Showing posts with label भारत. Show all posts
Showing posts with label भारत. Show all posts

Thursday, August 8, 2013

पाकिस्तानी फौज, दाऊद इब्राहीम और हाफ़िज़ सईद नहीं चाहते कि भारत और पाकिस्तान के बीच शान्ति कायम हो

 शेष नारायण सिंह
१९८९ में जब मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी और महबूबा मुफ्ती की बहन रुबैय्या सईद का अपहरण हुआ तो पाकिस्तानी आतंकवादी निजाम को लगा था कि भारत की सरकार को मजबूर किया जा सकता है .  तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी को छुडाने के लिए सरकार ने बहुत सारे समझौते किये जिसके बाद  पाकिस्तानी आतंकवादियों  के हौसले बढ़ गए थे . नियंत्रण रेखा के रास्ते और अन्य रास्तों से आतंकवादी आते रहे , वारदात को अंजाम  देते रहे और सीमा के दोनों तरफ शान्ति को झटका लगता रहा .  उसके बाद सीमावर्ती इलाकों में रहने वालों की जिन्दगी बहुत ही मुश्किल हो गयी.  छिटपुट आतंक की घटनाओं का सिलसिला जारी रहा और आखिर में २००३ के नवम्बर महीने में भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर का समझौता हुआ . इलाके के किसानों से कोई पूछकर देखे तो पता लग जाएगा कि सीजफायर समझौते के पहले बार्डर के गावों में जिंदा रहना कितना मुश्किल हुआ करता था. सीजफायर लाइन के दोनों तरफ के गाँव वालों की ज़िंदगी बारूद के ढेर पर ही मानी जाती थी . दोनों तरफ के गाँव वालों को पता है कि लगातार होने वाली गोलीबारी में कभी किसी का घर तबाह हो जाता था ,तो कभी कोई किसान मौत का शिकार हो जाता था. लेकिन नवंबर २००३ के बाद सीमावर्ती इलाकों के सैकड़ों गांवों में शान्ति है .सीमा पर कंटीले तार लगे हुए हैं और इन रास्तों से अब कोई आतंकवादी भारत में प्रवेश नहीं करता . सीजफायर समझौते के बाद यहाँ के गांवों में जो शान्ति का माहौल बना है उसे जारी रखने की दुआ इस इलाके के हर घर में होती ,हर गाँव में लोग यही प्रार्थना करते हैं कि सीमावर्ती इलाकों में फिर से झगडा न शुरू हो जाये जाए .

लेकिन दिल्ली और इसलामाबाद में रहकर सत्ता का सुख भोगने वाले एक वर्ग को इन गावं वालों से कोई मतलब नहीं है . उनको तो हर हाल में झगडे की स्थिति चाहिए क्योंकि संघस्ढ़ की स्थिति में मीडिया की दुकानें भी चलती हैं और सियासत का कारोबार भी  परवाना चढता है  . पाकिस्तान में जब भी नवाज़  शरीफ की सरकार बनती है तो पाकिस्तानी फौज में मौजूद उनके पुराने साथियों को लगता है कि अब मनमानी की जा सकेगी लेकिन नवाज शरीफ दोनों देशों के बीच तनाव कम करने के सपने देखने लगते हैं. नवाज शरीफ की इस कोशिश को आई एस आई और फौज में मौजूद उनके साथी धोखा मानते हैं .पाकिस्तान की राजनीति में नवाज़ शरीफ को स्थापित करने के श्रेय पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह, जनरल जिया उल हक को जाता है . नवाजशरीफ अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में जनरल जिया के बहुत बड़े  चेले हुआ करते थे .पाकिस्तानी फौज में भी आजकल टाप पर वही लोग बैठे हैं जो जनरल जिया के वक़्त में नौजवान अफसर होते थे. पाकिस्तानी सेना और समाज का इस्लामीकरण करने की अपनी मुहिम में इन अफसरों का जिया ने पूरी तरह से इस्तेमाल किया था . आज के पाकिस्तानी  सेना के अध्यक्ष जनरल अशफाक कयानी और उनके जूनियर जनरलों ने भारत के हाथों पाकितान को १९७१ में बुरी तरह से हारते देखा है . जब १९७१ में भारत की सैनिक क्षमता के सामने पाकिस्तानी फौज ने घुटने टेके थे ,उसी साल जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी. उन्होंने बार बार यह स्वीकार किया है कि वे १९७१ का बदला लेना चाहते हैं लेकिन उनकी इस जिद का नतीजा दुनिया के लिए जो भी होउनके अपने देश को भी तबाह कर सकता है . यह बात जनरल अशफाक कयानी को मालूम है कि अगर उन्होंने परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की गलती कर दी तो अगले कुछ घंटों में भारत उनकी सारी सैनिक क्षमता को तबाह कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो वह विश्वशान्ति के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत होगा . शायद इसीलिये वे कोशिश करते रहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी सूरत में रिश्ते सुधरने न पायें और उनको भारत को तबाह करने  के अपने सपने को जिंदा रखने में मदद मिलती रहे .पाकिस्तानी फौजी लीडरशिप की इसी ज़हनियत की वजह से १९९० के बाद से जब भी कोई सिविलियन सरकार दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने की बात करती है तो पाकिस्तानी फौज या तो आतंकवादियों के ज़रिये और या आई एस आई के ज़रिये कोई ऐसा काम कर देती है जिस से सामान्य होने की दिशा में चल पड़े रिश्ते तबाह हो जाएँ या उस प्रक्रिया में पक्के तौर पर अड़चन ज़रूर आ जाए .जब  तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस में बैठकर लाहौर गए थे तो पाकिस्तानी फौज ने कारगिल शुरू कर दिया था . अब तो सबको मालूम है कि कारगिल में जो भी हुआ उसके लिए शुद्ध रूप से उस वक़्त के सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ ज़िम्मेदार थे , प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को तो पता  भी नहीं था. लेकिन उस घटना के बहुत सारी राजनीतिक नतीजे  निकले थे . नवाज़ शरीफ की  गद्दी चली गयी थी, मुशर्रफ ने सत्ता  हथिया ली थी, कारगिल की लड़ाई हुई थी, भारत ने कारगिल के इलाके से पाकिस्तानी फौज को खदेड़ दिया था और अटल बिहारी वाजपेयी १९९९ के चुनावों विजेता के रूप में  प्रचार  करते हुए पांच साल तक राज करने का जनादेश लाये थे.
जम्मू-कश्मीर के पुंछ इलाके में पांच भारतीय सैनिकों के मारे जाने की घटना को भी जल्दबाजी में पाकिस्तानी हमला मान लेना ठीक नहीं होगा . इस बात की पूरी संभावना है कि पाकिस्तानी फौज ने नई नवाज़ शरीफ सरकार को भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाने से रोकने के लिए यह काम किया हो . इस  बात में तो शक नहीं हो सकता पाकिस्तानी फौज ने ही भारतीय सैनिकों की जघन्य ह्त्या करवाई है लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार भी इसमें शामिल हो .इसे मुशर्रफ के उस एडवेंचर से मिलाकर देखना चाहिए जब लाहौर बस यात्रा से पैदा हुए माहौल को खराब करने के लिए मुशर्रफ की पाकिस्तानी फौज ने कारगिल कर दिया था.
पुंछ सेक्टर की ताज़ा घटना  भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों की परीक्षा लेने के लिए तैयार है . पाकिस्तानी आई एस आई और हाफ़िज़ सईद के अधीन काम करनेवाले आतंकवादी संगठन कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगें कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी तरह के सामान्य सम्बन्ध  कायम हों .  इसका एक नतीजा यह भी  होगा कि मुंबई हमलों के गुनाहगार  हाफ़िज़ सईद को पाकिस्तान भारत के हवाले भी कर सकता है .अगर दोनों देशों में दोस्ती  हो गयी तो भारत दाऊद इब्राहीम के प्रत्यर्पण की मांग भी कर सकता है. सबको मालूम है कि दाऊद इब्राहीम और हाफ़िज़ सईद पाकिस्तानी हुक्मरान की नज़र में कितने ताक़तवर हैं . इसलिए यह दोनों अपराधी किसी भी सूरत में दोनों देशों के बीच  दोस्ती नहीं कायम होने देगें .अजीब बात यह है कि भारत में पब्लिक ओपिनियन के करता धरता भी पाकिस्तानी  आतंकवाद के सूत्रधारों के जाल में फंसते जा रहे हैं .भारत के टेलिविज़न चैनलों की चले तो वे आज ही पाकिस्तान पर भारतीय फौजों से हमला करवा दें . विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का रवैया भी पुंछ में  हुई भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या के बाद ऐसा है कि वे पाकिस्तानी आतंकवादियों की मंशा  को पूरी करते नज़र आ रहे हैं . बीजेपी के एक नेता ने लोकसभा में कह दिया कि कि भारत के पास ताक़त है ,भारतीय सेना के पास ताक़त है ,भारतीय संसद के पास ताक़त है  कि पाकिस्तान को उसी भाषा में जवाब दिया जाए जो उसकी समझ में आती है .इस तरह की बयानबाजी से दोनों देशों के बीच के रिश्ते और खराब होंगें ,पाकिस्तानी सेना में मौजूद वे लोग मज़बूत होंगें जो भारत से हर हाल में दुश्मनी रखना चाहते हैं और पाकिस्तान में रहकर भारत के खिलाफ काम करने वाला आतंक का तंत्र बहुत मज़बूत होगा. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि भारत का मीडिया और राजनीतिक बिरादरी पाकिस्तानी आतंकवादियों के जाल में न फंसे और उनके मंसूबों  को नाकाम करने की कोशिश करे . इस मिशन में पाकिस्तानी सिविलियन  सरकार की विश्वसनीयता बढाने की कोशिश भी की जानी चाहिए .
भारत के रक्षा मंत्री ए के एंटोनी ने संसद में बताया कि भारी हथियारों से लैस करीब बीस आतंकवादियों और पाकिस्तानी सेना की वर्दी पहने कुछ लोगों ने पुंछ के इलाके में हमला किया  और पांच भारतीय सैनिकों की जानें गयीं . यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि भारत को इस तरह के धोखेबाजी के तरीकों से परेशान नहीं किया जा सकता. पाकिस्तान की सरकार ने कहा है कि भारतीय मीडिया ने आरोप लगाया है कि पुंछ की घटना में पाकिस्तान की सेना का हाथ है जिसे पाकिस्तानी सरकार खारिज करती है . पाकिस्तान सरकार की तरफ से जो बयान आया है उसके मुताबिक सीमा पर ऐसा कोई भी काम नहीं हुआ जिसके कारण दोनों देशों के बीच में तनाव  आये.  यह बयान सच्चाई को छुपाता है लेकिन फिर भी यह युद्ध की तरफ बढ़ने वाली कूटनीति को लगाम देने में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत के विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है कि इस घटना से दोनों देशों के बीच सामान्य हो रहे रिश्तों में बाधा ज़रूर पड़ेगी  .पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ की सरकार आने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि रिश्ते सामान्य होंगें . इसी साल जनवरी में एक भारतीय सैनिक का सिर काटे जाने के बाद रिश्तों में बहुत तल्खी आ गयी थी लेकिन पाकिस्तान में आम चुनाव के बाद आयी नवाज़ शरीफ की नई सरकार आने के बाद उम्मीदें थोडा बढ़ी थीं . सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र के सम्मलेन के बहाने दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाक़ात की संभावना है लेकिन लगता है कि आई एस आई , पाकिस्तानी फौज और पाकिस्तानी आतंकवादियों की साज़िश के बाद मामला बिगड सकता है . अगर ऐसा हुआ तो इसे पाकिस्तानी ज़मीन पर रहकर ,पाकिस्तानी सरकार की परवाह किये बिना  भारत से रिश्ते खराब करने वालों के मंसूबों की जीत माना जायेगा . ज़ाहिर है इससे  सीमा के दोनों तरफ रहने वाले शान्तिप्रेमी लोगों इच्छाओं को ज़बरदस्त धक्का लगेगा

Saturday, July 14, 2012

बराक ओबामा भारत में कैंसर की महंगी दवा बेचने के लिए सरकार पर दबाव डाल रहे हैं


  
शेष नारायण सिंह 
 अमरीका की कोशिश है कि वह भारत के कैंसर  के रोगियों से बहुत भारी मुनाफा कमाए और उसके लिए उसे भारत सरकार की मदद चाहिए . अमरीकी कम्पनियां कैंसर की जो दवा भारत में बेचती हैं उनकी  कीमत कैंसर के  रोगी को करीब ढाई लाख  रूपया प्रति महीना पड़ता है . जब कि वही दवा भारत की कंपनियों ने बना लिया है और उसकी कीमत केवल साढ़े सात हज़ार रूपये महीने है . अपने  पूंजीपतियों को बेजा लाभ पंहुचाने के लिए अमरीकी प्रशासन भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह भारतीय कंपनी को दवा बेचने से रोक दे और अमरीकी दवा पर ही भारत के कैंसर के रोगी निर्भर बने रहें. अमरीकी सरकार की एक बड़ी अधिकारी ने दावा  किया है कि वह भारत सरकार में उच्च पदों पर बैठे कुछ लोगों से इस काम को करवाने के लिए संपर्क में है . ज़रुरत  इस बात की है  यह पता  लगाया जाए कि उच्च पदों पर बैठे यह कौन लोग हैं . पता लगने के बाद उन्हें कानून के  हिसाब से दण्डित किया  जाना चाहिए  . संतोष की बात यह  है अभी तो भारत सरकार ने अमरीका को  साफ़ मना कर दिया है  कि वह अपने देश के कैंसर के मरीजों के खून से अमरीकी व्यापार को फलने फूलने नहीं देगें लेकिन जिस तरह से केंद्र सरकार में अमरीका परस्त लोगों का बोलबाला है , लगता है कि देर सवेर भारत सरकार अमरीकी दबाव के सामने झुक जायेगी .
अमरीका और पाकिस्तानमें एक समानता है . दोनों ही देशों में राजनीतिक शमशीर चमकाने के लिए भारत के खिलाफ ज़हर उगलने का फैशन है . अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा वैसे तो भले आदमी माने जाती हैं  लेकिन अमरीकी कट्टरपंथियों को साथ लेने के  लिए वे भी भारत के खिलाफ गैरजिम्मेदार अभियान चलाने की पूरी कोशिश करते हैं .अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे कमज़ोर देशों में तो वे  गोली बारूद से सीधा हमला करते हैं , ड्रोन चलाते हैं और आतंकवादियों के साथ साथ निर्दोष लोगों की भी जान ले लेते हैं . लेकिन भारत की बढ़ती आर्थिक ताक़त और हैसियत के मद्दे नज़र भारत से कुछ आर्थिक लाभ झटक लेने के चक्कर में रहते हैं .
ताज़ा मामला कैंसर की दवा की मनमानी  कीमत वसूलने का है . जर्मनी की बड़ी दवा कम्पनी बायर कैंसर की दवा बनाती है . इस दवा से कैंसर का इलाज भारत में भी होता है .अभी तक इस दवा के सहारे इलाज कराने में करीब ढाई लाख रूपये प्रति महीने का खर्च आता है . एक भारतीय दवा कंपनी ने वहीं दवा अपने देश में बना दिया और उसकी मदद से कैंसर के इलाज की कीमत करीब साढ़े सात हज़ार रूपये  प्रति माह पड़ रही है . यह दवा बनाने वाली कंपनी ने भारत सरकार से बाकायदा अनुमति लेकर इस दवा को बेचना शुरू कर दिया  है, सारा काम अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के हिसाब से  कानूनी है और भारतीय कंपनी जर्मन/अमरीकी कंपनी को साढ़े छः प्रतिशत की रायल्टी दे रही है . लेकिन इस दवा के बन जाने से अमरीका में बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रही बायर को भारी घाटा हो रहा है और अब ओबामाअमरीकी /जर्मन कंपनी को लाभ पंहुचाने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं. 
अमरीकी पेटेंट और ट्रेडमार्क आफिस की एक  डिप्टी डाइरेक्टर  ने अमरीकी सेनेट से अपील की है कि वह भारत सरकार पर दबाव बनाए कि वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करके भारत सरकार को मजबूर कर दे कि वह भारतीय कम्पनी  को कम कीमत वाली लेकिन बहुत अच्छी दवा बेचने से रोकें. सेनेट से उन्होंने अपनी पेशी के दौरान अपील कि   कि वह भारत सरकार को फटकार लगाए कि उसने क्यों किसी भारतीय कंपनी को दवा बेचने की अनुमति दे दी. उन्होंने यह भी कुबूल किया कि वे निजी तौर पर भी भारत सरकार की एजेंसियों से  संपर्क  बनाए हुए हैं और पूरी कोशिश कर  रही  हैं कि अमरीकी /जर्मन दवा कम्पनी  को होने वाला मुनाफ़ा  कम न  होने पाए . ज़रुरत इस बात की है कि भारत सरकार की सी बी आई या अन्य  कोई सक्षम संस्था इस बात की  जांच करे कि अमरीकी पेटेंट और ट्रेड आफिस भारत सरकार में किन लोगों के साथ संपर्क बनाए हुए है और वे क्यों भारत के राष्ट्रीय  और सार्वजनिक  हित के खिलाफ काम कर रहे हैं .

