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Friday, March 12, 2010

सज्जन और मोदी के दरवाज़े न्याय की दस्तक

शेष नारायण सिंह


लोकतंत्र की ताक़त को कम करके आंकने वालों के उत्साह को बढाने के लिए वक़्त ने एक साथ दो अवसर प्रस्तुत कर दिया. लोकतंत्र की उपयोगिता पर सवाल उठा रहे लोग इस बात से परेशान थे कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ लोग अपनी मनमानी करते हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं . जिसका नतीजा यह होता है कि आम आदमी के साथ अन्याय हो जाता है .जबकि आम आदमी को न्याय दिला सकना ही लोकशाही की सबसे पहली शर्त है . लेकिन जिस तरह से कानून ने सिख दंगों के अभियुक्त सज्जन कुमार को घेरा है उस से लोकशाही की संस्थाओं पर एक बार फिर भरोसा बढ़ा है. जिन लोगों ने १ नवम्बर से ३ नवम्बर १९८४ की दिल्ली देखी है , उन्हें उस वक़्त के दिल्ली के कांग्रेस के नेताओं को इंसान मानने में भी दिक्क़त होती है . अर्जुन दास, हरिकिशन लाल भगत,ललित माकन, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर कुछ ऐसे नाम हैं जिनको सुनकर भी मेरे जैसे लोग बहुत साल बाद तक कांप जाते थे . दंगों के बाद कुलदीप नैय्यर , रोमेश थापर, श्रीमती धर्मा कुमार जैसे लोगों लोगों के नेतृत्व में शुरू हुए गैरसरकारी राहत के काम में शामिल होने के बाद त्रिलोक पुरी, मादी पुर , पंजाबी बाग़ , पश्चिम विहार , सफदरजंग इन्क्लेव आदि मुहल्लों में जो मरघट की शान्ति देखी गयी थी, वह आज भी बहुत तकलीफ दे जाती है . लेकिन उस आतंक के सूत्रधार कांग्रेसी नेता बहुत दिनों तक ऐश करते रहे. भगत, अर्जुन दास, ललित माकन आदि तो मर गए लेकिन कानून की ताक़त का अनुभव करने के लिए अभी कुछ लोग बचे हैं , सज्जन कुमार उसी खेप के एक कांग्रेसी हैं. जिस तरह से उनके चारों तरफ कानून का घेरा बन रहा है ,उस से लगता है कि लोकशाही की संस्थाएं अपना काम कर रही हैं. सज्जन कुमार को बहुत लोगों ने भीड़ को उकसाते देखा था लेकिन ज़्यादातर लोग कन्नी काट गए. बहरहाल आज लोकतंत्र की प्रमुख संस्था ,न्यायपालिका अपना काम कर रही है और यह सुकून की बात है .


सज्जन कुमार से ज्यादा खूंखार मनमानी के एक और उदाहरण हैं , श्री नरेंद्र मोदी . उनके बारे में कहा जाता है कि फरवरी २००२ के गुजरात नरसंहार की स्क्रिप्ट उनकी निगरानी में ही लिखी गयी थी . लेकिन उन्होंने कहीं भी अपने क़दमों के निशान नहीं छोड़े थे , इसलिए कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा था. अब खबर आई है कि लोकशाही के प्रमुख स्तम्भ , सुप्रीम कोर्ट ने मोदी के दरवाज़े पर भी कानून की ताक़त की दस्तक दिलवा दी है .उस वक़्त तक लोकसभा के सदस्य रहे, एहसान जाफरी को उनके ही घर में जिंदा जला डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने , स्वर्गीय एहसान जाफरी की पत्नी, ज़किया जाफरी की अर्जी पर सुनवाई के दौरान एस आई टी को आदेश दिया है कि नरेंद्र मोदी को समन भेज कर बुलाया जाए और उनसे पूछताछ की जाए. इस मामले में दर्ज एफ आई आर में नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें अभियुक्त के रूप में नहीं बुलाया जा सकता , उन्हें बतौर गवाह पेश होना है . हाँ अगर तफ्तीश के दौरान जांच अधिकारी को लगा कि अपराध में उनके शामिल होने के कुछ कारण हैं तो उनसे मुलजिम ( मुज़रिम नहीं ) के तौर पूछताछ की जा सकती है .


