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Saturday, September 14, 2013

नार्वे में सत्ता परिवर्तन, दक्षिणपंथी अर्ना सोलबर्ग प्रधानमंत्री बनेगीं



शेष नारायण सिंह
ओस्लो,१० सितम्बर . नार्वे में दक्षिणपंथी कंज़रवेटिव पार्टी ,होयरे की सरकार बनेगी. रात भर चली मतगणना में  नार्वे की आयरन लेडी अर्ना सोलबर्ग की अगुवाई वाले गठबंधन ने इतनी सीटें जीत ली हैं कि अब प्रधानमंत्री  येंस स्तूलतेंबर्ग के आठ साल की सरकार की विदाई हो गयी है . अति दक्षिणपंथी एफ आर पी यानी प्रोग्रेस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने की अर्ना सोलबर्ग की  राह में अब कोई अड़चन  नहीं है . खासकर जब उनके साथ चुनाव अभियान के दौरान शामिल हुई वेंस्तरे पार्टी और क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी ने साफ़ कर दिया है कि  उन्होंने सत्ता बदलने की बात की थी और वे उसमें आड़े नहीं आयेगें .अर्ना सोलबर्ग का रास्ता बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि प्रोग्रेस पार्टी ने पूरे चुनाव में यह बात बार बार कही है कि वे  प्रवासियों के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं करेगें . वे अश्वेत प्रवासियों को नहीं आने देगें और जो लोग भी सोमालिया ,इथियोपिया और पाकिस्तान से आकर गैर कानूनी तरीकों से लोग रह  रहे हैं उनको देश छोड़ने को मजबूर करेगें .

गठबंधन सरकार की अपनी शर्तें होती हैं और सरकार उनके हिसाब से बनती है . नार्वे में सरकार बनाना राजनीतिक पार्टियों के लिए ज़रूरी इसलिए भी होता है कि यहाँ भारत की तरह संसद को भंग करने का विकल्प नहीं होता . कानून इस बारे में इतना सख्त है कि अब चुनाव २०१७ के पहले नहीं हो सकता .अपने चुनावी वायदों में ५२ साल की राजनेता ,अर्ना सोलबर्ग ने  दावा किया था कि अगर उनकी सरकार आ गयी तो वे टैक्स के रेट में भारी कमी करेगीं,पेट्रोलियम पर केंद्रित अर्थव्यवस्था को अन्य क्षेत्रों में भी ले जाया जाएगा ,कुछ सरकारी कंपनियों का निजीकरण करेगीं और डॉ मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की किताब से कुछ  सबक निकालेगीं और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को और ताक़तवर बनायेगीं  और इस तरह से नार्वे के कल्याणकारी राज्य के स्वरूप में भारी बदलाव करेगीं .अर्ना सोलबर्ग की सरकार बनने के साथ साथ प्रवासी  समुदाय में चिंता साफ़ नज़र आने लगी है क्योंकि जब २००१ से २००५ तक अर्ना सोलबर्ग मंत्री  थीं तो उन्होने  प्रवासी नियम कानून बहुत सख्त कर दिया था . अब तो उनको प्रोग्रेस पार्टी का सहयोग भी लेना है इसलिए एशिया और अफ्रीका से आने वाले प्रवासियों के लिए अब मुश्किल  पेश आयेगी .
अर्ना सोलबर्ग नार्वे की दूसरी महिला प्रधानमंत्री बनेगीं .इसके पहले १९८० में बरु हार्लेम ग्रुन्तलैंड प्रधानमंत्री रह चुकी हैं जो बाद में संयुक्त राष्ट्र में भी बड़े पद पर गयी थीं .यहाँ महिलाओं को सबसे पहले वोट देने का अधिकार मिला था इसलिए नार्वेजी समाज में  महिलाओं की बहुत इज्ज़त है . ऐसा लग रहा है कि अर्ना सोलबर्ग के मंत्रिमंडल में  चोटी के तीन पदों पर महिलायें ही होंगीं . प्रोग्रेस पार्टी और वेस्न्तरे पार्टी की नेता महिलायें ही  हैं और  उनका सरकार में शामिल होना निश्चित माना जा रहा है .
नार्वे की अर्थव्यवस्था यूरोप में बहुत अच्छी मानी जाती है क्योंकि फालतू खर्च न करके देश ने पिछले दशक में यूरोप में चल रही आर्थिक संकट की स्थिति से अपने आपको बचाकर रखा हुआ है .नार्वे के कब्जे में नार्थ सी में जो पेट्रोलियम का भण्डार है उसके चलते नार्वे बहुत ही संपन्न देश है . इस बात का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि नार्वे की प्रति व्यक्ति आय एक लाख अमरीकी डालर मानी जाती है जो दुनिया में सबसे ज्यादा है ,शायद तेल की संपदा के कारण बहरीन में भी इस से ज़्यादा पर कैपिटा आमदनी है लेकिन मानवाधिकार के बारे में वे बहुत पीछे हैं .
अब सरकार बनने का कठिन काम शुरू होगा और नई सरकार ९ अक्टूबर को काम शुरू कर देगी लेकिन अर्ना सोल्बर्ग की कठिनाई अब शुरू हो रही है . सबसे पहले तो प्रोग्रेस पार्टी की नेता ,सीव येन्सन को अपनी राजनीति के करीब लाना होगा क्योंकि वे और उनकी पार्टी बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से विदेशों से आकर बसने वालों पर अभियान चला रही थीं. . हालांकि उन्होने  चुनाव के बाद साफ़ नज़र आ रहे परिवर्तन के मद्दे नज़र कल ही कह दिया था कि सरकार चलाने के लिए एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया जाएगा . प्रोग्रेस पार्टी पहली बार सरकार में  शामिल हो रही है और वह बहुत मुश्किल सहयोगी साबित हो सकती है . प्रोग्रेस पार्टी को साधना बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि उसका इतिहास एक असहिष्णु राजनीतिक जमात का रहा है .इस पार्टी के सदस्य ऐन्डर्स बेहरिंग ब्रीविक ने २०११ में बम से हमला करके ७७ राजनीतिक विरोधियों की हत्या कर दी थी . इन दोनों पार्टियों की सरकार को क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक या  वेंस्तरे पार्टी का सहयोग लिए बिना बहुमत नसीब नहीं होगा लेकिन वे प्रोग्रेस पार्टी के प्रवासी मामलों के रुख से बहुत नाराज़ हैं . अगर यह दोनों छोटी पार्टियां सरकार में शामिल न हुईं तो अर्ना सोलबर्ग को एक अल्पसंख्यक सरकार चलानी पद सकती है जो कि ख़ासा मुश्किल काम हो सकता है .