Sunday, January 8, 2012

पाकिस्तान में लोकशाही भारत और पाकिस्तान , दोनों के हित में है .

शेष नारायण सिंह

मुंबई,५ दिसंबर . पाकिस्तान में पिछले ४ हफ़्तों में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले महीने तीन ऐसे बिल पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में जनमत के दबाव के तले परिवर्तन की बयार बह रही है. .पाकिस्तान के बड़े राजनीतिक कार्यकर्ता और पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ,बी एम कुट्टी ने आज मुंबई में कहा कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व गवर्नर , सलमान तासीर की हत्या के एक साल बाद उनकी याद में मुंबई प्रेस क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में आज बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .

पाकिस्तान की जो तस्वीर आज यहाँ बी एम कुट्टी ने पेश की उस से लगता है कि वहां अब फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं . .
बी एम कुट्टी पाकिस्तान में बहुत ही सम्मान से देखे जाते हैं . उन्होंने बताया कि पिछले ४ हफ़्तों में जो कानून पास हुए हैं उस से इस बात का अंदाज़ लग जाता है कि पाकिस्तान में अब मुल्ला और मिलिटरी की मर्जी से हुकूमत नहीं चलेगी. पाक्सितान में एक कानून था कि लड़कियों की शादी कुरआन से कर दी जाती थी. ऐसा इसलिए किया जाता था कि ज़मींदारी प्रथा के बीच जी रहे पाकिस्तानी समाज को नहीं मंज़ूर था कि पुश्तैनी ज़मीन का बँटवारा हो . पिछले महीने संसद में सर्व सम्मति से बिल पास करके इस अमानवीय कानून को रद्द कर दिया गया..बी एम कुट्टी ने बताया कि पाकिस्तान में इस बात पर भी जनमत बन रहा है कि ईशनिंदा कानून को भी बदल दिया जाए. इसी कानून का विरोध करने के बाद ही सलमान तासीर की ह्त्या की गयी थी. उनके बेटे को पिछली अगस्त में किडनैप कर लिया गया था और उनकी बेटी को धमकियां मिल रही हैं . उसके हत्यारे के ऊपर इस्लामाबाद में कुछ वकीलों ने फूल भे बरसाए थे . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है . पिछले दिनों पाकिस्तानी हैदराबाद में एम क्यू एम नाम के राजनीतिक संगठन की एक सभा में कुछ लोग सलमान तासीर की तस्वीर लेकर आये थे उन्हें शहीद का दर्ज़ा देने की बात कर रहे थे . बी एम कुट्टी ने भारत के लोगों और मीडिया से अपील की कि वे पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को समर्थन दें ,मुल्ला और मिलिटरी के भड़काऊ बयानों को नज़र अन्दाज़करें क्योंकि वे वहां अल्पमत में हैं . पाकिस्तान में लोकशाही की मजबूती भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में है .

Sunday, November 7, 2010

ओबामा बोले---इक्कीसवीं सदी भारत और अमरीका की है

शेष नारायण सिंह

बराक ओबामा की भारत यात्रा ने भारतीय उप महाद्वीप की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ दिया है .पहले दिन ही १० अरब डालर के अमरीकी निर्यात का बंदोबस्त करके उन्होंने अपने देश में अपनी गिरती लोकप्रियता को थामने का काम किया है . अमरीकी चुनावों में उनकी पार्टी की खासी दुर्दशा भी हुई है . दोबारा चुना जाना उनका सपना है .ज़ाहिर है, भारत के साथ व्यापार को बढ़ावा देकर उन्होंने अपना रास्ता आसान किया है . भारत में उनकी यात्रा को कूटनीतिक स्तर पर सफलता भी माना जा रहा है . बराक ओबामा भारत को एक महान शक्ति मानते हैं . मुंबई के एक कालेज में उन्होंने कहा कि वे इस बात को सही नहीं मानते कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है क्योंकि उनका कहना है कि भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है. अपने भाषण में ओबामा ने कहा कि इक्कीसवीं सदी में दुनिया की दो महाशक्तियां ही प्रमुख रूप से जानी जायेगीं . उन्होंने कहा कि इस सदी में अमरीका के अलावा भारत की दूसरी महाशक्ति रहेगी. इसके अलावा भी उनका रुख भारत के प्रति ऐसा है जिसे दोस्ती के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत से दोस्ती करके अमरीका एशिया में अपने आप को बैलेंस करना चाहता है . अमरीका सहित पूरी दुनिया में चीन की बढ़ती ताक़त और उसकी वजह से कूटनीतिक शक्ति संतुलन को नोटिस किया जा रहा है . भारत और चीन के बीच रिश्तों में १९६२ में शुरू हुआ तनाव बिलकुल ख़त्म नहीं हो रहा है . अमरीकी कूटनीति के जानकार इसी मनमुटाव को अपनी पूंजी मानकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए व्याकरण की स्थापना करने की कोशिश कर रहे हैं . वे चीन की बढ़ती ताक़त को भारत से बैलेंस करना चाहते हैं . उसके बदले में वे पाकिस्तान को उसकी वास्तविक औकात पर रखने की रण नीति पर काम कर रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में अमरीका की पूरी कोशिश थी कि वह पाकिस्तान का इस्तेमाल करके सोवियत खेमे को कमज़ोर करे . उस दौर में भारत भी हालांकि निर्गुट देशों के नेता के रूप में अपने आपको पेश करता था लेकिन अमरीका की नज़र में वह रूस के ज्यादा करीब था. . भारत को कमज़ोर करके प्रस्तुत करने की अमरीकी जल्दी के तहत भारत और पाकिस्तान को एक ही खांचे में रखा जाता था . लेकिन अब सब बदल गया है. सोवियत रूस एतूत चुका है . पाकिस्तान की छवि आतंकवाद के एक समर्थक देश की बन चुकी है और पाकिस्तान का अमरीका की विदेशनीति में कोई इस्तेमाल नहीं है . पाकिस्तान की भूमिका अमरीका के लिए अब केवल इतनी है कि वह अपने आतंकवादी मित्रों की मदद से अमरीका की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है क्योंकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान और अल कायदा को पाकिस्तानी सेना और आई एस आई की कृपा से ही दाल रोटी मिल रही है . आज की तारीख में अमरीका के लिए तालिबान और अल कायदा से बड़ा कोई ख़तरा नहीं है . इन दो आतंकवादी संगठनों को काबू करने में पाकिस्तान का इस्तेमाल हो रहा है . और इस काम के लिए अमरीका की तरफ से पाकिस्तान को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता मिल रही है . भारत के लिए भी पाकिस्तान का कमज़ोर होना ज़रूरी है क्योंकि भारत की पश्चिमी सीमा पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब पाकिस्तानी फौज़ की कृपा से हो रहा है . इसलिए भारत की कोशिश है कि वह अमरीका की मदद से पाकिस्तान को एक दुष्ट राज्य की श्रेणी में रखने में सफलता पा सके. मुंबई में जो कुछ भी ओबामा ने कहा है उसका सार तत्व यह है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के खिलाफ हैं और आतंकवाद के खिलाफ भारत और अमरीका को सहयोग करना चाहिए . उन्होंने साफ़ बता दिया है कि भारत और अमरीका की दोस्ती बराबर के दो देशों की दोस्ती है जबकि पाकिस्तान की स्थिति अमरीका की प्रजा की है . हालांकि भारत में कुछ शेखीबाज़ टाइप नेताओं ने टिप्पणी की थी कि ओबामा ने मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान का नाम न लेकर अच्छा नहीं किया . ऐसे बयान राजनीतिक अज्ञान के उदाहरण हैं और इन बयानों को देने वाले नेताओं की वैसे भी कोई औकात नहीं है .सच्चाई यह है कि ओबामा की इस यात्रा ने एशिया की भू-राजनीतिक सच्चाई को बदल दिया है और उसका असर बहुत दूर तक महसूस किया जायेगा

Sunday, September 26, 2010

भारत ने पाकिस्तान को कश्मीर खाली करने की चेतावनी दी

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख २६ सितम्बर के दैनिक जागरण में छापा हुआ है )

भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा आम तौर पर कमज़ोर राजनेता माने जाते हैं .और विदेश मंत्री के रूप में तो खैर वह बहुत ही कमज़ोर हैं ही . विदेश मंत्रालय के अफसरों में भी शायद अब लीदार्शोप रोल १९८० के बाद ग्रेजुएशन करने वाले लोग आ गए हैं जो अपने समय के सबसे कुशाग्रबुद्धि लोग नहीं हैं . उस दौर में बेहतरीन टैलेंट अन्य क्षेत्रों में जाने लगा था .शायद इसीलिये कूटनीति के क्षेत्र में पाकिस्तान जैसा मामूली मुल्क भी भारत के विदेशमंत्री को कूटनीति के मैदान में मात पर मात दे रहा था . विदेश मंत्री का संयुक्त राष्ट्र की महासभा में दिया गया भाषण इस बात को नकारता है . वहां विदेश मंत्री ने पाकिस्तान समेत बाकी दुनिया को भारत की मजबूती का अहसास करा दिया है . उन्होंने अपने भाषण में पाकिस्तान को साफ़ समझा दिया कि कश्मीर विवाद में जो सबसे महत्वपूर्ण बात होनी है उसे पाकिस्तान को सबसे पहले करना चाहिए . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से पाकिस्तान को अपना गैरकानूनी क़ब्ज़ा हटा लेना चाहिये . उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि उसे अब गैरज़िम्मेदार तरीके से आचरण नहीं करना चाहिए और भारत को यह बताने से बाज़ आना चाहिए कि वह कश्मीर का प्रशासन कैसे चलाये . पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फौज की दहशत में रहकर वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं . आज की भू भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं . पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहां की फौज है . फौज के लिए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना लगभग असंभव है . इसके दो कारण हैं . पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं . इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से थोड़ी बहुत आर्थिक मदद भी मिल जाती है . लेकिन दूसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है . आज की पाकिस्तानी फौज में टाप पर वही लोग हैं जिन्होंने १९७१ के आसपास पाकिस्तानी फौज़ में लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी और सेना में अपने जीवन का पहला अनुभव भारत के से हार के रूप में मिला था . उनके बहुत सारे साथी भारत में युद्ध बंदी बना लिए गए थे . उस दर्द को पाकिस्तानी फौज का आला नेतृत्व अभी भूल नहीं पाया है .उसी लड़ाई में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा उस से अलग हो गया था और बंगलादेश की स्थापना हो गयी थी. पाकिस्तानी फौज़ को यह दंश हमेशा सालता रहता है . इसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल , जिया -उल -हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी . मैजूदा फौजी निजाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है . फौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा . लेकिन ऐसा नहीं है . अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फौज और आई एस आई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया तो भारतीय फौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है . लेकिन फौजी जनरल को अक्ल की बात सिखा पाना थोडा टेढ़ा काम होता है . इसी तरह के हवाई किले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याहया ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है .और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं.
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .पाकिस्तानी सिविलियन सरकार के गैरज़िम्मेदार विदेश मंत्री भी आजकल अमरीका में हैं . वहां उन्होंने अमरीका से अपील की है कि उसे कश्मीर में भी उसी तरह से दखल देना चाहिये जैसे वह फिलिस्तीन में कर रहा है . अब इन पाकिस्तानी विदेशमंत्री जी को कौन समझाए कि पश्चिम एशिया में हालात दक्षिण एशिया से अलग हैं . वहां इजरायल सहित ज़्यादातर मुल्क अमरीका के दबाव में हैं .लेकिन दक्षिण एशिया में केवल पाकिस्तान पर उस तरह का अमरीकी दबाव है क्योंकि वह अमरीकी खैरात पर जिंदा है . जहां तक भारत का सवाल है ,वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है . इस लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो१९६५ में जनरल अयूब ने की थी . उनको लगता था अकी जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआऔर पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. इस बार भी भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के सन इकहत्तर की लड़ाई के हारे हुए अफसर बदले की आग में जल रहे हैं , वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है . इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले साठ साल के इतिहास से सबक न लें और भारत पर हमले की मूर्खता कर बैठें . ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कश्मीर से पाकिस्तान को हटने की चेतावानी देकर एस एम कृष्णा ने अच्छा काम किया है ताकि सनद रहे और अगर पाकिस्तानी फौज हमला करने के खतरे से खेलती है तो बाकी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा .

Thursday, July 22, 2010

अफगानिस्तान में भारत की विदेशनीति की धज्जियां उड़ रही हैं

शेष नारायण सिंह


प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह इस बात पर ब जिद हैं कि पाकिस्तान से रिश्ते सुधारना ज्यादा ज़रूरी है और उसके लिए वे ईमानदारी से कोशिश भी कर रहे हैं . लेकिन पाकिस्तान की सत्ता पर बैठे लोगों की प्राथमिकता कुछ और है . उनकी कोशिश है कि भारत से रिश्ते ठीक तो किये जायेगें लेकिन पहले अफगानिस्तान में अपनी स्थिति मज़बूत कर ली जाए. इधर भारत की कोशिश है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के लिए पाकिस्तान को घेर कर हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को बेकार बना दे. क्योंकि अगर हाफ़िज़ सईद को आतंक के प्रोजेक्ट की चौधराहट से हटा दिया जाए तो पाकिस्तान में मौजूद भारत विरोधी आतंक का ढांचा बहुत ही कमज़ोर हो जाएगा. अब भारत की इच्छा को सम्मान देने के लिये तो पाकिस्तानी सेना अपने इतने महत्वपूर्ण सहयोगी की कुर्बानी तो देगी नहीं .पाकिस्तान ने देखा है कि आतंक की ब्लैकमेल के ज़रिये ही उसने अफगानिस्तान में अपना मकसद हासिल कर लिया और भारत को हाशिये पर लाने को मजबूर कर दिया. केंद्र में बी जे पी सरकार के दौरान बहुत ज्यादा असर रखने वाले कुछ कूटनीतिक चिंतकों की राय है कि भारत को पाकिस्तान के खिलाफ पख्तूनों की नाराज़गी का इस्तेमाल करना चाहिए और उनमें मौजूद तालिबान को भी अपने साथ लेने की कोशिश करनी चाहिए. जिस से पाकिस्तान को मजबूर हो कर भारत को अफगानिस्तान में कुछ स्पेस देना पड़े . लेकिन इस तरह की कूटनीति में भारत के हाथ कई बार जल चुके हैं और वह दुबारा वही गलती नहीं करना चाहता जो श्रीलंका में नटवर सिंह और रोमेश भंडारी की टोली ने केंद्र सरकार से करवा लिया था .डॉ मनमोहन सिंह को पक्का भरोसा है कि पख्तूनों को पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल करने की सोच से बचना हे एथीक होगा .

भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर तो विवाद शुरू से चल रहा है लेकिन दोनों के बीच के कूटनीतिक सम्बन्ध आजकल अफगान एजेंडे से ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं . पाकिस्तान की कोशिश है कि अफगानिस्तान से भारत को दूर रखा जाए . और अपने इस मिशन में पाकिस्तान काफी हद तक सफल भी हो रहा है .रविवार को अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच एक व्यापार समझौता हुआ जिसके हिसाब से भारत पर वागा बार्डर के रास्ते कोई भी सामान अफगानिस्तान भेजने की मनाही है . समझौते में लिखा है कि अफगानिस्तान को इस बात की आज़ादी है कि वह वागा के रास्ते कोई भी सामान निर्यात कर सकता है लेकिन उसे उस रास्ते से कुछ भी अपने देश में लाने की अनुमति नहीं दी जायेगी .यह समझौता अमरीका के आशीर्वाद से किया गया है . जब समझौते पर दस्तखत हो रहे थे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अमरीकी हितों की देखभाल करने वाले अमरीकी अफसर रिचर्ड हालब्रुक वहां मौजूद थे.इस समझौते पर कई वर्षों से काम हो रहा था. अफगानिस्तान से भारत को भगाने की पाकिस्तानी नीति की जीत का यह एक बड़ा मुकाम है . परंपरागत रूप से पाकिस्तान की मौजूदगी अफगानिस्तान में रहती रही है . लेकिन तालिबान के नेता मुल्ला उमर की सत्ता ख़त्म होने के बाद पाकिस्तान बैकफुट पर आ गया था. ओसमा बिन लादेन की तलाश में अमरीकी राष्ट्रपति अफगानिस्तान पंहुच गए थे और पाकिस्तानी हुकूमत के लिए वहां की सत्ता पर काबिज़ तालिबान को छोड़ देना मुश्किल था . तालिबान की सैनिक तबाही के बाद युद्ध के बाद बर्बाद हो चुके अफगानिस्तान को फिर से बसाने की कोशिश शुरू हो गयी. भारत की कोशिश थी कि अमरीका और तालिबान में दुश्मनी की वजह से वह अमरीकी आशीर्वाद से अफगानिस्तान में अपने एमौजूदगी मुकम्मल करे . इस दिशा में काम भी शुरू हुआ लेकिन पाकिस्तानी सेना को यह नागवार गुज़र रहा था. उसको अफगानिस्तान पूरा का पूरा चाहिए. जानकार बताते हैं कि इसीलिये भारत के दूतावास समेत अन्य भारतीय ठिकानों पार आतंकवादी हमले कराये गए. इस बात में कोई शक़ नहीं है कि अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान और पाकिस्तानी सेना में गहरे सम्बन्ध हैं . वास्तविकता तो यह है कि तालिबान का गठन पाकिस्तानी सेना के सामरिक लाभ के लिए ही किया गया था . जब तक्तालिबान का क़ब्ज़ा अफगानिस्तान पर रहा , उसे पाकिस्तानी सेना का क़ब्ज़ा ही माना जाता था . इसलिए अमरीका के इस आग्रह को पाकिस्तानी सेना ने कभी गंभीरता से नहीं लिया जिसके तहत अमरीका उम्मीद कर रहा था कि पाकिस्तान की सेना तालिबान को तबाह करने में अमरीकी सेना की मदद करेगी. . इस वक़्त दक्षिण एशिया में जो कूटनीतिक माहौल है उसमें अफगानिस्तान सबसे महत्व पूर्ण है . अमरीका पूरी तरह से अफगानिस्तान में गले तक डूबा हुआ है. भूराजनैतिक दबदबे के लिए चीन भी अफगानिस्तान में दखल चाहता है . उसकी कोशिश है कि वह पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान में अपने पाँव जमाये . इसीलिये वह पाकिस्तान को समझा रहा है कि ज्यादा से जादा अफगान प्रोएक्ट हथियाए . जहाना तक काम को पूरा करने की बात है , वह पाकिस्तान के बस की बात नहीं है ,उसे चीन पूरा कर देगा लेकिन ऐसा करके वह अफगानिस्तान में भारत को प्रभाव नहीं बढाने देगा और कुछ हद तक अमरीका को थाम सकेगा.

इतनी पेचीदा कूटनीतिक लड़ाई में अब तक की जो हालात हैं , उसमें सबसे ताक़तवर खिलाड़ी के रूप में पाकिस्तानी फौज के मुखिया ,जनरल अशफाक परवेज़ कयानी को देखा आ रहा है . पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन सरकार उनकी मुट्ठी में है . वे बीच रास्ते फैसले बदलवा देते हैं और प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को डांट तक देते हैं . भारत -पाक विदेश मंत्री स्तर की बातचीत को जिस तरह से उन्होंने बेमतलब किया है उसे दुनिया ने देखा है . यह अलग बात है कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी इस पूरी घटना के बाद एक जोकर के रूप में पेश किये जा रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनकी बेचारे की औकात ही वही है . ऐसी हालत में पाकिस्तान को दुरुस्त करने की कोशिश में वहां नए भस्मासुर पैदा करने की कोशिश से भारत को बच कर रहना चाहिए क्योंकि अगर तालिबान की मदद से पाकिस्तानी फौज अमरीका और भारत को डराना चाहती है तो यह बेवकूफी की कूटनीति है और इसका नुकसान बाद में पाकिस्तान को ही होगा .

Saturday, May 29, 2010

कनाडा के गैरजिम्मेदार वीजा अफसर और भारत

शेष नारायण सिंह

कनाडा ने भारत की सुरक्षा एजेंसियों के अवकाशप्राप्त अफसरों को वीजा देने से मना कर के अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है . नयी दिल्ली स्थित कनाडा के हाई कमीशन के अफसर अब तक यह खेल बेख़ौफ़ चलाते रहे हैं लेकिन जब बी एस एफ के एक पूर्व कर्मचारी का मामला टाइम्स नाउ , नाम के अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल की नज़र में आया तब से मामला तूल पकड़ गया है .यह कोई नयी बात नहीं है . पश्चिमी यूरोप के पूंजीवादी देश ऐसा बहुत दिनों से कर रहे हैं लेकिन बात आई गयी हो जाती थी . इस बार बात फंस गयी है .. शायद इसका कारण यह हो कि अब सूचना क्रान्ति की वजह से किसी भी घटना को खबर बनते देर नहीं लगती. जो भी हो पश्चिमी देशों की भारत के प्रति हठधर्मी ने एक नया रूप ले लिया है .मामला अब कूटनीतिक दांव पेंच में फंस गया है . और भारत जैसे ताक़तवर देश के सामने कनाडा के अड़े रहने की संभावना बहुत कम है . कनाडा को अपनी भूल सुधारनी होगी और अपनी सोच में बदलाव करना होगा. जहां तक माफी माँगने की बात है , वह तो उसे करना ही पडेगा. .लेकिन कनाडा के हाई कमीशन में तैनात वीजा देने वाले अफसरों की इस दम्भी प्रवृत्ति के मनोविज्ञान को समझना भी ज़रूरी है .. यह समझने की ज़रुरत है कि उन्हें यह क्यों लगता है कि भारत के नागरिकों को वे भेड़ बकरियों की तरह ट्रीट कर सकते हैं . और भारत सरकार की आदरणीय संस्थाओं के खिलाफ उल जलूल टिप्पणी कर सकते हैं . पहले सवाल का जवाब तो आसान है . जिस तरह से अपने मुल्क के कुछ हिस्सों के लोग अमरीका, कनाडा और ब्रिटेन जाने के लिए उमड़ पड़ते हैं , उस से इन पश्चिमी राजनयिकों को लग सकता है कि भारत से विदेश जाने की लालसा रखने वाले दीन-हीन लोग हैं और कनाडा जा कर दो जून की रोटी का इंतज़ाम करने के चक्कर में हैं . हालांकि यह सच नहीं है लेकिन जिस तरह से कनाडा जाने के लिए लोग उमड़ते हैं और वीजा देने वाले अधिकारियों और उनके दलालों को रिश्वत तक देने की पेशकश करते हैं , उस से अंदाज़ लग जाता है कि हाई कमीशन में तैनात अफसर इनके बारे में घटिया राय क्यों बनाते हैं .. आजकल कनाडा जाने वाले ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार वहीं रहते हैं और उनकी बड़ी संख्या अब कनाडा की नागरिक भी हो गयी है .इस लिए यह मसला भारत के लोगों के लिए जितनी चिंता का विषय है उतनी ही चिंता कनाडा के नागरिकों को भी होनी चाहिए .वैसे भी किसी को वीजा देना, न देना सम्बंधित देश का अपना मामला है . वह जिसको चाहे वीजा दे और जिसको न चाहे न दे. एक संप्रभु राष्ट्र का अफसर अपने देश के हित में जो भी ठीक समझे, फैसला लेने को स्वतंत्र है , उस पर किसी तरह का सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए और भारत सरकार की ओर से उनके उस अधिकार और दायित्व को चुनौती नहीं दी जा सकती. लेकिन जब कनाडा सरकार का कोई अफसर अपने काम के सिलसिले में भारत सरकार के सुरक्षा संगठनों के बारे में गैर ज़िम्मेदार टिप्पणी करेगा तो भारत सरकार को उस पर एक्शन लेना चाहिए . बी एस एफ और इंटेलीजेंस ब्यूरो के के अवकाश प्राप्त कर्मचारियों की वीजा के दरखास्त पर विचार करते समय भारत सरकार के संगठनों के लिए अपशब्द प्रयोग करने की छूट किसी भी विदेशी सरकार के कर्मचारी को नहीं दी जा सकती

भारत सरकार को एतराज़ इस बात पर है कि कनाडा के हाई कमीशन के अफसरों ने वीजा माँगने वाले लोगों को इसलिए मना कर दिया कि वे भारत सरकार की सुरक्षा एजेंसियों में काम कर रहे थे . यह गलत है और इसके लिए भारत सरकार ने कनाडा को चेतावनी दी है और अगर ज़रूरी हुआ तो उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टाईट भी किया जाएगा . यह सही रुख है क्योंकि कनाडा के वीजा देने वाले अफसरों का आचरण बहुत ही गैरजिम्मेदाराना था . . उनका दिमाग इतना खराब हो गया था कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जो एडवांस टीम कनाडा जा रही है उसके एक सदस्य को भी वीजा देने से मना कर दिया. . सवाल पैदा होता है कि जब दोनों देशों के बेच राजनयिक सम्बन्ध हैं और प्रधान मंत्रियों की आवाजाही का सिलसिला भी है तो प्रधान मंत्री की सुरक्षा का जिम्मा रखने वाले विभाग के अफसर को वीजा न देना तो निहायत ही अहमकाना काम है . ज़ाहिर है कि भारत में तैनात किये जाने वाले अफसरों को थोड़ी बहुर कूटनीतिक नफासत की ट्रेनिंग देकर कनाडा के हुक्मरान बहुत अच्छा काम करेंगें क्योंकि भारत अब कोई मामूली देश नहीं है . वह एक बड़ा देश है और अगर राजनीतिक स्तर पर फैसला हो गया तो बाकी दुनिया में भारत, कनाडा को नुकसान पंहुचा सकता है . कनाडा को यह ध्यान रखना चाहिए कि कभी भारत और कनाडा पर राज करने वाले ब्रिटेन की सरकार भी अब भारत के नेताओं से अदब से बात करती है तो कनाडा की वैसे भी हैसियत अमरीका के चम्पू की ही है . जहां तक भारत का सवाल है वह अब अमरीका से बराबरी के स्तर पर बात करता है . इसलिए यह कनाडा के अपने हित में होगा कि वह भारत से फ़ौरन माफी मांगे और आगे से तमीज से आचरण करने का भरोसा दिलाये

Monday, January 11, 2010

फिर पूछें कि कौन दुश्मन है ..

शेष नारायण सिंह
(rejectmaal.blogspot.com से साभार)

अपनी स्थापना के समय से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तल्खी कई स्तर पर महसूस की जाती रही है. पाकिस्तानी हुक्मरान शुरू से जानते रहे हैं कि 1947 के पहले के भारत में रहने वाले मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बना कर पाकिस्तान की स्थापना की गयी थी. आखिर तक, मुहम्मद अली जिन्ना ने यह नहीं बताया था कि पाकिस्तान की सीमा कहाँ होगी. क्योंकि अगर वे सच्चाई बता देते तो अवध और पंजाब के ज़मींदार मुसलमान अपनी खेती बारी छोड़ने को तैयार न होते और पाकिस्तान की अवधारणा ही खटाई में पड़ जाती. लेकिन पाकिस्तान बन गया है और वह आज एक सच्चाई है ..एक सच्चाई यह भी है कि दोनों देशों के बीच कई स्तर पर नफरत और दुश्मनी का भाव है सभ्य समाज में लगभग सभी मानते हैं कि यह दुश्मनी ख़त्म की जानी चाहिए.

भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती की एक नयी पहल की गयी है. भारत और पाकिस्तान के कुछ अखबारों की कोशिश है कि दोनों देशों की जनता पहल करे और दोस्ती की जो लहर चले, वह दोनों मुल्कों के सरकारी तौर पर जिंदा रखे जा रहे दुश्मनी के भूत को भागने के लिए मजबूर कर दे. कोशिश यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बनायी गयी सरहद की दीवाल इतनी नीची कर दी जाए कि कोई भी मासूम बच्चा उसे पार कर ले. दर असल पाकिस्तान का बनना ही एक ऐसी राजनीतिक चाल थी जिसने आम आदमी को हक्का-बक्का छोड़ दिया था. इसके पहले कि उस वक़्त के भारत की जनता यह तय कर पाती कि उसके साथ क्या हुआ है, अंग्रेजों की शातिराना राजनीति और भारत के नेताओं की अदूरदर्शिता का नतीजा था कि अंग्रेजों की पसंद के हिसाब से मुल्क बँट गया.

बँटवारे के इतिहास और भूगोल पर चर्चा बार बार हो चुकी है . चर्चा करने से एक दूसरे के खिलाफ तल्खी बढ़ती है. इस लेख का उद्देश्य पहले से मौजूद तल्खी को और बढ़ाना नहीं है. हाँ यह याद करना ज़रूरी है कि पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति चाहे जो हो, 1947 के बाद सरहद के इस पार बहुत सारे घरों के आँगन में पाकिस्तान बन गया है और वह अभी तक तकलीफ देता है ..राजनीतिक नेताओं की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हुए बँटवारे ने अवाम को बहुत तकलीफ पंहुचायी है. दुनिया मानती है कि 1947 में भारत का विभाजन एक गलत फैसला था . बाद में तो बँटवारे क एसबसे बड़े मसीहा, मुहम्मद अली जिन्ना भी मानने लगे थे..विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने लिखा है कि अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें. बहरहाल पछताने से इतिहास के फैसले नहीं बदलते ..

