Sunday, June 3, 2012
मीडिया की कृपा से राष्ट्रीय नेता बनने वालों से देश को बचाने की ज़रुरत है आडवाणी जी
Thursday, September 22, 2011
आर एस एस ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से अलग किया
नई दिल्ली,२१ सितम्बर. लाल कृष्ण आडवाणी ने बीजेपी की तरफ से २०१४ के लोक सभा चुनाव के वक़्त प्रधान मंत्री पड़ की दावेदारी से किनारा कर लिया है .आज सुबह नागपुर की यात्रा पर तलब किये गए आडवाणी ने आर एस एस को भरोसा दिला दिया है कि अब वे देश के सर्वोच्च पद के लिए दावेदारी नहीं करेगें . उनके इस बयान के बाद नई दिल्ली में बीजेपी के अंदर का राजनीतिक संघर्ष तेज़ हो गया है . इस संघर्ष के तार अहमदाबाद से भी सीधे तौर पर जुड़ गए हैं.आज जब दिल्ली में पार्टी की नियमित ब्रीफिंग में पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर से पूछा गया कि क्या आडवाणी के नागपुर के बयान के पीछे आर एस एस का दबाव था क्योंकि दिल्ली में आठ सितम्बर को जब उन्होंने अपनी रथ यात्रा का ऐलान किया था तो उन्होंने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के सवाल को खुला छोड़ दिया था. आज नागपुर में उन्होंने साफ़ कहा कि उन्हें पार्टी, संघ और मीडिया से जितना प्यार मिला है वह प्रधान मंत्री पद से ज्यादा महत्वपूर्ण है.पार्टी प्रवक्ता ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा और यही कहते रहे कि आडवाणी जी ने भ्रष्टाचार विरोधी यात्रा के ऐलान के समय जो कुछ दिल्ली में कहा था वही बात उन्होंने नागपुर में भी कही. लेकिन बीजेपी के अंदर की खबर रखने वाले बताते हैं कि अब बीजेपी की राजनीति में आडवाणी युग समाप्त हो गया है और आर एस एस के टाप नेताओं की मौजूदगी में आज यह बात नागपुर में बिलकुल पक्के तौर पर तय कर दी गयी है . इसीलिये आडवानी ने आज नागपुर में कहा कि मैं पार्टी के साथ बना हूँ औअर यह उनके लिय एबहुत खुशी की बात है . उन्होंने साफ़ कहा कि वे प्रधान मंत्री नहीं बनना चाहते.बीजेपी प्रवक्ता ने आज स्पष्ट किया कि जिस रथयात्रा की घोषणा आडवाणी जी ने ८ सितम्बर को की थी , वह अभी रद्द नहीं की गयी है . लेकिन अभी उसके बारे में विस्तार से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.
आडवाणी के इस बयान के बाद बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में एक बार फिर उठापटक का दौर शुरू हो जाने की आशंका है . बीजेपी वालों को अनुमान है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस सरकार पूरी तरह से घिर चुकी है इसलिए अगले चुनाव में उसका जीतना असंभव है . उस खाली जगह को भरने के लिए बीजेपी के नए टाप नेता कोशिश कर रहे हैं . आडवानी के मैदान छोड़ देने के बाद यह रसाकशी और तेज़ हो जायेगी इस सम्बन्ध में जब कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के कम से कम पांच दावेदार हैं. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि बीजेपी की आन्तरिक राजनीतिक उथल पुथल के बारे में वे कुछ नहीं कहना चाहते लेकिन उन्होंने बीजेपी का मजाक उडाना जारी रखा . बहरहाल बीजेपी में लाल कृष्ण आडवानी के नागपुर में दिए गए बयान के बाद सत्ता की दावेदारी का संघर्ष तेज़ हो गया है .
Saturday, September 10, 2011
आडवाणी की नई रथयात्रा के निशाने पर अन्ना हजारे भी हैं और गडकरी भी
बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के पूर्व प्रत्याशी लाल कृष्ण आडवाणी ने एक और रथयात्रा निकालने का ऐलान कर दिया है .इसके पहले आडवाणी जी राम जन्मभूमि रथ यात्रा, जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंती रथ यात्रा, भारत उदय यात्रा और भारत सुरक्षा यात्रा निकाल चुके हैं. आजकल खाली हैं क्योंकि लोकसभा में सारा फोकस विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज पर रहता है . हद तो तब हो गयी जब अध्यक्ष मीरा कुमार ने उन्हें ८ सितमबर को भाषण देने से रोक दिया . जब आडवाणी जी नहीं माने तो अध्यक्ष ने आदेश दिया कि इनका बोला हुआ कुछ भी रिकार्ड नहीं किया जाएगा. उनके सामने लगा हुआ माइक भी लोकसभा के कर्मचारियों ने बंद करवा दिया . आडवाणी जी की वरिष्ठता का कोई भी नेता अभी तक के इतिहास में इस तरह के आचरण का दोषी नहीं पाया गया है . उनकी पार्टी के लोगों ने अध्यक्ष के आदेश का बुरा माना और संसद से बाहर निकल कर सड़क पर आ गए. वहीं संसद के परिसर में स्थापित की गयी महात्मा गाँधी की प्रतिमा के सामने खड़े होकरनारे लगाने लगे. लेकिन आडवाणी जी के ४० साल के संसदीय जीवन के इतिहास में एक अप्रिय प्रकरण तो बाकायदा जुड़ चुका था. . यह बात बीजेपी वालों को खल गयी . दोपहर बाद बीजेपी ने पलट वार किया और आडवाणी जी की प्रेस कानफरेंस बुला दी जहां आडवाणी जी ने ऐलान किया कि वे अब रथयात्रा निकालेगें .श्री आडवाणी जब भी रथयात्रा की घोषणा करते हैं ,आमतौर पर सरकारें दहल जाती हैं उनकी बहुचर्चित राम जन्म भूमि रथ यात्रा को बीते बीस साल हो गए है लेकिन उस यात्रा के रूट पर उसके बाद हुए दंगे आज भी लोगों को डरा देते हैं . देश हिल उठता . हालांकि उसके बाद भी आडवानी जी ने कई यात्राएं कीं लेकिन उन यात्राओं का वह प्रोफाइल नहीं बन सकता जो सोमनाथ से अयोध्या वाया मुंबई और कर्नाटक वाली यात्रा का बना था .राम जन्मभूमि रथ यात्रा के बाद आडवाणी जी ने जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंती रथ यात्रा, भारत उदय यात्रा और भारत सुरक्षा यात्रा नाम की रथ यात्राएं कीं लेकिन वे यात्राएं कोई राजनीतिक असर डालने में नाकामयाब रहीं
