Monday, April 1, 2013

अमरीकी वीज़ा के लिए नरेन्द्र मोदी की एक और कोशिश नाकाम



शेष नारायण सिंह  

अमरीकी वीज़ा  के लिए  गुजरात के मुख्यमंत्री कुछ भी करने को तैयार हैं .अभी दो दिन पहले न्यूज़ चैनलों पर दिन भर एक खबर चलती रही कि  अमरीकी कांग्रेस के चार सदस्य आये हैं और उन्होंने नरेन्द्र मोदी से मुलाक़ात करके उन्हें अमरीका आने का न्योता दिया और भरोसा दिलाया कि  वे कोशिश करेगें कि  नरेन्द्र मोदी को गुजरात आने का वीजा मिल जायॆ. ख़बरों को इस तरह से प्रचारित किया गया था कि लगता था कि अमरीकी संसद की ओर से आये किसी प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व कर रहे अमरीकी सांसदों ने अपनी सरकार या संसद की तरफ से मोदी को आमंत्रित किया था. लेकिन अब बात कुछ और ही नज़र आ रही है . बात अजीब शक्ल अख्तियार कर चुकी है . भारत में उन अखबारों को भी सच्चाई छापनी पड़ रही है जो आमतौर पर ऐसी ख़बरें नहीं छापते जिनसे मोदी की छवि को नुक्सान पंहुचे . नरेन्द्र मोदी के एक प्रशंसक अखबार में छपा है कि शिकागो से प्रकाशित होने वाले एक  अमेरिकी अखबार ने दावा किया है कि दल में शामिल लोगों ने गुजरात का दौरा करने के लिए बाकायदा पैसे लिए। 
शिकागो के एक अखबार हाई इंडिया में छपा है कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के लिए अमेरिकी दल में शामिल हर लोगों को 16 हजार डॉलर यानी आठ लाख रुपये दिए जमा करना पड़ा था और यह एक  टूरिस्ट कार्यक्रम था . वहां पर बाकायदा विज्ञापान देकर लोगों को शामिल किया गया था. और बताया गया था कि सोलह हज़ार डालर जमा करने पर इस यात्रा में शामिल  होने का मौक़ा मिलेगा . विज्ञापन में लिखा था कि अमरीकी संसद के चार सदस्यों के साथ भारत की यात्रा पर जाने का जो मौक़ा मिल रहा है उसमें गुजरात, कर्णाटक और पंजाब की यात्रा शामिल है . गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल से मुलाक़ात के अलावा रणथम्भोर में बाघ दिखाए जायेगें और बालीवुड की सैर का भी मौक़ा मिलेगा. शिकागो में रहने वाले भारतीय मूल के एक व्यापारी ने यह सारा कार्यक्रम बनाया था.  नरेन्द्र मोदी के ऊपर अमरीका में घुसने की मनाही का आदेश लगा हुआ है . गुजरात में २००२ के नरसंहार के बाद अमरीका ने  कई बार नरेन्द्र मोदी की वीजा की अर्जी को ठुकराया है . उसके  बाद से जब भी मौक़ा मिलता है नरेन्द्र मोदी कोशिश करते हैं कि  उन्हें अमरीकी वीजा मिल जाये. देश के सबसे बड़े अखबार( दैनिक जागरण ) में आज खबर है कि यह मौजूदा यात्रा का आयोजन शिकागो के एक व्यापारी शलभ कुमार ने किया है . खबर में लिखा है की वाशिंगटन ने जो एक दशक पूर्व नरेंद्र मोदी की अमेरिका आने पर प्रतिबंध लगा रखा है और इस प्रतिबंध को हटाने के लिए माहौल बनाने के वास्ते शलभ व ओवरसीज भाजपा के बीच एक करार हुआ है। अखबार आगे लिखता है कि इस दौरे को न तो वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास न ही नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास ने आयोजित किया था। इस दौरे में रिपब्लिकन सांसद भी आए थे। आयोजकों ने सेवेन स्टार ट्रिप के लिए 16 हजार डॉलर [लगभग आठ लाख रुपये] प्रति व्यक्ति व एक युगल के लिए 29 हजार डॉलर [लगभग 15 लाख रुपये] और फोर स्टार टूर के लिए 10 हजार डॉलर [लगभग पांच लाख रुपये] लिए। इस ट्रिप में दल को गांधी स्मारक का दौरा करना है। इसके बाद उदयपुर में लेक पैलेस में ठहरने की योजना है। कर्नाटक में राज्य सरकार के बतौर मेहमान तिरुपति का दौरा करना है। इस ट्रिप में रणथंभौर टाइगर रिजर्व और जयपुर पैलेस का टूर भी शामिल है। साथ में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के साथ डिनर भी शामिल है। इस खुलासे के बाद दल के गुजरात दौरे के महत्व धूमिल हो गई। मोदी हों या बादल, खबर के मुताबिक इनसे अमेरिकियों की मुलाकात महज सैर सपाटे का हिस्सा था। अमेरिका से आए उस प्रतिनिधिमंडल के आयोजकों ने इस दौरे में शामिल होने के लिए प्रति व्यक्ति 3,000 डॉलर से लेकर 16,000 डॉलर तक की राशि रखी थी। इस व्यापारिक प्रतिनिधिमंडल में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के चार सदस्य शामिल हैं और सभी रिपब्लिकन पार्टी से हैं।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि  नरेन्द्र मोदी को अमरीका में स्वीकार्य बनवाने के लिए जुटे  हुए लोग आग एक्य काम करते हैं . मौजूदा योजना तो लगता है की मुंह के बल  गिर चुकी है .