बँटवारे के बाद ,पंजाब की तो आबादी का ही बँटवारा हो गया था. सरहद के दोनों तरफ के लोग रो पीट कर एक दूसरे के हिस्से में आये मुल्क में रिफ्यूजी बन कर आज 60 साल से रह रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के बहुत सारे जिलों से लोग कराची गए थे इस लालच में कि पाकिस्तान में मुसलमानों को अच्छी नौकरी मिलेगी.यहाँ उनका भरा पूरा परिवार था लेकिन वहां से कभी लौट नहीं पाए . उनके लोगों ने वर्षों के इंतज़ार के बाद अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से जीने का फैसला किया और वह तकलीफ अब तक है..आज भी जब कोई बेटी, जो पाकिस्तान में बसे अपने परिवार के लोगों में ब्याह दी गयी है , जब भारत आती है तो उसकी माँ उसके घर आने की खुशी का इस डर के मारे नहीं इज़हार कर पाती कि बच्ची एक दिन चली जायेगी. और वह बीमार हो जाती है . उसी बीमार माँ की बात वास्तव में असली बात है . नेताओं को शौक़ है तो वे भारत और पाकिस्तान बनाए रखें, राज करें ,सार्वजनिक संपत्ति की लूट करें, जो चाहे करें लेकिन दोनों ही मुल्कों के आम आदमी को आपस में मिलने जुलने की आज़ादी तो दें. अगर ऐसा हो गया तो पाकिस्तान और हिन्दुतान सरहद पर तो होगा , संयुक्त राष्ट्र में होगा, कामनवेल्थ में होगा लेकिन हमारे मुल्क के बहुत सारे आंगनों में जो पाकिस्तान बन गया है , वह ध्वस्त हो जाएगा.फिर कोई माँ इसलिए नहीं बीमार होगी कि उसकी पाकिस्तान में ब्याही बेटी वापस चली जायेगी . वह माँ जब चाहेगी ,अपनी बेटी से मिल सकेगी. इसलिए दोनों देशों के बड़े अखबारों की और से शुरू किया गया यह अभियान निश्चित रूप से स्वागत योग्य है ..

अखबारों की तरफ से जो अभियान शुरू किया गया है उसमें दोनों देशों की सरकारों और नेताओं को बाईपास करके लोगों के बीच संवाद शुरू करने के लिए सकारात्मक पहल की घोषणा भी की गयी है .. दोनों देशों के बीच अविश्वास और नफरत के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी आपसी बात चीत के रास्ते शुरू करने का आवाहन किया गया है .कोशिश यह है कि विवादों को सुलझाने की नेताओं की कोशिश की परवाह किये बिना,दोस्ती और संवाद की बात चल निकले. आखिर सब कुछ तो एक जैसा है दोनों देशों के बीच में . संगीत, रीति रिवाज़, बोली , भाषा सब कुछ साझा है . हमारे बुज़ुर्ग तक साझी हैं., ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती , हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, बुल्ले शाह , बाबा फरीद,गुरु नानक, कबीर सब साझी हैं. हमारे आस्था के केंद्र अजमेर में भी हैं और पाक पाटन में भी. .हमने आज़ादी की लड़ाई एक साथ लड़ी है. हमारा संगीत वही है . हमारे महान शायर वही हैं . हमारे ग़ालिब और मीर वही हैं और हमारे इकबाल वही हैं .. किशोर कुमार , लता मंगेश्कार, मुहम्मद रफ़ी ,गुलाम अली,आबिदा परवीन और मेहंदी हसन दोनों ही देशों के अवाम के बीच एक ही तरह के जज्बे पैदा करते है . तो फिर हम लड़ते क्यों हैं? जवाब साफ़ है . हम नहीं लड़ते. हमारे नेता लड़ते हैं .क्योंकि उनके अस्तित्व के लिए वह ज़रूरी है .... ज़रुरत इस बात की है कि सरकारों और नेताओं की परवाह न करके दोनों देशों के लोग एक दूसरे से बात चीत करें. दोनों ही देशों के अखबारों ने इस दिशा में पहला क़दम उठा दिया है ..

भारत के बहुत सारे शहरों में 16 से 24 जनवरी के बीच संगीत के कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं जिनमें भारत और पाकिस्तान के नामी संगीतकार हिस्सा लेंगें ..कैलाश खेर, राहत फ़तेह अली खां , शुभा मुद्गल ,आबिदा परवीन,गुलाम अली, हरिहरन आदि संगीतकार इस पहल की पहली कड़ी हैं .. और कोशिश करेंगें कि हमारे दोनों मुल्कों में रहने वाले इंसान एक दूसरे के खिलाफ नहीं बल्कि एक साथ खड़े हों . इस कोशिश की सफलता की कामना की जानी चाहिए.. ...

Saturday, October 3, 2009

आतंकवादी रुखसाना को मार डालेंगे

जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले के कालसी गांव की किशोरी रुखसाना कौसर की बहादुरी के किस्से पूरे देश में सुने जा रहे हैं। उसके परिवार पर हमला करने वालों को अंदाज लग गया है कि जब एक बहादुर लड़की अपनी रक्षा खुद करने का फैसला कर लेती है तो खतरनाक हथियारों से लैस दरिंदे भी हार जाते हैं। रुखसाना से पूछा गया कि इतनी बहादुरी का काम कैसे किया तो विनम्र लड़की ने कहा कि अल्लाह ने मुझे इस मुसीबत की घड़ी में इतनी हिम्मत दी कि मैं उन दहशतगर्दों का मुकाबला कर पाई।
लेकिन उसे डर है कि इतनी बड़ी शिकस्त के बाद दहशतगर्द फिर वापस आएंगे और रुखसाना के परिवार को और खुद उसको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। उसने बताया कि गांव के बाहर पुलिस की एक पिकेट लगा दी गई है लेकिन उसको आशंका है कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उसको आतंकवादी मार डालेंगे। रुखसाना कौसर एक बहादुर लड़की है। उसने आत्मरक्षा में हथियार छीनकर दहशतगर्दों को बता दिया कि अगर औरत अपनी रक्षा का फैसला कर ले तो खतरनाक हथियारों से लैस आतंकवादी भी उसका कुछ बना बिगाड़ नहीं सकता। लेकिन रुखसाना के मन में जो डर है वह एक बहुत बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है।
पिछले 20 साल से कश्मीर में चल रहे आतंकवाद के खेल में आम आदमी की कोई हैसियत नहीं है। सरकार ने कभी भी आम आदमी को शामिल करने की कोशिश नहीं की। जिस मुस्तैदी से वहां सैनिक ताकत का इस्तेमाल करके समस्या को सुलझाने की कोशिश की गई वह हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। कश्मीरी अवाम को भरोसे में लेकर अगर कोशिश की गयी होती तो जम्मू-कश्मीर में हर इंसान अपने हित को सुरक्षित करने के लिए हुकूमत के साथ होता। यह प्रयोग वहां पर सफलतापूर्पक किया जा चुका है। 1947 में जब आजादी मिली तो पाकिस्तान ने कश्मीर पर दावा ठोका था। कश्मीर के राजा हरि सिंह भी दुविधा में थे, कभी स्वतंत्र कश्मीर की बात करते थे, कभी भारत के साथ आने की तो कभी पाकिस्तान के साथ जाने की सोचते थे। इस बीच पाकिस्तानी सेना के सहयोग से कबायलियों का हमला हो गया और हरिसिंह डर गये। उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। सरदार पटेल ने मदद तो दी लेकिन शर्त लगा दी कि आप अपनी मर्जी से भारत के साथ कश्मीर के विलय के कागजों पर दस्तखत कर दें तभी भारतीय सेना वहां जायेगी।
शेख अब्दुल्ला उन दिनों कश्मीरी जनता के हीरो थे। वे भारत के साथ रहना चाहते थे इसलिए पूरा कश्मीरी अवाम भारत के साथ रहना चाहता था। बहरहाल जनता को साथ लेकर चलने से कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। कश्मीर के राजा हरिसिंह की मरजी के खिलाफ भी शेख साहब ने जनता को अपने साथ रखा। 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद सब कुछ बिगड़ गया। उसके बाद तो दिल्ली की सरकारों ने गलतियों पर गलतियां कीं और कश्मीर में केंद्र सरकार के प्रति मुहब्बत खत्म होती गयी। उधर पाकिस्तान ने प्राक्सी वार के जरिए कश्मीर में खून खराबे को बढ़ावा दिया। रुखसाना कौसर का दूसरा डर यह है कि आतंकवादी फिर आएंगे और उसे मार डालेंगे। भारत सरकार के लिए यह मौका है कि वह साबित कर दे कि वह कश्मीरी अवाम की हिफाजत के लिए कुछ भी कर सकती है। रुखसाना की सुरक्षा के लिए वहीं पुलिस पिकेट बना देना कोई बहुत अच्छी योजना नहीं है। इस देश में हजारों लोग ऐसे हैं जिनको चौबीस घंटे की सरकारी सुरक्षा दी जाती है। बहुत सारे ऐसे लोग भी है जिन्हें राज्यों की राजधानियों में जगह दी जाती है जहां वे रह सकें। हजारों विधायकों को शहरों में सभी सुविधाओं से लैस मकान दिए जाते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि वे जनहित और राष्ट्रहित में काम कर रहे हैं। इसलिए उनको सारी सरकारी सुविधाएं दी जा रही हैं। वे सारी सुविधाएं रुखसाना और उसके परिवार को भी दी जा सकती हैं क्योंकि जो काम उसने कर दिखाया है वह बड़े बड़े सूरमा नहीं कर सकते है। उसका काम भी जनहित और राष्ट्रहित का है दरअसल रुखसाना की बहादुरी ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की सफलता के सवाल पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
सच्चाई यह है कि आतंकवादी जमातों ने कश्मीर की जनता के दिमाग में यह दहशत पैदा कर दी थी कि उनको बचाने वाला कोई नहीं है और आम तौर पर लोग डर गए थे। वरना अगर आतंकवाद के शुरुआती दौर में ही लोगों ने मुकाबला किया होता तो दहशतगर्दी के सफल होने की सारी संभावना खत्म हो गई होती। दुनिया भर में आतंकवाद वहीं सफल होता है जहां हुकूमत आम आदमी से कट चुकी होती है और आम आदमी को भरोसा नहीं होता कि सरकार उनकी हिफाजत कर सकेगी। जम्मू कश्मीर में यही हालत थी और आतंकवाद लगभग सफल हो गया। लेकिन रुखसाना कौसर की बहादुरी ने सरकार को एक बेहतरीन मौका दिया है। रुखसाना ने वह कर दिखाया है जो सरकार के कई विभाग नहीं कर सके। सरकार को चाहिए कि वह रुखसाना के परिवार को इतनी सुविधा दे और इतनी इज्जत दे कि पूरे राज्य में यह माहौल बन जाय कि अगर आतंकवाद का सामना हिम्मत से किया जाय तो बाकी जिंदगी बहुत ही अच्छी हो सकती है। अगर इस तरह का माहौल बन गया तो इस बात की पूरी संभावना है कि हर गांव से बहादुर लड़के लड़कियां आगे आएंगे और आतंकवाद का मुकाबला हर मोड़ पर किया जायेगा। इसका फायदा यह होगा कि जनसमर्थन का मुगालता पालने वाले आतंकवादी संगठनों को औकातबोध हो जायेगा। वे आम आदमी को निशाना बनाने की हिम्मत नहीं करेंगे। जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की तैनाती के नाम पर होने वाले खर्च में भी कटौती होगी और कश्मीर में फिर से अमन चैन कायम हो जाएगा।

Saturday, September 26, 2009

आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता

पुलिस ने पटना में एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है जो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई के लिए काम करता था। वह भारतीय सेना में भी कभी नौकरी कर चुका है। उसके ऊपर आरोप है कि उसने भारतीय सेना के बारे में बहुत ही गुप्त जानकारी चुराई और उसे पाकिस्तानी आई.एस.आई. को बेच रहा था। ज़ाहिर है यह काम पैसे के लालच में कर रहा था। वह हिंदू है और उसे मालूम है कि आई.एस.आई. को दिया गया सामान आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि अब सारी दुनिया जानती है कि आई.एस.आई. का काम राह भटक चुके नौजवानों को बेवकूफ बनाकर भारत समेत अन्य देशों के खिलाफ इस्तेमाल करना है।

पाकिस्तान में 70 के दशक में जनरल जिया उल हक ने सत्ता संभाली तब से ही भारत में आतंक फैलाने के लिए राह भटके लोगों का इस्तेमाल होता रहा है। पंजाब में दस साल तक आतंक का जो राज चला उसके पीछे पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक का मुख्य हाथ था। लेकिन भारत के पंजाब में खून की होली खेल रहे लोग ज्यादातर सिख थे। दिल्ली में एक माओवादी नेता को बाद को पकड़ा गया है। आंध्र्रप्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में चल रहे आतंकवादी कारनामों को चलाने वाले संगठन कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (माओवादी) की सबसे महत्वपूर्ण नीति निर्धारक संस्था, पोलिट ब्यूरो के सदस्य कोबाद गांधी का धर्म पारसी है। माले गांव में विस्फोट करने वाले संगठन के लोग प्रज्ञा ठाकुर और रमेश पुरोहित हिंदू हैं।

अयोध्या की बाबरी मस्जिद को विध्वंस करने पर आमादा भीड़ में लगभग सभी हिंदू थे। प्रवीन तोगडिय़ा, अशोक सिंघल सभी हिंदू हैं और आतंक के जरिए अपनी बात मनवा लेने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। कश्मीर में आतंक फैलाने वाले और पाकिस्तान की आई.एस.आई की मदद से तबाही करने वाले लोग मुसलमान हैं। भारतीय संसद पर हमला करने वाले लोग ज्यादातर मुसलमान थे, बजरंग दल का हर सदस्य हिंदू है। गुजरात 2002 के नरसंहार को अंजाम देने वाले लोग भी हिंदू ही बताए गए हैं। इस तरह हम देखते हैं कि आतंकवाद के जरिए अपना लक्ष्य हासिल करने वाले व्यक्ति का उद्देश्य राजनीतिक होता है जिसको पूरा करने के लिए वह उन लोगों का इस्तेमाल करता है जो पूरी बात को समझ नहीं पाते।

पूरी दुनिया में आतंक के तरह तरह के रूप देखे गए है। जब अमरीका में नागरिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू हुई तो शुरुआती काम अमरीका के दक्षिणी शहर, नेशविल में हुआ। तीन साल तक भारत में रहकर जब जेम्स लासन नाम के व्यक्ति ने काम शुरू किया तो उसका सबसे बड़ा हथियार महात्मा गांधी का सत्याग्रह था। इसके पहले अमरीका के अफ्रीकी मूल वाले नागरिक, मानवाधिकारों की लड़ाई के लिए हिंसक तरीके अपनाते थे लेकिन जेम्स लासन ने महत्मा गांधी की तरकीब अपनाई और लड़ाई सिविल नाफरमानी के सिद्घांत पर केंद्रित हो गई। वहां के क्लू, क्लास, क्लान के श्वेत गुंडों ने इन लोगों को बहुत मारा-पीटा, आतंक का सहारा लिया लेकिन लड़ाई चलती रही, शांति ही उस लड़ाई का स्थाई भाव था।

बाद में मार्टिन लूथर किंग भी इस संघर्ष में शामिल हुए और अमरीका में अश्वेत मताधिकार सेग्रेगेशन आदि समस्याएं हल कर ली गईं। अमरीकी मानवाधिकारों को दबा देने की कोशिश कर रहे सभी अश्वते गुंडे आतंक का सहारा ले रहे थे और ईसाई धर्म में विश्वास करते थे। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले व्यक्ति का उद्देश्य हमेशा राजनीतिक होता है और वह भोले भाले लोगों को अपने जाल में फंसाता है। इसलिए आतंकवाद की मुखालिफत करना तो सभ्य समाज का कर्तव्य है लेकिन आतंकवाद को किसी धर्म से जोडऩे की कोशिश करना जहालत की इंतहा है क्योंकि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। आतंकवाद अपने आप में एक राजनीतिक विचारधारा बनती जा रही है।

इसे हर हाल में रोकना होगा। जहां तक भारत का सवाल है, उसने आतंकवाद की राजनीति के चलते बहुत नुकसान उठाया है। महात्मा गांधी की हत्या करने वाले भी आतंकवादी थे और पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित थे। उनके मुख्य साजिश कर्ता वी.डी. सावरकर थे जो हिन्दुत्व के सबसे बड़े अलंबरदार थे। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि हिंदू धर्म का सावरकर के हिंदुत्व से कोई लेना देना नहीं है। इसके बाद भी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याएं भी आतंकवादी कारणों से हुईं। इंदिरा गांधी के हत्यारे सिख थे राजीव गांधी की हत्या हिन्दू आतंकवादियों ने की थी। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले का कोई मजहब नहीं होता। वह सीधे सादे लोगों की भावनाओं को उभारता है और उसका इस्तेमाल अपने मकसद को हासिल करने के लिए करता है।

सवाल यह है कि आतंकवाद को खत्म करने के लिए क्या किया जाय। जवाब साफ है कि किसी भी आतंकवादी को ऐसे मौके न दिए जांय जिससे कि वह मामूली आदमी की भावनाओं को भड़का सके। सरकारों को सख्त होना पड़ेगा और न्यायपूर्ण तरीके से फैसले करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए अगर उस वक्त की सरकारों ने 6 दिसंबर 1992 के दिन अपने कर्तव्य का पालन इंसाफ को ध्यान में रखकर किया होता तो मुस्लिम नवयुवकों का एक बड़ा वर्ग आतंकवादियों की बात को न मानता। लेकिन साफ दिख रहा था कि उत्तरप्रदेश की कल्याण सिंह सरकार और केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार आतंकवादियों के साथ मिली हुई हैं तो नौजवान भटका। इसमें से ही कुछ लोग आंतकवादियों के हत्थे चढ़ गये और इस्तेमाल हो गये।

1992-93 के मुंबई विस्फोट का सारा विस्फोटक मुंबई में तस्करी के चैनल से आया था और उसमें कस्टम अधिकारियों का हाथ था। स्वर्गीय मधु लिमये ने पता लगाया था कि वे सारे कस्टम वाले हिंदू थे। यह लोग पैसे की लालच में काम कर रहे थे। पटना में पकड़ा गया, आई.एस.आई. का कार्यकर्ता भी हिंदू है और पैसे की लालच में था। पंजाब में भी आतंकवाद शुरू तो हुआ पाकिस्तान की शह पर लेकिन अपने आखरी दिनों में पंजाब का आतंकवाद शुद्घ कारोबार बन गया था। इसलिए आतंकवाद को किसी भी मजहब से जोडऩा बहुत बड़ी गलती होगी।

Thursday, September 24, 2009

इस जिन्ना को भी तो देखिए...

