Monday, August 20, 2012

भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है




शेष नारायण सिंह 

अन्ना हजारे के आन्दोलन को तहस नहस कर दिया गया. शासक वर्गों को इसमें मज़ा आ गया. पूरे देश में भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही जनता के लिए अन्ना हजारे एक ऐसे मसीहा के रूप में उभरे थे जो उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आने वाली भ्रष्टाचार की परेशानी से मुक्ति दिला सकता था. अन्ना हजारे के साथ गोपाल राय जैसा क्रांतिकारी भी था जो साम्राज्यवादी सत्ता प्रतिष्टानों के खिलाफ संघर्ष करता रहा है . गोपाल और उनके जैसे बहुत सारे सही क्रांतिकारियों को उम्मीद हो गयी थी कि  अन्ना हजारे के साथ भारत की जनता को एकजुट किया जा सकेगा और सत्ता प्रतिष्टान के खिलाफ लामबंद किया जा सकेगा . लेकिन ऐसा न  हो सका.  अपने ब्लॉग पर 4 नवम्बर २०११ को प्रकाशित एक लेख से कुछ अंश आज याद आते हैं . उस दिन  भी मेरे मन में   यह डर था कि कहीं सत्ता प्रतिष्ठानों के मालिक अन्ना के साथ मिलकर आम आदमी के गुस्से को बोतल में न बंद कर दें . आखिर में वही हुआ और  अन्ना हजारे के आन्दोलन से पैदा हुआ जागरण योग गुरु रामदेव के ज़रिये शासक वर्गों की गोद में जा बैठा. अन्ना हजारे के आन्दोलन की विफलता के कारणों की बाद में जांच होती रहेगी लेकिन फिलहाल आम आदमी पस्त है और उसे मालूम है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की उसके क्षमता पर सवाल उठने लगे हैं .

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी. 


अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले दिनों  ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो में जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है

मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के सर्वमान्य राजनीतिक नेता हैं .




शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश में बहुत साल  बाद पहली बार स्पष्ट बहुमत की सरकार २००७ में बनी थी जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गयी थीं. पांच साल तक उन्होंने एकछत्र राज किया जिसका नतीजा यह हुआ कि जनता ऊब गयी और उसने २०१२ में उनकी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंप दी. समाजवादी पार्टी की साफ़ जीत में मायावती की अलोकप्रियता एक महत्वपूर्ण कारण है लेकिन उनकी जीत नकारात्मक नहीं है. मायावती को स्पष्ट बहुमत देकर जो उम्मीदें एक समाज के रूप में उत्तर प्रदेश की जनता ने पालीं थीं, वे कहीं भी पूरी नहीं हुईं. उन्हीं उम्मीदों को फलीभूत करने के लिए इस बार उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंप दी है . स्पष्ट बहुमत की सरकार के गठन में राज्य के मुसलमानों का योगदान बहुत ज़्यादा है . पूरे राज्य में  मुसलमानों ने एकजुट होकर समाजवादी पार्टी को वोट दिया . ऐसा शायद इसलिए था कि मायावती के बारे में सबको मालूम है  कि २००७ के पहले वे जब भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, उनको आर एस एस और बीजेपी ने ही समर्थन किया था . इस बार भी चर्चा थी कि अगर कुछ सीटें कम पड़ गयीं तो मायावती को बीजेपी सत्ता तक पंहुचा सकती थी.  ज़ाहिर है राज्य की धर्मनिरपेक्ष ताक़तों के सामने इस बार डबल चुनौती थी . एक तो यह कि बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना है और दूसरा कि मायावती को भी सत्ता से बेदखल करना है क्योंकि अगर इस बार मायावती बीजेपी के समर्थन से सत्ता में आयीं तो  साम्प्रदायिक ताक़तों को ज़बरदस्त उछाल मिलेगा और इस बात की आशंका चारों तरफ थी कि कहीं गुजरात के २००२ जैसा माहौल न बनाया जाए . इसका  कारण यह है कि अब बीजेपी में जो थोड़े बहुत लिबरल नेता हैं वे हाशिये पर हैं और पार्टी के एक बड़े ताक़तवर वर्ग ने तय कर रखा है कि गुजरात वाले नरेंद्र मोदी को ही पार्टी का मुख्य नेता बना दिया जाए. अब तो खुले आम यह भी कहा जाने लगा है कि लाल कृष्ण आडवाणी नहीं, नरेंद्र मोदी को ही  बीजेपी  वाले प्रधान मंत्री पद के  दावेदार के रूप में पेश करेगें. 

