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Monday, April 1, 2013

रिटायर होने के बाद भी इन्साफ के लिए लड़ते हैं जस्टिस मार्कंडेय काटजू



शेष नारायण सिंह


  प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने १९९३ के मुंबई धमाकों के आभियुक्त संजय दत्त और जेबुन्निसा की सज़ा को माफ करवाने के लिए राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल से अपील करने का फैसला कर लिया है . आज जब उनको बताया गया कि संजय दत्त ने कहा है कि वे कोई माफी नहीं मांगने जा रहे हैं और वे निर्धारित समय पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार समर्पण कर देगें और देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें जो सज़ा दी है उसे भुगत कर ही बाहर आयेगें ,तो जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि उनकी योजना पर संजय दत्त के इस बयान से कोई फर्क नहीं पडेगा क्योंकि वे संजय दत्त के प्रतिनिधि के रूप में नहीं जा रहे हैं . वे अपनी तरफ से सज़ा को माफ करवाने के लिए अपील करेगें .उन्होंने कहा कि संजय दत्त और जेबुन्निसा का मामला ऐसा है जिसमें उन दोनों की सज़ा को माफ किया जाना चाहिए . जस्टिस काटजू का विरोध बीजेपी और आर एस एस से जुड़े संगठन और उन  संगठनों से सहानुभूति रखने वाले लोग पूरे जोर शोर से कर रहे हैं . एक टी वी बहस में जनता पार्टी के अध्यक्ष ,डॉ सुब्रमण्यम  स्वामी ने बहुत  ही ज़ोरदार तरीके से कहा कि सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है जिसमें  लिखा है कि किसी भी व्यक्ति की सजा को माफ करने का एक ही आधार बनता है कि  सजा को माफ करने से कोई सार्वजनिक हित का काम होगा . संजय  दत्त को माफी देने से किसी भी सार्वजनिक हित के काम के होने की कोई संभावना नहीं है  इसलिए उनको माफी नहीं दी जानी चाहिए . लेकिन जस्टिस मार्कंडेय काटजू का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद ७२ और १६१ में लिखा है कि किसी भी सज़ा पाए हुए व्यक्ति को राष्ट्रपति और राज्यपाल माफी दे  सकते हैं . उन्होंने जोर देकर कहा कि दोनों ही अनुच्छेदों में कहीं नहीं लिखा है कि माफी का आधार क्या होगा . उन्होंने कहा कि माफी देने के हज़ारों आधार हो सकते हैं . यह तो राष्ट्रपति और राज्यपाल के विवेक पर छोड़ दिया गया है .  सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों में यह उल्लेख अवश्य है कि सार्वजनिक हित का कोई मुद्दा होना चाहिए लेकिन ऐसे कई फैसले हैं जिनमें यह भी लिखा है कि सार्वजनिक हित के अलावा और भी मुद्दों पर सज़ा को  माफ किया जा सकता है . कम से कम संविधान तो  इसके लिए कोई भी शर्त नहीं निर्धारित करता . जहां तक सुप्रीम कोर्ट  के  किसी फैसले की बात है ,किसी भी फैसले के बाद राष्ट्रपति और राज्यपाल के क्षमा देने के अधिकारों में कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया  है .

