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Friday, October 5, 2012

किस्सा सब्ज़ बाग़ और अरविंद केजरीवाल की नई पार्टी




शेष नारायण सिंह 

अन्ना हजारे के पूर्व शिष्य अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक पार्टी की शुरुआत कर दी . नई दिल्ली के वी पी हाउस में अपने समर्थकों के साथ आये और राजनीतिक पार्टी लांच करने की घोषणा कर दी. उन्होंने बताया कि २६ नवम्बर को पार्टी का नाम और उसका घोषणापत्र जारी कर दिया जाएगा.अरविंद केजरीवाल के साथ कुछ ऐसे लोग भी आये जिनके बारे में माना जाता है कि वे गंभीर लोग हैं . इसलिए उम्मीद की जा रही है कि २६ नवम्बर को जब उनकी पार्टी का ऐलान होगा तो कुछ नया ज़रूर होगा.
इस वी पी हाउस में बार बार राजनीतिक इतिहास लिखा गया है .यहाँ कई बार राजनीतिक परिवर्तन की इबारत लिखी गयी है . हो सकता है कि गांधी जयन्ती के दिन अरविंद केजरीवाल के जिन मित्रों का जमावड़ा हुआ था वे किसी नई राजनीतिक शक्ति की शुरुआत के कारण बनें.इस सम्मलेन में कुछ कागज़ पत्र भी जारी किये गए जिनके आधार पर करीब डेढ़ महीने तक बहस  होगी और उसके बाद राजनीतिक पार्टी के गठन की विधिवत घोषणा की जायेगी.  किसी भी पार्टी की घोषणा के पहले उसके बारे में कुछ कहना बहुत ही मुश्किल काम होता है . इसलिए आज अरविंद केजरीवाल और  वी पी हाउस में इकठ्ठा हुए उनके साथियों के सपनों के बारे में बात की जायेगी. देश भर के बड़े अखबारों ने केजरीवाल की पार्टी की शुरुआत को बहुत महत्व दिया है और देश के  सबसे बड़े अखबार दैनिक जागरण ने अरविंद केजरीवाल की पार्टी की खबर को प्राथमिकता दी है . ज़ाहिर है  आज से ही हिन्दी क्षेत्रों में इस पार्टी के बारे में बहस शुरू हो चुकी है अखबार ने लिखा है कि अन्ना की जगह महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री के पोस्टर लगे मंच से केजरीवाल ने कहा, 'सभी दलों ने मिलकर जन लोकपाल आंदोलन को बार-बार धोखा दिया। हमें चुनौती दी गई कि खुद चुनाव लड़कर बनवा लो। आज हम इस मंच से एलान करते हैं कि हम चुनावी राजनीति में कूद रहे हैं। जनता राजनीति में कूद रही है'. उनके साथ मंच पर राजनीतिक चिन्तक  योगेंद्र यादव भी मौजूद थे .उन्होंने कहा कि आज के ज़माने में राजनीति ज़रूरी है , इससे अलग नहीं रहा जा सकता .

केजरीवाल ने पार्टी के विज़न डाकुमेंट , एजेंडा और उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया का मसौदा पेश किया. अभी कल तक अन्ना हजारे की जयजयकार कर  रहे अरविंद केजरीवाल ने उनके एक अहम सवाल का जवाब  भी दिया और अपने भाषण में ऐलान किया कि  , 'बार-बार सवाल पूछा जा रहा है कि पैसा कहां से आएगा? लेकिन, ईमानदारी से चुनाव लड़ने के लिए पैसे की जरूरत नहीं होती। मौजूदा नेताओं ने ऐसा माहौल बना दिया है कि राजनीति सिर्फ गुंडों का काम बनकर रह गई है। हमें साबित करना है कि यह देशभक्तों का काम है।'
जानकार बताते हैं कि उनकी नई पार्टी में केजरीवाल के अलावा  प्रशांत भूषण ,योगेंद्र यादव ,गोपाल राय, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को आलाकमान का रुतबा हासिल होगा . जो कागजपत्र पेश किये गए उनपर नज़र डालने से साफ़ समझ में आ जाता है कि अगर यह राजनीतिक पार्टी सत्ता में आ गयी तो बहुत जल्द एक ऐसी व्यवस्था कायम हो जायेगी जो हर तरह से आदर्श होगी.चुनाव में टिकट देने के मामले में इस पार्टी का बहुत ही साफ़ रुख होगा . एक परिवार के एक ही सदस्य चुनाव लड़ने दिया जाएगा.  पार्टी का कोई भी सांसद,विधायक लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं करेगा .सांसद और विधायक  सुरक्षा और सरकारी बंगला नहीं लेंगे . हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त जज पार्टी पदाधिकारियों पर लगने वाले आरोप की जांच किया करेगें .पार्टी को मिलने वाले सभी चन्दों का हिसाब पार्टी की वेबसाइट पर डाला जाएगा. दिल्ली की मुख्य मंत्री से नाराज़ और बिजली के बिल में हो रही अनाप शनाप वृद्धि के खिलाफ दिल्ली में आन्दोलन छेड़ा जाएगा.
अरविंद केजरीवाल की पार्टी के बारे में जो कुछ भी अब तक पता चला है  उसके आधार पर उनकी प्रस्तावित पार्टी से बहुत उम्मीदें नहीं बनतीं. आम आदमी का नाम लेकर शुरू की जा रही पार्टी के शुरुआती कार्यक्रम में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके बल पर बहुत उम्मीद बन सके . लेकिन पार्टी के शुरू करने वालों को बहुत उम्मीदें हैं . केजरीवाल के साथी और गंभीर राजनीतिक कार्यकर्ता गोपाल राय से बात चीत करने का मौक़ा मिला.उनका कहना है कि इस देश में जब तक गाँवसभा में बैठे हुए आम आदमी को अपने आस पास का विकास करने का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक इस देश में सही मायने में लोकशाही की स्थापना नहीं की जा सकती. . उन्होंने कहा कि  अंग्रेजों की नौकरशाही को जवाहरलाल नेहरू ने अपना लिया था. वहीं बहुत बड़ी गलती हो गयी थी. नौकरशाही के  बारे में उनकी पार्टी नए सिरे से विचार करेगी. लेकिन अभी यह साफ़ नहीं   है कि नई नौकरशाही का स्वरुप क्या होगा. इस पर विचार चल रहा है . गोपाल राय से बात करके ऐसा लगता है कि केजरीवाल की पार्टी वही सब करना चाहती है जो महात्मा गाँधी के हिंद स्वराज और ग्राम स्वराज में राजनीतिक कार्य का मकसद बताया गया  है . यह अलग बात है  कि पूरी बातचीत में उन्होंने महात्मा गांधी का नाम एक बार भी नहीं लिया . .
टीम केजरीवाल का आरोप  है  कि अभी जो व्यवस्था है उसमें सरकारें शुद्ध रूप से वी आई पी का काम करती हैं . लेकिन यह ज़रूरी है  कि उनको इस तरह से ढाला जाए कि वे आम आदमी का काम के लिए अपने आपको तैयार करें .पार्टी की तैयारी के  बारे में भी अरविंद की टीम में काफी हद तक सहमति बन चुकी है . हरावल दस्ता तो वही होगा जो जनलोकपाल  के लिए अन्ना हजारे के  आन्दोलन में उनके साथ था. लेकिन इसमें उन लोगों को नहीं लिया जाएगा जो अब अलग हो चुके हैं . इस वर्ग में किरण बेदी जैसे लोगों का नाम है . रामदेव से भी अब इन लोगों का कोई लेना देना नहीं है . यह बात तो तीन दिन पहले ही साफ़ हो चुकी है जब टाइम्स नाउ चैनल  पर रामदेव के ख़ास साथी वेद प्रताप वैदिक ने अरविंद  और उनके  साथियों का मजाक उड़ाया था. दूसरा  वर्ग उन लोगों का होगा अ किसी भी तरह के जनांदोलनों  में काम कर रहे हैं वे भी पार्टी में कार्यकर्ता के रूप में शामिल किये जायेगें . तीसरा वर्ग उन लोगों का होगा जो भ्रष्टाचार से ऊब चुके हैं और जो  नई पार्टी एके साथ रहेगें लेकिन बहुत सक्रिय नहीं रहेगें. वास्तव में यही वर्ग पार्टी का जनाधार होगा.
अभी तक के अरविंद केजरीवाल की जो सोच  है उसके लागू होने पर देश में एक बहुत बड़ा आन्दोलन शुरू हो सकता है . लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि  भारत का मध्यवर्ग इस पार्टी को कितनी गंभीरता से लेता है . भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आन्दोलन चला था  उसमें तो यह लोग सफल नहीं रहे थे. इनके ऊपर आरोप लगते रहे हैं कि इन्होने जनता के भ्रष्टाचार विरोधी  गुस्से को शासक वर्गों के हित के लिए तबाह कर दिया था .और  आम आदमी  में निराशा भर दी थी. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना और अरविंद केजरीवाल के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं
यह भी शक़ हुआ था कि कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे और उनकी टीम के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि ऐसा बार बार हुआ है . आम आदमी को अरविंद केजरीवाल की टीम से बहुत उम्मीदें हैं . भविष्य ही बताएगा कि उनकी उम्मीदों का क्या नतीजा निकलता है .

Monday, August 20, 2012

भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है




शेष नारायण सिंह 

अन्ना हजारे के आन्दोलन को तहस नहस कर दिया गया. शासक वर्गों को इसमें मज़ा आ गया. पूरे देश में भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही जनता के लिए अन्ना हजारे एक ऐसे मसीहा के रूप में उभरे थे जो उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आने वाली भ्रष्टाचार की परेशानी से मुक्ति दिला सकता था. अन्ना हजारे के साथ गोपाल राय जैसा क्रांतिकारी भी था जो साम्राज्यवादी सत्ता प्रतिष्टानों के खिलाफ संघर्ष करता रहा है . गोपाल और उनके जैसे बहुत सारे सही क्रांतिकारियों को उम्मीद हो गयी थी कि  अन्ना हजारे के साथ भारत की जनता को एकजुट किया जा सकेगा और सत्ता प्रतिष्टान के खिलाफ लामबंद किया जा सकेगा . लेकिन ऐसा न  हो सका.  अपने ब्लॉग पर 4 नवम्बर २०११ को प्रकाशित एक लेख से कुछ अंश आज याद आते हैं . उस दिन  भी मेरे मन में   यह डर था कि कहीं सत्ता प्रतिष्ठानों के मालिक अन्ना के साथ मिलकर आम आदमी के गुस्से को बोतल में न बंद कर दें . आखिर में वही हुआ और  अन्ना हजारे के आन्दोलन से पैदा हुआ जागरण योग गुरु रामदेव के ज़रिये शासक वर्गों की गोद में जा बैठा. अन्ना हजारे के आन्दोलन की विफलता के कारणों की बाद में जांच होती रहेगी लेकिन फिलहाल आम आदमी पस्त है और उसे मालूम है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की उसके क्षमता पर सवाल उठने लगे हैं .

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी. 


अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले दिनों  ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो में जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है

Friday, August 10, 2012

गांधी की नक़ल के चक्कर में अन्ना हजारे ने अपनी टीम को भंग किया था.