सवाल यह नहीं है कि मोदी या सज्जन कुमार जैसे लोगो को सज़ा क्या होगी. उनकी दोनों की पार्टियां देश की राजनीतिक सत्ता के सबसे महत्व पूर्ण संगठन हैं . दुर्भाग्य यह है कि दोनों ही लोगों की पार्टियां उनको बचाने की पूरी कोशिश कर रही हैं.लेकिन लोकशाही के समर्थकों के लिए संतोष का विषय यह है कि कानून की सर्वोच्चता का अनुभव सज्जन कुमार और मोदी जैसों को भी हो रहा है और यही लोकतंत्र के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है .राजनीतिक नेताओं के अपराध को न्याय की परिधि में लाने का जो काम लोकशाही की संस्थाएं कर रही हैं ,वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है . ज़ाहिर है लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का भी इसमें कम योगदान नहीं है .. १९८६ के बाद जब बी जे पी ने आक्रामक हिंदुत्व को राजनीतिक हथियार के रूप में अपनाने का फैसला किया तब से ही देश में राजनीतिक बाबाओं का भारी आतंक था . आर एस एस के संगठनों ने इन बाबाओं का पूरा राजनीतिक इस्तेमाल किया और देश की धर्मपरायण जनता को अपने साथ राजनीतिक रूप से इकठ्ठा करने के लिए इन बाबाओं को आगे भी किया. उन दिनों आज की तरह न्यूज़ चैनल नहीं होते थे .. टेलीविज़न सरकारी था और बाबा लोगों के बारे में जो भी अखबारों में छपता था, सीधे सादे लोग विश्वास करते थे . लेकिन आजकल पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मीडिया ने बाबाओं को घेरा है और न्याय की सीमा में लाने की कोशिश की है , वह भी काबिले-तारीफ़ है . मीडिया का यह काम लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है... वह लोकतंत्र के हित में है .. उम्मीद की जानी चाइये कि आने वाले वक़्त बी जे पी जैसी पार्टियां भी अपने राजनीतिक कार्य में बाबापंथी का धंधा करने वालों को दूर रखेंगें . क्योंकि इन्हें इस्तेमाल करने में ख़तरा यह रहेगा कि पता नहीं कब नए युग का कौन सा मीडिया सारी पोल पट्टी खोल दे. . सेक्स के धंधे में लगे हुए बाबाओं को अब शायद ही राजनीति में जगह मिल पायेगी. इस लिए अरुंधती रॉय टाइप लोगों को लोकशाही के खिलाफ लाठी भांजने से बाज़ आना चाहिये

Tuesday, October 20, 2009

अब क्या करेगी बी जे पी

आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उसके मुखिया मोहनराव भागवत ने कह दिया कि संघ के कैडर अपने हिसाब से इस बात का चुनाव कर सकते हैं कि उन्हें किस पार्टी को वोट देना है . उन्होंने साफ किया कि ज़रूरी नहीं के संघ के सदस्य केवल बी जे पी को ही वोट दें .इस कथित बयान के बाद बी जे पी में हड़कंप मच गया . सच्ची बात यह है कि आर एस एस के कार्यकर्ताओं के अलावा , बी जे पी के पास और कोई जनाधार नहीं है . विश्वविद्यालयों में जो भी छात्र एबीवीपी के नाम पर इकठ्ठा होते हैं , उनमें लगभग सभी आर एस एस के ही सदस्य होते हैं.

मजदूरों में पार्टी की कहीं कोई हैसियत नहीं है. दत्तोपंत ठेंगडी की मौत के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति में संघ की कोई ख़ास उपस्थिति नहीं है. नौजवानों में भी वही आर एस एस वाले सक्रिय हैं . गरज कि बी जे पी के समर्थकों में से अगर आर एस एस वालों को हटा लिया जाए तो वहां कुछ नहीं बचेगा . ज़ाहिर है इस तरह की बात शुरू होने के बाद बी जे पी में चिंता का माहौल बन गया . वैसे भी २००९ में पार्टी की चुनाव में हुई हार के बाद उसकी दुर्दशा की खबरें रोज़ ही अखबारों में छपती ही रहती हैं .. लेकिन आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बी जे पी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने पटना में मीडिया को बताया कि मोहनराव भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि संघ के कार्यकर्ता चाहे तो भाजपा को वोट करें या न करें.

