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Wednesday, December 15, 2010

मध्य प्रदेश में सरकारी स्कीमों का फायदा लेने वालों को बीजेपी में भर्ती किया जाएगा

शेष नारायण सिंह

मध्य प्रदेश में बीजेपी का सदस्यता अभियान जोर शोर से चल रहा है . हर जिले में पार्टी के कार्यकर्ता ऐसे लोगों को तलाश रहे हैं जो पार्टी की सदस्यता स्वीकार कर लें और राज्य में बीजेपी का बहुत ही मज़बूत जनाधार बन जाय.इसके लिए बीजेपी ने जो तरीका अपनाया है वह लोकतंत्र के बुनियादी नियमों के खिलाफ है.एक बहुत ही सम्मानित अखबार में छपा है कि बीजेपी के जिला स्तर के कार्यकर्ता उन लोगों की लिस्ट लेकर घूम रहे हैं जिन्हें केंद्र और राज्य सरकार की स्कीमों से फायदा मिला है. ग्वालियर जिले में बीजेपी के एक नेता ने बताया कि जिन लोगों की लिस्ट बनायी गयी है ,उन्हें मजबूर नहीं किया जा रहा है . उनसे निवेदन किया जा रहा है कि बीजेपी बहुत अच्छी पार्टी है और उसका सदस्य बनने से बहुत लाभ होगा . उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों की सामाजिक संरचना को समझने वाले जानते हैं कि इस निवेदन का क्या भावार्थ है . एक उदाहरण से बात को समझने की कोशिश की जायेगी . एक बार उत्तर प्रदेश पुलिस का शिष्टाचार सप्ताह मनाया गया था .ऊपर से आदेश दिया गया कि सभी पुलिस वाले किसी को भी श्रीमान जी कहकर संबोधित करेगें और डांट फटकार की भाषा में किसी को संबोधित नहीं करेगें . थाने में तैनात सिपाहियों ने लोगों से बदतमीजी करना तो जारी रखा लेकिन संबोधन श्रीमान जी का ही होता था . मसलन जब किसी रिक्शे वाले को बिना अकिराया दिए कहेने ले जाना होता था तो उसे श्रीमानजी कहकर ही संबोधित किया जाता था . सरकारी पार्टी के निवेदन को भी इस हवाले से समझने में आसानी होगी.
सरकारी स्कीमों के लाभार्थियों की लिस्ट में से दस लाख लोगों को बीजेपी का सदस्य बनाने का लक्ष्य लेकर चल रहे बीजेपी के जिला स्तर के कार्यकर्ताओं में बहुत उत्साह है .पार्टी को भरोसा है कि २०१३ में जब विधान सभा के चुनाव होंगें तो इन दस लाख कार्यकर्ताओं की मदद से विपक्षी कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा हो जायेगी. मध्य प्रदेश में सरकार की बहुत सारी स्कीमें हैं. लाडली लक्ष्मी , मुख्यमंत्री कन्यादान ,जननी सुरक्षा आदि ऐसी स्कीमें हैं जिनकी वजह से ग्रामीण इलाकों के लोग सरकार के अहसानमंद हैं और सरकार चलाने वाली पार्टी उसी एहसान के बदले लोगों को अपनी पार्टी में भर्ती कर रही है . भारत के ग्रामीण इलाकों में लडकी की शादी जैसी जिम्मेवारी हर माता पिता के लिए एक ऐसी ज़िम्मेवारी होती है जिसमें मदद करने वालों का अहसान सभी मानते हैं . शिवराज सिंह सरकार की उस अहसान के बदले लोगों को पार्टी में शामिल करने की मुहिम से निश्चित रूप से बड़ी संख्या में लोग पार्टी में शामिल होंगें लेकिन सरकारी स्कीमों के सहारे और उनका अपने हित में इस्तेमाल करके लोगों को साथ लेना निश्चित रूप से सही राजनीतिक आचरण नहीं है . हालांकि इसमें कानूनी तौर पर कोई गलती नहीं निकाली जा सकती क्योंकि सदस्यता अभियान में किसी सरकारी कर्मचारी का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है लेकिन बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को इन सवालों का जवाब देना होगा . वैसे इस तरह के कुराजनीतिक आचरण को रोकने का ज़िम्मा तो मुख्य रूप से मध्य प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी का है लेकिन मध्य प्रदेश कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि वहां के ज्यादातर कांग्रेसी नेता राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हैं . उनके पास राज्य के लिए समय नहीं है. बीजेपी का यह अभियान जिन जिलों में चल रहा है उसमें ग्वालियर प्रमुख है लेकिन ग्वालियर से कांग्रेस की अगुवाई करने वाले लोग सामंत हैं और पिछले डेढ़ सौ वर्षों से दिल्ली में राज करने वालों की वफादारी के बल पर सत्ता में बने रहते हैं .ज़ाहिर है उनकी राजनीति का मुख्य आधार ग्वालियर की जनता नहीं, दिल्ली और कलकत्ता में राज करने वाले लोग रहते हैं . इसी तरह से एक मामूली रियासत के राजा भी हैं जो मध्य प्रदेश कांग्रेस में शीर्ष तक पंहुच कर आजकल बीमारी की हालत में पड़े हुए हैं . उनेक परिवार के लोग वफादारी के इनाम के चक्कर में दिल्ली दरबार में हमेशा सक्रिय रहते हैं . इन बीमार सामंती कांग्रेसी नेता के एक शिष्य आजकल राष्ट्रीय राजनीति में इतने तल्लीन हैं कि उन्हें मध्य प्रदेश की चिंता ही नहीं है . ऐसी हालत में बीजेपी नेतृत्व का गैर लोकतांत्रिक तरीकों से सदस्यता अभियान चलाने के काम को बेलगाम छोड़ दिया गया है जिस से लोकशाही के निजाम को पक्के तौर पर नुकसान होगा .बीजेपी वाले मौजूदा सदस्यता अभियान के बाद इंदौर में 'नवीन कार्यकर्ता सम्मान समारोह' का आयोजन करेगें जिसके बाद कांग्रेस के लोग हाथ मलते रह जायेगें और लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों पर एक और कुठाराघात हो चुका होगा

