Saturday, May 25, 2013

इस्लामी देशों में धार्मिक असहिष्णुता सबसे ज्यादा




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली , 2४ मई .अमरीका ने २०१२ की इंटरनैशनल रिलीजस फ्रीडम रिपोर्ट जारी कर दिया है . पूरी दुनिया में धार्मिक स्वतन्त्रता  पर होने वाले हमलों के रिकार्ड के रूप में अपनी पहचान बना चुकी यह रिपोर्ट सभी देशों के नीति नियामकों के बीच चर्चा का विषय हर साल बनती है , इस साल भी बन रही है . इसी हफ्ते अमरीकी विदेश मंत्री  जान केरी ने रिपोर्ट को जारी किया और उन्होंने जो बातें कहीं उनमें प्रमुख यह है की पश्चिमी देशों में इस्लाम के खिलाफ माहौल बन रहा है . अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुए हमलों  के बाद पश्चिम में मुसलमानों के प्रति व्यवहार में भारी बदलाव आया है . अल कायदा ने मुसलमानों को सर्वोच्च साबित करने के चक्कर में आतंक का सहारा लिया और इस्लामी देशों सहित बाकी दुनिया में आतंक का  माहौल बनाया . माना जाता है कि  मुसलमानों के खिलाफ पूरी दुनिया में बन रहे माहौल का  सबसे बड़ा कारण निर्दोष लोगों पर अल कायदा और उसके सहयोगियों द्वारा किये जा रहे आतंकी हमले ही हैं .रिपोर्ट में बताया गया है की ज़्यादातर पश्चिमी देशों में  मुसलमानों के प्रति सहानुभूति  बहुत तेज़ी से घट रही है .यह भी प्रमुखता से बताया गया है कि  इस्लामी देशों  में धामिक नफरत बहुत ज़्यादा है . वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ तरह तरह के अन्याय हो रहे हैं और सरकारें उन अत्याचारों में या तो शामिल हैं और अगर नहीं शामिल हैं तो बढ़ावा दे रही हैं . 
रिपोर्ट में पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमानों के ऊपर हो रहे अत्याचार का भी विस्तार से उल्लेख किया गया है .अहमदिया मुसलमान अपने को इस्लाम का अनुयायी मानते हैं लेकिन कई इस्लामी देशों में उन्हें अपने धर्म  का पालन करने की अनुमति नहीं है .साउदी  अरब ,पाकिस्तान और इंडोनेशिया में अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को परेशान किया जाता है , उन्हें गिरफ्तार किया जाता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है .साउदी अरब में जो  मुसलमान सरकार की तरफ से दी जाने वाली सुन्नी मुसलमान के परिभाषा से सहमत नहीं होते उनके साथ हर तरह का भेदभाव किया जाता है . जिन देशों में सुन्नी मत मानने वालों के हाथ में सत्ता है वहां शिया मुसलामानों की हालत बहुत खराब है . रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान में शिया मुसलमानों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है . एक जानकार का कहना है कि अगर ईरान और इराक में शिया राज न  होता तो शायद पाकिस्तानी शियाओं  को भी उन्हीं परेशानियों का सामना करना पड़ता जो अहमदियों को झेलना पड़  रहा है . बहरीन में शिया मुसलमानों  के खिलाफ भेदभाव की नीति लागू है . उन्हें प्रताड़ना दी जाती है . बहरीन सरकार ने ३१ शियाओं और उनके तीन धर्मगुरुओं की  नागरिकता समाप्त कर दी और उन्हें तरह तरह से परेशान  किया . पाकिस्तान में एक ऐसा कानून बना दिया गया है जिसके अनुसार अगर किसी अहमदिया मुसलमान ने अपने आपको मुसलमान कहकर परिचय दे दिया तो उसे तीन साल की सज़ा हो सकती है .इस पाकिस्तानी क़ानून के अनुसार वोट देने के लिए वहां लोगों को राष्ट्रीय पहचानपत्र बनवाना पड़ता है .मुसलामानों को  इस पहचान पत्र को बनवाने के लिए एक हलफनामा देना पड़ता है जिसमें लिखा होता है कि  वह व्यक्ति हज़रत मुहम्मद को आखिरी पैगम्बर मानता है  और वह अहमदी मुसलमानों के आन्दोलन के संस्थापक को फर्जी पैगम्बर मानता है .इस प्रावधान के कारण अहमदिया मुसलमानों को पाकिस्तान में वोट देने का अधिकार नहीं मिला हुआ है क्योंकि वे अपने संस्थापक को फर्जी बताने वाले हलफनामे पर दस्तखत करने को तैयार नहीं होते .
शिया बहुमत वाले इरान में सुन्नी मत को मानने वालों के साथ वही व्यव्हार किया जाता है जो सुन्नी बहुमत वाले देशों में शिया मुसलमानों के साथ होता है .ईरान में बहाई, सुन्नी,जिसमें सूफी भी शामिल हैं , ईसाई ,यहूदी यहाँ तक कि वे शिया जो शिया मत  की सरकारी व्याख्या से नहीं सहमत होते ,धार्मिक उत्पीडन के शिकार होते हैं .ईसाई धर्मगुरु, बेह्नाम इरानी और फर्शीद फतही  को अपनी धार्मिक विचारधारा के कारण कई साल जेलों में रहना पडा था.  पाकिस्तान में ईशनिंदा क़ानून का इस्तेमाल सरकारी अधिकारी निजी दुश्मनियाँ निकालने के लिए भी करते  हैं .पाकिस्तान में सरकार भी बहुत बड़े पैमाने पर धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा देती है . वहां ईशनिंदा कानून और अहमदिया विरोधी क़ानून सरकार के हाथ में ऐसे हथियार हैं जिनके कारण पाकिस्तान में सूफी,हिन्दू, ईसाई,अहमदिया मुसलमान और शिया मुसलामानों को परेशान किया जाता है .

