शेष नारायण सिंह
कहावत है कि जो झूठ बोलता है उसे कौव्वा काट लेता है .. लगता है यह बात बहुत पुरानी हो गयी.क्योंकि आजकल तो बहुत सारे नेता दिन रात झूठ बोलते हैं और उन्हें कोई कौवा नहीं काटता.. बी जे पी के नेता .लाल कृष्ण आडवानी ने बार बार दावा किया है कि वे कभी झूठ नहीं बोलते .. जानकार कहते हैं कि उनके बयानों में कई कई अर्थों को आत्मसात कर लेने की क्षमता होती है , लगता है कि अपने इस कौशल की वजह से ही माननीय आडवानी जी इस बार झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं .. ६ दिसंबर ,१९९२ के दिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया था कि वह उनके जीवन का सबसे दुःख भरा दिन था. आज तक माना जा रहा था कि यह पूरी तरह से सच है . लेकिन अब एक बार फिर आडवाणी की गलतबयानी के पुख्ता सबूत सार्वजनिक मंच पर फेंक दिए गए हैं. ६ दिसंबर १९९२ के दिन आडवाणी की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए तैनात आई पी एस अफसर अंजू गुप्ता ने सी बी आई कोर्ट में बयान दिया है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आडवाणी बहुत खुश थे .. ज़ाहिर हैं एक आई पी एस अफसर की बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा क्योंकि उसने बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के और अपनी ड्यूटी निभाने के लिए ही कोर्ट में बयान दिया है . उसने शपथ ली है कि वह झूठ नहीं बोलेगी तो उसकी बात का विश्वास किया जाना चाहिए.. इस अफसर के बयान ने एक बार फिर आडवाणी को झूठ बोलने वाला नेता साबित कर दिया है . क्योंकि ६ दिसंबर १९९२२ के दिन आडवाणी के पास दुखी होने की फुर्सत ही नहीं थी, वह तो उनके जीवन का खुशी से भरा एक दिन था.
अंजू गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले आडवाणी ने एक भड़काऊ भाषण दिया . बयान में है कि आडवाणी बहुत उत्साहित थे . उन्होंने कारसेवकों को उत्साह से भर दिया , उन्होंने कहा कि भव्य राम मंदिर उसी २.७७ एकड़ ज़मीन पर बनेगा जहां बाबरी मस्जिद मौजूद थी. आडवाणी ने उस दिन फैजाबाद जिले के पुलिस कप्तान और जिलाधिकारी को तलब किया और उनसे भी बात चीत की. जिस मंच पर आडवाणी के साथ मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा आदि नेता मौजूद थे ,उस पर भी हर्ष और उल्लास का माहौल था. जब बाबरी मस्जिद के गुम्बद गिरने लगे तो मंच पर मौजूद नेता एक दूसरे को बधाई दे रहे थे. उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा गले मिलीं और खुशी का इज़हार किया.इन लोगों ने आडवाणी , जोशी और पूर्व पुलिस महानिदेशक , श्रीश चंद दीक्षित को भी गले मिलकर बधाई दी. श्रीश चंद दीक्षित ने वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया कि उन लोगों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में कोई अड़चन नहीं डाली.
बी जे पी के वे नेता जो बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने वाले केस में पकडे गए हैं ,वे पिछले १८ वर्षों से कह रहे हैं कि मस्जिद की तबाही में उनका कोई योगदान नहीं है ,अब झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं. मस्जिद के खिलाफ चले आन्दोलन में और उसके बाद राजनीतिक लाभ के लिए तो यह नेता शेखी बघारते रहे हैं लेकिन कानूनी मंचों पर तैयार किया गया बयान देते रहे हैं . अंजू गुप्ता की गवाही के बाद इन नेताओं के लिए मुश्किल पैदा हो गयी है . क्योंकि आपराधिक काम में अगर इन लोगों की साज़िश साबित हो जायेगी तो सबको इतने वर्षों की सज़ा होगी तो यह लोग चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगें . इस वक़्त बाबरी मस्जिद विध्वंस केस के अभियुक्त बी जे पी नेताओं को जो डर है वह इसी संभावना की गंभीरता को लेकर है..एक वक़्त था जब इन्हीं बी जे पी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में लोग थे . आज आलम यह है कि आम जनता का तो सवाल ही नहीं, इनकी अपनी पार्टी के नेता चाहते हैं कि यह लोग चुनाव के मैदान से बाहर हों तो आसानी होगी. ज़ाहिर है कि चुनाव की राजनीति से बाहर होने पर हर नेता को तकलीफ होगी. क्योंकि ज़्यादातर नेता चुनाव के ज़रिये ही अपने आप को सम्मान दिला सकते हैं .