Thursday, July 14, 2011

ए राजा के खिलाफ कुछ भी नहीं सुनना चाहते थे प्रधानमंत्री ,गुरुदास कामत का संकेत

शेष नारायण सिंह

मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद नाराज़ मंत्रियों में वीरप्पा मोइली और श्रीकांत जेना को संभल गए लेकिन मुंबई के नेता गुरुदास कामत ने कांग्रेस आलाकमान को घेरने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है..वे खुद तो माफी मांग रहे हैं लेकिन उनके कुछ ख़ास अफसर एक अजीब मुहिम चला रहे हैं . दिल्ली के सरकारी गलियारों में आज एक चर्चा ज़ोरों पर है कि गुरुदास कामत को इसलिए डिमोट किया गया कि उन्होंने ए राजा के अधीन काम करते हुए तत्कालीन संचार मंत्री के काले कारनामों के बारे में एक चिठ्ठी प्रधान मंत्री को लिख कर भेज दी थी. जिसमें जो कुछ लिखा है बाद में वही सब कुछ सी ए जी की मार्फत पब्लिक डोमेन में आया था. उनके चेला टाइप अफसरों ने राजनीतिक हलकों में यह खबर कुछ पत्रकारों के ज़रिये चलाने की कोशिश की है. बताया जा रहा है कि ए राजा जब टू जी स्पेक्ट्रम में गड़बड़ी कर रहे थे तो गुरुदास कामत ने प्रधान मंत्री को सारी जानकारी एक पत्र लिख कर भेज दी थी. लेकिन उन्हें प्रधान मंत्री कार्यालय से यह सन्देश आया कि उस पत्र में लिखी गयी बातों को थोडा हल्का कर दें . खुसुर फुसुर अभियान में बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव में उन्होंने पत्र को बदल भी दिया था. अभियान में जुड़े अफसरों की टोन यह है कि गुरुदास कामत जैसा पवित्र आत्मा भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं कर पाया इसलिए उन्होंने उन्होंने पत्र लिख दिया था लेकिन प्रधान मंत्री कार्यालय और कांग्रेस की टाप लीडरशिप के पास फुर्सत ही नहीं थी कि वह ए राजा के खिलाफ कुछ सुन सके. . इस गंभीर बात के बारे में जब कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश की गयी तो अजीब बातें सामने आयीं. पता चला कि कि गुरुदास कामत ने ए राजा की शिकायत तो प्रधानमंत्री से की थी लेकिन उनका मकसद भ्रष्ट्राचार का खात्मा नहीं था. टू जी स्पेक्ट्रम में गले तक डूबे हुए विनोद गोयनका नाम के व्यक्ति ने शुरू में गुरुदास कामत से ही संपर्क साधा था. शायद ऐसा इसलिए था कि गुरुदास कामत उन दिनों संचार मंत्रालय में ए राजा के मातहत राज्य मंत्री थे . लेकिन बाद में विनोद गोयनका ने सीधे ए राजा से सम्बन्ध बना लिया. बताया जा रहा है कि जब गुरुदास कामत ने उससे अपनी बात की तो उसने टका सा जवाब दे दिया और कामत को कुछ भी देने से इनकार कर दिया . इसकी शिकायत लेकर गुरुदास कामत महाराष्ट्र के एक बहुत बड़े नेता के पास भी गए. उन नेता जी के हस्तक्षेप के बाद कुछ सुलह सफाई हो गयी लेकिन विनोद गोयनका ने जो कुछ देने का प्रस्ताव किया वह बहुत कम था . गुरुदास कामत अपने को ए राजा से बड़ा नेता मानते थे . ए राजा की तुलना में उनको मिलने वाली रक़म बहुत कम थी. बात बढ़ गयी और पिछली फेरबदल में कामत को संचार मंत्रालय से हटा दिया गया. लेकिन जब उन्होंने इस बार के फेरबदल के पहले अपने उस पुराने पत्र का ज़िक्र करके दबाव बनाने की कोशिश की तो कांग्रेस आलाकमान को उनका यह तरीका बहुत नागवार गुज़रा और उनको बहुत ही मामूली विभाग देने का फैसला कर लिया गया. देखना है कि इस जानकारी के सार्वजनिक डोमेन में आने के बाद कांग्रेस नेतृत्व उनको वास्तव में दण्डित करता है या उनके उस पत्र के डरकर उन्हें फिर से सम्मानित करता है .