साम्प्रदायिकता  के इस माहौल में उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव हुआ  था.  साम्प्रदायिकता विरोधी सभी ताक़तों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया .मुसलमानों ने भी लगभग एकमुश्त समाजवादी पार्टी को समर्थन किया . आज  राज्य में सरकार है और आजकल लगभग  हर शहर में ऐसे बहुत सारे मुसलमान मिल जाते हैं जो यह दावा करते हैं कि वे ही मुसलमानों के असली नेता हैं और उनकी वजह से ही  उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी है . पिछले छः महीनों में ऐसे  बहुत सारे नेताओं से मुलाक़ात हुई . बात बहुत अजीब लगती है लेकिन कल तक जो नेता अपनी खुद की राजनीति चमकाने के लिए  तरह तरह की कोशिश करते रहते थे , तरह के लोगों के  दरवाजों  के चक्कर काटा करते थे ,वे आज इतने बड़े नेता कैसे हो गए कि पूरे उत्तर प्रदेश के   मुसलमानों ने उनकी  बात मान ली और समाजवादी पार्टी को जिता दिया.  कई  ऐसे लोग भी मिल जायेगें जो यह दावा करेगें कि अल्पसंख्यकों के बारे में कोई भी फैसला बिना उनकी सलाह के नहीं किया जाता. उत्तर प्रदेश और मुलायम सिंह यादव की राजनीति को जानने वाले  जानते हैं कि  वे सुनते तो सबकी हैं लेकिन फैसला  किसी के दबाव से भी नहीं लेते और पूरी तरह से किसी की सलाह भी नहीं  मानते . हाँ समाज के हर वर्ग से मिलते जुलते रहने की अपनी आदत के कारण उनके  फैसलों में सब का हित समाहित रहता है .

