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Thursday, May 2, 2013

जंग मगरिब में या कि मशरिक में ,उसका विरोध किया जाना चाहिए



 
 
शेष नारायण सिंह
 
 
लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना भारत के इलाक में घुस गयी है और करीब बीस किलोमीटर अंदर आकर अपने टेंट लगा दिए हैं . गाफिल पड़े भारतीय मिलिटरी इंटेलिजेंस वालों की तरफ से तरह तरह की व्याख्याएं सुनने को मिल रही है लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय सीमा में चीनी सैनिक जम गए हैं और ताज़ा जानकारी के मुताबिक वे वहाँ से हटने को तैयार नहीं हैं .जम्मू-कश्मीर में लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में घुसे चीनी सैनिकों ने यहां अपना एक और तंबू गाड़ कर अस्थायी चौकी बना ली है.चीन के टेंट को हटाने की कूटनीतिक कोशिशें जारी हैं लेकिन  चीनी सेना फिलहाल पीछे हटने को तैयार नहीं है। दोनों पक्षों के बीच तीन बार फ्लैग मीटिंग होने के बावजूद चीन अपने रुख पर अड़ा हुआ है। इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बजाय चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र में और भीतर तक बढ़ने की कोशिश में हैं। सूत्र बताते हैं कि घुसपैठ कर रहे चीनी  सैनिकों के पास आधुनिक हथियार  हैं और वे वापस जाने के लिए नहीं आये हैं . यू पी ए के मुख्य सहयोगी समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा में लद्दाख क्षेत्र में  चीनी  घुसपैठ के मुद्दे को बहुत जोर शोर से उठाया .उन्होंने कहा कि  डॉ राम मनोहर लोहिया ने आज़ादी के बाद ही जवाहर लाल नेहरू को चेतावनी  दे दी थी कि चीन के इरादों से चौकन्ना रहें लेकिन नेहरू ने उनकी बात को तवज्जो नहीं दी . और चीन से दोस्ती का राग जारी रखा . जब तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाइ भारत आये थे तब भी डॉ लोहिया ने उनकी मंशा पर नज़र रखने को कहा था लेकिन जवाहरलाल नेहरू उन दिनों पंचशील की बात पर अड़े हुए थे . जब १९६२ में चीन ने  हमला कर दिया तब नेहरू की आँखें खुलीं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और चीन ने भारत को पीछे हटने को मजबूर कर दिया था . मौजूदा चीनी कार्रवाई के बारे में मुलायम सिंह यादव ने कहा कि सरकार इस मामले में हाथ में हाथ धरे बैठी है.उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार घुसपैठ की समस्या से निपटने में कायरों की तरह काम कर रही है.उन्होंने चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बताया और कहा कि पाकिस्तान हमारा दुश्मन नहीं है .उन्होंने कहा कि हम कई वर्षों से  चेतावनी दे रहे हैं कि चीन ने हमारे क्षेत्र पर कब्जा करना शुरू कर दिया है. लेकिन सरकार है कि सुनने को तैयार नहीं है.”मुलायम सिंह यादव ने कहा सेना चीन को खदेड़ने के लिए तैयार है लेकिन सरकार की तरफ से इस मामले में भी ढिलाई बरती  जा रही है . मुलायम सिंह ने दावा किया  कि “ये सरकार कायर, अक्षम और बेकार है.” साथ ही उन्होंने खुर्शीद के चीन की यात्रा पर जाने के माले में भी सवाल उठाए. चीन के प्रधानमंत्री की अगले महीने होने वाली भारत यात्रा की तैयारियों के सिलसिले में खुर्शीद नौ मई को चीन जा रहे हैं.उन्होंने कहा कि जब चीन हमारे क्षेत्र में घुस रहा है क्या विदेश मंत्री चीन के दौरे पर भीख मांगने जा रहे हैं .मुलायम सिंह यादव ने सरकार से यह भी कहा कि जब सेना प्रमुख कह रहे हैं कि वे चीनियों को वापस खदेड़ने के लिए तैयार हैं तो  सरकार क्यों नहीं क़दम उठाती . मुलायम सिंह को यह पता होना चाहिए कि अगर सरकार फौज के ज़रिये सीमा की समस्या का हल निकालने की कोशिश करेगी तो युद्ध होगा और डॉ राम मनोहर लोहिया कभी भी युद्ध के पक्ष में नहीं थे. वे हमेशा शान्ति पूर्ण तरीके से ही समस्या का हल निकालने के पक्ष धर रहे . क्योंकि जंग मगरिब में या कि मशरिक में ,खून गरीब इंसान का ही बहता है . सत्ताधीश तो खून बहाने के बाद शान्ति समझौते करते नज़र आते हैं . १९६२ की लड़ाई के बाद भारत और चीन के सम्बन्ध बहुत बिगड गए थे . दोनों देशों के बीच में कूटनीतिक सम्बन्ध भी खत्म हो गए तह लेकिन जब अमरीका ने हेनरी कीसिंजर के दौर में चीन से  दोस्ती बढानी शुरू की तो  बाकी दुनिया में भी माहौल बदला और भारत ने चीन के साथ दोबारा १९७६ में कूटनीतिक सम्बन्ध कायम कर लिया लेकिन दोनों देशों के बीच जो चार हज़ार किलोमीटर की सीमा है उसमें जगह जगह पर विवाद के मौके पैदा होते रहते हैं . चीन के १९६२ के हमले के पचास साल बाद भी आज दोनों देशों के बीच सीमा का विवाद  कहीं से भी हल होता नज़र नहीं आता .सीमा के  इलाकों में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां दोनों ही देश अपनी दावेदारी की बात करते  हैं. लद्दाख में  बहुत बड़े भारतीय भूभाग पर चीन का कब्जा है . वह उसको अपना बताता है और उसका दावा है कि बाकी लद्दाख भी उसी के पास होना चाहिए . अरुणाचल प्रदेश को भी चीन अपना बताता है और सारी दुनिया में कहता फिरता है कि भारत ने उसके इलाके पर कब्जा कर रखा है . अरुणाचल के विवाद की जड़ में पूर्वी भाग की करीब नौ सौ  किलोमीटर की सीमा पर झगडा है . करीब सौ साल पहले १९१४ में सर हेनरी मैकमोहन ने तिब्बत और ब्रिटेन के बीच इस विवाद को सुलझा देने का दावा किया था .तिब्बत  तब एक स्वतन्त्र देश हुआ करता था .आजकल तो चीन का कब्जे में है .जो सीमा रेखा तय हुई थी उसको ही आज मैकमोहन लाइन कहते हैं .जब ब्रिटेन और तिब्बत के बीच सीमा की बातचीत चल रही थी तो भारत तो पूरी तरह से ब्रिटेन के अधीन था .ज़ाहिर है कि उसका हित ब्रिटेन ही देख रहा था . और ब्रिटेन एक ताक़तवर साम्राज्य था इसलिए उस विवाद को सुलझाने में सर हेनरी मैकमोहन ने चीन को भी केवल आब्ज़र्वर की हैसियत ही दी थी ,उसको विचारविमर्श में शामिल नहीं किया था. मैकमोहन लाइन की एक खास बात यह भी है कि वह बहुत मोटी निब वाले कलम से मार्क की गयी थी जिसकी वजह से  गलती का मार्जिन १० किलोमीटर तक का है . ८९० किलोमीटर की सीमा में अगर १० किलोमीटर का गलती का मार्जिन है तो वह करीब ८९०० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को विवाद की ज़द में तुरंत ही स्थापित कर देता है .उत्तराखंड के इलाके में भी भारत और चीन का सीमा विवाद होता ही रहता है क्योंकि बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहां भारतीय और चीनी सैनिक पंहुच ही नहीं सकते . नतीजा यह होता है कि सेना के साथ काम करने वाले कुत्तों का इस्तेमाल ही अपनी सीमाओं को रेखांकित करने के लिए किया जाता है .भारत और चीन के बीच में कई बार ऐसे माहौल को देखा गया है जैसा कि आजकल बना हुआ है . एक बार तो १९८६ में ऐसा लगने लगा था कि उत्तरी तवांग जिले में फौजें भिड जायेगीं . भारत ने भी अपने करीब दो लाख सैनिक वहाँ भेज दिया था लेकिन बात संभल गयी . सच्चाई यह है कि दोनों देशों के बीच में १९६२ की लड़ाई के बाद बहुत ही तल्ख़ रिश्ते बन गए थे और १९६७ तक कभी कभार सीमा पर तैनात दोनों देशों के सैनिकों के बीच गोली भी चल जाया करती थी लेकिन १९६७ के बाद दोनों देशों के बीच एक भी गोली नहीं चली है . १९६२ की अपमानजनक हार के बाद भारत में चीन को लेकर बहुत चिंताएं हैं . चीन के साथ किसी तरह की  दोस्ती की बात को आगे बढ़ा पाना भारतीय राजनेताओं के लिए लगभग असंभव होता है .लेकिन दोनों देशों के बीच के झगडे को खत्म करने का एक ही तरीका है कि भारत और चीन यह बात स्वीकार कर लें कि जो जहां है वहीं ठीक है . भारत के बहुत बड़े भूभाग पर चीन का कब्जा है . कश्मीर और लद्दाख में कई जगहों पर चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर भारतीय ज़मीन पर कब्जा कर रखा है . चीन दावा करता है कि अरुणाचल प्रदेश समेत एक बड़ा हिस्सा उसका है जिसपर भारत का  कब्जा है .ज़ाहिर है  कि दोनों ही  देश सैनिक ताक़त में बहुत मज़बूत हैं . दोनों ही परमाणु हथियार संपन्न देश हैं और आर्थिक ताक़त भी बन रहे हैं . न चीन भारत को हडका सकता है और न ही चीन भारत से डरने वाला है . ज़ाहिर है दोनों देशों के विवाद को हल करने में सेना का  कोई योगदान नहीं होगा . जो भी हल निकलेगा वह बातचीत से ही निकलेगा . और बातचीत में सहमति का सबसे मज़बूत आधार स्टेट्स को यानी यथास्थिति को बनाए रख कर समझौता करना ही हो सकता है . इस तरह का प्रस्ताव अस्सी के दशक में चीन के प्रधानमंत्री डेंग शाओपिंग दे भी  चुके हैं लेकिन भारत में यथास्थिति को बरकरार रख कर कोई समझौता करने वाली पार्टी और उसका नेता राजनीतिक रूप से समाप्त हो जाएगा . इन खतरों के बावजूद  2003 में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने पहल की और वाजपेयी सरकार ने यथास्थिति के सिद्धांत का पालन करते हुए शान्ति स्थापित करने की कोशिश शुरू की . चीन ने भी जो ज़मीन भारत के पास  है उसको भारत का मानने की  नीति पर काम करना शुरू कर दिया. दोनों देशों ने  इस काम के लिए विशेष दूतों की तैनाती की और बातचीत का सिलसिला चल पड़ा .अब तक इस सन्दर्भ में दो दर्ज़न से ज्यादा बैठकें हो चुकी हैं .२००५ में एक समझौता भी हुआ जिसमें संभावित अंतिम समझौते के दिशा निर्देश और राजनीतिक आयाम को शामिल किया गया है .इस समझौते में यह भी लिखा है कि आबादी का विस्थापन  नहीं होगा. इसका मतलब यह हुआ कि चीन तवांग जिले पर अपनी दावेदारी को भूलने को तैयार था. लेकिन बाद में सब कुछ बिगड गया . चीन ने मीडिया और अपने नेताओं के ज़रिये अजीबोगरीब बातें करना शुरू कर दिया और कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों के लिए अलग तरह  का वीजा देना शुरू कर दिया . जिसके कारण रिश्ते खराब होते गए . चीन ने सीमा के पास बहुत  ही अच्छी सड़कें बना ली हैं और भारत ने भी असम के आसपास अपनी सैनिक मौजूदगी को और पुख्ता किया है . दोनों देशों के बीच जो अविश्वास का माहौल बना है उसके चलते सब कुछ गडबड होने की दिशा में पिछले कई वर्षों से चल रहा है और लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेकटर में चीनी सैनिकों का आगे बढ़ कर अपने  टेंट लगा देना उन्हीं  बिगड़ते रिश्तों का एक नमूना है . लेकिन बिगड़ते रिश्तों को ठीक करने की कोशिश की जानी चाहिए ,उसके लिए हर तरह के प्रयास किये जाने चाहिए क्योंकि दोनों देशों के बीच अगर युद्ध की  स्थिति बनी तो खून तो गरीब आदमी का ही बहेगा .