लाल कृष्ण आडवाणी की इस यात्रा ने बहुत सारे राजनीतिक सवालों को सामने ला दिया . संसद भवन के एक कमरे में जब श्री आडवाणी अपनी रथ यात्रा की घोषणा की घोषणा कर रहे थे तो उनकी पार्टी के अध्यक्ष वहां मौजूद नहीं थे. आडवाणी जी ने बार बार इस बात का उल्लेख किया कि उन्होंने अपनी पार्टी के अध्यक्ष जी से पूछ कर ही इस यात्रा की घोषणा की है . उनकी बार बार की यह उक्ति पत्रकारों के दिमाग में तरह तरह के सवाल पैदा कर रही थी.उनके साथ मौजूद नेताओं पर नज़र डालें तो तस्वीर बहुत कुछ साफ़ हो जाती है . आडवाणी जी के दोनों तरफ सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अनंत कुमार नज़र आ रहे थे . पार्टी के कुछ छोटे नेता भी थे . लेकिन आडवानी विरोधी गुटों का कोई भी नेता वहां नहीं था. राजनाथ सिंह नहीं थे , मुरली मनोहर जोशी नहीं थे या आडवाणी विरोधी किसी गुट का कोई नेता वहां नहीं था. ज़ाहिर है कि इस यात्रा से वे खतरे नहीं हैं जो उनकी १९९१ वाली यात्रा से थे .उस यात्रा में तो पूरी बीजेपी और पूरा आर एस एस साथ था .इसलिए संभावना है कि उनकी बाद वाली यात्राओं की तरह ही यह यात्रा भी रस्म अदायगी ही साबित होगी . लेकिन उनकी इस यात्रा से बीजेपी के अंदर चल रहे घमासान का अंदाज़ लग जाता है . आर एस एस ने इस बार साफ़ कर दिया है कि वह २०१४ के लोकसभा चुनावों के पहले किसी भी व्यक्ति को प्रधान मंत्री पद का दावेदार नहीं बनाएगा. नागपुर के फरमाबरदार बीजेपी अध्यक्ष ने भी बार बार कहा है कि इस बार उनकी पार्टी किसी को भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनायेगी. इस फैसले का मतलब यह तो है कि अभी पार्टी और आर एस एस के आलाकमान ने यह तय नहीं किया है कि अगर २०१४ में सरकार बनाने का मौक़ा मिला तो सोचा जाएगा कि किसे प्रधानमंत्री बनाया जाय . यह तो सीधा अर्थ है . इस के अलावा भी इस घोषणा के कई अर्थ हैं . उन बहुत सारे अर्थों में एक यह भी है कि आर एस एस और बीजेपी लाल कृष्ण आडवाणी को १०१४ में प्रधानमंत्री पद के लिए विचार नहीं करेगें . यह बात खलने वाली है . सही बात यह है कि यह बात लोकसभा में आडवानी को बोलने देने वाले अपमान से जादा तकलीफ देह है . लेकिन आडवाणी भी हार मानने वाले नहीं हैं . उन्होंने एक कदम आगे बढ़ कर अपने आप को बीजेपी सबे महत्वपूर्ण चेहरा सिद्ध करने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया . प्रेस वार्ता में श्री आडवाणी ने बताया कि अभी कोई कोई तैयारी नहीं हुई है . यानी अभी यात्रा का नाम नहीं तय किया गया है .अभी उसका रूट नहीं तय किया गया है , अभी उसकी कोई शुरुआती रूपरेखा भी नहीं बनायी गयी है. बस केवल ऐलान किया जा रहा है . लगता है कि इस विषय पर किसी और यात्रा की घोषणा कहीं और से होने वाली थी . अपनी तरफ से यात्रा की घोषणा करके लाल कृष्ण आडवाणी ने अन्य किसी की पहल की संभावना को रोक दिया है .
दिलचस्प बात यह है कि आडवाणी ने यह यात्रा भ्रष्टाचार के खिलाफ निकालने की घोषणा की है लेकिन जब उनसे पूछा गया कि क्या यह यात्रा रेड्डी बंधुओं के प्रभाव क्षेत्र बेल्लारी और नरेंद्र मोदी शासित गुजरात के अहमदाबाद से भी निकलेंगी तो आडवाणी जी ने कहा कि इस पर फैसला अभी नहीं किया गया है. इस बात को वे केवल सुझाव के रूप में लेने को तैयार थे. इसका भावार्थ यह हुआ कि वे राष्ट्रीय नेतृत्व में चल रहे घमासान के नतीजे को तो अपने पक्ष में कर लेना चाहते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी, और बेल्लारी वाले रेड्डी बंधुओं को नाराज़ करने की अभी उनकी हिम्मत नहीं पड़ रही है . इस यात्रा से भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए अन्ना हजारे के आयोजनों के स्वाभाविक नेता बनने की जो इच्छा आडवाणी जी मन में जागी है , वे उसे तुरंत भुना लेना चाहते हैं . ऐसा करने के कई फायदे हैं .. अन्ना हजारे ने जो माहौल बनाया है और भ्रष्टाचार विर्रोधियों की जो बड़ी जमात देश में खडी हो गयी है अब आडवाणी उसके स्वाभाविक नेता बन जायेगें . दूसरी बात बीजेपी में वे नितिन गडकरी को हमेशा के लिए हाशिये के सिपाही के रूप में फिक्स करने में सफल हो जायेगें . इस तरह से वह परम्परा भी बनी रहेगी कि आडवाणी जी की मर्जी के खिलाफ कोई भी बीजेपी नेता पार्टी का अध्यक्ष बन कर अपना अधिकार नहीं स्थापित कर सकता . राजनाथ सिंह .और मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों को आडवाणी जी ने नहीं जमने दिया था . नितिन गडकरी तो इन लोगों की तुलना में मामूली नेता है .