जसवंत सिंह ने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में किताब लिखकर आजादी की लड़ाई और देश के बंटवारे के बहुत से मुद्दों को बहस के केंद्र में ला दिया है। इस किताब से भाजपा को दोहरा नुकसान हुआ है। ठीक है, पार्टी को जसवंत सिंह जैसा दूसरा नेता मिल जाएगा लेकिन दूसरे की भरपाई नामुमकिन है।

पिछले कई वर्षों से भाजपा की कोशिश थी कि सरदार पटेल को अपने हीरो के रुप में पेश किया जाए। ये काम काफी सुनियोजित तरीके से चल रहा था और ये संभावना थी कि नेहरू गांधी परिवार के वंशजों में सरदार पटेल के प्रति जो लापरवाह रवैया है, उससे भाजपा की योजना सफल भी हो जाती और किसी दिन सरदार पटेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के अध्यक्ष हो जाते। लेकिन जसवंत सिंह द्वारा अपनी किताब में सरदार पटेल जिन्ना की तुलना में कमतर करने की कोशिश ने राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया और सरदार पटेल की मुखालफत के अपराध में भाजपा को जसवंत सिंह को पार्टी की आलोचना करके जसवंत सिंह ने पार्टी की मुख्य विचारधारा का विरोध किया है।

इस घटना ने बहुत सारे गड़े मुरदे उखाड़ दिए हैं और एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि सरदार पटेल का संघ की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो संघ विरोधी थे और गृह मंत्री के रुप में संघ पर प्रतिबंध उनके आदेश से ही लगाया गया था। दुनिया को ये भी मालूम हो गया कि सरदार पटेल के ही आदेश पर उस वक्त के सरसंघ चालक एम एस गोलवलकर को गांधी जी की हत्या के मुकदमें वाले मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था और ये भी कि संघ से पाबंदी हटाने के लिए सरदार पटेल ने गोलवरकर ने अंडरटेकिंग लिखवाई थी। यानि अगर सरदार पटेल के मन में संघ के प्रति जरा भी मुहब्बत होती को वो मौका पाते ही उसके सरसंघ चालक को इतना जलील न करते। साफ है कि जसवंत सिंह ने ये किताब लिखकर भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है।

जसवंत सिंह की किताब में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पहले से मालूम न हो, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर नए सिरे से समीक्षा का माहौल पैदा करने में इस किताब का बड़ा योगदान है। पाकिस्तान के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार डॉन में वहां के जाने-माने लेखक माहिर अली साहब ने एक नया तथ्य पेश किया है...उनका दावा है कि मुहम्मद अली जिन्ना देश का बंटवारा बिल्कुल नहीं चाहते थे, वो पाकिस्तान की बात इसलिए कर रहे थे कि कांग्रेसी डर जाएं और उनकी हर बात मान लें। उनकी इच्छा थी कि देश आजाद हो और एक ढीला-ढाला फेडरेशन बन जाए जिसमें मुस्लिम इलाकों की चैधराहट जिन्ना के पास रहे और वो जो चाहें करवा सकें। दुनिया जानती है कि बंटवारे के बाद जिन्ना को जो पाकिस्तान मिला वो उससे संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने कहा कि मुझे एक मॉथ ईटेन पाकिस्तान यानी कीड़ों से खाया हुआ पाकिस्तान मिला है। जिन्ना को उम्मीद थी कि कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद वगैरह भी उनको पाकिस्तान के हिस्से के रूप में मिल जाएगा।

जाहिर है पाकिस्तान की मांग जिन्ना की अदूरदर्शिता का परिणाम थी। वो कभी किसी संघर्ष में शामिल नहीं हुए थे इसलिए उनको अंदाजा नहीं था कि आजादी कितनी मुश्किल से मिली थी। अंग्रेजों की मदद और प्रेरणा से मुल्क का बंटवारा तो हो गया लेकिन बाद में जिन्ना को बहुत पछतावा हुआ बंटवारे के तुरंत बाद पाकिस्तान टाइम्स ने जिन्ना को जहाज पर बैठाकर उन इलाकों के हवाई सर्वे कराए जहां शरणार्थी शिविर लगाए गए थे। लोगों की बदहाली देखकर जिन्ना सन्न रह गए और कहा, “या खुदा, ये मैंने क्या कर डाला?”

विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने अपनी किताब, इंडिया समर- सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एम्पायर में लिखा है कि पाकिस्तान की स्थापना में जिन्ना से ज्यादा अंग्रेजों का योगदान है। टुंजेलमान ने लिखा है, “अगर जिन्ना पाकिस्तान के कायदे आजम हैं तो ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को पाकिस्तान का चाचा माना जाना चाहिए, क्योंकि इस्लामी राज्य गठित करके कांग्रेस को औकात बताने की साजिश उन्ही की थी।” टुंजेमान ने एक और दिलचस्प बात लिखी है अपनी किताब में। उनके मुताबिक अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफू है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें।

इतिहास किसी को माफ नहीं करता, वो जिन्ना को भी माफ नहीं करेगा क्योंकि आजादी के 6 दशक बाद भी जिन्ना की बात पर जिन लोगों ने विश्वास किया था वो चैन से नहीं हैं। फौजी तानाशाहों और अमेरिकी दादागीरी झेल रही पाकिस्तान की आवाम में बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी परेशानियों के लिए जिन्ना को जिम्मेदार मानते हैं। यानी जिन्ना का जिक्र सरहदों के दोने तरफ परेशानी पैदा करता है।

ये लेख अमर उजाला में 24 सितंबर को छपा है...

Sunday, August 30, 2009

आडवाणी और झूठ का राजनीति शास्त्र

बीजेपी के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को आज कल अखबारों, टीवी चैनलों में और खबरिया पोर्टलों में खूब कवरेज मिल रही है उनका एक झूठ चर्चा का विषय बना हुआ है। उन पर आरोप है कि उन्होंने मुल्क को गुमराह किया कि जैशे मुहम्मद के मुखिया मसूद अज़हर की रिहाई में उनका हाथ नहीं था और अपने फैसलों को अपना कह पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।

यह आडवाणी के लिए बड़ा झटका है। पिछले दो-तीन साल से प्रधानमंत्री पद की उम्मीद लगाए बैठे थे और अपने को मजबूत नेता बता रहे थे। उनकी पार्टी में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो आडवाणी की हर बात को सही ठहराते हैं। इस समूह में कुछ स्वनाम धन्य पत्रकार भी हैं और कुछ ऐसे नेता हैं जो आडवाणी के प्रभाव से ओहदा पद पाते रहते हैं। ये लोग भी आस लगाए बैठे थे कि अगर मजबूत नेता, निर्णायक सरकार कायम हुई तो कुछ न कुछ हाथ आ जाएगा। बहरहाल सरकार बनने की संभावना तो कभी नहीं थी सो नहीं बनी लेकिन आज कल आडवाणी अपनी झूठ बोलने की आदत के चलते मुसीबत में हैं।

झूठ बोलने के कारण यह संकट लालकृष्ण आडवाणी पर पहली बार आया है ऐसा शायद इसलिए हुआ कि कंधार विमान अपहरण कांड के मामले में उन्होंने गलत बयानी की जो कि राष्ट्रीय महत्व का मामला था। देश की गरिमा से समझौता करने वाली उस वक्त की राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति के सबसे शर्मनाक फैसले से वे अपने को अलग करने अपने बाकी साथियों को नाकारा साबित करने के चक्कर में बेचारे बुरे फंस गए। ऐसा नहीं है कि आडवाणी ने पहली बार झूठ बोला हो, वे बोलते ही रहते हैं उनकी इस आदत से परिचित लोग, बात को टाल देते हैं या कभी कभार उनका मजाक बनाते हैं।

एक बार अपनी शिक्षा को लेकर उन्होंने कोई बयान दिया था। बिहार के नेता लालू प्रसाद ने सिद्घ कर दिया कि जिस कोई की बात आडवाणी कर रहे थे, वह उस कॉलेज में था ही नहीं। आडवाणी ने लालू यादव की बात का कभी खंडन नहीं किया। ऐसे बहुत सारे मामले हैं लेकिन कंधार विमान अपहरण कांड जैसा मामला कोई नहीं इसलिए पूरे मुल्क में इस बात की चिंता है कि अगर किसी वजह से भी बीजेपी जीत गई होती तो यह आदमी देश का नेता होता तो हमारा क्या होता। शुक्र है कि हम बच गए।

लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ अरसा पहले एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि कंधार कांड में जो राष्ट्रीय अपमान हुआ था, उससे उनका कोई लेना देना नहीं था, उन्हें मालूम ही नहीं था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को लेकर कंधार जा रहे हैं। प्रधानमंत्री पद के लालच में उन्होंने अपने आपको राष्ट्रीय शर्म की इस घटना से अलग कर लिया था। जबकि यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति में लिया गया। यह समिति सरकार की सबसे ताकतवर संस्था है।

इसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होते हैं और गृहमंत्री, रक्षामंत्री व वित्तमंत्री और विदेशमंत्री सदस्य होते हैं। इसे एक तरह से सुपर कैबिनेट भी कहा जा सकता है। कंधार में फंसे आईसी 814 को वापस लगाने के लिए तीन आतंकवादियों को छोडऩे का फैसला इसी कमेटी में लिया गया था। अब पता लग रहा है कि फैसला एकमत से लिया गया था यानी अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नाडीस, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह सब की राय थी कि आतंकवादियों को छोड़ देना चाहिए। आडवाणी इस मसले से अपने को अलग कर रहे थे और यह माहौल बना रहे थे कि उनकी जानकारी के बिना ही यह महत्वपूर्ण फैसला ले लिया गया था।

जाहिर है उनके बाकी साथी आडवाणी की इस चालाकी से नाराज थे और अब जार्ज फर्नांडीज यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने आडवाणी के ब्लाक को उजागर कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की तबीयत ठीक नहीं है वरना वह भी अपनी बात कहते। सवाल यह उठता है कि जब पिछले दो साल से आडवाणी इतने महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मामले पर गलत बयानी कर रहे थे। तो इन तीन महत्वपुरुषों ने सच्ची बात पर परदा डाले रखना क्यों जरूरी समझा? यह जानते हुए कि इतनी बड़ी बात पर खुले आम झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति प्रधानमंत्री पद हथियाने के चक्कर में है उसे इन लोगों ने नहीं रोका।

रोकना तो खैऱ दूर की बात है आडवाणी को प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में ऐसे लोग शामिल रहे, उनकी जय-जय कार करते रहे। इस पहेली को समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह लोग भी लालच में रहे होंगे कि सरकार बनने पर इन्हें भी कुछ मिल जाएगा। जो भी हो अब कंधार जैसे महत्वपूर्ण मामले पर उस वक्त की एन.डी.ए. सरकार के गैर जि़म्मेदाराना रुख़ से जाल साजी की परतें वरक-दर-वरक हट रही है।

सवाल यह उठता है कि जिस पार्टी की टॉप लीडरशिप सच्चाई को छुपाने के इतने बड़े खेल में शामिल रही हो उसको क्या सजा मिलनी चाहिए। देश को जागरुक जनता का इन लोगों की जवाब देही सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।

टॉप के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार की जांच करने वाले सरकारी विभागों को हिदायत दी है कि ऊंचे पदों पर बैठे भ्रष्ट अधिकारियों और जिम्मेदार लोगों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करें और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने में मदद करें। प्रधानमंत्री ने सरकारी अधिकारियों को फटकार लगाई कि छोटे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के कारनामों को पकड़कर कोई वाहवाही नहीं लूटी जा सकती, उससे समाज और राष्ट्र का कोई भला नहीं होगा। प्रधानमंत्री ने जो बात कही है वह बावन तोले पाव रत्ती सही है और ऐसा ही होना चाहिए।

लेकिन भ्रष्टाचार के इस राज में यह कर पाना संभव नहीं है। अगर यह मान भी लिया जाय कि इस देश में भ्रष्टाचार की जांच करने वाले सभी अधिकारी ईमानदार हैं तो क्या बेईमान अफसरों की जांच करने के मामले में उन्हें पूरी छूट दी जायेगी। क्या मनमोहन सिंह की सरकार, भ्रष्ट और बेईमान अफसरों और नेताओं को दंडित करने के लिए जरूरी राजनीतिक समर्थन का बंदोबस्त करेगी।

भारतीय राष्ट्र और समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के सपने को पूरा करने के लिए जरूरी है कि राजनेता ईमानदार हों। जहां तक डा. मनमोहन सिंह का प्रश्न है, व्यक्तिगत रूप से उनकी और उनकी बेटियों की ईमानदारी बिलकुल दुरुस्त है, उनके परिवार के बारे में भ्रष्टाचार की कोई कहानी कभी नहीं सुनी गई। लेकिन क्या यही बात उनकी पार्टी और सरकार के अन्य नेताओं और मंत्रियों के बारे में कही जा सकती है।

राजनीति में आने के पहले जो लोग मांग जांच कर अपना खर्च चलते थे, वे जब अपनी नंबर एक संपत्ति का ब्यौरा देते हैं तो वह करोड़ों में होती है। उनकी सारी अधिकारिक कमाई जोड़ डाली जाय फिर भी उनकी संपत्ति के एक पासंग के बराबर नहीं होगी। इसके लिए जरूरी है सर्वोच्च स्तर पर ईमानदारी की बात की जाय। प्रधानमंत्री से एक सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर सीबीआई का कोई जांच अधिकारी किसी भ्रष्टï मंत्री से पूछताछ करने जाएगा तो उस गरीब अफसर की नौकरी बच पाएगी। जिस दिल्ली में भ्रष्टाचार और घूस की कमाई को आमदनी मानने की परंपरा शुरू हो चुकी है, वहां भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या कोई अभियान चलाया जा सकेगा?