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि संजय दत्त की माफी की अपील करने के पहले उन्होने  संजय दत्त से कोई बात नहीं की है . उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में दो बातें  लिखी हैं . एक तो यह कि संजय दत्त पर आतंक के किसी भी अपराध में शामिल होने के सबूत नहीं  हैं . अदालत ने यह भी कहा है कि उन्होने यह हथियार अपने परिवार की रक्षा के लिए रखे थे .और दूसरा यह कि संजय दत्त ने अपने पास ऐसे हथियार रखे जो उनको नहीं रखना  चाहिए था . उसकी सज़ा उन्हें  मिल चुकी है . वे १८ महीने जेल में रहकर आये हैं और जेल से आने के बाद भी कई साल तक अपने आपको संभलाने में लगे रहे . इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें छोड़ दिया  गया है . जस्टिस काटजू की अपील यह  है कि मानवीय आधार पर संजय दत्त और जेबुन्निसा की सजा को माफ किया जाना चाहिए. . इसलिए उन्होने  यह अपील की  है . जब जस्टिस काटजू को याद दिलाया गया कि ए के ५६ जैसे हथियारों से परिवार की रक्षा की बात समझ में नही आती  तो उन्होंने कहा कि  सुप्रीम कोर्ट के फैसले में लिखी बातों पर वे बहस नहीं करना चाहते , न उनको करना चाहिए .   उन्होंने यह भी साफ़ किया कि वे  किसी न्यायिक प्रक्रिया के तहत माफी की बात  नहीं कर रहे हैं वे तो राष्ट्रपति और राज्यपाल के उस अधिकार की बात कर रहे हैं  जो उन्हें संविधान की ओर से मिला हुआ है .
जेबुन्निसा काजी के केस में भी जस्टिस  मार्कंडेय काटजू को मेरिट नज़र आती है .उन्होंने कहा कि उनके बारे में हुए फैसले को पढ़ने के बाद वे इस नतीजे पर पंहुचे हैं कि  जेबुन्निसा को भी माफी मिलनी चाहिए .उनको सज़ा केवल इस बात पर मिली है कि उनके पास से ऐसे हथियार मिले हैं जिनको रखना गैर कानूनी है .उनकी बेटी का कहना है कि वे लोग अबू सलेम को इलाके के एक प्रापर्टी डीलर के रूप में जानते थे और जब वह कोई सामान रख कर चला गया और बाद में पता चला कि वे हथियार थे तो उनकी माँ का क्या कसूर है . पड़ोसी का सामान कौन  नहीं रखता . उनकी माँ को मालूम ही नहीं था कि  उस बैग में क्या रखा था. जस्टिस काटजू का  कहना है कि जेबुन्निसा ने इस बात का कभी खंडन नहीं किया कि उनके यहाँ सामान नहीं  मिला. उनकी राय  में जेबुन्निसा को शुरुआती स्तर पर ही बेनिफिट आफ डाउट मिलना चाहिए था .लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ है तो अब उनको माफी दी जानी चाहिए. वे बहुत बीमार हैं . उनकी किडनी का आपरेशन हुआ है .उनको हर छः महीने  बाद जांच करवानी पड़ती है . जस्टिस काटजू को डर है कि वे बाकी सज़ा काट ही नहीं पायेगीं. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पैरा १२५ में लिखा है कि वे साज़िश के मुख्य आरोप में दोषी नहीं  पायी गयी हैं .

जस्टिस काटजू को इन्साफ की लड़ाई में शामिल होने का शौक़ है . इसके अलावा वे कभी भी सच्चाई को बयान करने में संकोच नहीं करते. पिछले दिनों कुछ टी वी पत्रकारों को कम बौद्धिक स्तर का व्यक्ति बताकर टी वी उन्होंने पत्रकारिता के मठाधीशों को नाराज़ कर दिया था .उनके इस बयान के बाद तूफ़ान मच गया . टी वी न्यूज़ के अपनी ताक़त दिखाना शुरू कर दिया . उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाने लगा . पत्रकार बिरादरी में मार्कंडेय काटजू को घटिया आदमी बताने का फैशन चलाने की कोशिश शुरू हो गयी. अधिकतम लोगों तक अपनी पंहुच की ताक़त के बल पर टी वी चैनलों के कुछ स्वनामधन्य न्यूज़ रीडरों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया . लेकिन मार्कंडेय काटजू ने अपनी बात को सही ठहराने का सिलसिला जारी रखा. हर संभव मंच पर उन्होंने अपनी बात कही. जब एक टी वी चैनल की महिला एंकर ने उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया तो उन्होंने फ़ौरन अपना प्रोटेस्ट दर्ज किया . उन एंकर को टेलीफोन करके बताया कि वे उनके बयान को सही तरीके से उद्धरित नहीं कर रही हैं . टी वी चैनल की नामी एंकर साहिबा कह रही थीं कि मार्कंडेय काटजू ने अधिकतर पत्रकारों को अशिक्षित कहा है . काटजू ने उनको फोन करके बताया कि आप गलत बोल रही हैं . करण थापर के साथ हुए इंटरव्यू में मैंने कुछ पत्रकारों को "पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " वाला कहा है . उन्होंने  आग्रह किया कि मेरी आलोचना अवश्य कीजिये लेकिन कृपया मेरी बात को सही तरीके से कोट तो कीजिये . झूठ के आधार पर कोई डिस्कशन संभव नहीं है .