शेष नारायण सिंह 

 विख्यात अर्थशास्त्री  कौशिक बसु ने पिछले दिनों एक बहुत दिलचस्प बात कही . उन्होंने बताया कि हर आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ है , अन्ना हजारे भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं लेकिन  इसका मतलब यह नहीं हुआ कि हर आदमी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है वह अन्ना हजारे के  साथ है. लेकिन भ्रष्टाचार  से पीड़ित समाज और गरीब आदमी का दुर्भाग्य यह है कि अन्ना के  साथ लगे हुए लोगों ने यह साबित करने की कोशिश की कि हर आदमी जो भ्रष्टाचार के  खिलाफ है वह टीम अन्ना के साथ है .इस काम में उनको आंशिक सफलता भी मिली . उनको लगने लगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी इंसान होगा वह उनका कार्यकर्ता नहीं तो वोटर तो बन ही जाएगा. नतीजा यह हुआ कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो नियोजित लड़ाई होनी थी वह गायब हो गयी. टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली अपनी लड़ाई के दौरान अपनी हर बात को सार्वजनिक किया , जो आदमी भी उनको अच्छा नहीं उसके लिए भला बुरा कहा . कहीं किसी ने कहा कि  गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी मानवता के हत्यारे हैं . यहाँ  टीम अन्ना के  कुछ लोगों के मोदी  विरोधी  बयान की सत्यता को गलत साबित करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन यह पक्का है कि इस बयान के बाद जो मोदी के समर्थक अन्ना के साथ जुड़े थे ,वे नाराज़ हुए और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया . इसी तरह से दिग्विजय सिंह  के भी बहुत सारे समर्थक  भ्रष्टाचार से परेशान हैं  और उन्हें भी  अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से कुछ उम्मीद हो गयी थी . लेकिन जब उन्होंने देखा कि टीम अन्ना वालों ने  भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन को दिग्विजत सिंह का विरोध करने के लिए एक मंच के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तो दिग्विजय सिंह  के प्रशंसक भी नाराज़ हो गए.  अन्ना का आन्दोलन आम तौर पर यू पी ए की सरकार के खिलाफ था इसलिए यू पी ए के समर्थक  टीम अन्ना के खिलाफ थे . ज़ाहिर है यू पी ए के समर्थक भी इस  देश में बड़ी संख्या में हैं क्योंकि उनके ही वोटों से जीतकर आये लोगों की सरकार बनी हुई है . शायद इसलिए राजनीतिक अवसर की तलाश में यू पी ए के विरोधी  अन्ना की को मदद करने लगे लेकिन जब अन्ना की टीम के कुछ सदस्यों ने  बीजेपी के बड़े नेताओं  के खिलाफ भाषण देना शुरू किया  तो आर एस एस का एक बड़ा वर्ग भी उनसे अलग हो गया . देखा यह गया कि अन्ना हजारे तो पूरे आन्दोलन में भ्रष्टाचार और लोकपाल पर केन्द्रित रहे लेकिन  उनके साथी  अपनी अधूरी राजनीतिक इच्छाओं को हवा देना लगे . जिसके मन में  किसी भी नेता के खिलाफ  जो भी बात थी उसे पब्लिक में बताने लगे . भ्रष्टाचार के साथ साथ हर विषय पर बात होने लगी.  उनकी बात को दूर तलक पंहुचाने  के लिए टी वी के कैमरे हमेशा ही उपलब्ध थे.  अन्ना की टीम के ज़्यादातर सदस्य टेलिविज़न के स्टूडियो में नज़र आने लगे .  मीडिया ने भी उन्हें  खूब महत्व दिया  क्योंकि भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता अन्ना के शुरुआती दौर में मुक्ति की राह देख रही थी . लेकिन जब अन्ना का आन्दोलन भ्रष्टाचार के अलावा हर मुद्दे पर चर्चा करने लगा तो आन्दोलन की ताक़त कमज़ोर पड़ती गयी. नतीजा यह हुआ कि  वही केंद्र सरकार जिसने आन्दोलन की शक्ति की पहचान करके  टीम अन्ना के पांच सदस्यों को लोकपाल कानून का ड्राफ्ट बनवाने के लिए सरकारी कमेटी का सदस्य बनाया था ,उसी सरकार ने उसी जन्तर मंतर पर आन्दोलन के तीन बड़े नेताओं के ९ दिन तक चले अनशन की परवाह तक  नहीं की. और घट रहे जनसमर्थन से घबडाकर आन्दोलन के नेताओं को अपना बोरिया बिस्तर बांधने के लिए मजबूर होना पडा. आन्दोलन से जुड़े एक सदस्य ने बताया कि कोशिश की गयी कि सरकार  अनशन ख़त्म कारने की अपील ही कर दे जिसके बहाने जंतर मंतर से निकला  जा सके लेकिन वह भी नहीं हुआ. आखिर में अपने ही शुभचिंतकों से चिट्ठी लिखवाकर अनशन तोड़ने को मजबूर होना पडा और वहीं पर एक आन्दोलन को समाप्त करके एक राजनीतिक पार्टी के गठन की घोषणा भी कर दी गयी . राजनीतिक पार्टी के गठन की घोषणा से उनकी टीम  के कुछ लोगों को राहत  ज़रूर मिली . शायद इसलिए कि उनकी   राजनीतिक मनोकामना एक बहुत ही दमदार आन्दोलन के ज़रिये  सफल होती नज़र आ  रही थी  लेकिन आन्दोलन में कुछ ऐसे भी लोग थे जो  या तो राजनीति से ही आये थे और या जो राजनीति में जाना ही नहीं चाहते थे. उन लोगों ने चुनावी राजनीति के ज़रिये अन्ना के आन्दोलन को आगे  बढाने की योजना पर पानी डाल दिया . और प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी से अन्ना हजारे अलग हो गए.  राजनीति से जिन लोगों ने ऐलानियाँ किनारा  किया उनमें जस्टिस संतोष हेगड़े, मेधा पाटकर और डॉ  सुनीलम प्रमुख थे. जस्टिस हेगड़े की इच्छा थी कि इस आन्दोलन को  भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बहुत बड़े आन्दोलन में बदल दिया जाए.   जज के रूप में अपने काम से  भी उन्होंने यह साबित कर दिया था कि  वे भ्रष्टाचार के  विरोधी हैं . रिटायर होने के बाद एक  सामाजिक और राजनीतिक हस्तक्षेप के ज़रिये वे  अपना काम करना चाहते थे . उन्होंने बहुत करीब से चुनावी राजनीति और भ्रष्टाचार के घालमेल को देखा था . कर्नाटक के लोकायुक्त के रूप में उन्होंने राज्य के पूर्व  मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार को जगजाहिर किया था और  राजनेताओं के भ्रष्टाचार कर सकने की क्षमता पर लगाम लगाई थी.  उनका विशवास है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार की बुनियाद में चुनावी चंदा होता है इसलिए वे चुनावी राजनीति के किसी भी अभियान से अपने को दूर ही रखना चाहते थे. उनके अलावा मेधा पाटकर ने  भी सामाजिक बदलाव के लिए आम  जनता की भागीदारी वाले कई आन्दोलनों को सफलता पूर्वक चलाया है और आम आदमी में उसके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का काम किया है . इस आन्दोलन में भी जब वे शामिल हुईं तो उनकी इच्छा किसी भी हालत में चुनावी राजनीति में शामिल होने की नहीं थी. ज़ाहिर है उन्होंने भी अपने आपको राजनीतिक पार्टी की मुहिम  से अलग कर  लिया और साफ़ कर दिया कि सरकार की नीतियों को प्रभावित कर सकने की क्षमता   जन आन्दोलनों में सबसे ज्यादा होती है . राजनीतिक पार्टी के अपने  सपने होते हैं , वे अपने तरीके से काम करते हैं और उनमें  न्याय की बहुत ज्यादा  उम्मीद नहीं होती. लिहाजा मेधा पाटकर भी इस आन्दोलन से अलग हो गयीं.
एक  अन्य प्रभावशाली सदस्य डॉ सुनीलम  भी  अलग हो गए . वे एक राजनीतिक पार्टी के महासचिव रह चुके हिना उर उसे छोड़कर वे जनांदोलनों में शामिल हुए थे. एक सोशलिस्ट के रूप में भी उन्होंने आम आदमी की   पक्षधरता की कई लडाइयां लड़ी हैं. उनसे बात करके अन्ना हजारे के दिमाग में चल रही  सारी उथल पुथल समझ में आ  गयी. अन्ना हजारे का अब तक जो इतिहास  हैं उसमें वे कभी भी खुद चुनावी तिकड़म  में नहीं पड़े. जन आन्दोलनों के ज़रिये ही उन्होंने अपनी बात कही और उसे आगे बढ़ाया . कभी किसी  भी राजनीतिक पार्टी के पक्षधर नहीं रहे और जो भी राजनीतिक पक्ष उनको भ्रष्ट नज़र आया उसके खिलाफ उन्होंने मैदान  लेने में संकोच नहीं किया. महाराष्ट्र सरकार के कई मंत्री उनके अभियान  के कारण इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर हो चुके हैं . इस बार भी उनके आन्दोलन में वह ताक़त थी कि केंद्र सरकार झुक गयी . शुरुआती दौर में केंद्र सरकार के जिन मंत्रियों के  खिलाफ उन्होंने  टिप्पणी कर दी उनको चुप होना पड़ा  . सरकारी कमेटी के सदस्य के रूप में उनकी  हर बात मानने का वादा सरकार की  तरफ से किया गया लेकिन उनके अति उत्साही साथी ऐसी ऐसी मांगें करने लगे जिनका  हल निकाला ही नहीं जा सकता. बस यहीं गड़बड़ हो गयी  . जिस अन्ना हजारे की मर्जी का आदर करके  केंद्र सरकार ने कपिल सिब्बल को उनके खिलाफ बयान देने से रोक दिया था उसी केंद्र सरकार ने उनके ९ दिन के आन्दोलन को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया. ज़ाहिर है कि उनका आन्दोलन रास्ते से भटक गया था . और अन्ना की अथारिटी कमज़ोर हुई थी . अन्ना हजारे की भूखों रह सकने की क्षमता अदम्य है लेकिन उनको अपना अनशन ख़त्म करवाने के लिए अपने कुछ प्रबुद्ध नागरिकों की एक चिट्ठी का सहारा लेना पड़ा.  