इस पृष्ठभूमि में मैंने  इस बात का एक बार फिर पड़ताल करने का फैसला किया कि उत्तर प्रदेश में  मुसलमानों का  सबसे बड़ा  राजनीतिक नेता कौन है . पूरे राज्य में ऐसे लोगों से बात की जो सच कहने के लिए मशहूर हैं .,बड़े पत्रकारों से बात की, मुस्लिम धार्मिक नेताओं से बात की ,बुद्धिजीवियों से बात की . लगभग  सबने  यही कहा कि उत्तर प्रदेश में के मुसलमानों के राजनीतिक नेता सिर्फ और सिर्फ मुलायम सिंह यादव हैं . वे ही तरह तरह के समुदायों में बँटे हुए  मुस्लिम समाज के सर्वमान्य  राजनीतिक नेता हैं . इतना ही नहीं ,जो भी मुस्लिम नेता उनके करीब आ जाता है अपने समाज में उसका सम्मान बढ़  जाता है. मुलायम सिंह यादव अकेले ऐसे राजनेता हैं जिनकी बात  राज्य के सभी मुसलमान तो मानते  ही हैं , मुस्लिम नेताओं के पास भी  उनको नेता मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. अपनी पार्टी को मुसलमानों के वोट का हक़दार  मानने वाले कांग्रेसी भी निजी बातचीत में यह बात स्वीकार करते हैं कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के अलावा मुसलमान किसी की बात  पर भरोसा नहीं करता . विधान सभा चुनाव के दौरान मुस्लिम वोटों के   बल पर चुनाव की सफलता की उम्मीद लगाकर बैठे रहे एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि अब तो उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को किसी नई रण नीति पर काम करना पडेगा क्योंकि अगर मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह को भर्ती करने जैसी कोई गलती न कर दी तो अब मुसलमान उनका साथ छोड़ने को तैयार नहीं हैं. मुलायम सिंह यादव ने एक बात चीत में  इस संवाददाता से बताया था कि कल्याण सिंह को साथ लेना उनकी ज़िंदगी की एक बहुत बड़ी राजनीतिक गलती थी . उन्होंने यह भी कहा कि हालांकि और भी कुछ लोग उस काम  के लिए ज़िम्मेदार थे लेकिन  आखिर में तो वह फैसला उनका ही था और अब वह गलती दुबारा कभी नहीं होगी. 
 एक धर्म निरपेक्ष नेता के रूप में उनकी पहचान १९८४ के बाद से बनना शुरू हुई.जब बीजेपी और आर एस एस ने १९८४ के लोक सभा चुनाव में बुरी तरह से हार के बाद हिंदुत्व को अपनी  राजनीति का स्थायी भाव बनाने का फैसला तो सब कुछ बदल गया . उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गया, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता  रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगे  बढ़ गयीं.और धर्म निरपेक्ष  राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे , रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी. 
आर एस  एस और बीजेपी के उस विभाजक दौर में उत्तर प्रदेश में उनको पुरानी धर्मनिरपेक्ष  पार्टी ,कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिली लेकिन जब १९८९ के चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता संभाली तो साम्प्रदायिक ताक़तों को हर मुकाम पर रोकने की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गयी. उसी दौर की राजनीति में गाफिल पाए जाने के कारण ही उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये  पर  आ गयी . मुलायम सिंह यादव ने अपने आपको एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में पेश किया और आज तक उसी कमाई के सहारे  राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का दबदबा बना हुआ है . धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है . १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उत्तर प्रदेश  में जब मुलायम सिंह यादव ने  देखा कि  आर एस एस की ताक़त रोज़ ही बढ़ रही है तो उन्होंने बीजेपी और  कल्याण सिंह को बेदखल करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से हाथ   मिला लिया.  उस दौर में मैंने उनसे बात की थी और कहा था कि कांशीराम और मायावती की टोली का साथ करके उन्होंने अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो उन्होंने  साफ़ कहा कि अगर मैं कांशीराम को साथ न ले लेता तो वह बीजेपी के साथ चले जाते और वह देश के लिए अच्छा न होता . इसलिए कुछ इलाकों में  अपनी ताक़त से उन लोगों को कुछ सीटें देकर मैं साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रख सकूंगा . वह काम मुलायम सिंह ने  किया भी. अपने जिले की इटावा सीट से कांशीराम को लोकसभा का सदस्य बनवाया , राज्य में कई जिलों में जहां उनकी पार्टी मज़बूत थी ,वहां से बहुजन समाज  पार्टी को जिताया ,कांशी राम की पार्टी की दूसरी सबसे  महत्वपूर्ण नेता ,मायावती थीं. उन्हें  फैजाबाद जिले की राजनीति में जमाया लेकिन कांशीराम को बीजेपी की शरण में जाने से रोक नहीं सके.  बाद में तो मुलायम सिंह यादव कहते रहते थे कि मायावती की राजनीति साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है.

जब दुबारा मुख्यमंत्री पद पर वे बैठे तो उन्होंने मुसलमानों के लिए जो किया  वह तब तक किसी भी मुख्य मंत्री ने नहीं किया था. उर्दू जानने वालों को सरकारी नौकरियों में  जगह दिया, पुलिस में बड़ी संख्या में मुसलमानों को भर्ती करवाया, साम्प्रदायिक दंगों की आग में बार बार झुलस रही मुस्लिम आबादी  को  सुकून से रहने के मौक़े उपलब्ध करवाए, सरकारी काम काज में मुसलमानों को बहुत सारे अवसर दिए . जो भी मुस्लिम  नौजवान अपनी बिरादरी में लोगों के साथ खड़े देखे गए उन्हें राजनीति में महत्व दिया , कुछ को तो राज्य स्तर का नेता बना दिया और ऐसा माहौल बना दिया कि आम मुसलमान समाजवादी पार्टी के राज में अपने को सुरक्षित महसूस करता है . कुल मिलाकर यह बिना संकोच कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की राजनीति के सबसे भरोसेमंद नेता मुलायम सिंह यादव ही हैं.