Tuesday, March 26, 2013

बीजेपी और समाजवादी पार्टी में दूरियां घट रही हैं .




शेष नारायण सिंह
मुंबई, २४ मार्च .सत्ता की राजनीति में बड़े पैमाने पर मंथन चल रहा है .बीजेपी के नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी  राष्ट्रीय राजनीति में धमाकेदार इंट्री ली हैं .आम तौर पर माना जा रहा है की बीजेपी वाले उनको ही आगे  करके कांग्रेस के खिलाफ मोर्चेबंदी करेंगे .हिंदुत्व का  राजनीतिक इस्तेमाल उत्तर  प्रदेश में ही शुरू हुआ था. बाद में नरेंद्र मोदी ने उसका गुजरात में सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया . मुसलमानों का खौफ पैदा करके वहाँ के हिंदुओं को एक किया और लगातार चुनाव जीतने  का  रिकार्ड बनाया .आज पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उसी माडल को लागू करने की कोशिश की जा रही है . बीजेपी के नेता अभी तो न नुकुर कर रहे हैं लेकिन ईमान है कि आने वाले वक़्त में मोदी की ताक़त भारी पड़ेगी और  धार्मिक ध्रुवीकरण को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की राजनीति आर एस एस की मंजूरी के साथ लोकसभा २०१४ में इस्तेमाल की जायेगी. 
हिंदुत्व  को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने की बीजेपी की कोशिश में उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी अड़चन मुलायम सिंह यादव की पार्टी रही है.अगर कहा जाए कि  लाल कृष्ण आडवानी के हिंदुत्व के अभियान को मुलायम सिंह यादव ने रोक दिया था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. हिंदुत्व के राजनीतिक इस्तेमाल की उनकी मंशा के खिलाफ मुलायाम सिंह यादव चट्टान की तरह खड़े हो गए थे . उसका उनको राजनीतिक लाभ भी मिला. पिछले बीस वर्षों में कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनी और केन्द्र में भी रक्षा मंत्री तक की पोजीशन तक पंहुचे .उन्होंने हमेशा कहा है कि लाल कृष्ण आडवानी इतिहास की गलत व्याख्या करते  हैं .खास तौर पर अयोध्या की बाबरी मसजिद के बारे में तो लाल कृष्ण आडवानी की हर बात को मुलायम सिंह यादव ने गलत बताया है लेकिन लखनऊ की एक सभा में उन्होंने ऐलान किया  कि लाल कृष्ण आडवानी कभी झूठ नहीं बोलते . उस सभा में मुलायाम सिंह यादव के प्रशंसक  इकठ्ठा हुए थे लेकिन जब   मुलायम सिंह यादव 
ने आडवाणी की तारीफ़ के पुल बांधना शुरू किया तो उन लोगों को अपने कानों पर 

विश्वास ही नहीं हुआ .मुलायम सिंह यादव ने कहा कि लाल कृष्ण आडवाणी जैसे 


बड़े नेता ने उनसे कहा है कि वह चाहते हैं कि सूबे में सपा की सरकार चले लेकिन 

उप्र में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है। बकौल मुलायम 'यदि आडवाणी ऐसा कह रहे हैं तो 

हमें निश्चित समीक्षा करनी चाहिए। आडवाणी कभी झूठ नहीं बोलते।' मुलायम सिंह 

यादव के इस बयान को राजनीतिक विश्लेषक भूलवश दिया गया बयान नहीं मानते. 

ऐसा लगता है कि  समाजवादी पार्टी में बीजेपी को लेकर गंभीर विचार मंथन चल 

रहा है .अभी कुछ दिन पहले पार्टी के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण नेता राम गोपाल यादव 

ने बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की तारीफ़ की थी और कहा था 


कि अगर उनकी सरकार के ऊपर २००२ के गोधरा के बाद के नर संहार का दाग न 


लगा होता तो वे डॉ मनमोहन सिंह से बहुत अच्छे प्रधान मंत्री थे. उन्होंने कहा  था 

कि अटल जी और डॉ मनमोहन सिंह में कोई तुलना नहीं की जा सकती .

इसके अलावा भी समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच बढ़ रही नजदीकियां और भी अवसरों पर देखी गयी हैं . राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान लोकसभा में सपा और भाजपा के बीच नए समीकरणों के संकेत दिखे। मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के सामने दोनों दलों के बीच दूरी  कम करने का एक  फार्मूला पेश किया .बीजेपी के देशभक्ति, सीमा और भाषाई मुद्दों से शत-प्रतिशत सहमति जताते हुए मुलायम सिंह ने कहा कि यदि मुसलिम और कश्मीर मुद्दे पर वे अपनी नीति बदल लें तो उनके-हमारे बीच की दूरी कम हो जाएगी। जवाब में राजनाथ ने दोनों दलों के बीच दूरियां होने की बात को नकारते हुए भविष्य में साथ आने के संकेत भी दे दिए. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बुधवार को विपक्ष की तरफ से चर्चा की शुरुआत करते हुए राजनाथ ने किसानों, गरीबों की बात की तो वह मुलायम सिंह यादव बहुत प्रभावित हुए . मुलायम सिंह ने राजनाथ की ओर मुखातिब होकर कहा कि देशभक्ति, सीमा मामलों और भाषा पर हमारी व बीजेपी की नीति एक ही है बीच की दूरी कम हो जाएगी .उनकी इस बात पर बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उठकर हमारे और आपके बीच में दूरी कहां है? अगली बार निश्चित तौर पर आप हमारे साथ होंगे। मुलायम ने भी जोर देकर दोबारा कहा, मैं फिर कह रहा हूं और इस सदन में कह रहा हूं कि भाजपा अपनी नीति बदल रही है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सत्ता की इस करवट का मतलब समझ में आना शुरू तो हो गया है लेकिन आने वाले दिनों में इसके संकेत और साफ़ हो जायेगें .और अगर यह तय हो गया कि समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच दोस्ती बढ़ रही है तो उत्तर प्रदेश में राजनीति का खेल बिलकुल बदल जाएगा 

उत्तर प्रदेश सरकार की नाकामी का खामियाजा २०१४ में भुगतना पड़ सकता है .





शेष नारायण सिंह 

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने  उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मंत्रियों को आइना दिखाने की कोशिश की .उन्होंने साफ़ कहा कि राज्य में पिछले एक साल में हालात बहुत बिगड गए हैं .उन्होंने सबसे पहले अपने बेटे और राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ही नसीहत दी और कहा कि  अखिलेश के बारे में यह बहुत मशहूर हो गया है कि वे बहुत सीधे आदमी हैं  लेकिन सिधाई से राज नहीं चलता . सख्ती बरतनी पड़ेगी क्योंकि सत्ता में आने पर अपराधियों, अफसरों , माफिया आदि से सामना होता है और उनको दुरुस्त रखने के लिए सख्ती से काम लेना पडेगा . उन्होने साफ़ कहा कि राज्य में कानून व्यवस्था की हालत बहुत ही खराब है . कुल मिलाकर मुलायमसिंह यादव ने अपनी पार्टी की ऐसी आलोचना की जैसी कि किसी विपक्षी पार्टी ने भी नहीं की थी .
 
सवाल यह उठता है कि मुलायम सिंह यादव इतने गुस्से में क्यों  हैं . एक साल पहले बहुत ही खुशी खुशी उन्होने अपने बेटे को सत्ता सौंपी थी और उम्मीद जताई थी कि करीब दो साल बाद जब लोक सभा के चुनाव होंगें तो  समाजवादी पार्टी को लोक सभा में करीब ५० सीटें मिल जायेगीं . अगर ५० सीटें मिल जातीं तो उनके बल पर कांग्रेस या बीजेपी , कोई भी उन्हें प्रधान मंत्री बनाने के पेशकश कर सकता था . लेकिन आज साल भर बाद मुलायम सिंह यादव की पारखी नज़र ने भांप लिया है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उनकी पार्टी को उतनी सीटें भी नहीं मिलेगीं जितनी २००९ में मिली थीं. राज्य सरकार ही समाजवादी पार्टी की जीत या हार को सुनिश्चित करने का सबसे बड़ा जरिया है . और जब राज्य सरकार  की हालत खस्ता है तो उसके हवाले से २०१४ जीतना बिलकुल असंभव है. ऐसी हालत में मंत्रियों को सार्वजनिक रूप से फटकार कर उन्होने हालात को ठीक  करने की कोशिश की है .लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि वे स्थिति को कितना सुधार पाते हैं .

मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव और उनकी सरकार को फटकार कर यह बात तो बहुत साफ़ शब्दों में बता दिया है कि हालात में सुधार लाने की  ज़रूरत है लेकिन एक सच्चाई और है और वह यह कि उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार में अखिलेश यादव केवल मुख्यमंत्री हैं  . बाकी सभी कैबिनेट मंत्री वे हैं जो अखिलेश यादव को बच्चा समझते हैं और मुलायम सिंह यादव के भरोसे के लोग हैं . जब यह सरकार बनी थी तो  लोगों ने उम्मीद जताई थी कि अखिलेश यादव आधुनिक शिक्षा से लैस नौजवान हैं और वे सरकार में नए विचार लायेगें और उन विचारों के बल पर एक नए उत्तर प्रदेश का निर्माण होगा  लेकिन मुलायम सिंह यादव के साथ काम  कर चुके ज़्यादातर मंत्रियों ने आखिलेश की एक न सुनी और सबने अपने मंत्रालय को अपनी ज़मींदारी की तरह चलाना शुरू कर दिया . कानून व्यवस्था पर भी मुलायम सिंह यादव खासे  नाराज़ हैं . लेकिन सच्चाई यह है कि अखिलेश यादव जिस  पुलिस अफसर को राज्य पुलिस का नेतृत्व देना चाहते थे , उसको मौक़ा न देकर नेताजी ने अपने प्रिय अफसर को पुलिस की कमान सौंप दी.अगर आज कानून व्यवस्था की हालत खराब है तो उसके लिए  खराब पुलिस प्रशासन  ज़िम्मेदार  हैं . जहां तक अफ़सरों की तैनाती की बात है  उसमें भी अखिलेश यादव की बहुत नहीं चलती. उनके  अपने सचिवालय में ऐसे कई अफसर तैनात हैं जिनको नेताजी ने सीधे तौर पर नियुक्त किया है . ज़ाहिर है वे लोग भी आखिलेश यादव की नहीं सुनते. नोयडा में कुछ अफसरों की नियुक्ति के मामले में हाई कोर्ट के बार बार दखल देने ले बाद भी उनको वहाँ से तब हटाया गया जब लगा कि सरकार के ऊपर ही मानहानि का मुक़दमा चल जाएगा. बताते  हैं कि राज्य सरकार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर एक ऐसे अफसर को तैनात कर दिया गया है जिसको कि कोर्ट के आदेश पर बाकायदा जेल की सज़ा हो चुकी है . तो ऐसी हालत में राज्य सरकार की असफलता का सारा ज़िम्मा अखिलेश यादव पर डाल  देना नाइंसाफी होगी. अगर मुलायम सिंह यादव चाहते हैं कि अखिलेश यादव पूरी जिम्मेवारी से अपना काम करें तो उनको मंत्रियों और अफसरों की तैनाती में खुली छूट देनी होगी वर्ना बहुत देर हो जायेगी .

