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Monday, August 5, 2013

उत्तर प्रदेश ने हमेशा ही देश की राजनीति को दिशा दी है


शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में आज अराजकता का माहौल है ,कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है लेकिन राजनीतिक रूप से राज्य की ताक़त कभी कम नहीं हुई ,आज भी राजनीतिक हैसियत कम नहीं है . गंगा नदी के प्रवाह के इस मुख्य क्षेत्र में हमेशा से भारतीय राजनीति की दिशा तय होती रही है . आज़ादी के लिए पहली  बार जब इस देश की जनता उठ खड़ी हुई थी तो मई १८५७ की मुख्य लड़ाइयां उत्तर प्रदेश में ही लड़ी गयी थीं.  महात्मा गांधी के नेतृत्व में भी आधुनिक भारत की स्थापना और अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान है . १९२० में आज़ादी की इच्छा रखने वाला हर भारतवासी महात्मा गांधी के साथ था, केवल अंग्रेजों के कुछ खास लोग उनके खिलाफ थे .आज़ादी  की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया . उस वक़्त के हर बड़े नेता ने महात्मा गांधी से आन्दोलन जारी रखने का आग्रह किया लेकिन महात्माजी ने साफ़ कह दिया कि भारतीयों की सबसे बड़ी ताक़त अहिंसा थी .  सच भी है कि अगर हिंसक  रास्ते अपनाए जाते तो अंग्रेजों ने तो़प खोल दिया होता और जनता की  महत्वाकांक्षाओं की वही दुर्दशा होती जो १८५७ में हुई थी. १९२९ और १९३० में जब जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की कांग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया . १९२९ में  कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व उत्तर प्रदेश के हाथ आया तो वह कभी नहीं हटा. ११९३० के दशक में भारत में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए वे किसी भी देश के लिए पूरा इतिहास हो सकते हैं . गवर्नमेंट आफ इन्डिया एक्ट १९३५ के  बाद की अंग्रेज़ी साजिशों का सारा पर्दाफाश  यहीं  हुआ. १९३७ में लखनऊ में  हुए मुस्लिम  लीग के सम्मेलन में ही मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की शह पर द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया और  तुरंत से ही उसका विरोध शुरू हो गया . उस वक़्त के मज़बूत संगठन ,हिंदू महासभा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुए अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धांत का नारा दे दिया  लेकिन उत्तर प्रदेश में उसी साल हुए चुनावों में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ चुकी थीं क्योंकि  यहाँ की जनता ने सन्देश दे दिया था कि भारत एक है और वहाँ दो राष्ट्र वाले  सिद्धांत के लिए कोई जगह  नहीं है . मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को चुनावों में  जनता ने नकार दिया था . कांग्रेस के अंदर जो समाजवादी रुझान शुरू हुई और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़रिये आतंरिक लोकतंत्र को और मजबूती देने की जो कोशिश की गयी उसके दोनों बड़े नेता आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के ही मूल निवासी थे .  
भारतीय राजनीति में  कांग्रेस के विकल्प को तलाशने की  कोशिश भी यहीं शुरू हुई . जब डॉ  राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया तो तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज, मुरादाबाद और जौनपुर में १९६३ के लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . डॉ लोहिया  कन्नौज ,आचार्य जे बी कृपलानी मुरादाबाद और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . इसी प्रयोग के बाद  गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के  इलाके में वह कांग्रेस चुनाव हार गयी और  विपक्षी पार्टी बन  गयी जिसे जवाहर लाल  नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन  पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम  जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है . सभी मानते हैं कि देश में लोकप्रिय सरकार बनाने के लिए ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बनायी जाए. अगर उत्तर प्रदेश में किसी राजनीतिक पार्टी की ताक़त नहीं है तो दिल्ली में सरकार बना पाना असंभव माना जाता है .