गुरुदास कामत के इस प्रचार अभियान के जुटे साथी बताते हैं कि जिस तरह से वित्त मंत्री के रूप में मोरारजी देसाई ने तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की विदेश यात्रा के दौरान किये गए कुछ खर्चों पर आपत्ति दर्ज करवा कर ईमानदारी की एक मिसाल कायम की थी ,उसी तरह से गुरुदास कामत ने भी ईमानदारी की मिसाल कायम की है. लेकिन आर्थिक अपराध के जानकारों का कहना है कि अगर यह साबित हो गया कि ए राजा जब आपराध कर रहे थे ,उस वक़्त गुरुदास कामत को मालूम था कि अपराध हो रहा है और उन्होंने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की तो उनको भी पकड़ा जा सकता है . वैसे भी राजा के खिलाफ जब से जांच शुरू हुई है उसके बाद भी गुरुदास कामत ने सी बी आई को इतनी अहम जानकारी नहीं दी तो उनकी नीयत पर सवाल उठेगें. सवाल उठता है कि राष्ट्रहित और जनहित की इतनी बड़ी जानकारी को उन्होंने सही एजेंसी के पास न पंहुचा कर अपनी पार्टी की टाप लीडरशिप पर दबाव बनाने के लिए इस्तेमाल करके अपना हित तो साधा है लेकिन क्या उन्होंने जनहित की अनदेखी नहीं की. यह देखना बभी दिलचस्प होगा कि क्या इस नई जानकारी के अफवाह के रूप में चलाये जाने के बाद सी बी आई इस सन्दर्भ में कोई कार्रवाई करेगी.

Friday, February 11, 2011

आर एस एस ने की प्रधानमंत्री से फ़रियाद ,' हमारे टाप नेताओं को बचाओ '