मुलायम सिंह यादव ने जो आज लखनऊ में सार्वजनिक रूप से कहा  है वही बात उन्होंने इस रिपोर्टर को कई दिन पहले संसद भवन के अपने कमरे में बतायी थी जिसे कई अखबारों ने छापा भी था . मुलायम सिंह यादव का कहना है २०१४ का चुनाव बहुत ही गंभीरता से लड़ा जाएगा. उन्होंने बताया कि संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद वे निकल पड़ेगें और पूरे राज्य में  जनसंपर्क शुरू कर देगें . वे संसद का सत्र खत्म होते ही हर मंडल में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायेगें और उनसे व्यक्तिगत संपर्क करेगें . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने उनको आगाह किया था कि अब हर कस्बे में जाने की ज़रूरत नहीं है . उनकी सलाह थी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनको वहीं जाना चाहिए जहां समाजवादी पार्टी की राज्य इकाई वाले जाने को कहें . लेकिन उन्होंने  राज्य स्तर के अपने पार्टी के नेताओं खासी नाराजगी जताई और कहा कि जो विधायक बन गए हैं वे अब अपने क्षेत्रों में नहीं जा रहे हैं .जो लोग मंत्री बन गए हैं .वे भी तो विधायक ही  हैं लेकिन सब लोग लखनऊ में जमे रहते हैं और जनता से संपर्क नहीं रख रहे हैं . इस कारण से पार्टी का बहुत नुक्सान हो रहा है . उन्होने उन संसद सदस्यों के प्रति भी नाराजगी जताई जो कार्यकर्ताओं को दिल्ली बुला लेते हैं और उनको संसद के अंदर आने  का पास बनवा देते हैं . नतीजा यह होता है कि वे लोग संसद भवन के मुलायम सिंह यादव के कार्यालय के  बाहर आकर खड़े हो जाते हैं . यह ठीक नहीं है. वे चाहते हैं  कि पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें लखनऊ में ही मिलें .

मुलायम  सिंह यादव की यह चिंता इसलिए भी है कि उत्तर प्रदेश में आगामी लोक सभा चुनाव  धार्मिक ध्रुवीकरण की बीजेपी की कोशिश की छाया में लड़ा जाएगा . अगर बीजेपी ने वरुण गांधी, उमा भर्ती, कल्याण सिंह और नरेंद्र मोदी जैसे लोगों के जयकारे के साथ चुनाव लड़ा तो यह बात लगभग पक्की है कि मुलायम सिंह यादव को मुसलमानों के वोट नहीं मिलेगें. और अगर मुसलमानों के वोट थोक में कांग्रेस के पास  चले गए तो मुलायम सिंह यादव की सीटें लोक सभा में मौजूदा सीटों से भी कम  हो जायेगीं. पिछली बार २००९ में यह सीटें इसलिए मिली थीं कि राज्य की एक बहुत बड़ी आबादी मायावाती को हराना चाहती थी. इस बार ऐसा नहीं है . इस बार तो ऐसे बहुत लोग मिल जायेगें जो मौजूदा सरकार के काम काज से बहुत निराश हैं और  वे इस सरकार के अलावा किसी और को वोर दे सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मुलायम सिंह यादव और  उनकी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल  हो जायेगी . 

Saturday, March 23, 2013

डी एम के की केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी के बाद के सवाल



शेष नारायण सिंह

डी एम के नेताएम करूणानिधि ने यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेकर राजनीतिक सरगर्मियां  बढ़ा दी हैं . तमिलनाडु में श्रीलंका के तमिलों के समर्थन में लोकप्रिय आंदोलन चल रहा है .ऐसी हालात में राज्य की किसी भी पार्टी के लिए ऐसी किसी सरकार के साथ खड़े रहना बहुत नुक्सानदेह साबित होगा जो श्रीलंका सरकार से किसी तरह से भी सहानुभूति रखती देखी जाए. जानकार बताते हैं कि समर्थन वापसी की राजनीति करूणानिधि की एक राजनीतिक चाल है और जैसा कि उनके बारे में सबको मालूम है वे अक्सर राजनीतिक सौदेबाजी कर रहे होते हैं. इस बार ऐसा नहीं लगता . तमिलों के प्रति केन्द्र सरकार के रुख से तमिलनाडु में नाराज़गी है .आमतौर पर माना जा रहा था कि चुनाव करीब आने पर डी एम के वाले केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी का ड्रामा करेगें लेकिन इतनी जल्दी कर देगेंइसकी उम्मीद नहीं थी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केन्द्र सरकार के साथ बने रहने में डी एम को कोई राजनीतिक लाभ नहीं होगा जबकि उसका साथ छोड़ देने से तमिलनाडु की सडकों पर  श्रीलंका  के तमिलों के साथ सहानुभूति प्रकट कर रही जनता के साथ सम्मिलित होने का मौक़ा मिल जाएगा. वहाँ की जयललिता सरकार भी अलग थलग पडी हुई है और उसकी असुविधा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने की रणनीति के तहत एम करुनानिधि ने  यह फैसला लिया है .उनकी समर्थन वापसी से केन्द्र सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है . समर्थन वापसी की बात शुरू होने के साथ साथ यू पी ए को बाहर  से समर्थन दे रही उत्तर प्रदेश की दोनों ही पार्टियों ने ऐलान कर दिया कि उनका समर्थन जारी रहेगा. ज़ाहिर है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के समर्थन के सुनिश्चित हो जाने के बाद केन्द्र सरकार अपना कार्यकाल बिता लेगी.  हाँ नए घटनाक्रम का एक नतीजा यह हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव को खुश रखने के लिए  कांग्रेस पार्टी अपने नेता और केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से निकाल दे. बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से बाहर कर देने में कांग्रेस का कोई राजनीतिक घाटा नहीं होगा क्योंकि सबको मालूम है कि बेनी बाबू की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है . अभी साल भर पहले हुए विधान सभा चुनावों में उन्होने एक सौ से ज्यादा लोगों को चुनकर विधान सभा का टिकट दिया था और किसी को नहीं जितवा पाए. यहाँ तक कि उनके अपने बेटे को भी चुनाव में  हार का सामना करना पड़ा था.बेनी प्रसाद वर्मा की राजनीतिक ताक़त की कोई खास अहमियत नहीं है और अगर उनको हटाकर समाजवादी पार्टी के २२ सदस्यों का समर्थन हासिल किया जा सकता है तो यह सौदा किसी तरह से भी घाटे का नहीं माना जाएगा. 
ऐसी स्थिति में लोक सभा चुनाव २०१४ के पहले  होने की संभावनाओं पर फिर चर्चा शुरू हो गयी है . इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि चुनाव  कब होंगें क्योंकि जब भी चुनाव होंगे राजनीतिक पैरामीटर अब तय हो चुके हैं . बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चुनाव लड़ा जाना लगभग पक्का हो गया है . दिल्ली में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक अक्सर यह कहते पाए जाते  हैं कि बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह  नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं हैं . यह बात सच नहीं है . राजनाथ सिंह ने खुद कहा है कि बीजेपी का सबसे लोकप्रिय नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी हैं . उनका कहना  है कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की कोई  महत्वपूर्ण मौजूदगी नहीं है ,वहाँ भी नरेंद्र मोदी को  पसंद करने वालों की बड़ी संख्या है . तमिलनाडु जैसे राज्य में भी मोदी के प्रशंसक हैं . ऐसी हालत में लगता है कि २०१४ के चुनाव में नरेंद्र मोदी  ही प्रमुख होंगें और उनको राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी के वे बड़े नेता जिनका  कोई ज़मीनी काम नहीं है, उनका कोई महत्व वैसे भी नहीं है . और जब राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी में सहमति रहेगी तो बीजेपी में किसी भी नेता के लिए मोदी का विरोध कर पाना बहुत मुश्किल होगा. हाँ यह हो सकता है कि नरेंद्र मोदी  को अभी प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में न पेश किया जाए ,अभी उनको प्रचार कमेटी के मुखिया या और इसी तरह के किस किसी फैंसी पद के साथ चुनाव  का संचालन का ज़िम्मा दिया जाए लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि अगले चुनाव में नरेंद्र मोदी ही बीजेपी के कर्णधार होंगे और उनको पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी को उम्मीद है कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के नाम पर लहर चल पड़ेगी और कांग्रेस का उसी तरह से सफाया हो जाएगा जैसा १९७७ में हो गया था.

राजनाथ सिंह की इस बात में दम हो सकता है कि नरेंद्र मोदी  के समर्थक पूरे भारत में हैं .लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नरेंद्र मोदी के विरोधी भी पूरे भारत में हैं जहां तक मुसलमानों का सवाल है वे तो नरेंद्र मोदी को किसी भी सूरत में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं लेकिन गैर मुस्लिम आबादी में भी बीजेपी और नरेंद्र मोदी के विरोधियों की संख्या कम  नहीं है . नरेंद्र मोदी के विरोधी निश्चित रूप से आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगें. और देश की राजनीति के लिए यह समझ लेना ज़रूरी है कि अपनी धार्मिक पहचान वाली राजनीति के साथ नरेंद्र  मोदी देश की राजनीति को कहाँ तक प्रभावित करते हैं . नरेंद्र मोदी के बीजेपी के मुख्य चुनाव प्रचारक या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होने में सबसे दिलचस्प लड़ाई उत्तर प्रदेश  में ही होगी . कांग्रेस को उम्मीद है कि अगर नरेंद्र मोदी मुख्य नेता के रूप में आगे आये तो उत्तर प्रदेश में उसको फिर अच्छी सीटें मिल जायेगीं . जो कांग्रेस  पार्टी उत्तर प्रदेश के २००७ और २०१२ के विधान सभा चुनावों में सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में सामने आती है , वही पार्टी २००९ के लोक सभा चुनावों में राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से भारी क्यों पड़ती है . यह एक  ऐसी पहेली है जिसमें आगामी लोक सभा चुनावों के नतीजों का भेद छुपा है . उत्तर प्रदेश में कई जिलों में मुसलमानो की बड़ी संख्या है . वे आम तौर पर मुलायम सिंह यादव को वोट देते हैं .उनको भरोसा है कि समाजवादी पार्टी उनके हित का पूरा ध्यान रखेगी.लेकिन उनको यह भी मालूम है कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी की उत्तर प्रदेश के बाहर कोई खास मौजूदगी नहीं है . वे चाहकर भी  केन्द्र में नरेंद्र मोदी या बीजेपी की सरकार बनने से नहीं रोक सकते . केन्द्र में बीजेपी के खिलाफ बड़ी राजनीतिक जमात तैयार करने के लिए ही २००९ में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दे दिया था.  कांग्रेस को इस बार भी  यही उम्मीद है . मुसलमानों के अलावा देश में  बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो राजनीति से धर्म  को अलग रखना चाहते हैं . वे भी अक्सर बीजेपी के  खिलाफ ही वोट डालते हैं . यह अलग बात है कि लालकृष्ण आडवानी से लेकर छोटे कार्यकर्ताओं तक बीजेपी वाले आजकल अपने आपको सेकुलर कहने लगे हैं . उनकी बातों को बहुत सारे लोग सच भी मानते हैं . और देश के कई हिस्सों में तो मुसलमानों में भी  यह बात मानी जाने  लगी है कि बीजेपी भी मुसलमानों को वह  नुक्सान नहीं पंहुचायेगी जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है . इसी सोच के तहत देश के कई इलाकों में मुसलमानों ने भी बीजेपी को वोट दिया है  लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन सकने की संभावना के बाद तस्वीर एकदम  बदल जायेगी.  गोधरा हादसे के बाद हुए मुसलमानों एक नरसंहार के बारे में अब बहुत जयादा बात नहीं  होती लेकिन सब को मालूम है कि नरेंद्र मोदी  की उस कांड में क्या भूमिका थी. उसी का नतीजा है कि सारे देश में सेकुलर जमातें  मोदी के खिलाफ लामबंद हो जायेगीं . यह भी सच है कि जो भी बीजेपी के  साथ देखा जाएगा उसको सेकुलर जमातों  का वोट नहीं मिलेगा और मुसलमान  तो किसी भी सूरत में बीजेपी के किसी साथी को वोट नहीं देगा. डी एम के ने जब केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी की बात की तो बीजेपी के एक प्रवक्ता की बड़ी दिलचस्प टिप्पणी सुनने को मिली. उन्होंने कहा कि यू पी ए के सभी साथी उसका साथ छोड़ रहे हैं और अब यू पी ए बिलकुल अकेला पड़ जाएगा . लेकिन यही बात तो बीजेपी के बारे में भी सच है . करीब २४ पार्टियों के सहयोग से बीजेपी की सरकार १९९९ में बनी थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने थे .  धीरे धीरे वे सभी पार्टियां बीजेपी का साथ छोड़ गयीं . आज उनके साथ केवल शिवसेना और अकाली दल ही मौजूद हैं. नीतीश कुमार की पार्टी टेक्नीकल तौर पर तो उनके साथ है लेकिन कितनी साथ  है ,यह सबको मालूम है . २००४ के चुनावों में एक बहुत ही अजीब सच्चाई से राजनीतिक पार्टियों का सामना हुआ था . जिन लोगों ने सेकुलर वोट की मदद से अपने  राज्यों में सीटें हासिल की थीं  और दिल्ली आकर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधान मंत्री बनवा दिया था वे सब जीरो हो गए थे . इसलिए अब यह माना जाता है कि सेकुलर वोट  की उम्मीद में जो भी राजनीतिक दल हैं . वे बीजेपी के साथ कभी नहीं जायेगें. चन्द्र बाबू नायडू, ममता बनर्जी , फारूक अब्दुल्ला आदि ऐसे कुछ नाम हैं जिन्होंने दोबारा सेकुलर वोट हासिल करने की क्षमता विकसित कर ली है जिसे वे शायद दुबारा न खोना  चाहें . ऐसी हालत में बीजेपी के राजनीतिक ध्रुवीकरण की  कोशिश का फायदा बीजेपी को तो होगा ही, कांग्रेस को भी होगा . क्योंकि जो लोग देश में धर्म निरपेक्ष राजनीति के समर्थक हैं उनके  सामने बीजेपी के विरोध में खड़ी कांग्रेस के अलावा किसी और के साथ जाने का  रास्ता नही बचेगा  . डी एम के नेता एम करूणानिधि ने सरकार से समर्थन वापसी की बात शुरू करके एक बार से फिर से देश के सामने मौजूद बड़े राजनीतिक सवालों को जिंदा कर दिया है .