 डॉ सुनीलम को अन्ना हजारे ने बताया कि महात्मा गांधी का आन्दोलन देश से अंग्रेजों को भगाने के  लिए था . उसके  बाद  उनकी इच्छा थी कांग्रेस को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में मान्यता न दी जाए और वह सामाजिक परिवर्तन के एक आन्दोलन के रूप में चलता  रहे . लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने कांग्रेस को चुनावी  राजनीति की एक पार्टी बना दिया और महात्मा  गाँधी की राह  से अलग सामाजिक  न्याय की गाडी चलाने का फैसला किया . अन्ना हजारे  का मानना है कि महात्मा गांधी को कांग्रेस को भंग करने की एकतरफा घोषणा कर देनी चाहिए थी. अगर उन्होंने ऐसा कर दिया होता तो आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेता अपनी अपनी राजनीतिक पार्टी बनाते और चुनाव लड़ते . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस बहुत भारी गुडविल के साथ चुनावी अखाड़े में कूदी और भारी बहुमत से  जीती . यह सिलसिला लगातार चलता रहा  और कांग्रेस में भ्रष्ट लोग भरते गए. महात्मा गांधी की राजनीति के जानकार और उनके अनुयायी अन्ना हजारे ने वह काम कर दिया जो महात्मा जी करने से चूक गए थे . उन्होंने लोकपाल बिल के लिए  बात करने के लिए  बनायी गयी टीम को भंग कर दिया और यह कहा कि यह टीम अब किसी काम की नहीं है क्योंकि केंद्र  सरकार से लोकपाल के मुद्दे पर बात करने के लिए बनाई गयी थी और लोकपाल के  मामले में सरकार किसी से बात करने को तैयार नहीं है . यह सारी घोषणा अन्ना हजारे  ने अपने ब्लॉग के ज़रिये की और अपने किसी भी साथी को इसकी भनक तक न लगने दी.  बताते हैं कि उनको शक़ था कि अगर उन्होंने इस  बात को अपनी टीम के सदस्यों की नोटिस में लाने की भूल की तो वे हर बार की तरह इस बार भी सब गड़बड़ कर देगें  . पता चला है कि उनको  भरोसा था  कि उनकी शख्सियत का लाभ उठाकर उनके साथी  राजनीतिक लाभ लेगें इसलिए उन्होंने अपने आपको  चुनावी राजनीति से अलग कर  लिया और राजनीतिक पार्टी बनाने वालों को मुक्त कर दिया . उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले  समय में भी  वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखेगें . राजनेताओं की गड़बड़ियों को दुनिया के सामने लाते रहेगें . यह भी उम्मीद की  जानी चाहिए कि अब उनके साथी जो राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं,उसको भी अन्ना हजारे भ्रष्ट आचरण  करने से रोकेगें  . यह भी सच है कि प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी से अपने आपको अलग करके उन्होंने भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता की उम्मीदों को जिंदा रखा है .

Sunday, November 6, 2011

अन्ना हजारे के आन्दोलन की किश्ती झूठ के भंवर में है

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, ५ नवम्बर.अन्ना हजारे उलझ गए हैं . अपने ब्लॉगर राजू परुलेकर से पल्ला झाड़ने के चक्कर में विरोधाभासी बयान दे रहे हैं . कल जब उनसे महारष्ट्र सदन की प्रेस कानफरेंस में पूछा गया कि आप अपनी टीम के कुछ लोगों को निकालना चाहते थे अब क्यों मना कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि उनका ब्लॉग लिखने वाले राजू परुलेकर ने बिना उनकी मंजूरी के यह बात ब्लॉग पर लिख दी थी. उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . लेकिन आज जब उनकी हैण्ड राइटिंग में वह सारी बाद पब्लिक डोमेन में आ गयी तो अन्ना हजारे कानूनी दांव पेंच की बात करते नज़र आये. उन्होंने आज मीडिया को बताया कि अगर कोई भी चीज़ उनकी हैण्ड राइटिंग में है लेकिन उस पर उनकी दस्तखत नहीं है, तो उसे सच न माना जाये.उधर राजू परुलेकर भी अन्ना की हर चाल का जवाब दे रहे हैं . उन्होंने अन्ना हजारे की वह चिट्ठी ब्लॉग पर डाल दी जिसमें उन्होंने लिखा था कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण को निकाल दिया जाएगा. इस चिट्ठी पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी हैं . पुणे की फ्लाईट पकड़ने दिल्ली दिल्ली हवाई अड्डे पर पंहुचे अन्ना हजारे से जब पूछा गया कि अब तो उनके दस्तखत वाली चिट्ठी भी सामने आ गयी है ,तो उनके पास कोई जवाब नहीं था .उन्होंने कहा कि अब वे पुणे जाकर ब्लॉग ही बंद कर देगें.

२३ अक्टूबर २०११ के अन्ना हजारे के ब्लॉग पर उनके विचार प्रकाशित होने के बाद सारा विवाद शुरू हुआ था. अन्ना खुद तो लिखते नहीं, वे राजू परुलेकर नाम के एक पत्रकार को अपनी बात बता देते थे और राजू अन्ना की तरफ से बातों को ब्लॉग पर लिख देते थे. लेकिन मौन व्रत के दौरान अन्ना ने दूसरा तरीका निकाला. उन्होंने कागज़ पर मराठी में लिख कर देना शुरू किया.२३ अक्टूबर वाला ब्लॉग उसी मौनव्रत वाले टाइम का है. उसमें अन्ना ने कहा था कि वे अपनी कोर टीम में कुछ बदलाव करना चाहते हैं . बात मीडिया में चल पड़ी लेकिन दिल्ली में ४ नवम्बर की प्रेस कानफरेंस में उन्होंने कह दिया कि राजू परुलेकर ने यह बात अपने मन से बनाकर लिख दी थी. मैंने कुछ नहीं कहा था. राजू परुलेकर मुंबई के एक सम्माननीय पत्रकार हैं . उनके ऊपर जब अन्ना हजारे ने विश्ववासघात का आरोप लगा दिया तो उन्हें गुस्सा आया और उन्होंने अन्ना हजारे के हाथ से लिखा हुआ वह मज़मून सार्वजनिक कर दिया जिसमें अन्ना से साफ़ लिखा है कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण और मनीष सिसोदिया को वे हटाने के बारे में सोच रहे हैं .अब अन्ना घिर चुके थे. इसी के बाद अन्ना हजारे ने कहा कि यह उनका फैसला नहीं था. उन्होंने केवल सोचा भर था. बात को मजबूती देने के उद्देश्य से अन्ना हजारे ने कहा कि जब तक किसी भी मज़मून पर उनके दस्तखत नहीं होगें, वे उसको सही नहीं मानेगें. लेकिन अन्ना हजारे के इस बयान के कुछ देर बाद ही राजू ने कुछ टी वी वालों को उस मज़मून पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी दिखा दिए . ज़ाहिर है कि अन्ना हजारे गलतबयानी के जाल में बुरी तरह से फंस गए हैं .

अपने ऊपर आरोप लगने के बाद राजू परुलेकर ने बहुत सारी ऐसी चीज़ीं पब्लिक करना शुरू कर दिया है जिसके अन्ना हजारे की सत्य के प्रति निष्ठा सवालों के घेरे में आ जायेगी . राजू परुलेकर ने बताया है कि जब अन्ना ने गुस्से में आकर मौन व्रत के दौरान लिखना शुरू किया तो अन्ना के करीबी सुरेशभाऊ पठारे ने उनको रोकने की कोशिश की लेकिन अन्ना नहीं रुके. उन्हें उस वक़्त रोकना संभव नहीं था . लेकिन बाद में सुरेश भाऊ ने राजू को सलाह दी कि इस ब्लॉग को अभी रोक लिया जाए . केवल उसका संकेत ही दे दिया जाए. परुलेकर ने वही किया लेकिन जब कल दिल्ली में अन्ना हजारे ने उनके ऊपर गंभीर आरोप लगा दिया तो राजू परुलेकर ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अन्ना का वह पत्र सार्वजनिक कर दिया जिसको सुरेश भाऊ की सलाह पर उन्होंने पूरी तरह से नहीं छापा था .राजू परुलेकर ने अपने बयान में कहा है कि उस वक़्त डाक्टर धर्माधिकारी भी मौजूद थे और उन्होंने कहा कि कोशिश की जानी चाहिए कि अन्ना प्रसन्न चित्त रहें और उनका ब्लड प्रेशर न बढ़ने पाए .

Friday, November 4, 2011

क्य भ्रष्टाचार से जूझ रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है .

शेष नारायण सिंह
( इस लेख का संपादित संस्करण नवभारत टाइम्स में २-११-२०११ को छप चुका है )

अन्ना हजारे के साथियों ने दिल्ली से सटे महानगर गाज़ियाबाद में एक बैठक करके कहा है कि उनके संगठन में को समस्या नहीं है .जिस तरह से अब तक काम चलता रहा है,वैसे ही चलता रहेगा .गाज़ियाबाद की बैठक में सरकार पर आरोप भी लगाए गए कि वह अन्ना के साथियों को चुन चुन कर परेशान कर रही है .टीम अन्ना ने सरकार की नीयत पर सवाल उठाने के साथ साथ यह भी साफ़ कर दिया है कि सरकार के आरोपों की परवाह किये बिना उनका काम चलता रहेगा . किसी भी संगठन के लिए अपने आपको ,अपनी नीतियों को और अपने साथियों को सही ठहराना बिलकुल जायज़ काम है . उस से संगठन को मजबूती मिलती है. लेकिन जब किसी संगठन की सारी पूंजी ही उसकी ईमानदारी और पारदर्शिता हो तो उस संगठन को अपनी छवि को पाक साफ़ रखना बहुत ज़रूरी होता है . अन्ना की टीम के लिए भी यह ज़रूरी है कि वह अपने को अन्ना जैसा तो नहीं,उनसे थोडा कम ही सही लेकिन ईमानदार बनाए रखे .गाज़ियाबाद की बैठक के बाद अन्ना के साथियों ने अपने लोगों के खिलाफ हो रही चर्चाओं पर बात को स्पष्ट करने की बजाय उसको इग्नोर करने की कोशिश की. यह किसी राजनीतिक पार्टी या किसी अन्य संगठन के लिए तो सही रणनीति हो सकती है लेकिन जो संगठन समाज से भ्रष्टाचार ख़त्म करने की लड़ाई लड़ रहा हो के सबसे ज्यादा नुकसानदेह रोग से लड़ रहा हो उसे सीज़र की पत्नी की तरह शक़ के घेरे से बाहर होना चाहिए .

यहाँ यह समझ लेने की ज़रुरत है कि अन्ना के साथियों पर जो आरोप लगे हैं उनमें से कई भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आते हैं . यह कहकर कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है ,टीम अन्ना के लोग अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते. उन्हें तो यह साबित करना पडेगा कि आरोप गलत हैं और सरकार वाले उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं . देश को यह भी समझाना पड़ेगा कि सरकार बदले की भावना से काम कर रही है .जब तक आरोपों को ही गलत न साबित कर दिया जाए तब तक उनसे बचना संभव नहीं होगा. पिछले कुछ दिनों से अन्ना की टीम वालों के बारे में तरह तरह की बातें अखबारों में छप रही हैं . स्वामी अग्निवेश बहुत शुरू में मीडिया के हत्थे चढ़ गए थे , बाद में अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी भ्रष्ट आचरण की बहस की ज़द में आ गए. बाद में खबर आयी कि रामलीला मैदान में जो दान का धन इकठ्ठा हुआ था उसमें भी पारदर्शिता नहीं है . कुमार विश्वास नाम के एक सदस्य भी अपने कर्तव्य से विमुख हुए हैं . गाज़ियाबाद के किसी कालेज में पढ़ाते हैं जहां वे बहुत दिन से हाज़िर नहीं हुए. हालांकि कुमार विश्वास जी ने टीम अन्ना को बदल देने की बात करके बहस को एक नया आयाम देने की कोशिश कर दी है. इन विवादों में फंसे सभी लोगों ने अपने जवाब दे दिए हैं और उनको लगता है कि मामला ख़त्म हो गया . जो भी मामले मीडिया में चर्चा में हैं उनमें से अरविंद केजरीवाल वाले नौलखा मामले के अलावा किसी भी केस में सरकारी जांच नहीं हो रही है . ज़ाहिर है इन मुद्दों पर कोई फालो अप कार्रवाई नहीं होगी. लेकिन इन मुद्दों से यह तो साफ़ हो ही जाता है कि अन्ना के साथ लगे हुए लोग बहुत पाक साफ़ नहीं हैं . उन्होंने भी वे गलतियाँ की हैं जो साधारण लोग कर बैठते हैं .

