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Monday, August 5, 2013

उत्तर प्रदेश ने हमेशा ही देश की राजनीति को दिशा दी है


शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में आज अराजकता का माहौल है ,कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है लेकिन राजनीतिक रूप से राज्य की ताक़त कभी कम नहीं हुई ,आज भी राजनीतिक हैसियत कम नहीं है . गंगा नदी के प्रवाह के इस मुख्य क्षेत्र में हमेशा से भारतीय राजनीति की दिशा तय होती रही है . आज़ादी के लिए पहली  बार जब इस देश की जनता उठ खड़ी हुई थी तो मई १८५७ की मुख्य लड़ाइयां उत्तर प्रदेश में ही लड़ी गयी थीं.  महात्मा गांधी के नेतृत्व में भी आधुनिक भारत की स्थापना और अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान है . १९२० में आज़ादी की इच्छा रखने वाला हर भारतवासी महात्मा गांधी के साथ था, केवल अंग्रेजों के कुछ खास लोग उनके खिलाफ थे .आज़ादी  की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया . उस वक़्त के हर बड़े नेता ने महात्मा गांधी से आन्दोलन जारी रखने का आग्रह किया लेकिन महात्माजी ने साफ़ कह दिया कि भारतीयों की सबसे बड़ी ताक़त अहिंसा थी .  सच भी है कि अगर हिंसक  रास्ते अपनाए जाते तो अंग्रेजों ने तो़प खोल दिया होता और जनता की  महत्वाकांक्षाओं की वही दुर्दशा होती जो १८५७ में हुई थी. १९२९ और १९३० में जब जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की कांग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया . १९२९ में  कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व उत्तर प्रदेश के हाथ आया तो वह कभी नहीं हटा. ११९३० के दशक में भारत में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए वे किसी भी देश के लिए पूरा इतिहास हो सकते हैं . गवर्नमेंट आफ इन्डिया एक्ट १९३५ के  बाद की अंग्रेज़ी साजिशों का सारा पर्दाफाश  यहीं  हुआ. १९३७ में लखनऊ में  हुए मुस्लिम  लीग के सम्मेलन में ही मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की शह पर द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया और  तुरंत से ही उसका विरोध शुरू हो गया . उस वक़्त के मज़बूत संगठन ,हिंदू महासभा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुए अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धांत का नारा दे दिया  लेकिन उत्तर प्रदेश में उसी साल हुए चुनावों में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ चुकी थीं क्योंकि  यहाँ की जनता ने सन्देश दे दिया था कि भारत एक है और वहाँ दो राष्ट्र वाले  सिद्धांत के लिए कोई जगह  नहीं है . मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को चुनावों में  जनता ने नकार दिया था . कांग्रेस के अंदर जो समाजवादी रुझान शुरू हुई और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़रिये आतंरिक लोकतंत्र को और मजबूती देने की जो कोशिश की गयी उसके दोनों बड़े नेता आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के ही मूल निवासी थे .  
भारतीय राजनीति में  कांग्रेस के विकल्प को तलाशने की  कोशिश भी यहीं शुरू हुई . जब डॉ  राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया तो तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज, मुरादाबाद और जौनपुर में १९६३ के लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . डॉ लोहिया  कन्नौज ,आचार्य जे बी कृपलानी मुरादाबाद और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . इसी प्रयोग के बाद  गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के  इलाके में वह कांग्रेस चुनाव हार गयी और  विपक्षी पार्टी बन  गयी जिसे जवाहर लाल  नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन  पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम  जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है . सभी मानते हैं कि देश में लोकप्रिय सरकार बनाने के लिए ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बनायी जाए. अगर उत्तर प्रदेश में किसी राजनीतिक पार्टी की ताक़त नहीं है तो दिल्ली में सरकार बना पाना असंभव माना जाता है .
