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Thursday, April 12, 2012

ज्योतिबा फुले की गुलामगीरी कोई मामूली किताब नहीं , क्रान्तिकारी परिवर्तन का दस्तावेज़ है

महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हुई .उसी दौर में मैंने यह लेख लिखा था . आज महात्मा फुले के जन्मदिन के अवसर पर इसे फिर पोस्ट करके मुझे हार्दिक खुशी हो रही है.

शेष नारायण सिंह


दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्धांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।

Tuesday, December 7, 2010

बाबासाहेब अंबेडकर की याद में लगा मुंबई में मेला

शेष नारायण सिंह

दिल्ली में रहने वालों को महान नेताओं की समाधियों के बारे में खासी जानकारी रहती है. लगभग हर महीने ही सरकारी तौर पर समाधियों पर फूल माला चढ़ती रहती है . यह अलग बात है कि महात्मा गाँधी के अलावा और किसी समाधि पर आम आदमी शायद ही कभी जाता हो . अवाम की श्रद्धा के स्थान के रूप में महात्मा जी की समाधि तो स्थापित हो चुकी है लेकिन बाकी सब कुछ सरकारी स्तर पर ही है . करीब ३५ साल से दिल्ली में रह रहे अवध के एक गाँव से आये हुए इंसान के लिए यह सब उत्सुकता नहीं पैदा करता. बचपन में पढ़ा था कि शहीदों की मजारों पर हर बरस मेले लगने वाले थे लेकिन महत्मा गाँधी जैसे शहीद की मजार पर वैसा मेला कभी नहीं दिखा जैसा कि हमारे गाँव के आसपास के सालाना मेलों के अवसर पर लगता है .हाँ यह सच है कि गाँधी जी की समाधि पर दिल्ली आने वाले ज़्यादातर लोग जाते ज़रूर हैं ,वे चाहे आम जन हों या किसी देश के शासक .कई बार सोचता था कि शायद शहादत को बढ़ावा देने के लिए ऐसा कह दिया गया था, मेला वेला कहीं नहीं लगने वाला था . लेकिन इस सोच को इस बार ज़बरदस्त झटका लगा . इस साल बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के मौके पर मुंबई में मौजूद रहने का मौक़ा मिला. बात बिलकुल समझ में आ गयी कि जिन लोगों ने भी कहा था कि शहीदों की मजारों पर लगेगें हर बरस मेले, वह सच कह रहा था. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की चैत्यभूमि पर इस साल छः दिसम्बर को मेला लगा था . मैंने अपनी आँखों से देखा . जिन लोगों से वहां मुलाक़ात हुई उन्होंने बताया कि यहाँ इसी तरह का मेला हर साल लगता है . लाखों लोग पूरे महाराष्ट्र से छः दिसंबर को मुंबई के दादर की चौपाटी पर आते हैं और बाबासाहेब की स्मृति में सिर झुकाते हैं .

इस साल भी दादर स्थित बाबासाहेब के स्मारक, चैत्यभूमि पर कई लाख लोग आये, एक दिन पहले से ही लाइन लगने लगी थी .दादर की चौपाटी की तरफ जाने वाली हर सड़क पर इंसानों का सैलाब उमड़ पड़ा था. २ किलोमीटर लम्बी लाइन लगी थी . जब मैं वरली पंहुचा तो लाइन में लगा हुआ आख़िरी व्यक्ति वहीं था . वरली की दूरी दादर के स्मारक से करीब २ किलोमीटर है . जानकारों ने बताया कि आम तौर पर छ से सात घंटे लाइन में लगकर ही बाबासाहेब की समाधि तक पंहुचा जा सकता है .५ दिसंबर से ही लाइन में लगे लोग ६ दिसंबर को शिवाजी पार्क में सार्वजनिक सभा में उतनी ही खुशी से शामिल होते हैं .. लोगों के चेहरों पर जो उत्साह दिखता है ,जिसने उसे नहीं देखा ,उसे मालूम ही नहीं कि उत्साह होती क्या चीज़ है . .बहुत ही पतली गलियों से होकर चैत्यभूमि का रास्ता गुज़रता है. पुलिस का बहुत ही ज़बरदस्त इंतज़ाम था . इसलिए ज़्यादातर लोगों को मालूम था कि वे वहां तक नहीं पंहुच पायेगें . लेकिन उन्हने चिंता नहीं थी .लोग दादर की चौपाटी पर गीली रेत से उत्साही लग बाबासाहेब का स्मारक बना लेते हैं और उसी स्मारक के सामने अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित कर देते हैं .रेत के बने इन स्मारकों पर भी बहुत सारे पुष्प चढ़ाए गए थे ,मोमबत्तियां लगी हुई थीं और अगरबत्तियां सुलग रही थीं .दादर से लेकर परेल तक सडकों पर बहुत सारे लोग ऐसे भी थे जो अंबेडकर साहित्य बेच रहे थे.अंबेडकर की तस्वीरें भी बिक रही थीं ,उनकी मूर्तियों का भी बहुत बड़ा ज़खीएर था और बहुत सारे लोग अपने हाथ पर अंबेडकर की तस्वीर का टैटू गुदवा रहे थे.