रिटायर होने के बाद भी इन्साफ के लिए लड़ते हैं जस्टिस मार्कंडेय काटजू



शेष नारायण सिंह


  प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने १९९३ के मुंबई धमाकों के आभियुक्त संजय दत्त और जेबुन्निसा की सज़ा को माफ करवाने के लिए राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल से अपील करने का फैसला कर लिया है . आज जब उनको बताया गया कि संजय दत्त ने कहा है कि वे कोई माफी नहीं मांगने जा रहे हैं और वे निर्धारित समय पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार समर्पण कर देगें और देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें जो सज़ा दी है उसे भुगत कर ही बाहर आयेगें ,तो जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि उनकी योजना पर संजय दत्त के इस बयान से कोई फर्क नहीं पडेगा क्योंकि वे संजय दत्त के प्रतिनिधि के रूप में नहीं जा रहे हैं . वे अपनी तरफ से सज़ा को माफ करवाने के लिए अपील करेगें .उन्होंने कहा कि संजय दत्त और जेबुन्निसा का मामला ऐसा है जिसमें उन दोनों की सज़ा को माफ किया जाना चाहिए . जस्टिस काटजू का विरोध बीजेपी और आर एस एस से जुड़े संगठन और उन  संगठनों से सहानुभूति रखने वाले लोग पूरे जोर शोर से कर रहे हैं . एक टी वी बहस में जनता पार्टी के अध्यक्ष ,डॉ सुब्रमण्यम  स्वामी ने बहुत  ही ज़ोरदार तरीके से कहा कि सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है जिसमें  लिखा है कि किसी भी व्यक्ति की सजा को माफ करने का एक ही आधार बनता है कि  सजा को माफ करने से कोई सार्वजनिक हित का काम होगा . संजय  दत्त को माफी देने से किसी भी सार्वजनिक हित के काम के होने की कोई संभावना नहीं है  इसलिए उनको माफी नहीं दी जानी चाहिए . लेकिन जस्टिस मार्कंडेय काटजू का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद ७२ और १६१ में लिखा है कि किसी भी सज़ा पाए हुए व्यक्ति को राष्ट्रपति और राज्यपाल माफी दे  सकते हैं . उन्होंने जोर देकर कहा कि दोनों ही अनुच्छेदों में कहीं नहीं लिखा है कि माफी का आधार क्या होगा . उन्होंने कहा कि माफी देने के हज़ारों आधार हो सकते हैं . यह तो राष्ट्रपति और राज्यपाल के विवेक पर छोड़ दिया गया है .  सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों में यह उल्लेख अवश्य है कि सार्वजनिक हित का कोई मुद्दा होना चाहिए लेकिन ऐसे कई फैसले हैं जिनमें यह भी लिखा है कि सार्वजनिक हित के अलावा और भी मुद्दों पर सज़ा को  माफ किया जा सकता है . कम से कम संविधान तो  इसके लिए कोई भी शर्त नहीं निर्धारित करता . जहां तक सुप्रीम कोर्ट  के  किसी फैसले की बात है ,किसी भी फैसले के बाद राष्ट्रपति और राज्यपाल के क्षमा देने के अधिकारों में कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया  है .