Wednesday, September 29, 2010

हर औरत के पाँवो में बंधी होती है एक ज़ंज़ीर

शेष नारायण सिंह


आज के बड़े अखबारों में गरीब की बेटी भी पहले पेज पर है .हालांकि ज़्यादातर खबरें हस्बे-मामूल सम्भ्रान्त वर्गों की मिजाज़ पुरसी करती नज़र आ रही हैं लेकिन अपना सब कुछ गँवा दने वाली कुछ गरीबों की बेटियों को भी पहले पेज पर जगह दी गयी है . और राष्ट्रमंडल खेल के नाम पर पचास हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा रक़म लूट चुके नेताओं और अयोध्या की मस्जिद के बहाने राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे नेताओं,अफसरों और दलालों की ख़बरों के बीच कुछ खबरें ऐसी हैं जो शोषित पीड़ित लोगों की कहानी भी बताती हैं.देश के सबसे बड़े अखबार में खबर है कि उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री के गाँव के आस पास, गौतम बुद्ध नगर और बुलंद शहर जिलों में , दलित लड़कियों की अस्मत लूटी गयी , उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और एक मामले में सबूत मिटाने की गरज से लड़की को जला कर मार डालने की कोशिश की गयी. एक बहुत बड़े अंग्रेज़ी अखबार के पहले पन्ने पर खबर है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके में उसी जिले में तैनात के डिप्टी कलेक्टर के बेटे की अगुवाई में ६-७ लफंगों ने एक दलित बच्ची को पकड़कर उसके साथ बलात्कार किया और अपने जघन्य कार्य का मोबाइल फ़ोन पर वीडियो उतारा और उसे अपने दोस्तों के बीच सर्कुलेट करना शुरू कर दिया . पुलिस की विश्वसनीयता इतनी कम है कि पीड़ित बच्ची के माता पिता की हिम्मत नहीं पड़ी कि वे थाने में जाकर रिपोर्ट लिखाने की हिम्मत जुटा सकें . जब पुलिस को मोबाइल फोन पर सर्कुलेट हो रही तस्वीरों के ज़रिये पता चला तो अधिकारी पीड़ित लड़की के घर गए. वहां जाकर पता चला कि बच्ची के माता पिता और पड़ोसी इस अपराध के बारे में जानते थे. उन्होंने मामले को पुलिस के पास ले जाना इसलिए ठीक नहीं समझा कि अफसर का बेटा ही मुख्य अपराधी है ,अगर उनके खिलाफ शिकायत की तो मुसीबत में पड़ जायेगें.

