Sunday, November 18, 2012

संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व पर भ्रष्टाचार का संकट , उसे बचाने के लिए अवाम का एकजुट होना ज़रूरी





शेष नारायण सिंह 

जब पी वी नरसिम्हाराव के  वित्त मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने अंधाधुंध निजीकरण की प्रक्रिया की  बुनियाद डाली थी तो लोगों की समझ में  नहीं आ रहा था कि अर्थशास्त्र का यह विद्वान वित्त मंत्री के अपने अवतार में करना क्या चाहता था. आज़ादी के बाद जो कुछ भी राष्ट्र की संपत्ति के रूप में बनाया गया था ,उसे पूंजीपतियों के हाथ में सौंप देने की राजनीति शुरू हो चुकी थी. उसके पहले शासक  वर्गों की पार्टियों ने  बाबरी मसजिद के विवाद के ज़रिये धार्मिक भावनाओं को खूब ज़बरदस्त तरीके से उभार दिया था और दोनों ही बड़ी पार्टियां यह सुनिश्चित कर चुकी थीं कि देश के अधिकाँश आमजन हिंदू या  मुसलमान के रूप में अपनी अस्मिता की रक्षा के चक्कर में इतनी बुरी तरह से उलझ जायेगें कि वे अपने राजनीतिक भविष्य के साथ खिलवाड कर रही राजनीतिक पार्टियों की चाल की बारीकियो को देखना बंद कर देगें .  यही हुआ भी .यह अलग बात है कि  उस दौर में भी समझदार राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग था जिसने संसद में और संसद के बाहर यह चेतावनी दी थी कि अगर मंदिर मसजिद के चक्कर में देश का अवाम उलझा रहा तो देश की राजनीति का बहुत नुक्सान हो जाएगा. ऐसे ही एक राजनेता मधु  दंडवते थे. उन्होंने कहा कि मनोहन सिंह की राजनीति देश के सार्वजनिक उद्योगों के मुनाफे का निजीकरण कर रही है और नुक्सान का राष्ट्रीयकरण कर रही है . उन्हीं मधु दंडवते की याद में दिल्ल्ली में एक  सेमीनार में आज की संसदीय लोकशाही के  सामने मौजूद संकटों पर बातचीत हुई. समाजवादी चिन्तक मस्त राम कपूर और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी मुख्य वक्ता थे, चर्चा के दौरान आज की हमारी राजनीति के संकट के बारे में खुलकर चर्चा हुई. 

मस्त राम कपूर ने कहा  कि आज की संसदीय राजनीति के  सामने सबसे बड़ा संकट दल बदल क़ानून के कारण पैदा  हुआ  है . इस कानून ने भारतीय राजनीति  से असहमति का अधिकार छीन लिया है . नतीजा यह है कि संसद और विधान सभा के सदस्यों के सामने पार्टी के व्हिप को मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है . उन्होंने भारतीय राजनेति में दल बदल के कानून के इतिहास के बारे में भी कुछ जानकारी थी. भारत में दलबदल कानून की  ज़रूरत १९६७ में गैर कांग्रेस बाद की सफलता के बाद महसूस की गयी थी.जब कई राज्यों में विपक्षी दलों ने मिलजुलकर सरकारें बनाई थीं. आया राम और गयाराम भारतीय राजनीति के नए मुहावरे बने थे . दल बदल पर रोक लगाने की ज़रूरत के मद्दे नज़र सरकार को सुझाव देने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने एक  कमेटी बनायी जिसके प्रमुख जयप्रकाश नारायण थे .उस कमेटी में अटल बिहारी वाजपयी, मोरारजी देसाई और मधु लिमये भी थे. उस कमेटी ने सुझाव दिए जिनको कानून की शक्ल देकर दल बदल पर काबू किया जाना था,कमेटी के के सुझावों में पार्टी के आलाकमान से असहमति के अधिकार को सुरक्षित रखा गया था .कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि  पार्टी के नेतृत्व से असहमति का अधिकार हर सदस्य के पास होना चाहिए . यही लोकतंत्र की जान है. अगर असहमति का अधिकार खत्म हो गया तो राजनीतिक पार्टियां मनमाने फैसले करने लगेगीं. इस कमेटी के सुझाव इंदिरा गांधी को सूट नहीं करते थे इसलिए उन्होंने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया . लेकिन जब उनके हारने के बाद १९७७ में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली तो उन्होंने दल बदल विरोधी कानून बनाने की बात फिर शुरू कर दी. लेकिन ऐसा कानून बनाने की कोशिश की कि असहमति के अधिकार को खत्म कर देने की ताक़त राजनीतिक पार्टियों  के पास आ जाती. उन दिनों मधु लिमये जनता पार्टी के संसद सदस्य थे उन्होंने इस  प्रस्तावित कानून का ज़बरदस्त विरोध किया और कानून पास नहीं हो सका . उस दौर के कई बड़े लोगों ने मधु लिमये की आलोचना की और उन्हें दल बदलुओ का सरदार भी कहा लेकिन मधु लिमये जिस सदन के सदस्य हों उसमें कोई भी सरकार मनमाने तरीके से लोकतंत्र विरोधी काम नहीं कर सकती थी. यह बात इंदिरा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू  को भी मालूम थी. दल बदल क़ानून जनता पार्टी   के समय में नहीं बन सका . लेकिन जब इंदिरा गांधी के मरने के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने  तो उन्होंने ३० जनवरी के दिन दलबदल कानून पास कारवा लिया . और कहा गया कि महात्मा गांधी की शहादत के दिन कानून पास करवाकर सरकार ने उनके प्रति सही श्रद्धांजलि  दी है .अजीब बात है कि उस दिन संसद में मधु  दंडवते भी मौजूद थे और उन्होंने भी उसका समर्थन किया . जब शाम को वे मधु लिमये से मिलने गए  तब उनकी समझ में आया कि कितनी बड़ी गलती कर चुके थे .उनको अफसोस  भी हुआ लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी. मधु लिमये कहा  करते थे कि अगर एक व्यवस्था कर दी जाए कि जो लोग दल बदल करेगें उन्हें नयी पार्टी की सरकार में तब तक मंत्री नहीं बनाया जाएगा जब तक  उस लोक सभा या विधान सभा का कार्यकाल  खत्म न  हो जाए.  इसके अलावा उनकी सदस्यता से कोई भी छेड़छाड न करने की गारंटी भी  सुनिश्चित की जाए.उन्हें लाभ का कोई भी पद न  दिया जाए. अगर अगले चुनाव में वे अपनी नई पार्टी से जीतकर आते हैं तो उनको मंत्री भी बनाया जा सकता  है और अन्य कोई भी पद दिया जा सकता है . देखा गया है कि ज़्यादातर दल बदल मंत्री बनने की लालच में ही होते है .इसलिए अगर यह पक्का कर दिया जाए कि मंत्री नहीं बनना है तो केवल वे लोग ही दलबदल करेगें  जो सिद्धांतों के आधार पर कर रहे होंगे.