Monday, August 20, 2012

मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के सर्वमान्य राजनीतिक नेता हैं .




शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश में बहुत साल  बाद पहली बार स्पष्ट बहुमत की सरकार २००७ में बनी थी जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गयी थीं. पांच साल तक उन्होंने एकछत्र राज किया जिसका नतीजा यह हुआ कि जनता ऊब गयी और उसने २०१२ में उनकी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंप दी. समाजवादी पार्टी की साफ़ जीत में मायावती की अलोकप्रियता एक महत्वपूर्ण कारण है लेकिन उनकी जीत नकारात्मक नहीं है. मायावती को स्पष्ट बहुमत देकर जो उम्मीदें एक समाज के रूप में उत्तर प्रदेश की जनता ने पालीं थीं, वे कहीं भी पूरी नहीं हुईं. उन्हीं उम्मीदों को फलीभूत करने के लिए इस बार उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंप दी है . स्पष्ट बहुमत की सरकार के गठन में राज्य के मुसलमानों का योगदान बहुत ज़्यादा है . पूरे राज्य में  मुसलमानों ने एकजुट होकर समाजवादी पार्टी को वोट दिया . ऐसा शायद इसलिए था कि मायावती के बारे में सबको मालूम है  कि २००७ के पहले वे जब भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, उनको आर एस एस और बीजेपी ने ही समर्थन किया था . इस बार भी चर्चा थी कि अगर कुछ सीटें कम पड़ गयीं तो मायावती को बीजेपी सत्ता तक पंहुचा सकती थी.  ज़ाहिर है राज्य की धर्मनिरपेक्ष ताक़तों के सामने इस बार डबल चुनौती थी . एक तो यह कि बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना है और दूसरा कि मायावती को भी सत्ता से बेदखल करना है क्योंकि अगर इस बार मायावती बीजेपी के समर्थन से सत्ता में आयीं तो  साम्प्रदायिक ताक़तों को ज़बरदस्त उछाल मिलेगा और इस बात की आशंका चारों तरफ थी कि कहीं गुजरात के २००२ जैसा माहौल न बनाया जाए . इसका  कारण यह है कि अब बीजेपी में जो थोड़े बहुत लिबरल नेता हैं वे हाशिये पर हैं और पार्टी के एक बड़े ताक़तवर वर्ग ने तय कर रखा है कि गुजरात वाले नरेंद्र मोदी को ही पार्टी का मुख्य नेता बना दिया जाए. अब तो खुले आम यह भी कहा जाने लगा है कि लाल कृष्ण आडवाणी नहीं, नरेंद्र मोदी को ही  बीजेपी  वाले प्रधान मंत्री पद के  दावेदार के रूप में पेश करेगें. 

साम्प्रदायिकता  के इस माहौल में उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव हुआ  था.  साम्प्रदायिकता विरोधी सभी ताक़तों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया .मुसलमानों ने भी लगभग एकमुश्त समाजवादी पार्टी को समर्थन किया . आज  राज्य में सरकार है और आजकल लगभग  हर शहर में ऐसे बहुत सारे मुसलमान मिल जाते हैं जो यह दावा करते हैं कि वे ही मुसलमानों के असली नेता हैं और उनकी वजह से ही  उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी है . पिछले छः महीनों में ऐसे  बहुत सारे नेताओं से मुलाक़ात हुई . बात बहुत अजीब लगती है लेकिन कल तक जो नेता अपनी खुद की राजनीति चमकाने के लिए  तरह तरह की कोशिश करते रहते थे , तरह के लोगों के  दरवाजों  के चक्कर काटा करते थे ,वे आज इतने बड़े नेता कैसे हो गए कि पूरे उत्तर प्रदेश के   मुसलमानों ने उनकी  बात मान ली और समाजवादी पार्टी को जिता दिया.  कई  ऐसे लोग भी मिल जायेगें जो यह दावा करेगें कि अल्पसंख्यकों के बारे में कोई भी फैसला बिना उनकी सलाह के नहीं किया जाता. उत्तर प्रदेश और मुलायम सिंह यादव की राजनीति को जानने वाले  जानते हैं कि  वे सुनते तो सबकी हैं लेकिन फैसला  किसी के दबाव से भी नहीं लेते और पूरी तरह से किसी की सलाह भी नहीं  मानते . हाँ समाज के हर वर्ग से मिलते जुलते रहने की अपनी आदत के कारण उनके  फैसलों में सब का हित समाहित रहता है .

इस पृष्ठभूमि में मैंने  इस बात का एक बार फिर पड़ताल करने का फैसला किया कि उत्तर प्रदेश में  मुसलमानों का  सबसे बड़ा  राजनीतिक नेता कौन है . पूरे राज्य में ऐसे लोगों से बात की जो सच कहने के लिए मशहूर हैं .,बड़े पत्रकारों से बात की, मुस्लिम धार्मिक नेताओं से बात की ,बुद्धिजीवियों से बात की . लगभग  सबने  यही कहा कि उत्तर प्रदेश में के मुसलमानों के राजनीतिक नेता सिर्फ और सिर्फ मुलायम सिंह यादव हैं . वे ही तरह तरह के समुदायों में बँटे हुए  मुस्लिम समाज के सर्वमान्य  राजनीतिक नेता हैं . इतना ही नहीं ,जो भी मुस्लिम नेता उनके करीब आ जाता है अपने समाज में उसका सम्मान बढ़  जाता है. मुलायम सिंह यादव अकेले ऐसे राजनेता हैं जिनकी बात  राज्य के सभी मुसलमान तो मानते  ही हैं , मुस्लिम नेताओं के पास भी  उनको नेता मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. अपनी पार्टी को मुसलमानों के वोट का हक़दार  मानने वाले कांग्रेसी भी निजी बातचीत में यह बात स्वीकार करते हैं कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के अलावा मुसलमान किसी की बात  पर भरोसा नहीं करता . विधान सभा चुनाव के दौरान मुस्लिम वोटों के   बल पर चुनाव की सफलता की उम्मीद लगाकर बैठे रहे एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि अब तो उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को किसी नई रण नीति पर काम करना पडेगा क्योंकि अगर मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह को भर्ती करने जैसी कोई गलती न कर दी तो अब मुसलमान उनका साथ छोड़ने को तैयार नहीं हैं. मुलायम सिंह यादव ने एक बात चीत में  इस संवाददाता से बताया था कि कल्याण सिंह को साथ लेना उनकी ज़िंदगी की एक बहुत बड़ी राजनीतिक गलती थी . उन्होंने यह भी कहा कि हालांकि और भी कुछ लोग उस काम  के लिए ज़िम्मेदार थे लेकिन  आखिर में तो वह फैसला उनका ही था और अब वह गलती दुबारा कभी नहीं होगी. 
 एक धर्म निरपेक्ष नेता के रूप में उनकी पहचान १९८४ के बाद से बनना शुरू हुई.जब बीजेपी और आर एस एस ने १९८४ के लोक सभा चुनाव में बुरी तरह से हार के बाद हिंदुत्व को अपनी  राजनीति का स्थायी भाव बनाने का फैसला तो सब कुछ बदल गया . उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गया, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता  रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगे  बढ़ गयीं.और धर्म निरपेक्ष  राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे , रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी. 
आर एस  एस और बीजेपी के उस विभाजक दौर में उत्तर प्रदेश में उनको पुरानी धर्मनिरपेक्ष  पार्टी ,कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिली लेकिन जब १९८९ के चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता संभाली तो साम्प्रदायिक ताक़तों को हर मुकाम पर रोकने की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गयी. उसी दौर की राजनीति में गाफिल पाए जाने के कारण ही उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये  पर  आ गयी . मुलायम सिंह यादव ने अपने आपको एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में पेश किया और आज तक उसी कमाई के सहारे  राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का दबदबा बना हुआ है . धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है . १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उत्तर प्रदेश  में जब मुलायम सिंह यादव ने  देखा कि  आर एस एस की ताक़त रोज़ ही बढ़ रही है तो उन्होंने बीजेपी और  कल्याण सिंह को बेदखल करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से हाथ   मिला लिया.  उस दौर में मैंने उनसे बात की थी और कहा था कि कांशीराम और मायावती की टोली का साथ करके उन्होंने अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो उन्होंने  साफ़ कहा कि अगर मैं कांशीराम को साथ न ले लेता तो वह बीजेपी के साथ चले जाते और वह देश के लिए अच्छा न होता . इसलिए कुछ इलाकों में  अपनी ताक़त से उन लोगों को कुछ सीटें देकर मैं साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रख सकूंगा . वह काम मुलायम सिंह ने  किया भी. अपने जिले की इटावा सीट से कांशीराम को लोकसभा का सदस्य बनवाया , राज्य में कई जिलों में जहां उनकी पार्टी मज़बूत थी ,वहां से बहुजन समाज  पार्टी को जिताया ,कांशी राम की पार्टी की दूसरी सबसे  महत्वपूर्ण नेता ,मायावती थीं. उन्हें  फैजाबाद जिले की राजनीति में जमाया लेकिन कांशीराम को बीजेपी की शरण में जाने से रोक नहीं सके.  बाद में तो मुलायम सिंह यादव कहते रहते थे कि मायावती की राजनीति साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है.

जब दुबारा मुख्यमंत्री पद पर वे बैठे तो उन्होंने मुसलमानों के लिए जो किया  वह तब तक किसी भी मुख्य मंत्री ने नहीं किया था. उर्दू जानने वालों को सरकारी नौकरियों में  जगह दिया, पुलिस में बड़ी संख्या में मुसलमानों को भर्ती करवाया, साम्प्रदायिक दंगों की आग में बार बार झुलस रही मुस्लिम आबादी  को  सुकून से रहने के मौक़े उपलब्ध करवाए, सरकारी काम काज में मुसलमानों को बहुत सारे अवसर दिए . जो भी मुस्लिम  नौजवान अपनी बिरादरी में लोगों के साथ खड़े देखे गए उन्हें राजनीति में महत्व दिया , कुछ को तो राज्य स्तर का नेता बना दिया और ऐसा माहौल बना दिया कि आम मुसलमान समाजवादी पार्टी के राज में अपने को सुरक्षित महसूस करता है . कुल मिलाकर यह बिना संकोच कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की राजनीति के सबसे भरोसेमंद नेता मुलायम सिंह यादव ही हैं.

Sunday, July 8, 2012

चन्द्रशेखर ने कहा था --जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.