अब तक की सच्चाई यही है कि जो भी केन्द्र में सरकार बनाएगा उसे उत्तर प्रदेश में जीत दर्ज करना ज़रूरी है . जो उत्तर प्रदेश में हार गया उसे दिल्ली में सरकार बनाने  का हक भी साथ साथ छोड़ना पड़ता है . १९७७ में पहली बार केन्द्र में गैरकांग्रेस सरकार बनी थी . इस सरकार में उत्तर प्रदेश में जीती गयी जनता पार्टी की ८५ सीटों  का मुख्य योगदान था .उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सभी उम्मीदवार उत्तर प्रदेश में चुनाव हार गए थे ,प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . लेकिन जब १९८० में हुए चनाव में काँग्रेस ने लगभग सभी सीटें जीत लीं  तो उनकी सरकार बन गयी और इंदिरा गांधी  फिर प्रधानमंत्री बनीं.  राजनीतिक पार्टियों के भाग्योदय में  भी उत्तर प्रदेश की राजनीति एक मानदंड का काम करती है . आज का मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी है . लेकिन १९८४ में हुए लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश में नकार दिया गया था . नतीजा  हुआ कि पार्टी पूरे देश में केवल दो सीटों पर सिमट गयी थी. लेकिन जब उत्तर प्रदेश में उसे सफलता मिली तो १९८९ में बीजेपी एक महत्वपूर्ण पार्टी बनी और उसे  केन्द्र में वी पी सिंह की सरकार को बनवाने का मौका मिला . बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में ही बाबरी मसजिद-रामजन्म भूमि विवाद को राजनीतिक स्वरूप दिया और उसी के बल पर केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी . अयोध्या  के विवाद को फिर से मुख्यधारा में लाने की चर्चा आजकल भी है और जानकार बताते हैं  कि २०१४ में बीजेपी , अगर सत्ता में आने में सफल होती है तो उसमें उत्तर प्रदेश का सबसे ज़्यादा योगदान होगा . शायद इसीलिये बीजेपी में  राष्ट्रीय अध्यक्ष के बाद के सबसे महत्वपूर्ण नेता और मुख्य चुनाव प्रचारक नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा ध्यान दिया है . उन्हें मालूम है कि अगर दिल्ली में राज करना  है तो उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ आना होगा . इसीलिये नरेंद्र मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी ,अमित शाह को बीजेपी की तरफ से उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवाया है . बताते हैं कि गुजरात में  नरेंद्र मोदी के चुनाव का सारा प्रबंध अमित शाह ही करते हैं  . बीच में कुछ दिनों के लिए वे गुजरात के राजनीतिक पटल से हटे थे जब उनको  कोर्ट के आदेश पर गुजरात में घुसने से मना कर दिया गया था .
केन्द्र की मौजूदा सरकार  हो या अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ,उसे उत्तर प्रदेश के  नेताओं ने ही जीवनदायिनी शक्ति बख्शी है . केन्द्र की मौजूदा सरकार का अस्तित्व केवल इसलिए बचा है कि उसे मुलायम सिंह यादव और मायावती का समर्थन हर बुरे वक़्त में मिल  जाता है . मायावती जी ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को बचा रखा था और जब उनकी सरकार के मंत्री जगमोहन ने ताज कारिडोर मामला शुरू किया तो मायावती की धमकी के बाद बीजेपी के राजनीतिक प्रबंधकों को बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा था .
इसलिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्व को कभी भी कमतर करके नहीं आँका जा सकता . दिल्ली की सरकार का हर रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुज़रता है शायद इसी लिए २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए भी दोनों ही मुख्य पार्टियां उत्तर प्रदेश को बहुत गंभीरता से ले  रही हैं . मुलायम सिंह यादव और मायावती भी सारी ताक़त के साथ जुटे हैं कि अगर केन्द्र की सरकार में महत्वपूर्ण बने रहना है तो अपने राज्य में उन्हें मजबूती से जीतना पडेगा .