मीडिया की सजगता की वजह से इन लोगों को सज़ा से बचने की संभावना बहुत कम है . यह ठीक भी है .. . बाबरी मस्जिद को सिम्बल बनाकार मुसलमानों के खिलाफ ज़हर घोलने के आन्दोलन के पीछे और कोई इरादा नहीं था. इरादा था तो सिर्फ लगातार पिछड़ रही बी जे पी को चुनावी सफलता दिलाना . लेकिन अब वह सब ख़त्म हो चुका है .बी जे पी चुनाव में सफल भी हुई, सरकार भी बनाया . इसके नेता भी उसी तरह से घूस के कारोबार में लग गए जैसे इनके पहले कांग्रेसी और समाजवादी लगते रहे हैं . आज बी जे पी फिर असमंजस में है .कहीं कोई मुद्दा नहीं है जिसके खिलाफ बी जे पी वाले ऐलानियाँ मैदान ले सकें . घूस खोरी के बहुत सारे मामलों में बी जे पी के के नेताओं के नाम आ जाने के बाद अब उनकी बात में वह दम नहीं जो सत्ता में आने के पहले तक होता था. सत्ता पाते ही उन लोगों ने साबित कर दिया के अपने पूर्वज कांग्रेसी नेताओं से बेहतर तरीके से बे-ईमानी कर सकते हैं . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के अभियुक्तों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलने के लिए माहौल बिलकुल दुरस्त है . इस लिए अदालत को चाहिए कि इन लोगों को सख्त से सख्त सज़ा दें . ताकि आने वाले वक़्त में कोई भी पार्टी चन्द सीटों के लिए देश में दंगे न फैलाए. दुनिया जानती है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आर एस एस के मातहत संगठनों ने जिस तरह से खून खराबा किया था. उसकी सज़ा भी कोई मामूली नहीं होनी चाहिए . सभ्य समाज को उम्मीद है कि राय बरेली की विशेष अदालत में सही न्याय होगा .
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Sunday, March 28, 2010
Friday, March 12, 2010
सज्जन और मोदी के दरवाज़े न्याय की दस्तक
शेष नारायण सिंह
लोकतंत्र की ताक़त को कम करके आंकने वालों के उत्साह को बढाने के लिए वक़्त ने एक साथ दो अवसर प्रस्तुत कर दिया. लोकतंत्र की उपयोगिता पर सवाल उठा रहे लोग इस बात से परेशान थे कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ लोग अपनी मनमानी करते हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं . जिसका नतीजा यह होता है कि आम आदमी के साथ अन्याय हो जाता है .