शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश में आज अराजकता का माहौल है ,कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है लेकिन राजनीतिक रूप से राज्य की ताक़त कभी कम नहीं हुई ,आज भी राजनीतिक हैसियत कम नहीं है . गंगा नदी के प्रवाह के इस मुख्य क्षेत्र में हमेशा से भारतीय राजनीति की दिशा तय होती रही है . आज़ादी के लिए पहली बार जब इस देश की जनता उठ खड़ी हुई थी तो मई १८५७ की मुख्य लड़ाइयां उत्तर प्रदेश में ही लड़ी गयी थीं. महात्मा गांधी के नेतृत्व में भी आधुनिक भारत की स्थापना और अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान है . १९२० में आज़ादी की इच्छा रखने वाला हर भारतवासी महात्मा गांधी के साथ था, केवल अंग्रेजों के कुछ खास लोग उनके खिलाफ थे .आज़ादी की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया . उस वक़्त के हर बड़े नेता ने महात्मा गांधी से आन्दोलन जारी रखने का आग्रह किया लेकिन महात्माजी ने साफ़ कह दिया कि भारतीयों की सबसे बड़ी ताक़त अहिंसा थी . सच भी है कि अगर हिंसक रास्ते अपनाए जाते तो अंग्रेजों ने तो़प खोल दिया होता और जनता की महत्वाकांक्षाओं की वही दुर्दशा होती जो १८५७ में हुई थी. १९२९ और १९३० में जब जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की कांग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया . १९२९ में कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व उत्तर प्रदेश के हाथ आया तो वह कभी नहीं हटा. ११९३० के दशक में भारत में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए वे किसी भी देश के लिए पूरा इतिहास हो सकते हैं . गवर्नमेंट आफ इन्डिया एक्ट १९३५ के बाद की अंग्रेज़ी साजिशों का सारा पर्दाफाश यहीं हुआ. १९३७ में लखनऊ में हुए मुस्लिम लीग के सम्मेलन में ही मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की शह पर द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया और तुरंत से ही उसका विरोध शुरू हो गया . उस वक़्त के मज़बूत संगठन ,हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुए अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धांत का नारा दे दिया लेकिन उत्तर प्रदेश में उसी साल हुए चुनावों में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ चुकी थीं क्योंकि यहाँ की जनता ने सन्देश दे दिया था कि भारत एक है और वहाँ दो राष्ट्र वाले सिद्धांत के लिए कोई जगह नहीं है . मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को चुनावों में जनता ने नकार दिया था . कांग्रेस के अंदर जो समाजवादी रुझान शुरू हुई और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़रिये आतंरिक लोकतंत्र को और मजबूती देने की जो कोशिश की गयी उसके दोनों बड़े नेता आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के ही मूल निवासी थे .
भारतीय राजनीति में कांग्रेस के विकल्प को तलाशने की कोशिश भी यहीं शुरू हुई . जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया तो तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज, मुरादाबाद और जौनपुर में १९६३ के लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . डॉ लोहिया कन्नौज ,आचार्य जे बी कृपलानी मुरादाबाद और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . इसी प्रयोग के बाद गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के इलाके में वह कांग्रेस चुनाव हार गयी और विपक्षी पार्टी बन गयी जिसे जवाहर लाल नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है . सभी मानते हैं कि देश में लोकप्रिय सरकार बनाने के लिए ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बनायी जाए. अगर उत्तर प्रदेश में किसी राजनीतिक पार्टी की ताक़त नहीं है तो दिल्ली में सरकार बना पाना असंभव माना जाता है .
अब तक की सच्चाई यही है कि जो भी केन्द्र में सरकार बनाएगा उसे उत्तर प्रदेश में जीत दर्ज करना ज़रूरी है . जो उत्तर प्रदेश में हार गया उसे दिल्ली में सरकार बनाने का हक भी साथ साथ छोड़ना पड़ता है . १९७७ में पहली बार केन्द्र में गैरकांग्रेस सरकार बनी थी . इस सरकार में उत्तर प्रदेश में जीती गयी जनता पार्टी की ८५ सीटों का मुख्य योगदान था .उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सभी उम्मीदवार उत्तर प्रदेश में चुनाव हार गए थे ,प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . लेकिन जब १९८० में हुए चनाव में काँग्रेस ने लगभग सभी सीटें जीत लीं तो उनकी सरकार बन गयी और इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं. राजनीतिक पार्टियों के भाग्योदय में भी उत्तर प्रदेश की राजनीति एक मानदंड का काम करती है . आज का मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी है . लेकिन १९८४ में हुए लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश में नकार दिया गया था . नतीजा हुआ कि पार्टी पूरे देश में केवल दो सीटों पर सिमट गयी थी. लेकिन जब उत्तर प्रदेश में उसे सफलता मिली तो १९८९ में बीजेपी एक महत्वपूर्ण पार्टी बनी और उसे केन्द्र में वी पी सिंह की सरकार को बनवाने का मौका मिला . बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में ही बाबरी मसजिद-रामजन्म भूमि विवाद को राजनीतिक स्वरूप दिया और उसी के बल पर केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी . अयोध्या के विवाद को फिर से मुख्यधारा में लाने की चर्चा आजकल भी है और जानकार बताते हैं कि २०१४ में बीजेपी , अगर सत्ता में आने में सफल होती है तो उसमें उत्तर प्रदेश का सबसे ज़्यादा योगदान होगा . शायद इसीलिये बीजेपी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के बाद के सबसे महत्वपूर्ण नेता और मुख्य चुनाव प्रचारक नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा ध्यान दिया है . उन्हें मालूम है कि अगर दिल्ली में राज करना है तो उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ आना होगा . इसीलिये नरेंद्र मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी ,अमित शाह को बीजेपी की तरफ से उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवाया है . बताते हैं कि गुजरात में नरेंद्र मोदी के चुनाव का सारा प्रबंध अमित शाह ही करते हैं . बीच में कुछ दिनों के लिए वे गुजरात के राजनीतिक पटल से हटे थे जब उनको कोर्ट के आदेश पर गुजरात में घुसने से मना कर दिया गया था .
केन्द्र की मौजूदा सरकार हो या अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ,उसे उत्तर प्रदेश के नेताओं ने ही जीवनदायिनी शक्ति बख्शी है . केन्द्र की मौजूदा सरकार का अस्तित्व केवल इसलिए बचा है कि उसे मुलायम सिंह यादव और मायावती का समर्थन हर बुरे वक़्त में मिल जाता है . मायावती जी ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को बचा रखा था और जब उनकी सरकार के मंत्री जगमोहन ने ताज कारिडोर मामला शुरू किया तो मायावती की धमकी के बाद बीजेपी के राजनीतिक प्रबंधकों को बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा था .
इसलिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्व को कभी भी कमतर करके नहीं आँका जा सकता . दिल्ली की सरकार का हर रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुज़रता है शायद इसी लिए २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए भी दोनों ही मुख्य पार्टियां उत्तर प्रदेश को बहुत गंभीरता से ले रही हैं . मुलायम सिंह यादव और मायावती भी सारी ताक़त के साथ जुटे हैं कि अगर केन्द्र की सरकार में महत्वपूर्ण बने रहना है तो अपने राज्य में उन्हें मजबूती से जीतना पडेगा .
( नवभारत टाइम्स से साभार )
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