( नवभारत टाइम्स से साभार )

Sunday, August 8, 2010

९ अगस्त सन बयालीस को जिन्ना और सावरकर गाँधी के खिलाफ थे

शेष नारायण सिंह

ठीक ६८ साल पहले महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के कह दिया था कि बहुत हुआ अब आप लोगों की किसी बात का विश्वास नहीं है . आप लोग अपना झोला झंडी उठाइये और भारत का पिंड छोडिये. पूरे देश में आजादी का बिगुल बज गया था. एक ख़ास वर्ग के लोगों के बीच आज जिन नेताओं का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है उनमें से बहुत सारे लोग उन दिनों अंग्रेजों के झंडाबरदार थे लेकिन महात्मा गाँधी की समझ में बात आ गयी थी कि अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए अब किसी मुरव्वत की गुंजाइश नहीं थी, उन्हें भगाने के लिए साफ़ साफ़ कहना पड़ेगा. और उन्होंने ८ अगस्त १९४२ के दिन बम्बई में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में फैसल ले लिया. उसी रात कांग्रेस कमेटी के सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए. भारत छोडो आन्दोलन की याद में उन महान नेताओं को याद कर लेना ज़रूरी है जो आज़ादी के इस महायज्ञ में महात्मा जी के साथ खड़े थे. अंग्रेजों ने आज़ादी के लिए कर रही पार्टी के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था. . आज ६८ साल बाद की बात अलग है लेकिन १९४२ में अंग्रेजों ने हर उस आदमी को सबक सिखाने का फैसला कर लिया था जो भारत की आज़ादी के पक्ष में था. ब्रिटेन की वार कैबिनेट ने जून में ही वायसरॉय को अधिकार दे दिया था कि वह जैसा भी चाहे , कांग्रेसी नेताओं के साथ वैसा व्यवहार कर सकते हैं .. वायसरॉय इस चक्कर में था कि वह भारत छोडो आन्दोलन के प्रस्ताव के पास होते ही महात्मा जी और पूरी कांग्रेस कार्यसमिति को गिरफ्तार कर ले. लेकिन तय यह हुआ कि जब आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी इस प्रातव को मंजूरी दे तब सभी नेताओं को पकड़ा जाए . उनकी मूल योजना थी कि गाँधी जी को देश से बाहर ले जाकर को अदन में नज़रबंद किया जाए और बाकी नेताओं को न्यासालैंड में रखा जाए . लेकिन बाद में मन बदल दिया गया और महात्मा गाँधी को पुणे के आगा खां पैलेस में और कांग्रेस के बाकी नेताओं को अहमदनगर जेल में रखा गया. ९ अगस्त की सुबह पांच बजे सभी नेताओं को सोते से जगाकर पकड़ लिया गया. एक विशेष ट्रेन से सबको पूना ले जाया गया ,जहां महात्मा जी और उनके साथियों को उतार दिया गया. बाकी नेता अहमदनगर जेल ले जाए गए. सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, पट्टाभि सीतारामैय्या और हरेकृष्ण महताब को अलग कमरे मिले थे. जवाहरलाल नेहरू के कमरे में डॉ सैयाद महमूद थे. शंकर राव देव और प्रफुल्ल चन्द्र घोष एक कमरे में थे. आचार्य कृपलानी , गोविन्द बल्लभ पन्त, आचार्य नरेंद्र देव और आसफ अली को एक साथ रखा गया था. डॉ राजेन्द्र प्रसाद बीमार थे इसलिए आ नहीं सके थे . उन्हें गिरफ्तार करके बिहार में ही रखा गया था. भूलाभाई देसाई और चितरंजन दस को गिरफ्तार नहीं किया गया था क्योंकि इन लोगों ने अपने आपको भारत छोडो आन्दोलन से अलग कर लिया था. तो यह है फेहरिस्त उन महानायकों की जिन्होंने हमें आज़ादी दिलवाई. और अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया.