जबकि आम आदमी को न्याय दिला सकना ही लोकशाही की सबसे पहली शर्त है . लेकिन जिस तरह से कानून ने सिख दंगों के अभियुक्त सज्जन कुमार को घेरा है उस से लोकशाही की संस्थाओं पर एक बार फिर भरोसा बढ़ा है. जिन लोगों ने १ नवम्बर से ३ नवम्बर १९८४ की दिल्ली देखी है , उन्हें उस वक़्त के दिल्ली के कांग्रेस के नेताओं को इंसान मानने में भी दिक्क़त होती है . अर्जुन दास, हरिकिशन लाल भगत,ललित माकन, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर कुछ ऐसे नाम हैं जिनको सुनकर भी मेरे जैसे लोग बहुत साल बाद तक कांप जाते थे . दंगों के बाद कुलदीप नैय्यर , रोमेश थापर, श्रीमती धर्मा कुमार जैसे लोगों लोगों के नेतृत्व में शुरू हुए गैरसरकारी राहत के काम में शामिल होने के बाद त्रिलोक पुरी, मादी पुर , पंजाबी बाग़ , पश्चिम विहार , सफदरजंग इन्क्लेव आदि मुहल्लों में जो मरघट की शान्ति देखी गयी थी, वह आज भी बहुत तकलीफ दे जाती है . लेकिन उस आतंक के सूत्रधार कांग्रेसी नेता बहुत दिनों तक ऐश करते रहे. भगत, अर्जुन दास, ललित माकन आदि तो मर गए लेकिन कानून की ताक़त का अनुभव करने के लिए अभी कुछ लोग बचे हैं , सज्जन कुमार उसी खेप के एक कांग्रेसी हैं. जिस तरह से उनके चारों तरफ कानून का घेरा बन रहा है ,उस से लगता है कि लोकशाही की संस्थाएं अपना काम कर रही हैं. सज्जन कुमार को बहुत लोगों ने भीड़ को उकसाते देखा था लेकिन ज़्यादातर लोग कन्नी काट गए. बहरहाल आज लोकतंत्र की प्रमुख संस्था ,न्यायपालिका अपना काम कर रही है और यह सुकून की बात है .
सज्जन कुमार से ज्यादा खूंखार मनमानी के एक और उदाहरण हैं , श्री नरेंद्र मोदी . उनके बारे में कहा जाता है कि फरवरी २००२ के गुजरात नरसंहार की स्क्रिप्ट उनकी निगरानी में ही लिखी गयी थी . लेकिन उन्होंने कहीं भी अपने क़दमों के निशान नहीं छोड़े थे , इसलिए कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा था. अब खबर आई है कि लोकशाही के प्रमुख स्तम्भ , सुप्रीम कोर्ट ने मोदी के दरवाज़े पर भी कानून की ताक़त की दस्तक दिलवा दी है .उस वक़्त तक लोकसभा के सदस्य रहे, एहसान जाफरी को उनके ही घर में जिंदा जला डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने , स्वर्गीय एहसान जाफरी की पत्नी, ज़किया जाफरी की अर्जी पर सुनवाई के दौरान एस आई टी को आदेश दिया है कि नरेंद्र मोदी को समन भेज कर बुलाया जाए और उनसे पूछताछ की जाए. इस मामले में दर्ज एफ आई आर में नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें अभियुक्त के रूप में नहीं बुलाया जा सकता , उन्हें बतौर गवाह पेश होना है . हाँ अगर तफ्तीश के दौरान जांच अधिकारी को लगा कि अपराध में उनके शामिल होने के कुछ कारण हैं तो उनसे मुलजिम ( मुज़रिम नहीं ) के तौर पूछताछ की जा सकती है .