अब तक की सच्चाई यही है कि जो भी केन्द्र में सरकार बनाएगा उसे उत्तर प्रदेश में जीत दर्ज करना ज़रूरी है . जो उत्तर प्रदेश में हार गया उसे दिल्ली में सरकार बनाने  का हक भी साथ साथ छोड़ना पड़ता है . १९७७ में पहली बार केन्द्र में गैरकांग्रेस सरकार बनी थी . इस सरकार में उत्तर प्रदेश में जीती गयी जनता पार्टी की ८५ सीटों  का मुख्य योगदान था .उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सभी उम्मीदवार उत्तर प्रदेश में चुनाव हार गए थे ,प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . लेकिन जब १९८० में हुए चनाव में काँग्रेस ने लगभग सभी सीटें जीत लीं  तो उनकी सरकार बन गयी और इंदिरा गांधी  फिर प्रधानमंत्री बनीं.  राजनीतिक पार्टियों के भाग्योदय में  भी उत्तर प्रदेश की राजनीति एक मानदंड का काम करती है . आज का मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी है . लेकिन १९८४ में हुए लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश में नकार दिया गया था . नतीजा  हुआ कि पार्टी पूरे देश में केवल दो सीटों पर सिमट गयी थी. लेकिन जब उत्तर प्रदेश में उसे सफलता मिली तो १९८९ में बीजेपी एक महत्वपूर्ण पार्टी बनी और उसे  केन्द्र में वी पी सिंह की सरकार को बनवाने का मौका मिला . बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में ही बाबरी मसजिद-रामजन्म भूमि विवाद को राजनीतिक स्वरूप दिया और उसी के बल पर केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी . अयोध्या  के विवाद को फिर से मुख्यधारा में लाने की चर्चा आजकल भी है और जानकार बताते हैं  कि २०१४ में बीजेपी , अगर सत्ता में आने में सफल होती है तो उसमें उत्तर प्रदेश का सबसे ज़्यादा योगदान होगा . शायद इसीलिये बीजेपी में  राष्ट्रीय अध्यक्ष के बाद के सबसे महत्वपूर्ण नेता और मुख्य चुनाव प्रचारक नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा ध्यान दिया है . उन्हें मालूम है कि अगर दिल्ली में राज करना  है तो उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ आना होगा . इसीलिये नरेंद्र मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी ,अमित शाह को बीजेपी की तरफ से उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवाया है . बताते हैं कि गुजरात में  नरेंद्र मोदी के चुनाव का सारा प्रबंध अमित शाह ही करते हैं  . बीच में कुछ दिनों के लिए वे गुजरात के राजनीतिक पटल से हटे थे जब उनको  कोर्ट के आदेश पर गुजरात में घुसने से मना कर दिया गया था .
केन्द्र की मौजूदा सरकार  हो या अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ,उसे उत्तर प्रदेश के  नेताओं ने ही जीवनदायिनी शक्ति बख्शी है . केन्द्र की मौजूदा सरकार का अस्तित्व केवल इसलिए बचा है कि उसे मुलायम सिंह यादव और मायावती का समर्थन हर बुरे वक़्त में मिल  जाता है . मायावती जी ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को बचा रखा था और जब उनकी सरकार के मंत्री जगमोहन ने ताज कारिडोर मामला शुरू किया तो मायावती की धमकी के बाद बीजेपी के राजनीतिक प्रबंधकों को बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा था .
इसलिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्व को कभी भी कमतर करके नहीं आँका जा सकता . दिल्ली की सरकार का हर रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुज़रता है शायद इसी लिए २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए भी दोनों ही मुख्य पार्टियां उत्तर प्रदेश को बहुत गंभीरता से ले  रही हैं . मुलायम सिंह यादव और मायावती भी सारी ताक़त के साथ जुटे हैं कि अगर केन्द्र की सरकार में महत्वपूर्ण बने रहना है तो अपने राज्य में उन्हें मजबूती से जीतना पडेगा .