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी.

अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अप्रैल से अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले आठ महीने में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो नमें जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है

Wednesday, November 2, 2011

अन्ना हजारे के एक पुराने साथी को गुस्सा क्यों आता है

शेष नारायण सिंह

मुंबई,३१ अक्टूबर.भ्रष्टाचार के खिलाफ करीब तीस वर्षों से अभियान चला रहे अन्ना हजारे दुविधा में हैं . उनके मौन व्रत से उनको बहुत सारे मुश्किल सवालों से तो छुट्टी मिल गयी है लेकिन अपने करीबी साथियों के आचरण को लेकर उनके आन्दोलन और उनकी शख्सियत को मिल रही कमजोरी से उनके पुराने साथी परेशान हैं. करीब तीस साल से अन्ना हजारे के साथी रहे नामी अर्थशास्त्री, एच एम देसरदा का कहना है कि दिल्ली में सामाजिक कार्य का काम करने वालों पर भरोसा करके अन्ना हजारे और उनके मिशन को भारी नुकसान हुआ है और विवादों के चलते लोकपाल बिल का मुद्दा कमज़ोर पड़ा है .

पिछले तीस साल से अन्ना हजारे की आन्दोलनों के थिंक टैंक का हिस्सा रहे अर्थशास्त्री ,एच एम देसरदा बताते हैं कि जब अन्ना हजारे ने इस साल अप्रैल में जंतर मंतर पर अनशन शुरू किया था, उसके अगले दिन ही उन्होंने दिल्ली जाकर अन्ना को समझाया था कि दिल्ली में सामाजिक सेवा का काम करने वालों से बच कर रहें .उन्होंने उनको लगभग चेतावनी दे दी थी कि इन लोगों के चक्कर में आने पर अन्ना हजारे के सामने मुसीबत पैदा हो सकती है ..लेकिन अन्ना हजारे ने एक नहीं सुनी. नतीजा सामने है. देसरदा का कहना है कि अगर अन्ना ने उनकी बात सुनी होती तो आज उनको शर्माना न पड़ता. अनशन के स्थगित होने के बाद अन्ना लोकपाल बिल और उस से जुड़े मुद्दों पर कोई बात नहीं कर पा रहे हैं . उनका सारा समय और ऊर्जा किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण पर लगे आरोपों का जवाब देने में बीत रहा है .बेदी के ऊपर यात्रा बिल में हेराफेरी का आरोप है. तो अरविंद केजरीवाल पर चंदे के गलत हिसाब और नौकरी के वक़्त किये गए कानून के उल्लंघन का आरोप है . प्रशांत भूषण तो और भी आगे बढ़ गए हैं . जो कश्मीर मूदा १९४७ में सरदार पटेल ने हल कर दिया था, प्रशांत भूषण उसी मुद्दे के नाम पर ख़बरों में बने रहने की साज़िश में शामिल पाए गए हैं . स्वामी अग्निवेश नाम के सामजिक कार्यकर्ता के ऊपर सरकार के लिए जासूसी करने का आरोप पहले ही लग चुका है . शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण के ऊपर पैसा दिलवाकर मुक़दमों में फैसले करवाने का मामला चल ही रहा है . कुमार विश्वास नाम के एक मास्टर जी हैं , वे भी कालेज में पढ़ाने की अपनी बुनियादी ड्यूटी को भूल कर अन्ना के नाम पर चारों तरफ घूमते पाए जा रहे हैं .. देसरदा का कहना है कि अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है .अन्ना हजारे को चाहिए कि अपनी रणनीति पर फिर से विचार करें और अपने अभियान को सही दिशा देने के लिए दिल्ली में सामाजिक काम का धंधा करने वालों से अपने आपको बचाएं .
देसरदा १९८२ से ही अन्ना हजारे के कागज़ात तैयार करते रहे हैं ,उनके लिए रणनीतियाँ बनाते रहे हैं.और उनकी अब तक की सफलताओं में कुछ अन्य निः स्वार्थ लोगों के साथ शामिल रहे हैं . अप्रैल में जब अन्ना हजारे के साथ बहुत देर तक चली उनकी बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला तो उन्होंने अन्ना हजारे को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अन्ना अपनी टीम के हाथों नज़रबंद थे,इस टीम की मर्जी के बिना वे अपने पुराने साथियों से भी नहीं मिल सकते थे .उन्हें इस बात पर भी एतराज़ था कि अन्ना के नए साथी कई मामलों में अन्ना को बताये बिना भी फैसले ले लेते थे. अन्ना हजारे से ने संकेत दिया था कि मौन व्रत के ख़त्म होने के बाद वे टीम के बारे में फिर से विचार करेगें . लेकिन एच एम देसरदा को अफ़सोस है कि टीम ने उनके मौनव्रत के बावजूद भी अपनी खामियों की बचत के प्रोजेक्ट में अन्ना हजारे को इस्तेमाल कर लिया.

Saturday, September 10, 2011

आडवाणी की नई रथयात्रा के निशाने पर अन्ना हजारे भी हैं और गडकरी भी

शेष नारायण सिंह

बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के पूर्व प्रत्याशी लाल कृष्ण आडवाणी ने एक और रथयात्रा निकालने का ऐलान कर दिया है .इसके पहले आडवाणी जी राम जन्मभूमि रथ यात्रा, जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंती रथ यात्रा, भारत उदय यात्रा और भारत सुरक्षा यात्रा निकाल चुके हैं. आजकल खाली हैं क्योंकि लोकसभा में सारा फोकस विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज पर रहता है . हद तो तब हो गयी जब अध्यक्ष मीरा कुमार ने उन्हें ८ सितमबर को भाषण देने से रोक दिया . जब आडवाणी जी नहीं माने तो अध्यक्ष ने आदेश दिया कि इनका बोला हुआ कुछ भी रिकार्ड नहीं किया जाएगा. उनके सामने लगा हुआ माइक भी लोकसभा के कर्मचारियों ने बंद करवा दिया . आडवाणी जी की वरिष्ठता का कोई भी नेता अभी तक के इतिहास में इस तरह के आचरण का दोषी नहीं पाया गया है . उनकी पार्टी के लोगों ने अध्यक्ष के आदेश का बुरा माना और संसद से बाहर निकल कर सड़क पर आ गए. वहीं संसद के परिसर में स्थापित की गयी महात्मा गाँधी की प्रतिमा के सामने खड़े होकरनारे लगाने लगे. लेकिन आडवाणी जी के ४० साल के संसदीय जीवन के इतिहास में एक अप्रिय प्रकरण तो बाकायदा जुड़ चुका था. . यह बात बीजेपी वालों को खल गयी . दोपहर बाद बीजेपी ने पलट वार किया और आडवाणी जी की प्रेस कानफरेंस बुला दी जहां आडवाणी जी ने ऐलान किया कि वे अब रथयात्रा निकालेगें .श्री आडवाणी जब भी रथयात्रा की घोषणा करते हैं ,आमतौर पर सरकारें दहल जाती हैं उनकी बहुचर्चित राम जन्म भूमि रथ यात्रा को बीते बीस साल हो गए है लेकिन उस यात्रा के रूट पर उसके बाद हुए दंगे आज भी लोगों को डरा देते हैं . देश हिल उठता . हालांकि उसके बाद भी आडवानी जी ने कई यात्राएं कीं लेकिन उन यात्राओं का वह प्रोफाइल नहीं बन सकता जो सोमनाथ से अयोध्या वाया मुंबई और कर्नाटक वाली यात्रा का बना था .राम जन्मभूमि रथ यात्रा के बाद आडवाणी जी ने जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंती रथ यात्रा, भारत उदय यात्रा और भारत सुरक्षा यात्रा नाम की रथ यात्राएं कीं लेकिन वे यात्राएं कोई राजनीतिक असर डालने में नाकामयाब रहीं

लाल कृष्ण आडवाणी की इस यात्रा ने बहुत सारे राजनीतिक सवालों को सामने ला दिया . संसद भवन के एक कमरे में जब श्री आडवाणी अपनी रथ यात्रा की घोषणा की घोषणा कर रहे थे तो उनकी पार्टी के अध्यक्ष वहां मौजूद नहीं थे. आडवाणी जी ने बार बार इस बात का उल्लेख किया कि उन्होंने अपनी पार्टी के अध्यक्ष जी से पूछ कर ही इस यात्रा की घोषणा की है . उनकी बार बार की यह उक्ति पत्रकारों के दिमाग में तरह तरह के सवाल पैदा कर रही थी.उनके साथ मौजूद नेताओं पर नज़र डालें तो तस्वीर बहुत कुछ साफ़ हो जाती है . आडवाणी जी के दोनों तरफ सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अनंत कुमार नज़र आ रहे थे . पार्टी के कुछ छोटे नेता भी थे . लेकिन आडवानी विरोधी गुटों का कोई भी नेता वहां नहीं था. राजनाथ सिंह नहीं थे , मुरली मनोहर जोशी नहीं थे या आडवाणी विरोधी किसी गुट का कोई नेता वहां नहीं था. ज़ाहिर है कि इस यात्रा से वे खतरे नहीं हैं जो उनकी १९९१ वाली यात्रा से थे .उस यात्रा में तो पूरी बीजेपी और पूरा आर एस एस साथ था .इसलिए संभावना है कि उनकी बाद वाली यात्राओं की तरह ही यह यात्रा भी रस्म अदायगी ही साबित होगी . लेकिन उनकी इस यात्रा से बीजेपी के अंदर चल रहे घमासान का अंदाज़ लग जाता है . आर एस एस ने इस बार साफ़ कर दिया है कि वह २०१४ के लोकसभा चुनावों के पहले किसी भी व्यक्ति को प्रधान मंत्री पद का दावेदार नहीं बनाएगा. नागपुर के फरमाबरदार बीजेपी अध्यक्ष ने भी बार बार कहा है कि इस बार उनकी पार्टी किसी को भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनायेगी. इस फैसले का मतलब यह तो है कि अभी पार्टी और आर एस एस के आलाकमान ने यह तय नहीं किया है कि अगर २०१४ में सरकार बनाने का मौक़ा मिला तो सोचा जाएगा कि किसे प्रधानमंत्री बनाया जाय . यह तो सीधा अर्थ है . इस के अलावा भी इस घोषणा के कई अर्थ हैं . उन बहुत सारे अर्थों में एक यह भी है कि आर एस एस और बीजेपी लाल कृष्ण आडवाणी को १०१४ में प्रधानमंत्री पद के लिए विचार नहीं करेगें . यह बात खलने वाली है . सही बात यह है कि यह बात लोकसभा में आडवानी को बोलने देने वाले अपमान से जादा तकलीफ देह है . लेकिन आडवाणी भी हार मानने वाले नहीं हैं . उन्होंने एक कदम आगे बढ़ कर अपने आप को बीजेपी सबे महत्वपूर्ण चेहरा सिद्ध करने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया . प्रेस वार्ता में श्री आडवाणी ने बताया कि अभी कोई कोई तैयारी नहीं हुई है . यानी अभी यात्रा का नाम नहीं तय किया गया है .अभी उसका रूट नहीं तय किया गया है , अभी उसकी कोई शुरुआती रूपरेखा भी नहीं बनायी गयी है. बस केवल ऐलान किया जा रहा है . लगता है कि इस विषय पर किसी और यात्रा की घोषणा कहीं और से होने वाली थी . अपनी तरफ से यात्रा की घोषणा करके लाल कृष्ण आडवाणी ने अन्य किसी की पहल की संभावना को रोक दिया है .

