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Saturday, November 10, 2012

कोई कुछ भी कहे लेकिन गडकरी की कश्ती भंवर में तो है ही



शेष नारायण सिंह  


शासक वर्ग की दोनों ही बड़ी पार्टियों में उथल पुथल है . कांग्रेस के कई नेताओं के ऊपर भ्रष्टाचार  के संगीन आरोप हैं तो सत्ताधारी पार्टी के भ्रष्टाचार पर नज़र रखने के लिए जनता की तरफ से तैनात विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी भी भ्रष्टाचार की लपटों से बच नहीं पा रही है . माहौल ऐसा है कि भ्रष्टाचार की पिच पर दोनों ही पार्टियों  की दमदार मौजूदगी है . ज़ाहिर है कांग्रेस या बीजेपी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक दुसरे के ऊपर उंगली उठाने की स्थिति में नहीं हैं .  यह देश का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक जीवन में सक्रिय ज्यादातर बड़ी पार्टियों के नेता राजाओं की तरह का जीवन बिताने को आदर्श मानते हैं .जिसे हासिल करने के लिए ऐसे ज़रिये से धन कमाने के चक्कर में रहते हैं जिसकी गिनती कभी भी ईमानदारी की श्रेणी में नहीं की जा सकती. ताज़ा मामला बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का है . उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं . लेकिन उनके साथी यह कहते पाए जा रहे हैं कि उन्होंने कानूनी या नैतिक तौर पर कोई गलती नहीं की है . लेकिन उनकी पार्टी के अंदर से ही उनके खिलाफ माहौल बनना  शुरू हो गया है. सच्चाई यह है कि पिछले सात  वर्षों से बीजेपी ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही घेरने की  रणनीति पर काम किया है ,विकास या अच्छी सरकार का मुद्दा उनकी नज़र में नहीं  आया. जब भ्रष्टाचार के चक्कर में लोकायुक्त  ने  कर्नाटक के मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया तो बीजेपी ने दक्षिण भारत में अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का खतरा लेकर भी मुख्यमंत्री येदुरप्पा को पद से हटाया. लेकिन गडकरी के ऊपर जो आरोप लगे हैं उनको  झेल पाना बीजेपी के बस की बात नहीं है. एक टी वी चैनल ने सारा मामला उठाया . बाद में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम कर रहे लोगों की एक जमात के नेता ने भी बहुत ही समारोहपूर्वक नितिन गडकरी की भ्रष्टाचार कथा को सार्वजनिक किया . इस नेता की खासियत यह  है कि जिस मुद्दे को भी यह उठाता  है ,मीडिया उसे चटनी की तरह लपक लेता है .शायद इसी वजह से आज बीजेपी अध्यक्ष के भ्रष्टाचार  के कथित कारनामे सारे देश में चर्चा का विषय हैं .  बीजेपी के सामने भी चुनौती है कि अपने मौजूदा अध्यक्ष को कैसे बचाए .  माहौल ऐसा है  कि अगर नितिन गडकरी  हटाये जाते हैं तो भ्रष्टाचार के कहानियों के सारे ताने बाने बीजेपी के इर्द गिर्द ही बन जायेगें . लेकिन न हटाने की सूरत में भी वही हाल रहेगा. राजनीतिक माहौल ऐसा है कि आजकल जब भी भ्रष्टाचार शब्द के कहीं इस्तेमाल होता है, तो  नितिन गडकरी की तस्वीर सामने आ जाती है . 

