Wednesday, August 5, 2009

बुंदेलखंड की राजनीतिक लड़ाई

उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में अपनी खोई हुई राजनीतिक हैसियत को दोबारा हासिल करने के लिए कांग्रेस ने बुंदेलखंड का रास्ता चुना है। बुंदेलखंड में ही राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से जीवित करने के अपनी योजना का परीक्षण किया था इलाके के दलितों के यहां भोजन करके उन्होंने राज्य की सबसे बड़ी पार्टी की नेता और मुख्यमंत्री मायावती को चुनौती दी थी।

काफी हद तक कामयाब रहे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस आज बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को बराबर की टक्कर दे रही है। रीता बहुगुणा जोशी को गिरफ्तार करवाने की योजना की सफलता के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। जानकार बताते हैं कि रीता बहुगुणा की गिरफ्तारी करवाने की रणनीति के पीछे कांग्रेस की योजना वास्तव में राज्य में विपक्ष के स्पेस पर कब्जा करने की थी लेकिन गिरफ्तारी के साथ-साथ मायावती की पार्टी और सरकार ने राजनीतिक भूल कर दी। रीता बहुगुणा का किराए का घर जलवा दिया।

बस फिर क्या था पूरे देश में इस प्रशासनिक बर्बरता के खिलाफ माहौल बन गया। जिसका कांग्रेस को बड़ा फायदा हुआ। हर जिले में जो भी कुछ लोग कांग्रेसी कार्यकर्ता के नाम पर बचे खुचे थे, सड़कों पर आ गए और हर जिले में कांग्रेस का मामूली ही सही संगठन खड़ा हो गया। अजीब संयोग है कि उत्तर प्रदेश में कांशीराम की राजनीतिक कुशलता के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन खत्म हुआ था, जब मुलायम सिंह और बीजेपी का विरोध करने के नाम पर काशीराम ने कांग्रेस से विधानसभा चुनाव के लिए सीटों का समझौता किया था।

425 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को 134 सीटों पर सीमित कर दिया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। आज उन्हीं कांशीराम की शिष्या मायावती की एक राजनीतिक गलती से उत्तर प्रदेश के हर गांव में कांग्रेसी लामबंद हो रहे हैं और मामूली ही सही, एक संगठन का स्वरूप ले रहे हैं। रीता बहुगुणा का घर जलना, कांग्रेस के पुनर्जीवन की पहली सीढ़ी बन गया है। पिछले 20 साल से उत्तर प्रदेश में खाली बैठे कांग्रेसियों का एका एक कुछ काम मिल गया है और राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का सपना पूरा होने की तरफ बढ़ रहा है।

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में उम्मीद से ज्यादा सीटें पाकर कांग्रेस के नेतृत्व में भी उत्साह है। इसी उत्साह के चलते पार्टी में उत्तर प्रदेश को लेकर सक्रियता बढ़ गई है। राज्य के सांसदों का जो दल प्रधानमंत्री से मिलकर बुंदेलखंड की तरक्की के लिए अलग संगठन बनाने की बात कर रहा था, वह राजनीतिक शतरंज की बहुत अहम चाल को अंजाम दे रहा था। दुनिया जानती है कि बुंदेलखंड देश का सबसे पिछड़ा इलाका है।

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में 2009 के पहले तक मायावती की पार्टी सबसे मजबूत थी लेकिन मायावती ने सरकार बनाने के बाद इलाके की उपेक्षा की। नतीजा यह हुआ कि वहां राजनीतिक स्पेस बन गया। राहुल गांधी ने इसी राजनीतिक स्पेस को भरने की कोशिश शुरू कर दी है। चुनाव के पहले दलितों के यहां खाना पीना एकदम सोची समझी रणनीति के तहत किया गया था और अब बुंदेलखंड के विकास की बात कराना उसी स्पेस को भरने की तैयारी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसी सांसदों ने उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की तरक्की की बात को मुख्य एजेंडा बनाकर राजनीतिक शतरंज की ऐसी शह दी है जो दोनों ही राज्यों में मौजूदा राजनीतिक ता$कतों को मात देने की ताकत रखती है।

दोनों ही राज्यों में बुंदेलखंड का इलाका सदियों से उपेक्षित है। यह भी सही है कि इस उपेक्षा के लिए कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है लेकिन वह अब इतिहास का हिस्सा है। आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि जवाहर लाल नेहरू का एक वंशज बुंदेलखंड के रास्ते लखनऊ और भोपाल की रियासतों पर कब्ज़ा करने की मंसूबाबंदी कर चुका है।

