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Saturday, June 8, 2013

कैलिफोर्निया में अमरीका और चीन की शिखर बैठक के भावार्थ


शेष नारायण सिंह 

सात और आठ जून को दुनिया के दो सबसे ताकतवर नेता मिल रहे हैं .चीन के जी जिनपिंग और अमरीका के बराक ओबामा कैलिफोर्निया के सनीलैंड्स में मिल रहे हैं . इन नेताओं की मुलाकात एक ऐसे माहौल में हो रही है जब दोनों देशों के बीच रिश्ते ढलान पर हैं .आर्थिक विकास की हवा पर सवार चीन अपनी क्षेत्रीय हैसियत को बढाने में लगा हुआ है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की कमज़ोर पड़  रही अर्थव्यवस्था के चलते चीन के हौसले और भी बुलंद हैं . अमरीका को अब तक इस बात का गुमान था कि वह चीन के चारों तरफ के देशों में भारी मौजूदगी रखता है और उसके बल पर वह ज़रुरत पड़ने  पर चीन को घेर सकता है .हालांकि अमरीका का यह मुगालता  बंगलादेश की स्थापना के बाद ख़त्म हो गया था लेकिन वह  जापान, कोरिया, पाकिस्तान आदि देशों में अपनी मौजूदगी को अपनी ताक़त मानता रहा था . हालांकि १९७१ में पाक्सितान के बड़े भाई के रूप  में खड़े रहकर भी निक्सन और किसिंजर की टोली  पाकिस्तान को छिन्न भिन्न होने से बचा नहीं पायी थी . भारत ने हस्तक्षेप करके तत्कालीन पाकिस्तान के पूर्वी भाग की अवाम की आज़ादी को  सहारा दिया था और स्वतंत्र देश बंगलादेश  की स्थापना हो गयी थी . एशिया के इस हिस्से में अपनी ताकत के परखचे उड़ते देख अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अप्लीकेशन डाल  दी थी और उनको चेयरमैन माओत्सेतुंग ने हाजिरी बक्श दी थी  . अमरीका परस्त देश और राजनेता उसके बाद से ही दावा करते रहे हैं कि चीन और अमरीका के रिश्तों में सुधार हो रहा है लेकिन सच्चाई यह  है की पूरी दुनिया में हर तरफ अपनी दखलंदाजी करने वाले अमरीका के प्रभाव का दायरा बहुत ही तेज़ी से घट रहा है . ऐसी हालत में अमरीका के हित में है  कि वह  तेज़ी से विकास कर रहे चीन  से अपने सम्बन्ध सुधारे. वरना वह दिन दूर नहीं जब चीन आर्थिक विकास के साथ एक ऐसी सैनिक ताक़त की शक्ल अख्तियार कर लेगा  कि दुनिया भर में अपने को रक्षक के रूप में पेश करने वाले अमरीका की मुश्किलें बहुत बढ़ जायेगीं .
