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Sunday, June 3, 2012

मीडिया की कृपा से राष्ट्रीय नेता बनने वालों से देश को बचाने की ज़रुरत है आडवाणी जी




शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१ जून . बीजेपी में बड़े नेताओं के बीच हमेशा से ही मौजूद रहा झगडा सामने आ गया है. लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष के काम काज के तरीकों पर सवाल उठाया है . कहते हैं कि मीडिया के लोग केंद्र  सरकार  पर हमला कर रहे हैं लेकिन उनका अपना गठबंधन भी 
सही काम नहीं कर रहा है.आडवाणी ने अपने ब्लॉग पर  अपनी  तकलीफों को कलमबंद किया है और ६० साल की अपनी  राजनीतिक यात्रा को याद किया है . उन्होंने लोगों को याद दिलाया है कि वे बीजेपी की पूर्ववर्ती  पार्टी जनसंघ के  संस्थापक सदस्य  हैं .
 उनको याद है कि १९८४ में उनकी पार्टी लोक सभा चुनावों में बुरी तरह से हार गयी थी. २२९ उम्मीदवार खड़े किये गए थे और केवल दो सीटें ही हाथ आई थीं .उत्तर प्रदेश , बिहार , राजस्थान , मध्य  प्रदेश और महाराष्ट्र में पार्टी जीरो पर थी लेकिन  कार्यकर्ता कहीं भी हार  मानने को तैयार नहीं था  ,वह अगली लड़ाई के लिए तैयार था और हमने आगे चल  कर कुशल रणनीति से चुनावी सफलता हासिल की और सरकारें  बनाईं. 
इस के बाद लाल कृष्ण आडवानी ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष , नितिन गडकरी के काम की आलोचना शुरू कर दिया . उन्होंने लिखा है कि जिस तरह से उत्तरप्रदेश के एक  भ्रष्ट नेता को साथ लिया गया  उस से पार्टी को बहुत नुकसान हुआ है . झारखण्ड और कर्नाटक में भी पार्टी ने भारी गलती की. यह सारी गलतियाँ नितिन गडकरी ने ही की हैं .तीनों ही मामलों में भ्रष्ट लोगों को साथ लेकर पार्टी ने यू पी ए के भ्रष्टाचार के  खिलाफ खड़े होने का नैतिक अधिकार खो दिया है . इसी लेख में आडवाणी   जी ने अरुण  जेटली और सुषमा स्वराज के काम को एक्सीलेंट बताया  है . ज़ाहिर है कि वे  नितिन गडकरी के काम काज से संतुष्ट नहीं है  और वे उनको दूसरा टर्म देने की बात से खासे नाराज़ हैं .
लाल कृष्ण आडवाणी की नाराज़गी के कारण समझ में आने वाले हैं . लेकिन केवल गडकरी की  आलोचना करके आडवाणी  जी ने अपने आपको एक गुट का नेता सिद्ध कर दिया है .  इस सारे घटनाक्रम से साफ़ नज़र आ रहा है कि वे गडकरी  गुट के खिलाफ अपने लोगों की तारीफ़ कर  रहे हैं . सच्चाई यह है कि उनकी पार्टी जिसमें कभी ज़मीन से जुड़े नेता  राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय होते थे लेकिन अब नहीं हैं . अब बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में है जिनका अपनी ज़मीन पर कोई असर नहीं है . १९७५ में यही काम कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने शुरू किया था  और कांग्रेस जो बहुत बड़ी और मज़बूत पार्टी हुआ करती थी , वह रसातल पंहुंच गयी थी. १९७१ के लोक सभा चुनाव के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को अपने बेटे संजय  गांधी के हाथ में थमा दिया था . संजय गांधी भी ज़मीन से जुड़े हुए नेता नहीं थे. उन्होंने दिल्ली में रहने वाले कुछ अपने साथियों के साथ पार्टी को काबू में कर लिया और उसका नतीजा सबने देखा . कांग्रेस १९७७ में कहीं की नहीं रही, इंदिरा गाँधी और संजय गांधी खुद चुनाव हार गए. १९८० में इंदिरा गाँधी की वापसी हुई लेकिन वह जनता पार्टी की हर ज्यादा थी , कांग्रेस को तो नेगेटिव वोट ने सत्ता दिलवा दी थी. उसके बाद केंद्र के किसी भी नेता को बाहैसियत नहीं बनने  दिया गया .  वी पी सिंह ने जब कांग्रेस से बगावत की तो जनता ने उन्हें तख़्त सौंप दिया . लेकिन उनके साथ भी वही लोग जुड़ गए जो राजीव गांधी को  राजनीतिक रूप से तबाह कर  चुके थे. बाद में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का झगड़ा हुआ और बीजेपी को धार्मिक ध्रुवीकरण का  चुनावी लाभ मिला और बीजेपी वाले अपने आप को बड़ा नेता मानने लगे. 
आज देश का दुर्भाग्य है कि दोनों की बड़ी पार्टियों में ऐसे नेताओं का बोलबाला है जो  दिल्ली के लुटेंस बंगलो ज़ोन में ही सक्रिय हैं . कांग्रेस में भी जो लोग पार्टी के भाग्य का फैसला  कर रहे हैं उनमें से सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अलावा किसी की हैसियत नहीं है कि वह लोक सभा का चुनाव जीत जाए. प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक उन्हीं लोगों की भरमार है जो राष्ट्रीय नेता हैं लेकिन राज्य सभा  के सदस्य हैं . यही हाल बीजेपी का है . अपने राज्य से चुनाव जीत कर आने वाला कोई भी नेता राष्ट्रीय नेता नहीं  है .जो लोग खुद ताक़तवर हैं उन्हें दरकिनार कर दिया गया है.  कुछ लोग जो लोक सभा में हैं  भी वे राज्यों के मुख्य मंत्रियों की कृपा से चुनाव जीतकर आये हैं . . दोनों ही पार्टियों में राज्य सभा के सदस्य राष्ट्रीय नेता मीडिया प्रबंधन में बहुत ही प्रवीण हैं और मीडिया के ज़रिये राष्ट्रीय नेता बने हुए हैं . जो लोग ज़मीन से जुड़े हैं .लोक सभा का चुनाव जीतकर आये हैं वे  टाप नेतृव नहीं  हैं . 
अगर अपने ब्लॉग  में आडवाणी जी ने दोनों की पार्टियों के इस मर्ज़  की तरफ संकेत किया होता तो यह माना जाता कि वे देश की राजनीति में कुछ शुचिता लाने की बात कर  रहे हैं . उनकी टिप्पणी से यही लगता है कि वे बीजेपी में अपने गुट के दबदबे के लिए कोशिश कर रहे हैं .मीडिया की कृपा से नेता बने लोगों से जब तक राष्ट्रीय राजनीति को मुक्त नहीं किया जाएगा , आम आदमी राजनीतिक रूप से सक्रिय  नहीं होगा.