राजगीर में चल रही आर एस एस की कार्यकारिणी में शामिल किसी सूत्र के हवाले से आईएएनएस एजंसी ने एक खबर जारी कर दी थी जिसमें कहा गया था कि मोहनराव भागवत ने कहा है कि वे यह स्वयंसेवकों को तय करना है कि वे भाजपा को वोट करें या न करें. यह खबर जब अखबारों में छपी तो बी जे पी में खलबली मच गयी. इसके बाद रविशंकर ने कहा कि संघ हमेशा ही यह कहता रहता है कि संघ के स्वयंसेवक जिसे चाहें वोट कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है.. आर एस एस की विश्वसनीयता के बारे में रवि शंकर प्रसाद की इस बात को शायाद उनकी पार्टी के लोग ही गंभीरता से न लें लेकिन इस बात में दो राय नईं है कि आर एस एस के नए प्रमुख मोहन भागवत बी जे पी के मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं हैं . यह बात उन्होंने बार बार कह भी दिया है .कम से कम सिद्धांत रूप से आर एस एस मानता है कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी भी राजनीतिक दल की मदद कर सकता है.

बी जे पी को अपने पूर्व अवतार में जनसंघ कहा जाता था. उसकी स्थापना के बाद से ही स्वर्गीय दीन दयाल उपाध्याय के ज़रिये आर एस एस ने पार्टी पर पूरा कंट्रोल रखा. और जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोगों को हुक्म नागपुर से ही लेना पड़ता था. बी जे पी बनने के बाद तो इस बात पर कभी चर्चा भी नहीं हुई कि पार्टी में आर एस एस की भूमिका क्या है. सब जानते हैं कि बी जे पी पूरी तरह से आर एस एस का सहयोगी संगठन है . लेकिन आजकल आर एस एस में बी जे पी की उपयोगिता के बारे में बेचैनी है. आर एस एस के कुछ ख़ास लोग कद्दावर आर एस एस नेता , गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में बी जे पी के विकल्प की तालाश कर रहे हैं . उसी प्रोजेक्ट के तहत महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपना बना लेने की कोशिश चल रही है है. गोविन्दाचार्य के दोस्त लोग राष्ट्र निर्माण जैसे लोक लुभावन नारों के ज़रिये जनता तक पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं जिस से सही वक़्त पर संघ की नयी पार्टी की घोषणा कर दी जाए. बताया गया है कि गोविन्दाचार्य के व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से वर्तमान बी जे पी के भी कुछ बड़े नेता उनके संपर्क में हैं . इन लोगों ने महात्मा गाँधी के नाम पर चलने वाले कई संगठनों पर कब्जा भी कर लिया है . आज कल आर एस एस वालों का एक बड़ा तबका अपने आप को गांधीवादी भी कहता पाया जा रहा है . इस लिए मोहन राव भागवत की इस बात में दम लगता है कि आर एस एस जल्दी ही बी जे पी से पिंड छुडाने वाला है.

आर एस एस के लिए नयी राजनीतिक पार्टी की तलाश कोई नयी बात नहीं है. १९७५ में जब पूरी दुनिया संजय गाँधी की क्रूर तानाशाही प्रवृत्तियों से दहशत में थी, तो आर एस एस वाले उन्हें अपना बना लेने के चक्कर में थे. अकाल मृत्यु ने संजय गाँधी के जीवन में हस्तक्षेप कर दिया वरना हो सकता है कि बाद में जो उनकी पत्नी और बेटे ने किया वह काम संजय गाँधी के जीवन में ही हो गया होता.

आजकल भी आर एस एस के लोग पुराने कांग्रेसियों, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपना पूर्वज बताने की कोशिश तो कर ही रहे हैं , नए वालों पर भी उनकी नज़र है. आर एस एस के प्रमुख ने पिछले दिनों राहुल गाँधी की तारीफ़ की और पी चिदंबरम के काम पर बहुत ही संतोष ज़ाहिर किया. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बीच में आर एस एस के कांग्रेस के नेताओं की तारीफ करना बीजेपी को ठीक बिलकुल नहीं लगा लेकिन बेचारे कर क्या सकते हैं. इस लिए आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बीजेपी में परेशानी शुरू होना स्वाभाविक है और इस बात को भी पूरा बल मिलता है कि आर एस एस ने नयी राजनीतिक पार्टी के विकल्प वाले प्रोजेक्ट पर गंभीरता से काम शुरू कर दिया है. इसके लिए खुद आरएसएस के अंदर ही कई धाराएं हैं जो नये राजनीतिक विकल्प का खाका तैयार करने में लगी हुई हैं. हालांकि आरएसएस 2007 में कह चुका है कि वह इसी भाजपा को ठीक करेगा लेकिन यह भाजपा ठीक होती दिखाई न दी तो नये विकल्पों को आजमाने से आरएसएस हिचकेगा भी नहीं