शेष नारायण सिंह 


८ जुलाई को चन्द्रशेखर जी को गए पांच साल हो गए. अगर होते तो ८५ साल के हो गए होते. उनको लोग बहुत अच्छा संसदविद कहते हैं . वे संसद में थे इसलिए संसदविद भी थे लेकिन लेकिन सच्चाई यह है कि वे जहां भी रहे धमक के साथ रहे और कभी भी नक़ली ज़िंदगी नहीं जिया. मैं चन्द्रशेखर जी  को एक ऐसे इंसान के रूप में याद करता हूँ जो राजनेता भी थे नहीं , लेकिन वे सही  अर्थ में स्टेट्समैन थे . जो दूरद्रष्टा थे और राष्ट्र और समाज के हित को सर्वोपरि मानते थे. आज चन्द्रशेखर की विरासत को संभालने वाला कोई नहीं है क्योंकि उनकी राजनीति को आगे ले जाने वाली कोई पार्टी ही कहीं नहीं है . जिस पार्टी को उन्होंने अपनी बनाया था उसके वे आख़िरी कार्यकर्ता साबित हुए . पचास के दशक में आचार्य नरेंद्रदेव के सान्निध्य में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की राजनीति में हिस्सा लेना शुरू किया लेकिन १९६४ आते आते उनको लग गया कि उनकी और आचार्य जी की राजनीति की सबसे बड़ी वाहक जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस पार्टी ही रह गयी थी. शायद इसीलिये उन्होंने अपनी पार्टी के एक अन्य बड़े नेता, अशोक मेहता के साथ कांग्रेस की सदस्यता ले ली. लेकिन उनका और शायद देश के दुर्भाग्य था कि उसके बाद ही से कांग्रेस में जो राजनीतिक शक्तियां उभरने लगीं , वे पूंजीवादी राजनीति को समर्थन करने वाली थीं. कांग्रेसी सिंडिकेट ने कांग्रेस की राजनीति को पूरी तरह से काबू में कर लिया . सिंडिकेट से इंदिरा गाँधी ने बगावत तो किया लेकिन वह पुत्रमोह में फंस गयीं और उन्होंने ने भी तानाशाही का रास्ता अपना लिया . नतीजा यह हुआ  कि चन्द्र शेखर जी को जय प्रकाश नारायण के  नेतृत्व में चल रहे तानाशाही विरोधी आन्दोलन का साथ देना पड़ा. यह भी अजीब इत्तेफाक है कि जिस साम्प्रदायिक राजनीति का चन्द्रशेखर जी  ने हमेशा ही विरोध किया था , उसी राजनीति के पोषक लोग जेपी के आन्दोलन में चौधरी बने बैठे थे. हालांकि समाजवादी लोग सबसे आगे आगे  नज़र आते थे लेकिन सबको मालूम था कि गुजरात से लेकर बिहार तक आर एस एस वाले ही वहां हालत को कंट्रोल कर रहे थे . बाद में जो सरकार बनी उसमें भी आर एस एस की सहायक पार्टी जनसंघ वाले ही हावी थे. चन्द्रशेखर और मधु  लिमये ने आर एस एस को एक राजनीतिक पार्टी बताया और कोशिश की कि जनता पार्टी के सदस्य किसी और पार्टी के सदस्य न रहें . लेकिन आर एस एस ने जनता पार्टी ही तोड़ दी और अलग भारतीय जनता पार्टी बना ली. लेकिन चन्द्र शेखर ने अपने  उसूलों से कभी समझौता नहीं किया 

उनके जाने के पांच साल बाद यह साफ़ समझ में आता है  कि उनकी विरासत को जिंदा रखने के लिए किसी संस्था की ज़रुरत नहीं है . उनकी ज़िंदगी ही एक ऐसी संस्था का रूप ले चुकी थी जिसमें बहुत सारी सकारात्मक शक्तियां एकजुट हो गयी थीं.उनकी ज़िंदगी ने देश की राजनीति को हर मुकाम पर प्रभावित किया.  इंदिरा गाँधी ने जब सिंडिकेट के चंगुल से निकल कर राष्ट्र की संपत्ति को जनता की हिफाज़त में रखने के लिए बैंकों का  राष्ट्रीयकरण किया तो चन्द्रशेखर ने उनको पूरा समर्थन दिया और सिंडिकेट वालों के लिए राजनीतिक मुश्किल पैदा की. लेकिन वही इंदिरा गाँधी जब पुत्रमोह में तानाशाही और गैर ज़िम्मेदार राजनीतिक परंपरा की स्थापना करने लगीं तो चन्द्रशेखर ने उनको चेतावनी दी और  बाद में तानाशाही प्रवृत्तियों को ख़त्म करने के आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई. 
आज चन्द्रशेखर जी के जीवन की बहुत सारी घटनाएं याद आती हैं . लेकिन उनके जीवन की जिस घटना ने मुझे हमेशा ही प्रभावित किया है वह भारत की लोकसभा में ७ नवम्बर १९९० में घटी थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को हटाने के लिए  लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां एकजुट थीं. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने ग्यारह महीने के राज में बहुत सारे  गैरज़िम्मेदार फैसले किये थे और उनका प्रधान मंत्री पद  से हटना बहुत ज़रूरी माना जा रहा  रहा. जब चन्द्रशेखर जी  को अध्यक्ष ने भाषण करने के लिए बुलाया तो सदन में बिलकुल सन्नाटा छा गया था . और जब  चन्द्रशेखर ( बलिया ) ने कहा कि मुझे  अत्यंत दुःख के साथ इस बहस में हिस्सा  लेना पड़  रहा है तो सदन में बैठे लोगों ने उस स्टेट्समैन के दर्द  का अनुभव किया था. गैलरी  में बैठे लोगों ने भी सांस खींच कर उनके भाषण को सुना. उन्होंने कहा कि जब ग्यारह महीने पहले हमने देश को बचाने के लिए बीजेपी से समझौता किया था .उस समय सोचा था कि  देश संकट में है ,कठिनाई में है और उस कठिनाई से निकलने के लिए सबको साथ मिलकर चलना चाहिए .उन्होंने अफ़सोस जताया कि  ग्यारह महीने पहले देश की जो दुर्दशा  थी , ग्यारह महीने बाद उस से बदतर हो गयी थी. उन्होंने पूछा कि क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में आतंक  बढा है , क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में विषमता बढ़ी है , क्या यह सही नहीं है कि बेकारी , बेरोजगारी,मंहगाई बढ़ी है ,,क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में सामाजिक तनाव बढ़ा है .क्या यह सही नहीं है कि पंजाब पीड़ा से कराह रहा है ,क्या यह सही नहीं है कश्मीर में आज वेदना है.क्या यह सही नहीं है कि असम में आतंक बढ़ रहा है ,क्या यह सही नहीं है कि देश के गाँव गाँव में धर्म और जाति के नाम पर आदमी ही आदमी के खून का प्यासा हो रहा  है . उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री से कहा कि संसद और देश को चलाना कोई ड्रामा नहींहै इसलिए गंभीरता  हर राजनीतिक काम के बुनियाद में होनी  चाहिए . 

लोकसभा के उसी  सत्र के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को हटा दिया गया था .चन्द्रशेखर जी ने साफ़  कहा कि सिद्धांतों की बात करने वाले  विश्वनाथ प्रताप सिंह धर्मनिरपेक्षता का सवाल क्यों नहीं उठाते.चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है .  जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.इसी भाषण में चन्द्र शेखर जी ने बीजेपी की राजनीति को आड़े हाथों लिया था .  उन्होंने कहा कि मैं आडवाणी जी से ग्यारह महीनों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि   बाबरी मज्सिद के बारे में सुझाव देने  के लिए एक समिति बनायी गयी, उस समिति से भारत के गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को हटा दिया जाता है . बताते चलें  कि  उस वक़्त गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद थे और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव थे. चन्द्र शेखर जी ने आरोप लगाया कि इन लोगों को इस लिए हटाया गया क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद् के कुछ नेता उनकी सूरत नहीं देखना चाहते.क्या इस  तरह से देश को चलाना है . उन्होंने सरकार सहित बीजेपी -आर एस एस की राजनीति को भी घेरे में ले लिया और बुलंद आवाज़ में पूछा कि क्यों हटाये गए मुलायम सिंह , क्यों हटाये गए मुफ्ती मुहम्मद सईद ,उस दिन किसने समझौता किया था ? चाहे वह समझौता विश्व हिन्दू परिषद् से हो ,चाहे बाबरी मस्जिद के सवाल पर किसी इमाम से बैठकर समझौता करो ,यह समझौते देश की हालत को  रसातल में ले जाने के लिए ज़िम्मेदार हैं .उन्होंने प्रधान मंत्री को चेतावनी दी कि आपकी सरकार जा सकती है ,ज उस से कुछ नहीं बिगड़ेगा .लेकिन याद रखिये कि जो संस्थाएं बनी हुई हैं ,उनका अपमान आप मत कीजिये . क्या यही परंपरा है कि बातचीत को चलाने के लिए राष्ट्रपति के पद का इस्तेमाल किया  जाय .शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं भी नहीं हुआ होगा.कभी ऐसा नहीं हुआ कि अध्यादेश लगाए जाएँ और २४ घंटों के अंदर उसको वापस ले लिया  जाए..उन्होंने कहा  कि यह तुगलकी मिजाज़ इस  देश को रसातल  तक पंहुचाएगा और देश को बचाने के लिए मैं तुगलकी मिजाज़ का विरोध करना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानता हूँ.
इसी भाषण के  दौरान किस्मत के मारे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने  बीच में टिप्पणी कर दी और कहा कि सिद्धांत के चर्चे सरकारी पदों के गलियारों के नहीं गुज़रते हैं.चन्द्रशेखर जी ने कहा कि , चलिए मुझे मालूम है .सिद्धांत संघर्षों से पलते हैं और संघर्ष करना जिसका  इतिहास नहीं है वह सिद्धांतों की बात करता है . मैं उन लोगोंमें से  नहीं हूँ जो कि अपनी गलती को स्वीकार ही न करें . उन्होंने  प्रधान मंत्री से कहा कि जिस समय आप कुर्सियों से चिपके रहने के लिए हर प्रकार के घिनौने समझौते  कर रहे थे , उस समय संघर्ष के रास्ते चल कर मैं हर  मुसीबत  का मुकाबला कर रहा था. आप सिद्धांतों की चर्चा हमसे मत करें .

चन्द्रशेखर जी ने इस भाषण में और भी बहुत सारी बातें कहीं जो कि भारत के राजनीतिक  भविष्य के लिए दिशा निर्देश का प्रकाश स्तम्भ हो सकती  हैं . आज उन्हीं चन्द्र शेखर की पुण्य तिथि है जिन्होंने  स्वार्थ के सामने कभी भी सर नहीं झुकाया  . भारत के एक नागरिक के रूप में उन्हें आज सम्मान से याद करने में मुझे गर्व है .