चीन को मालूम है की अब अमरीका और चीन के रिश्ते बहुत ही नाज़ुक दौर में पंहुच चुके हैं और अब एक ऐसे सम्बन्ध की ज़रुरत है जो दो महान देशों के बीच स्थापित किया जाता है. जानकार बताते हैं की दोनों देशों के नेताओं को कूटनीति के जो स्थापित मानदंड हैं उनसे अलग होकर कुछ करना पडेगा . इस सम्बन्ध में १९७२  का उदाहरण दिया जाता है जब अपने भारी मतभेदों को भुलाकर चीने के सबसे बड़े नेता  माओ के सामने रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने आपसी हितों के मुद्दे तलाशने की कोशिश की थी  . पिछले चालीस  वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है . चीन को मालूम है की वह अब एक महान आर्थिक ताक़त है और वह अमरीकी बाजार को  अस्थिर करने की शक्ति रखता है .चीन में  अब भी यह माना जाता है की जब भी अमरीका दोस्ती का हाथ बढाता है वह चीन को काबू में करने के चक्कर में  ज्यादा रहता है .लेकिन दोनों ही नेताओं, जी जिनपिंग और बराक ओबामा को मालूम है को दोस्ती की राह ही सही रहेगी क्योंकि और किसी रास्ते में तबाही ही तबाही है .
ओबामा को मालूम है की चीन को साथ लिए बिना ईरान, उत्तरी कोरिया और मौसम के बदलाव जैसे मुद्दों पर कोई सफलता नहीं मिलेगी . इसलिए सनीलैंड्स की मुलाक़ात से अमरीकी कूटनीति को धार मिलने की संभावना है .चीन  के हित में यह है की वह पूर्वी एशिया और अपने प्रभाव के अन्य इलाकों में अमरीका को यह भरोसा दिला सके कि  चीन उसको परेशान नहीं करेगा. चीन  के मौजूदा नेता  जी जिनपिंग ने एक साल की अपनी सत्ता के बाद यह साबित कर दिया है की घरेलू और विदेशी हर मामले में  उनकी ताकत को कम करके नहीं आंका जा सकता . आर्थिक बदलाव के बाद चीन के सरकारी कर्मचारियों में आयी भ्रष्टाचार की वारदातों  पर उन्होंने प्रभावी तरीके से कंट्रोल करने की कोशिश पर काम शुरू कर दिया है जापान को वे अक्सर धमकाते रहते हैं .इस तरह से चीनी राष्ट्रवाद की अनुभूति को भी शक्ति मिलती  है .अमरीका पंहुचने के  पहले वे मेक्सिको, कोस्टा रिका और त्रिनिदाद -टोबैगो होते हुए पंहुचे हैं यानी अमरीका को पता होना चाहिए कि  चीन भी अमरीका के बिलकुल पड़ोस तक असर रखता है .अगर अमरीका पूर्वी एशिया में असर रखता है तो चीन भी दक्षिण  अमरीका में एक ताक़त है। इस पृष्ठभूमि में दो बड़ी ताक़तों के नेताओं का  बेतकल्लुफ़ माहौल में मिलना दुनिया की राजनीति के लिए बड़ी घटना है . इसका असर आने वाले वर्षों में  सभी देशों पर पड़ने वाला है .