आज दल बदल कानून के चलते संसदीय पद्धति के लोकतन्त्र का भारी नुक्सान हो चुका है . शासक वर्गों  की पार्टियों के आतंरिक लोकतंत्र को लगभग दफ़न किया जा चुका है .और चारों तरफ चुनाव सुधारों की बात होने लगी है .इसी सेमीनार में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी भी वक्ता थे. उन्होंने कहा कि भारत का संसदीय लोकतंत्र भारी संकट के दौर से गुजर रहा है.. सत्ताधारी वर्गों की दोनों ही पार्टियां आम आदमी से कट चुकी हैं .संसद और विधान सभाओं में हंगामा होना आम बात हो गयी है . उन्होंने  कहा कि जहां पहली लोक सभा के दौरान साल में १४२ दिन काम होता था आज वहीं ४५ दिन का औसत है और वह भी अक्सर हंगामे की भेंट चढ़ जाता है .संसद में ३०० से ज्यादा लोग अरबपति  हैं और वे आम आदमी के हित की बात नहीं करते. कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियों के भ्रष्टाचार के जलवे आम हैं . इसीलिये आम आदमी अब यह मानने लगा है कि संसद या विधान सभाओं में उसके हित की बात नहीं की जायेगी .यह बहुत ही निराशा की बात है कि जनता का भरोसा संसद से उठ रहा है .अब लोगों को मालूम है कि संसद में उनका कोई काम नहीं हो रहा है .ऐसी हालत में लोग अपनी समस्याओं के हल के लिए  सडकों पर निकल रहे हैं.जनता को लगभग भरोसा हो चूका है कि संसद में पूंजीपतियों के लाभ के फैसले ही लिए जायेगें. ऐसी हालत में कहीं को अन्ना हजारे, या अरविन्द केजरीवाल में जनता को उम्मीद नज़र आती है और कहीं वामपंथी आतंकवाद का माहौल बन रहा है.  यह सारे विकल्प राजनीतिक रूप से अधूरे हैं इनसे संसदीय लोकतंत्र का भला नहीं होने वाला है 

इसलिए ज़रूरी यह है कि हम एक राष्ट्र के रूप में एकजुट हों और अपने संसदीय लोकतंत्र की  हिफाज़त करें . ऐसा माहौल बनाया जाए जिसके बाद राजनीतिक फैसलों की  बुनियाद आम आदमी के हित को ध्यान में रख कर डाली जाए,क्रोनी कैपिटलिज्म के आधार पर नहीं .ऐसा लगता है कि संसद में हंगामा करके दोनों ही  बड़ी पार्टियां संसद को नाकारा साबित करने के चक्कर में हैं . ऐसा होना बहुत ही बुरा होगा इसलिए आज इस बात की ज़रूरत बहुत ज्यादा है कि सारा देश लोकतंत्र को बचाने के लिए लामबंद हो और कुछ  ऐसी पार्टियां उनका नेतृत्व करने के लिये आगे आयें जो वास्तव में जनता की पक्षधरता की राजनीति करती हों .आज विदेशी कंपनियों को सारा देश थमा देने की जो तैयारी हो रही है उसका विरोध अगर कारगर तरीके से न किया  गया तो राष्ट्र की अस्मिता पर ही सवाल उठना शुरू  हो जाएगा. इसको जनता का भरोसा जीतकर ही सम्भाला जा सकता है .आज भ्रष्टाचार का दानव इतना बड़ा हो चुका है कि अगर लोकतांत्रिक तरीके से उसके खिलाफ आंदोलन न शुरू कर दिए गए तो बहुत बुरा होगा. इस बात में दो राय नहीं है कि संसदीय लोकतंत्र में बहुत सारी खामियां हैं लेकिन उस से बेहतर विकल्प अभी ईजाद नहीं हुआ है इसलिए एक देश के रूप में हमें अपने संसदीय लोकतंत्र की रक्षा करनी चाहिए .