Saturday, August 1, 2009

बलराज मधोक से एलके आडवाणी तक

आज की भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व अवतार में भारतीय जनसंघ नाम से जानी जाती थी। 60 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद जब कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई तो जनसंघ एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में उभरी। जनसंघ के बड़े नेता थे, प्रो. बलराज मधोक। 1967 में इनके नेतृत्व में ही जनसंघ ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और उत्तर भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में आगे बढ़ रही थी लेकिन 1971 के लोकसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई।

बलराज मधोक भी चुनाव हार गए, उनकी पार्टी में घमासान शुरू हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी नए नेता के रूप में उभरे और बलराज मधोक को जनसंघ से निकाल दिया। पार्टी से निकाले जाने के पहले बलराज मधोक ने 1971 के चुनावों की ऐसी व्याख्या की थी जिसे समकालीन राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी बहुत ही कुतूहल से याद करते है। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और उनकी पार्टी भारी बहुमत से विजयी रही। भारतीय जनसंघ को भारी नुकसान हुआ लेकिन मधोक हार मानने को तैयार नहीं थे।

उन्होंने एक आरोप लगाया कि चुनाव में प्रयोग हुए मतपत्रों में ऐसा केमिकल लगा दिया गया था जिसकी वजह से, वोट देते समय मतदाता चाहे जिस निशान पर मुहर लगाता था, मुहर की स्याही खिंचकर इंदिरा गांधी के चुनाव निशान गाय बछड़ा पर ही पहुंच जाती थी। इस तरह का काम कांग्रेस और चुनाव आयोग ने पूरे देश में करवा रखा था। बलराज मधोक ने कहा कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव जीती नहीं है, केमिकल लगे मतपत्रों की हेराफेरी की वजह से कांग्रेस को बहुमत मिला है। मधोक के इस सिद्घांत को आम तौर पर हास्यास्पद माना गया।

इसके कुछ समय बाद ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। बैलट पेपर पर केमिकल की बात अब तक भारतीय राजनीति में चुटकुले के रूप में इस्तेमाल होती रही है। लोकसभा चुनाव 2009 के बाद भी कांग्रेस को सीटें उसकी उम्मीद से ज्यादा ही मिली हैं। बीजेपी के नेताओं की उम्मीद से तो दुगुनी ज्यादा सीटें कांग्रेस को मिली हैं। बीजेपी वाले चुनाव नतीजों के आने के बाद दंग रह गए। कुछ दिन तो शांत रहे लेकिन थोड़ा संभल जाने के बाद पार्टी के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया कि चुनाव में जो इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन इस्तेमाल की गई उसकी चिप के साथ बड़े पैमाने पर हेराफेरी की गई थी लिहाजा कांग्रेस को आराम से सरकार चलाने लायक बहुमत मिल गया और आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। उसके बाद तेलुगू देशम और राष्ट्रीय जनता दल ने भी यही बात कहना शुरू कर दिया।