शेष नारायण सिंह

आर एस एस वाले डर गए हैं . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने जिस तरह से संघी आतंकवाद के खिलाफ हमला बोला है उसके बाद आर एस एस में दहशत का आलम है . आर एस एस के एक बड़े नेता भैयाजी जोशी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर मांग की है उनके टाप नेताओं, मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार की हत्या की साज़िश रची जा रही है और प्रधानमंत्री को चाहिए कि उनकी रक्षा करें . उनका आरोप है कि संघी आतंकवाद में शामिल लोग ही इन नेताओं को मारना चाहते हैं . आर एस एस का यह क़दम स्वागत योग्य है क्योंकि बहुत दिनों बाद पार्टी ने सिस्टम की इज्ज़त करने का फैसला किया है . इसके पहले आर एस एस वाले अपने आपको कानून मानते थे और मनमोहन सिंह की सरकार को एक गैरज़रूरी चीज़ मानते थे. अजमेर, मालेगांव और मक्का मस्जिद में आतंकवादी हमलों के सरगना कर्नल पुरोहित, दयानंद पाण्डेय और प्रज्ञा ठाकुर को हीरो के रूप में पेश करते थे लेकिन ताज़ा चिट्ठी में उन्होंने दावा किया है कि कर्नल पुरोहित और दयानन्द पाण्डेय उनके बड़े नेताओं, मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार की हत्या करना चाहते हैं .आर एस एस के प्रवक्ता और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य , राम माधव ने बताया कि चिट्ठी प्रधानमंत्री कार्यालय में जमा करा दी गयी है . इसके पहले आर एस एस को उम्मीद थी कि बीजेपी के नेता उनके इन्द्रेश कुमार को बचाने के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़ेंगें लेकिन बीजेपी ने साफ़ मना कर दिया . उनका तर्क है कि बीजेपी की अंतरराष्ट्रीय छवि बहुत ही खराब हो जायेगी अगर वे आतंकवादी गतिविधियों में लीन एक व्यक्ति के पक्ष में खड़े देखे जायेगें . बीजेपी सहित सब को मालूम है कि इन्द्रेश कुमार का बचाव करना असंभव है . अब आर एस एस ने खुद ही पहल की है . प्रधान मंत्री के यहाँ भेजी गयी चिट्ठी में लिखा है कि आर एस एस को अस्थिर करने के इरादे से एक साज़िश रची गयी है जिसके तहत आर एस एस के नेताओं, मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार को मार डालने की योजना बनायी गयी है . उनका आरोप है कि कर्नल पुरोहित और दयानंद पाण्डेय उस साज़िश में शामिल हैं . चिट्ठी में मांग की गयी है कि इस मामले की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच कराई जाये.यहाँ यह याद दिलाने की ज़रुरत है कि जब स्व हेमंत करकरे ने मालेगांव धमाकों के आरोप में इन लोगों को पकड़ा था तो सारे देश में आर एस एस ने इन्हीं प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित को हिन्दू धर्म के रक्षक के रूप में पेश किया था और करकरे के खिलाफ अभियान चलाया था . आज जब जांच के घेरे में आर एस एस के बड़े नेता फंसने लगे हैं तो अपने को आतंकवादी संगठन के रूप में पहचाने जाने के खतरे से बचने के लिए यह सारा काम किया जा रहा है. अब पाण्डेय और पुरोहित को आर एस एस के विरोधी के रूप में पेश करने की कोशिश चल रही है.आरोप यह भी है कि असीमानंद के इकबालिया बयान में इन्द्रेश कुमार का नाम आ जाने के बाद उन्हें तो पकड़ा जा रहा है लेकिन उसी बयान में उसने कहा है कि कर्नल पुरोहित ने इन्द्रेश कुमार को मार डालने की योजना बनायी थी लेकिन उसका ज़िक्र नहीं किया जा रहा है . आर एस एस की इस बात में तो दम है कि इन्द्रेश कुमार की जान को ख़तरा है लेकिन असीमानंद के बयान में यह भी है कि इन्द्रेश कुमार को पाकिस्तान से पैसा मिलता था . ज़ाहिर है कि यह बहुत ही गंभीर आरोप है , इसकी भी जांच की जानी चाहिए . आर एस एस की अब तक की जो ख्याति है उसमें यह बहुत कठिन होगा कि पार्टी का कोई टाप नेता किसी मुसलमान या पाकिस्तान से रिश्ता रखेगा लेकिन इन्द्रेश कुमार का जो काम है वह इसकी पूरी गुंजाइश छोड़ता है . आर एस एस में मुसलमानों को शामिल करने के प्रोजेक्ट के कर्ता-धर्ता के रूप में उन्होंने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की स्थापना करवाई थी. मुस्लिम विरोधी मुसलमानों के बीच उनका खासा उठना बैठना था इसलिए पाकिस्तान में भी उनके सम्बन्ध होने की जांच का केस तो बनता है . जहां तक आर एस एस के लोगों का आतंकवादी धमाकों में शामिल होने के आरोप हैं अब वे लगभग साबित हो चुके हैं . हो सकता है कि कानूनी लड़ाई में इनमें से कुछ लोग तकनीकी आधार पर बच भी जाएँ लेकिन जनमानस में अब यह सिद्ध हो चुका है कि आर एस एस ने आतंकवादी तरीकों को अपनाया था . ऐसी हालत में लगता है कि भागते भूत की लंगोटी ही बचाने की योजना पर काम चल रहा है.हो सकता है कि बाकी सारे अभियुक्तों से पिंड छुड़ा कर आर एस एस वाले अपने टाप नेताओं को बचाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं और उसमें उन्हें बीजेपी से कोई मदद नहीं मिल रही है . इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आर एस एस ने बीजेपी को सबक सिखाने के लिए सरकार के पास कोई प्रस्ताव भी भेजा हो . हालांकि इस बात का अभी पक्का पता नहीं है लेकिन अगर सरकार और कांग्रेस पार्टी को सही मौका हाथ आया तो वे बीजेपी और आर एस एस में फ़र्क़ डालने के किसी मौके का पूरा फायदा उठायेगें. यह आर एस एस की बहुत बड़ी कुर्बानी होगी लेकिन मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार जैसे बड़े नताओं को आतंकवादी घोषित होने से बचाने के लिए कोई भी कुर्बानी छोटी होगी.