उसके बाद देश के सबसे सम्मानित अंग्रेज़ी अखबार ने जस्टिस मार्कंडेय काटजू के स्पष्टीकरण को प्रमुखता से छापा  और टी वी पत्रकारों के " पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " के विषय पर सार्थक बहस शुरू कर दी  .लेकिन जस्टिस काटजू अपनी बात पर डटे रहे और बहुत सारे टी वी न्यूज़  वालों सार्वजनिक रूप से तो नहीं लेकिन निजी बातचीत में बार बार स्वीकार किया कि काटजू की बात में दम है . मार्कंडेय काटजू  सफल रहे और बहुत सारे लोगों की कोशिश के बाद भी  मीडिया को उनके खिलाफ नहीं खड़ा किया जा  सका. वे आज भी मीडिया के प्रिय है . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल के प्रमुख तो उन्हने अक्सर अपने यहाँ सम्मान के साथ  बुलाते हैं और उनकी बात को प्रमुखता  देते हैं .
जस्टिस काटजू का परिवार पिछले सौ साल से भी अधिक समय से इलाहाबाद हाई कोर्ट और  वहाँ की न्याय परंपरा का हिस्सा रहा है . उनके पिता ,जस्टिस एस एन काटजू इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं. मार्कंडेय काटजू के दादा डॉ कैलाश नाथ काटजू आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे और केंद्र सरकार  में कानून और रक्षा विभाग के मंत्री भी रह चुके थे. वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी थे. खुद मार्कंडेय काटजू अंग्रेज़ी,
हिन्दीसंस्कृत उर्दूइतिहास ,दर्शनशास्त्र ,समाजशास्त्र जैसे विषयों के अधिकारी विद्वान् हैं . १९६८ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एल एल बी परीक्षा में उन्होंने टाप किया था . इलाहाबाद के हाई कोर्ट में ४५ साल की उम्र में ही जज बन गए थे. मद्रास और दिल्ली हाई कोर्टों में मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं.बहुत सारी किताबों के लेखक हैं और अपनी बात को बिना किसी संकोच के बिना किसी हर्ष विषाद के कह देने की कला में निष्णात हैं . उन्होंने ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में वह बयान दिया था जिसमे उस महान संस्था में काम करने वालों की कठोर आलोचना की गई थी.

बहरहाल उन्होंने संजय दत्त और जेबुन्निसा को मिली सज़ा को माफ कराने का अभियान शुरू करके एक विबाद को फिर जन्म दे दिया है . यह देखन दिलचस्प होगा कि  उनका अभियान क्या रंग लाता है .

Friday, June 26, 2009

राजनीति और हवाई नेता

संजय दत्त को समाजवादी पार्टी ने महासचिव बना दिया। समाजवादी पार्टी को इस देश में समाजवादी आंदोलन और लोहिया की विरासत का ट्रस्टी माना जाता है। संयुक्त समाजवादी पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी या अन्य समाजवादी धाराओं के लोग पूरे देश में कहीं न कहीं बिखरे पड़े हैं। कुछ लोग हाशिए पर आ गये हैं। तो बाकी लोग कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों की शरण में हैं।

कुछ लोगों ने अपनी राजनीतिक पार्टियां बना रखी हैं। और मौका मिलते ही सत्ता के रथ पर सवार हो जाते हैं। समाजवादी पार्टी के नेता भी इसी ताक में रहते हैं, लेकिन अभी उत्तर प्रदेश के गांवों में कुछ ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ काम किया था और आम आदमी की पक्षधरण के संघर्ष में शामिल हुए थे, जुलूस निकाला था। और लाठियां खाईं थी। हर उस सरकार को निकम्मी घोषित किया था जो रोटी रोज़ी नहीं दे सकती थी।