Saturday, June 9, 2012

कन्नौज का उपचुनाव धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक ताक़तों के एकजुट होने का मौक़ा है



शेष नारायण सिंह 

देश में बड़े पैमाने पर राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण हो रहा है. २०१४ के लोक सभा चुनाव के पहले देश के सामने एक नई राजनीतिक बिरादरी तैयार होने वाली है . बीजेपी में एक  बार फिर  संभावित प्रधान मंत्रियों की चर्चा ज़ोरों पर है . पिछली बार लाल कृष्ण आडवाणी  बहुत गंभीरता से प्रधान मंत्री पद के  दावेदार बने थे लेकिन पार्टी को ज़रूरी सीटें ही नहीं मिलीं. इस बार भी आडवाणी ने हिम्मत नहीं हारी है लेकिन बीजेपी में उनके गुट के नेता ही इस बार प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनते नज़र आ रहे हैं . आजकल बीजेपी में वही माहौल है जो  पार्टी की १९८४ की हार के बाद था. उन दिनों हर कीमत पर चुनाव जीतने के लिए पार्टी कमर कसती नज़र आती थी. उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गया, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता  रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष   स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगी बढ़ गयीं.और धर्म निरपेक्ष  राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे , रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी. 
आर एस  एस और बीजेपी के उस विभाजक दौर में उत्तर प्रदेश में उनको पुरानी धर्मनिरपेक्ष  पार्टी ,कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिली लेकिन जब १९८९ के चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता संभाली तो साम्प्रदायिक ताक़तों को हर मुकाम पर रोकने की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गयी. उसी दौर की राजनीति में गाफिल पाए जाने के कारण ही उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये  पर  आ गयी . मुलायम सिंह यादव ने अपने आपको एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में पेश किया और आज तक उसी कमाई के सहारे  राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का दबदबा बना हुआ है . धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है . १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उत्तर प्रदेश  में जब मुलायम सिंह यादव ने  देखा कि  आर एस एस की ताक़त रोज़ ही बढ़ रही है तो उन्होंने बीजेपी और  कल्याण सिंह को बेदखल करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से हाथ   मिला लिया.  उस दौर में मैंने उनसे बात की थी और कहा था कि कांशीराम और मायावती की टोली का साथ करके उन्होंने अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो उन्होंने  साफ़ कहा कि अगर मैं कांशी राम को साथ न ले लेता तो वह बीजेपी के साथ चले जाते और वह देश के लिए अच्छा न होता . इसलिए कुछ इलाकों में  अपनी ताक़त से उन लोगों को कुछ सीटें देकर मैं साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रख सकूंगा . वह काम मुलायम सिंह ने  किया भी. अपने जिले की इटावा सीट से कांशी राम को लोकसभा का सदस्य बनवाया , राज्य में कई जिलों में जहां उनकी पार्टी मज़बूत थी ,वहां से बहुजन समाज  पार्टी को जिताया ,उनकी पार्टी की सबसे  महत्वपूर्ण नेता ,मायावती थीं. उन्हें  फैजाबाद जिले की राजनीति में जमाया लेकिन कांशीराम को बीजेपी की  शरण में जाने से रोक नहीं सके.  बाद में तो मुलायम सिंह यादव कहते रहते थे कि मायावती की राजनीति साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है.

एक बार फिर बीजेपी में वही माहौल बन रहा है कि साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे करके ही सत्ता हासिल करने की कोशिश की  जाए.लाल कृष्ण आडवाणी इस बार भी उम्मीद लगाए हुए हैं लेकिन अब लगता है कि उनके अपने लोग ही उन्हें पीछे कर सकते हैं . साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के  उदाहरण बन चुके , नरेंद्र मोदी भी इस बार प्रधानमंत्री पद के सपने देख रहे हैं . हालांकि गुजरात के बाहर चुनावों को प्रभावित कर सकने की उनकी क्षमता बिलकुल जीरो है लेकिन साम्प्रदायिक राजनीति के वे पोस्टर ब्वाय  हैं . ऐसी हालत में धर्म निरपेक्ष ताक़तों के ध्रुवीकरण  की  ज़रुरत देश के सामने जितना आज है उतनी कभी नहीं रही.

इस पृष्ठभूमि में कन्नौज के उपचुनाव में कांग्रेस की भूमिका महत्त्व हासिल कर लेती है . मुख्य मंत्री अखिलेश यादव की लोकसभा सीट के खाली होने के बाद हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस ने कोई उम्मीदवार नहीं उतारा .बहुजन समाज पार्टी अभी विधान सभा चुनावों में हुई हार के बाद सकते में है  और उसने भी निश्चित हार  के डर से कोई उम्मीदवार नहीं  खड़ा किया . बीजेपी ने अपने उम्मीदवार को  टिकट  देकर लखनऊ से दौडाया लेकिन वह ढाई घंटे में कन्नौज पंहुच  नहीं पाया . लिहाजा बीजेपी का उम्मीदवार भी मैदान में नहीं  है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने अभी तीन महीने पहले निर्णायक  जीत हासिल की है. ज़ाहिर है उसकी जीत पक्की थी चाहे जिसका  उम्मीदवार मैदान में होता लेकिन कांग्रेस ने यह घोषणा करके कि वह डिम्पल यादव के खिलाफ उम्मीदवार नहीं  उतारेगी, एक अलग तरह का सन्देश देने की कोशिश की है . जानकार बताते हैं कि राष्ट्रपति पद के  लिए होने वाले चुनावों में कांग्रेस  को समाजवादी पार्टी का सहारा चाहिए ,इसलिए कांग्रेस ने कन्नौज में  समाजवादी पार्टी को वाक् ओवर दिया है  .लेकिन यह सच नहीं है . कन्नौज डॉ राम मनोहर लोहिया की सीट रही है और उस सीट पर जब समाजवादी पार्टी की प्रतिष्ठा  की लड़ाई हो रही होगी तो किसी कांग्रेसी उम्मीदवार की मुलायम सिंह की बहू को  हराने की हैसियत नहीं है . कांग्रेस की इस पहल के विस्तृत राजनीतिक सन्दर्भ  हैं . राष्ट्रपति के चुनाव में तो जो भी होगा ,इस पहल को अगर कांग्रेस आगे बढाने में कामयाब हो गयी तो नरेंद्र मोदी की अगुवाई में देश  में सन १९९२ वाला माहौल बनाने की जो कोशिश शुरू हो गयी है उसे लगाम दी जा सकेगी. 
कन्नौज की  लोक सभा सीट बहुत ही दिलचस्प सीट है . १९६७ में डॉ राम मनोहर लोहिया इसी सीट से उम्मीदवार थे लेकिन वे प्रचार के लिए कन्नौज एकाध  बार ही आये. उनका कहना था कि व्यापक राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने हों तो ज़िम्मेदार राजनीतिक पार्टियों को  चुनावी लालच में नहीं पड़ना चाहिए . १९६७ के चुनाव में वे ज़्यादातर समय फूलपुर संसदीय क्षेत्र में लगा रहे थे क्योंकि वहां उनके प्रिय शिष्य  जनेश्वर मिश्र जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को चुनौती दे रहे थे . लोक सभा और विधान सभा उस साल एक साथ हुए थे . उसी साल मुलायम सिंह यादव पहली बार  कन्नौज के करीब की ही जसवंत नगर सीट से विधायक  चुने गए थे . डॉ लोहिया ने धर्मनिरपेक्ष  राजनीति का जो महत्व उस वक़्त उनको समझया था वही मुलायम सिंह यादव की राजनीति का स्थायी भाव बना रहा . 
 कन्नौज के मौजूदा उपचुनाव  में कांग्रेस ने जो रुख अपनाया है कि वह आने वाले दिनों में  सेकुलर राजनीति की दिशा में एक ज़रूरी शुरुआत भी हो सकती है . हालांकि यह भी सच है कि कन्नौज में  चुनाव लड़कर भी कांग्रेस के हाथ  हार ही आनी थी लेकिन चुनाव न लड़ कर कांग्रेस ने भविष्य की राजनीति में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को बड़ा भाई मानने की पहल कर दी है . सबको मालूम है कि नरेंद्र मोदी को आगे करके आर एस एस एक बार फिर देश को साम्प्रदायिकता के तनाव में झोंक देने की फ़िराक़ में है . ऐसी हालत में अगर कांग्रेस के नेता अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को साथ लेने में सफल होते हैं तो देश के भविष्य के लिए यह बहुत ही अच्छा लक्षण होगा. 

Sunday, April 15, 2012

मुलायम सिंह यादव को मालूम है वे ही यू पी के मुसलमानों के नेता हैं, और कोई नहीं

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, १४ अप्रैल. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कामकाज में किसी तरह का दखल नहीं देना चाहते. राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के एक महीने बाद आज एक ख़ास मुलाक़ात में मुलायम सिंह यादव ने साफ़ कहा कि वे राज्य सरकार के काम काज में किसी तरह की दखलंदाज़ी नहीं करेगें.जब उन्हें याद दिलाया गया कि दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम के दबाव में फैसले लेकर उन्होंने राज्य सरकार के ऊपर दबाव डाला है तो उन्होंने कहा कि वे किसी के दबाव में फैसले नहीं लेते . जहां तक इमाम से बातचीत का सवाल है उनके दरवाज़े सब के लिए खुले हैं . किसी भी समुदाय के महत्वपूर्ण व्यक्ति से बात करना सरकारी नहीं राजनीतिक काम है और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रूप में वे काम करते रहेगें.जहां तक सरकारी काम का सवाल है उन्होंने पार्टी के कार्यकर्ताओं को बता दिया है कि राज्य सरकार के किसी काम को वे प्रभावित नहीं करेगें. किसी भी सरकारी काम के लिए उन्हें मुख्यमंत्री या राज्य सरकार के सम्बंधित मंत्रियों से ही संपर्क करना पडेगा. बात चीत से साफ़ लगा कि वे मुसलामानों के कल्याण के लिए खुद चिंतित हैं और उन्हें मालूम है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने उनकी बात पर विश्वास करके ही उनकी पार्टी को वोट दिया है. राज्य में व्यापक मुस्लिम समर्थन उनको इसलिए मिला है कि मुसलमान उनकी बातों पर भरोसा करते हैं .उसके लिए मुस्लिम समुदाय के किसी भी नेता से ज्यादा वे खुद ज़िम्मेदार हैं

मुसलमानों के साथ हुए पिछली सरकार के शासन काल के अन्याय के लेकर वे बहुत चिंतित नज़र आये. उन्होंने कहा कि इस समुदाय के साथ जो भी अन्याय हुआ है राज्य सरकार उसे ठीक करने के लिए काम कर रही है. सरकार को वे राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में राजनीतिक समर्थन पूरी तरह से देते रहेगें.उन्होंने कहा कि हालांकि कोई काम ऐसा नहीं किया जाएगा जिस से लगे कि पिछली सरकार के साथ बदले की भावना से काम किया जा रहा है लेकिन पिछली सरकार से जो गलतियाँ हुई हैं उनको सुधारने की पूरी कोशिश की जायेगी. उन्होंने कहा कि पिछली सरकार ने ठीक से काम नहीं किया . कहने लगे कि उत्तर प्रदेश की पिछ्ली सरकार ने केंद्र सरकार के योजना आयोग से एक मद में ५० करोड़ रूपये की मांग की थी जबकि उसी काम के लिए गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने अरबों रूपये की योजना बनाकर केंद्र सरकार के पास भेजा और मंज़ूर करा लिया . इस तरह से ठीक से प्रस्ताव तैयार करवा कर सही अफसरों को लगाकर जहां नरेंद्र मोदी करोड़ों रूपये ले जाने में सफल रहे . उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार ने केंद्र से अपना हक भी ठीक से नहीं लिया . उन्होंने कहा कि मुख्य मंत्री से उन्होंने कहा है कि केंद्र से सहायता लेने के लिए जो भी प्रस्ताव भेजा जाए उसे बिलकुल दुरुस्त होना चाहिए जिस से राज्य सरकार के हित में काम किय जाय .जहां तक मुसलमानों की बात है उनके घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि मुसलमानों के कल्याण को प्राथमिकता दी जायेगी और वचन को पूरा किया जाएगा. जब एक निर्दलीय संसद सदस्य को उनकी पार्टी में शामिल होने की बात की गयी तो उन्होंने साफ़ कहा कि वे हमारी पार्टी में नहीं हैं. उन्होंने वहां मौजूद लोक सभा सदस्य से भी कहा कि आपने अपने संसदीय इलाके में मुझसे जो भी वायदे करवाए थे उन्हें मुख्य मंत्रीसे मिल कर पूरा करवा लीजिये . और अगर ज़रूरी हो तो मैं भी बात कर सकता हूँ .