( नवभारत टाइम्स से साभार )

Saturday, July 6, 2013

डॉ अम्बेडकर ने कहा था " बाबू जगजीवन राम भारत के चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा और ऋषि राजनेता हैं ".



शेष नारायण सिंह  

महात्मा गांधी ने जगजीवनराम  बारे में  कहा था कि  " जगजीवन राम  कंचन की भांति खरे और सच्चे हैं . मेरा हृदय इनके प्रति आदरपूर्ण  प्रशंसा से आपूरित है " यह तारीफ़ किसी के लिए भी एक बहुत बड़ी सर्टिफिकेट हो सकती है . जब आज़ादी के लड़ाई  शिखर पर थी तब महात्मा गांधी ने बाबू जगजीवन राम के प्रति यह राय बनायी थी . लेकिन जगजीवन राम ने इसे कभी भी अपने सर पर सवार नहीं होने दिया हमेशा महात्माजी के बताये गए रास्ते पर चलते रहे और कंचन की तरह तप कर भारत राष्ट्र और उसकी संस्थाओं के निर्माण में लगे रहे . जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य रहेजब कामराज योजना आयी तो सरकार से इस्तीफा दिया फिर नेहरू के आवाहन सरकार में आये .  लाल बहादुर शास्त्री की  सरकार में मंत्री रहे ,इंदिरा गांधी के साथ मंत्री रहे .जब  इंदिरा गांधी ने कुछ  क़दम उठाये  तो कांग्रेसी मठाधीशों के वर्ग सिंडिकेट वालों ने इंदिरा गांधी को औकात बताने की योजना पर काम शुरू किया तो वे इंदिरा गांधी एक साथ रहे . उन्होंने कहा कि  पूंजीवादी विचारों से अभिभूत कांग्रेसी अगर इंदिरा गांधी को हटाने में  सफल हो जाते हैं तो कांग्रेस ने जो भी प्रगतिशील काम करना शुरू किया है वह सब ख़त्म हो जाएगा .इसी सोच के तहत उन्होंने चट्टान की तरह इंदिरा गांधी का साथ दिया . कांग्रेस  विभाजन के बाद वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने और कांग्रेस का नाम उनके नाम से जोड़कर देखा गया . इंदिरा गांधी जिस कांग्रेस की नेता के रूप में  प्रधानमंत्री बनी थीं उसका नाम कांग्रेस ( जगजीवन राम ) था.  पिछली सदी के सबसे महान राजनेताओं में उनका नाम शुमार किया जाता है .  दलित अधिकारों के संघर्ष का पर्याय बन चुके डॉ भीम राव आंबेडकर ने उनके बारे में जो कहा वह किसी भी भारतीय के लिए गर्व की बात  हो सकती है . बाबासाहेब ने कहा  कि ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं ".

इतनी सारी खूबियों के बावजूद बाबू जगजीवन राम ने कभी भी सफलता को अंतिम लक्ष्य  नहीं माना .अपने जीवन एक अंतिम क्षण तक उन्होंने लोकतंत्र , समानता  और इंसानी सम्मान के लिए प्रयास किया . ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं” . यह बता ऐतिहासिक रूप से  साबित हो चुकी है कि जब बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से किनारा किया तो कांग्रेस के सबसे पक्के वोट बैंक ने कांग्रेस से अपने आपको अलाग कर लिया था. जानकार बताते हैं कि अगर १९७७ की फरवरी में बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा न दिया होता तो कांग्रेस  को १९७७ न देखना पड़ा होता .इस पहेली को समझने के लिए समकालीन इतिहास पर नज़र डालना ज़रूरी है .
२४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ जनता खड़ी हो गयी थी .जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली थी चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से १ मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया था .
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . उस लड़के ने इंदिरा गाँधी के शासन काल में सरकार के फैसलों दखल देना शुरू कर दिया था .वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का जो रुख सामने आया ,वह बहुत ही डरावना था . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बेटे ने ऐसे लोगों को कांग्रेस की मुख्यधारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल गया . संजय गांधी के कारण  कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की हितचिन्तक पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया हैजो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इसलिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत पस्त थी लेकिन २ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत के दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया था लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित सामाजिक क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी . 
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के पैरोकारकांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. उन्होंने डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में नई दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत बड़ा सम्मलेन किया  बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का प्रधानमंत्री बनना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की हैसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक बहुत बड़े रोड़े के के रूप में हमेशा याद किया जाएगा . यह भी सच है कि जगजीवन राम के कांग्रेस से अलग होने के बाद सामाजिक  परिवर्तन की जो संभावना बनी थी वह मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के बाद शून्य में बदल गयी .