रिलायंस को लाभ पंहुचाने के लिए वीरप्पा मोइली गैस की कीमत बढ़ाएगें




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, २४ मई . पेट्रोलियम  और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने प्राकृतिक  गैस की कीमत बढाने का मन बना लिया है . मंत्रालय के सेक्रेटरी सहित सभी अधिकारी इस वृद्धि के पक्ष में नहीं है लेकिन पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली सारे विरोध को नज़रंदाज़ करके गैस का दाम बढाने के बारे में  कटिबद्ध हैं . कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और  संसद सदस्य गुरुदास दासगुप्ता ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर हस्तक्षेप की मांग की है और कहा है कि देश को इस संभावित घोटाले से बचा लिया जाये. गुरुदास दासगुप्ता ने आरोप लगाया है की गैस की कीमतों में प्रस्तावित इस वृद्धि से मुकेश  अम्बानी के रिलायंस ग्रुप को ही लाभ होगा . गुरुदास दासगुप्ता ने इसे देश की संपत्ति की लूट बताया है और कहा कि अगर वीरप्पा मोइली अपनी जनविरोधी  नीतियों  को लागू करने पर आमादा रहते हैं तो उन्हें हटा दिया जाना चाहिए . वीरप्पा मोइली भी रिलायंस के आतंक से दहशत में बताये जा रहे हैं क्योंकि रिलायंस के फायदे के लिए काम न करने की जिद पर अड़ चुके जयपाल रेड्डी पिछले दिनों पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाये जा चुके हैं . 


अभी प्राकृतिक गैस की कीमत 4.२ डालर प्रति एम बी टी यू की फिक्स  का गयी है जो  ३१ मार्च २०१४ तक जारी रहेगी। पेट्रोलियम मंत्रालय ने एक कैबिनेट नोट के ज़रिये संशोधित मूल्य ६.७ डालर प्रति एम बी टी यू तय करने की सिफारिश की है .एम बी टी यू गैस के माप की यूनिट है और एक हज़ार  क्यूबिक फीट की ऊर्जा वाली गैस को एक एम बी टी यू  के बराबर माना जाता है . अगर यह कीमतें लागू हो जाती हैं तो सरकारी कंपनियों को यो तुरंत लाभ होगा लेकिन रिलायंस को इंतज़ार करना पडेगा क्योंकि उसे यह लाभ अप्रैल २०१४ से मिलना शुरू होगा. वित्त , उर्वरक और विद्युत् मंत्रालय के अफसर इस वृद्धि का विरोध कर रहे हैं क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो मंहगाई के मार झेल रही देश की जनता के सामने मंहगाई का  पहाड़ खड़ा हो जाएगा क्योंकि उसके बाद  रासायनिक  खाद, बिजली और बिजली से पैदा होने वाली हर चीज़ की कीमत बढ़ जायेगी  जो आम आदमी के ऊपर तो भारी बोझ होगा ही लेकिन सरकार के लिए भी इसे राजनीतिक रूप से संभाल पाना बहुत ही मुश्किल हो जाएगा .