Saturday, January 7, 2012

मुलायम सिंह को मुसलमानों के दिल से निकाल देगी कांग्रेस

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली ,२८ दिसंबर.केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों के रिज़र्वेशन के २७ प्रतिशत के कोटे से साढ़े चार प्रतिशत निकाल कर पिछड़े मुसलमानों को रिजर्वेशन देने के अपने फैसले को बिलकुल पुख्ता कर दिया है . उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव घोषित होने के ठीक पहले सरकार की तरफ से आये इस आदेश को अब अमली जामा पहना दिया गया है.अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने आज लोक सभा में विस्तार से बताया कि इस तरह के आरक्षण का औचित्य क्या है .इस व्यवस्था को तुरंत से लागू कर दिया गया है . यह रिज़र्वेशन सरकारी नौकरियों में होगा और शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश लेने वाले पिछड़े मुसलमानों को मिलेगा. लोक सभा में बताया गया कि इस सन्दर्भ मानव संसाधन विकास मंत्रालय और कार्मिक , लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय की ओर से बाकायदा प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है . इस साढ़े चार प्रतिशत के आरक्षण के लिए मुस्लिम,सिख,ईसाई,बौद्ध और पारसी धर्मों की ओबीसी जातियों के लोग योग्य माने गए हैं .
केंद्र सरकार की ओर से आज बताया गया कि मंडल कमीशन की सिफारिशें १९९० में ही लागू कर दी गयी थीं लेकिन उसमें मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की पिछड़ी जातियों के लोगों को शामिल नहीं किया गया था. मुसलमानों के पिछड़ेपन के बारे में सही आकलन करने के लिए डॉ मनमोहन सिंह सरकार ने २००४ में ही रंग नाथ मिश्रा आयोग का गठन कर दिया था .इस कमीशन को धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को चिन्हित करने का काम सौंप दिया गया था इस आयोग ने मई २००७ में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी. इस रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में दिसंबर २००९ में रख दिया गया था . उन्होंने मुसलमानों के लिए १० प्रतिशत और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए ५ प्रतिशत आरक्षण की बात की थी . उन्होंने यह भी कहा था इस सिफारिश को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद १६ ( ४ ) में संशोधन करना पडेगा . मनमोहन सिंह की सरकार ने २००५ में सच्चर कमेटी का गठन किया था जिसका काम मुस्लिम समुदायों की सामाजिक ,आर्थिक,और शैक्षिक स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करना था . सच्चर कमेटी ने पाया था कि मुस्लिम समुदाय देश के सबसे पिछड़े वर्गों में से एक है . .इसलिए इस समुदाय पर ख़ास ध्यान दिया जाना चाहिए . मुसलमानों को रिज़र्वेशन देने के लिए केंद्र सरकार ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार वाले सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का भी हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि सरकार के पास कोटे के अंदर कोटा करके रिज़र्वेशन देने का अधिकार है .इसलिए यह रिज़र्वेशन कानून की कसौटी पर बिलकुल सही है .उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस आरक्षण से सबसे ज्यादा प्रभावित समाजवादी पार्टी होगी. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि मुसलमानों को उनकी आबादी के आधार पर रिज़र्वेशन देना चाहिए और उनको १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन मिलना चाहिए. मुलायम सिंह यादव के इस बयान का राजनीतिक अर्थ है . ज़ाहिर है वे मुसलमानों के प्रिय नेता का अपना मुकाम आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं हैं

Thursday, August 5, 2010

सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

शेष नारायण सिंह

लोक सभा में उर्दू आज सबकी प्रिय भाषा बन गयी. मुलायम सिंह यादव ने जीरो आवर में उर्दू अखबारों के साथ हो रही ज्यादती की बात को उठाया . फिर क्या था . हर पार्टी के नेता टूट पड़ा और उर्दू के पक्ष में भाषण देने लगा .उन लोगों ने भी उर्दू के पक्ष में बात की जिन्हें उर्दू वाले अपना नहीं मानते . बी जे पी के उप नेता अगोपी नाथ मुंडे और शत्रुघ्न सिन्हा ने भी उर्दू की शान में खूब कसीदे पढ़े. हालांकि चाचा जीरो आवर में शुरू हुए इथे एलेकिन बड़ी देर तक चलती रही. लगभग हर ओआर्ती के नेता उर्दू के पक्ष में खड़े दिखे. फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आज़ाद, और ममता बनर्जी ने भी बात की और लोक सभा अध्यक्ष ,मीरा कुमार ने सरकार से जवाब देने को कहा. सरकार की ओर से प्रणब मुखर्जी ने लोक सभा को भरोसा दिलाया कि सरकार उर्दू के लिए वह सब कुछ करेगी जो संभव है. उर्दू के बारे में इतनी अहम चर्चा के बाद मुझे अपना एक पुराना लेख याद आ गया . जिसे फिर से प्रस्तुत करना ठीक रहेगा.

कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।
वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी। सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।
अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी। इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे। अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।
उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था। सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं। गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।
1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे। वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।
उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।
1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।
कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।
आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में

उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

Monday, July 19, 2010

उत्तर प्रदेश में बी जे पी की ताक़त बढ़ रही है

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश की राजनीति में २०१२ वाले विधान सभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गयी हैं . मुलायम सिंह यादव का मुसलमानों के नाम लिखा गया माफी नामा उसी तैयारी की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जो आन्दोलन चला उस से बी जे पी को तो फायदा हुआ ही , मुलायम सिंह यादव को भी लाभ हुआ था. घोर हिन्दू मतदाता बी जे पी में गया तो मुसलमान पूरी तरह से मुलायम सिंह के साथ हो गया. राजनीति को साम्प्रदायिक करने की गरज से आर एस एस ने बाबरी मस्जिद वाला आन्दोलन चलाया था . उन दिनों उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस थी लेकिन बुरी तरह से दरबारी संस्कृति की जकड़ में थी . आम तौर पर प्रदेश की राजनीति में धर्मनिरपेक्ष ताक़तों का समर्थन कांग्रेस को ही मिलता था लेकिन आर एस एस के आन्दोलन में सब तहस नहस हो गया. कांग्रेस को राज्य से विदा होने का परवाना मिल गया और विदाई भी ऐसी कि अभी तक वापसी की कोई खबर ही नहीं. मुसलमानों और दलितों के वोट तब तक परम्परागत रूप से कांग्रेस को मिलते थे. लेकिन सब बदल गया . विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स चला कर राजीव गाँधी को कहीं का नहीं छोड़ा , हिन्दू धर्म को राजनीतिक प्रचार के लिए इस्तेमाल करने की आर एस एस की रणनीति खासी सफल रही और सवर्ण हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग बी जे पी के साथ चला गया. बाबरी मस्जिद वाले आन्दोलन में मुलायम सिंह ने मुस्लिम समर्थक के रूप में अपनी छवि बाना ली और बाद में मुसलमान उनकी तरफ खिंच गया . दलितों को नया नेता मिल गया था , वे कांशी राम की बातों पर विश्वास कर रहे थे लिहाजा दलित वोट कांशीराम के हवाले हो गए . बाद के वर्षों में यही समीकरण चलता रहा लेकिन 2००७ के चुनावों में मायावती ने सब कुछ उलट दिया . उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि बी जे पी भी कांग्रेस के रास्ते चल पड़ी और बड़ी संख्या में मुसलमान भी मायावती के साथ चले गए .मुसलमानों का साथ छूटने से मुलायम सिंह यादव परेशान हो गए और उन्होंने पिछड़ी जातियों को एक मुश्त करने की कोशिश की और वहीं गलती कर गए. मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन माने जाने वाले राजनेता , कल्याण सिंह को साथ ले लिया . नतीजा यह हुआ कि २००९ के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की पार्टी की हालत पहले से कमज़ोर हो गयी. हार से बड़ा दुश्मन कोई नहीं होता है . पार्टी की हार के चक्कर में मुलायम सिंह यादव ने कई साथी खो दिए. उनके सबसे भरोसे के नेता , अमर सिंह भी निकाल दिए गए और मुलायम सिंह अकेले पड़ गए. हालांकि बहुत मज़बूत नहीं हैं लेकिन पिछले २० वर्षों में मुलायम सिंह यादव ने रामपुर के आज़म खां को मुस्लिम नेता के रूप में विकसित करने की कोशिश की थी. वह भी साथ छोड़ गए. मुलायम सिंह को सबसे बड़ा झटका लगा फिरोजाबाद में जहां हुए उपचुनाव में उनकी पुत्रवधू ही चुनाव हार गयी . मुसलमानों को खुश करने के लिए अमर सिंह के निष्कासन के बाद उनके विरोधी गुट ने जोर शोर अभियान चलाया कि कल्याण सिंह को अमर सिंह ही लाये थे लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा . जनता मानती रही कि मुलायम सिंह से उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कुछ करवा पाना बहुत मुश्किल है . अब जाकर मुलायम सिंह ने मुसलमानों से सीधी अपील की है कि भाई गलती हो गयी, माफ़ कर दो . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि देश में किसी मुस्लिम नेता की यह हैसियत नहीं है कि वह मुसलमानों के वोट को प्रभावित कर सके . इसलिए उन्हें उम्मीद है कि माफी मागने से मुसलमान एक बार फिर साथ आ जायेगें.अगर ऐसा हुआ तो उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दृश्य बहुत ही दिलचस्प हो जाएगा.

आज की हालत यह है कि राज्य का मुसलमान मतदाता अभी कांग्रेस की तरफ बढ़ रहा है. उसे उम्मीद है कि मुलायम सिंह के कमज़ोर पड़ने के बाद साम्प्रदायिक ताक़तों से उनकी रक्षा कांग्रेस ही कर पायेगी . अभी मुसलमान ,कम से कम उत्तर प्रदेश में बी जे पी को कोई राजनीतिक ताक़त नहीं मान रहा था. लेकिन मुसलमानों के खिलाफ वरुण गांधी का जो ज़हरीला प्रचार चल रहा है , राज्य के दूर दराज़ और कस्बों में अपील कर रहा है . जानकार मानते हैं कि वरुण गाँधी का नरेंद्र मोदी टाइप अभियान हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो मुसलमान उसको ही वोट देगा जो गारंटी के साथ बी जे पी को हरा सके. अभी तक की राजनीतिक स्थिति पर नज़र डालने से समझ में आ जाएगा यह हैसियत न तो अभी कांग्रेस की है और न ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी की. ऐसी हालत में अगर बी जे पी वाले यह प्रचार करने में कामयाब हो गए कि मुसलमान एकमुश्त वोट करने वाला है तो घोर हिन्दू वोट बी जे पी की तरफ मुड़ जायेगें . ऐसा माहौल बन जाने के बाद बी जे पी को हराने के लिए मुस्लिम वोट मायावती की पार्टी को मिल सकता है . यानी मुलायम सिंह यादव ने माफी तो मांग ली है लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि मुसलमान बी जे पी को हराने वाली पार्टी के साथ जाएगा, वह मुलायम सिंह यादव , मायावती और राहुल गाँधी में से कोई भी हो सकता है ., लेकिन राहुल गांधी की पार्टी के पास राज्य में ऐसे कार्यकर्ता नहीं है जो समर्थन को वोटों में बदल सकें , वहां तो सभी नेता ही हैं. मुलायम सिंह यादव का संगठन बहुत कमज़ोर है . ऐसे में लगता है कि स्वयंसेवकों की मदद से बी जे पी वाले ही मायावती के बाद सबसे बड़ी पार्टी बन जायेगें .

