शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश की राजनीति में २०१२ वाले विधान सभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गयी हैं . मुलायम सिंह यादव का मुसलमानों के नाम लिखा गया माफी नामा उसी तैयारी की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जो आन्दोलन चला उस से बी जे पी को तो फायदा हुआ ही , मुलायम सिंह यादव को भी लाभ हुआ था. घोर हिन्दू मतदाता बी जे पी में गया तो मुसलमान पूरी तरह से मुलायम सिंह के साथ हो गया. राजनीति को साम्प्रदायिक करने की गरज से आर एस एस ने बाबरी मस्जिद वाला आन्दोलन चलाया था . उन दिनों उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस थी लेकिन बुरी तरह से दरबारी संस्कृति की जकड़ में थी . आम तौर पर प्रदेश की राजनीति में धर्मनिरपेक्ष ताक़तों का समर्थन कांग्रेस को ही मिलता था लेकिन आर एस एस के आन्दोलन में सब तहस नहस हो गया. कांग्रेस को राज्य से विदा होने का परवाना मिल गया और विदाई भी ऐसी कि अभी तक वापसी की कोई खबर ही नहीं. मुसलमानों और दलितों के वोट तब तक परम्परागत रूप से कांग्रेस को मिलते थे. लेकिन सब बदल गया . विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स चला कर राजीव गाँधी को कहीं का नहीं छोड़ा , हिन्दू धर्म को राजनीतिक प्रचार के लिए इस्तेमाल करने की आर एस एस की रणनीति खासी सफल रही और सवर्ण हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग बी जे पी के साथ चला गया. बाबरी मस्जिद वाले आन्दोलन में मुलायम सिंह ने मुस्लिम समर्थक के रूप में अपनी छवि बाना ली और बाद में मुसलमान उनकी तरफ खिंच गया . दलितों को नया नेता मिल गया था , वे कांशी राम की बातों पर विश्वास कर रहे थे लिहाजा दलित वोट कांशीराम के हवाले हो गए . बाद के वर्षों में यही समीकरण चलता रहा लेकिन 2००७ के चुनावों में मायावती ने सब कुछ उलट दिया . उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि बी जे पी भी कांग्रेस के रास्ते चल पड़ी और बड़ी संख्या में मुसलमान भी मायावती के साथ चले गए .मुसलमानों का साथ छूटने से मुलायम सिंह यादव परेशान हो गए और उन्होंने पिछड़ी जातियों को एक मुश्त करने की कोशिश की और वहीं गलती कर गए. मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन माने जाने वाले राजनेता , कल्याण सिंह को साथ ले लिया . नतीजा यह हुआ कि २००९ के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की पार्टी की हालत पहले से कमज़ोर हो गयी. हार से बड़ा दुश्मन कोई नहीं होता है . पार्टी की हार के चक्कर में मुलायम सिंह यादव ने कई साथी खो दिए. उनके सबसे भरोसे के नेता , अमर सिंह भी निकाल दिए गए और मुलायम सिंह अकेले पड़ गए. हालांकि बहुत मज़बूत नहीं हैं लेकिन पिछले २० वर्षों में मुलायम सिंह यादव ने रामपुर के आज़म खां को मुस्लिम नेता के रूप में विकसित करने की कोशिश की थी. वह भी साथ छोड़ गए. मुलायम सिंह को सबसे बड़ा झटका लगा फिरोजाबाद में जहां हुए उपचुनाव में उनकी पुत्रवधू ही चुनाव हार गयी . मुसलमानों को खुश करने के लिए अमर सिंह के निष्कासन के बाद उनके विरोधी गुट ने जोर शोर अभियान चलाया कि कल्याण सिंह को अमर सिंह ही लाये थे लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा . जनता मानती रही कि मुलायम सिंह से उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कुछ करवा पाना बहुत मुश्किल है . अब जाकर मुलायम सिंह ने मुसलमानों से सीधी अपील की है कि भाई गलती हो गयी, माफ़ कर दो . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि देश में किसी मुस्लिम नेता की यह हैसियत नहीं है कि वह मुसलमानों के वोट को प्रभावित कर सके . इसलिए उन्हें उम्मीद है कि माफी मागने से मुसलमान एक बार फिर साथ आ जायेगें.अगर ऐसा हुआ तो उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दृश्य बहुत ही दिलचस्प हो जाएगा.