सवाल यह नहीं है कि मोदी या सज्जन कुमार जैसे लोगो को सज़ा क्या होगी. उनकी दोनों की पार्टियां देश की राजनीतिक सत्ता के सबसे महत्व पूर्ण संगठन हैं . दुर्भाग्य यह है कि दोनों ही लोगों की पार्टियां उनको बचाने की पूरी कोशिश कर रही हैं.लेकिन लोकशाही के समर्थकों के लिए संतोष का विषय यह है कि कानून की सर्वोच्चता का अनुभव सज्जन कुमार और मोदी जैसों को भी हो रहा है और यही लोकतंत्र के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है .राजनीतिक नेताओं के अपराध को न्याय की परिधि में लाने का जो काम लोकशाही की संस्थाएं कर रही हैं ,वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है . ज़ाहिर है लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का भी इसमें कम योगदान नहीं है .. १९८६ के बाद जब बी जे पी ने आक्रामक हिंदुत्व को राजनीतिक हथियार के रूप में अपनाने का फैसला किया तब से ही देश में राजनीतिक बाबाओं का भारी आतंक था . आर एस एस के संगठनों ने इन बाबाओं का पूरा राजनीतिक इस्तेमाल किया और देश की धर्मपरायण जनता को अपने साथ राजनीतिक रूप से इकठ्ठा करने के लिए इन बाबाओं को आगे भी किया. उन दिनों आज की तरह न्यूज़ चैनल नहीं होते थे .. टेलीविज़न सरकारी था और बाबा लोगों के बारे में जो भी अखबारों में छपता था, सीधे सादे लोग विश्वास करते थे . लेकिन आजकल पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मीडिया ने बाबाओं को घेरा है और न्याय की सीमा में लाने की कोशिश की है , वह भी काबिले-तारीफ़ है . मीडिया का यह काम लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है... वह लोकतंत्र के हित में है .. उम्मीद की जानी चाइये कि आने वाले वक़्त बी जे पी जैसी पार्टियां भी अपने राजनीतिक कार्य में बाबापंथी का धंधा करने वालों को दूर रखेंगें . क्योंकि इन्हें इस्तेमाल करने में ख़तरा यह रहेगा कि पता नहीं कब नए युग का कौन सा मीडिया सारी पोल पट्टी खोल दे. . सेक्स के धंधे में लगे हुए बाबाओं को अब शायद ही राजनीति में जगह मिल पायेगी. इस लिए अरुंधती रॉय टाइप लोगों को लोकशाही के खिलाफ लाठी भांजने से बाज़ आना चाहिये
लोकतंत्र की ताक़त को कम करके आंकने वालों के उत्साह को बढाने के लिए वक़्त ने एक साथ दो अवसर प्रस्तुत कर दिया. लोकतंत्र की उपयोगिता पर सवाल उठा रहे लोग इस बात से परेशान थे कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ लोग अपनी मनमानी करते हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं . जिसका नतीजा यह होता है कि आम आदमी के साथ अन्याय हो जाता है .जबकि आम आदमी को न्याय दिला सकना ही लोकशाही की सबसे पहली शर्त है . लेकिन जिस तरह से कानून ने सिख दंगों के अभियुक्त सज्जन कुमार को घेरा है उस से लोकशाही की संस्थाओं पर एक बार फिर भरोसा बढ़ा है. जिन लोगों ने १ नवम्बर से ३ नवम्बर १९८४ की दिल्ली देखी है , उन्हें उस वक़्त के दिल्ली के कांग्रेस के नेताओं को इंसान मानने में भी दिक्क़त होती है . अर्जुन दास, हरिकिशन लाल भगत,ललित माकन, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर कुछ ऐसे नाम हैं जिनको सुनकर भी मेरे जैसे लोग बहुत साल बाद तक कांप जाते थे . दंगों के बाद कुलदीप नैय्यर , रोमेश थापर, श्रीमती धर्मा कुमार जैसे लोगों लोगों के नेतृत्व में शुरू हुए गैरसरकारी राहत के काम में शामिल होने के बाद त्रिलोक पुरी, मादी पुर , पंजाबी बाग़ , पश्चिम विहार , सफदरजंग इन्क्लेव आदि मुहल्लों में जो मरघट की शान्ति देखी गयी थी, वह आज भी बहुत तकलीफ दे जाती है . लेकिन उस आतंक के सूत्रधार कांग्रेसी नेता बहुत दिनों तक ऐश करते रहे. भगत, अर्जुन दास, ललित माकन आदि तो मर गए लेकिन कानून की ताक़त का अनुभव करने के लिए अभी कुछ लोग बचे हैं , सज्जन कुमार उसी खेप के एक कांग्रेसी हैं. जिस तरह से उनके चारों तरफ कानून का घेरा बन रहा है ,उस से लगता है कि लोकशाही की संस्थाएं अपना काम कर रही हैं. सज्जन कुमार को बहुत लोगों ने भीड़ को उकसाते देखा था लेकिन ज़्यादातर लोग कन्नी काट गए. बहरहाल आज लोकतंत्र की प्रमुख संस्था ,न्यायपालिका अपना काम कर रही है और यह सुकून की बात है .