हालांकि कांग्रेस की बुंदेलखंड नीति से उत्तर प्रदेश में बीएसपी और मध्यप्रदेश में बीजेपी को नु$कसान होने की संभावना है लेकिन घबराहट बीएसपी में ही ज्य़ादा है। बीजेपी ने तो सोमवार को लोकसभा में कांग्रेस की नीयत को कटघरे में लाने की कोशिश की लेकिन लखनऊ की सरकार में तो बुंदेलखंड के मैदान में राहुल को हर क़ीमत पर शिकस्त देने की कोशिश चल रही है। कहीं समरा कमेटी की रिपोर्ट का हवाला दिया जा रहा है जिसने बुंदेलखंड के विकास के लिए 3866 करोड़ रुपये के पैकेज की बात की थी तो मुख्यमंत्री खुद 80, 000 करोड़ की सहायता की मांग कर रही है।

राजनीति के जानकार बताते हैं कि बुंदेलखंड की लड़ाई आंकड़ों के खेल के दायरे से बाहर जा चुकी है, अब कुछ शुद्घ रूप से राजनीतिक युद्घ है जिसमें मैदान बेशक बुंदेलखंड का हो, हथियार और मकसद शुद्घ रूप में राजनीतिक है। सांसद में बीजेपी और बीएसपी के शोर गुल के बाद सरकार की तरफ से स्पष्टीकरण आ गया कि बुंदेलखंड के विकास के लिए किसी सरकारी एजेंसी का गठन पर अभी सरकार कोई विचार नहीं कर रही है।

बहुत सही बात है, सरकार ऐसी कोई योजना नहीं बना रही है। लेकिन एक बात और सच है कि बुंदेलखंड पर जो कांग्रेस की तरफ से जो चालें चली जा रही हैं, वे भी सरकारी नहीं है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात शुद्घ रूप से आइडिया के स्तर पर है लेकिन इस आइडिया ने अपना काम कर दिया है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात करके कांग्रेस ने यह बात साफ कर दिया है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारें इला$के के विकास के प्रति गंभीर नहीं हैं और कांग्रेसी बेचारे बहुत चिंतित हैं।

गेंद अब मायावती और शिवराज सिंह चौहान के पाले में है और उनके जवाब की ता$कत से ही बुंदेलखंड में कांग्रेस को पछाड़ा जा सकता है, दिल्ली में सरकार के सामने हल्ला गुल्ला करके राजनीतिक लड़ाई की बात सोचना भी दीवालियापन की श्रेणी में आएगा। बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी देश की राष्टï्रीय पार्टियां हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें और बुंदेलखंड में हो रहे कांग्रेसी हमले का जवाब राजनीतिक तरीके से दें क्योंकि राजनीतिक लड़ाई के फैसले प्रशासनिक हथियारों से नहीं होते।

जनता की संपत्ति की पूंजीवादी बंदर बांट

कृष्णा गोदावरी बेसिन से निकलने वाली गैस राष्ट्रीय और प्राकृतिक संपदा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के चक्कर में इस क्षेत्र की गैस की तलाश का काम अस्सी के दशक में रिलायंस ग्रुप की किसी कंपनी को दे दिया गया था। दिल्ली की राजनीति में रिलायंस और उसके सेठ धीरूभाई अंबानी का पिछले तीस साल से बहुत प्रभाव है। धीरूभाई ने उद्योग और व्यापार की दुनिया में बहुत तेजी से ऊंचाइयां तय की हैं। उनके निधन के बाद उनके दोनों बेटों ने कारोबार संभाल लिया था लेकिन कुछ दिन बाद ही मतभेद शुरू हो गए।

आज दोनों भाई अलग हैं और खूब लड़ रहे हैं। जैसा कि पूंजीवादी समाजों में होता है, एक-एक पैसे के लिए लड़ाई चल रही है। धीरूभाई अंबानी के जीवनकाल में ही इस परिवार का देश की राजनीति पर भारी प्रभाव था। उनके जाने के बाद उनके दोनों बेटों की राजनीतिक ताकत बिलकुल कम नहीं हुई है। आजकल कृष्णा गोदावरी गैस का मामला उद्योग व्यापार के साथ-साथ राजनीति के दायरे में भी आ चुका है।

पिछले हफ्ते लोकसभा में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस उत्तर प्रदेश के दादरी पावर प्लांट को दिए जाने में सरकारी गैर जिम्मेदारी का मामला जोर शोर से उठाया था और लोकसभा की कार्यवाही तक स्थगित हो गई थी। मामले के राजनीतिक महत्व के मद्देनजर सरकार ने सोमवार को बयान देने का वायदा किया था। वह बयान आ चुका है। लोकसभा में सरकारी बयानों की सधी हुई भाषा का इस्तेमाल करते हुए पेट्रोलियम मंत्री ने जो बयान दिया है, उससे हर तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं।