Monday, January 25, 2010

कल्याण सिंह ने कहा-- अमर सिंह बहुत अच्छे नेता

शेष नारायण सिंह

अमर सिंह को खोकर मुलायम सिंह यादव का भारी नुकसान हुआ है ..अमर सिंह बहुत अच्छे इंसान हैं , राजनीतिक प्रबंधन का कौशल उनके टक्कर का किसी और नेता में नहीं है . उन्होंने मुलायम सिंह यादव की पार्टी को बहुत मजबूती दी और आय से अधिक संपत्ति के मामले में उनको अमर सिंह ने ही बचाया . अमर सिंह एक बहुत अच्छे नेता हैं और मैं उनका बहुत आदर करता हूँ .उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, कल्याण सिंह ने एक बातचीत के दौरान यह बातें कहीं.. यह पूछे जाने पर कि क्या आप अमर सिंह को अपने साथ लेंगें , उन्होंने सीधा जवाब नहीं दिया. बोले कि अभी अमर सिंह के लिए पार्टी में शामिल होना तकनीकी रूप से अड़चन वाला काम है क्योंकि जब तक समाजवादी पार्टी उन्हें निष्कासित नहीं करती उन्हें उसी पार्टी में रहना पड़ेगा. क्योंकि अगर खुद इस्तीफ़ा दे देगें तो राज्य सभा की सदस्यता जायेगी. इस लिए जब तक वे समाजवादी पार्टी से अलग नहीं होते उनके लिए कोई भी पार्टी ज्वाइन करना संभव नहीं है ... कल्याण सिंह ने इस बात को भी सिरे से खारिज कर दिया कि अमर सिंह उन्हें समाजवादी पार्टी के साथ लाये थे. उन्होंने कहा कि मुलायम सिंह ही उनके बेटे के घर गए और लखनऊ उनके घर गए. साथ में अमर सिंह भी थे लेकिन लाये मुलायम सिंह यादव ही थे . उन्होंने इस बात पर अपनी नाराज़गी जताई कि बाद में उन्हें अपमानित करके अलग कर दिया और कहा कि गलती से आगरा सम्मलेन के लिए कार्ड पंहुच गया था और कल्याण सिंह चले आये. . कोई उनसे पूछे कि आगरा में जब माइक पर माननीय मुलायम सिंह यादव , कल्याण सिंह जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे तो वह भी गलती से हो गया था . मुलायम सिंह की आदत है कि वे लोगों को मझधार में छोड़ देते हैं ..वही मेरे साथ हुआ और वही अब अमर सिंह के साथ हो रहा है. हाँ इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब अमर सिंह को कहीं जगह न मिले तो वे और मुलायम सिंह फिर इकठ्ठा हो सकते हैं .. इसलिए अभी अमर सिंह के अगले पड़ाव के बारे में कुछ कहना ठीक नहीं होगा. जहां तक उनका सवाल है वे अब कभी भी मुलायम सिंह के साथ नहीं जायेंगें. क्योंकि अबकी जो नयी पार्टी, जन क्रान्ति पार्टी , बनायी गयी है वह उनका अपना फैसला नहीं है. दिल्ली , लखनऊ, डिबाई और अतरौली में अपने कार्यकर्ताओं की बैठक करके सबकी राय से पार्टी बनायी है. सब ने एक सुर से कहा था कि नया घर ,नयी पार्टी ,नया झंडा और नया एजेंडा लेकर हम आये हैं और अब बी जे पी या किसी अन्य पार्टी में जाने का कोई मतलब नहीं है .. कल्याण सिंह कहते हैं कि २०१२ में उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधान सभा आना तय है और उनकी पार्टी करीब ६० सीटें लेकर ऐसी स्थिति में होगी जिस से कोई भी सरकार उनकी पार्टी से सहयोग लिए बिना न बन सके. कल्याण सिंह कहते है कि २०१२ में मायावती भी को १०० के थोडा ऊपर सीटें मिल सकती हैं और सबसे बड़ी पार्टी वही होगी. . उत्तर प्रदेश में जो अभी जंगलराज है , भ्रष्टाचार चरम पर है , लूट मची हुई है वह अगले दो साल में और बढ़ेगी जिसकी वजह से मायावती की सीट संख्या कम होगी. . सारे हल्ले गुल्ले के बाद भी कांग्रेस को ५० के आस पास ही सीटें मिलेंगीं. बी जे पी का कोई भी नेता राज्य में ऐसा नहीं है जिसकी वजह से चुनाव जीता जा सके.पहले बी जे पी को पार्टी विथ ए डिफरेंस कहा जाता था लेकिन अब वह ए पार्टी ऑफ़ डिफरेंसेज़ हो गयी है .. मुसलमान अब मुलायम सिंह के साथ नहीं है. पिछड़ा वर्ग भी उनके साथ नहीं है. इस सब का फ़ायदा लेकर कल्याण सिंह एक ताक़त वर राजनीतिक जमात बन सकने की उम्मीद लागाये बैठे हैं ..उनका दावा है कि उनकी पार्टी ही राज्य की तरक्की का कार्यक्रम बना कर चल रही है ..कल्याण सिंह की नज़र में मुलायम सिंह यादव एक अपरिपक्व नेता हैं जिन्होंने मुसलमानों के अलग होने के बाद मुझे आनन् फानन में अलग कर दिया जबकि आज़म खां ने बेमतलब इसको मुद्दा बना दिया था. . मुसलमान अलग इसलिए हुआ कि अब उसके सामने बी जे पी का हौवा नहीं है , बी जे पी अब उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक ताक़त नहीं है और मुसलमान कांग्रेस को बतौर विकल्प स्वीकार करने की तैयारी में है ..आज़म खां की नाराज़गी ,रामपुर से जया प्रदा की टिकट की वजह से थी जो वह ऐलानियाँ कह नहीं पाए और मेरे नाम पर हल्ला गुल्ला शुरू कर दिया .२०१२ में यह सारे चुनावी शिगूफे बेकार साबित होंगें क्योंकि उनकी पार्टी ने जो कार्यक्रम बनाया है उसकी तरफ सभी आकर्षित होंगें .. उनकी पार्टी का कार्यक्रम है प्रखर हिन्दुत्व , प्रखर राष्ट्रवाद,लोकतंत्र ,सामाजिक न्याय, राम मंदिर के प्रति प्रतिबद्धता और विकास मंदिर की रचना. कल्याण सिंह के इस हिन्दुत्व अभियान में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट का विरोध भी शामिल है ..क्योंकि वह हिन्दू ओ बी सी का हक मारता है .. बहरहाल उनका यह कहना है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति बहुत ही डावाडोल है और आने वाला वक़्त और भी अराजकता की तरफ जा सकता है . और उनकी पार्टी आने के बाद सब का नुकसान होगा सिवा कांग्रेस के और सबके नुक्सान का फ़ायदा उनकी पार्टी को हो सकता है ..
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Saturday, January 9, 2010

अमिताभ बच्चन के नए कद्रदान---- गुजरात के मोदी जी

शेष नारायण सिंह


जिन लोगों ने फिल्म तीसरी क़सम देखी है, उन्हें मालूम है कि ज़ालिम ज़मींदार की फरमाइश के आगे ,फणीश्वर नाथ रेणु की नौटंकी कलाकार क्यों नहीं झुकती.. उसे मालूम है कि ठाकुर तंगनज़र है है , तंगदिल है और जिद्दी है लेकिन महिला कलाकार अपने आत्म-सम्मान से समझौता नहीं करती. उसे यह भी मालूम है कि ठाकुर खतरनाक है लेकिन वह उसे सीमा में रहने को मजबूर कर देती है . शायद ऐसा इसलिए हो सका कि वह अन्दर से मज़बूत थी.और एक अपने अमिताभ बच्चन है ,कलाकार हैं और बा रुतबा कलाकार हैं . पिछले २५ वर्षों में जब भी अमिताभ बच्चन ने अपने आपको कलाकार कहा , हमें लगा कि वे उतने की मज़बूत होंगें जितना वह महिला कलाकार थी लेकिन टेलेविज़न पर उनको नरेंद्र मोदी के सामने झुकते देख कर लगा कि अब तक गलत सोचते रहे. पापी पेट के वास्ते अमिताभ बच्चन कुछ भी कर सकते हैं . वे मुलायम सिंह यादव के दरवाज़े पर भी रेंग सकते हैं और नरेंद्र मोदी की चापलूसी भी कर सकते हैं . अमिताभ बच्चन ने अपनी इस हरकत से क्या खोया ,हम नहीं जानते लेकिन अपनी फिल्म ' पा ' का मनोरंजन कर माफ़ करवाने के लिए वे किस मुकाम तक जा सकते हैं, वह दुनिया ने देख लिया..नरेंद्र मोदी की शान में अमिताभ बच्चन ने जिस तरह से कसीदे पढ़े , उस से साफ़ लग गया कि अब गुजरात में भी वही सब होगा जो उन्होंने कभी उत्तर प्रदेश में किया था . उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री, मुलायम सिंह यादव के लिए उन्होंने अतिशयोक्ति के सुर में बात की . एक बार तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि मुलायम सिंह मेरे पिता हैं.. बी जे पी के नेता राजनाथ सिंह उनके इस बयान से बड़े खुश हो गए थे और कहा था कि जीव विज्ञान के विद्वानों यह पता करना चाहिए कि क्या बाप बेटे की उम्र में केवल चार साल फर्क हो सकता है ..बहर हाल अब मुलायम सिंह सत्ता में नहीं हैं और जिस तरह से उनकी पार्टी चल रही हैं, सत्ता में बहुत दिनीं तक आने की उम्मीद भी नहीं है . दुनिया जानती है कि जब १८५७ में दिल्ली उजड़ गयी थी, तो बड़ी संख्या में कलाकारों ने राम पुर, और हैदराबाद को अपना ठिकाना बना लिया था . इस लिए जब मुलायम सिंह की हैसियत किसी कलाकार और उसके परिवार को संरक्षण देने की नहीं है तो वह और दरबारों की तलाश में निकल जाएगा . जहां तक मुलायम सिंह यादव का सवाल है , अमिताभ बच्चन को बहुत अहमियत देकर उन्होंने अपनी पार्टी के जनाधार को ही लगभग समाप्त कर दिया है . समाजवादी पार्टी के अन्य नेताओं ने उस जनाधार को साथ रखने की पूरी कोशिश की लेकिन जनाधार तो हवा के रुख के साथ चलता है और वह खिसकता गया . फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार एक दिन में नहीं हुई थी . मुलायम सिंह यादव के पड़ोस में रहने वालों ने देखा था कि किस तरह उनके नेता को फ़िल्मी दुनिया ने उनसे छीन लिया है और जब चुनाव का मौक़ा आया तो अवाम ने अपना फैसला सुना दिया.. लोक सभा 2००९ के चुनाव में समाजवादी पार्टी के शुभचिंतक नेताओं, जनेश्वर मिश्र, राम गोपाल यादव, ब्रज भूषण तिवारी और मोहन सिंह ने जो घोषणा पत्र बनाया उसमें अंग्रेज़ी और कंप्यूटर के खिलाफ नीति बनाने की बात लिख दी गयी. जब मैंने जनेश्वर मिश्र से पूछा कि इस प्राचीन विचारधारा को घोषणा पत्र में क्यों लिखा गया है तो उन्होंने बताया कि सनीमा वाले आजकल पार्टी में बहुत घुस रहे हैं उनको दूर रखने और आम आदमी को पार्टी में रोके रखने के लिये ऐसा किया गया है . ज़ाहिर है समाजवादी पार्टी के असली और बड़े नेता सिनेमा वालों को दूर रखना चाहते थे क्योंकि उनके हिसाब से सिनेमा वालों को साथ रखने से कोई फायदा नहीं होता ,उलटे नुकसान ही होता है ... मुलायम सिंह यादव ने अमिताभ बच्चन के परिवार के लिए जो किया वह सब को अजीब लगता था. बाराबंकी की ज़मीन का विवाद तो दुनिया जानती है. अमिताभ बच्चन , जया बच्च्चन, ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन को उत्तर प्रदेश में वह मुकाम दे दिया गया था जो कि राज्य के सामान्य नागरिकों और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को सपने में भी हासिल नहीं था. मुलायम सिंह यादव ने अपनी सरकार की पूरी ताक़त लगा दी कि अमिताभ बच्चन के पिता , डॉ. हरिवंश राय बच्चन को महाकवि घोषित करवा दें लेकिन आलोचक उन्हें एक तुकबंदीकार से ज्यादा मानने को तैयार ही नहीं हैं .. मौजूदा राजनीतिक समीकरणों पर नज़र डालें तो ऐसा लगता है कि आने वाले कई वर्षों तक मुलायम सिंह यादव वह सारी सुविधाएं देने की स्थिति में नहीं रहेंगें . ज़ाहिर है कि उन सुविधाओ की तलाश शुरू हो चुकी थी. अमिताभ बच्चन के रिश्ते कांग्रेस के नंबर वन परिवार से बहुत खराब हैं,लिहाज़ा वहां तो प्रवेश संभव नहीं था. मोदी का राज्य अमिताभ बच्चन की कर्मभूमि के क़रीब भी है और मोदी तैयार भी हो गए लगते हैं . उनकी राजनीतिक हैसियत भी ऐसी है कि वे अपनी पार्टी में जो चाहें कर सकते हैं . इस लिए वे अमिताभ बच्चन के परिवार को वह राजनीतिक गिज़ा उपलब्ध करवा सकते हैं जिसकी अब बच्चन परिवार को आदत पड़ चुकी है ..ऐसी हालत में लगता है कि नरेंद्र मोदी की शरण में जाना अमिताभ बच्चन के लिए एक व्यापारिक और राजनीतिक फैसला है . मोदी भी अपने फन के माहिर हैं और अमिताभ बच्चन तो शताब्दी के सबसे बड़े अभिनेता माने जा चुके हैं . ज़ाहिर है आने वाला वक़्त आम आदमी को बहुत सारा मनोरंजन लेकर आने वाला है