बीजेपी ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने एक किताब लिखी है जिसमें पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह की तारीफ की है और उन्हें सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू की तुलना में ज्याद ऊंचा दर्जा दिया है। जहां तक जसवंत सिंह की किताब का प्रश्न है उसे कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा है, किताब में लिखी गई बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि जसवंत सिंह बेचारे बहुत ही मामूली बौद्घिक स्तर के इंसान हैं। लगता है पढ़ाई लिखाई भी उनकी मामूली ही है क्योंकि पांच साल तक रिसर्च करके उन्होंने जो किताब लिखी है, वह बहुत ही मामूली है।
तथ्यों की तो बहुत सारी गलतियां हैं, और जो निष्कर्ष निकाले गए हैं वे बहुत ही ऊलजलूल है। ऐसा लगता है कि जसवंत सिंह भी इसी क्लास में पढ़ते थे जिसमें मुंगेरी लाल, तीस मार खां, शेख चिल्ली वगैरह ने नाम लिखा रखा था। बहरहाल उनकी किताब को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। इस बात में कोई शक नहीं है कि जसवंत सिंह की जिनाह वाले निष्कर्ष का मुकाम डस्टबिन है और रिलीज होने के साथ वह अपनी मंजिल हासिल कर चुका है लेकिन उनकी पार्टी में इस किताब ने एक तूफान खड़ा कर दिया है। शिमला में शुरू हुई बीजेपी की चिंतन बैठक में शुरू में ही जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया।
मामले को नागपुर मठाधीशों ने भी बहुत गंभीरता से लिया और राजनाथ सिंह को आदेश हो गया कि जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल बाहर करो। राजनाथ सिंह वैसे तो पार्टी के अध्यक्ष हैं लेकिन उनकी छवि एक हुक्म के गुलाम की ही है और जसवंत सिंह बहुत ही बे आबरू होकर हिंदुत्व वादी पार्टी से निकल चुके हैं। जसवंत सिंह का बीजेपी से निष्कासन पार्टी के आंतरिक जनतंत्र पर भी सवाल पैदा करता है अपराध के कारण उन्हें बीजेपी से बाहर किया गया। तो क्या पाकिस्तान के संस्थापक की तारीफ करने वालों को बीजेपी से निकाल दिया जाता है। जाहिर है यह सच नहीं है। अगर ऐसा होता तो लालकृष्ण आडवाणी कभी के बाहर कर दिए गए होते।
जसवंत सिंह पर तो आरोप है कि उन्होंने अपनी किताब में जिनाह की तारीफ की है, आडवाणी तो उनकी कब्र पर गए थे और बाकायदा माथा टेक कर वहां खड़े होकर मुहम्मद अली जिनाह की शान में कसीदे पढ़े थे और पाकिस्तान के संस्थापक को बहुत ज्यादा सेकुलर इंसान बताकर आए थे। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन दिनों आरएसएस की ताकत इतनी कमजोर थी कि वह अपने मातहत काम करने वाली बीजेपी पर लगाम नहीं लगा सकता था। इस हालत में लगता है कि जसवंत के निकाले जाने में जिनाह प्रेम का योगदान उतना नहीं है, जितना माना जा रहा है। अगर ऐसा होता तो आडवाणी का भी वही हश्र होता जो जसवंत सिंह का हुआ।
लगता है कि पेंच कहीं और है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी में आडवाणी गुट की ताकत की धमक ऐसी थी कि आर एस एस वालों की हिम्मत नहीं पड़ी कि उन्हें पार्टी से निकालने की कोशिश करें। डर यह था कि अगर आडवाणी को बाहर किया तो उनके गुट के लोग बाहर चले जाएंगे। जसवंत सिंह को दिल्ली की राजनीतिक गलियों में अटल बिहारी वाजपेयी के आखाड़े का पहलवान माना जाता है। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जसवंत सिंह को महत्व भी खूब दिया था। मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण विभाग भी मिला था उन्हें जब कंधार जाकर आतंकवादियों को छोडऩे की बात आई तो वही भेजे गए थे। वे वाजपेयी गुट के भरोसेमंद माने जाते हैं।