उन्होंने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के कृष्णा गोदावरी बेसिन से मिलने वाली गैस का बंटवारा करने के लिए एक नीति बनाई गई है, उसी नीति के हिसाब से बंटवारा होगा। यह नीति क्या है इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। ज़ाहिर है कि नीति है तो सरकारी कागजों में कहीं न कहीं दर्ज ज़रूर होगी। हां उनके बयान का अगला हिस्सा अनिल अंबानी खेमे को मायूस करने वाला है। उसमें मंत्री जी ने कहा कि कृष्णा गोदावरी बेसिन के डी ब्लाक की गैस ऐसे किसी प्लांट को एलाट नहीं की गई है जो उत्पादन की स्टेज तक नहीं पहुंचा है। यानी अनिल अंबानी ग्रुप के दादरी पावर प्लांट का कहीं कोई जिक्र नहीं है।

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुंख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में उत्तर प्रदेश के हितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया था। पेट्रोलियम मंत्री ने कहा कि दादरी प्लांट जब चल ही नहीं रहा है तो उसे गैस देने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने साफ किया जब प्लांट चलने लगेगा तो गैस की उपलब्धता की रौशनी में उसे गैस एलाट करने की बात पर विचार किया जाएगा। अपने इस बयान से पेट्रोलियम मेंत्री ने अंबानी बंधुओं के झगड़े और उससे संबद्घ राजनीति को एकदम नई दिशा दे दी है और निश्चित रूप से यह राउंड बड़े भाई मुकेश अंबानी की झोली में डाल दिया है। अनिल अंबानी की शिकायत यह नहीं है कि दादरी प्लांट चालू होने पर उन्हें गैस मिलेगी कि नहीं।

उनका आरोप है कि भाइयों के बीच कारोबार के बंटवारे के वक्त तय हुआ था कि अनिल अंबानी की कंपनियों के लिए कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस सस्ते दाम पर मिलेगी। हालांकि यह बात सार्वजनिक स्तर पर तो किसी को नहीं मालूम है लेकिन अंदर की बात को बुनियाद बनाकर गैस के बारे में समझौता हुआ था। आमतौर पर माना जाता है कि सरकार और रिलायंस के बीच हुए गैस के बंटवारे के समझौते में रिलायंस को बहुत ही रियायतें दी गई थीं। भाइयों के झगड़े के वक्त इन रियायतों को रिकॉर्ड पर तो नहीं लाया जा सकता था लेकिन अनिल अंबानी को अपनी कंपनियों के लिए मिलने वाली गैस की रियायती कीमत के जरिए बात दुरुस्त कर ली गई थी।

अब बाजार के रेट से गैस देने की बात करके मुकेश अंबानी खेमा अनौपचारिक समझौते से मुकर रहा है। सारी परेशानी की जड़ यही है। जहां तक राजनीतिक बिरादरी का सवाल है, वह इस मुद्दे पर पूरी तरह से विभाजित है। मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेसी नेता और पेट्रोलियम मंत्री पर आरोप लगाया है कि वह मुकेश अंबानी का पक्ष ले रहे हैं जबकि पेट्रोलियम मंत्री के करीबी लोगों का कहना है कि मुलायम सिंह यादव दूसरे अंबानी का पक्ष ले रहे हैं। इस सारी मारामारी में जनता की पक्षधरता वाली राजनीति बहुत कमजोर पड़ रही है।

सवाल पूछा जा रहा है कि कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस वास्तव में जनता से क्यों छीनी जा रही है जबकि जमीन की नीचे की हर संपदा राष्ट्र की संपत्ति होती है और राष्ट्र जनता का है। जब अस्सी के दशक में रिलायंस इंडस्ट्रीज को कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस ढूंढने का काम दिया गया था तो वह एक ठेकेदार की हैसियत से वहां गए थे। पिछले बीस वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि अंबानी परिवार जनता की उस संपत्ति का मालिक बन बैठा। यह सवाल बहुत ही गंभीर है और इसकी पूरी गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। नेताओं को भी चाहिए कि पूंजीपतियों के हित के साथ-साथ थोड़ा बहुत जनता का भी ध्यान दें।

महुआ टीवी- महकती मिट्टी और सिसकती बोलियां

रवीश के 'कस्बा' से

तू केकरा से प्यार करेलू हो....बोल न...काहे डेरा तारू....मनोज तिवारी प्रतियोगियों से इसी ज़ुबान में बोल रहे थे। प्रतियोगी सहमे हुए लेकिन सहज भी लग रहे थे। अपनों के बीच भी सहम जाता है। रांची की रीमा सिंह का वीडियो प्रोफाइल चल रहा था। बिस्तर पर उनके पांव बिखरे पड़े थे। कैमरा पांव पर था। वॉयस ओवर कहता है कि पांव पर ही फिदा हो गए थे रीमा के पति। शादी कर ली। अब चाहते हैं कि रीमा संगीत की दुनिया में नाम करे।

अपने संबंधों की निजता को लेकर सार्वजनिक होने का मौका अपनी बोली में जितना मिलता है उतना किसी में नहीं। रीमा खुलने लगती हैं। पहली बार वैसे कपड़ो में मंच पर हैं, जो शायद उनके पहनावा का हिस्सा न होगा। लेकिन जैसे ही माइक हाथ में दी जाती है...उनका सुर आगे पढ़े