दिलचस्प बात यह है कि आडवाणी ने यह यात्रा भ्रष्टाचार के खिलाफ निकालने की घोषणा की है लेकिन जब उनसे पूछा गया कि क्या यह यात्रा रेड्डी बंधुओं के प्रभाव क्षेत्र बेल्लारी और नरेंद्र मोदी शासित गुजरात के अहमदाबाद से भी निकलेंगी तो आडवाणी जी ने कहा कि इस पर फैसला अभी नहीं किया गया है. इस बात को वे केवल सुझाव के रूप में लेने को तैयार थे. इसका भावार्थ यह हुआ कि वे राष्ट्रीय नेतृत्व में चल रहे घमासान के नतीजे को तो अपने पक्ष में कर लेना चाहते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी, और बेल्लारी वाले रेड्डी बंधुओं को नाराज़ करने की अभी उनकी हिम्मत नहीं पड़ रही है . इस यात्रा से भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए अन्ना हजारे के आयोजनों के स्वाभाविक नेता बनने की जो इच्छा आडवाणी जी मन में जागी है , वे उसे तुरंत भुना लेना चाहते हैं . ऐसा करने के कई फायदे हैं .. अन्ना हजारे ने जो माहौल बनाया है और भ्रष्टाचार विर्रोधियों की जो बड़ी जमात देश में खडी हो गयी है अब आडवाणी उसके स्वाभाविक नेता बन जायेगें . दूसरी बात बीजेपी में वे नितिन गडकरी को हमेशा के लिए हाशिये के सिपाही के रूप में फिक्स करने में सफल हो जायेगें . इस तरह से वह परम्परा भी बनी रहेगी कि आडवाणी जी की मर्जी के खिलाफ कोई भी बीजेपी नेता पार्टी का अध्यक्ष बन कर अपना अधिकार नहीं स्थापित कर सकता . राजनाथ सिंह .और मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों को आडवाणी जी ने नहीं जमने दिया था . नितिन गडकरी तो इन लोगों की तुलना में मामूली नेता है .

Saturday, September 3, 2011

अन्ना हजारे को सबसे बड़ा ब्रैंड बनाने वाले पत्रकार थे या कोई और ?



शेष नारायण सिंह


अपना अनशन समाप्त करने के बाद गुडगाँव के एक अस्पताल में २-३ दिन तक स्वास्थ्य लाभ करके अन्ना हजारे वापस अपने गाँव चले गए. यह खबर आज देश के हिन्दी के सबसे बड़े अखबार में पहले पेज पर छपी है .खबर गुडगाँव के संवाददाता की है और ,एक कालम की यह खबर करीब १०० शब्दों में निपटा दी गयी है . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार में भी यह खबर पहले पेज पर संक्षिप्त छापी गयी है .यानी अब प्रिंट मीडिया को अन्ना हजारे और उनकी राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं बची है . लेकिन टेलिविज़न मीडिया ने कल शाम को जब अन्ना हजारे अस्पताल से निकले तो उस विदाई को मीडिया इवेंट बनाने की पूरी कोशिश की . कुछ चैनलों पर अन्ना हजारे की अस्पताल से विदाई की खबरों को देखने का मौका मुझे भी मिला. हेडलाइन थी कि अन्ना हजारे को अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी है . एक कार में ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठ कर अन्ना हजारे को जाते हुए दिखाया गया था. वही सफ़ेद गांधी टोपी, वही सफ़ेद कुरता और वही सौम्य मुस्कान . . करीब ३ सेकण्ड का यह शाट बार बार दिखाया गया . साथ में न्यूज़ रीडर की आवाज़ भी कानों में पंहुच रही थी कि अन्ना हजारे को अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी है . उसी शाट को करीब २५ मिनट तक लगातार दिखाया गया और एक ही वाक्य को न्यूज़रीडर तरह तरह से बोलता रहा. कभी कहता कि अन्ना हजारे को असपताल से छुट्टी दे दी गयी है . और वे कहीं जा रहे हैं . . फिर कहता कि हम आपको इस बारे में पल पल की जानकारी दे रहे हैं . अब हम गुडगाँव से चलते हैं जहां हमारे संवाद दाता मिस्टर अमुक लाइव जुड़ रहे हैं . और अब वे पल पल की जानकारी देंगें . लाइव संवाददाता भी वही वाक्य कुछ फेर बदल करके सुनाते और कहते कि अभी पता नहीं है कि अन्ना को कहाँ ले जाया जा रहा है . यह भी नहीं पता कि उनके साथ कौन कौन हैं . यह भी नहीं पता कि वे कहाँ जा रहे हैं . यानी करीब ७ वाक्य ऐसे होते थे कि लाइव संवाद दाता को पता ही नहीं कि खबर क्या है लेकिन टेलिविज़न पर हैं तो कुछ न कुछ तो बोलते ही रहना है लिहाजा कुछ ऐसे वाक्य बोलते रहे जिन वाक्यों को न्यूज़ रीडर और लाइव संवाददाता ने मिलकर २५ मिनटों में सैकड़ों बार बोला होगा. बार बार लगता था कि बीच में यह न्यूज़ रीडर थोडा समय निकाल कर उन खबरों के बारे में भी बता देगा जिससे देश को पता चलता कि उत्तर भारत के बहुत सारे इलाकों में भारी बाढ़ आई हुई है . कुछ इलाकों में लोग पेड़ों पर रह रहे हैं , कुछ इलाकों में लोग बाढ़ की वजह से पूरी तरह से अलग थलग पड़ गए हैं और भूख से तड़प रहे हैं . लेकिन ऐसा कहीं होता नहीं दिखा . शाम को भी कुछ चैनलों को देखने का मौक़ा मिला . वहां भी कुछ ऐसी बहसें चल रही थीं जिनको देख कर लगता ही नहीं था कि असली भारत किन मुसीबतों से जूझ रहा है. राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी और अफज़ल गुरु की फांसी की राजनीतिक विवेचना भी कुछ चैनलों पर नज़र आई. लेकिन इन खबरों को आज अखबारों ने वह इज्ज़त नहीं दी है जो रुतबा इन का कल के टी वी चैनलों पर देखने को मिला .


ज़ाहिर है कि भारतीय मीडिया की प्राथमिकताएं खबर की औकात से नहीं किसी अन्य कारण से तय होती हैं . कुछ कठोर आलोचक टी वी न्यूज़ की प्राथमिकता को तय करने का पैमाना टी आर पी को बता कर टी वी चैनलों को बहुत ही स्वार्थी संगठन के रूप में पेश करने की कोशिश करते हैं . उस तर्क से तो टी वी चैनल इंसान की कमजोरी का बौद्धिक शोषण करने वाले संगठन के रूप में मान लिए जायेगें . आम तौर पर इंसान की यह कमजोरी होती है कि वह अपने बारे में खबर देख कर बहुत खुश होता है .हालांकि कई ज्ञानी टी वी संपादक इस बात को सेमिनारों आदि में इस बात को खुद स्वीकार करते पाए जाते हैं लेकिन उन्हें शायद मालूम ही नहीं है कि वे क्या स्वीकार कर रहे हैं . टी आर पी के दबाव में खबरों को प्रस्तुत करने की बात को कुछ हद तक तो स्वीकार किया जा सकता है लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं है .भारत में टेलिविज़न की बहुत सारी खबरों ने इतिहास रचा है . उन सबको यहाँ दुहराना समीचीन नहीं होगा लेकिन समकालीन भारत के राजनीतिक इतिहास में कुछ ऐसी खबरें ज़रूर हैं जिनके कारण बहुत बड़े बड़े घोटाले पब्लिक डोमेन में आये. कामनवेल्थ खेलों के घोटाले, २ जी स्पेट्रम के घोटाले आदि ऐसे उदाहरण हैं जिनको फोकस में लाने में टेलिविज़न चैनलों का भारी योगदान है . बंगारू लक्ष्मण नाम के नेता को नोटों के बण्डल संभालते दिखाकर टेलिविज़न ने भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग में एक संगमील स्थापित किया था . लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है इस तरह की खबरें उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं . कामनवेल्थ खेल और २ जी वाला घोटाला तो देश के राजनीतिक विकास में भारी योगदान कर रहा है . कांग्रेस को एक भ्रष्ट पार्टी के रूप में चिन्हित करने में इन खबरों का बहुत बड़ा योगदान है . लेकिन जब टेलिविज़न एक व्यक्ति के अनशन को राष्ट्रीय एजेंडा पर लाने की कोशिश करता है तो बात अजीब लगती है . टेलिविज़न की कृपा से ही ब्रैंड अन्ना अगस्त के दूसरे पखवाड़े के समय काल में १० दिनों का विज्ञापन की दुनिया का सबसे बड़ा भारतीय ब्रैंड बन सका . विज्ञापन की दुनिया से जुड़े लोगों का कहना है किसी एक आदमी को १५ दिन के अंदर देश का टाप ब्रैंड बनाना कोई मामूली सफलता नहीं है . उसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर प्लानिंग की ज़रूरत होती है . देश के आम आदमी को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि किसी को ब्रैंड बनाने के लिए कितनी प्लानिंग की गयी और कितनी नहीं की गयी. लेकिन उसे इस बात से ज़रूर मतलब है कि वह टेलिविज़न पर ऐसी ख़बरों को देखे जिस से उसकी जानकारी बढे. यहाँ कम्युनिकेशन थियरी के महान विद्वानों मार्शल मैक्लुहान और रेमंड विलियम्स के विचारों का हवाला देकर कोई प्वाइंट स्कोर करने की मंशा नहीं है लेकिन आम आदमी की उस जिज्ञासा को ज़रूर रेखांकित किया जाना चाहिए कि वह उन खबरों को ही देखे जो उसकी जानकारी में वृद्धि करें. अगर जानकारी में वृद्धि करने के बाद कोई खबर बार बार श्रोता के सर पर हथौड़े की तरह काम कर रही है तो उसे विज्ञापन कहा जायेगा. यहाँ इस बहस में भी जाने की ज़रुरत नहीं है कि पंद्रह दिनों तक टेलिविज़न पर अन्ना हजारे की जो ब्रैंड बिल्डिंग की गयी उसका उद्देश्य क्या था और उस उद्देश्य को हासिल करने के लिए टेलिविज़न टाइम कौन मुहैया करवा रहा था लेकिन यह बात सच है कि समाचार की जितनी भी परिभाषाएं अब तक जानकारी में आई हैं उनके अनुसार १५ दिन तक टेलिविज़न पर चला अन्ना हजारे का अभियान किसी भी सूरत में खबर की श्रेणी में नहीं आता . हाँ अगर यह मान लिया जाय कि वह ब्रैंड बिल्डिंग का एक आयोजन था तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी. आज के अखबारों में छपी अन्ना हजारे से सम्बंधित ख़बरों को जो मामूली ट्रीटमेंट हुआ है उसे देख कर समझ में आ जाता है कि पत्रकार बिरादरी तो अन्ना हजारे वाली ख़बरों को सही समझ रही थी लेकिन जो नज़र आ रहा था वह पत्रकारों के कारण नहीं नज़र आ रहा था. बार बार सवाल उठता है कि कहीं वह ब्रैंड मैनेजरों का काम तो नहीं था.

