए पहली  बार जब इस देश की जनता उठ खड़ी हुई थी तो मई १८५७ की मुख्य लड़ाइयां उत्तर प्रदेश में ही लड़ी गयी थीं.  महात्मा गांधी के नेतृत्व में भी आधुनिक भारत की स्थापना और अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान है . १९२० में आज़ादी की इच्छा रखने वाला हर भारतवासी महात्मा गांधी के साथ था, केवल अंग्रेजों के कुछ खास लोग उनके खिलाफ थे .आज़ादी  की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया . उस वक़्त के हर बड़े नेता ने महात्मा गांधी से आन्दोलन जारी रखने का आग्रह किया लेकिन महात्माजी ने साफ़ कह दिया कि भारतीयों की सबसे बड़ी ताक़त अहिंसा थी .  सच भी है कि अगर हिंसक  रास्ते अपनाए जाते तो अंग्रेजों ने तो़प खोल दिया होता और जनता की  महत्वाकांक्षाओं की वही दुर्दशा होती जो १८५७ में हुई थी. १९२९ और १९३० में जब जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की कांग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया . १९२९ में  कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व उत्तर प्रदेश के हाथ आया तो वह कभी नहीं हटा. ११९३० के दशक में भारत में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए वे किसी भी देश के लिए पूरा इतिहास हो सकते हैं . गवर्नमेंट आफ इन्डिया एक्ट १९३५ के  बाद की अंग्रेज़ी साजिशों का सारा पर्दाफाश  यहीं  हुआ. १९३७ में लखनऊ में  हुए मुस्लिम  लीग के सम्मेलन में ही मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की शह पर द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया और  तुरंत से ही उसका विरोध शुरू हो गया . उस वक़्त के मज़बूत संगठन ,हिंदू महासभा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुए अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धांत का नारा दे दिया  लेकिन उत्तर प्रदेश में उसी साल हुए चुनावों में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ चुकी थीं क्योंकि  यहाँ की जनता ने सन्देश दे दिया था कि भारत एक है और वहाँ दो राष्ट्र वाले  सिद्धांत के लिए कोई जगह  नहीं है . मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को चुनावों में  जनता ने नकार दिया था . कांग्रेस के अंदर जो समाजवादी रुझान शुरू हुई और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़रिये आतंरिक लोकतंत्र को और मजबूती देने की जो कोशिश की गयी उसके दोनों बड़े नेता आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के ही मूल निवासी थे .  
भारतीय राजनीति में  कांग्रेस के विकल्प को तलाशने की  कोशिश भी यहीं शुरू हुई . जब डॉ  राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया तो तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज, मुरादाबाद और जौनपुर में १९६३ के लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . डॉ लोहिया  कन्नौज ,आचार्य जे बी कृपलानी मुरादाबाद और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . इसी प्रयोग के बाद  गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के  इलाके में वह कांग्रेस चुनाव हार गयी और  विपक्षी पार्टी बन  गयी जिसे जवाहर लाल  नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन  पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम  जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है . सभी मानते हैं कि देश में लोकप्रिय सरकार बनाने के लिए ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बनायी जाए. अगर उत्तर प्रदेश में किसी राजनीतिक पार्टी की ताक़त नहीं है तो दिल्ली में सरकार बना पाना असंभव माना जाता है .
अब तक की सच्चाई यही है कि जो भी केन्द्र में सरकार बनाएगा उसे उत्तर प्रदेश में जीत दर्ज करना ज़रूरी है . जो उत्तर प्रदेश में हार गया उसे दिल्ली में सरकार बनाने  का हक भी साथ साथ छोड़ना पड़ता है . १९७७ में पहली बार केन्द्र में गैरकांग्रेस सरकार बनी थी . इस सरकार में उत्तर प्रदेश में जीती गयी जनता पार्टी की ८५ सीटों  का मुख्य योगदान था .उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सभी उम्मीदवार उत्तर प्रदेश में चुनाव हार गए थे ,प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . लेकिन जब १९८० में हुए चनाव में काँग्रेस ने लगभग सभी सीटें जीत लीं  तो उनकी सरकार बन गयी और इंदिरा गांधी  फिर प्रधानमंत्री बनीं.  राजनीतिक पार्टियों के भाग्योदय में  भी उत्तर प्रदेश की राजनीति एक मानदंड का काम करती है . आज का मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी है . लेकिन १९८४ में हुए लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश में नकार दिया गया था . नतीजा  हुआ कि पार्टी पूरे देश में केवल दो सीटों पर सिमट गयी थी. लेकिन जब उत्तर प्रदेश में उसे सफलता मिली तो १९८९ में बीजेपी एक महत्वपूर्ण पार्टी बनी और उसे  केन्द्र में वी पी सिंह की सरकार को बनवाने का मौका मिला . बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में ही बाबरी मसजिद-रामजन्म भूमि विवाद को राजनीतिक स्वरूप दिया और उसी के बल पर केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी . अयोध्या  के विवाद को फिर से मुख्यधारा में लाने की चर्चा आजकल भी है और जानकार बताते हैं  कि २०१४ में बीजेपी , अगर सत्ता में आने में सफल होती है तो उसमें उत्तर प्रदेश का सबसे ज़्यादा योगदान होगा . शायद इसीलिये बीजेपी में  राष्ट्रीय अध्यक्ष के बाद के सबसे महत्वपूर्ण नेता और मुख्य चुनाव प्रचारक नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा ध्यान दिया है . उन्हें मालूम है कि अगर दिल्ली में राज करना  है तो उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ आना होगा . इसीलिये नरेंद्र मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी ,अमित शाह को बीजेपी की तरफ से उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवाया है . बताते हैं कि गुजरात में  नरेंद्र मोदी के चुनाव का सारा प्रबंध अमित शाह ही करते हैं  . बीच में कुछ दिनों के लिए वे गुजरात के राजनीतिक पटल से हटे थे जब उनको  कोर्ट के आदेश पर गुजरात में घुसने से मना कर दिया गया था .
केन्द्र की मौजूदा सरकार  हो या अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ,उसे उत्तर प्रदेश के  नेताओं ने ही जीवनदायिनी शक्ति बख्शी है . केन्द्र की मौजूदा सरकार का अस्तित्व केवल इसलिए बचा है कि उसे मुलायम सिंह यादव और मायावती का समर्थन हर बुरे वक़्त में मिल  जाता है . मायावती जी ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को बचा रखा था और जब उनकी सरकार के मंत्री जगमोहन ने ताज कारिडोर मामला शुरू किया तो मायावती की धमकी के बाद बीजेपी के राजनीतिक प्रबंधकों को बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा था .
इसलिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्व को कभी भी कमतर करके नहीं आँका जा सकता . दिल्ली की सरकार का हर रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुज़रता है शायद इसी लिए २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए भी दोनों ही मुख्य पार्टियां उत्तर प्रदेश को बहुत गंभीरता से ले  रही हैं . मुलायम सिंह यादव और मायावती भी सारी ताक़त के साथ जुटे हैं कि अगर केन्द्र की सरकार में महत्वपूर्ण बने रहना है तो अपने राज्य में उन्हें मजबूती से जीतना पडेगा .

( नवभारत टाइम्स से साभार )

Tuesday, April 2, 2013

उत्तर प्रदेश में चुनाव कांग्रेस और बीजेपी के बीच होने की संभावना बढ़ी



शेष नारायण सिंह

मुंबई,३१ मार्च. बीजेपी की टीम २०१४ की घोषणा के बाद अब साफ़ हो गया है कि बीजेपी अब चुनावी  मैदान में  हिंदुत्व के नाम पर उतरने वाली है .यह भी तय हो गया है कि बीजेपी का चुनाव प्रचार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की थीम पर ही केंद्रित रहेगा. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के राग से मिलाकर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश की जायेगी. बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी ,सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के नाम ऐसे हैं जिनको लिबरल डेमोक्रेटिक के रूप में पेश किया जाता है लेकिन  नरेंद्र मोदी, लाल कृष्ण आडवाणी ,उमा भारती आदि ऐसे नाम हैं जिनका ज़िक्र आते ही, बाबरी मसजिद के विध्वंस की तस्वीरे  सामने आ जाती हैं . राज नाथ सिंह की नई टीम में पीलीभीत के एम पी वरुण गांधी को  भी बहुत बड़ी पोस्ट दे दी गयी है . उत्तर प्रदेश में बीजेपी के बड़े नेता और बाबरी मसजिद के विध्वंस के आन्दोलन के समय बजरंग दल के अध्यक्ष रहे विनय कटियार ने उनकी तैनाती पर टिप्पणी की है और कहा है कि वरुण गांधी  को उनके नाम के साथ गांधी जुड़े होने का फायदा मिला है .लेकिन सच्चाई यह है कि वरुण गांधी ने खासी मेहनत करके मुसलमानों के घोर शत्रु के रूप में अपनी पहचान बना ली है और उत्तर प्रदेश में हर इलाके में वे नौजवान जो मुसलमानों  के खिलाफ हैं वे वरुण गांधी को हीरो मानते हैं . जो भी हो अब बीजेपी के पत्ते खुल चुके हैं और इसका सीधा मतलब है कि इस बार आर एस एस की पार्टी हिंदुओं की एकता की राग के  साथ चुनावी मैदान में जाने का मन बना चुकी है .
बीजेपी की नई टीम और उसमें नरेंद्र मोदी के लोगों को मिली प्राथमिकता के अलग अलग सन्देश हर राज्य में जायेगें. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के राज्य, उत्तर प्रदेश में यह टीम धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को एक निश्चित दिशा  देगी. बीजेपी को उसका लाभ  मिलेगा. पिछले एक साल में उत्तर प्रदेश में जिस तरह का राज कायम है उसके बाद समाजवादी पार्टी के पक्ष में उतने लोग नहीं हैं जितने मार्च २०१२ में थे. समाजवादी पार्टी की जब सरकार बनी थी तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बताया था कि २०१२ के विधान सभा चुनाव के अपने घोषणापत्र की प्रमुख बातें लागू करके वे लोकसभा  चुनाव में जाना चाहेगें जिससे अपनी पार्टी की मजबूती और अच्छे काम के बल पर जनता के बीच जाएँ तो अच्छी सीटें मिल जायेगीं  उनकी कोशिश थी कि उतनी सीटें फिर से हासिल की जाएँ जितनी २००४ में मिली थीं . २००४ में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में करीब ४० सीटें मिली थीं.
लेकिन पार्टी की हालत अब ऐसी है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो समाजवादी पार्टी को उतनी सीटें भी नहीं मिलेगीं जितनी उसके पास अभी हैं .पूरे राज्य में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है, बिजली पानी की भारी किल्लत है . कुछ खास जातियों के लोगों का आतंक है और कुल मिलाकर ऐसी हालत है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सीटें बहुत कम हो जायेगीं . कांग्रेस नेता और केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का दावा है कि केवल चार सीटें रह जायेगीं . उनकी इस बात पर विश्वास करने का कोई आधार तो  नहीं है लेकिन यह तय है कि स्थिति  कमज़ोर होगी  और अगर नरेंद्र मोदी , वरुण गांधी, उमा भारती जैसे लोग  जिनको मुसलमान अपना शत्रु मानते हैं वे बीजेपी के अगले दस्ते में नज़र आये तो समाजवादी पार्टी का प्रमुख वोट बैंक किसी ऐसी पार्टी को वोट देगा जो केन्द्र में नरेंद्र मोदी की सरकार को रोकने की क्षमता रखता हो . इस कसौटी पर केवल कांग्रेस  ही खरी पायी जायेगी. मायावती की पार्टी की हैसियत केन्द्र में किसी सरकार की मदद करने भर की है और सबको मालूम है कि वे ज़रूरत पड़ने पर  बीजेपी की मदद भी कर सकती हैं . १९९४ से लेकर २००७ तक वे जब भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं , हमेशा बीजेपी की मदद से ही बनीं. २००२ के  गुजरात के नरसंहार के बाद हुए चुनावों में वे नरेंद्र मोदी का प्रचार करने अहमदाबाद भी जा चुकी हैं . ऐसी हालत में बीजेपी को रोकने के लिए आर एस एस  विरोधी शक्तियां मायावती के पास नहीं जायेगीं . मुलायम सिंह यादव भी पिछले दिनों लाल कृष्ण आडवानी  की तारीफ़ करके मुसलमानों की नाराज़गी का शिकार बन चुके हैं .उनकी पार्टी ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को यू पी ए से अच्छी मानती है . लोकसभा के अंदर राजनाथ सिंह ऐलान कर चुके हैं कि अगली बार मुलायम सिंह यादव उनके साथ रहेगें . ऐसी स्थति में सेकुलर और मुस्लिम  वोट मुलायम सिंह यादव के पास नहीं जाने वाला है . और जो ढुलमुल मुस्लिम विरोधी मतदाता है वह तो हर हाल में  बीजेपी के साथ जाएगा.ऐसी हालत में बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति को रोकने के लिए सेकुलर और मुस्लिम वोट कांग्रेस के पास जा सकता है . यही हालत २००९ के चुनाव में भी हुई थी जब बीजेपी ने ऐसा माहौल बना दिया था कि उसकी सरकार बनने वाली है और मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी कांग्रेस को जिता दिया था . वरना जो पार्टी उत्तर प्रदेश की विधान सभा में २५ सीट के आसपास ही जीतने की क्षमता रखती है , उसको २१ सीट लोकसभा में जीत पाना एक राजनीतिक अजूबा ही माना जाएगा . यह इसीलिये हुआ कि बीजेपी के खिलाफ जो ताक़तें थी उनकी बड़ी संख्या कांग्रेस की तरफ चली गयी .  मायावती और मुलायम सिंह के साथ भी लोग रहे जिसके कारण  तीनों ही पार्टियों को लगभग बराबर  सीटें मिलीं . इस बार तस्वीर बदल सकती है  क्योंकि मुलायम सिंह यादव ने भी बीजेपी की तरफ दोस्ती के संकेत दे दिए हैं और जब मोदी के पक्ष धार्मिक ध्रुवीकरण होगा तो वोट उसी को मिलेगें जो दिल्ली में बीजेपी को सत्ता पर कब्जा करने से रोक सके. इसलिए उत्तर प्रदेश में तो यही लग रहा है कि लोकसभा चुनाव  बीजेपी और कांग्रेस के बीच होने की बुनियाद पड़ चुकी है 

Saturday, March 23, 2013

कर्नाटक से उत्तर प्रदेश तक, राजनीति की नज़र २०१४ पर है .



शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में हुए शहरी निकायों के चुनावों के बाद देश की राजनीति में बहुत कुछ बदल गया है . वहाँ कांग्रेस ने जीत दर्ज की है और  विधानसभा चुनावों के पूर्व एक सन्देश देने में सफलता हासिल कर ली है कि वह कर्नाटक में सबसे मज़बूत राजनीतिक शक्ति है .कई राज्यों में विधानसभा चुनावों के लगभग तुरंत बाद  ही  लोकसभा के चुनाव होने हैं जिनके ऊपर बहुत सारे  राजनेताओं के सपने निर्भर कर रहे हैं . प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए बीजेपी में उठापटक चल रही है . कांग्रेस में  भी दरबारी संस्कृति से आये लोग राहुल गांधी का नाम लेकर अपने नंबर बढवाने के लिए सक्रिय थे लेकिन एक राज्य के मुख्यमंत्री को फटकार लगाकर राहुल गांधी ने इन चर्चाओं पर फिलहाल विराम लगा दिया है .लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि हर राजनीतिक पार्टी अब  लोकसभा २०१४ के चुनाव की तैयारी कर रही है .सत्ता की मुख्य दावेदार यू पी ए और एन डी ए है . यू पी ए का २००४ से ही राज है . उसके पहले एन डी ए वालों ने भी करीब छः साल राज किया था. जब २००४ में चुनाव हुआ तो उस वक़्त की सरकार ने देश में मीडिया के ज़रिये ऐसा माहौल बनाया कि जनता इण्डिया शाइनिंग के उनके नारे पर भरोसा कर रही है और सत्ता उनको ही दे देगी . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. २४ पार्टियों के गठबंधन से बना एन डी ए टूट गया . अब तो एन डी ए में मुख्य पार्टी  बीजेपी है और पूरी मजबूती के साथ  उसको शिवसेना और अकाली दल का समर्थन मिल रहा है . एन  डी ऐ के एक अन्य समर्थक नीतीश कुमार की पार्टी है , लेकिन नरेंद्र मोदी  को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाने की कोशिश करके बीजेपी ने नीतीश कुमार को निराश किया है और अब लगभग पक्का  माना जा रहा  है कि नीतीश कुमार २०१४ के चुनावों के पहले या बाद में बीजेपी के खिलाफ खड़े होंगें . इसी हफ्ते नई दिल्ली में नीतीश कुमार की रैली होने वाली है और उसमें बिहार के अधिकार की बात की जायेगी. अब तक केन्द्र सरकार से जो भी नीतीश कुमार की अपेक्षा रही है ,उसे मौजूदा सरकार पूरी कर रही है. जानकार बताते हैं कि अब नीतीश कुमार बीजेपी से दूरी बनाने के लिए कमर कस चुके हैं . अपने किसी नेता को अगली बार प्रधानमंत्री बनाने के अपने अभियान में बीजेपी को नीतीश कुमार पर भरोसा नहीं करना चाहिए .अभी चार महीने पहले तक बीजेपी के बड़े नेता कहते पाए जाते थे कि आठ राज्यो में उनकी  सरकारें थीं ,  लेकिन अब चार राज्यों में ही हैं . उन चार में एक कर्नाटक भी है . यानी अब बीजेपी की मजबूती का दावा केवल मध्य प्रदेश , छत्तीस गढ़ और गुजरात में है . अगर यह  मान भी लिया जाये कि इन तीनों राज्यों में बीजेपी  को सभी सीटें मिल जायेगीं तो क्या बीजेपी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल जाएगा. सबको मालूम है कि बीजेपी का वही नेता प्रधान मंत्री बन सकता है जो अन्य पार्टियों को स्वीकार्य हो . अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर बीजेपी ने ऐसी पार्टियों का समर्थन ले लिया था जो मूल रूप से बीजेपी की राजनीति की विरोधी मानी जाती हैं. क्या बीजेपी का कोई नेता आज अटल जी की तरह राजनीतिक मतभेदों की बाधा पार करने की क्षमता रखता है? बीजेपी की सरकार बनेगी ऐसा सोचना एक काल्पनिक स्थिति है क्योंकि देश की राजनीति का मौजूदा माहौल ऐसा  नहीं नज़र आता कि बीजेपी को सरकार बनाने का दावा करने भर को बहुमत मिल जाएगा. पिछले एक  वर्ष में बीजेपी ने कई राज्यों में अपने को  कमज़ोर साबित किया है . गुजरात के अलावा उसको कहीं भी एक ताक़तवर पार्टी के रूप में  नहीं माना जा रहा है .

जहां तक कांग्रेस का सवाल है वह आश्वस्त है कि देश में बहुत सारी पार्टियां ऐसी हैं जो बीजेपी और आर एस एस को सत्ता से दूर रखने के लिए उसे समर्थन दे सकती हैं . कांग्रेस इस मामले में भाग्यशाली भी है कि बीजेपी ने लोक सभा में उसकी गलतियों को उजागर करने में वह कुशलता नहीं दिखाई जो १९७१ के बाद के विपक्ष ने कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए दिखाई थी. अब तो बीजेपी वाले संसद में बहस बहुत कम करते हैं अक्सर तो हल्ला गुल्ला करके ही काम चला  लेते हैं . नतीजा यह हो रहा है कि कांग्रेस की गलतियाँ पब्लिक डोमेन में  नहीं आ रही हैं. सी ए जी की रिपोर्टों के सहारे कांग्रेस की सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश चल रही है .चारों तरफ फ़ैली हुई महंगाई पर बीजेपी ने कांग्रेस पर कोई कारगर हमला नहीं किया है . ऐसा शायद इसलिए कांग्रेस की आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का विरोध बीजेपी नहीं करना चाहती क्योंकि आर्थिक उदारीकरण की डॉ मनमोहन सिंह की अर्थनीति को बीजेपी का पूरा समर्थन मिलता है . राजनीति का मामूली जानकार भी बता देगा कि अपने देश में मंहगाई का कारण आर्थिक उदारीकरण और उस से पैदा हुआ भ्रष्टाचार ही है . दोनों  ही बड़ी पार्टियां आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की समर्थक हैं . इसलिए नीति के आधार पर बीजेपी के लिए कांग्रेस का विरोध कर पाना संभव नहीं है. हाँ  यू पी ए के कुछ मंत्रियों और सोनिया गांधी के परिवार के खिलाफ अभियान चलाकर बीजेपी जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है . वक़्त ही बताएगा कि उसे कितनी सफलता मिलती है .

 कांग्रेस और बीजेपी के अलावा भी कई ऐसी पार्टियां हैं जो अगला प्रधानमंत्री बनवाने में मदद करेगीं. पश्चिम बंगाल की दोनों ही पार्टियां . लेफ्ट फ्रंट और तृणमूल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं . आन्ध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी एक राजनीतिक ताक़त बन कर उभर रहे हैं . उन पर भी नज़र रहेगी . बिहार से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सफलता पर भी सबकी नज़र रहेगी . उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटों का भी ख़ासा योगदान रहेगा. मौजूदा सरकार भी उत्तर प्रदेश की तीन  पार्टियों के सहयोग से चल रही है . बहुजन समाज पार्टी , समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के एम पी , डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए रखने में मदद कर रहे हैं .आने वाले समय में भी उतर प्रदेश के सांसदों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रहने वाली है .विधान सभा में स्पष्ट बहुमत लेने के बाद समाजवादी पार्टी के हौसले बहुत ही बुलंद हैं . अखिलेश सरकार के एक साल पूरे हो रहे हैं .  पिछले एक साल में समाजवादी पार्टी के अधिकतर नेताओं ने दावा किया है कि राज्य से ५० से ज़्यादा सीटें जीतकर वे मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनवाएगें . इस महत्वपूर्ण राजनीतिक पहेली को समझने के लिए संसद भवन के उनके कमरे में  आज मुलायम सिंह यादव से मुलाक़ात की गयी . मुलायम सिंह यादव का कहना है २०१४ का चुनाव बहुत ही गंभीरता से लड़ा जाएगा. उन्होंने बताया कि संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद वे निकल पड़ेगें और पूरे राज्य में  जनसंपर्क शुरू कर देगें . जब पूछा गया कि क्या उसी तरह का जनसंपर्क करने की योजना  है जो १९८६-८७ में थी तो उन्होंने बताया कि वह तो तब किया था जब एक बार भी मुख्यमंत्री नहीं बना था.राज्य में हर जिले में लोग उन्हें जानते तक नहीं थे . लेकिन उस यात्रा के बाद तो हर जिले में कई चक्कर लगाया , हर कस्बे तक पंहुचा और हर जिले में दो दो ,तीन तीन बार सोये भी . मुलायम सिंह ने बताया कि अपने बेटे अखिलेश यादव को दो साल पहले वहीं प्रेरणा दी थी और उन्होंने भी राज्य का  खूब दौरा किया और नतीजा सामने है . अपने भावी राजनीतिक कार्यक्रम के बारे में उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश में १८ मंडल हैं . वे संसद का सत्र खत्म होते ही हर मंडल में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायेगें और उनसे व्यक्तिगत संपर्क करेगें . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने उनको आगाह किया था कि अब हर कस्बे में जाने की ज़रूरत नहीं है . उनकी सलाह थी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनको वहीं जाना चाहिए जहां समाजवादी पार्टी की राज्य इकाई वाले जाने को कहें . इसलिए वे हर मंडल में बैठकें करने के बाद राज्य पार्टी के सुझाव पर ही काम करेगें . जब उनको याद दिलाया गया कि उनकी पार्टी की सरकार को आये एक साल हो गया है लेकिन सरकार ने कोई ऐसा कारनामा नहीं किया है जिसको उदाहरण के रूप में पेश किया जा सके. उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है . राज्य सरकार ने अपने चुनाव घोषणापत्र में लिखी गयी हर बात को पूरा करने की योजना पर पहले दिन से काम करना शुरू कर दिया था. आज ही अखबारों में छपे हुए लैपटाप वितरण की तस्वीरों के हवाले से उन्होने बताया कि अभी सरकार के एक साल पूरे नहीं हुए हैं लेकिन सरकार ने इतने बड़े प्रोजेक्ट में सफलता हासिल कर ली है . देश की सबसे अच्छी कम्यूटर कंपनी से लैपटाप खरीद जा रहा है लेकिन थोक में खरीदे जाने के कारण उनका दाम आधा करवा लिया गया  है . बेरोजगारी भत्ता फिर से शुरू कर दिया गया है . हाई स्कूल के बाद से ही  मुस्लिम लड़कियों को आर्थिक सहायता दी जा रही है जबकि बाकी लड़कियों को इंटरमीडियेट के बाद  . उन्होंने कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में लिखा है कि मुसलमानों  की हालत अनुसूचित जातियों से भी खराब है इसलिए उनकी  पार्टी की सरकार मुसलमानों के प्रति खास जिम्मेदारी का अनुभव करती है .उन्होंने  बताया कि राज्य में सरकारी ट्यूबवेल और नहरों का पानी किसानो को मुफ्त दिया जा रहा  है.राज्य सरकार ने आदेश कर दिया है कि किसी भी किसान की ज़मीन नीलाम नहीं की जायेगी . होता यह रहा है कि भूमि विकास बैंक से क़र्ज़ लेने वाले किसान जब भुगतान नहीं कर पाते  थे तो उनकी ज़मीन नीलाम कर दी जाती थी . अब सरकारी आदेश है कि नीलामी नहीं होगी. उसके ऊपर से ५० हज़ार रूपये तक के किसानों के क़र्ज़ माफ कर दिए गए हैं .उन्होंने बताया कि कैंसर , दिमाग और हार्ट की गरीब आदमियों की बीमारियों का  इलाज़ राज्य सरकार करवा रही है .उन्होंने  राज्य स्तर के अपने पार्टी के नेताओं खासी नाराजगी जताई और कहा कि जो विधायक बन गए हैं वे अब अपने क्षेत्रों में नहीं जा रहे हैं .जो लोग मंत्री बन गए हैं .वे भी तो विधायक ही  हैं लेकिन सब लोग लखनऊ में जमे रहते हैं और जनता से संपर्क नहीं रख रहे हैं . इस कारण से पार्टी का बहुत नुक्सान हो रहा है .  पार्टी के विधायकों को अपने क्षेत्र में ज़्यादा सक्रिय रहना चाहिए . वे इस बात से भी बहुत नाराज़ हैं कि पार्टी के कुछ नेता दिल्ली के चक्कर काटते रहते हैं . उन्होने उन संसद सदस्यों के प्रति भी नाराजगी जताई जो कार्यकर्ताओं को दिल्ली बुला लेते हैं और उनको संसद के अंदर आने  का पास बनवा देते हैं . नतीजा यह होता है कि वे लोग संसद भवन के मुलायम सिंह यादव के कार्यालय के  बाहर आकर खड़े हो जाते हैं . यह ठीक नहीं है. वे चाहते हैं  कि पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें लखनऊ में ही मिलें .कानून व्यवस्था के बारे में बात करने पर उन्होने कहा कि  उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था  की हालत दिल्ली से ठीक है . उत्तर प्रदेश की आबादी दिल्ली से दस गुना ज्यादा है जबकि अपराध दिल्ली में उत्तर प्रदेश से दस गुना ज़्यादा है . प्रतापगढ़ के  पुलिस अफसर  हत्याकांड के बारे में कोई बात करने से उन्होने यह कहकर इनकार कर दिया कि मामले की सी बी आई जाँच हो रही है ,उनका कुछ भी कहना ठीक नहीं है .लेकिन पूरी बातचीत में मुलायम सिंह यादव इस बात से तो आश्वस्त दिखे कि उनकी पार्टी अच्छा काम कर रही  है लेकिन उनको अपनी पार्टी के नेताओं में अनुशासन लाना बहुत ज़रूरी है .अब यह देखना दिलचस्प होगा कि  मुलायम सिंह यादव की यह इच्छा कितनी पूरी होती है क्योंकि राज्य में सत्ता के जितने केंद्र बन गए हैं उनके बीच सुशासन की उम्मीद करना बहुत ही बड़ी बात है ,बहुत ही मुश्किल बात है .
नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की बात को समाजवादी पार्टी एक प्रहसन से ज्यादा कुछ नहीं मानती लेकिन उन्होने साफ़ कहा मोदी  के बारे में चर्चा करना ठीक नहीं होगा  क्योंकि उनके विरोध में भी बोलने पर उनका प्रचार होगा जो ठीक नहीं है .कुल मिलाकर   की  में  तो समाजवादी पार्टी भारी पड़  रही है लेकिन बीजेपी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के  भी इस इंतज़ार में  हैं की समाजवादी पार्टी वाले कोई गलती करें और वे उनको  पीछे धकेलने में कामयाब हों .

उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव की तैयारियां और मुसलमानों की भूमिका




शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश में एक बार फिर मुसलमानों में अपने आपको लोकप्रिय बनाने के लिए राजनीतिक पार्टियों में होड़ शुरू हो गयी है . सब को मालूम है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सफलता के लिए मुसलमानों के समर्थन की ज़रूरत होती है . पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान एक बार फिर यह साबित हो गया है कि मुसलमान जिस तरफ जाता है उसकी सीटें बढ़ जाती हैं .जहां तक बीजेपी का सवाल है वह पिछले चुनाव में मुसलमानों का विरोध करके ध्रुवीकरण करवाने की कोशिश कर चुकी है .सबको मालूम है की उसको कोई राजनीतिक सफलता नहीं मिली . शायद अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी में आम तौर पर मुसलमानों के  दुश्मन के रूप में माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी भी अपनी ऐसी कुछ तस्वीरें अखबारों में छपवा रहे हैं जिसमें वे मुसलमानों की हुलिया वाले कपडे पहने कुछ लोगों के साथ देखे जा सकते हैं . हालांकि मोदी को भी मालूम है की मुसलमान उनको हराने के लिए ही वोट देगा लेकिन   बीजेपी वाले अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं कि   मोदी के ऊपर मुस्लिम द्रोह का जो मुलम्मा लगा है उसको मिटाया जा सके. सभी दलों को पता है कि उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीटें जीतने के लिए मुसलमानों की मदद बहुत ज़रूरी है  शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही है . 

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां मुसलमान किसी भी सीट पर पक्की जीत तो नहीं दिलवा सकते हैं लेकिन एकाध सीट को छोड़कर उनकी संख्या हर सीट पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करती है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी बहुत घनी है.रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर मुज़फ्फर नगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां  कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . जहां तक बीजेपी का सवाल है उन्हें मालूम है कि  उन्हने मुसलामानों के वोट नहीं मिलने वाले हैं  इसलिए उनकी तरफ से केवल सांकेतिक कोशिश ही की जा रही है . उत्तर प्रदेश से आने वाले इकलौते राष्ट्रीय  मुस्लिम नेता तक रामपुर जैसी मुस्लिम बहुल सीट से चुनाव  हार गए थे. लेकिन बाकी तीनों पार्टियां मुसलमानों के वोट  की चाहत रखती हैं . कांग्रेस ने पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान ओबीसी कोटे से काटकर  साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक  आरक्षण की बात करके  मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी . वह सफल नहीं रहा  .कांग्रेस के खाते में मुसलमानों का पक्षधर बनाने के बहुत सारे अवसर नहीं हैं . बड़े ताम झाम के साथ  यू  पी ए  सरकार ने अल्पसंख्यक मंत्रालय बनाया था .उस वक़्त कहा गया था कि  सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करवाने का ज़िम्मा इस मंत्रालय के पास था. लेकिन शुरू में यह मंत्रालय ऐसे  मंत्रियों के हवाले किया गया था जो इस काम को पार्ट टाइम मानकर चल रहे थे. अब जो नए मंत्री आये हैं वे काम को गंभीरता से ले रहे हैं लेकिन अब समय बहुत कम बचा है . ज़ाहिर है मुसलमानों का पक्षधर बनाने की कांग्रेस की कोशिश हमेशा की तरह डावांडोल  है .पिछले मंत्रियों के कार्यकाल के काम काज की जांच करने वाली संसद की एक कमेटी ने सरकार के कामकाज की सख्त नुक्ताचीनी की  थी .
 सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया था . इस समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने  मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े.  कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस  बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी  जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म  वापस कर दी गयी.  यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है .,  प्री मैट्रिक वजीफों के मद   में  मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयी रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब  यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली  संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना  है कि उनके पास  अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने  के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म  सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास मुसलमानों का नेतृत्व  करने वालों की भी भारी कमी है . अपने एक राष्ट्रीय नेता को उन्होंने प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर देख लिया  कि  बड़े नेता को चार्ज देने से भी उनका कोई लाभ नहीं हुआ. 
बहुजन समाज पार्टी  भी मुस्लिम बी वोटों की दावेदार के रूप में जानी जाती है . यह अलग बात है कि  मायावती ने राज्य और केंद्र में कई बार बीजेपी की सरकारों का समर्थन किया है लेकिन वे अपने को मुसलमानों का शुभचिंतक बताती हैं . उनकी तरकीब यह है कि वे बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देती हैं . उनके साथ कुछ मुसलमान मंत्री भी रहते हैं लेकिन  किसी को भी नेता के रूप में उभरने का मौक़ा नहीं  मिलता,सभी मायावती जी की छत्रछाया में ही नेता बने रहते हैं .


उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की खैरख्वाह के रूप में समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही एक पहचान मिली हुयी है . बीच में कुछ महीनों के लिए पार्टी के अध्यक्ष के कल्याण प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी को मुसलमानों  ने शक की नज़र से देखा लेकिन बाद में जब कल्याण सिंह को पार्टी से हटा दिया गया  तो मुसलमान बड़ी संख्या में उनके साथ आये और  सत्ता अखिलेश यादव को सौंप दी .लेकिन जब सत्ता आयी तो दिल्ली  और पश्चिमी  उत्तर प्रदेश के बहुत सारे मुसलमानों  ने दावा करना शुरू कर दिया की उनके कारण ही सारा मुसलमान समाजवादी पार्टी के साथ जुडा था. मुलायम सिंह की पार्टी को सत्ता दिलवाने का दावा करने वालों में ऐसे मुसलमान भी शामिल थे जो अपने मुहल्ले का चुनाव नहीं जीत सकते . ऐसे बहुत सारे मुसलमान  भी  मुलायम सिंह की तकदीर बनाने का  दावा करने लगे जिनकी रोटी पानी भी समाजवादी पार्टी की वजह से चलती  थी . मुलायम सिंह यादव ने इस जमात के लोगों को खूब लाभ पंहुचाया और  जनता में ऐसा माहौल बनना शुरू  हो गया कि वे लोग वास्तव में समाजवादी पार्टी के सही खैरख्वाह हैं . आजकल पूरे राज्य में यही माहौल है . हालांकि सच्चाई  यह  है  उत्तर प्रदेश का आम मुसलमान इन लोगों में से किसी को नेता नहीं  मानता . वह केवल मुलायम सिंह यादव को अपना  शुभचिन्तक और नेता मानता है. समाजवादी पार्टी के अन्दर  की खबर रखने वाले पार्टी के एक नेता ने बताया  कि  उनकी पार्टी का आलाकमान अब पार्टी में ऐसे मुसलमानों को महत्व देना  चाहता है जो वक़्त के साथ आर्थिक लाभ के लिए हर सत्ताधारी पार्टी के चक्कर नहीं काटने  लगते .अब ऐसे नेताओं को आगे बढाने की योजना पर काम चल रहा है जो नौजवान हों और समाजवादी पार्टी के साथ ही शुरू से जुड़े रहे हों . जिनको विकसित किया जाए और जो बाद में पार्टी का मुस्लिम फेस बन सकें . पार्टी की स्थापना के बाद मुलायम सिंह यादव ने यह प्रयास किया था  जब उन्होंने एक आन्दोलन से आये आज़म खान को समाजवादी पार्टी का प्रमुख मुस्लिम चेहरा बनाया था लेकिन बाद में जब अमर सिंह का प्रादुर्भाव हुआ तो आज़म खान का महत्व कम हो गया . पता चला है की इस बार भी सत्ता के दलालों के  मकड़जाल से निकल कर समाजवादी पार्टी का आलाकमान किसी मुसलमान को गंभीर नेता के रूप में आगे बढाने की सोच रहा है . पता चला है की अमरोहा के विधायक और मंत्री, कमाल अख्तर को समाजवादी पार्टी आगे बढाने की सोच रही है . कमाल अख्तर छात्र नेता रहे हैं , जामिया मिलिया के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे, समाजवादी पार्टी के युवा  संगठन के अखिल भारतीय अध्यक्ष रहे और  राज्य सभा के सदस्य रहे . समाजवादी पार्टी के नेताओं के आस पास घूमने वाले अन्य नेताओं से अलग उनकी छवि भी है. पार्टी के शीर्ष नेता उन्हें पसंद करते हैं और वे चुनाव भी जीत जाते हैं . आजकल मंत्री हैं और लखनऊ के सत्ता के गलियारों के जानकारों  का कहना है की बहुत खुशमिजाज़ भी है।यह देखना दिलचस्प होगा कि समाजवादी पार्टी की यह कोशिश कितना  प्रभावकारी साबित होते है .  बहरहाल आने वाला चुनाव राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के लिए एक अवसर है . वक़्त ही बताएगा कि  वह इस अवसर का कैसा इस्तेमाल करती है .

Thursday, December 27, 2012

उत्तर प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण और कैश सब्सिडी के इर्द गिर्द होगी २०१४ की लड़ाई




शेष नारायण सिंह 

२०१४ के चुनावों की तैयारियां हर राजनीतिक पार्टी पूरी शिद्दत से कर रही है .लोकसभा के पिछले सत्र में सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण की बात को ज़ोरदार तरीके से उठाकर  बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने यह संकेत दे दिया था .वे अपने घोर समर्थकों की पक्षधरता की राजनीति कर रही थीं जो लोकतंत्र में हर तरह से जायज़ है. इस सत्र में उन्होंने उसे पास भी करवा लिया .उनके इस क़दम से साफ़ लगता है कि वे पूरे देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की नेता बनना चाहती हैं . हालांकि पूरे देश में उनको अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के नेता के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के बाहर वे एक राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित नहीं हो सकी हैं . जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है ,वहाँ मायावती को नज़र अंदाज़ कर पाना मुश्किल है . वे  हर क्षेत्र में १५ से २५ प्रतिशत के बीच वोट पर लगभग पूरी तरह से काबिज हैं. लेकिन  उनके कोर समर्थकों यानी अनुसूचित जातियों और जनजातियों की संख्या उत्तर प्रदेश के किसी एक जिले में ऐसी नहीं है कि उन्हें कोई सीट दिला सके. विधानसभा या लोकसभा में कोई सीट जीतने के लिए मायावती और बहुजन समाज पार्टी के लिए ज़रूरी है कि वे अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के साथ किसी अन्य जाति का समर्थन हासिल करें  . इसी राजनीतिक रणनीति के तहत २००७ के चुनावोंमें मायावती ने विधानसभा में स्पष्ट  बहुमत हासिल किया था और पांच साल तक निर्बाध तरीके से राज किया था . उत्तर प्रदेश में कभी बीजेपी और कांग्रेस की समर्थक रही एक खास जाति के वोटों को अपनी तरफ  खींचने में मायावती सफल हो गयी थीं .अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के साथ जब ब्राह्मण मिल गए तो चुनाव जीतने लायक समूह तैयार हो गया. इसके साथ उम्मीदवार की जाति भी मिल गयी और उत्तर प्रदेश में मायावती को बहुमत दिलवा दिया . २०१२ में उनकी पार्टी विधान सभा चुनाव हार गयी लेकिन जातियों का यह  गठबंधन उनके साथ था और राजनीतिक हल्कों में उम्मीद की जा रही थी कि  जिस तरह से  उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार काम कर रही है ,उसी तरह काम करती रही तो २०१४ में समाजवादी पार्टी को वे फिर पटखनी दे देगीं . लेकिन अब पांसा पलट गया है . मायावाती ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के बीच अपनी नेतागीरी को पुख्ता करने के लिए प्रमोशन  में आरक्षण को राज्यसभा में इतने  ज़बरदस्त तरीके से उछाल दिया कि अब वे शुद्ध रूप से दलितों की नेता के रूप में स्थापित हो चुकी हैं . उत्तर प्रदेश में  दलितों के बाद उनके सबसे बड़े समर्थक वोट बैंक ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है . जिस दिन से राज्यसभा में दलितों को  प्रमोशन में आरक्षण देने वाला संविधान संशोधन विधेयक पास हुआ है उसी दिन से उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों की  हड़ताल है . राज्य के १८ लाख कर्मचारी मायावती, बीजेपी और कांग्रेस के  खिलाफ लामबंद हैं और सडकों पर जुलूस निकाल रहे हैं , प्रदर्शन कर रहे हैं और समाजवादी पार्टी के साथ एकजुट हो रहे  हैं . यहाँ यह समझ लेना बहुत ज़रूरी है कि १८ लाख कर्मचारी केवल १८ लाख वोट नहीं हैं . अगर एक परिवार में १० व्यक्ति शामिल कर लिए जाएँ तो करीब २ करोड वोटर तो सीधे तौर पर मायावती, बीजेपी और कांग्रेस के  खिलाफ  इकट्ठा हो चुके हैं और वे मुलायम सिंह यादव को समर्थन दे रहे हैं .इसके अलावा उत्तर प्रदेश के हर गाँव में अधिकतर नौजवान सरकारी नौकरियों के उम्मीदवार हैं . उनको सरकारी नौकरी मिले चाहे न मिले लेकिन वे उसके बारे में पूरी तरह से जानकारी रखते हैं . राज्य में मौजूदा राजनीतिक माहौल ऐसा  है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के सभी नौजवान मायावती के साथ हैं जबकि इन  जातियों के अलावा बाकी जातियों के नौजवान और उनके परिवार मायावती के घोर विरोधी हैं . इन विरोधियों में ब्राहमण भी शामिल हैं  जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के बाद  मायावती के सबसे बड़े समर्थक के रूप में पहचाने जाते हैं . उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों में ब्राह्मणों की  संख्या सबसे ज़्यादा है . ऐतिहासिक रूप से वे ही सरकारी नौकरियों में सबसे बड़ी संख्या में भर्ती होते रहे हैं .मंडल आयोग के पहले तो यह संख्या ७०  प्रतिशत के आस पास होती थी लेकिन बाद में भी यह संख्या ४० प्रतिशत  से  ज्यादा है . प्रमोशन में आरक्षण से पैदा हुई ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते मायावती इस वर्ग का समर्थन पूरी  तरह से खो चुकी हैं .