Friday, November 19, 2010

भ्रष्टाचार का घेरा प्रधानमंत्री के मोहल्ले तक पंहुचा

शेष नारायण सिंह

डॉ मनमोहन सिंह को बीजेपी ने चारों तरफ से घेर लिया है .उन पर आरोप है कि उन्होंने २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले को शुरू में ही न रोक कर गलती की . उससे देश का करीब पौने दो लाख करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है .संसद के अंदर सरकार को घेरने में जुटी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से दस सवाल पूछकर सदन से बाहर भी उन्हें घेरने की शुरुआत कर दी है। गडकरी ने कहा है कि जब तक उन्हें इन सवालों के जवाब नहीं मिल जाते, वह संसद नहीं चलने देंगे। नितिन गडकरी के सवाल बहुत ही बुनियादी स्तर के हैं लेकिन सवाल तो हैं और मीडिया में चर्चित हो रहे हैं . २ जी स्पेक्ट्रम के घोटाले में सरकार की ज़िम्मेदारी बड़ी है और इसमें दो राय नहीं कि सरकार ने गलती की है .जो लोग गठबंधन सरकार की मजबूरी की बात कर रहे हैं , उनकी बात भी बिल्कुल गलत है. क्या किसी वैद ने बताया है कि कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार चलती ही रहनी चाहिए .तथाकथित गठबंधन धर्म का यही मतलब तो बताया जा रहा है कि सरकार चलाते रहने के लिए ए राजा की कारगुजारियों को बर्दाश्त किया गया . किसने कहा था सरकार चलाने के लिए . इसी गठबंधन धर्म का सहारा लेकर बीजेपी ने भी केंद्र और उत्तरप्रदेश में भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़े थे. अब कांग्रेस ने उनका भी रिकार्ड तोड़ दिया है .२ जी घोटाला बहुत बड़ा है .इसमें डी एम के के आला नेता का परिवार पूरी तरह डूबा हुआ लगता है . उनके परिवार के एक कार्यकर्ता के रूप में दिल्ली में ए राजा तैनात थे . उन्होंने अपने चेन्नई वाले मालिकों के हुक्म से लूटपाट की और सारा माल मालिकों तक पंहुचाया . भ्रष्टाचार के किसी भी प्रोजेक्ट में बड़े पैमाने पर पैसे का योगदान होता है . उसमें आर्थिक अपराध के मुक़दमे बनते हैं . यह देश का दुर्भाग्य है कि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां सत्ता में रहने के बाद लूटमार करती हैं . जब एक पार्टी लूटमार कर रही होती है तो विपक्षी पार्टियां दूसरी तरफ देखने लगती हैं . और जनता का पैसा बर्बाद होता रहता है . राजनीतिक बिरादरी के स्विस बैंकों के खाते भरते रहते हैं और अपने मुल्क की आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुसीबतों का सामना करता रहता है. लेकिन जब किसी भ्रष्टाचार के मामले में राजनीतिक अवसर दिखता है तो विपक्षी पार्टियां टूट पड़ती हैं . ऐसा पहला बड़ा मौक़ा बोफर्स तोप घोटाला था . हालांकि उस घोटाले में राजीव गाँधी के शामिल होने के कोई साबूत नहीं थे लेकिन उनको एक भ्रष्ट आदमी के रूप में पेश करने में विपक्षी पार्टियां सफल हो गयीं. उनके कुछ करीबी लोग उस घोटाले में शामिल थे, उनको बचाने के चक्कर में राजीव गाँधी उलझते गए .जब १९८९ का चुनाव आया ,तो राजीव गाँधी बोफर्स के अभियुक्त के रूप में पेश किये गए और जनता की अदालत में उन्हें सज़ा सुना दी गयी. दूसरी बार विपक्ष ने सुखराम के टेलीकाम घोटाले में राजनीतिक अवसर देखा . करीब ३७ दिन तक बीजेपी ने लोकसभा का सत्र नहीं चलने दिया लेकिन सुखराम वाले केस में बीजेपी को वह फायदा नहीं हुआ जो १९८९ वाले बोफर्स केस में हुआ था. १९९६ के चुनाव में हालांकि कांग्रेस हार गयी लेकिन बीजेपी वहीं रह गयी जहां थी. शायद इसलिए कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की राजनीतिक क्षमता का पता चल चुका था , वह एक भ्रष्ट पार्टी के रूप में पहचानी जाने लगी थी . बाद में जब सुखराम को बीजेपी ने अपनी पार्टी में भर्ती कर लिया तो सबको पता चल गया कि भ्रष्टाचार के पैमाने पर बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है. २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी बीजेपी को वही बोफर्स वाला चांस दिख रहा है इसलिए सीधे प्रधानमंत्री को घेरे में लिया जा रहा है . २००४ में जब कांग्रेस ने डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था तो बीजेपी के हाथ से सोनिया गाँधी पर हमला करने का एक बड़ा हथियार छिन गया था . पार्टी ने कोशिश की कि डॉ मनमोहन सिंह को एक कमज़ोर प्रधानमंत्री के रूप में पेश करके सोनिया गाँधी को घेरा जायेगा लेकिन मनमोहन सिंह बीजेपी के हर नेता से मज़बूत साबित हुए . लोकसभा में भी उन्होंने बार बार यह साबित किया कि वे बीजेपी के मीडिया पोषित नेताओं से बहुत बड़े हैं. हारकर बीजेपी ने स्वीकार किया कि डॉ मनमोहन सिंह बड़े नेता हैं और उनको भी हमले का निशाना बनाया जाना चाहिए . बीजेपी की मुश्किल यह है कि उसकी अपनी छवि एक निहायत ही भ्रष्ट राजनीतिक जमात की बन चुकी है और डॉ मनमोहन सिंह को पूरी दुनिया में एक ईमानदार राजनेता के रूप में जाना जाता है . ऐसी हालत में उन्हें भ्रष्ट साबित कर पाना कम से कम बीजेपी के लिए तो बहुत ही मुश्किल होगा . लेकिन राजनीति की अपनी शर्तें होती हैं . बीजेपी को अब मालूम है कि अगर मनमोहन सिंह को न घेरा गया तो बीजेपी का राजनीतिक भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. २ जी के पहले कामनवेल्थ के घोटाले में बीजेपी ने राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की थी लेकिन उसमें तो बीजेपी वाले कांग्रेसियों से बड़े गुनाहगार के रूप में उभर रहे हैं. अब तक जिन दो बड़े ह्तेकों का खुलासा आया है ,उसमें बीजेपी के नेताओं या उनके रिश्तेदारों के नाम प्रमुखता से आये हैं . शायद इसीलिये अब बीजेपी ने २ जी वाला मामला पकड़ा है .उसमें उनकी पार्टी के लोग तो नहीं शामिल हैं लेकिन जो उद्योगपति फंस रहे हैं वे बीजेपी वाले ही हैं .न . जो भी हो आने वाला वक़्त राजनीतिक आचरण के हिसाब से बहुत ही दिलचस्प होने वाला है