गुरुदास दासगुप्ता ने आरोप लगाया है कि हर मंत्रालय से आ रहे विरोध के बावजूद वीरप्पा मोइली इस बढ़ोतरी को लागू करने पर आमादा  हैं . कैबिनेट नोट से भी आगे जाकर वे गैस की कीमतों में वृद्धि इस तरह से करना चाहते हैं कि रिलायंस को लगातार लाभ मिलता रहे . उन्होंने सुझाव दिया है कि गैस की कीमतें मौजूदा ४.२ डालर प्रति एम बी टी यू  से बढ़ाकर  ८ डालर प्रति एम बी टी यू  कर दिया जाए,  लेकिन यह कीमत  केवल एक साल तक वैध रहेगी , दूसरे  साल मोइली साहब यह कीमतें १० डालर प्रति एम बी टी यू  , तीसरे साल १२ डालर प्रति एम बी टी यू  और चौथे और पांचवें साल १४ डालर प्रति एम बी टी यू  करना चाहते हैं .पेट्रोलियम सचिव और अन्य अधिकारियों ने मंत्री  की मनमानी और तर्कहीन वृद्धि के प्रस्ताव का विरोध किया है . वीरपा मोइली  उन अफसरों  पर दबाव डाल रहे हैं कि वे उस फ़ाइल पर दस्तखत कर दें  जिसमें उनकी मूल्यवृद्धि की सिफारिशें लिखी हुयी हैं . अगर वीरप्पा मोइली की बात मान ली गयी तो ७६००० हज़ार करोड़ रूपये की फालतू सब्सिडी सरकारी खजाने पर पड़ेगी और उसका लाभ  सबसे ज़्यादा रिलायंस को ही मिलेगा .

दिग्विजय सिंह के नाम से कुछ लोगों को गुस्सा क्यों आता है .?



शेष नारायण सिंह

 कर्नाटक में बीजेपी की हार के बाद उस हार के कारणों का विश्लेषण अब एक
कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है . एक नए विश्लेषक भी मैदान में हैं .
शिवसेना के सांसद संजय राउत ने हार के कारणों में हिंदुत्व से दूरी को
बताया है .अपनी पार्टी के अखबार सामना के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा है
कि अगर बीजेपी ने हिंदुत्व को फोकस में रखा होता तो कर्नाटक में इतनी
बड़ी हार न होती. संजय राउत ने मोदी को भी हिंदुत्व से अलग होने पर खरी
खोटी सुनायी है और कहते हैं अगर मोदी ने हिंदुत्व का सम्मान नहीं किया तो
उनमें और दिग्विजय सिंह कोई फर्क नहीं रहेगा . बीजेपी के नेता भी
दिग्विजय सिंह का नाम आते ही इस तरह से बिफर पड़ते हों जैसे उन्हें लाल
अंगोछा दिखा दिया गया हो .किसी भी विषय पर दिग्विजय सिंह की राय को
बीजेपी वाले खारिज करने में एक मिनट नहीं लगाते . मीडिया में भी एक बड़ा
वर्ग ऐसे पत्रकारों का है जो दिग्विजय सिंह को बहुत ही अछूत टाइप मानते
हैं .  अन्ना हजारे, रामदेव और अरविन्द केजरीवाल के समर्थकों  में ऐसे
लोगों की बड़ी संख्या है जो दिग्विजय सिंह का नाम आते ही गुस्से में आ
जाते हैं और कुछ तो यह  कहते सुने गए हैं वे दिग्विजय सिंह की बातों को
गंभीरता से नहीं लेते . कांग्रेस में बड़े नेताओं का एक ताक़तवर वर्ग
दिग्विजय सिंह के किसी बयान के बाद उस बयान से अपनी दूरी बनाने के लिए
व्याकुल हो जाता है . सोशल मीडिया में भी दिग्विजय सिंह को गाली देने
वालो का एक बहुत बड़ा वर्ग है . जानकार बताते हैं वह वर्ग भी हिंदुत्ववादी
ताक़तों ने ही बनाया है .कुल मिलाकर ऐसा माहौल बन गया है कि हिंदुत्ववादी
साम्प्रदायिक पार्टियों में किसी को दिग्विजय कह देना बहुत अपमान जनक
माना जा रहा है .

सवाल यह उठता  है कि दिग्विजय सिंह के खिलाफ इस तरह का माहौल क्यों है ?
इस सवाल का जवाब उनसे ही लेने की कोशिश की गयी लेकिन उन्होंने कोई जवाब
देने से साफ़ मना कर दिया और कहा कि उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही है
जिसके कारण उनके खिलाफ इस तरह का माहौल बनाया जाए . वे अपनी पार्टी की
बात करते हैं उसके सिद्धांतों की बात करते हैं और पार्टी में उनका कोई
विरोध नहीं है . उनकी पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों में सभी धर्मों
संप्रदायों और जातियों को साथ लेकर चलने की बात कही गयी है इसलिए अगर कोई
भी व्यक्ति किसी भी भारतीय को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश
करेगा तो उसका विरोध किया जाएगा और उसकी राजनीतिक सोच को बेनकाब किया
जाएगा .