औरंगाबाद से आये एक परिवार से पता लगा कि वे हर साल छः दिसंबर को दादर आते हैं लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि चैत्यभूमि तक नहीं पंहुचते . फिर भी कोई परवाह नहीं . जब चलते हैं और वापस जाने के एक हफ्ते तक उनके घर का माहौल अंबेडकरमय रहता है .उत्तर प्रदेश के रहने वाले आदमी को लगता है कि डॉ अंबेडकर से जुड़ा कोई भी कार्यक्रम दलितों के आकर्षण की ही चीज़ है लेकिन मुंबई की सडकों पर छः दिसंबर को घूमते हुए इस धारणा के परखचे उड़ गए. दादर के आसपास ऐसे बहुत सारे लोग मिले जो दलित नहीं थे. उनके पूर्वज दलितों के शोषक रह चुके थे लेकिन वे अब पूरी तरह से बाबासाहेब की सामाजिक न्याय की लड़ाई में शामिल हैं . ऐसा शायद इसलिए होता है कि महाराष्ट्र में सामाजिक बराबरी के संघर्ष का एक मज़बूत इतिहास है . डॉ अंबेडकर के पहले इसी महाराष्ट्र में महात्मा फुले ने भी सामाजिक बराबरी के संघर्ष को एक स्वरुप दिया था और अपने माता पिता के विरोध के बावजूद १८४८ में पूना में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोल दिया था . उन्हें अपने घरवालों की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी लेकिन आन्दोलन चलता रहा था.डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा समय से चल रहे बराबरी के आन्दोलन के नतीजे की ताक़त तब समझ में आई जब दादर की चैत्य भूमि में अंबेडकर के भक्तों का हुजूम देखा. और लगा कि जिसने भी कहा था कि शहीदों की याद में हर बरस मेले लगेगें , उसने गलत नहीं कहा था

Wednesday, September 15, 2010

जाति के आ़धार पर आरक्षण जैसे गंभीर मुद्दे को खेल का विषय न बनाएं

शेष नारायण सिंह

आजकल हरियाणा में जाटों के नौजवान सडकों पर हैं और सरकारी नौकरियों में अपनी जाति के लिए आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं .उनका आन्दोलन हिंसक है और उसमें सामाजिक संपत्ति को आग के हवाले किया जा रहा है . इसके पहले इसी बिरादरी के लोगों ने हरियाणा में उत्पात मचाया था और वे मांग कर रहे थे कि जो लोग उनकी खाप की मर्ज़ी के खिलाफ शादी करें उन्हें भारतीय दंड विधान के तहत सज़ा दी जानी चाहिए .उनकी मांग थी कि अपने पिंड में शादी करने के काम को अपराध माना जाए और उस तथाकथित अपराध को करने वाले को कानून सज़ा दे. हरियाणा के मुख्य मंत्री भी इसी बिरदारी के हैं और इस बिरादरी के वोटों के बल पर ही सत्ता में हैं .पिछले करीब बीस वर्षों से सरकारी नौकरियों और अन्य पदों पर आरक्षण को एक सुविधा के रूप में देखा जाने लगा है . जिसकी संख्या ज्यादा है वह उठ कर बैठ जाता है और आरक्षण की बात करने लगता है . जबकि आरक्षण को एक ऐसे तरीके के रूप में विकसित किया गया था जिस से समता मूलक समाज की स्थापना हो सके. जो जातियां पारंपरिक रूप से दबी कुचली हैं , उनको बाकी लोगों के बराबर लाने के लिए आरक्षण को एक राजनीतिक हथियार के रूप में हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रस्तुत किया था. आरक्षण से उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे नहीं मिले इसलिए उसे और संशोधित भी किया गया लेकिन आजकल एक अजीब बात देखने में आ रही है . वे जातियां जिनकी वजह से देश और समाज में दलितों को शोषित पीड़ित रखा गया था , वही आरक्षण की बात करने लगी हैं . काका कालेलकर और मंडल कमीशन की सिफारिशों में क्रीमी लेयर की बात की गयी थी . इसका मतलब यह था कि जो लोग आरक्षण के लाभ को लेकर आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नहीं रह गए हैं, उनके घर के बच्चों को आरक्षण के लाभ से अलग कर दिया जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है . सवाल पूछे जा आरहे हैं कि लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, मीरा कुमार , शुशील कुमार शिंदे, गोपीनाथ मुंडे , नीतीश कुमार के बच्चों को क्यों आरक्षण दिया जाये जबकि वे लोग समाज के सबसे एलीट वर्ग में शामिल हो चुके हैं . जब इस तरह के शासक वर्ग भी आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं तो जाटों के नौजवान भी इसी लाइन में लग गए . अभी तो हद होने वाली है . सुना है कि राजपूतों के नौजवान भी आरक्षण के लिए लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं . उनका तर्क है कि लड़ाई भिड़ाई की वजह से उनके पुरखे शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ गए थे इसलिए अब आरक्षण के ज़रिये सब ठीक कर लिया जाएगा . यह हद है जिसकी वजह से समाज का एक बड़ा वर्ग शोषित पीडित हुआ वही आरक्षण की बात कर रहा है .

