शेष नारायण सिंह
जब भी कोई अमरीकी या ब्रिटिश अभिनेता या निदेशक भारत में बन रही किसी फिल्म पर काम करता है , वह बड़ी खबर बनती है . बोलती फिल्मों के के शुरू होने के बाद यह परंपरा लगभग ख़त्म हो गयी थी लेकिन अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में रिचर्ड एटनबरो ने गाँधी फिल्म बनाकर इस रिवाज़ को बहुत ही धमाकेदार तरीके से ताक़त दी. गांधी फिल्म को बहुत सारे आस्कर अवार्ड मिले थे . उसके बाद इस श्रेणी की फिल्मों में स्लमडाग मिलिनयेर का नाम लिया जा सकता है . हालीवुड की फ़िल्मी दुनिया और भारत के सबंधों में ताज़ा घटना अमरीकी अभिनेता , हार्वी काइटेल की नई फिल्म को लेकर है . ' गाँधी आफ द मंथ ' नाम की इस फिल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी है . पोस्ट प्रोडक्शन का काम चल रहा है . फिल्म अंग्रेज़ी में है लेकिन हिन्दी में भी डब की जा रही है . इसका मतलब यह हुआ कि देश की आम जनता भी फिल्म को देख सकेगी. मुंबई के फ़िल्मी गलियारों से खबर है कि इस फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में भारत की फिल्म के रूप में भेजने की तैयारी शुरू हो चुकी है . इसके पहले कान फिल्म फेस्टिवल के हवाले से आमिर खां की फ़िल्में चर्चा में आई थीं .फेस्टिवल में भेजने की तैयारी का ही इतना हडकंप नाध दिया गया था कि लगता है था कि उस दौर में मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में और कोई खबर ही नहीं बन रही थी. लेकिन 'गाँधी ऑफ़ द मंथ ' वालों की तरफ से ऐसी कोई तैयारी नज़र नहीं आ रही है . फिल्म को प्रोड्यूस करने वाली कंपनी भी लगभग नई है . . २०१० में उनकी दो फ़िल्में आई हैं . हाँ यह कहा जा सकता है कि दोनों ही फ़िल्में, ' उड़ान 'और ' तनु वेड्स मनु ' आम आदमी तक बहुत ही शानदार तरीके से पंहुची थीं .पसंद की गयी थीं . लीक से हटकर थीं. जिस परम्परा को श्याम बेनेगल ने ३५ साल पहले शुरू किया था और जिसे रामगोपाल वर्मा ने आगे बढाया और जिसके व्याकरण को आधार मानकर आजकल अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज फ़िल्में बना रहे हैं , दोनों ही उसी ढर्रे की फिल्मे थीं .इस निर्माता कम्पनी की दोनों शुरुआती फ़िल्में अच्छी मानी जाती हैं ..विषय भी लीक से हटकर था . अब पता पता चला है कि नई फिल्म में इस प्रोडक्शन हाउस ने बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठा दिया है . कोई अमरीकी सज्जन हैं को करीब तीस साल से भारत के किसी पिछड़े इलाके में स्कूल चला रहे हैं . उस इलाके में बहुत ही लोकप्रिय हो जाते हैं . उनके स्कूल की लोकप्रियता से गुस्सा होने के बाद उस इलाके में धर्म के नाम पर राजनीतिक धंधा करने वाले लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं और उनके स्कूल के खिलाफ भिड़ जाते हैं . पूरी फिल्म में इसी उठापटक को प्रस्तुत किया गया है . ज़ाहिर है कि देश के अलग अलग इलाके में यह फिल्म लोगों को किसी बड़ी घटना की याद दिलायेगी. हो सकता है कि कुछ लोगों को यह उड़ीसा के उस विदेशी मिशनरी की याद दिला दे जिसकी लोकप्रियता से परेशान होकर कुछ लोगों ने उसे जिंदा जला दिया था . अन्य इलाकों के लोगों के मान में यह फिल्म और तरह की यादें ताज़ा कर सकती है . कहानी के केंद्र में एक ईसाई है जिस पर ईसाई विरोधी मानसिकता के लोग लगातार हमले बोल रहे हैं.वह अपने स्कूल के गरीब बच्चों को सुनहरे भविष्य के लिए लगातार लड़ रहा है . महात्मा गाँधी को महान मानने वाला यह व्यक्ति नई पीढी को साबरमती के संत की बातें बताते रहना चाहता है लेकिन असहिष्णु राजनीति को यह सूट नहीं करता. एक स्कूल के हेडमास्टर की उस बुलंदी को रेखांकित करने की कोशिश करती हुई यह फिल्म निश्चित रूप से लीक से हटकर होगी, इसमें दो राय नहीं है .