सज्जन कुमार से ज्यादा खूंखार मनमानी के एक और उदाहरण हैं , श्री नरेंद्र मोदी . उनके बारे में कहा जाता है कि फरवरी २००२ के गुजरात नरसंहार की स्क्रिप्ट उनकी निगरानी में ही लिखी गयी थी . लेकिन उन्होंने कहीं भी अपने क़दमों के निशान नहीं छोड़े थे , इसलिए कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा था. अब खबर आई है कि लोकशाही के प्रमुख स्तम्भ , सुप्रीम कोर्ट ने मोदी के दरवाज़े पर भी कानून की ताक़त की दस्तक दिलवा दी है .उस वक़्त तक लोकसभा के सदस्य रहे, एहसान जाफरी को उनके ही घर में जिंदा जला डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने , स्वर्गीय एहसान जाफरी की पत्नी, ज़किया जाफरी की अर्जी पर सुनवाई के दौरान एस आई टी को आदेश दिया है कि नरेंद्र मोदी को समन भेज कर बुलाया जाए और उनसे पूछताछ की जाए. इस मामले में दर्ज एफ आई आर में नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें अभियुक्त के रूप में नहीं बुलाया जा सकता , उन्हें बतौर गवाह पेश होना है . हाँ अगर तफ्तीश के दौरान जांच अधिकारी को लगा कि अपराध में उनके शामिल होने के कुछ कारण हैं तो उनसे मुलजिम ( मुज़रिम नहीं ) के तौर पूछताछ की जा सकती है .
सवाल यह नहीं है कि मोदी या सज्जन कुमार जैसे लोगो को सज़ा क्या होगी. उनकी दोनों की पार्टियां देश की राजनीतिक सत्ता के सबसे महत्व पूर्ण संगठन हैं . दुर्भाग्य यह है कि दोनों ही लोगों की पार्टियां उनको बचाने की पूरी कोशिश कर रही हैं.लेकिन लोकशाही के समर्थकों के लिए संतोष का विषय यह है कि कानून की सर्वोच्चता का अनुभव सज्जन कुमार और मोदी जैसों को भी हो रहा है और यही लोकतंत्र के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है .राजनीतिक नेताओं के अपराध को न्याय की परिधि में लाने का जो काम लोकशाही की संस्थाएं कर रही हैं ,वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है . ज़ाहिर है लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का भी इसमें कम योगदान नहीं है .. १९८६ के बाद जब बी जे पी ने आक्रामक हिंदुत्व को राजनीतिक हथियार के रूप में अपनाने का फैसला किया तब से ही देश में राजनीतिक बाबाओं का भारी आतंक था . आर एस एस के संगठनों ने इन बाबाओं का पूरा राजनीतिक इस्तेमाल किया और देश की धर्मपरायण जनता को अपने साथ राजनीतिक रूप से इकठ्ठा करने के लिए इन बाबाओं को आगे भी किया. उन दिनों आज की तरह न्यूज़ चैनल नहीं होते थे .. टेलीविज़न सरकारी था और बाबा लोगों के बारे में जो भी अखबारों में छपता था, सीधे सादे लोग विश्वास करते थे . लेकिन आजकल पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मीडिया ने बाबाओं को घेरा है और न्याय की सीमा में लाने की कोशिश की है , वह भी काबिले-तारीफ़ है . मीडिया का यह काम लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है... वह लोकतंत्र के हित में है .. उम्मीद की जानी चाइये कि आने वाले वक़्त बी जे पी जैसी पार्टियां भी अपने राजनीतिक कार्य में बाबापंथी का धंधा करने वालों को दूर रखेंगें . क्योंकि इन्हें इस्तेमाल करने में ख़तरा यह रहेगा कि पता नहीं कब नए युग का कौन सा मीडिया सारी पोल पट्टी खोल दे. . सेक्स के धंधे में लगे हुए बाबाओं को अब शायद ही राजनीति में जगह मिल पायेगी. इस लिए अरुंधती रॉय टाइप लोगों को लोकशाही के खिलाफ लाठी भांजने से बाज़ आना चाहिये
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