Sunday, August 30, 2009

टॉप के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार की जांच करने वाले सरकारी विभागों को हिदायत दी है कि ऊंचे पदों पर बैठे भ्रष्ट अधिकारियों और जिम्मेदार लोगों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करें और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने में मदद करें। प्रधानमंत्री ने सरकारी अधिकारियों को फटकार लगाई कि छोटे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के कारनामों को पकड़कर कोई वाहवाही नहीं लूटी जा सकती, उससे समाज और राष्ट्र का कोई भला नहीं होगा। प्रधानमंत्री ने जो बात कही है वह बावन तोले पाव रत्ती सही है और ऐसा ही होना चाहिए।

लेकिन भ्रष्टाचार के इस राज में यह कर पाना संभव नहीं है। अगर यह मान भी लिया जाय कि इस देश में भ्रष्टाचार की जांच करने वाले सभी अधिकारी ईमानदार हैं तो क्या बेईमान अफसरों की जांच करने के मामले में उन्हें पूरी छूट दी जायेगी। क्या मनमोहन सिंह की सरकार, भ्रष्ट और बेईमान अफसरों और नेताओं को दंडित करने के लिए जरूरी राजनीतिक समर्थन का बंदोबस्त करेगी।

भारतीय राष्ट्र और समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के सपने को पूरा करने के लिए जरूरी है कि राजनेता ईमानदार हों। जहां तक डा. मनमोहन सिंह का प्रश्न है, व्यक्तिगत रूप से उनकी और उनकी बेटियों की ईमानदारी बिलकुल दुरुस्त है, उनके परिवार के बारे में भ्रष्टाचार की कोई कहानी कभी नहीं सुनी गई। लेकिन क्या यही बात उनकी पार्टी और सरकार के अन्य नेताओं और मंत्रियों के बारे में कही जा सकती है।

राजनीति में आने के पहले जो लोग मांग जांच कर अपना खर्च चलते थे, वे जब अपनी नंबर एक संपत्ति का ब्यौरा देते हैं तो वह करोड़ों में होती है। उनकी सारी अधिकारिक कमाई जोड़ डाली जाय फिर भी उनकी संपत्ति के एक पासंग के बराबर नहीं होगी। इसके लिए जरूरी है सर्वोच्च स्तर पर ईमानदारी की बात की जाय। प्रधानमंत्री से एक सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर सीबीआई का कोई जांच अधिकारी किसी भ्रष्टï मंत्री से पूछताछ करने जाएगा तो उस गरीब अफसर की नौकरी बच पाएगी। जिस दिल्ली में भ्रष्टाचार और घूस की कमाई को आमदनी मानने की परंपरा शुरू हो चुकी है, वहां भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या कोई अभियान चलाया जा सकेगा?

इस बात में कोई शक नहीं है कि पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था पर आधारित लोकतांत्रिक देश में अगर भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से नकेल न लगाई जाये तो देश तबाह हो जाते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक खुशहाली की पहली शर्त है कि देश में एक मजबूत उपभोक्ता आंदोलन हो और भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से नियंत्रण हो। मीडिया की विश्वसनीयता पर कोई सवालिया निशान न लगा हो। अमरीकी और विकसित यूरोपीय देशों के समाज इसके प्रमुख उदाहरण हैं। यह मान लेना कि अमरीकी पूंजीपति वर्ग बहुत ईमानदार होते हैं, बिलकुल गलत होगा।

लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां मौजूद तंत्र ऐसा है कि बड़े-बड़े सूरमा कानून के इ$कबाल के सामने बौने हो जाते हैं। और इसलिए पूंजीवादी निजाम चलता है। प्रधानमंत्री पूंजीवादी अर्थशास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं, उनसे ज्यादा कोई नहीं समझता कि भ्रष्टाचार का विनाश राष्ट्र के अस्तित्व की सबसे बड़ी शर्त है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने कहा कि ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए हमलावर तेवर अपनाने की जरूरत है। जनता में यह धारणा बन चुकी है कि सरकार की भ्रष्टाचार से लडऩे की कोशिश एक दिखावा मात्र है। इसको खत्म किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री को इस बात की तकलीफ थी कि गरीबों के लिए शुरू की गई योजनाएं भी भ्रष्टाचार की बलि चढ़ रही है।

उन्होंने कहा कि इसके जरूरी ढांचा गत व्यवस्था बना दी गई है, अब इस पर हमला किया जाना चाहिए। डा. मनमोहन सिंह को ईमानदारी पर जोर देने का पूरा अधिकार है क्योंकि जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई के बाद वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन पर व्यक्तिगत बेईमानी का आरोप उनके दुश्मन भी नहीं लगा पाए। लेकिन क्या उनके पास वह राजनीतिक ताकत है कि वे अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकें। मंत्रिमंडल के गठन के वक्त उनको अपनी इस लाचारी का अनुमान हो गया था। क्या उन्होंने कभी सोचा कि इस जमाने में नेताओं के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सकती है। जिस देश में नेता लोग सवाल पूछने के लिए पैसे लेते हों, जन्मदिन मनाने के लिए बंगारू लक्ष्मण बनते हों, कोटा परमिट लाइसेंस में घूस लेते हों, अपनी सबसे बड़ी नेता को लाखों रुपए देकर टिकट लेते हों, हर शहर में मकान बनवाते हों उनके ऊपर भ्रष्टाचार विरोधी कोई तरकीब काम कर सकती है।