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि संजय दत्त की माफी की अपील करने के पहले उन्होने  संजय दत्त से कोई बात नहीं की है . उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में दो बातें  लिखी हैं . एक तो यह कि संजय दत्त पर आतंक के किसी भी अपराध में शामिल होने के सबूत नहीं  हैं . अदालत ने यह भी कहा है कि उन्होने यह हथियार अपने परिवार की रक्षा के लिए रखे थे .और दूसरा यह कि संजय दत्त ने अपने पास ऐसे हथियार रखे जो उनको नहीं रखना  चाहिए था . उसकी सज़ा उन्हें  मिल चुकी है . वे १८ महीने जेल में रहकर आये हैं और जेल से आने के बाद भी कई साल तक अपने आपको संभलाने में लगे रहे . इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें छोड़ दिया  गया है . जस्टिस काटजू की अपील यह  है कि मानवीय आधार पर संजय दत्त और जेबुन्निसा की सजा को माफ किया जाना चाहिए. . इसलिए उन्होने  यह अपील की  है . जब जस्टिस काटजू को याद दिलाया गया कि ए के ५६ जैसे हथियारों से परिवार की रक्षा की बात समझ में नही आती  तो उन्होंने कहा कि  सुप्रीम कोर्ट के फैसले में लिखी बातों पर वे बहस नहीं करना चाहते , न उनको करना चाहिए .   उन्होंने यह भी साफ़ किया कि वे  किसी न्यायिक प्रक्रिया के तहत माफी की बात  नहीं कर रहे हैं वे तो राष्ट्रपति और राज्यपाल के उस अधिकार की बात कर रहे हैं  जो उन्हें संविधान की ओर से मिला हुआ है .
जेबुन्निसा काजी के केस में भी जस्टिस  मार्कंडेय काटजू को मेरिट नज़र आती है .उन्होंने कहा कि उनके बारे में हुए फैसले को पढ़ने के बाद वे इस नतीजे पर पंहुचे हैं कि  जेबुन्निसा को भी माफी मिलनी चाहिए .उनको सज़ा केवल इस बात पर मिली है कि उनके पास से ऐसे हथियार मिले हैं जिनको रखना गैर कानूनी है .उनकी बेटी का कहना है कि वे लोग अबू सलेम को इलाके के एक प्रापर्टी डीलर के रूप में जानते थे और जब वह कोई सामान रख कर चला गया और बाद में पता चला कि वे हथियार थे तो उनकी माँ का क्या कसूर है . पड़ोसी का सामान कौन  नहीं रखता . उनकी माँ को मालूम ही नहीं था कि  उस बैग में क्या रखा था. जस्टिस काटजू का  कहना है कि जेबुन्निसा ने इस बात का कभी खंडन नहीं किया कि उनके यहाँ सामान नहीं  मिला. उनकी राय  में जेबुन्निसा को शुरुआती स्तर पर ही बेनिफिट आफ डाउट मिलना चाहिए था .लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ है तो अब उनको माफी दी जानी चाहिए. वे बहुत बीमार हैं . उनकी किडनी का आपरेशन हुआ है .उनको हर छः महीने  बाद जांच करवानी पड़ती है . जस्टिस काटजू को डर है कि वे बाकी सज़ा काट ही नहीं पायेगीं. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पैरा १२५ में लिखा है कि वे साज़िश के मुख्य आरोप में दोषी नहीं  पायी गयी हैं .