Sunday, July 26, 2009

प्रधानमंत्री कौन? मोदी या आडवाणी

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी बहुत बुरे फंस गये हैं। पिछले पांच साल से मनमोहन सिंह को कमजोर और अपने को बहुत भारी सूरमा बताने वाले प्रधानमंत्री इन वेटिंग बेचारे अपनों की नजर में ही गिर गए हैं। कांग्रेस और मनमोहन सिंह पर अपनी कल्पना शक्ति की ताकत के आधार पर तरह-तरह के आरोपों से विभूषित कर रहे, आडवाणी पर पिछले एक महीने से कांग्रेस ने हमले तेज कर दिए।

कांग्रेसी हमलों की खासियत यह थी, कि वह सचाई पर आधारित थे। कंदहार में आडवाणी की पार्टी की सरकार का शर्मनाक कारनामा, संसद पर हुआ आतंकी हमला और लाल किले पर हुए हमले पर जब कांग्रेसी नेताओं ने विस्तार से चर्चा करनी शुरू की तो आडवाणी और उनकी पार्टी के सामने बगलें झांकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मीडिया में नौकरी करने वाले संघ के कार्यकर्ताओं तक के लिए मुश्किल पैदा हो गयी कि आडवाणी जैसे कमजोर आदमी का पक्ष कैसे लिया जाय। मजबूत नेता के रूप में आडवाणी की पेश करने के चक्कर में जो अरबों रूपए विज्ञापनों पर खर्च किये गए हैं उस पर पानी फिर गया।

सचाई यह है कि कांग्रेसी हमलों को मीडिया ने जिस तरह की कवरेज दी, उससे आडवाणी का व्यक्ति एक बहुत ही कमजोर आदमी के रूप में उभर कर आई। और उनको फोकस में रखकर चुनाव अभियान चलाने की बीजेपी कोशिश ज़मींदोज़ हो गई। इस सचाई का इमकान होने के बाद बीजेपी के चुनाव प्रबंधकों में हडक़ंप मच गया। बीजेपी के प्रचार की कमान का संचालन कर रहे तथाकथित वार रूम की ओर से काफी सोच विचार के बाद नया शिगूफा डिजाइन किया गया और मोदी के नाम को आगे करने की कवायद शुरू हो गई।

काफी सोच विचार के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया गया। हालांकि उसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि आडवाणी के बाद मोदी प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार होंगे। बीजेपी के अधिकारिक प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने दिल्ली में पत्रकारों को बताया कि मोदी में प्रधानमंत्री पद बनने के सारे गुण हैं और आडवाणी के बाद पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर विचार कर सकती है। यहां यह बात अपने आप में हास्यास्पद है कि जिस पार्टी का जनाधार लगातार गिर रहा है और जिसे 16 मई के दिन 100 की संख्या पार करना पहाड़ हो जायेगा, वह प्रधानमंत्री पद पर आडवाणी को बैठाने के बाद मोदी को लादने की योजना बना रही है।

अजीब बात यह है कि चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री पद के अगले दावेदार की चर्चा क्यों शुरू कर दी गई। इस बात पर गौर करने पर बीजेपी की उस मानसिकता के बारे में जानकारी मिल जायेगी, जिसे हारे हुए इंसान की मानसिकता के नाम से जाना जाता है। दो दौर के चुनावों के बाद जो संकेत आ रहे हैं, उससे अंदाज लग गया है कि बीजेपी की सीटें घट रही हैं। एक हताश सेना की तरह बीजेपी ने लड़ाई के दौरान सिपहसालार बदलने की कोशिश की है। बाकी कोई मुद्दा तो चला नहीं, मंहगाई, आतंकवाद जैसे मुद्दों को चलने की कोशिश तो बीजेपी ने की लेकिन इन दोनों के घेरे में वे ही फंस गए।