Thursday, July 29, 2010
Sunday, March 28, 2010
झूठ बोलने वालों को अब काला कौव्वा नहीं काटता
कहावत है कि जो झूठ बोलता है उसे कौव्वा काट लेता है .. लगता है यह बात बहुत पुरानी हो गयी.क्योंकि आजकल तो बहुत सारे नेता दिन रात झूठ बोलते हैं और उन्हें कोई कौवा नहीं काटता.. बी जे पी के नेता .लाल कृष्ण आडवानी ने बार बार दावा किया है कि वे कभी झूठ नहीं बोलते .. जानकार कहते हैं कि उनके बयानों में कई कई अर्थों को आत्मसात कर लेने की क्षमता होती है , लगता है कि अपने इस कौशल की वजह से ही माननीय आडवानी जी इस बार झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं .. ६ दिसंबर ,१९९२ के दिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया था कि वह उनके जीवन का सबसे दुःख भरा दिन था. आज तक माना जा रहा था कि यह पूरी तरह से सच है . लेकिन अब एक बार फिर आडवाणी की गलतबयानी के पुख्ता सबूत सार्वजनिक मंच पर फेंक दिए गए हैं. ६ दिसंबर १९९२ के दिन आडवाणी की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए तैनात आई पी एस अफसर अंजू गुप्ता ने सी बी आई कोर्ट में बयान दिया है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आडवाणी बहुत खुश थे .. ज़ाहिर हैं एक आई पी एस अफसर की बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा क्योंकि उसने बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के और अपनी ड्यूटी निभाने के लिए ही कोर्ट में बयान दिया है . उसने शपथ ली है कि वह झूठ नहीं बोलेगी तो उसकी बात का विश्वास किया जाना चाहिए.. इस अफसर के बयान ने एक बार फिर आडवाणी को झूठ बोलने वाला नेता साबित कर दिया है . क्योंकि ६ दिसंबर १९९२२ के दिन आडवाणी के पास दुखी होने की फुर्सत ही नहीं थी, वह तो उनके जीवन का खुशी से भरा एक दिन था.
अंजू गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले आडवाणी ने एक भड़काऊ भाषण दिया . बयान में है कि आडवाणी बहुत उत्साहित थे . उन्होंने कारसेवकों को उत्साह से भर दिया , उन्होंने कहा कि भव्य राम मंदिर उसी २.७७ एकड़ ज़मीन पर बनेगा जहां बाबरी मस्जिद मौजूद थी. आडवाणी ने उस दिन फैजाबाद जिले के पुलिस कप्तान और जिलाधिकारी को तलब किया और उनसे भी बात चीत की. जिस मंच पर आडवाणी के साथ मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा आदि नेता मौजूद थे ,उस पर भी हर्ष और उल्लास का माहौल था. जब बाबरी मस्जिद के गुम्बद गिरने लगे तो मंच पर मौजूद नेता एक दूसरे को बधाई दे रहे थे. उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा गले मिलीं और खुशी का इज़हार किया.इन लोगों ने आडवाणी , जोशी और पूर्व पुलिस महानिदेशक , श्रीश चंद दीक्षित को भी गले मिलकर बधाई दी. श्रीश चंद दीक्षित ने वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया कि उन लोगों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में कोई अड़चन नहीं डाली.
बी जे पी के वे नेता जो बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने वाले केस में पकडे गए हैं ,वे पिछले १८ वर्षों से कह रहे हैं कि मस्जिद की तबाही में उनका कोई योगदान नहीं है ,अब झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं. मस्जिद के खिलाफ चले आन्दोलन में और उसके बाद राजनीतिक लाभ के लिए तो यह नेता शेखी बघारते रहे हैं लेकिन कानूनी मंचों पर तैयार किया गया बयान देते रहे हैं . अंजू गुप्ता की गवाही के बाद इन नेताओं के लिए मुश्किल पैदा हो गयी है . क्योंकि आपराधिक काम में अगर इन लोगों की साज़िश साबित हो जायेगी तो सबको इतने वर्षों की सज़ा होगी तो यह लोग चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगें . इस वक़्त बाबरी मस्जिद विध्वंस केस के अभियुक्त बी जे पी नेताओं को जो डर है वह इसी संभावना की गंभीरता को लेकर है..एक वक़्त था जब इन्हीं बी जे पी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में लोग थे . आज आलम यह है कि आम जनता का तो सवाल ही नहीं, इनकी अपनी पार्टी के नेता चाहते हैं कि यह लोग चुनाव के मैदान से बाहर हों तो आसानी होगी. ज़ाहिर है कि चुनाव की राजनीति से बाहर होने पर हर नेता को तकलीफ होगी. क्योंकि ज़्यादातर नेता चुनाव के ज़रिये ही अपने आप को सम्मान दिला सकते हैं .
मीडिया की सजगता की वजह से इन लोगों को सज़ा से बचने की संभावना बहुत कम है . यह ठीक भी है .. . बाबरी मस्जिद को सिम्बल बनाकार मुसलमानों के खिलाफ ज़हर घोलने के आन्दोलन के पीछे और कोई इरादा नहीं था. इरादा था तो सिर्फ लगातार पिछड़ रही बी जे पी को चुनावी सफलता दिलाना . लेकिन अब वह सब ख़त्म हो चुका है .बी जे पी चुनाव में सफल भी हुई, सरकार भी बनाया . इसके नेता भी उसी तरह से घूस के कारोबार में लग गए जैसे इनके पहले कांग्रेसी और समाजवादी लगते रहे हैं . आज बी जे पी फिर असमंजस में है .कहीं कोई मुद्दा नहीं है जिसके खिलाफ बी जे पी वाले ऐलानियाँ मैदान ले सकें . घूस खोरी के बहुत सारे मामलों में बी जे पी के के नेताओं के नाम आ जाने के बाद अब उनकी बात में वह दम नहीं जो सत्ता में आने के पहले तक होता था. सत्ता पाते ही उन लोगों ने साबित कर दिया के अपने पूर्वज कांग्रेसी नेताओं से बेहतर तरीके से बे-ईमानी कर सकते हैं . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के अभियुक्तों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलने के लिए माहौल बिलकुल दुरस्त है . इस लिए अदालत को चाहिए कि इन लोगों को सख्त से सख्त सज़ा दें . ताकि आने वाले वक़्त में कोई भी पार्टी चन्द सीटों के लिए देश में दंगे न फैलाए. दुनिया जानती है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आर एस एस के मातहत संगठनों ने जिस तरह से खून खराबा किया था. उसकी सज़ा भी कोई मामूली नहीं होनी चाहिए . सभ्य समाज को उम्मीद है कि राय बरेली की विशेष अदालत में सही न्याय होगा .