इस बात में कोई शक नहीं है कि पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था पर आधारित लोकतांत्रिक देश में अगर भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से नकेल न लगाई जाये तो देश तबाह हो जाते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक खुशहाली की पहली शर्त है कि देश में एक मजबूत उपभोक्ता आंदोलन हो और भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से नियंत्रण हो। मीडिया की विश्वसनीयता पर कोई सवालिया निशान न लगा हो। अमरीकी और विकसित यूरोपीय देशों के समाज इसके प्रमुख उदाहरण हैं। यह मान लेना कि अमरीकी पूंजीपति वर्ग बहुत ईमानदार होते हैं, बिलकुल गलत होगा।

लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां मौजूद तंत्र ऐसा है कि बड़े-बड़े सूरमा कानून के इ$कबाल के सामने बौने हो जाते हैं। और इसलिए पूंजीवादी निजाम चलता है। प्रधानमंत्री पूंजीवादी अर्थशास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं, उनसे ज्यादा कोई नहीं समझता कि भ्रष्टाचार का विनाश राष्ट्र के अस्तित्व की सबसे बड़ी शर्त है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने कहा कि ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए हमलावर तेवर अपनाने की जरूरत है। जनता में यह धारणा बन चुकी है कि सरकार की भ्रष्टाचार से लडऩे की कोशिश एक दिखावा मात्र है। इसको खत्म किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री को इस बात की तकलीफ थी कि गरीबों के लिए शुरू की गई योजनाएं भी भ्रष्टाचार की बलि चढ़ रही है।

उन्होंने कहा कि इसके जरूरी ढांचा गत व्यवस्था बना दी गई है, अब इस पर हमला किया जाना चाहिए। डा. मनमोहन सिंह को ईमानदारी पर जोर देने का पूरा अधिकार है क्योंकि जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई के बाद वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन पर व्यक्तिगत बेईमानी का आरोप उनके दुश्मन भी नहीं लगा पाए। लेकिन क्या उनके पास वह राजनीतिक ताकत है कि वे अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकें। मंत्रिमंडल के गठन के वक्त उनको अपनी इस लाचारी का अनुमान हो गया था। क्या उन्होंने कभी सोचा कि इस जमाने में नेताओं के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सकती है। जिस देश में नेता लोग सवाल पूछने के लिए पैसे लेते हों, जन्मदिन मनाने के लिए बंगारू लक्ष्मण बनते हों, कोटा परमिट लाइसेंस में घूस लेते हों, अपनी सबसे बड़ी नेता को लाखों रुपए देकर टिकट लेते हों, हर शहर में मकान बनवाते हों उनके ऊपर भ्रष्टाचार विरोधी कोई तरकीब काम कर सकती है।

सबको मालूम है कि इस तरह के सवालों के जवाब न में दिए जाएंगे। अगर भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना करनी है कि प्रधानमंत्री को चाहिए कि एक पायेदार जन जागरण अभियान चलाएं और समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने में अपना योगदान करें। हमें मालूम है कि किसी एक व्यक्ति की कोशिश से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा लेकिन क्या प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के राक्षस को तबाह करने के लिए पहला पत्थर मारने को तैयार हैं। अगर उन्होंने ऐसा करने की राजनीतिक हिम्मत जुटाई तो भ्रष्टाचार के खत्म होने की संभावना बढ़ जाएगी लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी सरकार के पांच भ्रष्टतम मंत्रियों को पकड़वाना होगा।

Wednesday, August 26, 2009

न्यायपालिका की पवित्रता में इज़ाफा

जजों की संपत्ति का मामला बहस के दायरे में आ गया है। न्यायपालिका को एक पवित्र संस्था माना जाता है। आजादी के बाद संविधान सभा की बहसों में उस वक्त के महान नेताओं को भरोसा था कि न्यायपालिका के रखवाले अपना काम ईमानदारी से करेंगे और उनकी आर्थिक स्थिति कभी भी विवाद का विषय नहीं बनेगी। इसलिए यह परंपरा बनी कि जजों की संपत्ति को मुकदमे बाजी का विषय नहीं बनने दिया जायेगा।

जब राजनीतिक नेताओं और बेईमान अफसरों ने घूस के जरिए अकूत संपत्ति बनाना शुरू किया तो जनमत के दबाव के चलते ऐसे कानून बने कि उनको ईमानदार बनाए रखने के लिए कानून का डंडा चलाया गया। नेताओं को तो हलफ नामा देकर अपनी संपत्ति घेषित करने का कानून बन गया और वह सूचना सार्वजनिक भी कर दी जाती है। लेकिन ऐसी जरूरत नहीं पड़ी थी कि जजों के बारे में ऐसा कानून बनाया जाय। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जजों के भ्रष्टïाचार के बहुत सारे मामले अखबार में छपे हैं। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक जज साहब के ऊपर तो महाभियोग की तैयारी भी हो गई थी, उसी हाईकोर्ट की एक जज पिछले साल नकद रिश्वत लेने के मामले में भी चर्चा में आ गई थीं।

कलकत्ता हाईकोर्ट के जज साहब भी विवादों के घेरे में हैं लेकिन कानून ऐसे हैं कि बहुत कुछ किया नहीं जा सकता बहुत सारे फैसले भी विवाद का विषय बन गए हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बना कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों पर भी मीडिया या अन्य मंचो पर भ्रष्टाचार से संबंधित बहसों का सिलसिला शुरू हो गया। मांग उठने लगी कि जजों की संपत्ति सार्वजनिक की जाय और उसे सार्वजनिक डोमेन में डाला जाय। इस बात के लागू होने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि ईमानदार जजों के सामने परेशानी खड़ी हो सकती है लेकिन उससे भी बड़ा खतरा न्यायपालिका के भ्रष्टाचार का है। पिछले कुछ वर्षों से तो कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भी उंगली उठाने लगे हैं।

और जाने अनजाने जजों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। यह हमारे देश के जनतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इस विवाद पर विराम देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केजी गोपालकृष्णन ने स्थिति को स्पष्टï करते हुए कहा कि अवांछित विवादों से बचाने के लिए जजों की संपत्ति की घोषणा तो हो सकती है लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए। माना जहा रहा था कि बहस यहीं खत्म हो जायेगी लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति डीवी शैलेंद्र कुमार ने एक अखबार में लेख लिखकर मामले को गंभीर बहस के दायरे में ला दिया।

जस्टिस कुमार ने भारत के मुख्य न्यायधीश की अधिकार सीमा पर ही सवाल उठा दिया। उन्होंने कहा कि सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं है कि वे जजों की संपत्ति की घोषणा और उसको सार्वजनिक करने के बारे में बात करें। उन्होंने यह भी कहा कि यह अवधारणा गलत है कि ऊंची अदालतों के जज अपनी संपत्ति को सार्वजनिक नहीं करना चाहते। उन्होंने कहा कि वे तो चाहते हैं कि उनकी सारी संपत्ति का ब्यौरा हाईकोर्ट की वेबसाइट पर डाल दिया जाय। जस्टिस कुमार की बात को न्यायविदों के बीच बहुत गंभीरता से लिया जा रहा है और उसकी तारीफ भी हो रही है। लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति के जी गोपालकृष्णन ने न्यायपालिका के आंतरिक मामलों की इस बहस को सार्वजनिक करने के न्यायमूर्ति कुमार के तरीके को ठीक नहीं माना और कहा कि इस तरह का आचरण एक जज के लिए ठीक नहीं है।

न्यायमूर्ति गोपालकृष्णन ने कहा लगता है कि कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस डीवी शैलेंद्र कुमार प्रचार के भूखे हैं। उन्होंने अपने बयान के बारे में बताया कि अगर कोई जज अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करना चाहता है तो उसे मैं नहीं रोकूंगा लेकिन जहां तक सभी जजों के बारे में बोलने के अधिकार की बात है, उसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत के मुख्य न्यायाधीश होने के नाते उन्हें यह अधिकार उपलब्ध है।

बाकी दुनिया की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी ऐसे ही होता है। जजों की संपत्ति के बारे में दबी जबान से चर्चा तो बहुत दिनों से चल रही थी लेकिन इस पर बहस नहीं होती थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले पर अपनी बात को मीडिया के माध्यम से बहस के दायरे में लाकर एक बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है। कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, जस्टिस कुमार ने बहस को अखबारी बहस का विषय बनाया तो कुछ अन्य जज अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर संपत्ति के इस विवाद में शामिल हो रहे हैं।

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति के कन्नन ने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर दी है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर सारी जानकारी डाल दी है। और सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को चिट्ठी लिखकर अपनी पत्नी और अपने नाम अर्जित की गई सारी संपत्ति का ब्यौरा दे दिया है। प्रशांत भूषण ही जजों के भ्रष्टाचार के बारे में आंदोलन चला रहे हैं। उधर चेन्नई से खबर है कि मद्रास हाईकोर्ट के एक जज भी अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। इस सारे घटनाक्रम का स्वागत किया जाना चाहिए और देश को भारत के मुख्य न्यायाधीश का आभार व्यक्त करना चाहिए जिन्होंने इतने नाजुक मसले पर बहस का माहौल बनाया। इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता को बहुत ताकत मिलेगी।

Friday, August 21, 2009

अकाल का खतरा और मीडिया की ज़िम्मेदारी

देश में सूखा पड़ गया है, खेती चौपट हो चुकी है। खरीफ की फसल के लेट होने वाली बारिश से संभलने की उम्मीद दम तोड़ चुकी है। जिसके पास कुछ पैसे नौकरी या व्यापार का सहारा होगा उनको तो भरपेट खाना मिलेगा वरना रबी की फसल तैयार होने तक भारत के गांवों में रहने वालों का वक्त बहुत ही मुश्किल बीतने वाला है।

नई दिल्ली में सभी राज्यों के कृषि मंत्रियों का सम्मेलन बुलाया गया था जिसमें केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया कि 10 राज्यों के 246 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। अभी और भी जिलों के इस सूची में शामिल किये जाने की बात भी सरकारी स्तर पर की जा रही है। इसका मतलब यह हुआ कि धान की पैदावार में करीब 170 लाख टन की कमी आ सकती है। इस सम्मेलन में बहुत सारे आंकड़े प्रस्तुत किए गए और सरकारी तौर पर दावा किया गया कि खाने के अनाज की कुल मात्रा में जितनी कमी आएगी उसे पूरा कर लिया जायेगा।

सारा लेखा जोखा बता दिया गया और यह बता दिया गया कि सरकार 60 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी खर्च करके मंहगाई को काबू में कर लेगी। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन की खबर ज्यादातर अखबारों में छपी है। लगभग सभी खबरों में तोता रटन्त स्टाइल में वही लिख दिया गया है जो सरकारी तौर पर बताया गया। सारी खबरें सरकारी पक्ष को उजागर करने के लिए लिखी गई हैं, जो बिलकुल सच है। लेकिन एक सच और है जो आजकल अखबारों के पन्नों तक आना बंद हो चुका है।

वह सच है कि भूख के तरह-तरह के रूप अब सूखा ग्रस्त गांवों में देखे जायेंगे लेकिन वे खबर नहीं बन पाएंगे। खबर तब बनेगी जब कोई भूख से तड़प तड़प कर मर जायेगा। या कोई अपने बच्चे बेच देगा या खुद को गिरवी रख देगा। भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इंतहा है। लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं, भूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है।

इन आंकड़ाबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेर कर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करें, इसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता है, तभी इस देश का नेता और पत्रकार जगता है। गांव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता।

कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांग कर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीब, सरकारी लापरवाही के चलते मानसून खराब होने पर भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषिव्यवस्था नए शासकों को मिली थी, वह लगभग आदिम काल की थी।

जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा। लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गईं थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल, अयूब ने भी हमला कर दिया। युद्घ का समय और खाने की कमी। बहरहाल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।

अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आवाहन किया कि सभी लोग एक दिन का उपवास रखें। यानी मुसीबत से लडऩे के लिए हौसलों की ज़रूरत पर बल दिया। लेकिन भूख की लड़ाई हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है। लेकिन भूख सब कुछ करवाती है। अमरीका से पी एल 480 योजना के तहत मंगाये गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती हैं।

केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम है कि गांव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहां अनाज खरीदने या मांगने जाता है, तो कितनी बार मरता है, अपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के तोता रटंत पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक महापुरुष ने समझा था।

1967 में कृषि मंत्री रहे सी सुब्रमण्यम ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सच्चाई समझाई थी। उनके प्रयासों से ही खेती को आधुनिक बनाने की कोशिश शुरू हुई, इस प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन का नाम दिया गया। लीक से हटकर सोच सकने की सुब्रमण्यम की क्षमता और उस वक्त की प्रधानमंत्री की राजनीतिक इच्छा शक्ति ने अन्न की पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दिया। खेती से संबंधित हर चीज में सब्सिडी का प्रावधान किया गया। बीज, खाद, कृषि उपकरण, निजी ट्यूबवेल, डीजल, बिजली सब कुछ सरकारी मदद के लायक मान लिया गया। भारत के ज्यादातर किसानों के पास मामूली क्षेत्रफल की जमीनें हैं। भूमि की चकबंदी योजनाएं शुरू हुईं और किसान खुशहाल होने लगा।

लेकिन जब इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आईं तब तक देश में लुंपन राज आ चुका था और गांव के गरीब की खैरियत जानने वाला कोई नहीं था। पिछले 35 वर्षों में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि दिल्ली में बैठा राजनीतिक और नौकरशाह भाग्यविधाता, ग्रीन रिवोल्यूशन की परंपरा के बारे में नहीं सोचता। सुना तो यहां तक गया है कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को राजनीतिक आकाओं की कृपा से फैक्टरी मालिक सीधे हड़प कर जा रहे हैं, किसानों को उसमें से कुछ नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में ज़रूरत इस बात की है कि सूचना क्रांति के हथियारों का इस्तेमाल करके राजनीतिक महाप्रभुओं को सच्चाई का आईना दिखाया जाय और यह काम मीडिया को करना है।

भूख से तड़प तड़प कर मरते आदमी को खबर का विषय बनाना तो ठीक है लेकिन उस स्थिति में आने से पहले आदमी बहुत सारी मुसीबतों से गुजरता है और आम आदमी की मुसीबत की खबर लिखकर या न्यूज चैनल पर चलाकर पत्रकारिता के बुनियादी धर्म का पालन हो सकेगा क्योंकि हमेशा की तरह आज भी आम आदमी की पक्षधरता पत्रकारिता के पेशे का स्थायी भाव है।

Thursday, August 20, 2009

विदेश मंत्रालय की फिल्म- कोई देख नहीं सका


कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।


वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।


आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।


वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।


सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।


अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।


इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।


अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।


उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।


इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।


सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।


गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।


1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।




वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।


शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।


उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।


बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।


1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।


कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।


आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में

उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

गंगा जमुना के दो आब में जन्मी और विकसित हुई इस जबान की ऐतिहासिक यात्रा के बारे में विदेश मंत्रालय की ओर से एक बहुत अच्छी फिल्म बनाई गई है। इस फिल्म का नाम है, ''उर्दू है जिसका नाम'। इसके निर्देशक हैं सुभाष कपूर। फिल्म की अवधारणा, शोध और कहानी सुहैल हाशमी की है। इस फिल्म में संगीत का इस्तेमाल बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया गया है जिसे प्रसिद्घ गायिका शुभा मुदगल और डा. अनीस प्रधान ने संजोया है। शुभा की आवाज में मीर और ग़ालिब की गज़लों को बिलकुल नए अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।


फिल्म पर काम 2003 में शुरू हो गया था और 2007 में बनकर तैयार हो गई थी। अभी तक दूरदर्शन पर नहीं दिखाई गई है। इस फिल्म के बनने में सुहैल हाशमी का सबसे ज्य़ादा योगदान था और आजकल वे ही इसे प्राइवेट तौर पर दिखाते हैं। पिछले दिनों प्रेस क्लब दिल्ली में कुछ पत्रकारों को यह फिल्म दिखाई गई। मैंने भी फिल्म देखी और लगा कि उर्दू के विकास की हर गली से गुजर गया।

