शेष नारायण सिंह
(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )
प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह की कश्मीर यात्रा से दिल्ली के शासकों को बहुत उम्मीदें हैं . पिछले २० वर्षों से भी ज्यादा वक़्त से आतंकवादी हमलों को झेल रहे कश्मीरी अवाम को कुछ सुकून देने की केंद्र सरकार की कोशिश साफ़ नज़र आ रही है. आतंकवाद पर दुनिया भर में दबाव बना हुआ है. ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की कोशिश है कि विकास के मुद्दों को पुरजोर तरीके से चर्चा का विषय बनाया जाए. उनकी मौजूदा यात्रा नयी दिल्ली के नीति नियामकों की इसी सोच का नतीजा है . यात्रा के पहले दिन ही प्रधान मंत्री ने सभी वर्गों के लोगों से बात की . उनको भरोसा दिलाने की कोशिश की कि केंद्र सरकार राज्य के विकास को गंभीरता से लेती है..अलगाववादियों की गतिविधियों को भी बेमानी साबित करने की दिशा में गंभीर पहल की गयी . उन्होंने जब यात्रा शुरू होने के पहले यह ऐलान कर दिया कि शान्ति और विकास के लिए किसी से भी बात करने में कोई हर्ज़ नहीं है, तो आतंक वालों का आधा खेल तो पहले ही बिगड़ गया था . बाकी वहां जाकर दुरुस्त करने की कोशिश की . विकास का हमला करने की मनमोहन सरकार की रणनीति के सफल होने की उम्मीद दिल्ली और इस्लामाबाद में की जा रही है . हालांकि सरहद के दोनों तरफ की अतिवादी ताकतें अभी इस फ़िराक़ में हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच झगडा बना रहे . दर असल इन अतिवादी ताक़तों की राजनीति की बुनियाद ही यही है . लेकिन मनमोहन सिंह ने विकास के रास्ते शान्ति की पहल कर दी है . वक़्त ही बतायेगा कि भारत सरकार का यह जुआ शान्ति की दिशा में सही क़दम साबित होता है कि नेताओं और अफसरों के लिए रिश्वत की गिज़ा का माध्यम बनता है . प्रधान मंत्री ने राज्य के मुख्य मंत्री की बहुत तारीफ़ की और कहा कि जिस तरह से उमर अब्दुल्ला ने राज्य के विकास और उसके लिए ज़रूरी केंद्रीय मदद की मांग की , उस से वे बहुत प्रभावित हुए हैं . इसका मतलब यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर सरकारी धन भेजा जाने वाला है . लगता है कि प्रधानमंत्री की पुनर्निर्माण योजना के वे ६७ प्रोजेक्ट भी शुरू हो जायेंगें जो अर्थव्यवस्था के ११ क्षेत्रों को कवर करते हैं और उन पर केंद्र सरकार २४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना बना चुकी है . डॉ मनमोहन सिंह की जम्मू-कश्मीर यात्रा का शान्ति के हित में बहुत ही अधिक महत्व है . राज्य के वे लोग जो अब तक गलत राजनीतिक सोच की वजह से परेशान रहे हैं उनको भी उम्मीद का एक अवसर नज़र आना चाहिए .