हालात को काबू में रखने के लिए बीजेपी के नेता तरह तरह की कोशिश कर रहे हैं . बीजेपी का नियंत्रक संगठन आर एस एस है. आर एस एस की पूरी कोशिश है कि नितिन गडकरी को डंप न किया जाए. शायद इसी मंशा से उन्होंने अपने खास सदस्य  और चार्टर्ड अकाउन्टेंट ,एस गुरुमूर्ती को पेश किया और उन्होंने बीजेपी के कोर ग्रुप को बता दिया कि नितिन गडकरी बिलकुल निर्दोष हैं . यह अलग बात  है कि सार्वजनिक रूप से उनकी बात को स्वीकार कर लेने के बाद भी बीजेपी के नेता गडकरी को दोषमुक्त नहीं मान पा रहे हैं.आर एस एस की पोजीशन गडकरी ने बहुत ही मुश्किल कर दी है .आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों से वे जूझ ही रहे थे कि  उन्होंने स्वामी विवेकानंद की अक्ल की तुलना दाऊद इब्राहीम की अक्ल से करके भारी मुश्किल पैदा कर दी . आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप तो आर एस एस बर्दाश्त भी कर लेता लेकिन जिन स्वामी विवेकानंद जी के व्यक्तित्व के आसपास,  आर एस एस ने अपना संगठन खड़ा किया  हो उनकी तुलना दाऊद इब्राहीम जैसे आदमी से कर देना  आर एस एस के लिए बहुत मुश्किल है .हालांकि पूरे भारत में कोई भी दाऊद इब्राहीम को सही नहीं  ठहरा पायेगा लेकिन आर एस एस के लिए किसी ऐसे आदमी को महिमामंडित करना असंभव है जो मुसलमान हो, पाकिस्तान का दोस्त हो और मुंबई में शिवसेना के खिलाफ बहुत सारे अभियान चला चुका हो . गडकरी ने भ्रष्टाचार के कथित काम करके बीजेपी की वह अथारिटी तो छीन ही ली कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनावी मुद्दा बना सके, उन्होंने देश के नौजवानों के संघप्रेमी वर्ग को भावनात्मक स्तर पर भी  तकलीफ पंहुचाई . बीजेपी और आर एस एस के लिए विवेकानंद का अपमान करने वाले को बर्दाश्त कर पाना बहुत मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है .बीजेपी की परेशानी को समझने के  लिए आज़ादी  की लड़ाई के इतिहास पर एक नज़र डालनी होगी. भारत की आज़ादी की लड़ाई  की पहली कोशिश १८५७ में हुई थी . कहीं कोई  संगठन नहीं था  लिहाजा वह  संघर्ष बेकार साबित हो गया. लेकिन जब १९२० में महात्मा गांधी के नेतृत्व में आज़ादी की कोशिश शुरू हुई तो पूरा देश उनके साथ हो गया .लेकिन महात्मा गांधी के साथ कोई भी ऐसा आदमी नहीं था जिसका आर एस एस से किसी तरह का सम्बन्ध रहा हो. आर एस एस वाले बताते हैं कि इनके संस्थापक डॉ हेडगेवार ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था . अगर उनकी बात को मान भी लिया जाए तो यह पक्का है कि आर एस एस वालों के पास महान पूर्वजों की किल्लत है .

सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने वी.डी. सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की थी .बीजेपी ने सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी हासिल कर ली लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से मांगी गई माफी के बाद आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान बीजेपी को बहुत ज्यादा हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थे, उन्हें पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी। 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के कुछ सदस्यों संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो परेशानी पैदा हो गयी और वह प्रोजेक्ट भी ड्राप हो  गया .

1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद एम एस गोलवलकर भी सक्रिय रहे लेकिन जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो आर.एस.एस. के गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई,वे आराम से अपना काम करते रहे . ज़ाहिर है उनको भी आज़ादी की लड़ाई  का हीरो नहीं साबित किया जा सकता .कुछ वर्ष पहले सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई। लालकृष्ण आडवाणी लौहपुरुष वाली भूमिका में आए और हर वह काम करने की कोशिश करने लगे जो सरदार पटेल किया करते थे। लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि सरदार की महानता के सामने लालकृष्ण आडवाणी टिक न सके। बाद में जब उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह को महान बता दिया तो सब कुछ हवा हो गया. जिनाह को सरदार पटेल ने कभी भी सही आदमी नहीं माना था . ज़ाहिर है जिनाह का कोई भी प्रशंसक  सरदार पटेल का अनुयायी नहीं हो सकता . वैसे सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया एम एस गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। बाद में मुक़दमा चलने के बाद जब हत्या में गोलवलकर का रोल साबित नहीं हो सका तो उन्हें रिहा हो जाना चाहिए था लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें। बहरहाल अंडरटेकंग लेकर आर एस के प्रमुख एम एस गोलवलकर को छोड़ा। साथ ही एक और आदेश दिया कि आर एस एस वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। जब राजनीतिक रूप से सक्रिय होने की बात हुई तो सरदार पटेल की मृत्यु के बाद भारतीय जनसंघ की स्थापना की गयी और उसके बाद चुनावी राजनीति करने के  रास्ते खुले . इसी भारतीय जनसंघ की उत्तराधिकारी पार्टी आज की बीजेपी है .

