शेष नारायण सिंह
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में आजकल सबसे अहम् मुद्दा जलवायु परिवर्तन का है. विकसित देशों क्व सघन औद्योगिक तंत्र की वजह से वहां प्रदूषण करने वाली गैसें बहुत ज्यादा निकलती हैं उनकी वजह से पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक्सान को झेलना पड़ता है .. अमरीका सहित विकसित देशों की कोशिश है कि भारत और चीन सहित अन्य विकास शील देशों को इस बात पर राजी कर लिया जाए कि वे अपनी औद्योगीकरण की गति धीमी कर दें जिस से वातावरण पर पड़ने वाला उल्टा असर कम हो जाए.. लेकिन जिन विकासशील देशों में विकास की गति ऐसे मुकाम पर है जहां औद्योगीकारण की प्रक्रिया का तेज़ होना लाजिमी है, वे विकसित देशों की इस राजनीति से परेशान हैं . पिछले कई वर्षों से जलवायु परिवर्तन की कूटनीति दुनिया के देशों के आपसी संबंधों का प्रमुख मुद्दा बन चुकी है . लेकिन इस बार कोपेनहेगन में दिसंबर में होने वाले शिखर सम्मलेन में कुछ ऐसे प्रस्ताव आने की उम्मीद है जो आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन की राजनीति को प्रभावित करेंगें. . त्रिनिदाद में आयोजित राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की सभा में भी जलवायु परिवर्तन का मुद्दा छाया रहा. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और रानी एलिज़ाबेथ तो थे ही, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून भी जलवायु परिवर्तन के बुखार की ज़द में थे. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी भी त्रिनिदाद की राजधानी पोर्ट ऑफ़ स्पेन पंहुचे हुए थे, हालांकि उनके वहां होने का कोई तुक नहीं था. . पश्चिमी यूरोप के देशों और अमरीका की कोशिश है कि भारत और चीन समेत उन विकासशील देशों को घेर कर औद्योगिक गैसों के उत्सर्जन के मामले में अपनी सुविधा के हिसाब से राजी कर लिए जाय . पोर्ट ऑफ़ स्पेन में इकठ्ठा हुए ज़्यादातर देश विकासशील माने जाते हैं , कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के अलावा सभी राष्ट्रमंडल देश औद्योगीकरण की दौड़ में पिछड़े हुए हैं . इसलिए उनको राजी करना ज्यादा आसान होगा. बाकी अन्य मंचों पर भी यह अभियान चल रहा है. कम विकसित देशों और अविकसित देशों को वातावरण की शुद्धता के महत्व के पाठ लगातार पढाये जा रहे हैं . विकसित देशों के इस अभियान का नेतृत्व , अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा कर रहे हैं.. उनकी कोशिश है कि भारत सहित उन देशों को अर्दब में लिया जाय जो कोपेनहेगन में औद्योगिक देशों की मर्जी के हिसाब से फैसले में अड़चन डाल सकते हैं . ओबामा की चीन यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. . वहां जाकर उन्होंने जो ऊंची ऊंची बातें की हैं , उनको पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल है लेकिन चीनी नेताओं को खुश करने की गरज से ओबामा महोदय थोडा बहुत हांकने से भी नहीं सकुचाये.