यह सब हुआ इसलिए कि कांग्रेस ने १४ जुलाई १९४२ के दिन एक प्रस्ताव पास किया था कि अगर अँगरेज़ भारत नहीं छोड़ते तो पूरे देश में आन्दोलन चलेगा . कांग्रेस के इस प्रस्ताव से अंग्रेजों के वफादार लोगों के बीच हडकंप मच गया. मुहम्मद अली जिन्ना ने बयान दिया कि आन्दोलन शुरू करने का कांग्रेस का ताज़ा फैसला सही नहीं है . यह मुसलमानों के हितों की अनदेखी करता है . हिन्दू महासभा के नेता, वी डी सावरकर ने अपने समर्थकों से कहा कि कांग्रेस के आन्दोलन का विरोध करें. उधर अँगरेज़ सरकार ने भी पूरी तैयारी कर ली थी . ८ अगस्त को सभी सरकारी विभागों के नाम आदेश जारी कर दिया कि कांग्रेस का आन्दोलन गैरकानूनी है . सरकारी विभागों को चाहिए कि आन्दोलन को हर हाल में कुचल दें. आल इण्डिया कांगेस कमेटी की बैठक ७ अगस्त को मुंबई में हुई जहां तय किया गया कि अहिंसक तरीके से पूरे देश में आन्दोलन चलाया जाएगा. आन्दोलन के नेतृत्व का ज़िम्मा गाँधी जी को सौंपा गया. लेकिन यह भी अनुमान था कि गाँधी जी तो गिरफ्तार हो जायेगें ,. ऐसी सूरत में यह तय किया गया कि हो सकता है कि सभी नेता गिरफ्तार हो जाएँ तो हर व्यक्ति जो इस आन्दोलन के साथ है , वह अहिंसक तरीके से अपना काम करता रहेगा. महत्मा गाँधी ने अपील की कि हिन्दू और मुसलमान के बीच जो नफरत पैदा करने की कोशिश की गयी है उसे भूल जाओ और सभी लोग भारतीय बन कर संघर्ष करो. हमारा झगडा अँगरेज़ जनता से नहीं है . हम तो अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का विरोध कर रहे हैं.. सत्याग्रह में किसी तरह की धोखेबाजी या असत्य के लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने सब को बताया कि आज से अपने आप को आज़ाद समझो. आबादी के एक हिस्से को अँगरेज़ भरमाने में सफल हो गए थे लेकिन गाँधी की आंधी के सामने कोई नहीं टिक सका और देश आज़ाद हो गया

Thursday, September 24, 2009

इस जिन्ना को भी तो देखिए...

जसवंत सिंह ने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में किताब लिखकर आजादी की लड़ाई और देश के बंटवारे के बहुत से मुद्दों को बहस के केंद्र में ला दिया है। इस किताब से भाजपा को दोहरा नुकसान हुआ है। ठीक है, पार्टी को जसवंत सिंह जैसा दूसरा नेता मिल जाएगा लेकिन दूसरे की भरपाई नामुमकिन है।

पिछले कई वर्षों से भाजपा की कोशिश थी कि सरदार पटेल को अपने हीरो के रुप में पेश किया जाए। ये काम काफी सुनियोजित तरीके से चल रहा था और ये संभावना थी कि नेहरू गांधी परिवार के वंशजों में सरदार पटेल के प्रति जो लापरवाह रवैया है, उससे भाजपा की योजना सफल भी हो जाती और किसी दिन सरदार पटेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के अध्यक्ष हो जाते। लेकिन जसवंत सिंह द्वारा अपनी किताब में सरदार पटेल जिन्ना की तुलना में कमतर करने की कोशिश ने राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया और सरदार पटेल की मुखालफत के अपराध में भाजपा को जसवंत सिंह को पार्टी की आलोचना करके जसवंत सिंह ने पार्टी की मुख्य विचारधारा का विरोध किया है।