आजकल वाजपेयी गुट के नेता लोग परेशानी में हैं। कहीं ऐसा नही कि वाजपेयी की बीमारी के कारण उनके गुट के कमजोर पड़ जाने की वजह से आडवाणी के चेलों ने आरएसएस के कंधे पर बंदूक चला दी हो और राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी को सबसे ऊंचा बनाने की कोशिश हो। जसवंत सिंह की किताब में नेहरू की निंदा की गई है। इसे संघी राजनीति की गिजा माना जाता है। लेकिन जसवंत बाबू ने साथ में सरदार पटेल को भी लपेट लिया, उनको भी जिनाह से छोटा करार दे दिया। यह बात बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति के खिलाफ जाती है। भगवा ब्रिगेड की पूरी कोशिश है कि सरदार पटेल को अपना नेता बनाकर पेश करें। ऐसा इसलिए कि आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस और उसके मातहत संगठनों के किसी नेता ने हिस्सा नहीं लिया था।
उनकी पूरी कोशिश रहती है कि ऐसे किसी भी आदमी को अपनी विचार धारा का बनाकर पेश कर दें जो नेहरू परिवार के मुखालिफ रहा हो। सरदार पटेल की यह छवि बनाने की नेहरू विरोधियों की हमेशा से कोशिश रही है। हालांकि यह बिलकुल गलत कोशिश है लेकिन संघी बिरादरी इसमें लगी हुई है। इसी तरह एक बार आरएसएस वालों ने कोशिश की थी कि सरदार भगत सिंह को अपना लिया जाय। साल-दो साल कोशिश भी चली लेकिन जब पता चला कि भगत सिंह तो कम्युनिस्ट पार्टी में थे तबसे यह कोशिश है कि सरदार पटेल को अपनाया जाय लिहाजा उनके खिलाफ अभी कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।
इस बीच खबर है कि उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेता कलराज मिश्र ने जसवंत सिंह की बर्खास्तगी का विरोध किया है। उनका कहना है कि जसवंत सिंह ने जो भी कहा है वह तथ्यों पर आधारित है इसलिए उनको हटाने की बात करना ठीक है। अगर इस बात में जरा भी दम है तो इस बात में शक नहीं कि बीजेपी के दो टुकड़े होने वाले हैं।
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Friday, August 21, 2009
Friday, June 26, 2009
बच्ची की मौत पर अभिजात रुख
दिल्ली के दो स्कूलों में छात्राओं की असामयिक मौत हुई। रईसों के माडर्न स्कूल वसंत विहार में पढऩे वाली आकृति भाटिया को अस्थमा का दौरा पड़ा, आरोप है कि स्कूल के अधिकारियों ने उसे अस्पताल पहुंचाने और चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में देरी की, नतीजतन बच्ची की मौत हो गई। दूसरा हादसा उत्तरी दिल्ली के बवाना के एक सरकारी स्कूल में हुआ। 11 साल की शन्नो खातून नाम की एक बच्ची बवाना के म्युनिस्पल स्कूल में पढ़ती थी।
उसकी टीचर ने उसे धूप में खड़ा रखा, सजा दी और बच्ची बेहोश हो गई। उसके माता पिता को तलब किया गया जो उसे अस्पताल ले गए। बच्ची दो दिन तक अस्पताल में बेहोश पड़ी रही, जिसके बाद उसकी मौत हो गई। बहुत कम समय के अंतर पर दिल्ली में यह दोनों हादसे हुए। दो परिवारों से उनकी लाडली बच्चियां चली गईं। दर्द दोनों ही परिवारों में महसूस किया गया, पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदारों ने दोनों ही परिवारों को ढाढस बंधाया।
यहां तक सब कुछ सामान्य है एक परिवार पर जब मुसीबत का पहाड़ टूटता है, तो इष्टमित्र, तकलीफ को कम करने के लिए आगे आते हैं, यह लोकाचार है। इन दोनों घटनाओं के प्रति समाज, सरकार और मीडिया का जो रवैया था, वह बहुत ही अजीब था। गरीबी-अमीरी की खाईं बहुत ही साफ तरीके से नजर आई। माडर्न स्कूल की बच्ची मौत को मीडिया ने इतना उछाल दिया कि हर हाल में टी.वी. पर शक्ल दिखाने के लिए व्याकुल शहरी मध्य वर्ग के लोग टूट पड़े।
टी.वी. चैनलों के दफ्तरों और अखबारों के रिपोर्टरों के पास फोन आने लगे कि आकृति भाटिया के केस में माडर्न स्कूल की प्रिंसिपल के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को विषय बनाकर कोई कार्यक्रम होने वाला है, वगैरह, वगैरह। किसी भी मीडिया कंपनी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि हो सकता है कि स्कूल की प्रिंसिपल की कोई गलती न हो, मौत अपरिहार्य कारणों से हुई हो। लेकिन टी आर.पी. के शिकार के लिए बदहवास टी.वी. चैनल को कौन समझाए। एक मिनट के लिए नहीं सोचा कि बिना किसी गलती के, कही स्कूल की प्रिंसिपल सूली पर तो नहीं चढ़ाई जा रही है। टी. आर.पी. के इन खूंखार शिकारियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