बहरहाल चीज़ें बहुत आसान नहीं हैं . राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की सभा में भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने साफ़ कह दिया कि ऐसी कोई भी बात वे मानने को तैयार नहीं होंगें जो न्यायसंगत न हो . उन्होंने साफ़ कहा कि भारत प्रदूषण करने वाली गैसों में कमी करने के ऐसे किसी भी दस्तावेज़ पर दस्तख़त करने को तैयार है जिसके लक्ष्य महत्वाकांक्षी हों लेकिन शर्त यह है कि उसकी बुनियाद में सबके प्रति न्याय की भावना हो., जो संतुलित हो और जो हर बात को विस्तार से स्पष्ट करता हो. . भारत की कोशिश है कि एक ऐसा समझौता हो जाए जो वैधानिक रूप से सभी पक्षों को बाध्य करता हो. डा. मनमोहन सिंह ने कहा कि आजकल विकसित देश यह कोशिश कर रहे हैं कि कोपेनहेगन में अगर कानूनी दस्तावेज़ पर दस्तखत नहीं हो सके तो एक राजनीतिक प्रस्ताव से काम चला लिया जाएगा. भारत ने कहा कि अभी बहुत समय है और इस समय का इस्तेमाल एक सही और न्यायपूर्ण प्रस्ताव पर सहमति बनाने के लिए किया जाना चाहिए.. उन्होंने कहा कि कोपेनहेगन में जो कुछ भी हासिल किया जाए उसको बाली एक्शन प्लान के मापदंड के अनुसार ही होना चाहिए.. डा. सिंह ने कहा कि बहुपक्षीय समझौते के लिए निर्धारित एजेंडा बहुत ही स्पष्ट है और उसको घुमाफिरा कर कुछ ख़ास वर्गों के हित में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.
पश्चिमी देशों की कोशिश है कि वे एक ऐसा ड्राफ्ट जारी कर दें जो कोपेनहेगन में चर्चा का आधार बन जाए और सारी बहस उसी के इर्द गिर्द घूमती रहे. खबर है कि इस ड्राफ्ट में वह सब कुछ है जो विकसित देश चाहते हैं . यह ड्राफ्ट १ दिसंबर को डेनमार्क की तरफ से जारी किया जाएगा. लेकिन इसकी भनक चीन को लग गयी है और उसने एक ऐसा डाक्यूमेंट तैयार कर लिया है जिसमें उन बातों का उल्लेख किया जा रहा है, जिसके नीचे आकर भारत,चीन , दक्षिण अफ्रीका और ब्राज़ील कोई समझौता नहीं करेंगें. . वे चार मुद्दे इस ड्राफ्ट में बहुत ही प्रमुखता से बताये गए हैं .वे चार मुद्दे हैं. पहला - यह चारों देश कभी भी गैसों के उत्सर्जन के बारे में ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगें जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हो ., उत्सर्जन के ऐसे किसी प्रस्ताव को नहीं मानेगें जिसके लिए माकूल मुआवज़े का प्रावाधन न हो , अपने देश के औद्योगिक उत्सर्जन पर किसी तरह की जांच या निरीक्षण नहीं मंज़ूर होगा और जलवायु परिवर्तन को किसी तरह के व्यापारिक अवरोध के हथियार के रूप के रूप में इस्तेमाल होने देंगें. , भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश भी इस चर्चा में शामिल हैं . उन्होंने बताया कि जब चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ ने शुक्रवार को उन्हें बताया तो उन्होंने उनसे सहमति ज़ाहिर की और कहा कि यह ड्राफ्ट बातचीत शुरू करने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है . उन्होंने कहा कि चीन ने इस दिशा में एक सक्रिय, सकारात्मक अगुवाई शुरू कर दी है और भारत उस का समर्थन करेगा. .
अमरीका की यात्रा पर गए भारत के प्रधान मंत्री को सामरिक साझेदार के रूप में राजी करने में ओबामा का शायद यह भी उद्देश्य रहा हो कि भारत को कोपेनहेगन में भी अपनी तरफ मोड़ लेंगें तो चीन को दबाना आसान हो जाएगा. लेकिन लगता है कि ऐसा होने नहीं जा रहा है . क्योंकि भारत अपने राष्ट्रीय हित को अमरीका की खुशी के लिए बलिदान नहीं करने वाला है. यह अलग बात है कि सामरिक साझेदारी के आलाप के शुरू होते ही भारत ने परमाणु मसले पर इरान के खिलाफ वोट देकर अपनी वफादारी और मंशा का सबूत दे दिया है .लेकिन जलवायु वाले मुद्दे पर ऐसा नहीं लगता कि भारत अपनी आने वाली पीढ़ियों से दगा करेगा और अमरीका की जी हुजूरी करेगा भारत ने तो एक तरह से ऐलान कर दिया है कि अपने परमपरागत दुश्मन, चीन के साथ मिलकर भी वह राष्ट्रहित के मुद्दों को उठाएगा.
Monday, November 30, 2009
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