Saturday, July 14, 2012

बराक ओबामा भारत में कैंसर की महंगी दवा बेचने के लिए सरकार पर दबाव डाल रहे हैं


  
शेष नारायण सिंह 
 अमरीका की कोशिश है कि वह भारत के कैंसर  के रोगियों से बहुत भारी मुनाफा कमाए और उसके लिए उसे भारत सरकार की मदद चाहिए . अमरीकी कम्पनियां कैंसर की जो दवा भारत में बेचती हैं उनकी  कीमत कैंसर के  रोगी को करीब ढाई लाख  रूपया प्रति महीना पड़ता है . जब कि वही दवा भारत की कंपनियों ने बना लिया है और उसकी कीमत केवल साढ़े सात हज़ार रूपये महीने है . अपने  पूंजीपतियों को बेजा लाभ पंहुचाने के लिए अमरीकी प्रशासन भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह भारतीय कंपनी को दवा बेचने से रोक दे और अमरीकी दवा पर ही भारत के कैंसर के रोगी निर्भर बने रहें. अमरीकी सरकार की एक बड़ी अधिकारी ने दावा  किया है कि वह भारत सरकार में उच्च पदों पर बैठे कुछ लोगों से इस काम को करवाने के लिए संपर्क में है . ज़रुरत  इस बात की है  यह पता  लगाया जाए कि उच्च पदों पर बैठे यह कौन लोग हैं . पता लगने के बाद उन्हें कानून के  हिसाब से दण्डित किया  जाना चाहिए  . संतोष की बात यह  है अभी तो भारत सरकार ने अमरीका को  साफ़ मना कर दिया है  कि वह अपने देश के कैंसर के मरीजों के खून से अमरीकी व्यापार को फलने फूलने नहीं देगें लेकिन जिस तरह से केंद्र सरकार में अमरीका परस्त लोगों का बोलबाला है , लगता है कि देर सवेर भारत सरकार अमरीकी दबाव के सामने झुक जायेगी .
अमरीका और पाकिस्तानमें एक समानता है . दोनों ही देशों में राजनीतिक शमशीर चमकाने के लिए भारत के खिलाफ ज़हर उगलने का फैशन है . अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा वैसे तो भले आदमी माने जाती हैं  लेकिन अमरीकी कट्टरपंथियों को साथ लेने के  लिए वे भी भारत के खिलाफ गैरजिम्मेदार अभियान चलाने की पूरी कोशिश करते हैं .अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे कमज़ोर देशों में तो वे  गोली बारूद से सीधा हमला करते हैं , ड्रोन चलाते हैं और आतंकवादियों के साथ साथ निर्दोष लोगों की भी जान ले लेते हैं . लेकिन भारत की बढ़ती आर्थिक ताक़त और हैसियत के मद्दे नज़र भारत से कुछ आर्थिक लाभ झटक लेने के चक्कर में रहते हैं .
ताज़ा मामला कैंसर की दवा की मनमानी  कीमत वसूलने का है . जर्मनी की बड़ी दवा कम्पनी बायर कैंसर की दवा बनाती है . इस दवा से कैंसर का इलाज भारत में भी होता है .अभी तक इस दवा के सहारे इलाज कराने में करीब ढाई लाख रूपये प्रति महीने का खर्च आता है . एक भारतीय दवा कंपनी ने वहीं दवा अपने देश में बना दिया और उसकी मदद से कैंसर के इलाज की कीमत करीब साढ़े सात हज़ार रूपये  प्रति माह पड़ रही है . यह दवा बनाने वाली कंपनी ने भारत सरकार से बाकायदा अनुमति लेकर इस दवा को बेचना शुरू कर दिया  है, सारा काम अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के हिसाब से  कानूनी है और भारतीय कंपनी जर्मन/अमरीकी कंपनी को साढ़े छः प्रतिशत की रायल्टी दे रही है . लेकिन इस दवा के बन जाने से अमरीका में बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रही बायर को भारी घाटा हो रहा है और अब ओबामाअमरीकी /जर्मन कंपनी को लाभ पंहुचाने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं. 
अमरीकी पेटेंट और ट्रेडमार्क आफिस की एक  डिप्टी डाइरेक्टर  ने अमरीकी सेनेट से अपील की है कि वह भारत सरकार पर दबाव बनाए कि वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करके भारत सरकार को मजबूर कर दे कि वह भारतीय कम्पनी  को कम कीमत वाली लेकिन बहुत अच्छी दवा बेचने से रोकें. सेनेट से उन्होंने अपनी पेशी के दौरान अपील कि   कि वह भारत सरकार को फटकार लगाए कि उसने क्यों किसी भारतीय कंपनी को दवा बेचने की अनुमति दे दी. उन्होंने यह भी कुबूल किया कि वे निजी तौर पर भी भारत सरकार की एजेंसियों से  संपर्क  बनाए हुए हैं और पूरी कोशिश कर  रही  हैं कि अमरीकी /जर्मन दवा कम्पनी  को होने वाला मुनाफ़ा  कम न  होने पाए . ज़रुरत इस बात की है कि भारत सरकार की सी बी आई या अन्य  कोई सक्षम संस्था इस बात की  जांच करे कि अमरीकी पेटेंट और ट्रेड आफिस भारत सरकार में किन लोगों के साथ संपर्क बनाए हुए है और वे क्यों भारत के राष्ट्रीय  और सार्वजनिक  हित के खिलाफ काम कर रहे हैं .