आज की हालत यह है कि राज्य का मुसलमान मतदाता अभी कांग्रेस की तरफ बढ़ रहा है. उसे उम्मीद है कि मुलायम सिंह के कमज़ोर पड़ने के बाद साम्प्रदायिक ताक़तों से उनकी रक्षा कांग्रेस ही कर पायेगी . अभी मुसलमान ,कम से कम उत्तर प्रदेश में बी जे पी को कोई राजनीतिक ताक़त नहीं मान रहा था. लेकिन मुसलमानों के खिलाफ वरुण गांधी का जो ज़हरीला प्रचार चल रहा है , राज्य के दूर दराज़ और कस्बों में अपील कर रहा है . जानकार मानते हैं कि वरुण गाँधी का नरेंद्र मोदी टाइप अभियान हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो मुसलमान उसको ही वोट देगा जो गारंटी के साथ बी जे पी को हरा सके. अभी तक की राजनीतिक स्थिति पर नज़र डालने से समझ में आ जाएगा यह हैसियत न तो अभी कांग्रेस की है और न ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी की. ऐसी हालत में अगर बी जे पी वाले यह प्रचार करने में कामयाब हो गए कि मुसलमान एकमुश्त वोट करने वाला है तो घोर हिन्दू वोट बी जे पी की तरफ मुड़ जायेगें . ऐसा माहौल बन जाने के बाद बी जे पी को हराने के लिए मुस्लिम वोट मायावती की पार्टी को मिल सकता है . यानी मुलायम सिंह यादव ने माफी तो मांग ली है लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि मुसलमान बी जे पी को हराने वाली पार्टी के साथ जाएगा, वह मुलायम सिंह यादव , मायावती और राहुल गाँधी में से कोई भी हो सकता है ., लेकिन राहुल गांधी की पार्टी के पास राज्य में ऐसे कार्यकर्ता नहीं है जो समर्थन को वोटों में बदल सकें , वहां तो सभी नेता ही हैं. मुलायम सिंह यादव का संगठन बहुत कमज़ोर है . ऐसे में लगता है कि स्वयंसेवकों की मदद से बी जे पी वाले ही मायावती के बाद सबसे बड़ी पार्टी बन जायेगें .
Monday, July 19, 2010
मीडिया पर हमला करना फासिस्ट को घुट्टी में पिलाया जाता है .
शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली के आजतक के दफ्तर में आर एस एस के कुछ कार्यकर्ता आये और तोड़फोड़ की . आर एस एस की राजनीतिक शाखा ,बी जे पी के प्रवक्ता ने कहा कि इस से टी वी चैनलों को अनुशासन में रहने की तमीज आ जायेगी यानी हमला एक अच्छे मकसद से किया गया था, उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे से लोग अनुशासन में रहें तो यह नौबत की नहीं आयेगी. आर एस एस से यह उम्मीद करना कि वह अपने विरोधी को सज़ा नहीं देना , ठीक वैसा ही है जैसे यह उम्मीद करना कि गिद्ध शाकाहारी हो जाएगा. वह उसकी प्रकृति है और कोई भी कोशिश कर ले , प्रकृति नहीं बदली जा सकती. आर एस एस को काबू में करने का एक ही नियम है जिसे आज़ाद भारत के पहले गृहमंत्री , सरदार पटेल ने लागू किया था. उस पर पाबंदी लगाकर उसे बेकार कर दिया था . सरदार कर बाद जवाहरलाल नेहरू ने आर एस एस को वैचारिक धरातल पर शून्य पर पंहुचा दिया था . बाद में इंदिरा गाँधी की विचार धारा से पैदल राज कायम हुआ और आर एस एस फिर सम्मान पाने की दिशा में अग्रसर हो गया . इंदिरा गाँधी ने अपने नौजवान बेटे की सलाह से इमरजेंसी लगा दी और चेले चपाटों के राज की संभावना बहुत जोर पकड़ गयी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आर एस एस को साथ लेकर लड़ाई लड़ी और संघ वाले फिर