यह घटनाएं एक समाज के रूप में हमारे अस्तित्व को चुनौती देती हैं .ऐसा क्यों है कि जिसके पास भी घूस या चोरी के रास्ते कुछ पैसा आ जाता है ,वह सबसे पहले लड़कियों की इज्ज़त पर हमला बोलता है .उनको अपमानित करता है , उनके साथ बलात्कार करता है और उन्हें मार डालने की कोशिश करता है . इन लड़कियों ने इन दरिंदों का क्या बिगाड़ा है . दूसरा सवाल यह है कि हर मामले में इस जघन्य मानसिकता का शिकार गरीब लड़कियां ही क्यों होती हैं . गाँव में गरीब लड़कियां ज़्यादातर दलित परिवारों से आती हैं . और शहरों में गरीब वे हैं जो गाँव में अपना सब कुछ छोड़कर, दो जून की रोटी की तलाश में शहरों की ओर भागने के लिए अभिशप्त हैं. गाँव में छोटी मोटी खेती की ज़मीन अब रोटी नहीं देती ,उसमें क़र्ज़ उपजता है . खेती के चक्कर में बिजली खाद, बीज और मजदूरी में लगने वाला धन, बरास्ते क़र्ज़ उसकी ज़िंदगी पर सवार होता रहता है और बहुत सारे मामलों में तो किसान आत्मह्त्या कर लेता है . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों में सल्फास का नाम नहीं सुना गया था , वहां सल्फास अब कहावतों का हिस्सा बन चुका है . सल्फास एक केमिकल है जिसको खाकर अब गाँवों में किसान अपनी निराशा और हताशा भरी ज़िंदगी को ख़त्म करता है. इसी सल्फास की रेंज में रहकर अपनी ज़िन्दगी बिता रहे लोगों की बेटियाँ घूसखोरों, नरेगा का पैसा चुराने वाले ठेकेदारों ,नेताओं, दलालों और उनके चमचों के बिगडैल लड़कों की हवस का शिकार हो रही हैं .

सवाल यह उठाता है कि क्या समाज की इन सारी विकृतियों का शिकार लड़कियों को ही क्यों बनाया जा रहा है .जवाब साफ़ है ---क्योंकि उनके पास राजनीतिक ताक़त नहीं है . इसके लिए ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है . अपने समाज में माता पिता ही अपने लड़कों और लड़कियों में भेद करते हैं . अव्वल तो लड़कियों की शिक्षा प्राथमिकता सूची में ही नहीं होती और अगर बच्ची को स्कूल भेजा भी जाता है तो उसके लिए दोयम दर्जे के स्कूलों की ही तलाश की जाती है . लड़कियों के खेलने और बाहर निकलने के बारे में हर समाज में एक आचार संहिता होती है जिसमें उसे हर मामले में लड़कों से कमज़ोर माना जाता है . ऐसी व्यवस्था की जाती है कि बच्ची हमेशा अपने को कमज़ोर माने . समाज को इस स्थिति से बाहर आना पड़ेगा . इसके लिए किसी सुधार की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति या संगठन जो सुधार करने की कोशिश करेगा वह पूरी बात नहीं होने देगा . वह चाहेगा कि उसका हित भावी व्यवस्था में सुरक्षित रहे . इसलिए किसी समाज सुधार की साज़िश से महिलाओं के भविष्य को मुक्त रखना पडेगा. महिलाओं के बारे में सारी मान्यताएं और नियम पुरुष प्रधान समाज ने बनाए हैं . आगे भी ऐसा ही हो सकता है . इस खतरे से बचने के लिए ज़रूरी है कि महिलायें को इस सड़ी-गली व्यवस्था में इज्ज़त दिलाने का काम महिलाओं के ही कंधों पर डाला जाए. ऐसा अवसर उपलब्ध हैं. लोकसभा ने महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी देने के लिए एक बिल मौजूद है जिसे अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देकर पास कर दिया जाए तो असली परिवर्तन शुरू हो सकता है .हालांकि यह मुगालता भी नहीं पालना चाहिये इस कानून से कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होगा. क्योंकि शुरू में तो सत्ता प्रतिष्टानों के ठेकदारों की हुक्म बजाने वाली उनके घरों की महिलायें ही सत्ता में आयेंगीं लेकिन बाद में जनता भी आयेगी क्योंकि जनता के तूफ़ान को कभी कोई नहीं रोक सकता है . इसलिए हमारी बेटियों को अपराधियों की हवस से बचाने का एक ही रास्ता है कि उन्हे राजनीतिक सत्ता की चाभी दे दी जाए.