जस्टिस काटजू को इन्साफ की लड़ाई में शामिल होने का शौक़ है . इसके अलावा वे कभी भी सच्चाई को बयान करने में संकोच नहीं करते. पिछले दिनों कुछ टी वी पत्रकारों को कम बौद्धिक स्तर का व्यक्ति बताकर टी वी उन्होंने पत्रकारिता के मठाधीशों को नाराज़ कर दिया था .उनके इस बयान के बाद तूफ़ान मच गया . टी वी न्यूज़ के अपनी ताक़त दिखाना शुरू कर दिया . उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाने लगा . पत्रकार बिरादरी में मार्कंडेय काटजू को घटिया आदमी बताने का फैशन चलाने की कोशिश शुरू हो गयी. अधिकतम लोगों तक अपनी पंहुच की ताक़त के बल पर टी वी चैनलों के कुछ स्वनामधन्य न्यूज़ रीडरों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया . लेकिन मार्कंडेय काटजू ने अपनी बात को सही ठहराने का सिलसिला जारी रखा. हर संभव मंच पर उन्होंने अपनी बात कही. जब एक टी वी चैनल की महिला एंकर ने उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया तो उन्होंने फ़ौरन अपना प्रोटेस्ट दर्ज किया . उन एंकर को टेलीफोन करके बताया कि वे उनके बयान को सही तरीके से उद्धरित नहीं कर रही हैं . टी वी चैनल की नामी एंकर साहिबा कह रही थीं कि मार्कंडेय काटजू ने अधिकतर पत्रकारों को अशिक्षित कहा है . काटजू ने उनको फोन करके बताया कि आप गलत बोल रही हैं . करण थापर के साथ हुए इंटरव्यू में मैंने कुछ पत्रकारों को "पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " वाला कहा है . उन्होंने  आग्रह किया कि मेरी आलोचना अवश्य कीजिये लेकिन कृपया मेरी बात को सही तरीके से कोट तो कीजिये . झूठ के आधार पर कोई डिस्कशन संभव नहीं है .

उसके बाद देश के सबसे सम्मानित अंग्रेज़ी अखबार ने जस्टिस मार्कंडेय काटजू के स्पष्टीकरण को प्रमुखता से छापा  और टी वी पत्रकारों के " पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " के विषय पर सार्थक बहस शुरू कर दी  .लेकिन जस्टिस काटजू अपनी बात पर डटे रहे और बहुत सारे टी वी न्यूज़  वालों सार्वजनिक रूप से तो नहीं लेकिन निजी बातचीत में बार बार स्वीकार किया कि काटजू की बात में दम है . मार्कंडेय काटजू  सफल रहे और बहुत सारे लोगों की कोशिश के बाद भी  मीडिया को उनके खिलाफ नहीं खड़ा किया जा  सका. वे आज भी मीडिया के प्रिय है . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल के प्रमुख तो उन्हने अक्सर अपने यहाँ सम्मान के साथ  बुलाते हैं और उनकी बात को प्रमुखता  देते हैं .
जस्टिस काटजू का परिवार पिछले सौ साल से भी अधिक समय से इलाहाबाद हाई कोर्ट और  वहाँ की न्याय परंपरा का हिस्सा रहा है . उनके पिता ,जस्टिस एस एन काटजू इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं. मार्कंडेय काटजू के दादा डॉ कैलाश नाथ काटजू आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे और केंद्र सरकार  में कानून और रक्षा विभाग के मंत्री भी रह चुके थे. वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी थे. खुद मार्कंडेय काटजू अंग्रेज़ी,
हिन्दीसंस्कृत उर्दूइतिहास ,दर्शनशास्त्र ,समाजशास्त्र जैसे विषयों के अधिकारी विद्वान् हैं . १९६८ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एल एल बी परीक्षा में उन्होंने टाप किया था . इलाहाबाद के हाई कोर्ट में ४५ साल की उम्र में ही जज बन गए थे. मद्रास और दिल्ली हाई कोर्टों में मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं.बहुत सारी किताबों के लेखक हैं और अपनी बात को बिना किसी संकोच के बिना किसी हर्ष विषाद के कह देने की कला में निष्णात हैं . उन्होंने ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में वह बयान दिया था जिसमे उस महान संस्था में काम करने वालों की कठोर आलोचना की गई थी.

बहरहाल उन्होंने संजय दत्त और जेबुन्निसा को मिली सज़ा को माफ कराने का अभियान शुरू करके एक विबाद को फिर जन्म दे दिया है . यह देखन दिलचस्प होगा कि  उनका अभियान क्या रंग लाता है .