इन्हीं लोगों ने तो आरुषि हत्या केस में उसके पिता को ही जेल में बंद करवा दिया था। यह भी नहीं सोचा कि बेचारे बाप की इकलौती बेटी को किसी ने मार डाला है और एक पुलिस वाले के गैर जिम्मेदार बयान को आखरी सच मानकर टूट पड़े और अरुचि की हत्या के गलत अभियोग के चक्कर में इतना दबाव बनाया कि पुलिस को बच्ची के पिता को जेल में डालने के लिए बहाना मिल गया। बाद में जब जांच से पता लगा कि पिता निर्दोष है तो पुलिस से ज्यादा मीडिया को खिसियाहट झेलनी पड़ी।
आकृति के मामले में भी टीवी चैनल टूट पड़े और इस बात की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसका दोष न साबित हो जाय। मीडिया के इस रुख के चलते नेता भी शुरू हो गये और एक केंद्रीय मंत्री ने वाहवाही लूटने का प्रयास किया। दूसरी तरफ शन्नो की मौत का मामला था। जिन हालात में उसकी मौत हुई थी, वह काफी हद तक साफ थी लेकिन मीडिया ने उसके साथ भेदभाव किया! शायद इसी वजह से कोई नेता भी नहीं गया, कुछ वोट याचक नेताओं को छोडक़र। जहां तक समाज के संपन्न वर्गों का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया ऐसी है जो हमारे अभिजात वर्ग को कई स्तरों तक बेपरवा कर देती है।
उसकी टीचर ने उसे धूप में खड़ा रखा, सजा दी और बच्ची बेहोश हो गई। उसके माता पिता को तलब किया गया जो उसे अस्पताल ले गए। बच्ची दो दिन तक अस्पताल में बेहोश पड़ी रही, जिसके बाद उसकी मौत हो गई। बहुत कम समय के अंतर पर दिल्ली में यह दोनों हादसे हुए। दो परिवारों से उनकी लाडली बच्चियां चली गईं। दर्द दोनों ही परिवारों में महसूस किया गया, पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदारों ने दोनों ही परिवारों को ढाढस बंधाया।
यहां तक सब कुछ सामान्य है एक परिवार पर जब मुसीबत का पहाड़ टूटता है, तो इष्टमित्र, तकलीफ को कम करने के लिए आगे आते हैं, यह लोकाचार है। इन दोनों घटनाओं के प्रति समाज, सरकार और मीडिया का जो रवैया था, वह बहुत ही अजीब था। गरीबी-अमीरी की खाईं बहुत ही साफ तरीके से नजर आई। माडर्न स्कूल की बच्ची मौत को मीडिया ने इतना उछाल दिया कि हर हाल में टी.वी. पर शक्ल दिखाने के लिए व्याकुल शहरी मध्य वर्ग के लोग टूट पड़े।
टी.वी. चैनलों के दफ्तरों और अखबारों के रिपोर्टरों के पास फोन आने लगे कि आकृति भाटिया के केस में माडर्न स्कूल की प्रिंसिपल के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को विषय बनाकर कोई कार्यक्रम होने वाला है, वगैरह, वगैरह। किसी भी मीडिया कंपनी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि हो सकता है कि स्कूल की प्रिंसिपल की कोई गलती न हो, मौत अपरिहार्य कारणों से हुई हो। लेकिन टी आर.पी. के शिकार के लिए बदहवास टी.वी. चैनल को कौन समझाए। एक मिनट के लिए नहीं सोचा कि बिना किसी गलती के, कही स्कूल की प्रिंसिपल सूली पर तो नहीं चढ़ाई जा रही है। टी. आर.पी. के इन खूंखार शिकारियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
इन्हीं लोगों ने तो आरुषि हत्या केस में उसके पिता को ही जेल में बंद करवा दिया था। यह भी नहीं सोचा कि बेचारे बाप की इकलौती बेटी को किसी ने मार डाला है और एक पुलिस वाले के गैर जिम्मेदार बयान को आखरी सच मानकर टूट पड़े और अरुचि की हत्या के गलत अभियोग के चक्कर में इतना दबाव बनाया कि पुलिस को बच्ची के पिता को जेल में डालने के लिए बहाना मिल गया। बाद में जब जांच से पता लगा कि पिता निर्दोष है तो पुलिस से ज्यादा मीडिया को खिसियाहट झेलनी पड़ी।
आकृति के मामले में भी टीवी चैनल टूट पड़े और इस बात की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसका दोष न साबित हो जाय। मीडिया के इस रुख के चलते नेता भी शुरू हो गये और एक केंद्रीय मंत्री ने वाहवाही लूटने का प्रयास किया। दूसरी तरफ शन्नो की मौत का मामला था। जिन हालात में उसकी मौत हुई थी, वह काफी हद तक साफ थी लेकिन मीडिया ने उसके साथ भेदभाव किया! शायद इसी वजह से कोई नेता भी नहीं गया, कुछ वोट याचक नेताओं को छोडक़र। जहां तक समाज के संपन्न वर्गों का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया ऐसी है जो हमारे अभिजात वर्ग को कई स्तरों तक बेपरवा कर देती है।