एक बार स्वीकार्यता की दहलीज़ लांघ कर मुख्यधारा की राजनीति आ गए. उसके बाद तो देश को न को गाँधी मिला, और न ही सरदार और न ही जवाहर लाल. मझोले दर्जे की राजनीति का युग शुरू हो गया . और फिर आर एस एस वाले भी राजनेता बन गए. केंद्र सरकार तक पंहुच गए. और अब वे बाकायदा एक राजनीतिक पार्टी हैं . लेकिन विपक्षी को ख़त्म कर देने की फासिस्ट सोच के चलते वे किसी तरह का लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं कर सकते लिहाजा अगर संभव होता है तो विरोधी को नुकसान पंहुचाते हैं . इसी सोच का नतीजा है कि उनके लोग आजकल मीडिया के ऊपर हमलावर मुद्रा में हैं . यह काम उनकी विचारधारा के पुरानत पुरुष हिटलर ने बार बार किया , पाकिस्तान में शुरू के दो तीन वर्षों के बाद से ही इसी फासिस्ट सोच वाले हावी हैं और अब भारत में भी फासिस्ट ताक़तें पहले से ज्यादा ताक़तवर हो रही हैं . मीडिया को काबू में करना फासिज्म की बुनियादी तरकीब माना जाता है और उसी काम में आर एस एस की हर शाखा के लोग लगे हुए हैं . आजतक के कार्यालय पर हुए हमले को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए.
आजतक और हेडलाइन टुडे के दफ्तर पर किये गए फासिस्ट हमले की मीडिया संगठनों ने निंदा की है और उसे कायराना हमला बताया है . सरकार के पास जुलूस भी जायेगा जहां यह मांग की जायगी कि आर एस एस पर फिर से पाबंदी लगा दी जाए और उसके नेताओं को खुले आम न घूमने दिया जाए. प्रेस क्लब में एक सभा भी हुई और उसी तरह की बातें रखी गयीं . लेकिन प्रेस को सरकार से याचना करने की कोई ज़रुरत नहीं है. आम तौर पर कहा जाता है कि मीडिया पर जब हमला होता है तो सभी लोग इकठ्ठा नहीं होते . जिसके कारण हलावारों के हौसले बढ़ जाते हैं और वे बार बार हमले करते हैं . यह मामला बहुत ही पेचीदा है,हालांकि सच है . ऐसा शायद इस लिए होता है कि जब ताज़ा हमले के पहले किसी और चैनल पर हमला हुआ था तो बाकी लोग नहीं आये थे . मुझे लगता है कि इस बहस से कन्नी काट लेना ही सही रहेगा लेकिन मीडिया पर हमला करने वालों पर लगाम तो लगानी होगी. कोई नहीं आता तो न आये लेकिन अगर आजतक और इंडिया टुडे ग्रुप तय कर ले तो बाद बदल सकती है. इस हमले में हेडलाइन टुडे और आजतक पर हमला इसलिए हुआ कि उन्होंने आर एस एस से जुड़े कुछ लोगों को मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलते कैमरे पर रिकार्ड कर लिया था और उस फुटेज को अपने चैनल पर दिखा कर अपना फ़र्ज़ निभाया था . लेकिन जिनके बारे में खबर थी वे भड़क गए और मार पीट पर उतारू हो गए . इनका जवाब देना बहुत ही आसान है . इतने बड़े न्यूज़ चैनल को किसी और मदद की ज़रुरत नहीं है . वे तो खुद ही इन तानाशाही के पुतलों को घर भेजने भर को काफी हैं . बस उन्हें आर एस एस को परेशान करने का मन बना लेना चाहिए. आर एस एस से कठिन सवाल पूछे जाने चाहिए . उनसे पूछा जाना चाहिये कि १९२० से १९४६ तक चली आज़ादी की लड़ाई में वे क्यों नहीं शामिल हुए , क्यों उनका कोई नेता जेल नहीं गया ,महात्मा गाँधी की ह्त्या में जिस आदमी को फांसी दी गयी उस से उन का विचारधारा के स्तर पर क्या सम्बन्ध था. उनसे पूछा जाय कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस में उनके