ज़रुरत स बात की है कि आरक्षण के दर्शन को पूरी तरह से समझ लिया जाए . बीसवीं सदी में आरक्षण के दो सबसे बड़े समर्थक हुए हैं जिन्होंने सामाजिक बराबारी के लिए अफरमेटिव एक्शन की बात की. डॉ राम मनोहर लोहिया ने साफ़ कहा कि पिछड़ों और हर वर्ग के एमहिलाओं को ऊपर लाने के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाना चाहिए . दूसरे राजनेता , बी आर अंबेडकर हुए जिन्होंने आरक्षण को सामाजिक बराबरी का एक बड़ा हथियार माना और उसे संविधान में शामिल करवाया . आज ६० साल बाद सामाजिक परिवर्तन का यह माध्यम राजनीतिक रूप से ताक़तवर लोगों के हाथों में खिलौना होने जा रहा है . आरक्षण की मांग कर रहे इन संपन्न वर्गों के लड़कों को कौन बताये कि भैया आपके पूर्वजों के एवाजः से तो सामाजिक गैर बराबरी आई थी उसे ख़त्म करने के लिए जो व्यवस्था बनायी गयी है जब आप ही उसमें घुस जायेगें तो क्या फायदा . लेकिन राजनीतिक सुविधाभोगियों के दौर में कुछ भी संभव है . लेकिन सामाजिक बराबरी दर्शन शास्त्र के आदिपुरुष महात्मा फुले ने इसे एक बहुत ही ग़म्भीर राजनीतिक परिवर्तन का हथियार माना है उनका मानना था कि दबे कुचले वर्गों को अगर बेहतर अवसर दिए जाएँ तो सब कुछ बदल सकता है ... महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया।

महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
एक लम्बा इतिहास है सकारात्मक हस्तक्षेप का और इसे हमेशा हे यैसा राजनीतिक विमर्श माना जाता रहा है जो मुल्क और कौम के मुस्तकबिल को प्रभावित करता है . राजनेताओं को इसे खेल का विषय बनाने से बाज़ आना चाहिए