ज़ाहिर है कि बीजेपी और आर एस एस में ऐसे महान लोगों  की कमी है जो समकालीन इतिहास के हीरो हों और उन पर गर्व किया जा  सके. ऐसी  हालत में बीजेपी ने १९२० के पहले के कुछ महान लोगों को अपना बनाने का अभियान चला रखा है. ऐसे महान लोगों में स्वामी विवेकानंद का नाम सबसे ऊपर  है . यह अलग बात है कि स्वामी विवेकानंद के ऊपर बाकी देश का भी बराबर का अधिकार है. ऐसी हालत  अगर बीजेपी या आर एस एस का कोई  नेता स्वामी विवेकानंद की शान में गुस्ताखी करता है तो उसका समर्थन कर पाना  बहुत मुश्किल होगा . आज नितिन गडकरी की  नाव भंवर में है और उनके लिए बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रह पाना बहुत मुश्किल है . गडकरी  के समर्थन में कोई नहीं है लेकिन आर एस एस के  सामने बहुत मुश्किल है . नागपुर वाले कभी नहीं चाहते कि  नरेंद्र मोदी या उनका कोई करीबी दोस्त पार्टी का अध्यक्ष बने . बताया तो यह भी जा रहा है कि नितिन गडकरी के भ्रष्टाचार के कारनामे के दस्तावेज़ भी उनके विरोधी खेमे के किसी बड़े  नेता ने मीडिया को दिया है . नरेंद्र मोदी को रोक पाना अब नितिन गडकरी के बस की बात नहीं है लेकिन आर एस एस जब तक मोदी विरोधी किसी बड़े बीजेपी नेता की तलाश नहीं कर लेता तब तक नितिन गडकरी का अध्यक्ष बने  रहना मुश्किल हालात के बावजूद भी संभव लगता है .

Monday, October 29, 2012

हमें एक राष्ट्र के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद होना पड़ेगा