Wednesday, August 31, 2011

अरुण जेटली की प्रतिभा के सामने नतमस्तक हुई सरकार



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,३० अगस्त . अन्ना हजारे के अनशन से पैदा हुए संकट को हल करने में जब सरकार पूरी तरह से फेल हो गयी तो राज्य सभा में विपक्ष के नेता , अरुण जेटली ने संसद और देश की राजनीतिक व्यवस्था के सामने मौजूद संकट का हल निकालने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई. पता चला है कि सत्ता पक्ष की ओर से कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने अरुण जेटली की हर सलाह को माना और आखिर में संकट का समाधान निकल सका और अन्ना हजारे के जीवन की रक्षा करने की कोशिश को गति मिली.सूत्र बताते हैं कि अरुण जेटली की प्रतिभा की ही ताक़त थी कि अन्ना हजारे से सीधा संपर्क करने का फैसला किया गया और केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख को प्रधान मंत्री के दूत के रूप में सक्रिय किया गया.

जब सरकार के केस को कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसे लोगों ने बहुत ही कठिन मुकाम पर लाकर छोड़ दिया तो प्रधानमंत्री की सलाह पर सलमान खुर्शीद ने समस्या का हल निकालने की कोशिश शुरू की. मुश्किल वक़्त में उन्होंने अपने सुप्रीम कोर्ट के वकील दोस्त दोस्त अरुण जेटली के मदद माँगी.दोनों सुप्रीम कोर्ट में साथ साथ वकालत कर चुके हैं और अच्छे मित्र के रूप में जाने जाते हैं . अरुण जेटली की सलाह पर ही अन्ना हजारे से डायरेक्ट संवाद स्थापित किया गया. जब अन्ना के टीम के लोग बात चीत से अलग कर दिए गए तो काम बहुत ही आसान हो गया . सूत्र बताते हैं कि उसके बाद अरुण जेटली की प्रतिभा ही हर मोड़ पर सरकार के काम आई. . योजना के अनुसार काम हुआ और प्रधान मंत्री, प्रणब मुखर्जी, विलासराव देशमुख,संदीप दीक्षित और राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस में किसी को भे योजना के भनक नहीं थी. बताया गया है कि अरुण जेटली ने अपने नेताओं को सब कुछ बता रखा था. अन्ना हजारे से लोकसभा में पेश किये जाने वाले सरकार के बयान के बारे में चर्चा हो चुकी थी लेकिन उनकी टीम के किसी व्यक्ति को कुछ नहीं मालूम था. संसद में चल रहे बहस के दिन का घटनाक्रम देखने से पता लगता है कि जब अन्ना हजारे की टीम के सदस्य अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण सलमान खुर्शीद से मिलने गए तो उन्होंने लोकसभा में प्रस्तावित चर्चा की रूपरेखा उनको बता दी. सूत्रों का दावा है कि कानूनमंत्री को शायद यह पता नहीं था कि अन्ना हजारे ने सर्वोच्च स्तर पर हुई बातचीत को अपने सहायकों को नहीं बताया था. शायद इसीलिए प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल ने मीडिया में बहुत ही गुस्से में बयान दे दिया था. बहरहाल बाद में लोक सभा में सुषमा स्वराज और संदीप दीक्षित और राज्य सभा में अरुण जेटली ने बात को संभाल लिया . अन्ना के अनशन से उत्पन्न संकट का हल निकालने में राजनीतिक बिरादरी ने जो परिपक्वता दिखाई है उसे समकालीन भारतीय राजनीति में समझदारी का एक अहम मुकाम माना जाएगा.

Saturday, August 27, 2011

अन्ना हजारे के आन्दोलन के साथ अब कोई राजनीतिक दल नहीं है.


शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली ,२६ अगस्त आज लोक सभा में औपचारिक और गैर औपचारिक स्तर पर एक दम साफ़ हो गया कि भारतीय जनता पार्टी अन्ना हजारे की टीम की तरफ से पेश किये गए जान लोक पाल बिल का समर्थन नहीं करती है .अन्ना हजारे का आन्दोलन अब राजनीति से धीरे धीरे अलग हो रहा है .कांग्रेस पिछले तीन महीने से अन्ना से जान छुडाने की कोशिश कर रही है , आज बीजेपी की भी अन्ना से किनारा करने की कोशिश सामने आ गयी. बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि अन्ना हजारे के साथियों ने जो बिल बनाया है उसमें बहुत सारी ऐसी बातें हैं जिनको कानून की शक्ल नहीं दी जा सकती. वहीं पार्टी के पूर्व अध्यक्ष डॉ मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि अन्ना हजारे के साथी राजनीतिक प्रक्रिया को अपमानित करने की कोशिश कर रहे हैं .अन्ना के समर्थन में अब तक सबसे बड़ी राजनीतिक आवाज़ बीजेपी की मानी जा रही थी लेकिन उसके भी किनारा करने से अन्ना का आन्दोलन राजनीतिक समर्थन के रेंज से बाहर होता जा रहा है .आज दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों के एक मंच से भी अन्ना के विरोध में ज़बरदस्त आवाज़ सुनने में आई.

कल के राजनीतिक घटनाक्रम से साफ़ हो गया था कि केंद्र सरकार ने अन्ना हजारे से सीधी बात का जरिया निकाल लिया था और साफ़ संकेत दे दिया था कि अन्ना टीम के सदस्यों से अब सरकार बात नहीं करेगी. केंद्रीय मंत्री विलास राव देशमुख और अन्ना हजारे की मुलाकात का उद्देश्य केवल यह साबित करना था. आज दिन भर भी सरकार ने अन्ना हजारे से बातचीत का सीधा रास्ता खुला रखा ,उनकी टीम वालों से कोई संवाद स्थापित नहीं हुआ. ऐसा शायद इसलिए हुआ कि प्रणब मुखर्जी से मिलकर आने के बाद अन्ना टीम एक ख़ास मेंबर अरविंद केजरीवाल ने जो कुछ कहा था उसे कुछ ही मिनटों के अंदर प्रणब मुखर्जी ने गलत बता दिया और नसीहत दे डाली कि अन्ना के साथियों को गंभीर विषयों पर असत्य बात नहीं करना चाहिए. लगता है कि अन्ना टीम वाले यह गलती बार बार कर रहे हैं . कल बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी के साथ मिलकर जब अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और प्रशांत भूषण बाहर निकले तो जो बातें उन्होंने मीडिया से बतायी वह अरुण जेटली के बयान से बिलकुल उल्टी थी. ज़ाहिर है अन्ना टीम ने बीजेपी नेताओं से हुई बातचीत का सही ब्योरा प्रेस को नहीं बताया था. अन्ना टीम ने कहा था कि उनके जन लोकपाल बिल की ज़्यादातर बातों को आडवानी जी ने सही माना था लेकिन आज यह बात बिलकुल साफ़ हो गयी कि अन्ना हजारे के बिल को उसके मूल रूप में पास कराने एक लिए बीजेपी बिलकुल तैयार नहीं है .बीजेपी की दिन भर किनारा करने की कोशिश के बीच जब डॉ मुरली मनोहर जोशी से यह पूछा गया कि आर एस एस तो पूरी तरह से अन्ना हजारे का समर्थन कर रही है तो उन्होंने कहा कि आर एस एस ने मार्च २०१० में एक प्रस्ताव पास किया था कि जो भी भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करेगा ,उसका समर्थन किया जाएगा . उन्होंने दावा किया कि अन्ना हजारे और रामदेव के आन्दोलन उसके बहुत बाद में शुरू हुए इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि आर एस एस अन्ना के साथ है . वह तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने घोषित कार्यक्रम को लागू कर रहा है .

अनुसूचित जातियों और अन्य संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी आज दिल्ली में एक प्रेस वार्ता करके दावा किया कि उनका भी एक बहुजन लोकपाल बिल है जिसे सरकार के पास भेज दिया गया है . इस संगठन के नेता, उदित राज, शबनम हाशमी, अज़ीज़ बर्नी आदि ने दावा किया कि उन्हने दर है कि अन्ना हजारे और सरकारी लोक पाल बिल के पास हो जाने के बाद बहुजन अर्थात दलित ,पिछड़े,एवं अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ बदले की भावना से काम करेगा. उन्होंने सवाल किया कि जब महारष्ट्र में राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों पर लाठियां बरसाई थीं तो अन्ना हजारे ने उसका विरोध क्यों नहीं किया . २००२ में गुजरात में मुसलमानों के क़त्ले आम के बाद भी अन्ना हजारे ने नरेंद्र मोदी की तारीफ क्यों की. आज का दिन अन्ना हजारे के आन्दोलन के बिखराव की शुरुआत का दिन साफ़ नज़र आ रहा था.

Saturday, August 13, 2011

सरकार अन्ना हजारे को अनशन स्थल से उठा भी सकती है .




शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,११ अगस्त. अन्ना हजारे के १६ अगस्त को प्रस्तावित अनशन से केंद्र सरकार में अंदर तक घबडाहट है लेकिन इस बार सरकार उनसे दो दो हाथ करने के मूड में है.हालांकि सरकार में यह भी बातें चर्चा में हैं कि राम देव वाले रामलीला मैदान वाले आन्दोलन के तरह कोई गलती न हो . मीडिया के लिए बनाए गए मंत्रियों के ग्रुप की ब्रीफिंग में आज गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि अगर अनशन के दौरान अन्ना हजारे की तबियत बिगड़ी तो उन्हें अनशन की जगह से उठा कर उनकी जान बचाने की कोशिश की जायेगी. जब गृह मंत्री इस तरह की बात करता है तो उसका मतलब अन्ना के एटीम के हर सदस्य की समझा में ज़रूर आ गया होगा.सरकार ने आज अन्ना हज़ारे के प्रस्ताविर अनशन को बेतुका बताया और कहा कि जब लोकपाल बिल संसद की स्थायी समिति के विचार के लिए पेश किया जा चुका है ,तो उस पर रचनात्मक सुझाव दिए जाने चाहिए , दबाव की राजनीति से बचना चाहिए . गृह मंत्री ने कहा कि लोकतंत्र में सब को अपना विरोध व्यक्त करने की आज़ादी है लेकिन वक़्त ही बताएगा कि विरोध सही था कि नहीं . हालांकि सरकार अब अन्ना को हीरो बनने से रोकने के लिए पूरी तैयारी कर चुकी है . आज दिल्ली के एक अखबार में खबर लीक की गयी है कि अन्ना हजारे की टीम के कुछ सदस्यों के एन जी ओ को कई विदेशी दूतावासों से धन मिलता है . उनेक साथियों के कुछ संगठनों को दुनिया के बहुत बड़े बैंकों से भी पैसा मिलता है .लीमैन ब्रदर्स नाम के बैंक का नाम भी अखबार में छपा है . उनके साथियों के एन जी ओ को दान देने वालों में दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनी वाल मार्ट का नाम भी अखबार में छपा है . सूत्रों ने बताया कि सरकार ने खुसफुस अभियान के ज़रिये यह भी दिल्ली के सत्ता के गलियारों में फैला रखा है कि अन्ना हजारे की टीम के सदस्य जजों को तो लोकपाल के जांच के दायरे में लेने की बात करते हैं लेकिन वे एन जी ओ के भ्रष्टाचार की जांच को लोकपाल से बाहर रखना चाहते हैं . जब यह लोग बुधवार को संसद के एसमिति में हाज़िर हुए थे तो उन्होंने आग्रह किया था कि एन जी ओ को उस जांच से बाहर रखा जाए. गौर करने की बात यह है कि अन्ना हजारे और रामदेव के खिलाफ कांग्रेस की तरफ से शुरुआती मोर्चा संभालने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी मांग की थी कि रामदेव को धन देने वालों की जांच भी की जानी चाहिये .