श्रीलंका में तमिलों की हालत हिटलर कालीन जर्मनी के यहूदियों जैसी है



शेष नारायण सिंह

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका की सेना की तरफ से श्रीलंकाई तमिलों पर हुई ज्यादतियों के बारे में एक और प्रस्ताव पास हो गया  है . २०११ में भी एक प्रस्ताव पास हुआ था. उस वक़्त श्रीलंका की सरकार ने अपने  राजनयिकों को दुनिया भर में भेजा था और कोशिश की थी कि उसके ऊपर मानवाधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की किसी संस्था में कोई प्रस्ताव न पास हो लेकिन प्रस्ताव पास हो गया था. प्रस्ताव पास करके रिकार्ड की फ़ाइल में रख दिया गया था श्रीलंका की सरकार के ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा. उसके बाद श्रीलंका ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी चिंताओं को टालना शुरू कर दिया . इस साल जब प्रस्ताव पास होने वाला था तो श्रीलंका ने  जूनियर अफसरों  का एक प्रतिनिधिमंडल जिनेवा भेज दिया था .  प्रस्ताव पास हो गया . मानवाधिकार परिषद  ने बहुत ही चिंता के साथ यह नोट किया है कि मानवाधिकारों की तबाही  के जो आरोप श्रीलंका की सेना पर लगाये  गए हैं उन पर वहाँ की सरकार गौर नहीं कर रही है . तमिल विद्रोहियों के साथ चले २६ साल के युद्ध में तमिल सेना ने बहुत अत्याचार किया था और एक अनुमान के अनुसार करीब ४०  हज़ार तमिल मूल के गैर सैनिक नागरिकों को मार डाला था . लड़ाई २००९ में खत्म हो गयी थी और  बहुत सारे तमिल विद्रोहियों ने समर्पण कर दिया था. यह अलग बात  है कि बाद में वे सभी सरकारी रिकार्ड में 'लापता दिखा दिए गए थे. श्रीलंका में इस ‘लापता ‘ का मतलब ठिकाने लगा दिया जाना माना जाता है .
जब जिनेवा में मानवाधिकार परिषद में वोट पड़ने वाला था तो बहुत सारे श्रीलंकाई मानवाधिकार कार्यकर्ता वहाँ गए थे और कोशिश कर रहे थे कि ऐसा प्रस्ताव पास किया जाए जिससे श्रीलंका की सरकार पर कुछ दबाव पड़ सके . ज़ाहिर है प्रस्ताव तो बहुत ही हल्का है लेकिन जो लोग इस प्रस्ताव के पक्ष में थे उनको श्रीलंका में  देशद्रोही के रूप में पेश किया जा रहा है और उनको डर है कि अगर वे वापस  गए तो उनको भी 'लापता बता दिया जाएगा.  श्रीलंका में उन लोगों की खैर नहीं है जो राजपक्षे सरकार के  खिलाफ कोई भी राय रखते हों . और अगर वे अपनी राय को कहीं व्यक्त कर दें तो खतरा बहुत बढ़  जाता है . शायद इसीलिये उन पत्रकारों को'लापता होना पड़ रहा है जिन्होंने कभी भी राजपक्षे  सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखा है. 
संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद का ताज़ा प्रस्ताव भी श्रीलंका की सरकार पर कोई असर नहीं डाल पायेगा . प्रस्ताव की भाषा बहुत हल्की है उसमें लिखा  है कि श्रीलंका की सरकार को " मानवाधिकारों के कथित उन्लंघन " की जांच करनी चाहिए .यानी सारी दुनिया को मालूम है कि किस तरह से श्रीलंका की सेना ने तमिलों के खून से होली खेली थी लेकिन मानवाधिकार  परिषद उसे कथित के मुलम्मे के साथ प्रस्ताव में पेश करती है . इस तरह के प्रस्ताव से  मानवाधिकारों की रक्षा  की कोई बात तो नहीं ही होने वाली है क्योंकि श्रीलंका को मालूम है कि दुनिया की सरकारें श्रीलंका से किसी गंभीर कार्रवाई की उम्मीद  नहीं करतीं. अगर ऐसा होता तो मानवाधिकारों के बड़े अलम्बरदार बने हुए ब्रिटेन ने कम से कम नाराज़गी जताने की गरज से ही सही , कोलम्बो में प्रस्तावित कामनवेल्थ देशों के सम्मेलन को  ही कहीं और टालने की घोषणा कर दी होती .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