 मीडिया के बड़े वर्ग और दक्षिणपंथी पार्टियों के  तीखे रुख के बावजूद
दिग्विजय सिंह की पार्टी में उनकी ताक़त किसी से कम नहीं .पार्टी के
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का उन्हें पूरा संरक्षण मिला हुआ है .इसलिए यह बात
साफ़ है कि बीजेपी , शिवसेना और उनके मुरीद चाहे जो कहें कांग्रेस पार्टी
दिग्विजय सिंह को एक महत्वपूर्ण नेता मानती है और उनकी बातों का सम्मान
किया जाता है . ज़ाहिर है कांग्रेस को उनके बयानों और राजनीति से कोई
नुक्सान नहीं हो रहा है और पार्टी उनकी राजनीतिक सोच को आगे बढाने को
तैयार है . दिग्विजय सिंह के विरोधी भी मानते हैं  कि वे धर्मनिरपेक्षता
की राजनीति को आगे बढाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं . और जब उस
राजनीति से पार्टी का कोई नुक्सान नहीं हो रहा हो तो उनकी पार्टी को क्या
एतराज़ हो सकता है . इस बारीकी को समझने के लिए कांग्रेस के समकालीन
इतिहास पर नज़र डालनी पड़ेगी. महात्मा गांधी, सरदार पटेल , मौलाना आज़ाद और
जवाहरलाल नेहरू आज़ादी के पहले और उसके बाद के  सबसे बड़े नेता थे .
उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में बता दिया था कि धर्मनिरपेक्षता इस
राष्ट्र की स्थापना और संचालन का बुनियादी आधार रहेगा . देखा गया है कि
जवाहरलाल नेहरू के जाने के  बाद कांग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की
राजनीति को  कमज़ोर किया उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा .

सबसे पहले इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह को छोड़ने
की कोशिश की . विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में बंद थे और ऐसा लगता था
कि बाहर  निकलना असंभव था . आर एस एस वाले भी बंद थे . उस वक़्त के आर एस
एस के मुखिया बालासाहेब  देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को
कई पत्र लिखे और कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का भरोसा दिया . १०
नवंबर 1975 को येरवदा जेल से लिखे एक पत्र में बालासाहेब देवरस ने इंदिरा
गांधी को बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय बेंच ने उनके
रायबरेली वाले चुनाव को वैध ठहराया है.  इसके पहले 22 अगस्त 1975 को लिखे
एक अन्य पत्र में आर एस एस प्रमुख ने लिखा कि ''मैंने आपके 15 अगस्त के
भाषण को काफी ध्यान से सुना। आपका भाषण आजकल के हालात के उपयुक्त था और
संतुलित था।'' इसी पत्र में उन्होने इंदिरा गांधी को भरोसा दिलाया था कि
संघ के कार्यकर्ता पूरे देश में फैले हुए हैं जो निस्वार्थ रूप से काम
करते हैं। वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेगें
. इस सब के बावजूद भी इंदिरा गांधी के रुख में तो कोई बदलाव नहीं हुआ
लेकिन उनके बेटे संजय गांधी ने मुसलमानों के विरोध का रवैया अपनाया .
अपने खास अफसरों को लगाकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की और कोशिश
की कि देश के बहुसंख्यक हिंदू  उनको मुस्लिमविरोधी के रूप में स्वीकार कर
लें . यह वह कालखंड है जब कांग्रेस ने पहली बार साफ्ट हिंदुत्व को अपनी
राजनीति का आधार बनाने की कोशिश की थी. कांग्रेस की १९७७ की हार में अन्य
कारणों के अलावा इस बात का महत्त्व सबसे ज्यादा था .हार के बाद  इंदिरा
गांधी ने फिर धर्मनिरपेक्षता की बात शुरू कर दी और उनको हराने वाली जनता
पार्टी में  फूट डाल दी . उन्होंने देश को बताना शुरू कर दिया कि जनता
पार्टी वास्तव में आर एस एस की पार्टी है उसमें समाजवादी तो बहुत कम
संख्या में हैं . जनता पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी विचारक मधु लिमये
ने भी साफ़ ऐलान कर दिया कि आर एस एस वास्तव में एक राजनीतिक पार्टी है और
उसके सदस्य जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते . कई महीने चली बहस के बाद
जनता पार्टी टूट गयी और १९८० में कांग्रेस पार्टी दुबारा सत्ता में आ गयी
.