नेता क्यों कई तरह की बातें कहते क्यों नज़र नहीं आये. उनसे पूछा जाए कि आपके यहाँ जो लोग जीवनदान दे चुके हैं उनको क्यों अकूत संपत्ति दी जाती है . मुराद यह है कि आर एस एस को ऐसे सवालों के घेरे में घेर दिया जाए कि बाद में जब कभी उनके नेता मीडिया सगठनों से पंगा लेने की सोचें तो उन्हें दहशत पैदा हो जाए . हालांकि यह तरीका बहुत ही लोक्तान्त्रिक नहीं हैं लेकिन शठ के साथ आचरण के कुछ नियम तय कर दिए गए हैं उनका पालन कर लेने में कोई बुराई नहीं है . दूसरी बात यह कि खबर को सही प्रसारित करने की बुनियादी प्रतिबद्धता को कभी नहीं भूलना चाहिए . और फासिस्ट ताक़तों को लोकतांत्रिक तरीकों से समझाया जाना चाहिए लेकिन उन्हें धमकाया भी जा सकता है .
नयी दिल्ली के आजतक के दफ्तर में आर एस एस के कुछ कार्यकर्ता आये और तोड़फोड़ की . आर एस एस की राजनीतिक शाखा ,बी जे पी के प्रवक्ता ने कहा कि इस से टी वी चैनलों को अनुशासन में रहने की तमीज आ जायेगी यानी हमला एक अच्छे मकसद से किया गया था, उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे से लोग अनुशासन में रहें तो यह नौबत की नहीं आयेगी. आर एस एस से यह उम्मीद करना कि वह अपने विरोधी को सज़ा नहीं देना , ठीक वैसा ही है जैसे यह उम्मीद करना कि गिद्ध शाकाहारी हो जाएगा. वह उसकी प्रकृति है और कोई भी कोशिश कर ले , प्रकृति नहीं बदली जा सकती. आर एस एस को काबू में करने का एक ही नियम है जिसे आज़ाद भारत के पहले गृहमंत्री , सरदार पटेल ने लागू किया था. उस पर पाबंदी लगाकर उसे बेकार कर दिया था . सरदार कर बाद जवाहरलाल नेहरू ने आर एस एस को वैचारिक धरातल पर शून्य पर पंहुचा दिया था . बाद में इंदिरा गाँधी की विचार धारा से पैदल राज कायम हुआ और आर एस एस फिर सम्मान पाने की दिशा में अग्रसर हो गया . इंदिरा गाँधी ने अपने नौजवान बेटे की सलाह से इमरजेंसी लगा दी और चेले चपाटों के राज की संभावना बहुत जोर पकड़ गयी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आर एस एस को साथ लेकर लड़ाई लड़ी और संघ वाले फिर एक बार स्वीकार्यता की दहलीज़ लांघ कर मुख्यधारा की राजनीति आ गए. उसके बाद तो देश को न को गाँधी मिला, और न ही सरदार और न ही जवाहर लाल. मझोले दर्जे की राजनीति का युग शुरू हो गया . और फिर आर एस एस वाले भी राजनेता बन गए. केंद्र सरकार तक पंहुच गए. और अब वे बाकायदा एक राजनीतिक पार्टी हैं . लेकिन विपक्षी को ख़त्म कर देने की फासिस्ट सोच के चलते वे किसी तरह का लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं कर सकते लिहाजा अगर संभव होता है तो विरोधी को नुकसान पंहुचाते हैं . इसी सोच का नतीजा है कि उनके लोग आजकल मीडिया के ऊपर हमलावर मुद्रा में हैं . यह काम उनकी विचारधारा के पुरानत पुरुष हिटलर ने बार बार किया , पाकिस्तान में शुरू के दो तीन वर्षों के बाद से ही इसी फासिस्ट सोच वाले हावी हैं और अब भारत में भी फासिस्ट ताक़तें पहले से ज्यादा ताक़तवर हो रही हैं . मीडिया को काबू में करना फासिज्म की बुनियादी तरकीब माना जाता है और उसी काम में आर एस एस की हर शाखा के लोग लगे हुए हैं . आजतक के कार्यालय पर हुए हमले को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए.
