शेष नारायण सिंह
आर एस एस और बीजेपी के उस विभाजक दौर में उत्तर प्रदेश में उनको पुरानी धर्मनिरपेक्ष पार्टी ,कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिली लेकिन जब १९८९ के चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता संभाली तो साम्प्रदायिक ताक़तों को हर मुकाम पर रोकने की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गयी. उसी दौर की राजनीति में गाफिल पाए जाने के कारण ही उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये पर आ गयी . मुलायम सिंह यादव ने अपने आपको एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में पेश किया और आज तक उसी कमाई के सहारे राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का दबदबा बना हुआ है . धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है . १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उत्तर प्रदेश में जब मुलायम सिंह यादव ने देखा कि आर एस एस की ताक़त रोज़ ही बढ़ रही है तो उन्होंने बीजेपी और कल्याण सिंह को बेदखल करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से हाथ मिला लिया. उस दौर में मैंने उनसे बात की थी और कहा था कि कांशीराम और मायावती की टोली का साथ करके उन्होंने अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो उन्होंने साफ़ कहा कि अगर मैं कांशी राम को साथ न ले लेता तो वह बीजेपी के साथ चले जाते और वह देश के लिए अच्छा न होता . इसलिए कुछ इलाकों में अपनी ताक़त से उन लोगों को कुछ सीटें देकर मैं साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रख सकूंगा . वह काम मुलायम सिंह ने किया भी. अपने जिले की इटावा सीट से कांशी राम को लोकसभा का सदस्य बनवाया , राज्य में कई जिलों में जहां उनकी पार्टी मज़बूत थी ,वहां से बहुजन समाज पार्टी को जिताया ,उनकी पार्टी की सबसे महत्वपूर्ण नेता ,मायावती थीं. उन्हें फैजाबाद जिले की राजनीति में जमाया लेकिन कांशीराम को बीजेपी की शरण में जाने से रोक नहीं सके. बाद में तो मुलायम सिंह यादव कहते रहते थे कि मायावती की राजनीति साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है.
एक बार फिर बीजेपी में वही माहौल बन रहा है कि साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे करके ही सत्ता हासिल करने की कोशिश की जाए.लाल कृष्ण आडवाणी इस बार भी उम्मीद लगाए हुए हैं लेकिन अब लगता है कि उनके अपने लोग ही उन्हें पीछे कर सकते हैं . साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उदाहरण बन चुके , नरेंद्र मोदी भी इस बार प्रधानमंत्री पद के सपने देख रहे हैं . हालांकि गुजरात के बाहर चुनावों को प्रभावित कर सकने की उनकी क्षमता बिलकुल जीरो है लेकिन साम्प्रदायिक राजनीति के वे पोस्टर ब्वाय हैं . ऐसी हालत में धर्म निरपेक्ष ताक़तों के ध्रुवीकरण की ज़रुरत देश के सामने जितना आज है उतनी कभी नहीं रही.
इस पृष्ठभूमि में कन्नौज के उपचुनाव में कांग्रेस की भूमिका महत्त्व हासिल कर लेती है . मुख्य मंत्री अखिलेश यादव की लोकसभा सीट के खाली होने के बाद हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस ने कोई उम्मीदवार नहीं उतारा .बहुजन समाज पार्टी अभी विधान सभा चुनावों में हुई हार के बाद सकते में है और उसने भी निश्चित हार के डर से कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया . बीजेपी ने अपने उम्मीदवार को टिकट देकर लखनऊ से दौडाया लेकिन वह ढाई घंटे में कन्नौज पंहुच नहीं पाया . लिहाजा बीजेपी का उम्मीदवार भी मैदान में नहीं है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने अभी तीन महीने पहले निर्णायक जीत हासिल की है. ज़ाहिर है उसकी जीत पक्की थी चाहे जिसका उम्मीदवार मैदान में होता लेकिन कांग्रेस ने यह घोषणा करके कि वह डिम्पल यादव के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारेगी, एक अलग तरह का सन्देश देने की कोशिश की है . जानकार बताते हैं कि राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनावों में कांग्रेस को समाजवादी पार्टी का सहारा चाहिए ,इसलिए कांग्रेस ने कन्नौज में समाजवादी पार्टी को वाक् ओवर दिया है .लेकिन यह सच नहीं है . कन्नौज डॉ राम मनोहर लोहिया की सीट रही है और उस सीट पर जब समाजवादी पार्टी की प्रतिष्ठा की लड़ाई हो रही होगी तो किसी कांग्रेसी उम्मीदवार की मुलायम सिंह की बहू को हराने की हैसियत नहीं है . कांग्रेस की इस पहल के विस्तृत राजनीतिक सन्दर्भ हैं . राष्ट्रपति के चुनाव में तो जो भी होगा ,इस पहल को अगर कांग्रेस आगे बढाने में कामयाब हो गयी तो नरेंद्र मोदी की अगुवाई में देश में सन १९९२ वाला माहौल बनाने की जो कोशिश शुरू हो गयी है उसे लगाम दी जा सकेगी.
कन्नौज की लोक सभा सीट बहुत ही दिलचस्प सीट है . १९६७ में डॉ राम मनोहर लोहिया इसी सीट से उम्मीदवार थे लेकिन वे प्रचार के लिए कन्नौज एकाध बार ही आये. उनका कहना था कि व्यापक राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने हों तो ज़िम्मेदार राजनीतिक पार्टियों को चुनावी लालच में नहीं पड़ना चाहिए . १९६७ के चुनाव में वे ज़्यादातर समय फूलपुर संसदीय क्षेत्र में लगा रहे थे क्योंकि वहां उनके प्रिय शिष्य जनेश्वर मिश्र जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को चुनौती दे रहे थे . लोक सभा और विधान सभा उस साल एक साथ हुए थे . उसी साल मुलायम सिंह यादव पहली बार कन्नौज के करीब की ही जसवंत नगर सीट से विधायक चुने गए थे . डॉ लोहिया ने धर्मनिरपेक्ष राजनीति का जो महत्व उस वक़्त उनको समझया था वही मुलायम सिंह यादव की राजनीति का स्थायी भाव बना रहा .
कन्नौज के मौजूदा उपचुनाव में कांग्रेस ने जो रुख अपनाया है कि वह आने वाले दिनों में सेकुलर राजनीति की दिशा में एक ज़रूरी शुरुआत भी हो सकती है . हालांकि यह भी सच है कि कन्नौज में चुनाव लड़कर भी कांग्रेस के हाथ हार ही आनी थी लेकिन चुनाव न लड़ कर कांग्रेस ने भविष्य की राजनीति में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को बड़ा भाई मानने की पहल कर दी है . सबको मालूम है कि नरेंद्र मोदी को आगे करके आर एस एस एक बार फिर देश को साम्प्रदायिकता के तनाव में झोंक देने की फ़िराक़ में है . ऐसी हालत में अगर कांग्रेस के नेता अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को साथ लेने में सफल होते हैं तो देश के भविष्य के लिए यह बहुत ही अच्छा लक्षण होगा.