अन्ना हजारे के खिलाफ तो सरकार के पास कुछ नहीं है लेकिन उनके साथियों की तरकीबों को मजाक का विषय बनाने के एकापिल सिब्बल की कोशिश आज भी जारी रही. जब गृह मंत्री से पूछा गया कि राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र अमेठी में ९५ प्रतिशत लोग अन्ना को सही मानते हैं तो उन्होंने कहा कि चांदनी चौक के सर्वे के बाद जो बात कपिल सिबल ने कही थी मैं भी वही कहता हूँ . मुझे ताज्जुब है कि यह रिज़ल्ट १०० प्रतिशत क्यों नहीं है .गृह मंत्री ने यह भी आभास देने की कोशिश की कि सरकार अन्ना हजारे के प्रस्तावित अनशन से परेशान नहीं है . वह दिल्ली पुलिस के स्तर का मामला है और उसे उसी स्तर पर हल कर लिया जाएगा. सरकार के अंदर के सूत्र बताते हैं कि आन्दोलन को हल्का करके पेश करने का काम पब्लिक के लिए है . वैसे सरकार पूरी तरह से मन बना चुकी है कि इस बार अन्ना हजारे के साथियों की कमजोरियों को पब्लिक करके उनके आन्दोलन की हवा निकालने की पूरी कोशिश की जायेगी . दिल्ली के एक बड़े अखबार में उनके साथियों के एन जी ओ को मिलने वाली रक़म का संकेत देकर सरकार ने अपने इरादों की एक झलक दिखा दी है . ज़ाहिर है जब अखबारों और टी वी चैनलों में विदेशी दान की बातें आयेंगीं तो टीम अन्ना रक्षात्मक मुद्रा में तो हो ही जायेगी.

Saturday, August 6, 2011

काश अन्ना हजारे अपने मकसद में कामयाब हो गए होते

शेष नारायण सिंह

लोकसभा में सरकार ने लोक पाल बिल पेश कर दिया.सरकारी कोशिश से लागता है कि एक ऐसा कानून बनने वाला है जो बिलकुल दन्त विहीन होगा . भ्रष्टाचार को खत्म करना तो दूर उसे बढ़ावा देगा.इस तरह के अपने मुल्क में बहुत सारे कानून हैं . एक सरकारी विभाग बनेगा,कुछ नौकरशाहों को दिल्ली में पार्किंग स्पेस मिलेगा. लेकिन भ्रष्टाचार का बाल नहीं बांका होगा. देश में आज लगभग हर इंसान भ्रष्टाचार का शिकार है ,त्राहि त्राहि कर रहा है. उसकी भावनाओं को एक दिशा देने की दिशा में अन्ना हजारे ने एक सराहनीय क़दम उठाया था जो तूफ़ान बन सकता था,जन अभियान बन सकता था लेकिन जनता की इन भावनाओं को जनांदोलन बनने से निहित स्वार्थों ने रोक दिया . कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जननायक बन रहे अन्ना हजारे को अपने साथ ले लिया, दिल्ली के सत्ता के गलियारों की सैर करा दी . उनके आगे पीछे कुछ ऐसे लोग घूम रहे थे जिन्होंने कभी जाना ही नहीं कि भ्रष्टाचार आदमी को कितनी गहरी चोट करता है . उनके साथ लगे हुए पुलिस , इनकम टैक्स और न्यायव्यस्था से जुड़े लोग अपनी विभाग में इतने ताक़तवर लोग हैं कि कभी किसी ने उनसे घूस माँगा ही नहीं होगा, उन्हें घूस की मार का अंदाज़ नहीं है . उन्होंने अपने साथ काम करने वाले बड़े अफसरों को घूस लेते देखा ज़रूर होगा लेकिन यह लगभग पक्का है कि कभी भी उनके सामने रिश्वत देने की मजबूरी नहीं पड़ी होगी .घूस के खिलाफ लड़ाई आम आदमी की है. इसलिए जब अन्ना ने नारा दिया तो वह उनके साथ हो गया. देश के लाखों पत्रकारों ने अन्ना की राह पकड़ ली. लगने लगा कि १९२० के महात्मा गांधी या १९७५ के जयप्रकाश नारायण के आन्दोलनों की तरह का कोई आन्दोलन शुरू हो चुका था. देश के कोने कोने में अन्ना हजारे की डुगडुगी बज चुकी थी, जो जहां था वहीं से भ्रष्टाचार के खिलाफ जुझारू राग में नारे लगा रहा था . शासक वर्गों को यह बात जंची नहीं , वे नाराज़ हुए और भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए तूफ़ान के नायक की ताक़त को ही बेकार करने की योजना पर काम शुरू कर दिया. अन्ना हजारे को सरकारी कमेटी में शामिल होने की दावत दे दी. यह एक जाल था जिसे सत्ता ने फेंका था. उस जाल के साथ नत्थी वायदों को देख कर अन्ना हजारे फंस गए. नतीजा यह हुआ कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जन आन्द्दोलन बन रहा था वह आज कहीं नज़र नहीं आता. अब भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराने की बीजेपी की योजना ही चारों तरफ नज़र आ रही है . इस बात में कोई शक़ नहीं है कि कांग्रेस के राज में भ्रष्टाचार की नई ऊंचाइयां तय की गयी हैं लेकिन बीजेपी वाले भी कम भ्रष्ट नहीं हैं .उनके मंत्री और नेता भी भ्रष्टाचार की कथाओं में बहुत ही आदर से उद्धृत किये जाते हैं . इसलिए भ्रष्टाचार को जनांदोलन बनने से रोकने के लिए दोनों ही शासक पार्टियों ने मेहनत की और आम आदमी का दुर्भाग्य है कि समकालीन इतिहास में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाला सबसे बड़ा नायक सत्ता के गलियारों में भटक गया .आज बीजेपी वाले इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दे रहे हैं कि प्रधान मंत्री को लोकपाल के घेरे में लिया जाए लेकिन जन लोकपाल बिल में जो सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं वे पता नहीं कहाँ खो गयी हैं. बीजेपी समेत सारे देश को मालूम है कि अगर कांग्रेस ने तय कर लिया है कि वह प्रधान मंत्री को दायरे में नहीं आने देगी तो वही होगा . इसलिए उस बात को राष्ट्रीय बहस के दायरे में नहीं लाना चाहिए था. इसलिए ज़रूरी यह था कि जन लोक पाल बिल में जो अच्छी बातें हैं उसे सरकारी बिल में लाने की कोशिश की जाती. जहां तक इस देश के आम आदमी की बात है उसे भ्रष्टाचार से फौरी राहत चाहिए . प्रधान मंत्री के भ्रष्टाचार की बात को वह बाद में अगले आन्दोलन के बाद देख सकता है . भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को प्रभावी बनाने के लिए जन लोक पाल बिल में कुछ बहुत अच्छे प्रावधान हैं . मसलन उसकी धारा २० में लिखा है कि जो व्यक्ति भ्रष्टाचार की पोल खोलेगा उसे पूरी सुरक्षा दी जायेगी . लिखा है कि भ्रष्टाचार की जानकारी देने वाले के जीवन को ख़तरा रहता है इसलिए उसकी सुरक्षा की गारंटी के साथ साथ जांच के काम को बहुत तेज़ी से निपटाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. उसके बाद धारा २१ महत्वपूर्ण है . इसमें न्याय मिलने में होने वाली देरी को निशाने पर लिया गया है .न्याय मिलने में देरी की परिस्थिति के लिए अधिकारी को ज़िम्मेदार ठहराने का सुझाव है . यह दो बातें भ्रष्टाचार के निजाम पर ज़बरदस्त हमला कर सकती थीं . लेकिन इन पर कहीं कोई बात नहीं हो रही है . नतीजा यह है कि कांग्रेस ने जिन नेताओं को भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे तूफ़ान को रोकने का ज़िम्मा दिया था वे बहुत ही खुश हैं . अन्ना की ओर से प्रस्तावित जन लोक पाल बिल में धारा २० और २१ ऐसे प्रावधान हैं जो भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे अभियान को ताक़तवर बना सकते थे. अभी देर नहीं हुई है . भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक तेवर दिखाने वाली बीजेपी को चाहिए कि वह लोकपाल बिल की चर्चा के दौरान ऐसी हालत पैदा करे कि जन लोकपाल बिल की वे बातें जो आम आदमी को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की ताक़त रखती है, कानून की शक्ल ले सकें. भ्रष्टाचार के खिलाफ उठे जन ज्वार को शांत करने की शासक पार्टियों की सफलता के बाद भी अगर जन लोक पाल की अहम बातें सरकारी बिल में शामिल करवाई जा सकें तो जनता और देश का बहुत भला होगा.

Sunday, April 24, 2011

अन्ना हजारे के आन्दोलन को उत्तर प्रदेश की पिच पर तौल रहे हैं कांग्रेस और बीजेपी वाले

शेष नारायण सिंह

अन्ना हजारे के आन्दोलन ने अलग अलग राजनीतिक खेमों में अलग अलग असर डाला है . जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसने पक्के तौर पर इस आन्दोलन को बीजेपी की गोद से छीनकर अपनी अध्यक्ष सोनिया गाँधी की छवि को दुरुस्त करने की कोशिश में शुरुआती सफलता हासिल कर ली है . जब अन्ना हजारे ने सरकारी दखल वाली ड्राफ्टिंग कमेटी में आपने बन्दों के साथ शामिल होने का फैसला किया तो बीजेपी के हाथ बड़ी निराशा लगी. नागपुर जिले के बीजेपी नेता और मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी खासे नाराज़ हुए और उन्होंने इस आन्दोलन में सबसे अहम भूमिका निभा रहे बाबा रामदेव से आपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर कर दी. दिल्ली में मौजूद उनके प्रवक्ताओं ने उसी राग में अपनी बात कहनी शुरू कर दी .शायद इसलिए कि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर बीजेपी नेताओं का राजनीतिक ज्ञान अखबारों को पढ़कर ही आता है . इस बीच कांग्रेस ने अपनी सर्वोच्च नेता सोनिया गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय महान नेता साबित करने के चक्कर में अन्ना हजारे के साथियों के खिलाफ उल जलूल बयान देना शुरू कर दिया .दिग्विजय सिंह ने शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया . एक फर्जी सी डी को बाज़ार में डालकर अन्ना के साथियों को भ्रष्ट साबित करने की मुहिम को तेज़ कर दिया गया .ज़ाहिर है कि देश में कांग्रेस की इस दोहरी चाल के खिलाफ माहौल बनने लगा . वेब मीडिया की कृपा से सबको मालूम पड़ गया कि कांग्रेस का खेल क्या है . बीजेपी को इस आन्दोलन की समर्थक बता कर कांग्रेस की तरफ से किया गया हमला अब बेअसर हो चुका है .उधर बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पटना से आये बयान ने नए राजनीतिक समीकरणों का संकेत दे दिया है .उनके बयान से लगता है कि अब बीजेपी अन्ना के आन्दोलन का जितना भी इस्तेमाल कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए कर पायेगी ,करेगी. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की कोशिश है कि जन लोक पाल बिल को बेमतलब कर दिया जाए . लोकपाल बिल की मसौदा समिति के सदस्यों के खिलाफ शुरू हुए कांग्रेस के अभियान को वे इस सांचे में फिट करके अन्ना के अभियान से ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक लाभ लेने की बात करते नज़र आते हैं . हालांकि उन्होंने किसी को भी क्लीन चिट देने से इनकार किया लेकिन बिल का मसौदा तैयार होने के पहले ही उसमें तरह तरह के पेंच फंसाने के कांग्रेस के अभियान को आड़े हाथों लिया . राजनाथ सिंह का बयान कोई निजी बयान नहीं है .यह इस बात का संकेत है कि बीजेपी में अन्ना के आन्दोलन को लेकर जो दुविधा बनी हुई थी , वह अब दूर हो रही है . लगता है कि दिल्ली में बसने वाले बीजेपी के जड़ विहीन नेताओं की ज़द से अब रणनीति बाहर आ चुकी है और अब उसमें ज़मीनी राजनीति के दिग्गज भी शामिल किये जा रहे हैं . राजनाथ सिंह की पहचान देश के उन बीजेपी नेताओं के रूप में होती है जिन्होंने ज़मीनी राजनीति के बल पर मौजूदा ऊंचाइयां तय की हैं . भागते भूत की लंगोटी पर क़ब्ज़ा करने की उनकी रणनीति से बीजेपी को शायद बहुत वोटों का फायदा न हो लेकिन बीजेपी वालों को एक मौक़ा और मिल गया है जब वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार की पोषक पार्टी के रूप में पेश कर सकते हैं . राजनीति की ज़बान में कहा जाए तो यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.