जम्मू -कश्मीर इस बात का उदाहरण है कि गलत राजनीतिक फैसलों से किस तरह देश का भविष्य तबाह किया जा सकता है . जिस कश्मीर की तुलना स्वर्ग से की जाती थी , वहां रहने वाले लोग देश के सबसे खस्ताहाल इलाके के नागरिक कहे जाते हैं . कश्मीर बहुत पहले से गलत राजनीतिक सोच का शिकार रहा है. पुराने इतिहास में न जाकर देश विभाजन के वक़्त की राजनीति को ही देखने से कश्मीरी अवाम की बदकिस्मती का एक खाका दिमाग में उभरता है . उस वक़्त का कश्मीर नरेश एक अजीब इंसान था . विभाजन के दौरान ,बहुत दिनों तक वह पाकिस्तान से सौदेबाजी करता रहा कि वह उनके साथ जाना चाहता था. वो तो जब पाकिस्तान ने कबायलियों के साथ अपने फौजी भेजकर ज़बरदस्ती कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की तब उसकी समझ में आया कि वह कितनी बड़ी बेवकूफी का शिकार हो रहा था .बहर हाल वह सरदार पटेल की शरण में आया और उन्होंने उसे अपने साथ मिला लिया और पाकिस्तानी फौज़ को वापस खदेड़ दिया गया . शेख अब्दुल्ला उस दौर के हीरो थे. सरदार पटेल ने जब जम्मू-कश्मीर को अपने साथ लिया था तो राज्य को एक विशेष दर्जा देने का वचन दिया था . उसी वचन को पूरा करने के लिए संविधान में अनुच्छेद ३७० की व्यवस्था की गयी. लेकिन जो पार्टियां आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्हें सरदार पटेल के वचन या भारतीय संविधान का सम्मान करने की तमीज नहीं थी और उन्होंने उसका विरोध शुरू कर दिया . नतीजा यह हुआ कि कई फैसलों में गलतियां हुईं और जवाहर लाल नेहरू ने १९५३ में शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया . उसके बाद तो गलत फैसलों की बाढ़ सी आ गई. राज्य के सबसे लोकप्रिय नेता को गिरफ्तार करके केंद्र सरकार ने वह गलती की जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . दिल्ली की पसंद की सरकार बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर में हमेशा राजनीतिक अड़ंगेबाज़ी का सिलसिला चलता रहा. बताते हैं कि शेख साहेब की गिरफ्तारी के बाद पहली बार राज्य में निष्पक्ष चुनाव १९७७ में ही हुए . लेकिन उसके बाद पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज हो गया और वह १९७१ की पाकिस्तानी फौज की हार का बदला लेना चाहते थे और भारत को कमज़ोर करना उनका प्रमुख उद्देश्य था . पहले तो उसने पंजाब में आतंकवाद को हवा दी और साथ साथ कश्मीर में भी काम शुरू करवा दिया .इधर दिल्ली में भी अदूरदर्शी लोगों के हाथ में सत्ता आ गयी. इंदिरा गाँधी के दूसरे कार्यकाल में अरुण नेहरू बहुत बड़े सलाहकार बन कर उभरे. उन्होंने इंदिरा और राजीव ,दोनों को ही कश्मीर मामले में गलत फैसले करने के लिए उकसाया , अरुण नेहरू ने ही वह गैर ज़िम्मेदार बयान दिया था जिसमें कहा गया था कि कश्मीर में चल रहा अलगाव वादियो का आन्दोलन वास्तव में कानून व्यवस्था की समस्या है . कोई अज्ञानी ही इतनी बड़ी समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या कह सकता है . अरुण नेहरू ने इसी स्तर की सलाह राजीव गाँधी को उपलब्ध कराई जिसकी वजह से केंद्र सरकार ने थोक में गलत फैसले किये . नतीजा सामने है . बाद में जब जगमोहन को वहां राज्यपाल बनाकर भेजा गया तब तो मूर्खता पूर्ण फैसलों का दौरदौरा शुरू हो गया . जगमोहन ने तो अपनी मुस्लिम विरोधी सोच की सारी कारस्तानियों को अंजाम दिया . मीरवाइज़ फारूक की शव यात्रा पर गोली चलवाना जगमोहन के दिमाग की ही उपज हो सकता था . जगमोहन ने ही निर्दोष मुसलमानों को फर्जी तरीके से फंसाना शुरू कर दिया . मुफ्ती मुहम्मद सईद का गृह मंत्री होना , कश्मीर का सबसे बड़ा दुर्भाग्य माना जाता है . उनके शासनकाल में ही वहां आतंकवाद खूब पला बढा . बाद में केंद्र में ऐसी सरकारें आती रहीं जिनके पास स्पष्ट जनादेश नहीं था. लिहाज़ा सब कुछ गड़बड़ होता रहा . उधर पाकिस्तान में आई एस आई और फौज की ताक़त बहुत बढ़ गयी . पाकिस्तान ने आतंक के ज़रिये भारत को दबाने की कोशिश की . यह अलग बात है कि उसी चक्कर में पाकिस्तान खुद ही नष्ट हो गया लेकिन भारत का नुकसान तो हुआ .उसी नुक्सान को संभालने के लिए आज मुल्क हर स्तर पर कोशिश कर रहा है . प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए . अभी यह उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा कि सब कुछ जल्दी ही दुरुस्त हो जाएगा लेकिन यह तो तय है कि सही दिशा में क़दम उठा दिया गया है . नतीजा भविष्य की कोख में है.
Thursday, June 10, 2010
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