अगर ऐसे ही चलता रहता तो इस बात की पूरी संभावना थी कि उत्तर प्रदेश का राजनीतिक गणित  बिलकुल बदल जाता लेकिन अपने लिए बढ़ रहे समर्थन के तूफ़ान के बावजूद समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने आबादी के अनुपात में मुसलमानों के आरक्षण की बात को राजनीतिक बहस के दायरे में ला दिया . उन्होंने मांग कर दी  कि मुसलमानों को सरकारी  नौकरियों में   आबादी के हिसाब से आरक्षण दिया जाए. जानकार बताते हैं कि मुलायम सिंह यादव का यह क़दम राजनीतिक रूप से उन्हें नुक्सान पंहुचा सकता   है . उनका यह एक क़दम राजनीतिक पहल को बीजेपी के पाले में फेंक देने की क्षमता रखता है .  बीजेपी किसी भी घटना को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने की कला में निष्णात है . उनकी इस क्षमता का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण गुजरात में पिछले दस वर्षों से हो रहे  चुनाव हैं . २००२ में गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे में मारे  गए  लोगों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत के बाद  हुए मुसलमानों के क़त्ले आम के तमगे के साथ नरेंद्र मोदी ने गुजरात  का चुनाव जीत लिया  था. २००७ के चुनाव में भी जब उन्हें सोनिया गांधी के एक भाषण में मौत का सौदागर कह दिया गया तो मोदी ने चुनाव को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की पिच पर ला दिया और चुनाव जीत  गए. इस बार कांग्रेस ने उनको कोई अवसर नहीं दिया कि वे चुनाव को साम्प्रदायिक रंग में  पेश कर सकें .नरेंद्र मोदी ने  विकास की बात की तो उसी पिच पर उनेक विरोधियों ने उनको घेर दिया और साबित हो गया कि गुजरात के विकास में मोदी  का कोई खास योगदान  नहीं  है . गुजरात तो पहले से ही विकसित राज्य था.गुजरात से बेहतर विकास वाले राज्य भी हैं .गुजरात चुनाव को कांग्रेस ने इस तरीके से लड़ा कि मोदी की साम्प्रदायिक राजनीति को  बैकफुट पर जाना पड़ा .लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के लिए आरक्षण मांगकर बीजेपी को एक मौक़ा दे दिया है . खासतौर से जब सरकारी नौकरियों के प्रमोशन में आरक्षण की राजनीति  में बीजेपी कांग्रेस के साथ खड़ी पायी गयी है और राज्य  कर्मचारी उसके खिलाफ हैं . पिछले २५ वर्षों की उत्तर प्रदेश की  राजनीति  का कोई भी जानकार बता देगा कि इस राज्य में अगर साम्प्रदायिक मुद्दे राजनीति को बहुत ज्यादा प्रभावित करते रहे हैं .बीजेपी के खिलाफ जिस तरह से राज्य कर्मचारियों के बीच गुस्सा है ,उसके दफ्तर पर पत्थर फेंके जा रहे हैं,उसके नेताओं के पुतले जलाए जा रहे हैं और वह  पूरी तरह से घिर चुकी है .ऐसी हालत में बीजेपी इस अहम विषय से ध्यान हटाने के लिए आगामी चुनाव को साम्प्रदायिक बना सकती है .और राज्य की सत्ताधारी पार्टी को केवल मुसलमानों का शुभचिंतक  साबित करना एक उपयोगी रणनीति हो सकती है .समझ में नहीं आता कि अपने पक्ष में उठ रहे राजनीतिक तूफ़ान के बीच मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के आरक्षण जैसी बात क्यों की. खास तौर पर जबकि राज्य के मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ हैं . उनके इस एक राजनीतिक क़दम के कारण बीजेपी फिर से चुनावी मैदान में वापसी कर  सकती है और  लोकसभा २०१४ त्रिकोणीय हो सकता है . सबको मालूम है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में चुनाव को बाबरी मसजिद की यादों की पिच पर लड़ना चाहती है .वह कल्याण सिंह को अपने साथ ले रही है , उमा  भारती विधानसभा  चुनाव में खास भूमिका अदा कर चुकी हैं . पूरी संभावना है कि वे इस बार भी चुनाव प्रचार की मुख्यधारा में रहेगीं .  मुसलमानों के खिलाफ दुश्मनी के नए सिम्बल वरुण गांधी भी चुनावों में खास भूमिका की तैयारी में हैं .  वे अमेठी की पड़ोसी सीट सुल्तानपुर से उम्मीदवार बनने की कोशिश कर रहे हैं . बाबरी मसजिद के विध्वंस के बाद से ही यह सीट  हिंदुत्व की राजनीति करने वालों की प्रिय सीट रही है. इसके अलावा राज्य की राजनीतिक हवा में वाराणसी से नरेंद्र मोदी को चुनाव लड़ाने की बात भी कभी कभी उछाली  जा रही है . ज़ाहिर है कि चुनाव को साम्प्रदायक बनाया जा सकता है . मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी को प्रमोशन में आरक्षण के उनके रुख के बाद लाभ मिला है . अगर यही माहौल बना रहा तो वे लोकसभा २०१४  में बहुत  मज़बूत हो जायेगे . लेकिन अगर चुनाव साम्प्रदायिक हो गया तो उनका नुक्सान हो जाएगा. वैसे भी उत्तर प्रदेश में मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ है . तो मुसलमानों के आरक्षण की बात को  उठाकर पता नहीं क्यों वे पहल साम्प्रदायिक ताक़तों के हाथ में देना चाहते हैं. 

 उत्तर प्रदेश की राजनीति के हाशिए पर चली गयी कांग्रेस भी इस बार राज्य में अपनी मौजूदगी को सुनिश्चित करने का मन बना लिया है .  सरकारी  नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण को लागू करने की अपनी राजनीति  के चलते वह राज्य की एक बड़ी आबादी का कोपभाजन बन चुकी है लेकिन एक राजनीतिक पार्टी होने के कारण वह अन्य  राजनीतिक पहल के ज़रिये उत्तर प्रदेश के खेल में शामिल होना चाहती  है . इस दिशा में सब्सिडी को लाभार्थी के हाथ में देने की केन्द्र सरकार की योजना को कांग्रेस २०१४ के राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है .कांग्रेस ने 'आपका पैसा, आपके हाथ' का राजनीतिक नारा दिया है और 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले इस कार्यक्रम का खूब प्रचार प्रसार करने की योजना बना ली है .राहुल  गांधी ने कैश सब्सिडी योजना लागू करने वाले 51 जिलों के पार्टी अध्‍यक्षों और युवा कांग्रेस अध्‍यक्षों के साथ बैठक की . इन जिलों में अगले साल एक जनवरी से केन्द्र सरकार की सीधा लाभ अंतरण योजना शुरू हो रही है .ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इस कार्यक्रम के सबसे महत्वपूण  व्यक्ति हैं .उन्होंने बताया कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने 'आपका पैसा, आपके हाथ' कार्यक्रम को कांग्रेस पार्टी और सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का प्रभावशाली हथियार बताया और कहा कि यह सिर्फ एक योजना नहीं, बल्कि पूरी वितरण व्यवस्था में बदलाव लाने की शुरुआत है। बैठक में वित्तमंत्री पी चिदंबरम भी मौजूद थे। बैठक में राहुल ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के उस बयान का भी उल्लेख किया जिसमें उन्होंने कहा था कि गरीबों के कल्याण के लिए भेजे जाने वाले एक रुपए में से सिर्फ पंद्रह पैसा गरीबों तक पहुंचता है, बाकी पैसे बिचौलिए के हाथ में चले जाते हैं। राहुल गाँधी का दावा है कि इस योजना के सफल होने पर सौ में से सौ रुपया लाभार्थी तक जरूर पहुंचेगा. हालांकि अभी इस योजना में उत्तर प्रदेश के जिले नहीं शामिल किये  गए हैं लेकिन दूसरे चरण में उत्तर प्रदेश को भी शामिल कर लिया जाएगा और २०१४ तक यह योजना उत्तर प्रदेश में पूरी ताक़त के साथ लागू की जा चुकी होगी. अभी इस योजना में ३४ तरह की आर्थिक मदद  को शामिल किया  गया है  .अभी  एलपीजी, केरोसीन और उर्वरक सब्सिडी को इसके दायरे में नहीं लाया गया है लेकिन साल भर के अंदर यानी लोकसभा २०१४ के पहले  इसे लगभग  हर सब्सिडी स्कीम पर लागू कर दिया जाएगा .फिलहाल इसमें छात्रवृति, वृद्धावस्था पेंशन, मनरेगा मजदूरी और अन्य कल्याण योजनाओं के पैसे का भुगतान होगा। 

अगर कांग्रेस की यह योजना सफल होती है तो वह भी  उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी मौजूदगी को पक्के तौर पर दर्ज करवा देगी . उत्तर प्रदेश विधान सभा २०१२ के राहुल गांधी के चुनाव अभियान को जिन  लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है कि राहुल गांधी अपने राज्य  में किसी को भी वाकओवर नहीं देगें . वे कैश सब्सिडी की योजना के साथ उत्तर प्रदेश में चुनाव की राजनीति करेगें .और कैश सब्सिडी की यह योजना उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश में राजनीति में कांग्रेस को बढ़त दिला सकती है . ज़ाहिर है कि बाकी पार्टियों के नेताओं को कांग्रेस की इस गेमचेंजर योजना की काट तलाशनी पड़ेगी . तजुर्बा बताता है कि राजनीति में अर्थ का योगदान सबसे प्रभावी है और धर्म जाति वगैरह उस से पिछड़ जाते हैं . 

Wednesday, February 15, 2012

उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक राजनीति का कोई भविष्य नहीं है .

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के बाद तस्वीर कुछ साफ़ होने लगी है . करीब एक महीने पहले तक माना जा रहा था कि चुनाव में मुकाबले चार मुख्य पार्टियों में होंगें लेकिन बीजेपी के चुनावी अभियान के कारण उसके पुराने वोटरों में वह उत्साह नहीं पैदा हो सका जिसके लिए यह पार्टी जानी जाती है . इस एक राजनीतिक घटना के चलते उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव के तरीके, बदल गए हैं . ज़ाहिर है इनका असर नतीजों पर भी होगा. .
उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार जानते हैं कि राज्य में सत्ता तक पंहुचने के लिए मुसलमानों का समर्थन बहुत ज़रूरी होता है . इसीलिए सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है . गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही हैं . तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमान की असली शुभचिन्तक हैं . कांग्रेस पार्टी आज़ादी के बाद से ही मुसलमानों में लोकप्रिय हुआ करती थी. लेकिन १९७७ के बाद वह रुख बदला था . ६ दिसंबर १९९२ के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए. उसके बाद उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की प्रिय पार्टी का रुतबा समाजवादी पार्टी को मिल गया . लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने कल्याण सिंह को साथ ले लिया तो मुसलमानों ने तय कर लिया कि समाजवादी पार्टी उनका ठिकाना नहीं है . उसी एक फैसले के कारण मुसलमानों ने कांग्रेस को फिर एक विकल्प के रूप में देखना शुरू किया. २००९ के लोक सभा चुनावों में इस बदलाव का नतीजा भी सामने आ गया जब राज्य में चौथे मुकाम पर पंहुच चुकी कांग्रेस पार्टी ने पहले से बहुत अधिक सीटें जीतने में सफलता पायी. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमान की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमान का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमान का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई .

१९९२ के बाद से हर चुनाव में मुसलमानों ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए वोट दिया है . हर बार बीजेपी मुख्य रूप से मुकाबले में रहती थी लेकिन इस बार हालात बदल गए हैं . मौजूदा चुनाव में बीजेपी की वह ताक़त नहीं है कि उस से डर कर मुसलमान ऐसी पार्टी को वोट दे जो बीजेपी को हरा सके. बीजेपी ज़्यादातर सीटों पर मुख्य मुकाबले में ही नहीं है. बहुजन समाज पार्टी के बारे में यह चर्चा पूरे राज्य में सुनने को मिल जाती है कि अगर सरकार बनाने में उसे कुछ सीटें कम पडीं तो वह बीजेपी के समर्थन से सरकार बना लेगी. शायद इसीलिये बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देने के बाद भी आम मुसलमान बहुजन समाज पार्टी को अपनी पहली प्राथमिकता नहीं मान रहा है. उत्तर प्रदेश में आज मुसलमानों के वोट को हासिल करने के लिए मुख्य रूप से मुकाबला कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच है . कांग्रेस की रणनीति मुसलमान को अपने साथ लेने की है . सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग आदि ऐसे कुछ कार्य हैं जिसके बल पर कांग्रेस अपने आपको मुस्लिम दोस्त के रूप में पेश कर रही है . पार्टी के महासचिव राहुल गांधी कई साल से मुसलमानों से संपर्क बनाए हुये हैं . हर उस ठिकाने पर जाते रहते हैं जिसक सम्बन्ध मुसलमानों से माना जाता है . चुनाव के ठीक अफ्ले ओबीसी मुसलमानों को साढ़े चार प्रतिशत की बात भी की जा चुकी है . लेकिन समाजवादी पार्टी अभी भी मुस्लिम वोटों की मुख्य दावेदार के रूप में पहचानी जा रही है. कम से कम समाजवादी पार्टी कोशिश तो यही कर रही है . समाजवादी पार्टी के सांसद और पार्टी के मुखिया के परिवार के सदस्य धर्मेन्द्र यादव ने अपनी पार्टी की बात विस्तार से की. जब उनसे पूछा गया कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान कांग्रेस को छोड़कर उनकी पार्टी को क्यों वोट दे तो वे फ़ौरन शुरू हो गए. बताया कि राज्य में मुसलमानों को कांग्रेस को किसी कीमत पर वोट नहीं देना चाहिए . उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस हमेशा से मुसलमानों के हित के खिलाफ काम करती रही है . कांग्रेस ने मुसलमानों के भावनात्मक मुद्दों पर भी गैर ज़िम्मेदार काम किया है . उन्होंने बाबरी मस्जिद के हवाले से बताया कि कांग्रेस ने हमेशा ही मुस्लिम विरोधी रवैया अपनाया है . उनका आरोप है कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद में १९४९ में मूर्ति रखवाई ,१९४७ में ताला खुलवाया, १९८९ में शिलान्यास करवाया और कांग्रेस नेता और प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने १९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में भूमिका निभाई. समाजवादी पार्टी का आरोप है कि कांग्रेस ने मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से बिकुल बेदखल कर दिया. कहते हैं कि १९४७ में सरकारी नौकरियों में राज्य में ३५ प्रतिशत मुसलमान थे जबकि कांग्रेस के राज में वह घट कर २ प्रतिशत रह गया. धर्मेन्द्र यादव का दावा है कि अगर उनकी पार्टी सरकार में आई तो वे मुसलमानों के हित में ठोस क़दम उठायेगें . उर्दू को तरक्की देगें और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को मह्त्व दिया जाएगा.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव का संचालन कर रहे पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने समाजवादी पार्टी की बातों को बेबुनियाद बताया . उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी को इतिहास को सही तरह से समझना चाहिए . उन्होंने कहा कि १९४९ में फैजाबाद के जिस कलेक्टर ने बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखवाई थी वह बाद में आर एस एस की राजनीतिक पार्टी जनसंघ की ओर से लोक सभा का सदस्य बना .उसने साज़िश की थी . उसकी साज़िश का नतीजा आजतक पूरा देश भोग़ रहा है.१९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने आर एस एस की साजिश को समझने में गलती की और बाबरी मस्जिद को तबाह करने की योजना में शामिल उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के उस हलफनामे पर विश्वास किया जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था . बाद में कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट और इस देश की जनता के साथ विश्वासघात किया जिस के लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने सज़ा दी और कांग्रेस अब तक उस गलती की सज़ा भोग रही है . जहां तक १९४७ में ३५ प्रतिशत मुसलमानों का सरकारी नौकरी में होने का सवाल है , समाजवादी पार्टी को पता होना चाहिए कि १९४७ के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे. वहां जाने वालों में पढ़े लिखे मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी. दिग्विजय सिंह कहते हैं कि जबसे सोनिया गाँधी ने कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला है तब से मुसलमानों के लिए कांग्रेस ने बहुत कल्याणकारी योजनायें चलाईं . उन्होंने दावा किया कि सच्चर कमेटी ,रंगनाथ मिश्रा कमीशन , साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण कुछ ऐसी बातें हैं जिनके बाद मुसलमानों का भविष्य हर हाल में सुधरेगा. कांग्रेस ने मुसलमानों के कल्याण के लिए समर्पित अल्पसंख्यक मंत्रालय की स्थापना करके अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है . दिग्विजय सिंह कहते हैं मुसलमानों के वोट के लिए कोशिश कर रहे मुलायम सिंह यादव को कुछ सवालों के जवाब देने होंगें . वे कहते हैं वास्तव में यह सवाल बार बार मुसलमानों की तरफ से पूछे जाने चाहिए . वे पूछते हैं कि कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद से सम्बंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन सज़ा दी थी, उस सज़ायाफ्ता कल्याण सिंह के लिए मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के आगरा अधिवेशन में जिंदाबाद के नारे लगाए थे.कल्याण सिंह के बेटे को अपने साथ मंत्री बनाया और उसी मंत्रिमंडल में उनके ख़ास दोस्त आज़म खां साहेब भी थे. २००९ के चुनावों में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा का सदस्य बनवाया और आज भी कल्याण सिंह लोक सभा में मुलायम सिंह की मदद की वजह से ही हैं . साक्षी महाराज बाबरी मस्जिद के विध्वंस अभियुक्त हैं . उनको राज्य सभा में मुलायम सिंह यादव ने ही भेजा था .दिग्विजय सिंह कहते हैं कि उन्होंने इस बात पर रिसर्च किया है कि मुलायम सिंह यादव ने कभी भी आर एस एस के खिलाफ बयान नहीं दिया है और मुलायम सिंह यादव २००३ में बीजेपी के साथ एक गुप्त समझौते के तहत मुख्यमंत्री बने थे. दिग्विजय सिंह के इन आरोपों को टाल पाना मुलायम सिंह यादव के लिए बहुत आसान नहीं होगा.
मुसलमानों के वोट की तीसरी दावेदार बहुजन समाज पार्टी है . वह पार्टी पिछले पांच साल से राज्य में सरकार चला रही है और उसे कोई वादा करने की ज़रुरत नहीं है . लोग उसके काम को साफ़ देख रहे हैं . जैसा कि आम तौर पर होता है हर सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में मुश्किल पेश आती है लेकिन मायावती ने जिस बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया है उसकी रोशनी में कहा जा सकता है कि मुसलमानों की आबादी का एक हिस्सा बहुजन समाज पार्टी को भी वोट देगा. इस बात में दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौ सीटें हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है कि कोई भी पार्टी लखनऊ में सरकार बनाए वह सेकुलर सरकार ही होगी, लगता है कि उत्तर प्रदेश में मौजूदा चुनाव के नतीजे ऐसे होगें कि आने वाले वक़्त में यहाँ साम्प्रदायिक राजनीति कर पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा. .

Monday, January 23, 2012

अब मुसलमान जज़्बात नहीं, विकास के मुद्दों पर वोट डालेगा

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के पहले सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है .इस बार के चुनाव में सभी दलों को पता है कि सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है. शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक साबित करने के चक्कर हैं . जब टेलिविज़न की खबरों का ज़माना नहीं था तो एक ख़ास विचारधारा के लोग अफवाहों के सहारे चुनावों के ठीक पहले राज्य के कुछ मुसलिम बहुल इलाकों में साम्प्रदायिक दंगा करवा लेते थे और उनकी अपनी सीट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर निकल जाती थी . लेकिन टी वी न्यूज़ की बहुत बड़े पैमाने पर मौजूदगी के चलते अब अफवाहों की बिना पर दंगा करवा पाना बहुत मुश्किल हो गया है . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार विचारधारा वाले तो अब मुसलमानों के ध्रुवीकरण की उम्मीद छोड़ चुके हैं . लेकिन बाकी तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमानों की असली शुभचिन्तक हैं . समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की प्रिय पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है .इसमें सच्च्चाई भी थी. जब भी समाजवादी पार्टी को मौक़ा मिला उसने मुसलमानों के समाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने की कोशिश की . कभी राज्य में उर्दू को बढ़ावा दिया तो कभी पुलिस जैसी सरकारी नकारियों में मुसलमानों को बड़ी संख्या में भर्ती किया . लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों के ठीक पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सज़ा पा चुके नेता कल्याण सिंह को सम्मान सहित पार्टी में भर्ती करके समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को बहुत निराश किया था . उसका नतीजा भी लोकसभा चुनावों में सामने आ गया था . समाजवादी पार्टी २००४ में करीब ४० सीटें जीतकर लोक सभा पंहुची थी वहीं २००९ में बीस के आस पास रह गयी . हालांकि मुसलमानों ने पूरी तरह तो साथ नहीं छोड़ा था लेकिन कल्याण सिंह के प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी मुसलमानों की प्रिय पार्टी नहीं रह गयी थी. कल्याण सिंह के भर्ती होने के बाद पैदा हुई समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी को कांग्रेस ने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी . कांग्रेस पार्टी को भी मुसलमानों के बीच ६ दिसंबर १९९२ के बाद पसंद नहीं किया जाता था . उसके कई कारण थे. सबसे बड़ा तो यही कि १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए कांग्रेस पार्टी भी कम ज़िम्मेदार नहीं थी. ६ दिसंबर १९९२ के दिन दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा था ,पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह पर भरोसा किया था कि वे बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करेगें . अजीब बात है कि कांग्रेस ने कल्याण सिंह पर भरोसा किया जबकि हर सरकारी अफसर को मालूम था कि बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ करने की योजना बन चुकी थी और उस साज़िश में कल्याण सिंह बाकायदा शामिल थे . . कांग्रेस की इस मिलीभगत के कारण मुसलमानों और सेकुलर जमातों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था . लेकिन जब से राहुल गांधी ने मैदान लिया है उन्होंने मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में थोड़ी बहुत सफलता हासिल की है .जानकार बाते हैं कि उनकी कोशिश का ही नतीजा था कि लोक सभा २००९ में कांग्रेस को बीस से ज्यादा सीटों पर सफलता मिली. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमानों की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमानों का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. अब सभी गैर बीजेपी पार्टियां रंगनाथ मिश्रा कमीशन की बात करने लगी हैं और उस तरफ कुछ काम भी हो रहा है . मसलन जब यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमानों का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई . जबकि सच्चाई यह है कि इस साढ़े चार प्रतिशत वाली बात से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है . क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई , जैन और बौध समाज से कम्पटीशन करना पडेगा. ज़ाहिर है यह सारा का सारा साढ़े चार प्रतिशत इन्हीं अल्पसंख्यक समुदायों के हिस्से में जाएगा जो शैक्षिक रूप से आगे हैं . लेकिन कांग्रेस के नेताओं के भाषणों के हवाले से बाद में सामाजिक न्याय की पक्षधर जमातें कांग्रेस को मजबूर कर सकती हैं कि वह शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों का कुछ प्रतिशत अलग से रिज़र्व कर दे .
बहरहाल अब एक बात साफ़ है कि पुराने तरीकों को इस्तेमाल करके अब मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना थोडा मुश्किल होगा. मसलन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने अधिक संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को ज़ाहिर करने की कोशिश की है .कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को दिखाने की कोशिश की है . लेकिन मुसलिम नौजवानों का मौजूदा वर्ग इस बात से प्रभावित नहीं हो रहा है . वह सवाल पूछ रहा है कि कुछ संपन्न और ताक़तवर मुसलमानों को एम पी ,एम एल ए बनाकर कोई भी पार्टी आम मुसलमान को कैसे संतुष्ट कर सकती है . अब मुसलामान कुछ सत्ता प्रेमी मुसलमानों को मिली हुई इज़्ज़त से खुश होने को तैयार नहीं है . वह इंसाफ़ की मांग करने लगा है . उसे शिक्षा चाहिए , उसे सरकारी नौकरियों और निजी औद्योगिक क्षेत्र में अपना हक चाहिए . कुछ मुसलमानों के सामने टिकट की खैरात फेंक कर आम मुसलमान को संतुष्ट कर पाना अब नामुमकिन है . इसीलिये देखा यह जा रहा है कि सच्चर और रंगनाथ मिश्रा को जिस सम्मान की नज़र से मुस्लिम समाज में देखा जाता है ,वह इज्ज़त किसी भी मुस्लिम राजनेता को मयस्सर नहीं है .वैसे भी मुसलमान हर उस आदमी की इज़्ज़त करता है जो उसके लिए न्याय की बात करता अहै . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो भी मुसलमान राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेता है वह मुसलमानों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव २०१२ के पहले जो माहौल बन रहा है वह इस देश के आम मुसलमान के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होगा. मसलन कांग्रेस अपने साढ़े चार प्रतिशत के अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताने की कोशिश में जब नाकाम हो गयी तो अपने एक मुस्लिम मंत्री से बयान दिलवा दिया कि अब मुसलमानों को ९ प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इस बात को मीडिया का इस्तेमाल करके गरमाने की कोशिश भी की जा रही है .. कांग्रेस की इस कोशिश को आम मुसलमान गंभीरता से ले रहा है . उधर समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन की बात करना शुरू कर दिया है . समाजवादी पार्टी की इस बात को चुनावी स्टंट ही माना जा रहा है . यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता इतनी ज्यादा है कि उनकी बात को लोग हल्का नहीं मानते,लेकिन लोगों को यह भी मालूम है कि फिलहाल मुसलमानों को १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन देना राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है .