Sunday, August 30, 2009
आडवाणी और झूठ का राजनीति शास्त्र
यह आडवाणी के लिए बड़ा झटका है। पिछले दो-तीन साल से प्रधानमंत्री पद की उम्मीद लगाए बैठे थे और अपने को मजबूत नेता बता रहे थे। उनकी पार्टी में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो आडवाणी की हर बात को सही ठहराते हैं। इस समूह में कुछ स्वनाम धन्य पत्रकार भी हैं और कुछ ऐसे नेता हैं जो आडवाणी के प्रभाव से ओहदा पद पाते रहते हैं। ये लोग भी आस लगाए बैठे थे कि अगर मजबूत नेता, निर्णायक सरकार कायम हुई तो कुछ न कुछ हाथ आ जाएगा। बहरहाल सरकार बनने की संभावना तो कभी नहीं थी सो नहीं बनी लेकिन आज कल आडवाणी अपनी झूठ बोलने की आदत के चलते मुसीबत में हैं।
झूठ बोलने के कारण यह संकट लालकृष्ण आडवाणी पर पहली बार आया है ऐसा शायद इसलिए हुआ कि कंधार विमान अपहरण कांड के मामले में उन्होंने गलत बयानी की जो कि राष्ट्रीय महत्व का मामला था। देश की गरिमा से समझौता करने वाली उस वक्त की राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति के सबसे शर्मनाक फैसले से वे अपने को अलग करने अपने बाकी साथियों को नाकारा साबित करने के चक्कर में बेचारे बुरे फंस गए। ऐसा नहीं है कि आडवाणी ने पहली बार झूठ बोला हो, वे बोलते ही रहते हैं उनकी इस आदत से परिचित लोग, बात को टाल देते हैं या कभी कभार उनका मजाक बनाते हैं।
एक बार अपनी शिक्षा को लेकर उन्होंने कोई बयान दिया था। बिहार के नेता लालू प्रसाद ने सिद्घ कर दिया कि जिस कोई की बात आडवाणी कर रहे थे, वह उस कॉलेज में था ही नहीं। आडवाणी ने लालू यादव की बात का कभी खंडन नहीं किया। ऐसे बहुत सारे मामले हैं लेकिन कंधार विमान अपहरण कांड जैसा मामला कोई नहीं इसलिए पूरे मुल्क में इस बात की चिंता है कि अगर किसी वजह से भी बीजेपी जीत गई होती तो यह आदमी देश का नेता होता तो हमारा क्या होता। शुक्र है कि हम बच गए।
लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ अरसा पहले एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि कंधार कांड में जो राष्ट्रीय अपमान हुआ था, उससे उनका कोई लेना देना नहीं था, उन्हें मालूम ही नहीं था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को लेकर कंधार जा रहे हैं। प्रधानमंत्री पद के लालच में उन्होंने अपने आपको राष्ट्रीय शर्म की इस घटना से अलग कर लिया था। जबकि यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति में लिया गया। यह समिति सरकार की सबसे ताकतवर संस्था है।
इसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होते हैं और गृहमंत्री, रक्षामंत्री व वित्तमंत्री और विदेशमंत्री सदस्य होते हैं। इसे एक तरह से सुपर कैबिनेट भी कहा जा सकता है। कंधार में फंसे आईसी 814 को वापस लगाने के लिए तीन आतंकवादियों को छोडऩे का फैसला इसी कमेटी में लिया गया था। अब पता लग रहा है कि फैसला एकमत से लिया गया था यानी अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नाडीस, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह सब की राय थी कि आतंकवादियों को छोड़ देना चाहिए। आडवाणी इस मसले से अपने को अलग कर रहे थे और यह माहौल बना रहे थे कि उनकी जानकारी के बिना ही यह महत्वपूर्ण फैसला ले लिया गया था।
जाहिर है उनके बाकी साथी आडवाणी की इस चालाकी से नाराज थे और अब जार्ज फर्नांडीज यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने आडवाणी के ब्लाक को उजागर कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की तबीयत ठीक नहीं है वरना वह भी अपनी बात कहते। सवाल यह उठता है कि जब पिछले दो साल से आडवाणी इतने महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मामले पर गलत बयानी कर रहे थे। तो इन तीन महत्वपुरुषों ने सच्ची बात पर परदा डाले रखना क्यों जरूरी समझा? यह जानते हुए कि इतनी बड़ी बात पर खुले आम झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति प्रधानमंत्री पद हथियाने के चक्कर में है उसे इन लोगों ने नहीं रोका।
रोकना तो खैऱ दूर की बात है आडवाणी को प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में ऐसे लोग शामिल रहे, उनकी जय-जय कार करते रहे। इस पहेली को समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह लोग भी लालच में रहे होंगे कि सरकार बनने पर इन्हें भी कुछ मिल जाएगा। जो भी हो अब कंधार जैसे महत्वपूर्ण मामले पर उस वक्त की एन.डी.ए. सरकार के गैर जि़म्मेदाराना रुख़ से जाल साजी की परतें वरक-दर-वरक हट रही है।
सवाल यह उठता है कि जिस पार्टी की टॉप लीडरशिप सच्चाई को छुपाने के इतने बड़े खेल में शामिल रही हो उसको क्या सजा मिलनी चाहिए। देश को जागरुक जनता का इन लोगों की जवाब देही सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।
Monday, August 24, 2009