दोहरी सदस्यता के बारे में लाल कृष्ण आडवानी ने अपने ब्लॉग में लिखा है
कि ” मुख्य रूप से 'दोहरी सदस्यता' का विचार मधु लिमये की मानसिक उपज था,
जिसका लक्ष्य था जनता पार्टी के उन सदस्यों को कमजोर करना, जो पहले जनसंघ
का हिस्सा थे और लगातार संघ से जुड़े हुए थे। जब जनता पार्टी को बने एक
वर्ष भी नहीं हुआ था तब लिमये, जो पार्टी के महासचिव थे, ने इस बात पर
जोर दिया कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य साथ-ही-साथ संघ का भी सदस्य
नहीं हो सकता” उन्होंने कांग्रेस की जीत का भी अपने तरीके से ज़िक्र किया
है .लिखते हैं कि “ वर्ष 1980 के संसदीय चुनावों में जनता पार्टी की हार
का अनुमान मुझे पहले से ही था। यह हार अत्यंत गंभीर थी। इसने दर्शाया कि
मतदाता 1977 के जनादेश के साथ विश्वासघात करने के लिए पार्टी को दंड देना
चाहते थे। 1977 में 298 सीटों की तुलना में पार्टी को मात्र 31 सीटें
प्राप्त हुईं। इसमें जनसंघ की सीटें 1977 में 93 की तुलना में मात्र 16
थीं। दूसरी ओर इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस (आई) शानदार तरीके
से वापस लौटी और 1977 के 153 सांसदों की तुलना में 1980 में उसके 351
सांसद विजयी रहे, जो कि 542 सदस्यीय सदन में लगभग दो-तिहाई बहुमत था।“

दूसरी बार कांग्रेस ने साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को अपनाने का कार्य
बाबरी मसजिद के लिए चलाये गए आर एस एस के आंदोलन के दौरान किया जब राजीव
गांधी मंत्रिमंडल में गृहमंत्री , सरदार बूटा सिंह  ने जाकर अयोध्या में
बाबरी मसजिद के पास एक मंदिर का शिलान्यास करवा दिया . काँग्रेस पार्टी
उसके बाद हुए १९८९ के चुनावों में हार गयी . १९९१ में पी वी नरसिम्हाराव
ने जुगाड करके एक सरकार बनायी .कांग्रेस की इसी सरकार के काल में बाबरी
मसजिद का विध्वंस हुआ और उसके बाद हुए चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी.
उसके बाद कांग्रेस पार्टी इतिहास का विषय बनने की तरफ बढ़ रही थी लेकिन
१९९७ के कोलकता कांग्रेस में सोनिया गांधी ने पार्टी की सदस्यता ली और
१९९८ में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं. उस वक़्त कांग्रेस की हालत बहुत खराब थी
. लेकिन सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्षता की राह
से भटक गयी थी अब वे हमेशा उसी धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलती रहेगीं
.सिद्धांतों को फिर से संभाल लेने का ही नतीजा है कि कांग्रेस ने अपनी
पुरानी हैसियत को पाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया और २००४ में
केन्द्र सरकार पर कांग्रेस का दुबारा कब्ज़ा हो गया . मुख्य विपक्षी दल तब
से लगातार सिमट रहा है .बीजेपी की सरकारें कई राज्यों में बन गयी थीं जो
अब धीरे धीरे विदा हो रही हैं . राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इसका कारण
कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष नीतियां हैं .



दिग्विजय सिंह कांग्रेस की इसी आक्रामक धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ा रहे
हैं .ज़ाहिर है धर्मनिरपेक्ष राजनीति से बीजेपी को चुनावी नुक्सान हो रहा
है और उसके नेता जब भी मौक़ा मिलता है ,दिग्विजय सिंह के खिलाफ अभियान
चलाने का अवसर नहीं चूकते . बीजेपी के समर्थक भी दिग्विजय सिंह को बहुत
ही घटिया इंसान के रूप में पेश करने में संकोच नहीं करते .रामदेव जैसे
लोगों के अलावा मीडिया में मौजूद बीजेपी के सहयोगी भी दिग्विजय सिंह के
हर बयान  को अपनी सुविधानुसार  पेश करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आज
दिग्विजय सिंह साम्प्रदायिक ताक़तों को चुनौती देने की राजनीति के विशेषण
बन चुके हैं और उनकी पार्टी में उनको पूरा सम्मान मिल रहा है ..