इस चुनाव की एक और दिलचस्प बात यह है कि भावनात्मक मुद्दों को उठाने की कोई कोशिश काम नहीं आ रही है . कल्याण सिंह का हिन्दू हृदय सम्राट वाला चोला बिलकुल बेकार साबित हो रहा है . अपने इलाके में अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के अलावा वह किसी के हृदय सम्राट नहीं बन पा रहे हैं .ज़ाहिर है वे चुनावों में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभा पायेगें .. बाबरी मस्जिद केस में उनकी सह अभियुक्त उमा भारती को भी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यू पी में अहम भूमिका देने की कोशिश की है लेकिन उनकी मौजूदगी भी कट्टर हिन्दूवादी वोटरों पर वह असर नहीं डाल पा रही है जो १९९२ के बाद के चुनावों में थी. यही हाल बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वाले मुसलमानों का भी है . उस वक़्त के ज़्यादातर नेता तो पता नहीं कहाँ चले गए हैं .. जो एकाध कहीं नज़र भी रहे हैं उनकी मुसलमानों की बीच कोई ख़ास औकात नहीं है ..दरअसल इस चुनाव में यह बात बिकुल साफ़ हो गयी है कि अब मुसलमान ज़ज़बाती मुद्दों को अपनाने को तैयार नहीं है. उसे तो इंसाफ़ चाहिए और अपना हक चाहिए . उसे विकास चाहिए और सामान अवसर चाहिए . अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान इस बार इन मुद्दों को चुनाव की मुख्य धारा बनाने में कामयाब हो गया तो देश का और मुसलमान का मुस्तकबिल अच्छा होगा अब सभी मानने लगे हैं कि मुसलमान जज्बाती होकर फैसला नहीं करने वाला है . वह किसी भी दंगाई की बात में नहीं आने वाला है . यह संकेत २००७ में ही मिलना शुरू हो गया था. जब २००७ के विधान सभा चुनाव के ठीक पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे कुछ होर्डिंग लगा दिए गए थे, सी डी बांटी गयी थी और मुसलमानों को और तरीकों से भड़काने की कोशिश की गयी थी तो मुसलमानों ने आम तौर पर उस कोशिश को नज़र अंदाज़ किया था. उसके बाद के किसी भी चुनाव में भड़काऊ बयान या चुनाव सामग्री का बाज़ार नहीं चल पाया .शायद इसीलिये मौजूदा चुनाव भी विकास के मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नज़र आ रहा है . और सभी पार्टियों के मालूम है कि इस बार मुसलमानों की निर्णायक मदद के बिना सरकार नहीं बनने वाली है .

इंसाफ़ की इस लड़ाई में इस बार उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .मुसलमानों की संख्या के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां उनकी मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौत सीटें पड़ती हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है जहां मुसलमानों के वोट के लिए तीन अहम पार्टियां जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहां यह वोटर इंसाफ़ की जद्दो जहद में एक ज़बरदस्त भूमिका निभा सकते हैं . ऐसा लगता है अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के जज़्बात को भड़का कार राजनीति करना मुश्किल होगा. अब राजनीतिक पार्टियों को असली मुद्दों को संबोधित करना पडेगा.

Sunday, December 25, 2011

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की तारीखें घोषित

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,२४ दिसंबर . पांच राज्यों की विधान सभाओं के लिए आम चुनाव का ऐलान कर दिया गया है . जनवरी और फरवरी में चुनाव कराये जायेगें और पांचो राज्यों में वोटों की गिनती ४ मार्च को होगी. उत्तर प्रदेश में चुनाव सात फेज़ में होंगें जबकि बाकी अन्य राज्यों में चुनाव केवल एक फेज़ में होगा. उत्तर प्रदेश में पहला फेज़ ४ फरवरी २०१२ को है जबकि आख़री फेज़ २८ फरवरी को पडेगा. पंजाब और उत्तराखंड में ३० जनवरी ,मणिपुर में २८ जनवरी और गोवा में तीन मार्च को होगा. आचार संहिता तुरंत से ही लागू हो गयी है . इन राज्यों के सभी सरकारी कर्मचारी अब केंद्रीय चुनाव आयोग के कंट्रोल में आ गए हैं . वे सभी चुनाव आयोग के पास डेपुटेशन पर माने जायेगें.इस बार पेड न्यूज़ के बारे में सरकार बहुत ही सख्त है . जिला ,राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया के लिए मानीटरिंग कमेटी बनेगी. हर कमेटी में ४ सदस्य होंगें जिसमें एक पत्रकार होगा. पत्रकार को प्रेस कौंसिल की ओर से नामित किया जाएगा . चुनाव खर्च के मामले में बहुत ही सख्त तरिके अपनाए जायेगें. सभी उम्मीदवारों को चुनाव खर्च के लिए एक नया खाता खोलना पडेगा और उसी खाते से निकाल कर पैसा खर्च करना पडेगा. खर्च पर नज़र रखने के लिए मानिटरिंग आब्ज़र्वर होंगें.जबकि चुनाव पर जनरल आब्ज़र्वर नज़र रख रहे होंगें.चुनाव खर्च पर नज़र रखने के लिए अभी से बस अड्डों , रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों पर नज़र रखी जायेगी . किसी भी तरह के कैश की आवाजाही पर इनकम टैक्स वालों की नज़र रहेगी और वे सीधे चुनाव आयोग को सूचना देते रहेगें.इस बार अपराधियों के लिए खासी मुश्किल आने वाली है क्योंकि अबकी बार फ़ार्म ऐसा बनाया गया है कि उसमें उम्मीदवारों के परिवार के भी किसी अपराधी की जानकारी भरनी पड़ी. इस बार यह भी इंतज़ाम किया गया है कि अगर कोई व्यक्ति जो एस सी या एस टी नहीं है और वह किसी एस सी या एस टी वोटर को धमकाता है कि तो उसे दलित एक्ट के तहत पकड़ा जाएगा.

चुनाव आयोग के खचाखच भरे हाल में आज मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने पांच राज्यों के चुनाव की घोषणा कर दी. इन सभी राज्यों में अगले छः महीने से भी कम समय में विधान सभाओं का कार्यकाल ख़त्म होने वाला है . गोवा का १४ जून ,मणिपुर का १५ मार्च, पंजाब का १४ मार्च,उत्तरखंड का १२ मार्च और उत्तर प्रदेश २० मई २०१२ को कार्यकाल ख़त्म हो जाये़या. चुनाव आयोग को अधिकार है वह संविधान के अनुच्छेद ३७१ और ३२४ के आधार पर वहां चुनाव करवाए जहां की विधान सभा का कार्यकाल ख़त्म होने वाला .है.गोवा में विधान सभा की ४०, मणिपुर में ६० पंजाब में ११७ ,उत्तरखंड में ७० और उत्तर प्रदेश में ४०३ सीटें हैं . इन सब के लिए चुनाव करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा वोटर हैं यू पी में करीब ११ करोड़ बीस लाख वोटर हैं जो सात फेज़ के चुनावों में मत डालेगें. राज्य में ९८ प्रतिशत लोगों को मतदाता पहचान पत्र दे दिए गए हैं . श्री कुरेशी ने कहा कि जिन लोगों के पास पहचान पत्र नहीं है वे फ़ौरन बनवा लें क्योंकि बिना पहचान पत्र के वोट नहीं ड़ालने दिए जायेगें. हर जगह इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन होगी. .विकालांगों के लिए ख़ास इंतज़ाम किया गया है . दृष्टि विकलांग लोगों के लिए ब्रेल लिपि वाली मशीनों का इंतज़ाम भी किया गया है .
चुनाव में सुरक्षा को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है . केंद्रीय सुरक्षा बलों को हर पोलिंग पार्टी के साथ लगाया जाएगा. केंदीय बल आम तौर पर बूथों की सुरक्षा में रहेगें . उनके जिम्मे ही ई वी एम मशीनों के स्ट्रांग रूम की सुरक्षा रहेगी. पोलिंग कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का काम भी केंदीय बल करेगें.कानून व्यवस्था का काम राज्य के अधिकारी और पुलिस वाले देखेंगें.इस बार वोटरों को पर्ची देने का काम चुनाव आयोग के अफसर करेगें यह काम बिहार में शुरू किया गया था और वहां सफल रहा था.किसी भी धार्मिक स्थल का इस्तेमाल चुनाव पचार के लिए नहीं किया जाएगा और चुनाव से सम्बंधित हर गतिविधि पर आब्ज़र्वर की नज़र होगी. स्थानीय स्तर पर भी आब्ज़र्वर होगा जो जिले के बज़र्वर को रिपोर्ट करेगा.
पंजाब से शिकायत आई थी कि वहां अफीम आदि का इस्तेमाल होने की आशंका है. मुख्य चुनाव आयुक्त ने बाया कि नारकोटिक्स विभाग एक महानिदेशक को कह दिया गया कि इस बात पर नज़र रखेगें और ज़रूरी कार्रवाई करेगें.

Sunday, November 27, 2011

इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है

शेष नारायण सिंह

उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव के लिए प्रचार शुरू हो गया है .राहुल गांधी अपने विवादास्पद बयानों के चलते सुर्ख़ियों में बने हुए हैं . कभी मुलायम सिंह यादव के सबसे वफादार साथी रहे बेनी प्रसाद वर्मा के जिले,बाराबंकी में उन्होंने कई धमाकेदार बयान दिये और एक बार फिर साबित करने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली और मुंबई में भीख मांगने के काम को कोई अछूत काम नहीं मानते हैं . राहुल गांधी के इस बयान को बीजेपी वाले उनके खिलाफ इस्तेमाल करेगें . उस बयान की धमक यू पी विधान सभा चुनाव पर तो पड़ेगी ही, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उसका असर मुंबई में यू पी विधान सभा चुनाव के आस पास ही हो रहे नगरपालिका चुनावों पर भी पड़ सकता है . यह बयान निश्चित रूप से लोगों को शाक करने के लिए दिया गया है , लोगों को सोचने के लिए मजबूर करने के लिए दिया गया है . अगर कांग्रेस के पास ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता होते तो इसे राहुल गांधी की यू पी वालों के घर छोड़ कर भागने की प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश के रूप में पेश किया जा सकता था . लेकिन कांग्रेस के पास यू पी में नेता बहुत हैं, कार्यकर्ता बिलकुल नहीं हैं . मीडिया में भी राज्य के कांग्रेसी नेताओं की ऐसी छवि नहीं है कि राहुल गांधी की बात को आम जनता तक पंहुचाने में वे सहयोग कर सकें . जबकि विपक्षी दलों की कोशिश होगी कि वे राहुल गांधी के इस बयान को एक गैर ज़िम्मेदार बयान के दायरे से बाहर ही न आने दें .कांग्रेस ने पिछले कुछ वर्षों में यू पी में बहुत काम किया है . ख़ास तौर पर मुसलमानों में अपनी छवि को सुधारने में सफलता पायी है . इसका नतीजा लोकसभा २००९ में नज़र भी आया जब कांग्रेस पार्टी राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों के बराबर सांसद चुनवाने में सफल रही. इस बार भी कांग्रेस को उम्मीद है कि मुसलमान उसको उसी तरह से समर्थन देगें जिस तरह से लोक सभा चुनाव २००९ के वक़्त दिया था. यह उम्मीद बिकुल जायज़ है .लेकिन अब हालात बदल गए है . सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस बार एक ऐसी सरकार चुनी जानी है जो यू पी में राज काज संभालेगी . उसके पास कानून व्यवस्था का प्रबंधन होगा . मुसलमान की पूरी कोशिश होगी कि वह उत्तर प्रदेश में किसी ऐसी सरकार के गठन में सहयोग न कर दे जो गुजरात की मोदी सरकार की तरह काम करे. गुजरात की मोदी सरकार के बारे में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उन से कोई भी मुसलमान डर सकता है . सबसे ताज़ा मामला मुंबई की लडकी इशरत जहां को फर्जी इनकाउंटर के ज़रिये क़त्ल करने का है .गुजरात के पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट तक में हलफनामा दाखिल कर दिया है कि मुख्य मंत्री,नरेंद्र मोदी ने गोधरा में ट्रेन में आग लगने के बाद पुलिस को हुक्म दिया था कि हिन्दुओं के गुस्से को प्रकट होने दें . दुनिया जानती है कि उस गुस्से के बाद गुजरात के कुछ शहरों में मुसलमानों का क्या हाल हुआ था. पूरे देश में मुसलामन उस हालत में नहीं पंहुचना चाहता जिस हालत में २००२ में गुजरात के मुसलमान पंहुच गए थे . बहुत सारे लोग यह कहते पाए जाते हैं कि नरेंद्र मोदी निजी तौर पर बहुत ही शांत प्रवृत्ति के इंसान हैं . उनकी बात को अगर मान भी लिया जाये तो गुजरात २००२ के नरसंहार को भुलाया नहीं जा सकता . इससे यह साबित होता है कि बीजेपी का मुख्यमंत्री अगर बहुत भला आदमी भी होगा तो वह गोधरा के बाद मुसलमानों के क़त्ले आम जैसी हालत पैदा होने से रोकने में बहुत दिलचस्पी नहीं लेगा. ज़ाहिर है कि कहीं भी कोई भी मुसलमान ऐसी किसी सरकार के बनने के हालात नहीं पैदा होने देगा जिससे उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बन जाए.पूरी तरह से टुकड़ों टुकड़ों में बँट चुकी उत्तर प्रदेश की आबादी में अब बहुत कम वोट बैंक रह गए हैं . इसलिए यह उम्मीद करना कि कोई एक ख़ास वर्ग किसी एक पार्टी के पक्ष में टूट पडेगा, बेमतलब है . अब तक माना जाता था कि उत्तर प्रदेश में दलित वर्गों का वोटर मौजूदा मुख्य मंत्री , मायावती के साथ रहता है लेकिन इस बार वह तस्वीर भी बदल रही है . गाँवों के स्तर तक जिस तरह से भ्रष्टाचार करने वालों का सरकारी आशीर्वाद से आतंक मचा हुआ है उसका शिकार सभी लोग हो रहे हैं . उसमें दलित भी शामिल हैं . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि विधान सभा २०१२ में यू पी की जनता कुछ इस तरह से वोट करेगी जिस से राज्य में ग्रामीण स्तर पर मची लूट को रोका जा सके. ऐसी हालत में वोट उसी को मिल सकता है जो अपने आप को मायावाती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल होगा .समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुलायम सिंह मायावती को सबसे मज़बूत चुनौती देने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं. पारंपरिक रूप से मुसलमान उनको वोट देते भी रहे हैं . यहाँ तक कि २००७ में भी मुसलमानों ने उनको वोट दिया था लेकिन उनकी पिछली सरकार में उनके कुछ साथियों की कारस्तानी ऐसी थी कि उनको बाकी कहीं से वोट नहीं मिले . नतीजा यह हुआ कि उनसे नाराज़ जनता ने मायावाती को मुख्यमंत्री बना दिया . स्पष्ट बहुमत के साथ मायावती पहली बार मुख्य मंत्री बनी थीं . इसके पहले हर बार वे बीजेपी के समर्थन से ही सरकार चलाती रही थीं . पूर्ण बहुमत के साथ चली मायावती की सरकार ऐसी सरकार नहीं है जिसको कोई बहुत गरीबपरवर सरकार कह सके . उसमें आर्थिक शुचिता निश्चित रूप से बहुत कम रही है . ऐसा लगता है कि मायावती को मालूम है कि पुराने फार्मूलों से इस बार चुनाव जीत सकना मुश्किल होगा.शायद इसीलिए चुनाव के ऐन पहले या यूं कहें कि चुनावी रणनीति को धार देने की गरज से मायावती ने उत्तर प्रदेश के बँटवारे का ऐलान कर दिया है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे का राजनीतिक फैसला लेकर मायावती ने राज्य में सारे चुनावी समीकरण बदल दिया है . सबको मालूम है कि विधानसभा में पास किये गए मुख्यमंत्री मायावती के प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है लेकिन वह एक धमाकेदार राजनीतिक स्टेटमेंट तो हैं ही. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ में अब यह मुद्दा निश्चित रूप से अहम भूमिका निभायेगा. राज्य के बँटवारे पर गोलमोल बयान दे रही कांग्रेस और बीजेपी के सामने अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में खासी मुश्किल पेश आने वाली है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे की बात कर रहे अजीत सिंह को इस राजनीतिक घटनाक्रम ने निश्चित रूप से कमज़ोर किया है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के बीच कांग्रेस की मज़बूत होती साख के चक्कर में वे कांग्रेस से समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता ने अपनी बिरादरी के वोट और मुसलमानों के वोट के बल पर उतर प्रदेश में वर्षों राज किया था लेकिन अब मुसलमानों के बीच अजीत सिंह की स्वीकार्यता घटी है .लोकसभा २००९ के दौरान उनकी ख़ास सहयोगी और पार्टी की बड़ी नेता, अनुराधा चौधरी को जिताने के लिए गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का सहयोग लिया गया था. अजीत सिंह और अनुराधा चौधरी के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर पूरे इलाके में पाट दिए गए थे. मुसलमानों ने एकमुश्त अनुराधा के खिलाफ वोट दिया और वे हार गयीं . वे पोस्टर इलाके के लोगों को अभी भी याद है . इसलिए लगता है कि राज्य के बँटवारे के मुद्दे के छिन जाने के बाद अजीत सिंह खासे कमज़ोर हुए हैं . पश्चिमी उत्तरप्रदेश के प्रभावशाली मुसलमानों के बीच उनकी नरेंद्र मोदी परस्त नेता की छवि भी उनको नुकसान पंहुचा सकती है . जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर कांग्रेस ने अजीत सिंह के साथ समझौता किया तो उसके अपने वोट पश्चिम में ही नहीं पूरे राज्य में घट जायेगें .ऐसी हालत में कांग्रेस के समझौते के बाद भी अजीत सिंह एक ताक़त के रूप में नहीं उभरने वाले हैं . वैसे भी उनके बारे में यह शक़ बना रहता है कि पता नहीं कब वे बीजेपी से जा मिलेगें .

कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सामने विकल्प बहुत कम हैं . हालांकि खासी बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस की तरफ खिंचे हैं लेकिन कांग्रेस जब तक सरकार बनाने लायक स्थिति में नहीं आती तब तक मुसलमानों के वोट सारी सहानुभूति के बावजूद उसे नहीं मिलेगें . मायवाती के खिलाफ बन रहे माहौल के बाद लगता है कि मुसलमानों की प्राथमिकता सूची में समाजवादी पार्टी सबसे ऊपर रहेगी. कहा जा रहा है कि राज्य के बँटवारे का विरोध करके मुलायम सिंह यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को नाराज़ कर लिया है और उनको इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है .मुलायम सिंह यादव ने इस बार अपने चुनाव अभियान की शुरुआत एटा जिले के उस इलाके से की जहां यादवों का ख़ासा प्रभाव है . लगता है कि राज्य के बँटवारे की राजनीतिक चाल से होने वाले नुकसान की भरपाई वे पिछड़ों के वोट को अपने साथ बड़े पैमाने पर जोड़कर करना चाहते हैं . लेकिन उनकी हालत पूर्वी उत्तरप्रदेश में उतनी मजबूत नहीं है जितनी पहले हुआ करती थी .वहां पीस पार्टी नाम की एक पार्टी बना दी गयी है जो निश्चित रूप से मुलायम सिंह के मतदाताओं को तोड़ेगी उनके प्रभाव के जिलों, आज़मगढ़ , जौनपुर आदि में उनकी बिरादरी के जो नेता उनके सारथी हैं वे बहुत ही अलोकप्रिय लोग हैं . वहां मायावती का प्रभाव भी बहुत ज्यादा है . बीजेपी के तीनों बड़े नेता उसी इलाके के हैं . अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही और राजनाथ सिंह की कोशिश है कि ठाकुरों को साथ जोड़ा जाए. जब कि उसी इलाके से आने वाले कलराज मिश्र ने भी अपने को अभी से मुख्यमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया है. उनकी रथ यात्रा के कारण भी उनके कार्यकर्ताओं में कुछ जागरूकता देखी गयी है . राहुल गांधी भी पूर्वी उत्तर प्रदेश को बहुत महत्व दे रहे हैं .पीस पार्टी के कारण मुसलमानों में दुविधा की स्थिति है . लेकिन कांग्रेस और बीजेपी की लगभग बराबर हो रही ताक़त के बाद लगता है वहां भी मुसलमानों को मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच ही चुनाव करना पडेगा . इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुत हाई प्रोफाइल प्रचार के बावजूद भी पीस पार्टी के पहचान एक वोट काटने वाली पार्टी वाली ही बन जाय. ऐसी हालत में मुलायम सिंह और मायावती के बीच टाई होगी. दलित वोट तो मायावती के साथ जाएगा ही , अगर मुलायम सिंह ऐसा माहौल बनाने में सफल हो गए कि वे मायावती को हरा सकते हैं तो मुसलमान , बैकवर्ड और मायवती के नाराज़ वोटर के कंधे पर बैठ कर वे इस बार भी यू पी की सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं . लेकिन अभी बहुत जल्दी है . कुछ भी फाइनल कहना ठीक नहीं होगा लेकिन यह बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है .

Monday, August 22, 2011

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की टिकटों के संकेत



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, २२ अगस्त . कांग्रेस ने फर्रुखाबाद विधानसभा सीट से सलमान खुर्शीद की पत्नी को टिकट देकर जहां एक बार केंद्रीय कानून मंत्री की ज़मीनी राजनीतिक हैसियत नापने का काम किया है वहीं समाजवादी पार्टी को भी सन्देश दे दिया है कि उनके अपने प्रभाव वाले इलाके में भी कांग्रेस चुनावों को बहुत ही गंभीर तरीके से लड़ने के मूड में है. हालांकि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को पिछली बार भी यहाँ बसपा ने हरा दिया था लेकिन यह इलाका मुलायम सिंह के व्यक्तिगत प्रभाव वाला माना जाता है . अपनी पहली सूची जारी करके उत्तरप्रदेश में कांग्रेस अपनी राजनीतिक मंशा का ऐलान कर दिया है . पहली सूची के संकेत साफ़ हैं . कांग्रेस अपने सांसदों को सीट की हारजीत के लिए ज़िम्मेदार ठहराना चाहती है.शायद इसीलिये पार्टी के सांसदों के परिवार वालों को विधानसभा का टिकट देकर यह बता दिया है कि अगर अपने परिवार के लोगों को नहीं जितवा सकते तो २०१४ में अपने टिकट की भी बहुत पक्की उम्मीद मत कीजिये. मसलन राहुल गाँधी की सीट के पांच टिकटों में आज उन्हीं लोगों के नाम हैं जिनका जीतना आम तौर पर पक्का माना जाता है . सलमान खुर्शीद की पत्नी और बरेली के प्रवीण ऐरन की पत्नी का टिकट भी इसलिए दिया गया है कि जहां से आप जीत कर आये हैं वहां अपने घर वालों को जिताइये.
हालांकि अगर ध्रुवीकरण हुआ तो लड़ाई में बीजेपी के शामिल होने की भी पूरी संभावना है .इसके लिए मुरादाबाद में कोशिश भी की जा चुकी है . लेकिन अगर मामला हर बार की तरह जातिगत आंकड़ों के इर्द गिर्द ही रहा तो समाजवादी पार्टी की बहुजन समाज पार्टी को हर क्षेत्र में घेरने के चक्कर में है. दिल्ली समाजवादी पार्टी के अंदर तक की हाल जानने वाले एक भरोसेमंद सूत्र का दावा है कि अभी भी अजीत सिंह संपर्क में हैं और पश्चिम में मुलायम सिंह के साथ मिलने की सोच रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय लोकदल के कई नेताओं से बात चीत हुई तो पता चला कि ऐसा कुछ नहीं है . समाजवादी पार्टी ने पश्चिमी जिलों से जिन उम्मीदवारों को उतारा है उनमें से कई अजीत सिंह की टिकट के लिए प्रयास कर रहे हैं . उनके एक बहुत ही करीबी सूत्र ने बताया कि मुलायम सिंह को भी पश्चिम से बहुत उम्मीद नहीं है इसलिए वे अपना ध्यान मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश पर लगा रहे हैं . इसके लिए उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों की राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं पर लगाम देने की कोशिश भी की है.रामपुर के आज़म खां को भी लाये हैं लेकिन आज़म खां के आने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा है. इसका कारण शायद यह है कि पिछले लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने आज़म खां की ताकत को इतना कम कर दिया था कि उनके फिर से किसी काम का होने में वक़्त लगेगा. समाजवादी पार्टी की ताक़त इटावा के आस पास के जिलों में ही सबसे ज्यादा है , वहां भे एहर सीट पर उसे बहुजन समाज पार्टी की चुनौती मिल रही है. . जहां तक पूरब का सवाल है वहां बहुजन समाज पार्टी तो ताक़तवर है ही , पीस पार्टी नाम का एक संगठन भी समाजवादी पार्टी के बुनियादी वोटों को हर क्षेत्र में काट रहा है . इस बीच मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित करने की अपनी योजना को भी थोडा ढील दी है . बताया गया है कि उन्होंने कई लोगों से कहा कि जब उत्तराधिकार में कुछ होगा तभी तो देने का सवाल पैदा होगा . इस बीच खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे खुद ही रोज़ की राजनीतिक गतिविधियों पर नज़र रख रहे हैं और इलाके के ताक़तवर लोगों को साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं .साथ ही मुसलमान वोटों के मुख्य दावेदार के रूप में भी उनकी छवि ध्वस्त हो चुकी है . उस वोट पर कांग्रेस ने अपनी मज़बूत पकड़ बना ली है हालांकि पश्चिम का प्रभावशाली मुस्लिम वोट अभी भी बसपा के पास ही है .

Monday, July 19, 2010

उत्तर प्रदेश में बी जे पी की ताक़त बढ़ रही है

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश की राजनीति में २०१२ वाले विधान सभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गयी हैं . मुलायम सिंह यादव का मुसलमानों के नाम लिखा गया माफी नामा उसी तैयारी की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जो आन्दोलन चला उस से बी जे पी को तो फायदा हुआ ही , मुलायम सिंह यादव को भी लाभ हुआ था. घोर हिन्दू मतदाता बी जे पी में गया तो मुसलमान पूरी तरह से मुलायम सिंह के साथ हो गया. राजनीति को साम्प्रदायिक करने की गरज से आर एस एस ने बाबरी मस्जिद वाला आन्दोलन चलाया था . उन दिनों उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस थी लेकिन बुरी तरह से दरबारी संस्कृति की जकड़ में थी . आम तौर पर प्रदेश की राजनीति में धर्मनिरपेक्ष ताक़तों का समर्थन कांग्रेस को ही मिलता था लेकिन आर एस एस के आन्दोलन में सब तहस नहस हो गया. कांग्रेस को राज्य से विदा होने का परवाना मिल गया और विदाई भी ऐसी कि अभी तक वापसी की कोई खबर ही नहीं. मुसलमानों और दलितों के वोट तब तक परम्परागत रूप से कांग्रेस को मिलते थे. लेकिन सब बदल गया . विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स चला कर राजीव गाँधी को कहीं का नहीं छोड़ा , हिन्दू धर्म को राजनीतिक प्रचार के लिए इस्तेमाल करने की आर एस एस की रणनीति खासी सफल रही और सवर्ण हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग बी जे पी के साथ चला गया. बाबरी मस्जिद वाले आन्दोलन में मुलायम सिंह ने मुस्लिम समर्थक के रूप में अपनी छवि बाना ली और बाद में मुसलमान उनकी तरफ खिंच गया . दलितों को नया नेता मिल गया था , वे कांशी राम की बातों पर विश्वास कर रहे थे लिहाजा दलित वोट कांशीराम के हवाले हो गए . बाद के वर्षों में यही समीकरण चलता रहा लेकिन 2००७ के चुनावों में मायावती ने सब कुछ उलट दिया . उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि बी जे पी भी कांग्रेस के रास्ते चल पड़ी और बड़ी संख्या में मुसलमान भी मायावती के साथ चले गए .मुसलमानों का साथ छूटने से मुलायम सिंह यादव परेशान हो गए और उन्होंने पिछड़ी जातियों को एक मुश्त करने की कोशिश की और वहीं गलती कर गए. मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन माने जाने वाले राजनेता , कल्याण सिंह को साथ ले लिया . नतीजा यह हुआ कि २००९ के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की पार्टी की हालत पहले से कमज़ोर हो गयी. हार से बड़ा दुश्मन कोई नहीं होता है . पार्टी की हार के चक्कर में मुलायम सिंह यादव ने कई साथी खो दिए. उनके सबसे भरोसे के नेता , अमर सिंह भी निकाल दिए गए और मुलायम सिंह अकेले पड़ गए. हालांकि बहुत मज़बूत नहीं हैं लेकिन पिछले २० वर्षों में मुलायम सिंह यादव ने रामपुर के आज़म खां को मुस्लिम नेता के रूप में विकसित करने की कोशिश की थी. वह भी साथ छोड़ गए. मुलायम सिंह को सबसे बड़ा झटका लगा फिरोजाबाद में जहां हुए उपचुनाव में उनकी पुत्रवधू ही चुनाव हार गयी . मुसलमानों को खुश करने के लिए अमर सिंह के निष्कासन के बाद उनके विरोधी गुट ने जोर शोर अभियान चलाया कि कल्याण सिंह को अमर सिंह ही लाये थे लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा . जनता मानती रही कि मुलायम सिंह से उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कुछ करवा पाना बहुत मुश्किल है . अब जाकर मुलायम सिंह ने मुसलमानों से सीधी अपील की है कि भाई गलती हो गयी, माफ़ कर दो . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि देश में किसी मुस्लिम नेता की यह हैसियत नहीं है कि वह मुसलमानों के वोट को प्रभावित कर सके . इसलिए उन्हें उम्मीद है कि माफी मागने से मुसलमान एक बार फिर साथ आ जायेगें.अगर ऐसा हुआ तो उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दृश्य बहुत ही दिलचस्प हो जाएगा.