आजतक और हेडलाइन टुडे के दफ्तर पर किये गए फासिस्ट हमले की मीडिया संगठनों ने निंदा की है और उसे कायराना हमला बताया है . सरकार के पास जुलूस भी जायेगा जहां यह मांग की जायगी कि आर एस एस पर फिर से पाबंदी लगा दी जाए और उसके नेताओं को खुले आम न घूमने दिया जाए. प्रेस क्लब में एक सभा भी हुई और उसी तरह की बातें रखी गयीं . लेकिन प्रेस को सरकार से याचना करने की कोई ज़रुरत नहीं है. आम तौर पर कहा जाता है कि मीडिया पर जब हमला होता है तो सभी लोग इकठ्ठा नहीं होते . जिसके कारण हलावारों के हौसले बढ़ जाते हैं और वे बार बार हमले करते हैं . यह मामला बहुत ही पेचीदा है,हालांकि सच है . ऐसा शायद इस लिए होता है कि जब ताज़ा हमले के पहले किसी और चैनल पर हमला हुआ था तो बाकी लोग नहीं आये थे . मुझे लगता है कि इस बहस से कन्नी काट लेना ही सही रहेगा लेकिन मीडिया पर हमला करने वालों पर लगाम तो लगानी होगी. कोई नहीं आता तो न आये लेकिन अगर आजतक और इंडिया टुडे ग्रुप तय कर ले तो बाद बदल सकती है. इस हमले में हेडलाइन टुडे और आजतक पर हमला इसलिए हुआ कि उन्होंने आर एस एस से जुड़े कुछ लोगों को मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलते कैमरे पर रिकार्ड कर लिया था और उस फुटेज को अपने चैनल पर दिखा कर अपना फ़र्ज़ निभाया था . लेकिन जिनके बारे में खबर थी वे भड़क गए और मार पीट पर उतारू हो गए . इनका जवाब देना बहुत ही आसान है . इतने बड़े न्यूज़ चैनल को किसी और मदद की ज़रुरत नहीं है . वे तो खुद ही इन तानाशाही के पुतलों को घर भेजने भर को काफी हैं . बस उन्हें आर एस एस को परेशान करने का मन बना लेना चाहिए. आर एस एस से कठिन सवाल पूछे जाने चाहिए . उनसे पूछा जाना चाहिये कि १९२० से १९४६ तक चली आज़ादी की लड़ाई में वे क्यों नहीं शामिल हुए , क्यों उनका कोई नेता जेल नहीं गया ,महात्मा गाँधी की ह्त्या में जिस आदमी को फांसी दी गयी उस से उन का विचारधारा के स्तर पर क्या सम्बन्ध था. उनसे पूछा जाय कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस में उनके नेता क्यों कई तरह की बातें कहते क्यों नज़र नहीं आये. उनसे पूछा जाए कि आपके यहाँ जो लोग जीवनदान दे चुके हैं उनको क्यों अकूत संपत्ति दी जाती है . मुराद यह है कि आर एस एस को ऐसे सवालों के घेरे में घेर दिया जाए कि बाद में जब कभी उनके नेता मीडिया सगठनों से पंगा लेने की सोचें तो उन्हें दहशत पैदा हो जाए . हालांकि यह तरीका बहुत ही लोक्तान्त्रिक नहीं हैं लेकिन शठ के साथ आचरण के कुछ नियम तय कर दिए गए हैं उनका पालन कर लेने में कोई बुराई नहीं है . दूसरी बात यह कि खबर को सही प्रसारित करने की बुनियादी प्रतिबद्धता को कभी नहीं भूलना चाहिए . और फासिस्ट ताक़तों को लोकतांत्रिक तरीकों से समझाया जाना चाहिए लेकिन उन्हें धमकाया भी जा सकता है .
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