भाजपा से भागते नेता
झारखंड के पूर्व मुख्य मंत्री और कभी बीजेपी के नेता रहे बाबू लाल मरांडी ने कहा है कि वह भाजपा में वापस कभी नहीं जाएंगे। उन्होंने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा बना ली है। आजकल झाडखंड में हर सीट पर खड़े हुए अपने प्रत्याशियों के लिए वे चुनाव प्रचार कर रहे हैं। झारखंड के इलाके में बीजेपी के काम को आगे बढ़ाने में बाबू लाल मरांडी का योगदान सबसे ज्यादा है।
इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि बाबूलाल मरांडी जैसा आदमी उस पार्टी से इतना नाराज क्यों है कि वह मर जाना बेहतर समझते हैं लेकिन पार्टी में वापस जाने को राजी नहीं है। बीजेपी के वर्ग चरित्र को समझे बिना इस गुत्थी को समझ पाना मुमकिन नहीं है। बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो पूरी तरह से आर एस एस के नियंत्रण में है और राजनीतिक क्षेत्र में आरएसएस के लक्ष्य को हासिल करना ही बीजेपी या उसके पहले वाली भारतीय जन संघ का उद्देश्य है। इस तरह हम देखते हैं कि बीजेपी कहने को तो राजनीतिक पार्टी है लेकिन असल में वह एक ऐसा संगठन है जिसकी प्रोप्राइटर आरएसएस है।
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार स्वीकार किया कि राजनीतिक में वो जो कुछ भी करते हैं, आरएसएस के मकसद को हासिल करने के लिए करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी में जो भी रहेगा उसे हिंदुत्व का लक्ष्य हासिल करने के लिए काम करना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि बाबू लाल मरांडी को बीजेपी की राजनीति का यह पहलू साफ तौर पर समझ में आ गया है और वे अब वापस बीजेपी में किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं। बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीतिक का उद्देश्य हिंदू समाज के अभिजात वर्ग को सत्ता दिलाना है और उसमें बाबू लाल मरांडी के समाज के आदिवासी लोग तो सेवक की भूमिका में ही रहेंगे।
यह समझना बहुत जरूरी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में बहुत फर्क है। हिंदू धर्म को मोटे तौर पर सनातन धर्म से जोड़कर जाना जाता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई सख्त नियम कानून नहीं हैं पूजा करने की आज़ादी है, कोई पूजा पाठ न भी करे तो हिंदू बना रह सकता है। आमतौर पर हिंदू धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय होता है और उसका प्रदर्शन सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं किया जाता। अगर हिंदू परिवार में जन्म हुआ हो और आदमी पूजा पाठ न भी करे तो वह हिंदू बना रह सकता है। कहा जा सकता है कि असली हिंदू धर्म एक लिबरल धर्म है।
इसके पलट हिंदुत्व वह सिद्घांत है जो हिंदुओं की एकता करके और उस एकता के सहारे राजनीतिक सत्ता हासिल करने की बात करता है। हिंदूत्व की विचारधारा की शुरूआत 1924 में सावरकर ने की थी। और आरएसएस के संस्थापक, हेडगेवार से अपील की थी कि हिंदू समाज को हिंदुत्व की विचारधारा की घुट्टी पिलाकर एक राजनीतिक ताकत में बदल दें। पिछले 85 वर्षो से आरएसएस यही कोशिश कर रहा है। जितने भी दंगे हुए हैं उनमें आरएसएस के वे लोग शामिल होते हैं जो हिन्दुत्वादी विचारधारा के शिकंजे में फंस चुके होते हैं। बाद में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए आरएसएस भारतीय जनसंघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों की स्थापना की ओर हिंदूत्व को पूरी तरह आक्रामक बना दिया है।
