Thursday, July 8, 2010

क्या कांगेस १९७७ के रास्ते पर चल पड़ी है ?

शेष नारायण सिंह

इंडिया गेट के आस पास बनी सत्ता की कोठियों में आजकल एक बात बहुत ही जोर शोर से चर्चा के घेरे में आ गयी है . जिन नेताओं से भी मुलाक़ात हुई सबको लगता है कि देश में कांग्रेस के विरोध का माहौल बन रहा है . १९७७ वाला माहौल साफ़ नज़र आने लगा है . १९७७ के पहले भी बहुत ही मामूली मुद्दों पर गुजरात और बिहार में छात्रों ने आन्दोलन शुरू किया था जो बाद में इतना बड़ा हो गया कि हर वह शख्स जो कांग्रेस से किसी तरह से सम्बंधित था, सत्ता के बाहर फेंक दिया गया. सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जनता लामबंद होना शुरू हो गयी है और अगर सरकार अपने मूल दायित्व का निर्वाह ज़िम्मेदारी से नहीं करती ,तो भारत बंद के नाम पर शुरू हुआ आन्दोलन बहुत बड़े जन आन्दोलन की शक्ल अख्तियार कर लेगा.

पांच जुलाई के भारत बंद के बाद एक बार फिर साबित हो गया है कि अगर सरकारें ठीक से काम नहीं करेगीं तो जनता उनको बर्खास्त करने में संकोच नहीं करेगी. पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में की गयी मनमानी वृद्धि के बाद जनता ने तय कर लिया कि इस सरकार को सबक सिखाना ज़रूरी है . सोमवार को आयोजित बंद की सफलता का सेहरा बी जे पी वाले अपने सिर बाँधने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वे भी जानते हैं और पब्लिक भी जानती है कि जिस पूंजीपति को लाभ पंहुचाने के लिए केंद्र की मौजूदा सरकार ने पेट्रोल की कीमतें बढ़ाई हैं , उसको लाभ पंहुचाने के लिए बी जे पी ने भी क्या क्या नहीं किया. संचार मंत्री ए राजा के स्पेक्ट्रम भ्रष्टाचार की वजह से भी मौजूदा सरकार मुसीबत में है लेकिन बी जे पी को उसकी आलोचना करने का अधिकार नहीं है क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के संचार मंत्री ने भी उस वक़्त की सरकारी कंपनी , विदेश संचार निगम लिमिटेड को जिस दाम पर बेच दिया था, उस से कई गुना ज़्यादा की तो दिल्ली में उसकी ग्रेटर कैलाश वाली ज़मीन है . मुंबई में शेयर मार्केट के पास जो विदेश संचार निगम की इमारत है वह भी १२ सौ करोड़ रूपये में नहीं खरीदी जा सकती थी जबकि एन डी ए सरकार ने पूरी कंपनी १२ सौ करोड़ में बेच दी थी . इसलिए बंद की सफलता का सेहरा , बी जे पी के सिर पर तो बिलकुल फिट नहीं बैठता. लेकिन मंहगाई के मामले पर केंद्र सरकार के अलगर्ज़ रवैय्ये से परेशान लोगों ने राजनीतिक बिरादरी को समझा दिया कि कृपया घूसखोरी और बेईमानी की बुनियादी सोच के साथ हुकूमत करने से बाज़ आयें वरना जनता नौकर बदल देगी. केंद्र सरकार के गैर ज़िम्मेदार रुख के खिलाफ जनता का यह मूड १९७१ के बाद देखा गया था जब गरीबी हटाओ और बंगलादेश की स्थापना का विरोध कर रही पाकिस्तानी सेना को हराने वाली इंदिरा गाँधी ने मनमानी शुरूकर दी थी . विपक्ष भी उन दिनों आज जैसा नहीं था, विपक्ष में बहुत विद्वान् नेता हुआ करते लेकिन इंदिरा गाँधी ने किसी की परवाह नहीं की . अपने चापलूस टाइप लोगों को सत्ता में शामिल किया . ऐसे लोगों की सबसे बड़ी योग्यता यह थी कि वे इंदिरा जी की मनमानी को बिना किसी सवाल जवाब के समर्थन देते थे. उन्होंने अपने मंद बुद्धि बेटे को भी इसी दौर में अपना उत्तराधिकारी बना दिया और बंसी लाल टाइप लोगों ने उनके बेटे ,संजय गाँधी की जय जय कार करके उसे नेता बनाने की कोशिश की . जब १९७४ में इंदिरा गाँधी की सरकार महंगाई, कुशासन और भ्रष्टाचार के दल दल में डूबने लगी तो इंदिरा जी ने उन्हीं दरबारी मंत्रियों और नेताओं की अधकचरी सलाह पर १९७५ में इमरजेंसी लागू कर दी. लेकिन जनता को दबा नहीं सकीं क्योंकि जनता का मन तो बहती नदी की धार जैसा होता है .जब एक बार धारा बह निकलती है तो वह रुकती नहीं . देश ने इमरजेंसी की परवाह नहीं किया और जब इस मुगालते में कि इंदिरा जी बहुत ही लोकप्रिय हैं, चुनाव की घोषणा कर दी गयी . नतीजा यह हुआ कि वे खुद चुनाव हार गयीं और सरकार गंवा बैठीं. इसलिए लोकतंत्र में मनमानी का कोई स्थान नहीं होता. सरकारी पक्ष के नेताओं को यह भी समझ लेना चाहिए कि विपक्ष में बिखराव को अपनी मजबूती न मानें. आज जो पार्टियां सरकार में हैं , वे तो खैर सत्ता का सुख भोग रही हैं ,इसीलिए वे मतभेदों के बावजूद कांग्रेस की तरफ हैं लेकिन विपक्ष की कोई भी पार्टी सबसे बड़े विपक्षी दल को अपना अगुवा मानने को तैयार नहीं है . उनके एन डी ए में शामिल शरद यादव की पार्टी भी पूरी तरह से उनके साथ नहीं है. मुलायम सिंह यादव,लालू प्रसाद , प्रकाश करात वगैरह की पार्टियां भी बी जे पी से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहतीं. लेकिन एक ही दिन बंद करवाने की बात पर सहमत थीं . यह अलग बात है कि सब ने अपने को बी जे पी से दूर दिखाने की कोशिश की और सफल भी रहीं लेकिन यह बात भी सच है कि सभी पार्टियों का विरोध कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के खिलाफ था .ऐसा ही माहौल १९७७ में था . इंदिरा गाँधी ने जल्दी जल्दी में इमरजेंसी ख़त्म करके अपने और अपने बेटे के तानाशाही राज पर जनता की मंजूरी की मुहर लगवाने के चक्कर में चुनाव की घोषणा की थी . उनको उम्मीद थी कि जेलों में बंद बड़े नेताओं की पार्टियां जब तक संभल पाएंगी तब तक तो चुनाव पार हो चुका होगा . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जनता के दबाव में सारे विपक्ष को जनता पार्टी के नाम से चुनाव लड़ना पडा . चुनाव के वक़्त जनता पार्टी नाम की कोई पार्टी ही नहीं थी. उसका गठन तो बाद में हुआ लेकिन इंदिरा गाँधी की मनमाने एके खिलाफ जनता वोट दे चुकी थी . इसलिए कांग्रेस को अपने इतिहास से सबक लेना चाहिए ,क्योंकि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते उन्हें दुनिया भुला देती है .