Monday, February 11, 2013

सत्य और अहिंसा के दार्शनिक गांधी की विरासत को अपनाने में जुटीं फासिस्ट जमातें




शेष नारायण सिंह 

महात्मा गांधी को गए 65 साल हो गए।  30 जनवरी 1948 के दिन दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे  महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दिया था और हे राम कहते हुए वे स्वर्ग चले गए थे . पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में  डूब गयी थी। ऐसा इसलिए हुआ था कि 1920 से 1947 तक महात्मा  गांधी के नेतृत्व में  ही आज़ादी का लड़ाई लड़ी गयी थी। लेकिन जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्होंने गांधी जी की शहादत पर कोई आंसू नहीं बहाए। ऐसी ही एक जमात आर  एस एस थी जिसकी सहयोगी राजनीतिक पार्टी उन दिनों हिन्दू महासभा हुआ करती थी। हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश का ही नतीजा था जिसके कारण महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी।  हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही  महात्मा गांधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फांसी हुयी, कुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियां चलायी थीं , उसे फांसी हुयी, उसके भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुयी। बाद में वह छूट कर  जेल से बाहर आया और उसने गांधी जी की हत्या को सही ठहराने के लिए कई किताबें वगैरह  लिखीं। आर एस एस के लोगों के ऊपर आरोप है की उन्होंने महात्मा जी की हत्या के बाद कई जगह मिठाइयां आदि भी बांटी। इस बात को आर एस एस वाले शुरू से ही गलत बताते रहे हैं लेकिन इतना पक्का है की आर एस एस  ने  प्रकट रूप से महात्मा गांधी की  मृत्यु पर कोई दुःख व्यक्त नहीं किया  उस वक़्त के आर एस एस के मुखिया एम एस गोलवलकर को भी महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार  किया गया था  . सरदार पटेल उन दिनों देश के गृह मंत्री थे और उन्होंने  गोलवलकर को एक अंडरटेकिंग लेकर  कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था . बाद के दिनों में आर एस एस ने हिन्दू महासभा से पूरी  तरह से किनारा  कर लिया था। बाद में जनसंघ की स्थापना हुयी और आर एस एस के प्रभाव वाली एक नयी राजनीतिक पार्टी की तैयार हो गयी। आर एस एस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय  को नागपुर वालों ने जनसंघ का काम करने के लिए भेजा था। बाद में  वे जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए।  1977  तक आर एस एस और जनसंघ वालों ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की खूब जमकर आलोचना की और  गांधी-नेहरू की राजनीतिक  विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया . . लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने   भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में  गांधियन  सोशलिज्म को भी शामिल कर लिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस  का कोई आदमी कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी  को कम से कम  एक ऐसे महान व्यक्ति तलाश थी जिसने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो . हालांकि अपने पूरे जीवन भर महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया . 