उसी समाजवादी पार्टी में मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर चले आ रहे हैं। इस बात पर कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन राजनीतिक पार्टी के संचालन में जिस तरह की अफरातफरी का माहौल समाजवादी पार्टी में शुरू किया किया है, उस पर आश्चर्य होता है।राजनीति फर्म को समाज की सामूहिक सोच और मनीषा का संगम माना जाता है।

विद्वान मानते हैं कि राजनीति अधिकतम संख्या जनता की वैध महत्तवाकांक्षाओं को पूरा करने का ही नाम है और वैध महत्वाकांक्षाओं का वाहक बने। इन्हीं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान उसी जनता के बीच से राजनीतिक पार्टियों के नेता उभरते हैं मुलायम सिंह यादव, जनेश्वर मिश्र, राम गोपाल यादव, लालू यादव, नीतिश कुमार, वृंदा करात, करूणानिधि शरद पवार, बुद्घदेव भट्टाचार्य आदि ऐसे ही लोग हैं, लेकिन जब ऊपर पहुंच चुके नेताओं की व्यक्तिग कुछ और आशिर्वाद लेकर पैराशूट के जरिए, आम कार्यकर्ता के सिर पर नेता उतार दिए जाते हैं तो पार्टी का जनाधार प्रभावित होता है।

और पार्टी की हैसियत रोज-ब-रोज कम होती जाती है। कांग्रेस पार्टी का पिछले 30 साल का इतिहास इस तथ्य को विधिवत स्पष्टï कर देता है। संजय गांधी के दौर में उपर फट्ट लोगों को भर्ती करने का सिलसिला शुरू हुआ और राजीव गांधी ने दून स्कूल के अपने साथियों से कांग्रेस को भर दिया और वही लोग देश के भाग्य विधाता बन गए। नतीजा दुनिया के सामने हैं। अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के बल पर चार सौ के आसपास सीट पाने वाले राजीव गांधी पांच साल के अंदर कांग्रेस की हार के जिम्मेदार बने। कांग्रेस पार्टी का जनाधार तितर-बितर हो गया और तबसे आज तक संभल नहीं सकी।

2004 के चुनावों के पहले भारतीय ने भी हवाई नेताओं को बड़े पैमाने पर भरती किया था और उनका भी वही हाल हो रहा है। जो कांग्रेस का हुआ था। आम कार्यकर्ता जो निराश हुआ तो थामे नहीं थम रहा है। और अब समाजवादी पार्टी भी उसी ढर्रे पर चल निकली है। अपनी पार्टी के रामपुर के बड़े नेता आजम खां की मर्जी के खिलाफ जिसे पार्टी चुनाव लड़ा रही है, उसके भी आम कार्यकर्ता तो कभी नहीं कहा जा सकता। संजय दत्त भी इसी श्रेणी में आते हैं। अजीब बात यह है कि समाजवादी पार्टी जैसा जमीन से जुड़ा संगठन संजय दत्त की आपराधिक पृष्ठभूमि को धमकाकर दबाने की कोशिश कर रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ शक का माहौल पैदा किया जा रहा है। और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ लामबंदी की कोशिश की जा रही है। इस सबसे ज्यादा मुश्किल यह है कि इस तरह के संकेत देने की कोशिश हो रही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कांग्रेस के दबाव में आया है। वरना संजय दत्त लखनऊ से उम्मीदवार रहते। और जैसे सुप्रीम कोर्ट को ही चिढ़ाने के लिए फैसले के अगले दिन ही संजय दत्त को पार्टी को महासचिव बना दिया गया। समझ में नहीं आता ऐसी हड़बड़ी क्यों है।