इस पृष्ठभूमि में पांच जुलाई के बंद को देखने की ज़रुरत है . बंद को किसी भी पार्टी की सफलता मानने की ज़रूरत नहीं है . वह वास्तव में जनता की आवाज़ थी , जनता ही नेता थी और सारा मोबिलाइज़ेशन आम आदमी का था . राजनीतिक पार्टियों के टी वी में दिखने वाले लोग आगे खड़े हो गए थे और उसे अपनी पार्टी की सफलता की लिस्ट में डालने के लिए व्याकुल थे. इस बात पर बहस हो सकती है कि महंगाई के खिलाफ बंद में जीत जनता की हुई या राजनीतिक पार्टियों की लेकिन एक बात मुकम्मल रूप से तय है कि पांच जुलाई को केंद्र सरकार की हार निश्चित रूप से हुई थी .१९७७ में भी कांग्रेस की हार अकस्मात् नहीं हुई थी. माहौल १९७४ से ही बनना शुरू हो गया था और जब १९७७ में पराजय ने दबे पाँव दस्तक दे दी तो इंदिरा गाँधी और उनके साथी भौचक रह गए थे . लगभग उसी तर्ज पर जनता ने मौजूदा कांग्रेस सरकार को नोटिस दे दिया है . अगर इस नोटिस को वे गंभीरता से नहीं लेते तो इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले महीनों में माहौल और गरम होगा और २०१४ या उसके पहले जब भी मुक़दमा जनता की अदालत में पेश होगा, कांग्रेस को पछतावा ही हाथ लगेगा