सबको मालूम है कि इस तरह के सवालों के जवाब न में दिए जाएंगे। अगर भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना करनी है कि प्रधानमंत्री को चाहिए कि एक पायेदार जन जागरण अभियान चलाएं और समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने में अपना योगदान करें। हमें मालूम है कि किसी एक व्यक्ति की कोशिश से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा लेकिन क्या प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के राक्षस को तबाह करने के लिए पहला पत्थर मारने को तैयार हैं। अगर उन्होंने ऐसा करने की राजनीतिक हिम्मत जुटाई तो भ्रष्टाचार के खत्म होने की संभावना बढ़ जाएगी लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी सरकार के पांच भ्रष्टतम मंत्रियों को पकड़वाना होगा।

Sunday, July 26, 2009

प्रधानमंत्री कौन? मोदी या आडवाणी

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी बहुत बुरे फंस गये हैं। पिछले पांच साल से मनमोहन सिंह को कमजोर और अपने को बहुत भारी सूरमा बताने वाले प्रधानमंत्री इन वेटिंग बेचारे अपनों की नजर में ही गिर गए हैं। कांग्रेस और मनमोहन सिंह पर अपनी कल्पना शक्ति की ताकत के आधार पर तरह-तरह के आरोपों से विभूषित कर रहे, आडवाणी पर पिछले एक महीने से कांग्रेस ने हमले तेज कर दिए।

कांग्रेसी हमलों की खासियत यह थी, कि वह सचाई पर आधारित थे। कंदहार में आडवाणी की पार्टी की सरकार का शर्मनाक कारनामा, संसद पर हुआ आतंकी हमला और लाल किले पर हुए हमले पर जब कांग्रेसी नेताओं ने विस्तार से चर्चा करनी शुरू की तो आडवाणी और उनकी पार्टी के सामने बगलें झांकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मीडिया में नौकरी करने वाले संघ के कार्यकर्ताओं तक के लिए मुश्किल पैदा हो गयी कि आडवाणी जैसे कमजोर आदमी का पक्ष कैसे लिया जाय। मजबूत नेता के रूप में आडवाणी की पेश करने के चक्कर में जो अरबों रूपए विज्ञापनों पर खर्च किये गए हैं उस पर पानी फिर गया।

सचाई यह है कि कांग्रेसी हमलों को मीडिया ने जिस तरह की कवरेज दी, उससे आडवाणी का व्यक्ति एक बहुत ही कमजोर आदमी के रूप में उभर कर आई। और उनको फोकस में रखकर चुनाव अभियान चलाने की बीजेपी कोशिश ज़मींदोज़ हो गई। इस सचाई का इमकान होने के बाद बीजेपी के चुनाव प्रबंधकों में हडक़ंप मच गया। बीजेपी के प्रचार की कमान का संचालन कर रहे तथाकथित वार रूम की ओर से काफी सोच विचार के बाद नया शिगूफा डिजाइन किया गया और मोदी के नाम को आगे करने की कवायद शुरू हो गई।

काफी सोच विचार के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया गया। हालांकि उसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि आडवाणी के बाद मोदी प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार होंगे। बीजेपी के अधिकारिक प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने दिल्ली में पत्रकारों को बताया कि मोदी में प्रधानमंत्री पद बनने के सारे गुण हैं और आडवाणी के बाद पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर विचार कर सकती है। यहां यह बात अपने आप में हास्यास्पद है कि जिस पार्टी का जनाधार लगातार गिर रहा है और जिसे 16 मई के दिन 100 की संख्या पार करना पहाड़ हो जायेगा, वह प्रधानमंत्री पद पर आडवाणी को बैठाने के बाद मोदी को लादने की योजना बना रही है।

अजीब बात यह है कि चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री पद के अगले दावेदार की चर्चा क्यों शुरू कर दी गई। इस बात पर गौर करने पर बीजेपी की उस मानसिकता के बारे में जानकारी मिल जायेगी, जिसे हारे हुए इंसान की मानसिकता के नाम से जाना जाता है। दो दौर के चुनावों के बाद जो संकेत आ रहे हैं, उससे अंदाज लग गया है कि बीजेपी की सीटें घट रही हैं। एक हताश सेना की तरह बीजेपी ने लड़ाई के दौरान सिपहसालार बदलने की कोशिश की है। बाकी कोई मुद्दा तो चला नहीं, मंहगाई, आतंकवाद जैसे मुद्दों को चलने की कोशिश तो बीजेपी ने की लेकिन इन दोनों के घेरे में वे ही फंस गए।

मालेगांव के आतंकवादी हमले के लिए बीजेपी के ही सदस्य पकड़ लिए गए। आतंकवाद से लडऩे की बीजेपी की क्षमता की भी धज्जियां उड़ गईं जब कंदहार का अपमान, संसद का हमला और लाल किले का हमला सीधे-सीधे आडवाणी के गले की माला बन गया। बीजेपी मैनेजमेंट ने आडवाणी से जान छुड़ाना ही बेहतर समझा और मोदी को आगे कर दिया। रणनीति में इस बदलाव का सीधा असर लालकृष्ण आडवाणी पर भी पड़ा और वे पिछले दो दिनों से कहते पाए जा रहे हैं कि इस चुनाव के बाद सन्यास ले लूंगा।