बीजेपी के झूठ का भंडाफोड़
पूरी दुनिया की तरह गुजरात में हुई मुसलमानों की तबाही के लिए वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को ही जि़म्मेदार माना था लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी ने मोदी को बचाने के लिए अपनी सारी ताक़त लगा दी थी। उन्होंने वाजपेयी को चेतावनी दी थी कि अगर नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई कार्रवाई की तो बवाल हो जायेगा। अब तक बीजेपी के लोग यही बताते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ कार्रवाई न करने का फैसला सर्वसम्मति से हुआ था। जसवंत सिंह के कंधार विमान अपहरण कांड संबंधी बयान ने तो लालकृष्ण आडवाणी को कहीं का नहीं छोड़ा।
आडवाणी बार-बार कहते रहे थे कि कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान आतंकवादियों को सरकारी विमान से ले जाकर वहां पहुंचाने के फैसले की जानकारी उन्हें नहीं थी। उनके चेलों की टोली भी इसी बात को बार-बार दोहरा रही थी, प्रेस कांफ्रेंस, इंटरव्यू हर माध्यम का इस्तेमाल करके यही बात कही जा रही थी। इस बात में कोई शक नहीं कि लोग इस बात का विश्वास नहीं कर रहे थे। संसदीय लोकतंत्र में मंत्रिपरिषद की संयुक्त जि़म्मेदारी का सिद्घांत लागू होता है। इस लिहाज़ से भी यह बात गले नहीं उतर रही थी कि राष्ट्रहित या अहित से जुड़ा इतना बड़ा फैसला और उपप्रधानमंत्री को जानकारी तक नहीं। अगर यह सच होता तो उस वक्त की केंद्र सरकार अपनी सबसे बड़ी संवैधानिक जि़म्मेदारी का उल्लंघन करने का जुर्म कर रही होती।
लेकिन शुक्र है कि आडवाणी झूठ बोल रहे थे और उन्हें मालूम था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को छोडऩे कंधार जा रहे थे। एक राष्ट्र के रूप में हमें इस बात पर तो परेशानी होती कि आडवाणी को अंधेरे में रखकर अटल बिहारी वाजपेयी ने हमारे उप प्रधानमंत्री का अपमान किया लेकिन आडवाणी के झूठा साबित होने का हमें कोई ग़म नहीं है। झूठ बोलना कुछ लोगों की फितरत का हिस्सा होता है। जसवंत सिंह ने पार्टी से निकाले जाने के बाद आडवाणी के झूठ का भंडाफोड़ करके राष्टï्रीय मंडल महत्व का काम किया है। जसवंत सिंह ने एक और महत्वपूर्ण विषय पर बात करना शुरू कर दिया है।
उन्होंने आर एस एस वालों से कहा है कि उन्हें इस बात पर अपनी पोजीशन साफ कर देनी चाहिए कि उनका संगठन राजनीति में है कि नहीं। उन्होंने कहा कि आर.एस.एस. वाले आमतौर पर दावा करते रहते हैं कि वे राजनीति में नहीं हैं लेकिन बीजेपी का कोई भी फैसला उनके इशारे पर ही लिया जाता है। बीजेपी उनके मातहत काम करने वाली पार्टी है और अगर कभी आरएसएस की नापसंद वाला कोई फैसला बीजेपी के नेता ले लेते हैं तो उसे तुरंत वीटो कर दिया जाता है। ज़ाहिर है कि वीटो पावरफुल होता है। आरएसएस की सर्वोच्चता और बीजेपी की हीनता समकालीन राजनीतिक इतिहास में कई बार चर्चा का विषय बन चुकी है। 1978 में यह बहस समाजवादी विचारक मधु लिमये ने शुरू की थी। जनता पार्टी में जनसंघ के विलय के बाद जनसंघ के सारे नेता पार्टी में शामिल हो गए थे।
वाजपेयी आडवाणी और बृजलाल वर्मा मंत्री थे। ये लोग रोजमर्रा के प्रशासनिक फैसलों के लिए भी नागपुर से हुक्म लेते थे। इस बात को जनता पार्टी के नेता पसंद नहीं करते थे। मधु लिमये ने कहा कि जनता पार्टी का नियम है कि उसके सदस्य किसी और घटक के मंत्रियों को आरएसएस से रिश्ते खत्म करने पड़ेंगे क्योंकि आरएसएस एक राजनीतिक संगठन है। इन बेचारों की हिम्मत नहीं पड़ी और यह लोग साल भर की कशमकश के बाद जनता पार्टी से अलग हो गए। जसवंत सिंह ने भी उसी बहस को शुरू करने की कोशिश की है लेकिन अब इस बात में कोई दम नहीं है क्योंकि अब सबको मालूम है कि असली राजनीति तो नागपुर में होती है, यह राजनाथ सिंह, आडवाणी वग़ैरह तो हुक्म का पालन करने के लिए हैं।
जसवंत सिंह ने बीजेपी में भरती हुए संजय गांधी के पुत्र वरुण गांधी के गैऱ जि़म्मेदार नफरत भरे भाषण पर भी बीजेपी की सहमति का जि़क्र किया है। वरुण गांधी के नफरत आंदोलन के दौरान आडवाणी समेत सभी भाजपाई ऐसी बानी बोलते थे जिसका मनपसंद अर्थ निकाला जा सके। अब हम जसवंत के हवाले से जानते हैं कि वह उनकी रणनीति का हिस्सा था। यानी वरुण गांधी कोई मनमानी नहीं कर रहे थे बल्कि बीजेपी की नफरत की राजनीति में एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल हो रहे थे। जसवंत सिंह की इन बातों में कोई नयापन नहीं है।
सबको ठीक यही सच्चाई मालूम है लेकिन बीजेपी की तरफ से कोई अधिकारिक बात नहीं आ रही थी। अब उनकी गवाही के बाद बात बिल्कुल पक्की हो गई है लेकिन जसवंत सिंह का इससे कोई फायदा नहीं होने वाला है क्योंकि उनका खिसियाहट में दिया गया यह बयान इतिहास की यात्रा में एक क्षत्रिय की औकात भी नहीं रखता।
Friday, August 21, 2009
जसवंत बर्खास्त! आडवाणी क्यों नहीं?