Wednesday, June 23, 2010

बात बिगड़ गयी है, जातिवादी नरक से निकालने के लिए महात्मा फुले की ज़रुरत है

शेष नारायण सिंह

दिल्ली में पापी लोग अपनी ही बहनों को मार डाल रहे हैं . इन दुष्टों से अपनी ही सगी बहनों की खुशियाँ नहीं देखी जा रही हैं.अभी मोनिका और कुलदीप की निर्मम हत्या की खबर आई थी . .अब उसी परिवार की एक और लड़की को भाई ने ही मार डाला. वह इसलिए नाराज़ था कि उसकी बहन ने अपनी खुशी के लिए शादी कर ली थी. उसने शादी किसी दूसरी जाति के लडके से की थी. अजीब बात है कि कहीं बच्चे इसलिए मार डाले जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी जाति के बाहर शादी कार ली है और वहीं दिल्ली के आस पास बहुत सारे लड़के लडकियां इस लिए मौत के घाट उतार दिए जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी ही जाति और गोत्र में शादी कर ली है .इक्कीसवीं सदी चल रही है , मुल्क को आज़ाद हुए ६० साल से ऊपर हो चुके हैं ,जिन इलाकों से इस तरह की तंगदिली की खबरें आ रही हैं उन इलाकों में शिक्षा का भी प्रचार प्रसार ख़ासा है . सूचना माध्यमों का प्रभाव है जिसके चलते दुनिया भर के रीति रिवाजों की जानकारी है लेकिन फिर भी निहायत ही जंगली तरीके से अपने सगे सम्बन्धियों को मौत की सज़ा दे रहे हैं यहाँ के लोग. समझ में नहीं आता कि एकाएक जाति और उस से जुड़े मुद्दे इतने अहम क्यों हो गए हैं . सबसे अजीब बात यह है कि इन मामलों में यह जानते हुए कि भयानक अपराध के काम किये जा रहे हैं , नेता लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं. हरियाणा के मुख्य मंत्री ने तो एक तरह से जाति के बाहर शादी करने की बात को परम्परा विरुद्ध कह कर इन अपराधियों का समर्थन ही कर दिया है . बाकी नेता भी मीडिया द्वारा घेरे जाने पर गोल मोल जवाब देकर अपना पिंड छुड़ा रहे हैं. जबकि आज़ादी की लड़ाई में यह समाया हुआ है कि देश में बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की जायेगी. हरियाणा के मुख्य मंत्री की बात बहुत अजीब इसलिए लगती है कि उनके पिता आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे और उस संविधान सभा के सदस्य थे जिसने जीवन के मौलिक अधिकार देने वाले संविधान की स्थापना की थी. इसी लिए इस वहशत के निजाम को समर्थन देने वाले भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की बात समझ मेंआने वाली नहीं है . महात्मा गाँधी खुद जाति की कट्टरता के खिलाफ थे. उन्होंने इंदिरा गाँधी की दूसरी जाति में हुई शादी को समर्थन दिया था जबकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी भी जाति और धर्म के आधार पर गैर बराबरी का समर्थन नहीं किया था. कांग्रेस को चाहिए कि जो लोग भी उनकी पार्टी में जाति और धर्म की कट्टरता का समर्थन कर रहे हों उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दें . डॉ भीम राव अंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया के नाम पर भी आज़ादी के लड़ाई के दौरान बहुत सारे लोग लामबंद हुए थे . इनकी विचार धारा को लागू करने के लिए अब कई राजनीतिक पार्टियां हैं. लेकिन वे पार्टियां भी जाति के शिकंजे को तोड़ने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं . उलटे जाति की संस्था को वोट दिलाऊ दुधारू गाय की तरह जिंदा रखना चाहती हैं .एक और अजीब बात है कि आजकल जिन इलाकों में जाति के बाहर शादी करने या अपने गोत्र में शादी करने पर हिंसक वारदातें हो रही हैं वह आर्य समाज के प्रभाव वाले क्षेत्र भी है . जो रूढ़िवाद का विरोध करने के लिए शुरू किया गया था . और तो और इस्लाम धर्म को माने वाले भी इस जाति के चक्र व्यूह में फंस गए हैं .जहां जाति के आधार पर गैर बराबरी की अनुमति ही नहीं है . लगता हैकि इस सारे जाति वादी गोरख धंधे के पीछे राजनीतिक लालच काम कर रही है और जाति को वोट बैंक के रूप में जिंदा रखने वालों का एक वर्ग देश का नेता बना हुआ है . लगता है कि अपने समाज को इस जातिवादी नरक से निकालने के लिए किसी ज्योति बा फुले की ज़रुरत पड़ेगी वरना सत्ता के लोभी नेता बिरादरी के लोग आज़ादी की विरासत को चट कर जायेंगें.हालांकि पिछले ४० वर्षों से जाति की राजनीति को हवा दे रही राजनीतिक बिरादरी के लिए जाति के मोह को छोड़ना मुश्किल होगा.लेकिन यह तय है कि किसी न किसी को आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना पडेगा और उसे कुर्बानी भी देनी पड़ेगी. जब १८४८ में ज्योति बा फुले ने दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोला था तो उन्हें उनके पिता ने ही घर से निकाल दिया था. और लगता है कि मौजूदा जातिवादी नरक का इलाज़ महात्मा फुले ही कर सकते हैं . क्योंकि बात बहुत बिगड़ गयी है