बाबरी मस्जिद की शहादत भी इन्हीं हिंदुत्ववादियों की राजनीतिक सोच का नतीजा है। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने 2002 में जिस तरह से चुन-चुन कर मरवाया वह भी हिंदूत्व की राजनीति का ही नतीजा है। जाहिर है कि कोई भी हिंदू खासकर आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग या उदारवादी सोच के स्वर्ण, हिन्दुत्व की विचारधरा का पक्षधर नहीं हो सकता और इन्हीं कारणों से बाबू लाल मरांडी वापस बीजेपी में जाने को तैयार नहीं हैं।
इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि बाबूलाल मरांडी जैसा आदमी उस पार्टी से इतना नाराज क्यों है कि वह मर जाना बेहतर समझते हैं लेकिन पार्टी में वापस जाने को राजी नहीं है। बीजेपी के वर्ग चरित्र को समझे बिना इस गुत्थी को समझ पाना मुमकिन नहीं है। बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो पूरी तरह से आर एस एस के नियंत्रण में है और राजनीतिक क्षेत्र में आरएसएस के लक्ष्य को हासिल करना ही बीजेपी या उसके पहले वाली भारतीय जन संघ का उद्देश्य है। इस तरह हम देखते हैं कि बीजेपी कहने को तो राजनीतिक पार्टी है लेकिन असल में वह एक ऐसा संगठन है जिसकी प्रोप्राइटर आरएसएस है।
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार स्वीकार किया कि राजनीतिक में वो जो कुछ भी करते हैं, आरएसएस के मकसद को हासिल करने के लिए करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी में जो भी रहेगा उसे हिंदुत्व का लक्ष्य हासिल करने के लिए काम करना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि बाबू लाल मरांडी को बीजेपी की राजनीति का यह पहलू साफ तौर पर समझ में आ गया है और वे अब वापस बीजेपी में किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं। बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीतिक का उद्देश्य हिंदू समाज के अभिजात वर्ग को सत्ता दिलाना है और उसमें बाबू लाल मरांडी के समाज के आदिवासी लोग तो सेवक की भूमिका में ही रहेंगे।
यह समझना बहुत जरूरी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में बहुत फर्क है। हिंदू धर्म को मोटे तौर पर सनातन धर्म से जोड़कर जाना जाता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई सख्त नियम कानून नहीं हैं पूजा करने की आज़ादी है, कोई पूजा पाठ न भी करे तो हिंदू बना रह सकता है। आमतौर पर हिंदू धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय होता है और उसका प्रदर्शन सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं किया जाता। अगर हिंदू परिवार में जन्म हुआ हो और आदमी पूजा पाठ न भी करे तो वह हिंदू बना रह सकता है। कहा जा सकता है कि असली हिंदू धर्म एक लिबरल धर्म है।
इसके पलट हिंदुत्व वह सिद्घांत है जो हिंदुओं की एकता करके और उस एकता के सहारे राजनीतिक सत्ता हासिल करने की बात करता है। हिंदूत्व की विचारधारा की शुरूआत 1924 में सावरकर ने की थी। और आरएसएस के संस्थापक, हेडगेवार से अपील की थी कि हिंदू समाज को हिंदुत्व की विचारधारा की घुट्टी पिलाकर एक राजनीतिक ताकत में बदल दें। पिछले 85 वर्षो से आरएसएस यही कोशिश कर रहा है। जितने भी दंगे हुए हैं उनमें आरएसएस के वे लोग शामिल होते हैं जो हिन्दुत्वादी विचारधारा के शिकंजे में फंस चुके होते हैं। बाद में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए आरएसएस भारतीय जनसंघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों की स्थापना की ओर हिंदूत्व को पूरी तरह आक्रामक बना दिया है।
बाबरी मस्जिद की शहादत भी इन्हीं हिंदुत्ववादियों की राजनीतिक सोच का नतीजा है। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने 2002 में जिस तरह से चुन-चुन कर मरवाया वह भी हिंदूत्व की राजनीति का ही नतीजा है। जाहिर है कि कोई भी हिंदू खासकर आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग या उदारवादी सोच के स्वर्ण, हिन्दुत्व की विचारधरा का पक्षधर नहीं हो सकता और इन्हीं कारणों से बाबू लाल मरांडी वापस बीजेपी में जाने को तैयार नहीं हैं।
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