तथ्यों की तो बहुत सारी गलतियां हैं, और जो निष्कर्ष निकाले गए हैं वे बहुत ही ऊलजलूल है। ऐसा लगता है कि जसवंत सिंह भी इसी क्लास में पढ़ते थे जिसमें मुंगेरी लाल, तीस मार खां, शेख चिल्ली वगैरह ने नाम लिखा रखा था। बहरहाल उनकी किताब को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। इस बात में कोई शक नहीं है कि जसवंत सिंह की जिनाह वाले निष्कर्ष का मुकाम डस्टबिन है और रिलीज होने के साथ वह अपनी मंजिल हासिल कर चुका है लेकिन उनकी पार्टी में इस किताब ने एक तूफान खड़ा कर दिया है। शिमला में शुरू हुई बीजेपी की चिंतन बैठक में शुरू में ही जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया।
मामले को नागपुर मठाधीशों ने भी बहुत गंभीरता से लिया और राजनाथ सिंह को आदेश हो गया कि जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल बाहर करो। राजनाथ सिंह वैसे तो पार्टी के अध्यक्ष हैं लेकिन उनकी छवि एक हुक्म के गुलाम की ही है और जसवंत सिंह बहुत ही बे आबरू होकर हिंदुत्व वादी पार्टी से निकल चुके हैं। जसवंत सिंह का बीजेपी से निष्कासन पार्टी के आंतरिक जनतंत्र पर भी सवाल पैदा करता है अपराध के कारण उन्हें बीजेपी से बाहर किया गया। तो क्या पाकिस्तान के संस्थापक की तारीफ करने वालों को बीजेपी से निकाल दिया जाता है। जाहिर है यह सच नहीं है। अगर ऐसा होता तो लालकृष्ण आडवाणी कभी के बाहर कर दिए गए होते।
जसवंत सिंह पर तो आरोप है कि उन्होंने अपनी किताब में जिनाह की तारीफ की है, आडवाणी तो उनकी कब्र पर गए थे और बाकायदा माथा टेक कर वहां खड़े होकर मुहम्मद अली जिनाह की शान में कसीदे पढ़े थे और पाकिस्तान के संस्थापक को बहुत ज्यादा सेकुलर इंसान बताकर आए थे। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन दिनों आरएसएस की ताकत इतनी कमजोर थी कि वह अपने मातहत काम करने वाली बीजेपी पर लगाम नहीं लगा सकता था। इस हालत में लगता है कि जसवंत के निकाले जाने में जिनाह प्रेम का योगदान उतना नहीं है, जितना माना जा रहा है। अगर ऐसा होता तो आडवाणी का भी वही हश्र होता जो जसवंत सिंह का हुआ।
लगता है कि पेंच कहीं और है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी में आडवाणी गुट की ताकत की धमक ऐसी थी कि आर एस एस वालों की हिम्मत नहीं पड़ी कि उन्हें पार्टी से निकालने की कोशिश करें। डर यह था कि अगर आडवाणी को बाहर किया तो उनके गुट के लोग बाहर चले जाएंगे। जसवंत सिंह को दिल्ली की राजनीतिक गलियों में अटल बिहारी वाजपेयी के आखाड़े का पहलवान माना जाता है। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जसवंत सिंह को महत्व भी खूब दिया था। मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण विभाग भी मिला था उन्हें जब कंधार जाकर आतंकवादियों को छोडऩे की बात आई तो वही भेजे गए थे। वे वाजपेयी गुट के भरोसेमंद माने जाते हैं।
आजकल वाजपेयी गुट के नेता लोग परेशानी में हैं। कहीं ऐसा नही कि वाजपेयी की बीमारी के कारण उनके गुट के कमजोर पड़ जाने की वजह से आडवाणी के चेलों ने आरएसएस के कंधे पर बंदूक चला दी हो और राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी को सबसे ऊंचा बनाने की कोशिश हो। जसवंत सिंह की किताब में नेहरू की निंदा की गई है। इसे संघी राजनीति की गिजा माना जाता है। लेकिन जसवंत बाबू ने साथ में सरदार पटेल को भी लपेट लिया, उनको भी जिनाह से छोटा करार दे दिया। यह बात बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति के खिलाफ जाती है। भगवा ब्रिगेड की पूरी कोशिश है कि सरदार पटेल को अपना नेता बनाकर पेश करें। ऐसा इसलिए कि आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस और उसके मातहत संगठनों के किसी नेता ने हिस्सा नहीं लिया था।
उनकी पूरी कोशिश रहती है कि ऐसे किसी भी आदमी को अपनी विचार धारा का बनाकर पेश कर दें जो नेहरू परिवार के मुखालिफ रहा हो। सरदार पटेल की यह छवि बनाने की नेहरू विरोधियों की हमेशा से कोशिश रही है। हालांकि यह बिलकुल गलत कोशिश है लेकिन संघी बिरादरी इसमें लगी हुई है। इसी तरह एक बार आरएसएस वालों ने कोशिश की थी कि सरदार भगत सिंह को अपना लिया जाय। साल-दो साल कोशिश भी चली लेकिन जब पता चला कि भगत सिंह तो कम्युनिस्ट पार्टी में थे तबसे यह कोशिश है कि सरदार पटेल को अपनाया जाय लिहाजा उनके खिलाफ अभी कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।
इस बीच खबर है कि उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेता कलराज मिश्र ने जसवंत सिंह की बर्खास्तगी का विरोध किया है। उनका कहना है कि जसवंत सिंह ने जो भी कहा है वह तथ्यों पर आधारित है इसलिए उनको हटाने की बात करना ठीक है। अगर इस बात में जरा भी दम है तो इस बात में शक नहीं कि बीजेपी के दो टुकड़े होने वाले हैं।
Saturday, August 1, 2009
बलराज मधोक से एलके आडवाणी तक