मालेगांव के आतंकवादी हमले के लिए बीजेपी के ही सदस्य पकड़ लिए गए। आतंकवाद से लडऩे की बीजेपी की क्षमता की भी धज्जियां उड़ गईं जब कंदहार का अपमान, संसद का हमला और लाल किले का हमला सीधे-सीधे आडवाणी के गले की माला बन गया। बीजेपी मैनेजमेंट ने आडवाणी से जान छुड़ाना ही बेहतर समझा और मोदी को आगे कर दिया। रणनीति में इस बदलाव का सीधा असर लालकृष्ण आडवाणी पर भी पड़ा और वे पिछले दो दिनों से कहते पाए जा रहे हैं कि इस चुनाव के बाद सन्यास ले लूंगा।

Friday, June 26, 2009

जेल, नरेंद्र मोदी और नरसंहार

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अब डर लग रहा है कि शायद गुजरात के 2002 के नरसंहार में उनके शामिल होने की बात को छुपाया नहीं जा सकता। अब तक तो जितनी भी जांच हुई है, वह सब मोदी के ही बंदों ने कीं इसीलिए उसमें उनके फंसने का सवाल ही नहीं था। एक और जांच रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने करवाई थी, जिसे बीजेपी के नेताओं और पत्रकारों ने मजाक में उड़ा दिया था।

दरअसल लालू प्रसाद की अपनी विश्वसनीयता भी ऐसी नहीं है कि उनकी जांच को गंभीरता से लिया जाता, लेकिन इस बार मामला अलग है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जांच होने वाली है और जांच करने वाला अफसर भी ऐसा है जिसे खरीदा नहीं जा सकता। सी बी आई के पूर्व निदेशक राघवन को जांच का जिम्मा सौंपा गया है जिनका अब तक का रिकार्ड एक ईमानदार और आत्म सम्मानी अफसर का है।

यानी अब 2002 के नरसंहार में मोदी के शामिल होने के शक पर सही जांच की संभावना बढ़ गई है। मोदी भी जानते हैं और दुनिया भी जानती है कि गोधरा और उससे संबंधित नरसंहार के मुख्य प्रायोजक नरेंद्र मोदी ही हैं। जब राघवन जैसा ईमानदार अफसर जांच करेगा तो मोदी के बच निकलने की संभावना बहुत कम रहेगी।

इसी सच्चाई के नतीजों से घबरा कर मोदी और बीजेपी के आडवाणी गुट के नेता सुप्रीम कोर्ट के आदेश को राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी के नेता ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे लगे कि मोदी के खिलाफ जांच का काम कांग्रेस पार्टी और केंद्र सरकार करवा रही है, जबकि जंाच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो रही है। नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा कि कांग्रेस उन्हें जेल में डालने की साज़िश रच रही है।

हो सकता है कि वे तीन महीनों बाद जेल की सलाखों के अंदर हों। मोदी का यह बयान बहुत ही गैर जिम्मेदार है। इस बयान का भावार्थ यह है कि सुप्रीम कोर्ट के काम को कांग्रेस साजिश करके प्रभावित कर सकती है। शायद मोदी को भी मालूम हो कि यह बयान सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है और अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस बयान पर कारवाई करने का फैसला कर लिया तो तीन महीने तो दूर की बात है, मोदी को अभी जेल की सज़ा हो जाएगी। जहां तक मोदी के अपने जेल जाने की बात कहकर सहानुभूति बटोरने की बात है, वह बेमतलब है।

मोदी जैसे व्यक्ति को तो 2002 के बाद ही जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए था। राजनीति की बात का न्यायालय के आदेशों पर थोपने की कोशिश हर फासिस्ट पार्टी करती है इसलिए बीजेपी की इस कोशिश के पीछे भी उसकी नीत्शेवादी राजनीतिक सोच ही है।हिटलर की नैशनलिस्ट सोशलिस्ट पार्टी भी ऐसे कारनामों के जरिये, अदालतों पर दबाव डालती थी। जो बात उत्साह वद्र्घक है वह यह कि गुजरात नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सकारात्मक दखल बहुत ही अहम है।

अब तक तो दंगों में मारे गए व्यक्तियों का कहीं कोई हिसाब ही नहीं होता था और कभी भी किसी दंगाई को सजा नहीं होई थी। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद गुजरात के नरसंहार की जांच के नतीजों के बाद शायद दंगाईयों की समझ मे आ जाएगा कि दंगा कराने वालों तक भी कानून की पहुंच होती है और अगर नरेंद्र मोदी को गुजरात नरसंहार 2002 के अपराध में सजा हो गई तो आगे दंगाइयों के हौंसलों को पस्त करने में मदद मिलेगी।