इस घटना ने बहुत सारे गड़े मुरदे उखाड़ दिए हैं और एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि सरदार पटेल का संघ की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो संघ विरोधी थे और गृह मंत्री के रुप में संघ पर प्रतिबंध उनके आदेश से ही लगाया गया था। दुनिया को ये भी मालूम हो गया कि सरदार पटेल के ही आदेश पर उस वक्त के सरसंघ चालक एम एस गोलवलकर को गांधी जी की हत्या के मुकदमें वाले मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था और ये भी कि संघ से पाबंदी हटाने के लिए सरदार पटेल ने गोलवरकर ने अंडरटेकिंग लिखवाई थी। यानि अगर सरदार पटेल के मन में संघ के प्रति जरा भी मुहब्बत होती को वो मौका पाते ही उसके सरसंघ चालक को इतना जलील न करते। साफ है कि जसवंत सिंह ने ये किताब लिखकर भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है।

जसवंत सिंह की किताब में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पहले से मालूम न हो, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर नए सिरे से समीक्षा का माहौल पैदा करने में इस किताब का बड़ा योगदान है। पाकिस्तान के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार डॉन में वहां के जाने-माने लेखक माहिर अली साहब ने एक नया तथ्य पेश किया है...उनका दावा है कि मुहम्मद अली जिन्ना देश का बंटवारा बिल्कुल नहीं चाहते थे, वो पाकिस्तान की बात इसलिए कर रहे थे कि कांग्रेसी डर जाएं और उनकी हर बात मान लें। उनकी इच्छा थी कि देश आजाद हो और एक ढीला-ढाला फेडरेशन बन जाए जिसमें मुस्लिम इलाकों की चैधराहट जिन्ना के पास रहे और वो जो चाहें करवा सकें। दुनिया जानती है कि बंटवारे के बाद जिन्ना को जो पाकिस्तान मिला वो उससे संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने कहा कि मुझे एक मॉथ ईटेन पाकिस्तान यानी कीड़ों से खाया हुआ पाकिस्तान मिला है। जिन्ना को उम्मीद थी कि कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद वगैरह भी उनको पाकिस्तान के हिस्से के रूप में मिल जाएगा।

जाहिर है पाकिस्तान की मांग जिन्ना की अदूरदर्शिता का परिणाम थी। वो कभी किसी संघर्ष में शामिल नहीं हुए थे इसलिए उनको अंदाजा नहीं था कि आजादी कितनी मुश्किल से मिली थी। अंग्रेजों की मदद और प्रेरणा से मुल्क का बंटवारा तो हो गया लेकिन बाद में जिन्ना को बहुत पछतावा हुआ बंटवारे के तुरंत बाद पाकिस्तान टाइम्स ने जिन्ना को जहाज पर बैठाकर उन इलाकों के हवाई सर्वे कराए जहां शरणार्थी शिविर लगाए गए थे। लोगों की बदहाली देखकर जिन्ना सन्न रह गए और कहा, “या खुदा, ये मैंने क्या कर डाला?”

विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने अपनी किताब, इंडिया समर- सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एम्पायर में लिखा है कि पाकिस्तान की स्थापना में जिन्ना से ज्यादा अंग्रेजों का योगदान है। टुंजेलमान ने लिखा है, “अगर जिन्ना पाकिस्तान के कायदे आजम हैं तो ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को पाकिस्तान का चाचा माना जाना चाहिए, क्योंकि इस्लामी राज्य गठित करके कांग्रेस को औकात बताने की साजिश उन्ही की थी।” टुंजेमान ने एक और दिलचस्प बात लिखी है अपनी किताब में। उनके मुताबिक अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफू है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें।

इतिहास किसी को माफ नहीं करता, वो जिन्ना को भी माफ नहीं करेगा क्योंकि आजादी के 6 दशक बाद भी जिन्ना की बात पर जिन लोगों ने विश्वास किया था वो चैन से नहीं हैं। फौजी तानाशाहों और अमेरिकी दादागीरी झेल रही पाकिस्तान की आवाम में बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी परेशानियों के लिए जिन्ना को जिम्मेदार मानते हैं। यानी जिन्ना का जिक्र सरहदों के दोने तरफ परेशानी पैदा करता है।

ये लेख अमर उजाला में 24 सितंबर को छपा है...