Wednesday, August 5, 2009

बुंदेलखंड की राजनीतिक लड़ाई

उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में अपनी खोई हुई राजनीतिक हैसियत को दोबारा हासिल करने के लिए कांग्रेस ने बुंदेलखंड का रास्ता चुना है। बुंदेलखंड में ही राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से जीवित करने के अपनी योजना का परीक्षण किया था इलाके के दलितों के यहां भोजन करके उन्होंने राज्य की सबसे बड़ी पार्टी की नेता और मुख्यमंत्री मायावती को चुनौती दी थी।

काफी हद तक कामयाब रहे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस आज बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को बराबर की टक्कर दे रही है। रीता बहुगुणा जोशी को गिरफ्तार करवाने की योजना की सफलता के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। जानकार बताते हैं कि रीता बहुगुणा की गिरफ्तारी करवाने की रणनीति के पीछे कांग्रेस की योजना वास्तव में राज्य में विपक्ष के स्पेस पर कब्जा करने की थी लेकिन गिरफ्तारी के साथ-साथ मायावती की पार्टी और सरकार ने राजनीतिक भूल कर दी। रीता बहुगुणा का किराए का घर जलवा दिया।

बस फिर क्या था पूरे देश में इस प्रशासनिक बर्बरता के खिलाफ माहौल बन गया। जिसका कांग्रेस को बड़ा फायदा हुआ। हर जिले में जो भी कुछ लोग कांग्रेसी कार्यकर्ता के नाम पर बचे खुचे थे, सड़कों पर आ गए और हर जिले में कांग्रेस का मामूली ही सही संगठन खड़ा हो गया। अजीब संयोग है कि उत्तर प्रदेश में कांशीराम की राजनीतिक कुशलता के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन खत्म हुआ था, जब मुलायम सिंह और बीजेपी का विरोध करने के नाम पर काशीराम ने कांग्रेस से विधानसभा चुनाव के लिए सीटों का समझौता किया था।

425 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को 134 सीटों पर सीमित कर दिया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। आज उन्हीं कांशीराम की शिष्या मायावती की एक राजनीतिक गलती से उत्तर प्रदेश के हर गांव में कांग्रेसी लामबंद हो रहे हैं और मामूली ही सही, एक संगठन का स्वरूप ले रहे हैं। रीता बहुगुणा का घर जलना, कांग्रेस के पुनर्जीवन की पहली सीढ़ी बन गया है। पिछले 20 साल से उत्तर प्रदेश में खाली बैठे कांग्रेसियों का एका एक कुछ काम मिल गया है और राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का सपना पूरा होने की तरफ बढ़ रहा है।

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में उम्मीद से ज्यादा सीटें पाकर कांग्रेस के नेतृत्व में भी उत्साह है। इसी उत्साह के चलते पार्टी में उत्तर प्रदेश को लेकर सक्रियता बढ़ गई है। राज्य के सांसदों का जो दल प्रधानमंत्री से मिलकर बुंदेलखंड की तरक्की के लिए अलग संगठन बनाने की बात कर रहा था, वह राजनीतिक शतरंज की बहुत अहम चाल को अंजाम दे रहा था। दुनिया जानती है कि बुंदेलखंड देश का सबसे पिछड़ा इलाका है।