महात्मा गांधी को अपनाने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए बीजेपी ने मुंबई में 28 दिसंबर 1980 को आयोजित अपने पहले ही अधिवेशन में अपने पांच आदर्शों में से एक गांधियन सोशलिज्म  को निर्धारित किया .बाद में जब 1985 में बीजेपी लगभग शून्य हो गयी  तो गांधी जी से अपने आपको दूर भी कर लिया गया लेकिन बाद में फिर  किस मंशा से महात्मा गांधी को अपाने की योजना पर काम चल रहा है और अब तो बीजेपी वाले खुले आम कहते पाए जाते हैं की महात्मा गांधी  कांग्रेस  की बपौती नहीं  हैं . हालांकि आजकल बीजेपी वाले महात्मा गांधी को अपना बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन सच्चाई यह है की महात्मा गांधी और आर एस एस के बीच इतनी  दूरियां  थीं जिनको कि महात्मा जी के जीवन काल और उसके बाद भी  भरा नहीं जा सका।अंग्रेज़ी  राज  के  बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हर कीमत पर हटाना चाहते थे  जबकि आर एस एस वाले अंग्रेजों की छत्रछाया में ही अपना मकसद हासिल  करना चाहते थे। . वास्तव में 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और  अँगरेज़ अफसरों की  कृपा से अपना सांस्कृतिक काम चला रहे थे .

गांधियन सोशलिज्म की असफलता के बाद दोबारा महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश आर एस एस ने पूरी गंभीरता के साथ 1997 को 2 अक्टोबर को शुरू किया . योजना यह थी की 30 जनवरी 1998 के दिन इस अभियान का समापन करके महात्मा गांधी को संघी विचारधारा का समर्थक साबित कर दिया जाएगा . 2 अक्टूबर की सभा में आर एस एस के तत्कालीन प्रमुख , राजेन्द्र सिंह ने महात्मा गांधी की बहुत तारीफ़ की . उस सभा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी मौजूद थे। राजेन्द्र सिंह ने कहा कि  गांधीजी भारतमाता  के चमकते हुए नवरत्नों में से एक थे और अफ़सोस जताया कि  उनको सरकार ने भारत रत्न की उपाधि तो नहीं दी लेकिन  वे लोगों की नज़र में सम्मान के पात्र थे। इतिहास का कोई भी  विद्यार्थी बता देगा कि  महात्मा गांधी के प्रति प्रेम के इस उभार में  किसी योजना का हाथ नज़र आता है .संघ परिवार ने अपने सामाजिक कार्य से भारत के बंटवारे के दौरान बहुत ही सम्मान हासिल कर लिया था . लेकिन  महात्मा गांधी की हत्या में आर एस एस के  बहुत सारे लोगों की गिरफ्तारी के कारण उन्हें सम्मान मिलना बंद हो गया था।महात्मा जी की ह्त्या के 30 साल बाद जब आर एस एस वाले जनता पार्टी के सदस्य बने तो उन्हें राजनीतिक सम्मान मिलना शुरू हुआ लेकिन उन्हें कुछ काबिल पुरखों की तलाश लगातार बनी हुयी थी। इसी प्रक्रिया में आर एस एस प्रमुख के अलावा बीजेपी के  दोनों बड़े नेता, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी  गांधीजी  को सदगुणों की खान मानने  लगे। महात्मा गांधी से अपनी करीबी और नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आर एस एस ,जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है . महात्मा गांधी की विरासत पर क़ब्ज़ा पाने की  संघ की  जारी मुहिम  के बीच कुछ ऐसे तथ्य सामने  आ गए जिस से उनके अभियान को भारी घाटा हुआ। आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गांधी जी  की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा  काट कर लौटे  नाथू राम गोडसे के भाई , गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी  और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी  नहीं  बना सकते। . उसने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय . मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं  की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।  . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि  उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने  इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर एस एस वाले बहुत परेशानी  में पड़  गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था " जब गोपाल गोडसे को बताया गया कि आडवानी ने दावा किया है कि नाथूराम का आर एस एस से कोई लेना देना नहीं था तो गोपाल गोडसे ने जवाब दिया " मैंने उनको  यह कहकर फटकार दिया है  की ऐसा कहना कायराना हरकत है .. हाँ यह आप कह सकते हैं की आर एस एस ने गांधी की हत्या का कोई प्रस्ताव नहीं पास किया था लेकिन आप उनसे  (नाथूराम से ) सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर सकते। जब 1944 में नाथूराम ने हिन्दू महासभा का काम करना शुरू किया था तो वे आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह थे।"