बीजेपी की बदली हुई सोच का अंदाज़ कांगेस को भी लग चुका है .शायद इसीलिये हर मंच से अब कांग्रेसी नेता संतोष हेगड़े की तारीफ़ कर रहे हैं . यहाँ तक कि दिग्विजय सिंह भी पिछले एकाध दिन से बदले बदले नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी संतोष हेगड़े की तारीफ़ की और आजकल शान्ति भूषण और उनके बेटे के खिलाफ बयान नहीं दे रहे हैं . अमर सिंह भी थोडा ढीले पड़े हैं . हालांकि 'भूषण गरियाओ अभियान' के दौरान तो वे दिग्विजय सिंह के भाई ही बन गए थे .दोनों भाइयों ने फर्रुखाबाद जाकर एक ही मंच से भाषण दिया और एक माला साथ साथ पहनी . लेकिन लगता है कि दिग्विजय सिंह ने इतनी बार अन्ना के आन्दोलन के खिलाफ बयान दे दिया है कि वे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा चुके हैं . ऐसे माहौल में राजनाथ सिंह का बयान दिग्विजय सिंह को बहुत नुकसान पंहुचाएगा. इस खेल के अंदर का खेल समझने की कोशिश की जाए तो तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी सामने आता है. आजकल उत्तर प्रदेश में मायावाती से नाराज़ ठाकुरों को अपनी तरफ करने का अभियान चल रहा है . कांग्रेस की कोशिश है कि अगर ठाकुर जाति के लोग एक वोट बैंक के रूप में उसके साथ जुड़ जाएँ तो मुसलमानों को समझाया जा सकता है कि ठाकुर उनके साथ हैं और अगर मुसलमान भी साथ आ जाएँ तो बीजेपी को कमज़ोर किया जा सकता है .उत्तर प्रदेश में दिग्विजय सिंह का यह एक प्रमुख एजेंडा है . लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश के आम ठाकुरों की बात तो जाने दीजिये ,वहां के कांग्रेसी राजपूत भी उनको अपना नेता नहीं मानते . वे अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . बीजेपी की भी यही कोशिश है . अगर राजपूत थोक में उसके पास आ गए तो मुसलमान कांग्रेस का चक्कर छोड़कर सीधे बी एस पी में जाएगा. ऐसी हालत में बीजेपी को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बी एस पी के खिलाफ खडी सबसे मज़बूत पार्टी के रूप में अपने आपको पेश करने का मौक़ा लगेगा.यानी बीजेपी की भी मजबूरी है कि वह अब राजनाथ सिंह को ज्यादा गंभीरता से ले क्योंकि उत्तर प्रदेश में जो भी मज़बूत होगा ,दिल्ली में उसकी सत्ता स्थापित होने की संभावना बहुत बढ़ जायेगी.

Thursday, April 21, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ा लठैत कौन ?

शेष नारायण सिंह

इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से बहुत चिंतित हैं . उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में बिताया है . फौज की नौकरी ख़त्म करने के बाद उन्होंने सही गांधीवादी तरीके से अभियान चलाया और अपने गाँव को बाकी गावों से बेहतर बनाया . उनके गाँव में कुछ ऐसे परिवार भी हैं जो ऊब कर बड़े शहरों में चले गए थे लेकिन फिर वापस आ गए हैं. अन्ना को उनके समाज में बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . ज़ाहिर है धीरे धीरे ईमानदारी से काम करते हुए वे आज देश में एक आन्दोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं .डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने उन्हें सुझाव दिया था जब राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चलायें तो कुछ साफ़ छवि वाले राजनेताओं को भी साथ लें लें क्योंकि अंत में तय सब कुछ राजनीति के मैदान में ही होता है और वहां एक से एक घाघ बैठे हैं .उनको संभाल पाना अन्ना हजारे जैसे सीधे आदमी के लिए बहुत मुश्किल होगा. डॉ स्वामी की बात बिलकुल सच निकली. सत्ता पक्ष और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टियों ने अन्ना हजारे के अभियान को अपना बनाने की कोशिश की . शुरुआती सफलता तो मुख्य विपक्षी पार्टी को मिली लेकिन जब मामला राजनीतिक लाभ लेने का आया तो कांग्रेस की अध्यक्ष ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे को विपक्ष के खेल से बाहर करके अपने साथ ले लिया . मुख्य विपक्षी पार्टी को निराशा हुई और उन्होंने अन्ना हजारे के खिलाफ तरह तरह की बातें करना शुरू कर दिया . अब पता चला है कि अपने ख़ास बन्दे बाबा रामदेव का इस्तेमाल करके एक नया अभियान शुरू करने की योजना बन रही है . बाबा का बयान आया है कि अब इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम के संगठन के बैनर तले एक नया आन्दोलन चलाया जाएगा. यानी अन्ना हजारे का अपनी राजनीति में इस्तेमाल करने में नाकाम रहने के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी के लोग हताश नहीं हैं . वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार का समानार्थक शब्द बनाने की अपनी मुहिम को अन्ना हजारे के बिना भी चलाने की कोशिश करेगें . लेकिन लगता है कि कांग्रेस ने भी अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ हीरो न बनने देने का फैसला कर लिया है .कांग्रेस का लगभग हर महत्वपूर्ण नेता , अन्ना हजारे पर छींटाकशी कर चुका है . जब अन्ना हजारे ने इस पर एतराज़ किया तो कांग्रेसियों ने कहना शुरू कर दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगाई जा सकती.यह भी कहा गया कि जब तक हर पक्ष के बारे में सारी बातें सामने न आ जाएँ तब तक सही बहस नहीं हो सकेगी .अन्ना की टीम के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के बारे में कांग्रेस के संकटमोचक अमर सिंह भी सक्रिय हो गए.उन्होंने ऐसा अभियान चलाया कि शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण की ईमानदारी की छवि ही सवालों के घेरे में आ गयी .अब अन्ना के आन्दोलन को कांग्रेसी लोग बिलकुल बेचारा बना देने की कोशिश में पूरी ताक़त से जुट गए हैं . बात बहुत अजीब लगती थी लेकिन सोनिया गाँधी ने जब अन्ना हजारे की शिकायती चिट्ठी का जवाब भेजा तो बात समझ में आ गयी . सच्चाई यह है कि सोनिया गाँधी अपने आपको सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बहुत बड़ी अलंबरदार मानती हैं और जब अन्ना हजारे ने उनके उस रोल को कमज़ोर करने की कोशिश की तो सोनिया गाँधी को अच्छा नहीं लगा .उन्होंने अन्ना की चिट्ठी का जो जवाब दिया है उस से उनका यह दर्द साफ़ नज़र आता है . उन्होंने अन्ना को भरोसा दिलाया है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाने के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर अन्ना को विश्वास करना चाहिए .यानी जब मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ खुद काम कर रही हूँ तो आप क्यों बीच में कूद पड़े . ज़ाहिर है सोनिया गाँधी ने अन्ना के आन्दोलन से हो रहे नुकसान को तो काबू में कर लिया लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन की नेता वे खुद ही बनी रहना चाहती हैं . सूचना का अधिकार कानून बनवाकर और अपनी सरकारों के कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद उनको दंडित करके उन्होंने अपनी यह छवि निखारने की पूरी कोशिश की है. अन्ना हजारे को लिखा गया उनका जवाब भी इसी कोशिश की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए . उस चिट्ठी में उन्होंने लगभग कह दिया है कि सर्वोच्च स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लोकपाल बिल पर वे पूरी तल्लीनता से काम कर रही थीं लेकिन अन्ना के अनिश्चित कालीन अनशन से सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी लिखती हैं कि उनकी अध्यक्षता वाली नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल अन्ना हजारे के साथ लोकपाल बिल के ड्राफ्ट पर सलाह मशविरा कर रही थी लेकिन इस बीच अन्ना के समर्थकों ने अनशन शुरू करवा दिया जिस से कि माहौल बदल गया और बात बिगड़ गयी . उसी चिट्ठी में सोनिया गाँधी ने लिखा है कि अरुणा राय की अध्यक्षता में बनायी गयी एन ए सी की एक उप समिति इस मामले पर गौर कर रही थी और उसने सिविल सोसाइटी के बहुत सारे प्रतिनिधियों से बातचीत की थी . जिन लोगों से बात चीत हुई थी उसमें अन्ना हजारे के बहुत करीबी लोगों , शांति भूषण , संतोष हेगड़े , प्रशांत भूषण , स्वामी अग्निवेश और अरविन्द केजरीवाल शामिल हैं . यानी सोनिया गाँधी यह कहना चाहती हैं कि आप और हम तो एक ही रास्ते पर चल रहे थे लेकिन बीच में कुछ लोगों ने कूद कर सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी ने साफ़ कहा कि कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में उनकी पार्टी ने लोकपाल बिल को पास करने का फैसला कर लिया था और एन ए सी की कार्यसूची में भी था और २८ अप्रैल की बैठक में अहम फैसले लिए जाने थे लेकिन आपके अनशन ने सब गड़बड़ कर दिया .

ज़ाहिर है सोनिया गाँधी नाराज़ हैं . उन्हें यह बात नागवार गुज़री है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी नेता बनने की उनकी कोशिश को किसी ने ब्रेक लगाने की कोशिश की . शायद इसीलिये उनकी पार्टी के लोग अन्ना हजारे या उनके बाकी साथियों को घेरने में जुट गए हैं . हालांकि यह भी सच है कि अगर अन्ना हजारे ने देशव्यापी हस्तक्षेप न किया होता तो कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन वाला लोकपाल बिल सब्जी का टोकरा ही साबित होता . जो भी हो उम्मीद की जानी चाहिए निहित स्वार्थों के चौतरफा हमलों से बचकर एक मज़बूत लोकपाल बिल बनाया जाएगा . उसमें अगर शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण या किसी और की पोल खुलती है तो खुले, जनता को इस से कोई मतलाब नहीं है .लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कारगर कानून की जितनी आज ज़रूरत है उतनी कभी नहीं थी.