आज की भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व अवतार में भारतीय जनसंघ नाम से जानी जाती थी। 60 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद जब कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई तो जनसंघ एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में उभरी। जनसंघ के बड़े नेता थे, प्रो. बलराज मधोक। 1967 में इनके नेतृत्व में ही जनसंघ ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और उत्तर भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में आगे बढ़ रही थी लेकिन 1971 के लोकसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई।
बलराज मधोक भी चुनाव हार गए, उनकी पार्टी में घमासान शुरू हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी नए नेता के रूप में उभरे और बलराज मधोक को जनसंघ से निकाल दिया। पार्टी से निकाले जाने के पहले बलराज मधोक ने 1971 के चुनावों की ऐसी व्याख्या की थी जिसे समकालीन राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी बहुत ही कुतूहल से याद करते है। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और उनकी पार्टी भारी बहुमत से विजयी रही। भारतीय जनसंघ को भारी नुकसान हुआ लेकिन मधोक हार मानने को तैयार नहीं थे।
उन्होंने एक आरोप लगाया कि चुनाव में प्रयोग हुए मतपत्रों में ऐसा केमिकल लगा दिया गया था जिसकी वजह से, वोट देते समय मतदाता चाहे जिस निशान पर मुहर लगाता था, मुहर की स्याही खिंचकर इंदिरा गांधी के चुनाव निशान गाय बछड़ा पर ही पहुंच जाती थी। इस तरह का काम कांग्रेस और चुनाव आयोग ने पूरे देश में करवा रखा था। बलराज मधोक ने कहा कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव जीती नहीं है, केमिकल लगे मतपत्रों की हेराफेरी की वजह से कांग्रेस को बहुमत मिला है। मधोक के इस सिद्घांत को आम तौर पर हास्यास्पद माना गया।
इसके कुछ समय बाद ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। बैलट पेपर पर केमिकल की बात अब तक भारतीय राजनीति में चुटकुले के रूप में इस्तेमाल होती रही है। लोकसभा चुनाव 2009 के बाद भी कांग्रेस को सीटें उसकी उम्मीद से ज्यादा ही मिली हैं। बीजेपी के नेताओं की उम्मीद से तो दुगुनी ज्यादा सीटें कांग्रेस को मिली हैं। बीजेपी वाले चुनाव नतीजों के आने के बाद दंग रह गए। कुछ दिन तो शांत रहे लेकिन थोड़ा संभल जाने के बाद पार्टी के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया कि चुनाव में जो इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन इस्तेमाल की गई उसकी चिप के साथ बड़े पैमाने पर हेराफेरी की गई थी लिहाजा कांग्रेस को आराम से सरकार चलाने लायक बहुमत मिल गया और आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। उसके बाद तेलुगू देशम और राष्ट्रीय जनता दल ने भी यही बात कहना शुरू कर दिया।
ताजा खबर यह है कि दक्षिण मुंबई से शिवसेना के पराजित उम्मीदवार मोहन रावले ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है और प्रार्थना की है कि पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव रद्द कर दिया जाय। उनका कहना है कि ईवीएम से चुनाव करवाने में पूरी तरह से हेराफेरी की गई है। अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में तो उन्होंने लगभग पूरी तरह से ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी पर भरोसा जताया है और वहां के चुनाव को रद्द करने की मांग की है। मानवीय व्यक्तित्व बहुत ही पेचीदा होता है। आम तौर पर सबको जीत की खुशी होती है और पराजय सबको तकलीफ पहुंचाती है। इंसान के व्यक्तित्व की ताकत की परीक्षा पराजय के बाद ही होती है।
मजबूत आदमी अपनी हार से खुश तो नहीं होता लेकिन हारने के बाद अपना संतुलन नहीं खोता। हार के बाद खंभा नोचने वालों को इंसानी बिरादरी में शामिल करना भी बहुत मुश्किल होता है। हार के बाद संतुलन खो बैठना कमजोर आदमी की निशानी है। ईवीएम के अभियान चलाने वाले नेताओं को पता होना चाहिए कि इन मशीनों का आविष्कार लोकतंत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। ईवीएम के खिलाफ आने के बाद बाहुबलियों और बदमाशों की बूथ कैप्चर करने की क्षमता लगभग पूरी तरह से काबू में आ गई है। बैलट पेपर के जमाने में इनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। बंडल के बंडल बैलट पेपर लेकर बदमाशों के कारिंदे बैठ जाते थे और मनपसंद उम्मीदवार को वोट देकर विजयी बना देते थे।
ईवीएम के लागू होने के बाद यह संभव नहीं है। मशीन को डिजाइन इस तरह से किया गया है कि एक वोट पूरी तरह से पड़ जाने के बाद ही अगला वोट डाला जा सकता है। ऐसी हालत में अगर पूरी व्यवस्था ही बूथ कैप्चर करना चाहे और किसी भी उम्मीदवार का एजेंट विरोध न करे तभी उन्हें सफलता मिलेगी। सबको मालूम है कि अस्सी के दशक में गुडों ने जब राजनीति में प्रवेश करना शुरू किया तब से जनता के वोट को लूटकर लोकतंत्र का मखौल उड़ाने का सिलसिला शुरू हुआ था, क्योंकि बूथ कैप्चर करने की क्षमता को राजनीतिक सद्गुण माना जाने लगा था। इसके चलते हर पार्टी ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था।