 नाथूराम गोडसे दूरी बनाने और अपनी विचारधारा  को महात्मा गांधी की प्रिय विचारधारा बताने के लिए भी आर एस एस वालों ने बहुत काम किया है .नवम्बर 1990 में बीजेपी के महासचिव कृष्ण लाल शर्मा ने प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर को एक पत्र लिखकर बताया कि  27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक  में एक लेख लिखा था जिसमें महात्मा गांधी ने रामजन्म भूमि के बारे में उन्हीं बातों को सही ठहराया था जिसको अब आर एस एस सही बताता  है . उन्होंने यह भी दावा किया कि महात्मा गांधी के हिंदी साप्ताहिक की वह प्रति उन्होंने देखी थी जिसमें यह बात लिखी गयी थी। . यह खबर अंग्रेज़ी अखबार टाइम्स आफ इण्डिया में छपी भी थी . लेकिन कुछ दिन बाद टाइम्स आफ इण्डिया की रिसर्च टीम ने यह  खबर छापी कि  कृष्ण लाल शर्मा का बयान सही नहीं है क्योंकि महात्मा गांधी ने ऐसा कोई  लेख लिखा ही नहीं था . सच्चाई यह है की 27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक का कोई अंक ही नहीं छपा था . 1937 में उस साप्ताहिक अखबार का अंक 24 जुलाई और 31 जुलाई को छपा था। 

कुल मिलाकर सत्य और अहिंसा के सबसे बड़े दार्शनिक की विरासत को वे लोग झपटने की कोशिश में हैं जो हिंसा को हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का माध्यम मानते और असत्य तो उनके खजाने में इतने हैं कि की उनको कोई गिना ही नहीं सकता .मैंने कुछ नमूने पेश किये हैं और अगर ज़रूरी हुआ तो ऐसे बहुत सारे तथ्य और भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं . आज सभ्य समाज की यह सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वह महात्मा  गांधी को सत्य और अहिंसा के मैदान से बाहर  खींचकर अपना बनाने की कोशिश करने वालों को रोकने के प्रयास में शामिल हो जाए।.

Thursday, April 12, 2012

ज्योतिबा फुले की गुलामगीरी कोई मामूली किताब नहीं , क्रान्तिकारी परिवर्तन का दस्तावेज़ है

महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हुई .उसी दौर में मैंने यह लेख लिखा था . आज महात्मा फुले के जन्मदिन के अवसर पर इसे फिर पोस्ट करके मुझे हार्दिक खुशी हो रही है.

शेष नारायण सिंह


दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्धांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।

Friday, October 1, 2010

क्या कांग्रेस महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्ष राजनीति को संभाल पा रही है .

( गाँधी जयंती पर विशेष )
शेष नारायण सिंह

महात्मा गाँधी होते तो १४१ साल के हो गए होते . इस बार महात्मा गाँधी का जन्म दिन बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के मुक़दमे के आस पास ही पड़ रहा है . बाबरी मस्जिद के मामले में संघी राजनीति के चलते जो उबाल आ गया था, वह तो शांत हो गया था लेकिन धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति करने की बी जे पी की योजना के तहत देश का बहुत नुकसान हुआ है . इस बार भी उनकी कोशिश थी कि फैसला कुछ भी वे झगडा झंझट का माहौल पैदा करेगें .लेकिन लगता है कि अब भारत का हिन्दू आर एस एस की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है . वह देश की एकता में ज्यादा रूचि रखता है . बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के दिन तो लगने लगा था कि संघी राजनीति सफल हो जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आज भारत एक है और रहेगा भी . अब लगने लगा है कि आर एस एस के बूते की बात नहीं है कि वह देश को तोड़ सके. .ऐसा इसलिए है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था .आज महात्मा गांधी के जन्म दिन के मौके पर धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।

कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।

कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।

कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। लेकिन आज एक बार फिर आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है . कांग्रेस पार्टी और सरकार को धर्म निरपेक्षता की राजनीति को सबसे ऊपर रखने के लिए एकजुट होना पडेगा