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में 2009 के पहले तक मायावती की पार्टी सबसे मजबूत थी लेकिन मायावती ने सरकार बनाने के बाद इलाके की उपेक्षा की। नतीजा यह हुआ कि वहां राजनीतिक स्पेस बन गया। राहुल गांधी ने इसी राजनीतिक स्पेस को भरने की कोशिश शुरू कर दी है। चुनाव के पहले दलितों के यहां खाना पीना एकदम सोची समझी रणनीति के तहत किया गया था और अब बुंदेलखंड के विकास की बात कराना उसी स्पेस को भरने की तैयारी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसी सांसदों ने उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की तरक्की की बात को मुख्य एजेंडा बनाकर राजनीतिक शतरंज की ऐसी शह दी है जो दोनों ही राज्यों में मौजूदा राजनीतिक ता$कतों को मात देने की ताकत रखती है।

दोनों ही राज्यों में बुंदेलखंड का इलाका सदियों से उपेक्षित है। यह भी सही है कि इस उपेक्षा के लिए कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है लेकिन वह अब इतिहास का हिस्सा है। आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि जवाहर लाल नेहरू का एक वंशज बुंदेलखंड के रास्ते लखनऊ और भोपाल की रियासतों पर कब्ज़ा करने की मंसूबाबंदी कर चुका है।

हालांकि कांग्रेस की बुंदेलखंड नीति से उत्तर प्रदेश में बीएसपी और मध्यप्रदेश में बीजेपी को नु$कसान होने की संभावना है लेकिन घबराहट बीएसपी में ही ज्य़ादा है। बीजेपी ने तो सोमवार को लोकसभा में कांग्रेस की नीयत को कटघरे में लाने की कोशिश की लेकिन लखनऊ की सरकार में तो बुंदेलखंड के मैदान में राहुल को हर क़ीमत पर शिकस्त देने की कोशिश चल रही है। कहीं समरा कमेटी की रिपोर्ट का हवाला दिया जा रहा है जिसने बुंदेलखंड के विकास के लिए 3866 करोड़ रुपये के पैकेज की बात की थी तो मुख्यमंत्री खुद 80, 000 करोड़ की सहायता की मांग कर रही है।

राजनीति के जानकार बताते हैं कि बुंदेलखंड की लड़ाई आंकड़ों के खेल के दायरे से बाहर जा चुकी है, अब कुछ शुद्घ रूप से राजनीतिक युद्घ है जिसमें मैदान बेशक बुंदेलखंड का हो, हथियार और मकसद शुद्घ रूप में राजनीतिक है। सांसद में बीजेपी और बीएसपी के शोर गुल के बाद सरकार की तरफ से स्पष्टीकरण आ गया कि बुंदेलखंड के विकास के लिए किसी सरकारी एजेंसी का गठन पर अभी सरकार कोई विचार नहीं कर रही है।

बहुत सही बात है, सरकार ऐसी कोई योजना नहीं बना रही है। लेकिन एक बात और सच है कि बुंदेलखंड पर जो कांग्रेस की तरफ से जो चालें चली जा रही हैं, वे भी सरकारी नहीं है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात शुद्घ रूप से आइडिया के स्तर पर है लेकिन इस आइडिया ने अपना काम कर दिया है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात करके कांग्रेस ने यह बात साफ कर दिया है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारें इला$के के विकास के प्रति गंभीर नहीं हैं और कांग्रेसी बेचारे बहुत चिंतित हैं।

गेंद अब मायावती और शिवराज सिंह चौहान के पाले में है और उनके जवाब की ता$कत से ही बुंदेलखंड में कांग्रेस को पछाड़ा जा सकता है, दिल्ली में सरकार के सामने हल्ला गुल्ला करके राजनीतिक लड़ाई की बात सोचना भी दीवालियापन की श्रेणी में आएगा। बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी देश की राष्टï्रीय पार्टियां हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें और बुंदेलखंड में हो रहे कांग्रेसी हमले का जवाब राजनीतिक तरीके से दें क्योंकि राजनीतिक लड़ाई के फैसले प्रशासनिक हथियारों से नहीं होते।