ताजा खबर यह है कि दक्षिण मुंबई से शिवसेना के पराजित उम्मीदवार मोहन रावले ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है और प्रार्थना की है कि पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव रद्द कर दिया जाय। उनका कहना है कि ईवीएम से चुनाव करवाने में पूरी तरह से हेराफेरी की गई है। अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में तो उन्होंने लगभग पूरी तरह से ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी पर भरोसा जताया है और वहां के चुनाव को रद्द करने की मांग की है। मानवीय व्यक्तित्व बहुत ही पेचीदा होता है। आम तौर पर सबको जीत की खुशी होती है और पराजय सबको तकलीफ पहुंचाती है। इंसान के व्यक्तित्व की ताकत की परीक्षा पराजय के बाद ही होती है।

मजबूत आदमी अपनी हार से खुश तो नहीं होता लेकिन हारने के बाद अपना संतुलन नहीं खोता। हार के बाद खंभा नोचने वालों को इंसानी बिरादरी में शामिल करना भी बहुत मुश्किल होता है। हार के बाद संतुलन खो बैठना कमजोर आदमी की निशानी है। ईवीएम के अभियान चलाने वाले नेताओं को पता होना चाहिए कि इन मशीनों का आविष्कार लोकतंत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। ईवीएम के खिलाफ आने के बाद बाहुबलियों और बदमाशों की बूथ कैप्चर करने की क्षमता लगभग पूरी तरह से काबू में आ गई है। बैलट पेपर के जमाने में इनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। बंडल के बंडल बैलट पेपर लेकर बदमाशों के कारिंदे बैठ जाते थे और मनपसंद उम्मीदवार को वोट देकर विजयी बना देते थे।

ईवीएम के लागू होने के बाद यह संभव नहीं है। मशीन को डिजाइन इस तरह से किया गया है कि एक वोट पूरी तरह से पड़ जाने के बाद ही अगला वोट डाला जा सकता है। ऐसी हालत में अगर पूरी व्यवस्था ही बूथ कैप्चर करना चाहे और किसी भी उम्मीदवार का एजेंट विरोध न करे तभी उन्हें सफलता मिलेगी। सबको मालूम है कि अस्सी के दशक में गुडों ने जब राजनीति में प्रवेश करना शुरू किया तब से जनता के वोट को लूटकर लोकतंत्र का मखौल उड़ाने का सिलसिला शुरू हुआ था, क्योंकि बूथ कैप्चर करने की क्षमता को राजनीतिक सद्गुण माना जाने लगा था। इसके चलते हर पार्टी ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था।

इस बार बहुत कम बाहुबली चुनाव जीतने में सफल हो सके। जानकार कहते हैं कि बदमाशों के चुनाव हारने में ईवीएम मशीन का भी बड़ा योगदान है। इसलिए इसको बंद करने की मांग करना ठीक नहीं है। अगर फिर बैलट पेपर के जरिए वोट पडऩे लगे तो देश अस्सी के उसी रक्त रंजित दशक की तरह अराजकता की तरफ बढ़ जाएगा। ई.वी.एम. के खिलाफ शुरू किए गए अभियान पर चुनाव आयोग को भी खासी नाराजगी है। चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने एक सेमिनार में कहा कि ई.वी.एम. लगभग फूल-प्रूफ है। इसकी किसी भी गड़बड़ी को कभी भी जांचा परखा जा सकता है। उन्होंने केन्या का उदाहरण दिया जहां चुनाव व्यवस्था बिल्कुल तबाह हो चुकी है, लोकतंत्र रसातल में पहुंचने वाला है।

श्री कुरैशी ने कहा कि केन्या के प्रबुद्घ लोगों ने यह सुझाव दिया कि भारत की तर्ज पर वहां भी ईवीएम का इस्तेमाल किया जाय और चुनाव प्रक्रिया में काम करने वाले अधिकारियों को भारत की मदद से टे्रनिंग दी जाय। इसके अलावा दुनिया के और कई देशों में भी भारतीय ई.वी.एम. मशीनों की तारीफ हो रही है। ज़ाहिर है प्रयोग सफल है और उसके आगे बढ़ते रहने की जरूरत है। ई.वी.एम. मशीनों का विरोध कर रही पराजित पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि चुनाव होता ही इसीलिए है कि कोई हारे और कोई जीते। जो लोग एक बार लोकसभा या विधानसभा चुनाव जीत जाते हैं उन्हें पता चल जाता है कि चुनाव जीतने के बाद सुख सुविधा और ताकत का अंबार लग जाता है। चुनाव हारने के बाद वह सब कुछ काफूर हो जाता है।

ज़ाहिर है कि पराजित व्यक्ति को पछतावा बहुत ज्यादा होता है लेकिन लोकतंत्र के हित में आदमी को धीरज से काम लेना चाहिए। अगर लोकतंत्र रहेगा तो सब कुछ रहेगा और मोहन रावले सहित बाकी लोगों को दुबारा चुनाव जीतने का मौका मिलेगा और अगर बैलट पेपर युग की फिर वापसी हो गई तो पूरी आशंका है कि अपराधियों और बाहुबलियों का लोकतंत्र पर कब्जा हो जाएगा और चुनाव प्रक्रिया पर भी खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। इसलिए राजनीतिक नेताओं को चाहिए कि लोकतंत्र के विकास के रास्ते में कांटे न बिछाएं।