' गाँधी आफ द मंथ ' का निदेशक भी हिन्दी सिनेमा का बहुत नामी आदमी नहीं है . कम से कम हिन्दी इलाकों में आम चर्चा का विषय तो कभी नहीं रहा . फिल्म में काम करने वाले कलाकार भी तथाकथित मेनस्ट्रीम सिनेमा के बहुत बड़े नाम नहीं है . सुहासिनी मुले के अलावा बाकी भारतीय अभिनेताओं को बहुत लोग नहीं जानते होंगें .शायद ऐसा इसलिए किया गया है कि फिल्म की जो मुख्य कथा है , ग्लैमरी चकाचौंध में उस से दर्शक की नज़र न हट जाए. ऐसा लगता है कि इसी रणनीति के तहत निर्माताओं ने हालीवुड के एक बहुत बड़े अभिनेता के साथ अपने अच्छे लेकिन कम प्रसिद्ध अभिनेताओं को जोड़ दिया है . दरअसल इस फिल्म का मुद्दा इतना दिलचस्प है कि आने वाले दिनों में उस पर होने वाली चर्चा को कोई रोक नहीं सकता . ज़ाहिर है कि ऐसी हालत में ध्यान मुख्य अभिनेता पर ही जमा रहेगा .
अगर ऐसा है तो प्रोडक्शन वालों की बात समझ में आती है . फिल्म का मुख्य अभिनेता, भारत में तो शायद स्टार नहीं हो लेकिन हालीवुड में उसका शुमार बड़े स्टारों में किया जाता है .हार्वी काइटेल विख्यात हालीवुड निदेशक मार्टिन स्करसेसी के बचपन के साथी हैं . दोनों ने साथ साथ सिनेमा की शिक्षा ली. दरअसल मार्टिन स्करसेसी ने अपनी पहली फिल्म ,'हूज दैट नाकिंग ऐट माई डोर ' में हार्वी काइटेल को हीरो बनाया था. इसी फिल्म के कारण मार्टिन स्करसेसी का सिक्का पूरी दुनिया में जम गया था . इसी फिल्म के बाद उनका परिचय फ्रांसिस फोर्ड कपोला,ब्रायन ड पल्मा और स्टीवेन स्पाइलबर्ग से हुआ. बाद में ब्रायन ड पाल्मा ने ही स्करसेसी को राबर्ट ड नीरो से मिलवाया जिसके बाद हालीवुड में अपराध की थीम पर बनने वाली कुछ बेहतरीन फ़िल्में बन सकीं. हार्वी काइटेल के साथ स्करसेसी ने टैक्सी ड्राइवर और मीन स्ट्रीट जैसी फ़िल्में भी बनायीं जिनको आज भी अच्छी फिल्मों के सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है .शुरुआती परिचय के बाद हार्वी काइटेल ने भी राबर्ट ड नीरों के साथ कई फिल्मों में काम किया . हार्वी काइटेल एक दिलचस्प इंसान भी हैं . उनको नए निदेशकों के साथ काम करने में बहुत मज़ा आता है . अपने दोस्त मार्टिन स्करसेसी के साथ तो उन्होंने पहली फिल्म की ही थी,हालीवुड के कुछ और बहुत बड़े निदेशकों के साथ उन्होंने उनकी पहली फिल्मो में काम किया और उनको इतना उत्साहित किया कि वे आज विश्व सिनेमा के नामी हस्ताक्षर हैं .इस तरह के निदेशकों में मार्टिन स्करसेसी के अलावा रिडली स्काट, पॉल श्रेडर और जेम्स टोबैक का उल्लेख किया जा सकता है .देखना यह है कि भारतीय सिनेमा की दुनिया में हार्वी काइटेल क्या छाप छोड़ते हैं .
Monday, October 24, 2011
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