Wednesday, August 19, 2009

जंतर-मंतर मरने पहुंचे हैं गोपाल राय

यशवंत सिंह
गोपाल राय पिछले 9 दिन से बिना खाये-पिये जंतर-मंतर पर लेटे हैं। आमरण अनशन कर रहे हैं वे। मित्र हैं। इलाहाबाद में बीए के दिन से। छात्र राजनीति में साथ-साथ सक्रिय हुए थे हम दोनों। बाद में मैं बीएचयू चला गया था और वो लखनऊ विवि। संगठन के होलटाइमर भी साथ-साथ ही बने थे। करीब-करीब साथ-साथ ही संगठन से मोह भी टूटा था। किसी भी तरह का गलत होते न देख पाने वाले गोपाल राय लखनऊ विश्वविद्यालय में गुंडों से हर वक्त टकराया करते थे। उनके व्यक्तित्व में अदम्य साहस और आत्मविश्वास है। भय से तो भाई को तनिक भी भय नहीं लगता। चट्टान की तरह अड़ जाता है।

अब गोपाल राय को कौन समझाए कि दिल्ली में रहने वाले 99 फीसदी लोग सिर्फ पेट के लिए जीते-मरते हैं। इनका किसी से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। संवेदना शब्द अब गरीबों व गांववालों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। बाजार का नशा महानगरों पर इस कदर चढ़ा है कि अगर कोई थोड़ा भी सिद्धांत की बात करता मिल जाए तो लोग उसे फालतू मानकर दाएं-बाएं निकल लेते हैं। ऐसे में गोपाल का किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर आमरण अनशन करना, थोड़ा चौंकाता है, लेकिन यह भरोसा भी दिलाता है कि कुछ पगले किस्म के लोग अब भी विचारों को जीते हैं और देश-समाज की चिंता करते हुए जान न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं।

गोपाल राय से मिलने इसलिए नहीं गया था कि वे किसी महान काम में लगे हैं, इसलिए भी नहीं गया था कि आमरण अनशन के 9वें दिन में प्रवेश करने से उनके स्वास्थ्य को लेकर मुझे विशेष चिंता हो रही थी। सही कहूं तो मैं भी धीरे-धीरे दिल्ली वाला हो रहा हूं, इसलिए बहुत देर तक इमोशन में न फंस पाने की प्रवृत्ति डेवलप हो रही है। गोपाल राय के यहां सिर्फ इसलिए गया था कि इस दिल्ली में जिन दो-चार बहादुर लोगों को देखा है, उसमें पुराने मित्र गोपाल राय भी हैं। गोली लगने के कारण अस्वस्थ रहने वाले शरीर की वजह से ठीक से चल भी नहीं पाते लेकिन गोपाल राय न तो पहले और न अब, कभी छिछले नहीं हुए, कभी औसत नहीं बने, कभी बेचारे बनकर पेश नहीं हुए, कभी किसी तरह की याचना नहीं की। कितने भी दर्द-दुख में रहें, कभी मुस्कराहट नहीं खत्म की।

दोस्ती की वजह से उनसे मिलने जंतर-मंतर गया।
जंतर-मंतर पहुंचा तो टीवी न्यूज चैनलों की ओवी वैन देख माथा ठनका, माजरा क्या है? पता चला कि महंगाई पर भाजपा का कोई कार्यक्रम है जिसमें राजनाथ सिंह आने वाले हैं। संतोष हुआ। चैनल वाले कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, सही रास्ते पर हैं। वरना जंतर-मंतर को अब पूछता कौन है। गोपाल राय सरीखे दर्जनों आंदोलनकारी जंतर-मंतर पर अपने जिनुइन मुद्दों को लेकर बैठे रहते हैं हैं, उधर किसी को देखने की फुर्सत नहीं है। लेकिन अगर राजनाथ सिंह जंतर-मंतर टहलने भी पहुंच जाएं तो उन्हें कवर करने मीडिया का मेला पहुंच जाएगा।


इतिहास का जो चारण-भाट दौर था, उसमें भी लेखक-बुद्धिजीवी सिर्फ बड़े राजाओं-महाराजाओं-राजकुमारों-महारानियों-राजकुमारियों-मंत्रियों मतलब कुलीन लोगों के बारे में ही लिखते-पढ़ाते थे। आम जन की स्थिति के बारे में कलम चलाने वाला कोई नहीं था। पूंजीवाद और विज्ञान के विकास ने इतिहास को जड़ों से जोड़ा लेकिन अबका जो चरम पूंजीवाद, बोले तो, बाजारवाद है, वह फिर से इतिहास को पलट रहा है।

देश में अकाल पड़ा हुआ है, लोग भूखों मर रहे हैं, इस पर टीवी वालों को प्राइम टाइम में स्पेशल स्टोरीज चलानी चाहिए, अपनी विशेष टीमें अकालग्रस्त इलाकों की ओर रवाना करनी चाहिए पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। डाउन मार्केट कहकर आंदोलन, सूखा, अकाल, मंहगाई सबको खारिज किया जा रहा है। अगर इन्हें पकड़ा भी जा रहा है तो सिर्फ बड़े नेताओं के बयानों के जरिए। पीएम ने बयान दे दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया। राजनाथ ने विरोध कर दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया।

यही है मीडिया?
गोपाल भाई से अनुरोध किया- अंधों की नगरी में हरियाली लाने के लिए काहे जान दे रहे हैं, ये अनशन-वनशन खत्म करिए। जान है तो जहान है। आजकल यही फंडा है।
इतना सुनकर गोपाल सिर्फ मुस्कराए और बोले- आप बस इतना करा दीजिए कि यह मसला सौ-पचास नए लोगों तक पहुंच जाए, तो समझिए आपकी सफलता है, बाकी मेरी जान की चिंता छोड़िए। मेरे रहने न रहने से क्या फरक पड़ता है।

मैं चुप रह गया।

सोचा, आज जितना भी बिजी रहूं, लेकिन गोपाल भाई पर जरूर कुछ न कुछ लिखूंगा। सो, लिख रहा हूं।
लेकिन मन में कष्ट भी है। गोपाल भाई टाइप लोग कितने हैं इस देश में। ज्यादातर तो मुखौटाधारी हैं, हिप्पोक्रेट हैं, पाखंडी हैं, जो आंदोलन व विचारधारा को पैसा कमाने और बेहतर जीवन जीने का जरिया बनाए हुए हैं या बनाने की फिराक में हैं। कई आंदोलनों को करीब से देख चुका हूं। किस तरह अपने निजी इगो की भेंट आंदोलनों को चढ़ा दिया जाता है, इसका गवाह रहा हूं। किस तरह उन्हीं जोड़-तोड़ व समीकरणों को आंदोलनों में आजमाया जाने लगता है जिनके खिलाफ आंदोलन शुरू किया जाता है, इसे सुन-समझ चुका हूं।

लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि संगठन व आंदोलन गैर-जरूरी हैं। दरअसल, सही कहूं तो मुझे भी लगता है कि इस देश व दुनिया को अगर बचा पाएंगे तो ये जनांदोलन ही। ये जनांदोलन कब, किससे व किसलिए शुरू होंगे या हो रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। वरना देश-दुनिया का कबाड़ा करने की पूरी तैयारी इस देश-दुनिया के कुलीन व अभिजात्य लोग कर चुके हैं।


अगर आपको भी लगे कि गोपाल भाई के आंदोलन को सपोर्ट करना है तो आप जंतर-मंतर पर जाकर
उनसे मिल सकते हैं, गोपाल के आंदोलन को अपने अखबार या टीवी में जगह दे सकते हैं, गोपाल भाई को फोन या मेल कर अपना नैतिक समर्थन व्यक्त कर सकते हैं। शायद, संभव है, हम कुछ लोगों के ऐसा करने से ही गोपाल जैसे जिद्दी और धुन के धनी लोग इस बुरे समय में भी अपने जन की बेहतरी के लिए लड़ने का हौसला कायम रख सकें।

एक बार फिर, गोपाल भाई के हौसले को सलाम।

Wednesday, August 5, 2009

जनता की संपत्ति की पूंजीवादी बंदर बांट

कृष्णा गोदावरी बेसिन से निकलने वाली गैस राष्ट्रीय और प्राकृतिक संपदा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के चक्कर में इस क्षेत्र की गैस की तलाश का काम अस्सी के दशक में रिलायंस ग्रुप की किसी कंपनी को दे दिया गया था। दिल्ली की राजनीति में रिलायंस और उसके सेठ धीरूभाई अंबानी का पिछले तीस साल से बहुत प्रभाव है। धीरूभाई ने उद्योग और व्यापार की दुनिया में बहुत तेजी से ऊंचाइयां तय की हैं। उनके निधन के बाद उनके दोनों बेटों ने कारोबार संभाल लिया था लेकिन कुछ दिन बाद ही मतभेद शुरू हो गए।

आज दोनों भाई अलग हैं और खूब लड़ रहे हैं। जैसा कि पूंजीवादी समाजों में होता है, एक-एक पैसे के लिए लड़ाई चल रही है। धीरूभाई अंबानी के जीवनकाल में ही इस परिवार का देश की राजनीति पर भारी प्रभाव था। उनके जाने के बाद उनके दोनों बेटों की राजनीतिक ताकत बिलकुल कम नहीं हुई है। आजकल कृष्णा गोदावरी गैस का मामला उद्योग व्यापार के साथ-साथ राजनीति के दायरे में भी आ चुका है।

पिछले हफ्ते लोकसभा में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस उत्तर प्रदेश के दादरी पावर प्लांट को दिए जाने में सरकारी गैर जिम्मेदारी का मामला जोर शोर से उठाया था और लोकसभा की कार्यवाही तक स्थगित हो गई थी। मामले के राजनीतिक महत्व के मद्देनजर सरकार ने सोमवार को बयान देने का वायदा किया था। वह बयान आ चुका है। लोकसभा में सरकारी बयानों की सधी हुई भाषा का इस्तेमाल करते हुए पेट्रोलियम मंत्री ने जो बयान दिया है, उससे हर तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं।

उन्होंने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के कृष्णा गोदावरी बेसिन से मिलने वाली गैस का बंटवारा करने के लिए एक नीति बनाई गई है, उसी नीति के हिसाब से बंटवारा होगा। यह नीति क्या है इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। ज़ाहिर है कि नीति है तो सरकारी कागजों में कहीं न कहीं दर्ज ज़रूर होगी। हां उनके बयान का अगला हिस्सा अनिल अंबानी खेमे को मायूस करने वाला है। उसमें मंत्री जी ने कहा कि कृष्णा गोदावरी बेसिन के डी ब्लाक की गैस ऐसे किसी प्लांट को एलाट नहीं की गई है जो उत्पादन की स्टेज तक नहीं पहुंचा है। यानी अनिल अंबानी ग्रुप के दादरी पावर प्लांट का कहीं कोई जिक्र नहीं है।

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुंख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में उत्तर प्रदेश के हितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया था। पेट्रोलियम मंत्री ने कहा कि दादरी प्लांट जब चल ही नहीं रहा है तो उसे गैस देने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने साफ किया जब प्लांट चलने लगेगा तो गैस की उपलब्धता की रौशनी में उसे गैस एलाट करने की बात पर विचार किया जाएगा। अपने इस बयान से पेट्रोलियम मेंत्री ने अंबानी बंधुओं के झगड़े और उससे संबद्घ राजनीति को एकदम नई दिशा दे दी है और निश्चित रूप से यह राउंड बड़े भाई मुकेश अंबानी की झोली में डाल दिया है। अनिल अंबानी की शिकायत यह नहीं है कि दादरी प्लांट चालू होने पर उन्हें गैस मिलेगी कि नहीं।

उनका आरोप है कि भाइयों के बीच कारोबार के बंटवारे के वक्त तय हुआ था कि अनिल अंबानी की कंपनियों के लिए कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस सस्ते दाम पर मिलेगी। हालांकि यह बात सार्वजनिक स्तर पर तो किसी को नहीं मालूम है लेकिन अंदर की बात को बुनियाद बनाकर गैस के बारे में समझौता हुआ था। आमतौर पर माना जाता है कि सरकार और रिलायंस के बीच हुए गैस के बंटवारे के समझौते में रिलायंस को बहुत ही रियायतें दी गई थीं। भाइयों के झगड़े के वक्त इन रियायतों को रिकॉर्ड पर तो नहीं लाया जा सकता था लेकिन अनिल अंबानी को अपनी कंपनियों के लिए मिलने वाली गैस की रियायती कीमत के जरिए बात दुरुस्त कर ली गई थी।

अब बाजार के रेट से गैस देने की बात करके मुकेश अंबानी खेमा अनौपचारिक समझौते से मुकर रहा है। सारी परेशानी की जड़ यही है। जहां तक राजनीतिक बिरादरी का सवाल है, वह इस मुद्दे पर पूरी तरह से विभाजित है। मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेसी नेता और पेट्रोलियम मंत्री पर आरोप लगाया है कि वह मुकेश अंबानी का पक्ष ले रहे हैं जबकि पेट्रोलियम मंत्री के करीबी लोगों का कहना है कि मुलायम सिंह यादव दूसरे अंबानी का पक्ष ले रहे हैं। इस सारी मारामारी में जनता की पक्षधरता वाली राजनीति बहुत कमजोर पड़ रही है।

सवाल पूछा जा रहा है कि कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस वास्तव में जनता से क्यों छीनी जा रही है जबकि जमीन की नीचे की हर संपदा राष्ट्र की संपत्ति होती है और राष्ट्र जनता का है। जब अस्सी के दशक में रिलायंस इंडस्ट्रीज को कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस ढूंढने का काम दिया गया था तो वह एक ठेकेदार की हैसियत से वहां गए थे। पिछले बीस वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि अंबानी परिवार जनता की उस संपत्ति का मालिक बन बैठा। यह सवाल बहुत ही गंभीर है और इसकी पूरी गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। नेताओं को भी चाहिए कि पूंजीपतियों के हित के साथ-साथ थोड़ा बहुत जनता का भी ध्यान दें।

Monday, August 3, 2009

कांग्रेस ने किया मीडिया और विपक्ष का इस्तेमाल

मिस्र के नगर शर्म-अल-शैख में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बीच हुई बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था। दोनों देशों के नेता अपनी घोषित पोजीशन से हटने को तैय्यार नहीं थे। पाकिस्तान लगातार कंपोजि़ट डायलाग की बात करता रहा तो भारत का आग्रह था कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंकवादी हमलों पर पाकिस्तान सही तरीके से विचार करे और अपने मुल्क में काम कर रहे आतंक के ढांचे का विनाश करे।

दोनों ही देशों पर अमरीका का दबाव था। भारत पर अमरीकी दबाव का असर कम पड़ता है लेकिन पाकिस्तान तो लगभग पूरी तरह से अमरीकी मदद पर ही निर्भर है। अमरीका डांट फटकार का पाकिस्तान से कुछ भी करवा सकता है लेकिन उसे एक सीमा से ज्यादा दबाने से सिविलियन सरकार के लिए बहुत मुश्किलें पेश आ सकती हैं। इसलिए शर्म-अल-शैख में भारत ने कंपोजिट डायलाग की बात मानने से इनकार कर दिया और अपने आपको किसी शर्त से मुक्त कर लिया। दोनों नेताओं की बातचीत के बाद जो बयान जारी किया गया उसके अनुसार अभी कोई कंपोजिट डायलाग नहीं होगा, दोनों देशों के विदेश सचिव आपस में मिलते जुलते रहेंगे और अपने विदेश मंत्रियों को बातचीत की जानकारी देते रहेंगे।