इस बार बहुत कम बाहुबली चुनाव जीतने में सफल हो सके। जानकार कहते हैं कि बदमाशों के चुनाव हारने में ईवीएम मशीन का भी बड़ा योगदान है। इसलिए इसको बंद करने की मांग करना ठीक नहीं है। अगर फिर बैलट पेपर के जरिए वोट पडऩे लगे तो देश अस्सी के उसी रक्त रंजित दशक की तरह अराजकता की तरफ बढ़ जाएगा। ई.वी.एम. के खिलाफ शुरू किए गए अभियान पर चुनाव आयोग को भी खासी नाराजगी है। चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने एक सेमिनार में कहा कि ई.वी.एम. लगभग फूल-प्रूफ है। इसकी किसी भी गड़बड़ी को कभी भी जांचा परखा जा सकता है। उन्होंने केन्या का उदाहरण दिया जहां चुनाव व्यवस्था बिल्कुल तबाह हो चुकी है, लोकतंत्र रसातल में पहुंचने वाला है।
श्री कुरैशी ने कहा कि केन्या के प्रबुद्घ लोगों ने यह सुझाव दिया कि भारत की तर्ज पर वहां भी ईवीएम का इस्तेमाल किया जाय और चुनाव प्रक्रिया में काम करने वाले अधिकारियों को भारत की मदद से टे्रनिंग दी जाय। इसके अलावा दुनिया के और कई देशों में भी भारतीय ई.वी.एम. मशीनों की तारीफ हो रही है। ज़ाहिर है प्रयोग सफल है और उसके आगे बढ़ते रहने की जरूरत है। ई.वी.एम. मशीनों का विरोध कर रही पराजित पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि चुनाव होता ही इसीलिए है कि कोई हारे और कोई जीते। जो लोग एक बार लोकसभा या विधानसभा चुनाव जीत जाते हैं उन्हें पता चल जाता है कि चुनाव जीतने के बाद सुख सुविधा और ताकत का अंबार लग जाता है। चुनाव हारने के बाद वह सब कुछ काफूर हो जाता है।
ज़ाहिर है कि पराजित व्यक्ति को पछतावा बहुत ज्यादा होता है लेकिन लोकतंत्र के हित में आदमी को धीरज से काम लेना चाहिए। अगर लोकतंत्र रहेगा तो सब कुछ रहेगा और मोहन रावले सहित बाकी लोगों को दुबारा चुनाव जीतने का मौका मिलेगा और अगर बैलट पेपर युग की फिर वापसी हो गई तो पूरी आशंका है कि अपराधियों और बाहुबलियों का लोकतंत्र पर कब्जा हो जाएगा और चुनाव प्रक्रिया पर भी खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। इसलिए राजनीतिक नेताओं को चाहिए कि लोकतंत्र के विकास के रास्ते में कांटे न बिछाएं।
Sunday, July 26, 2009
प्रधानमंत्री कौन? मोदी या आडवाणी
कांग्रेसी हमलों की खासियत यह थी, कि वह सचाई पर आधारित थे। कंदहार में आडवाणी की पार्टी की सरकार का शर्मनाक कारनामा, संसद पर हुआ आतंकी हमला और लाल किले पर हुए हमले पर जब कांग्रेसी नेताओं ने विस्तार से चर्चा करनी शुरू की तो आडवाणी और उनकी पार्टी के सामने बगलें झांकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मीडिया में नौकरी करने वाले संघ के कार्यकर्ताओं तक के लिए मुश्किल पैदा हो गयी कि आडवाणी जैसे कमजोर आदमी का पक्ष कैसे लिया जाय। मजबूत नेता के रूप में आडवाणी की पेश करने के चक्कर में जो अरबों रूपए विज्ञापनों पर खर्च किये गए हैं उस पर पानी फिर गया।
सचाई यह है कि कांग्रेसी हमलों को मीडिया ने जिस तरह की कवरेज दी, उससे आडवाणी का व्यक्ति एक बहुत ही कमजोर आदमी के रूप में उभर कर आई। और उनको फोकस में रखकर चुनाव अभियान चलाने की बीजेपी कोशिश ज़मींदोज़ हो गई। इस सचाई का इमकान होने के बाद बीजेपी के चुनाव प्रबंधकों में हडक़ंप मच गया। बीजेपी के प्रचार की कमान का संचालन कर रहे तथाकथित वार रूम की ओर से काफी सोच विचार के बाद नया शिगूफा डिजाइन किया गया और मोदी के नाम को आगे करने की कवायद शुरू हो गई।
काफी सोच विचार के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया गया। हालांकि उसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि आडवाणी के बाद मोदी प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार होंगे। बीजेपी के अधिकारिक प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने दिल्ली में पत्रकारों को बताया कि मोदी में प्रधानमंत्री पद बनने के सारे गुण हैं और आडवाणी के बाद पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर विचार कर सकती है। यहां यह बात अपने आप में हास्यास्पद है कि जिस पार्टी का जनाधार लगातार गिर रहा है और जिसे 16 मई के दिन 100 की संख्या पार करना पहाड़ हो जायेगा, वह प्रधानमंत्री पद पर आडवाणी को बैठाने के बाद मोदी को लादने की योजना बना रही है।
अजीब बात यह है कि चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री पद के अगले दावेदार की चर्चा क्यों शुरू कर दी गई। इस बात पर गौर करने पर बीजेपी की उस मानसिकता के बारे में जानकारी मिल जायेगी, जिसे हारे हुए इंसान की मानसिकता के नाम से जाना जाता है। दो दौर के चुनावों के बाद जो संकेत आ रहे हैं, उससे अंदाज लग गया है कि बीजेपी की सीटें घट रही हैं। एक हताश सेना की तरह बीजेपी ने लड़ाई के दौरान सिपहसालार बदलने की कोशिश की है। बाकी कोई मुद्दा तो चला नहीं, मंहगाई, आतंकवाद जैसे मुद्दों को चलने की कोशिश तो बीजेपी ने की लेकिन इन दोनों के घेरे में वे ही फंस गए।
मालेगांव के आतंकवादी हमले के लिए बीजेपी के ही सदस्य पकड़ लिए गए। आतंकवाद से लडऩे की बीजेपी की क्षमता की भी धज्जियां उड़ गईं जब कंदहार का अपमान, संसद का हमला और लाल किले का हमला सीधे-सीधे आडवाणी के गले की माला बन गया। बीजेपी मैनेजमेंट ने आडवाणी से जान छुड़ाना ही बेहतर समझा और मोदी को आगे कर दिया। रणनीति में इस बदलाव का सीधा असर लालकृष्ण आडवाणी पर भी पड़ा और वे पिछले दो दिनों से कहते पाए जा रहे हैं कि इस चुनाव के बाद सन्यास ले लूंगा।