आखिर संजयदत्त कोई दूध के धुले तो हैं नहीं। जिस तरह के आरोप उनपर लगे हैं और अदालत ने उन्हें सज़ा दी है, वह कोई साधारण सज़ा तो है नहीं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जिद में कोई काम करने के पहले समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के जनाधार खिसकने की कहानी पर गौर कर ले। जल्दबाजी और जिद में किए गए फैसले कभी भी अपने हित में नहीं होते।

अदालत का फैसला

उच्चतम न्यायालय के निर्णय से अभिनेता संजय दत्त के नेता बनने की उम्मीदों पर जिस तरह पानी फिरा उसका यदि कोई सकारात्मक पक्ष है तो सिर्फ यह कि अब उन अनेक आपराधिक इतिहास वाले बाहुबलियों को अदालत का दरवाजा खटखटाने की हिम्मत नहीं पड़ेगी जो अपनी सजा निलंबित कराने का तानाबाना बुन रहे थे।

इसके लिए वे क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के मामले को एक नजीर की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। यदि संजय दत्त को चुनाव लडऩे की अनुमति मिल जाती तो शायद बाहुबलियों की जमात भी अपने लिए ऐसी ही सुविधा की मांग करती। इस पर संतोष जताया जा सकता है कि अब ऐसा नहीं होगा, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि संजय दत्त की आशाओं पर जो तुषारापात हुआ उसके लिए उनके कथित गंभीर अपराध के साथ-साथ वह न्यायिक तंत्र भी जिम्मेदार है जिसने उनसे संबंधित मामले का निपटारा करने में इतना अधिक समय ले लिया।

उन्हें 1993 के मुंबई बम विस्फोट कांड में 2007 में यानी 14 वर्ष बाद सजा सुनाई जा सकी। इस सजा के खिलाफ संजय दत्त की अपील उच्चतम न्यायालय में अभी लंबित है। यदि इस अपील का निपटारा हो गया होता तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाता कि वह चुनाव लडऩे के पात्र हैं अथवा नहीं? संजय दत्त को टाडा कोर्ट ने छह वर्ष की सजा सुनाई है। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत दो या इससे अधिक वर्ष की कैद के सजायाफ्ता व्यक्ति के चुनाव में खड़े होने पर रोक का प्रावधान है, लेकिन अभी तो इसका निर्धारण होना शेष है कि संजय दत्त इतनी सजा पाने के हकदार हैं या नहीं?

जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि संजय दत्त आदतन अपराधी नहीं हैं उसी तरह टाडा अदालत भी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि उनका अपराध अमानवीय एवं समाज को क्षति पहुंचाने वाला नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसका कोई भी लाभ उन्हें नहीं मिल सका। संजय दत्त इस आधार पर स्वयं को दिलासा दे सकते हैं कि उनके राजनीति में सक्रिय होने की संभावनाएं अभी भी बरकरार हैं।

फिलहाल यह कहना कठिन है कि टाडा कोर्ट की सजा के खिलाफ की गई संजय दत्त की अपील पर उच्चतम न्यायालय किस निष्कर्ष पर पहुंचता है, लेकिन यदि वह यह पाता है कि 18 माह की जो सजा वह भुगत चुके हैं वह पर्याप्त है तो फिर यह एक तरह की नाइंसाफी होगी। यह कहना आसान है कि संजय दत्त थोड़ा और इंतजार करें तथा कानून को अपना काम करने दें, लेकिन ध्यान रहे कि वह पिछले 14 वर्षो से यही कर रहे हैं।

नि:संदेह कानून अपनी तरह से अपना रास्ता तय करता है, लेकिन जब उसका रास्ता अनावश्यक रूप से लंबा नजर आने लगे तो फिर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह न्याय तंत्र के सुगम और सक्रिय न होने का ही परिणाम है कि संजय दत्त आदतन अपराधी न होते हुए भी प्रतीक्षा करने के लिए विवश हैं। यह विवशता तो उनके समक्ष होनी चाहिए जो आदतन अपराधी हैं। यह निराशाजनक है कि अनेक आदतन अपराधी न केवल चुनाव लडऩे, बल्कि विधानमंडलों तक पहुंचने में भी सफल हैं। नि: संदेह ऐसा नहीं होना चाहिए।