जब सही वक्त आएगा तो बातचीत शुरू की जाएगी। ज़ाहिर है कि भारत ने पाकिस्तान को झिटक दिया था और कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया था कि जब भारत चाहेगा तो बातचीत होगी। पहले के भारतीय राजनीतिक कहते रहते थे कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंक के नेटवर्क को जब तक पाकिस्तान खत्म नहीं करता, उससे कोई बातचीत नहीं होगी। शर्म-अल-शैख की यही उपलब्धि है कि वहां यह बात साफ कर दी गई कि आतंक और कंपोजिट डॉयलाग अलग-अलग बातें हैं, दोनों एक दूसरे पर निर्भर नहीं हैं। यानी भारत जब चाहे तब पाकिस्तान से बात करने को स्वतंत्र है, उस पर कोई पाबंदी नहीं है।

इस बातचीत के दौरान पाकिस्तानी खेमे ने भारतीय अधिकारियों को कथित रूप से एक पुलिंदा भी पकड़ा दिया था जिसमें बलूचिस्तान की आजादी की लड़ाई में भारत का हाथ होने की बात कही गई थी। यहां यह समझना जरूरी है कि शर्म-अल-शैख में दोनों पक्षों के बीच में किसी तरह की सहमति नहीं हुई थी बातचीत के बाद तय हुआ था कि फिर मौका लगा तो बातचीत की जायेगी। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गीलानी ने स्वदेश लौटकर अपनी यात्रा को बहुत सफल बताया और मीडिया में इस तरह का माहौल बनाया जैसे भारत विजय करके लौटे हों। पाकिस्तानी मीडिया भी उनकी रौ में बह गया लेकिन सच्चाई सबको मालूम थी। पाकिस्तानी फौज, आईएसआई पाकिस्तानी मीडिया, चीन, अमरीका और यूसुफ रजा गीलानी सबको मालूम था कि भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को एक इंच नहीं दिया है लेकिन सबकी अपनी मुकामी मजबूरियां होती हैं, सबने उसी तरह से बात करना शुरू कर दिया। भारत के मुख्य विपक्षी दल ने भी कहना शुरू कर दिया कि डा. मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में सब कुछ लुटा दिया। भारत में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग अंतर्राष्टï्रीय मामलों की साफ समझ नहीं सकता। इस वर्ग के वरिष्ठ लोग सरकार की विदेश नीति संबंधी आलोचना मुख्य विपक्षी दल की राय को ध्यान में रखकर करते हैं। ज़ाहिर है कि पूरे देश में माहौल बन जाता है कि विपक्षी पार्टी के कुछ लोग जो कह रहे हैं, वही जनता का भी मत है। इस बार भी वही हुआ। पराश्रयी चिंतन पर आधारित मीडिया के मर्मज्ञों ने भारत-पाक रिश्तों पर राग बीजेपी में अलाप लेना शुरू कर दिया। उसी में तरह-तरह की रागिनियां गाई जाने लगीं।

बीजेपी की प्रिय रागिनी जो कमजोर प्रधानमंत्री की कथा पर आधारित है, एक बार फिर चर्चा में आ गई। बीजेपी के प्रवक्ताओं ने कहना शुरू कर दिया कि मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में मनमानी की है और कांग्रेस पार्टी भी उनके साथ नहीं है, उन्होंने संसद को विश्वास में लिए बिना इतनी बड़ी बात कर दी वगैरह-वगैरह। यह बात दस दिनों तक चली और पूरे विपक्ष ने शर्म-अल-शेख में हुई बातचीत और कांग्रेस के ताथाकथित मतभेद पर अपनी सारी ताकत लगा दी। कांग्रेस पार्टी के लिए यह स्थिति बहुत ही अच्छी थी। केंद्रीय बजट पर बहस चल रही थी और मंहगाई का मुद्दा बहुत ही भयानक रुख ले चुका है।

सरकार दावा कर रही है कि मंहगाई की दर बिलकुल घट गई है, हालत बहुत सुधर गए हैं। सच्चाई यह है कि जब आम आदमी दुकान पर कुछ भी खरीदने जाता है तो मंहगाई का दानव उसे घेर लेता है। मंहगाई पूरी तरह से मध्यवर्ग की कमर तोड़ रही है। लेकिन विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे पर संसद में बजट पर बहस के दौरान कोई सवाल नहीं उठाया। जितना महत्व सरकारी प्रधानमंत्री का है, उतना ही महत्व विपक्ष के नेता का भी है। लोकतंत्र में जनता उम्मीद करती है कि नेता विपक्षी दल उसकी तरफ से सरकार पर लगाम लगाए लेकिन दुर्भाग्य है कि इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। मुख्य विपक्ष के नेता वॉक आउट करते रहे, हल्ला मचाते रहे और कांग्रेस के भीतर की कलह के प्रहसन पर उल्टी सीधी टिप्पणी करते रहे।

बिना किसी संकोच कहा जा सकता है कि विपक्ष ने बजट पर हुई बहस के दौरान कोई रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई हां, अगर कोई राष्टï्रीय संकट होता, देश की एकता और अखंडता पर प्रश्न उठ रहे होते तो नून, तेल, लकड़ी की चर्चा को भूल जाना उचित था लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के जिस मतभेद की चर्चा की जा रही थी, उसका आम आदमी से कोई लेना देना नहीं है। वैसे भी दस दिन के हल्ले के बाद कांग्रेस ने स्पष्टï कर दिया कि वह पूरी तरह से प्रधानमंत्री के साथ है, यानी विपक्षी पार्टियों ने एक नॉन इश्यू पर अपनी ताकत बर्बाद की। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने बजट और मंहगाई से विपक्ष का ध्यान बंटाने के लिए यह हालात जान बूझकर पैदा किया था और विपक्ष उस जाल में पूरी तरह उलझ गया। लेकिन इस सारी प्रक्रिया में लोकतंत्र और राजनीति का भारी नुकसान हुआ।

विपक्षी पार्टियों को चाहिए कि आगे इस तरह की स्थिति न आने दें। इस सारे गोरखधंधे में मीडिया की भूमिका पर भी गौर करने की जरूरत है। हमने शर्म-अल-शेख की दोनों प्रधान मंत्रियों की बातचीत के बात जारी की गई विज्ञप्ति को इस तरह से पेश किया जैसे वह किसी समझौते के बाद जारी किया गया घोषणा पत्र हो। ऐसा नहीं था, वह बातचीत की एक तरह से रिपोर्ट थी। उसमें जो सहमति हुई थी वह यह कि जब भी कभी दोनों विदेश सचिव मिलेंगे तो बातचीत करेंगे और अपने विदेश मंत्री को बता देंगे। हां आतंकवाद और कंपोजिट डॉयलाग को एक दूसरे से अलग कर दिया गया था। शर्म-अल-शेख से लौटकर कूटनीति और अंतर्राष्टï्रीय संबंधों के जानकार कद्दावर पत्रकारों ने अपने-अपने अखबारों में इसी तरह के विश्लेषण भी लिखे लेकिन जिन भाइयों की समझ में विज्ञप्ति की भाषा नहीं आई या कूटनीति की बारीकियां नहीं आईं, उन्होंने विपक्षी पार्टी के नेताओं के वक्तव्यों को आधार बनाकर राजनीतिक कूटनीतिक विश्लेषण लिख मारा।

विपक्ष की तो डयूटी है कि वह सरकार को कटघरे में खड़ा करे लेकिन मीडिया की डयूटी सच्चाई को बिना किसी लाग लपेट के बयान करना है। शर्म-अल-शेख वाले मामले में मीडिया का एक बड़ा वर्ग सच्चाई को पकडऩे में गफलत का शिकार हुआ है। कोशिश की जानी चाहिए कि ऐसे मौके दुबारा न आएं। जहां तक विपक्ष का सवाल है वह कांग्रेसी चाल का शिकार हुआ है, उन्हें भी आगे से संभल कर रहना होगा और कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को जनता के हित में काम करने को मजबूर करना होगा।

Saturday, August 1, 2009

बलराज मधोक से एलके आडवाणी तक

आज की भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व अवतार में भारतीय जनसंघ नाम से जानी जाती थी। 60 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद जब कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई तो जनसंघ एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में उभरी। जनसंघ के बड़े नेता थे, प्रो. बलराज मधोक। 1967 में इनके नेतृत्व में ही जनसंघ ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और उत्तर भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में आगे बढ़ रही थी लेकिन 1971 के लोकसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई।

बलराज मधोक भी चुनाव हार गए, उनकी पार्टी में घमासान शुरू हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी नए नेता के रूप में उभरे और बलराज मधोक को जनसंघ से निकाल दिया। पार्टी से निकाले जाने के पहले बलराज मधोक ने 1971 के चुनावों की ऐसी व्याख्या की थी जिसे समकालीन राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी बहुत ही कुतूहल से याद करते है। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और उनकी पार्टी भारी बहुमत से विजयी रही। भारतीय जनसंघ को भारी नुकसान हुआ लेकिन मधोक हार मानने को तैयार नहीं थे।

उन्होंने एक आरोप लगाया कि चुनाव में प्रयोग हुए मतपत्रों में ऐसा केमिकल लगा दिया गया था जिसकी वजह से, वोट देते समय मतदाता चाहे जिस निशान पर मुहर लगाता था, मुहर की स्याही खिंचकर इंदिरा गांधी के चुनाव निशान गाय बछड़ा पर ही पहुंच जाती थी। इस तरह का काम कांग्रेस और चुनाव आयोग ने पूरे देश में करवा रखा था। बलराज मधोक ने कहा कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव जीती नहीं है, केमिकल लगे मतपत्रों की हेराफेरी की वजह से कांग्रेस को बहुमत मिला है। मधोक के इस सिद्घांत को आम तौर पर हास्यास्पद माना गया।

इसके कुछ समय बाद ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। बैलट पेपर पर केमिकल की बात अब तक भारतीय राजनीति में चुटकुले के रूप में इस्तेमाल होती रही है। लोकसभा चुनाव 2009 के बाद भी कांग्रेस को सीटें उसकी उम्मीद से ज्यादा ही मिली हैं। बीजेपी के नेताओं की उम्मीद से तो दुगुनी ज्यादा सीटें कांग्रेस को मिली हैं। बीजेपी वाले चुनाव नतीजों के आने के बाद दंग रह गए। कुछ दिन तो शांत रहे लेकिन थोड़ा संभल जाने के बाद पार्टी के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया कि चुनाव में जो इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन इस्तेमाल की गई उसकी चिप के साथ बड़े पैमाने पर हेराफेरी की गई थी लिहाजा कांग्रेस को आराम से सरकार चलाने लायक बहुमत मिल गया और आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। उसके बाद तेलुगू देशम और राष्ट्रीय जनता दल ने भी यही बात कहना शुरू कर दिया।

ताजा खबर यह है कि दक्षिण मुंबई से शिवसेना के पराजित उम्मीदवार मोहन रावले ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है और प्रार्थना की है कि पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव रद्द कर दिया जाय। उनका कहना है कि ईवीएम से चुनाव करवाने में पूरी तरह से हेराफेरी की गई है। अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में तो उन्होंने लगभग पूरी तरह से ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी पर भरोसा जताया है और वहां के चुनाव को रद्द करने की मांग की है। मानवीय व्यक्तित्व बहुत ही पेचीदा होता है। आम तौर पर सबको जीत की खुशी होती है और पराजय सबको तकलीफ पहुंचाती है। इंसान के व्यक्तित्व की ताकत की परीक्षा पराजय के बाद ही होती है।

मजबूत आदमी अपनी हार से खुश तो नहीं होता लेकिन हारने के बाद अपना संतुलन नहीं खोता। हार के बाद खंभा नोचने वालों को इंसानी बिरादरी में शामिल करना भी बहुत मुश्किल होता है। हार के बाद संतुलन खो बैठना कमजोर आदमी की निशानी है। ईवीएम के अभियान चलाने वाले नेताओं को पता होना चाहिए कि इन मशीनों का आविष्कार लोकतंत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। ईवीएम के खिलाफ आने के बाद बाहुबलियों और बदमाशों की बूथ कैप्चर करने की क्षमता लगभग पूरी तरह से काबू में आ गई है। बैलट पेपर के जमाने में इनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। बंडल के बंडल बैलट पेपर लेकर बदमाशों के कारिंदे बैठ जाते थे और मनपसंद उम्मीदवार को वोट देकर विजयी बना देते थे।

ईवीएम के लागू होने के बाद यह संभव नहीं है। मशीन को डिजाइन इस तरह से किया गया है कि एक वोट पूरी तरह से पड़ जाने के बाद ही अगला वोट डाला जा सकता है। ऐसी हालत में अगर पूरी व्यवस्था ही बूथ कैप्चर करना चाहे और किसी भी उम्मीदवार का एजेंट विरोध न करे तभी उन्हें सफलता मिलेगी। सबको मालूम है कि अस्सी के दशक में गुडों ने जब राजनीति में प्रवेश करना शुरू किया तब से जनता के वोट को लूटकर लोकतंत्र का मखौल उड़ाने का सिलसिला शुरू हुआ था, क्योंकि बूथ कैप्चर करने की क्षमता को राजनीतिक सद्गुण माना जाने लगा था। इसके चलते हर पार्टी ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था।

इस बार बहुत कम बाहुबली चुनाव जीतने में सफल हो सके। जानकार कहते हैं कि बदमाशों के चुनाव हारने में ईवीएम मशीन का भी बड़ा योगदान है। इसलिए इसको बंद करने की मांग करना ठीक नहीं है। अगर फिर बैलट पेपर के जरिए वोट पडऩे लगे तो देश अस्सी के उसी रक्त रंजित दशक की तरह अराजकता की तरफ बढ़ जाएगा। ई.वी.एम. के खिलाफ शुरू किए गए अभियान पर चुनाव आयोग को भी खासी नाराजगी है। चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने एक सेमिनार में कहा कि ई.वी.एम. लगभग फूल-प्रूफ है। इसकी किसी भी गड़बड़ी को कभी भी जांचा परखा जा सकता है। उन्होंने केन्या का उदाहरण दिया जहां चुनाव व्यवस्था बिल्कुल तबाह हो चुकी है, लोकतंत्र रसातल में पहुंचने वाला है।

श्री कुरैशी ने कहा कि केन्या के प्रबुद्घ लोगों ने यह सुझाव दिया कि भारत की तर्ज पर वहां भी ईवीएम का इस्तेमाल किया जाय और चुनाव प्रक्रिया में काम करने वाले अधिकारियों को भारत की मदद से टे्रनिंग दी जाय। इसके अलावा दुनिया के और कई देशों में भी भारतीय ई.वी.एम. मशीनों की तारीफ हो रही है। ज़ाहिर है प्रयोग सफल है और उसके आगे बढ़ते रहने की जरूरत है। ई.वी.एम. मशीनों का विरोध कर रही पराजित पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि चुनाव होता ही इसीलिए है कि कोई हारे और कोई जीते। जो लोग एक बार लोकसभा या विधानसभा चुनाव जीत जाते हैं उन्हें पता चल जाता है कि चुनाव जीतने के बाद सुख सुविधा और ताकत का अंबार लग जाता है। चुनाव हारने के बाद वह सब कुछ काफूर हो जाता है।

ज़ाहिर है कि पराजित व्यक्ति को पछतावा बहुत ज्यादा होता है लेकिन लोकतंत्र के हित में आदमी को धीरज से काम लेना चाहिए। अगर लोकतंत्र रहेगा तो सब कुछ रहेगा और मोहन रावले सहित बाकी लोगों को दुबारा चुनाव जीतने का मौका मिलेगा और अगर बैलट पेपर युग की फिर वापसी हो गई तो पूरी आशंका है कि अपराधियों और बाहुबलियों का लोकतंत्र पर कब्जा हो जाएगा और चुनाव प्रक्रिया पर भी खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। इसलिए राजनीतिक नेताओं को चाहिए कि लोकतंत्र के विकास के रास्ते में कांटे न बिछाएं।