२००९ में श्रीलंका ने तमिल विद्रोहियों के आंदोलन को कुचल दिया था . उसके बाद से अब तक सरकार ने स्वीकार भी नहीं किया है कि तमिलों के साथ कोई अत्याचार हुआ था. आज भी श्रीलंका के उत्तर और पूर्व में रहने वाले  तमिलों को सेना की बन्दूक की दहशत के नीचे जीवन बिताना पड़ रहा है .लोगों को बिला वजह पकड़ लिया जाता है और बाद में खबर आती है कि वे'लापता हो गए  हैं . जब उनके रिश्तेदार थाने जाकर पुलिस से पूछताछ करते हैं तो पता लगता है कि सम्बंधित व्यक्ति लापता ‘  हो गया है और वह वापस नहीं आएगा. लोगों को मालूम है कि पुलिस के इस बयान का मतलब यह है कि वह व्यक्ति मार दिया गया है . मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को हमेशा डराने धमकाने की कोशिश हमेशा होती रहती है. श्रीलंका की सरकार को अब भरोसा हो गया है कि  कहीं भी कोई प्रस्ताव पारित हो जाए उसके ऊपर कोई दबाव नहीं पड़ने वाला है क्योंकि उसको सुरक्षा परिषद में चीन और  रूस का समर्थन हासिल है जिसके सहारे वह अमरीका की कोई परवाह   नहीं करता. श्रीलंका में जापान के व्यापारिक हित हैं इसलिए जापान भी उसके खिलाफ ऐसा कोई काम नहीं करता जिस से राष्ट्रपति राजपक्षे नाराज़ हो जाएँ .जानकार बताते हैं कि अमरीका भी शायद इसीलिये कुछ करता है कि श्रीलंका में उसके कोई  भी राजनीतिक या व्यापारिक हित नहीं हैं .

श्रीलंका के मानवाधिकार के उन्लंघन के मामले में भारत की दुविधा सबसे भारी है .श्रीलंका में जिस तमिल आबादी पर श्रीलंका की फासिस्ट सोच वाली सरकार का आतंक है वह मूल रूप से भारतीय है ,तमिलनाडु से ही श्रीलंकाई तमिलों के पूर्वज वहाँ गए थे. भारत की राजनीति पर तमिलों के साथ होने वाले अत्याचार का सीधा असर पड़ता है. इस बार तो इसी मुद्दे पर केन्द्र सरकार के  गिरने की नौबत आ गयी .शायद इसीलिये भारत सरकार ने जिनेवा में श्रीलंका के खिलाफ वोट के दौरान बहुत ही सख्त बातें कहीं . हालांकि जो बातें वहाँ कही गयीं  उनका पास हुए प्रस्ताव से कोई लेना देना  नहीं है लेकिन भारत सरकार अपने तमिलनाडु वाले समर्थक दल को अपने बयान के हवाले से बता सकती है कि उसने श्रीलंका सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाया  था .जिनेवा में भारत के स्थायी प्रतिनिधि का बयान तमिलनाडु में २०१४ के चुनावों में बार बार दोहराया जाएगा और सरकार यह दावा करेगी कि कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को इस बात पर बहुत तकलीफ थी कि बड़ी संख्या में श्रीलंकाई तमिल आतंक के साये में  जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं और सरकार को उन तमिलों के कल्याण की बहुत चिंता है .भारतीय बयान में कहा गया है कि भारत सरकार मांग करती है कि एल एल आर सी ( लेसंस लर्न्ट एंड रीकांसिलिएशन कमीशन ) की रिपोर्ट को लागू किया जाए. यह कमीशन श्रीलंका की सरकार ने ही बनाया था और उसके राष्ट्रपति इसके संरक्षक थे . भारत सरकार ने कहा है कि उत्तरी प्रांत में  लापता लोगों, बंदियों,और अपहरण का शिकार हुए लोगों के बारे में सरकार  अपनी नीति को स्पष्ट करे,. सिविलियन इलाकों से सेना को हटाया जाये ,तमिलों की वह ज़मीन जिस पर सेना ने कब्जा कर रखा  है उसे तुरंत वापस किया जाए . भारत सरकार ने मांग की है कि मानवाधिकार के हनन के सभी मामलों की निष्पक्ष और  विश्वसनीय जांच की जाए. .श्रीलंका की सरकार को चाहिए कि वह सारे मामलों में लोगों की जिम्मेदारी को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाये.
जिनेवा में दिए गए भारत सरकार के बयान में वह सारी बातें लिखी हुई हैं जिनके सहारे सरकार ,कांग्रेस पार्टी और यू पी ए में कांग्रेस की सहयोगी रही डी एम के अपने आपको तमिलों का शुभचिंतक बता सकती है लेकिन यह बात भी तय है कि  श्रीलंका में रहने वाले तमिलों की मुसीबत अभी खत्म होने वाली नहीं है. उनको अभी उसी फासिस्ट तानाशाही को झेलना पड़ेगा जिसे हिटलर के काल में जर्मनी में रहने वाले यहूदियों को झेलना पड़ा था.