आज की हालत यह है कि राज्य का मुसलमान मतदाता अभी कांग्रेस की तरफ बढ़ रहा है. उसे उम्मीद है कि मुलायम सिंह के कमज़ोर पड़ने के बाद साम्प्रदायिक ताक़तों से उनकी रक्षा कांग्रेस ही कर पायेगी . अभी मुसलमान ,कम से कम उत्तर प्रदेश में बी जे पी को कोई राजनीतिक ताक़त नहीं मान रहा था. लेकिन मुसलमानों के खिलाफ वरुण गांधी का जो ज़हरीला प्रचार चल रहा है , राज्य के दूर दराज़ और कस्बों में अपील कर रहा है . जानकार मानते हैं कि वरुण गाँधी का नरेंद्र मोदी टाइप अभियान हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो मुसलमान उसको ही वोट देगा जो गारंटी के साथ बी जे पी को हरा सके. अभी तक की राजनीतिक स्थिति पर नज़र डालने से समझ में आ जाएगा यह हैसियत न तो अभी कांग्रेस की है और न ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी की. ऐसी हालत में अगर बी जे पी वाले यह प्रचार करने में कामयाब हो गए कि मुसलमान एकमुश्त वोट करने वाला है तो घोर हिन्दू वोट बी जे पी की तरफ मुड़ जायेगें . ऐसा माहौल बन जाने के बाद बी जे पी को हराने के लिए मुस्लिम वोट मायावती की पार्टी को मिल सकता है . यानी मुलायम सिंह यादव ने माफी तो मांग ली है लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि मुसलमान बी जे पी को हराने वाली पार्टी के साथ जाएगा, वह मुलायम सिंह यादव , मायावती और राहुल गाँधी में से कोई भी हो सकता है ., लेकिन राहुल गांधी की पार्टी के पास राज्य में ऐसे कार्यकर्ता नहीं है जो समर्थन को वोटों में बदल सकें , वहां तो सभी नेता ही हैं. मुलायम सिंह यादव का संगठन बहुत कमज़ोर है . ऐसे में लगता है कि स्वयंसेवकों की मदद से बी जे पी वाले ही मायावती के बाद सबसे बड़ी पार्टी बन जायेगें .

Thursday, November 26, 2009

संघी खेल में वाजपेयी बराबर के गुनाहगार

शेषनारायण सिंह

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के १० दिन बाद गठित किये गए लिब्रहान आयोग ने अपनी जांच पूरी करके रिपोर्ट दे दी है . रिपोर्ट के कुछ अंशों को छापने का दावा करने वाले मीडिया संगठनों का कहना है कि उनके हाथ कोई खजाना लग गया है . करीब १७ साल के काम के बाद इस आयोग के हवाले से जो कुछ अखबारों में छपा है ,उसमें कुछ भी नया नहीं है. जिन लोगों ने १९८६ से १९९२ तक के संघी तानाशाही के काम को देखा किया है उन्हें सब कुछ मालूम था. लिब्रहान आयोग से उम्मीद की जा रही थी कि वह उन बातों को सामने लाएगा जिनके बारे में मीडिया वालों को शक तो था लेकन पक्के तौर पर नहीं मालूम था कि किस तरह से आर एस एस ने सारे खेल को अंजाम दिया था .अभी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है .उम्मीद की जानी चाहिए कि जब संसद के पटल पर रखी जायेगी तो पता लगेगा कि साम्प्रदायिक ताक़तों ने किस तरह से एक पूरे देश को घेर रखा था. एक अख़बार में रिपोर्ट के छपने के हवाले से बी जे पी ने लोकसभा में हंगामा करके , रिपोर्ट को लीक करने पर इतना बड़ा बवाल खड़ा करने की कोशिश की कि जनता का ध्यान , इस बात से हट जाए कि उसके अन्दर क्या है . विपक्ष के नेता, लाल कृष्ण अडवाणी ने खुद मोर्चा संभाला और कहा कि इस रिपोर्ट में पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी दोषी बताया गया है जो कि असंभव है . अडवाणी ने कहा कि वे खुद को दोषी पाए जाने से उतने दुखी नहीं है . लेकिन वाजपेयी को दोषी बता कर लिब्रहान आयोग ने भारी गलती की है .. अडवाणी के इस पैतरे से साफ़ हो गया है कि संघ बिरादरी अभी वाजपेयी को उदारवादी भूमिका में ही रखना चाहती है.उनको अभी कट्टर पंथी काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाने वाला है. लोकसभा में अडवाणी ने दावा किया कि वाजपेयी तो बहुत ही सीधे व्यक्ति हैं इस लिए उनको बाबरी मस्जिद के विध्वंस के काम में शामिल नहीं बताया जा सकता.
सच्ची बात यह है कि अडवाणी ,वाजपेयी और बी जे पी के बाकी नेता भी आर एस एस की कठपुतलिया हैं. . सबको आर एस एस के नाटक में रोल दिया गया हैं.. और सबको अपना काम करना है . बी जे पी के सत्ता अभियान की डोर नागपुर के बड़े दरबार के हाथ में रहती है .संघ ही इनके हर काम का नियंता है. देश में सावरकरवादी फासिज्म स्थापित करने के उद्देश्य से हिंदुत्व की राजनीति का सहारा लेने वाली संघ बिरादरी में अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका एक उदार वादी अभिनेता की है. वाजपेयी उसी रोल को निभा रहे हैं . अडवाणी या बी जे पी के अन्य नेता समझाने की कोशिश कर रहे हैं, कि संघी धंध फंद से वाजपेयी का कोई लेना देना नहीं है लेकिन यह सच नहीं है . वाजपेयी संघ के हर कर्म में शामिल रहे हैं . अगर ऐसा न होता तो आर एस एस उनको कभी का दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक चुका होता. संघी राजनीति में जो लोग भी नागपुर से असहमत होते हैं उनका वहीं हश्र होता है जो बलराज मधोक का हुआ था या लाल कृष्ण अडवाणी का होने वाला है . लेकिन जब संघी भाइयों ने वाजपेयी के चेहरे से उदारवादी नकाब के हटने की संभावना पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया दिखाई है तो उनकी राजनीतिक यात्रा पर एक नज़र डाल लेना सही रहेगा.. हालांकि बी जे पी के छुटभैये नेता टी वी चैनलों पर बार बार यह कहते पाए गए हैं कि वाजपेयी जी बीमार हैं लिहाज़ा उनके खिलाफ कोई टिप्पणी न की जाए. .

अटल बिहारी वाजपेयी के ५ दिसंबर १९९२ के एक भाषण के कुछ अंश एक टी वी चैनल पर दिखाए जा रहे हैं .जिसमें उन्होंने दावा किया है कि कल अयोध्या में पता नहीं क्या होगा. यहाँ एक बार फिर यह जान लेना ज़रूरी है कि ६ दिसंबर को अयोध्या में संघी नेताओं को केवल पूजा पाठ करने की अनुमति मिली थी . उत्तर प्रदेश के उस वक़्त के मुख्य मंत्री ,कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में लिख कर दिया था कि बाबरी मस्जिद को कोई नुक्सान नहीं पंहुचेगा . अपने ५ दिसंबर के भाषण में वाजपेयी उसी पूजा पाठ का हवाला दे रहे हैं . उसमें उन्होंने कहा है कि पूजा के पहले ज़मीन को समतल किया जाएगा ,सफाई की जायेगी और फिर वहां मौजूद करोड़ों लोग जो चाहेंगें करेंगें.. यानी यह कहना गलत होगा कि क वाजपेयी को मालूम नहीं था कि अयोध्या में ६ दिसंबर को क्या होने वाला है.. सारे ड्रामे में उनका रोल दिल्ली में रहकर माहौल दुरुस्त करने के था . उनको बाबरी मस्जिद के ज़मींदोज़ होने के बाद कहना था कि उन्हें बहुत तकलीफ हुई है . सो उन्होंने कहा . लेकिन उनको दोषमुक्त बता कर उदारवाद के संघी मुखौटे को छिन्न भिन्न करने की कोशिश का आर एस एस के सभी मातहत संगठन विरोध करेंगें. सवाल यह है कि क्या वाजपेयी वास्तव में उतने ही पवित्र हैं जितना दावा किया जा रहा है . बी जे पी वाले यह भी कहते पाये जा आरहे हैं कि वाजपेयी बीमार हैं लिहाज़ा उनके बारे में कोई सख्त टिप्पणी न की जाए. लेकिन जो इतिहास पुरुष होते हैं उनको इस तरह की माफी नहीं मिलती. वाजपेयी ६ साल तक भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं इसलिए उनके काम को इतिहास की कसौटी पर कसा जाएगा. .अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते देश ने जिस तरह का अपमान झेला है उसे देखते हुए तो उन्हें कभी माफ़ नहीं किया जा सकता. कंधार में आतंकवादियों के सामने घुटने टेकना और संसद पर आतंकवादी हमला उनके दो ऐसे कारनामे हैं जिसकी वजह से इतिहास और आने वाले नस्लें उन्हें कभी माफ़ नहीं करेंगीं. . उनके प्रधान मंत्री रहते , घूस के भी सारे रिकॉर्ड टूट गए.. इन घूस के कारनामों को जानने के लिये किसी जासूस की ज़रुरत नहीं है . जो साफ़ नज़र आता है उसी का ज़िक्र किया जाएगा. . उनके ख़ास रह चुके, प्रमोद महाजन ने जुगाड़ करके १२५० करोड़ रूपये में विदेश संचार निगम लिमिटेड को बेच दिया . यानी सरकारी खजाने में केवल यही रक़म जमा हुई. जिन्होंने देखा है वे बता देंगें कि इस कंपनी की दिल्ली स्थित ग्रेटर कैलाश की एक प्रोपर्टी की कीमत इस से बहुत ज्यादा होगी. इस तरह की इस कंपनी के पास पूरे देश में बहुत सारी ज़मीन है . ज़ाहिर है कि इस एक बिक्री से देश को हज़ारों करोड़ का नुकसान हुआ और वाजपेयी के शिष्य प्रमोद महाजन को भारी आर्थिक लाभ हुआ. प्रमोद महाजन के इस काम में उनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी की एक घनिष्ठ महिला मित्र के दामाद भी शामिल रहते थे. . हिमाचल प्रदेश में वाजपेयी के लिए पूरी एक पहाड़ी खरीद कर वहां एक महल बनवाया गया है . वाजपेयी को बहुत धर्मात्मा बताने वालों को चाहिए कि इस महल के बनवाये जाने के पीछे की कहानी सार्वजनिक करें. . १९८९ में बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के कथित घूस को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई बी जे पी के ६ साल के राज में १०० करोड़ रूपये तक को तो फुटकर पैसा माना जाता था . वह घूस था ही नहीं . अगर अब भी वाजपेयी को पवित्र मानने की बी जे पी कोशिश करती है तो उसका फैसला इतिहास पर छोड़ना ही ठीक होगा. वैसे वाजपेयी का इतिहास भी ऐसा नहीं है जिस पर गर्व किया जा सके. अटल बिहारी वाजपेयी ने १९४२ में ग्वालियर में दो देशभक्तों के खिलाफ अंग्रेजों की अदालत में गवाही दी थी जिसके बाद आज़ादी के उन दोनों सिपाहियों को फांसी हो गयी थी. . इनकी उम्र इन दिनों १८ साल की ही थी . उन दिनों आर एस एस अंग्रेजों के ख़ास मुखबिर के रूप में काम करता था.इसलिए वाजपयी को बहुत पवित्र बनाकर लिब्रहान आयोग की सिफारिशों को रास्ते से हटाने के एसंघ परिवार की हर कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए और देश के सभ्य समाज को आग याना चाहिए ताकि नागपुर किशान्रे पर नाचने वाल एचंद नेट अहमारे देश की धरम निरापेस्ख राजनीति को नुक्सान न पंहुचा सकें

Thursday, November 12, 2009

दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते

शेष नारायण सिंह

कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .

वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.