Friday, June 26, 2009

प्रधानमंत्री पद और राजनीतिक पैंतरे

लोकसभा चुनाव के इस मौसम में लगभग आधी सीटों पर वोट डाले जा चुके हैं बाकी दो सीटों पर भी अगले दो हफ़्ते में मतदान हो जायेगा। राजनीतिक दलों के नेताओं को मालूम है कि जो स्थिति लोकसभा चुनाव 2004 के बाद थी, वही स्थिति इस बार भी है।

कुछ पार्टियों की सीटें कहीं बढ़ेंगी तो इस की जगह बढ़ेंगी। ज़ाहिर है सत्ता के लिए गठजोड़ और जोड़तोड़ बड़े पैमाने पर होगा हर पार्टी ने मिडवे अपनी राजनीति की धार दम करने के उïद्देश्य से बयानों में कुछ एडजस्टमेंट किया है। बीजेपी के अब तक के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण अडवाणी के सामने संकट के बादल घिरने लगे हैं बीजेपी ने कहना शुरू कर दिया है कि वह मोदी को भी प्रधानमंत्री बना सकती है।

आधिकारिक प्रवक्त्ता ने भी इस बात को औपचारिक ब्रीफिंग में मीडिया से बताकर आडवाणी/मोदी विवाद को शंका के दायरे से बाहर कर दिया है, क्योंकि बीजेपी के मोदी गुट को यह भरोसा है कि आडवाणी से ज्य़ादा मोदी के नाम पर वोट लिए जा सकते हैं। संभवित नतीजों के मद्देनजऱ, राष्टï्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने फिर कांग्रेस की जीत की भविष्यवाणी करना शुरु कर दिया है। इस के पहले वह नवीन पटनायक, अमर सिंह, प्रकाश कारात आदि किंग मेकर नेताओं से मेलजोल बढ़ा रहे थे कि अगर गैरकांग्रेस, गैरभाजपा प्रधानमंत्री की सरकार हुई तो उनका नाम चल जाये लेकिन दो दौर के मतदान और बाकी दौर के अनुमान ने उनकी महत्वाकांक्षा की लगाम लगाने में मदद किया है।

एक शिगुफा जो अभी कुछ दिन पहले बीजेपी नेेता लालकृण आडवाणी ने छोड़ा था वह अब माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात की ओर से आ रहा है। श्री करात ने कहा है कि प्रधानमंत्री ऐसा हो जो लोकसभा का सदस्य हो। अब कोई प्रकाश करात से पूछे कि इस बयान का क्या सैद्घांतिक आधार है। ज़ाहिर तौर पर यह बयान मनमोहन सिंह को रोकने के उद्देश्य से दिया गया लगता है।

मनमोहन सिंह राज्यसभा के सदस्य हैं और 16 मई के बाद भी वे लोकसभा के सदस्य नहीं बन पाएंगे क्योंकि वह चुनाव ही नहीं लड़ रहे हैं। मनमोहन सिंह को रोकने की प्रकाश करात की कोशिश इतनी मजबूत है कि वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। यहां तक कि आडवाणी की लाइन भी ले सकते हैं। आडवाणी ने भी मनमोहन सिंह को रोकने की गरज़ से ही यह बात की थी। बयानों के इस जंगल से एक बात तो समझ में आनी शुरू हो गई है कि मनमोहन सिंह के दो सबसे बड़े शत्रु यह मानने लगे हैं कि कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना बाकी राजनीतिक गठबंधंनों से अधिक है और मनमोहन सिंह को रोकने की पेशबंदी शुरू हो गई है।

एक दिलचस्प पहलू और विकासित हो रहा है एक बड़े अखबार के आमतौर पर भरोसेमंद संवाद्दाता ने खबर दी है कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में थोड़ा विवाद है। कांग्रेस पार्टी के प्रति प्रकाश करात के रूख को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री और पार्टी के मुखिया की मंजूरी नहीं है। अगर यह सच है तो प्रकाश करात के सामने बड़ी मुश्किल पेश आ सकती है उनकी पार्टी की ताकत तो पश्चिम बंगाल से ही आती है और वहां के तो सबसे आदरणीय नेता उनकी बात को ठीक नहीं समझ रहे हैं तो यह राजनीतिक संकट की शुरूआत का संकेत है।

वैसे भी आम राजनीतिक समझ के हिसाब से प्रकाश करात की बात अजीब लगती है। जब सैद्घांतिक रूप से उनको प्रधानमंत्री पद पर वही व्यक्ति मंजूर है, जो लोकसभा का सदस्य हो, तो साढ़े चार साल तक मनमोहन सिंह का समर्थन क्यों किया। क्या उनकी पार्टी के किसी मंच पर इस विषय पर चर्चा हुई या प्रधानमंत्री पद पर लोकसभा सदस्य को ही नियुक्त किए जाने वाला विचार उनका अपना है। या कहीं वह अपने ही किसी साथी को चेतावनी दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री पद पर बैठने की नौबत आई तो कोई और न उम्मीदवार बन जाय।