शेष नारायण सिंह 

अपने देश की राजनीतिक  बिरादरी में   भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी के रूप में स्थापित हो रहा है जो चारों तरफ फैला हुआ है . हर पार्टी में भ्रष्ट लोगों की कमी नहीं है . जिस देश में दस हज़ार रूपये की रिश्वत के शक में जवाहरलाल नेहरू ने अपने पेट्रोलियम मंत्री को सरकार से बाहर कर दिया था, जिस देश में पांडिचेरी लाइसेंस स्कैंडल के नाम पर कुछ लाख रूपयों के चक्कर में फंसे तुलमोहन राम को मधु लिमये और उनके स्तर के संसदविदों ने इदिरा गांधी की सरकार के लिए मुसीबत पैदा कर दी थी.  कुछ ज़मीन के केस में मारुती लिमिटेड के घोटाले में उस वक़्त की प्रधान मंत्री के बेटे,संजय गांधी  और देश के  रक्षा मंत्री बंसी लाल को संसद में घेर लिया गया था .६५ करोड के बोफोर्स घोटाले के चलते निजाम बदल गया था . अब तो सौ,  दो सौ करोड के घोटालों को किसी गिनती में नहीं गिना जा रहा है . एक  केंद्रीय मंत्री ने तो खुले आम कह दिया है कि ७१ लाख का घोटाला किसी मंत्री और उसकी पत्नी के स्तर का  काम नहीं है . उसे तो ७१ करोड रूपये के घोटाले में शामिल होना चाहिए. अब बात बहुत आगे बढ़   गयी है . अब लाखों करोड के घोटाले हो रहे हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि एक राष्ट्र के रूप में यह घोटाले हमको झकझोरते  नहीं . अब भ्रष्टाचार को राजनीतिक जीवन का सहयोगी माना  जाने लगा है और उसे  सामाजिक अपमान की बात नहीं माना जा  रहा है . सबसे अजीब बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन चलाने वालों पर भी भ्रष्ट होने के आरोप लग रहे हैं . इसलिए भ्रष्टाचार को कैरियर बनाने वालों के देश में आम आदमी की सुरक्षा की उम्मीद केवल मीडिया से है लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि वहाँ भी हथियारों के दलालों के पक्ष में लेख लिखने वाले मिल जा रहे  हैं  . ज़ाहिर है कि देश की हालत बहुत अच्छे नहीं हैं . हालात को सही ढर्रे  पर लाने के लिए हमें एक राष्ट्र के रूप में  भ्रष्टाचार के खिलाफ लाम बंद होना पड़ेगा . यह काम फ़ौरन करना पडेगा क्योंकि अगर  इन हालात को ठीक करने के लिए  किसी गांधी का इंतज़ार करने का मंसूबा बनाया तो बहुत देर हो जायेगी. हमें अपने सम्मान और पहचान की  हिफाज़त खुद ही करने के लिए तैयार होना पडेगा .
आम तौर पार भ्रष्टाचार विरोधी पार्टी के रूप में अपनी छवि बनाकर चल रही बीजेपी को भी ज़बरदस्त झटका लगा है .भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाकर अगल लोक सभा चुनाव लड़ने की योजना पर काम कर रही बीजेपी को ज़बरदस्त झटका लगा है . उसके वर्तमान अध्यक्ष नितिन गडकरी भी भ्रष्टाचार की बहस  की ज़द में आ गए हैं .अब तक के संकेतों से लगता है कि उनके कथित भ्रष्टाचार के कारनामों के बाद लोग भ्रष्ट अध्यक्ष के रूप में बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का  उदाहरण देना बंद कर देगें . नितिन गडकरी के  भ्रष्टाचार  के कथित कारनामों के बाद साफ़ लगने लगा है कि अब अपने देश में राजनीतिक बहसें विपक्षी पार्टियों को ज्यादा भ्रष्ट साबित करने वाले विषय को केन्द्र बनाकर नहीं होंगीं. अब लगता है कि भ्रष्टाचार को  मुद्दा बनाने  की हैसियत किसी भी राजनीतिक पार्टी की नहीं है. वामपंथी पार्टियों के अलावा आज कोई भी पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उसके यहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक आचरण करना ज़रूरी है . नितिन गडकरी का मामला खास तौर पर बहुत चिंताजनक है . जब कांग्रेसियों के भ्रष्टाचार की परतें खुल  रही थीं और कामनवेल्थ और टू जी जैसे घोटालों पर बहस चल रही थी तो गडकरी के बयानों से बहुत उम्मीद बनती थी कि चलो कोई बड़ा नेता तो है  जो भ्रष्टाचार के खिलाफ  मजबूती से आवाज़ उठा रहा है . लेकिन अब जो सच्चाई सामने आयी है वह बहुत ही निराशाजनक है . नितिन गडकरी के  कथित भ्रष्टाचार की जितनी कहानियां अब तक सामने आयी हैं वे किसी को भी  शर्मिंदा करने के लिए काफी हैं लेकिन अभी पता चला है कि गडकरी के भ्रष्ट कार्य का अभी तो केवल ट्रेलर सामने आया है . अभी बहुत सारे ऐसे खुलासे होने बाकी हैं जिनके बाद उनकी छवि बहुत खराब हो जायेगी. इसके पहले कांग्रेस के कई नेताओं के भ्रष्ट आचरण के कारनामे पब्लिक डोमेन में आये थे.कामनवेल्थ, टू जी , वाड्रा - डी  एल एफ केस आदि ऐसे घोटाले हैं जिनके बाद  कांग्रेस शुद्ध रूप से रक्षात्मक मुद्रा  थी. हिमाचल प्रदेश में चल रहे विधान सभा चुनाव के अभियान में बीजेपी को वीरभद्र सिंह से मज़बूत चुनौती मिल रही  है . बीजेपी ने वीरभद्र सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार  का एक केस तैयार किया और उम्मीद की थी कि उनको उसी चक्कर में घेर लिया जाएगा . लेकिन ऐसा कुछ  नहीं हुआ . जिस दिन बीजेपी ने बड़े ताम झाम के साथ वीर भद्र वाला प्रोजेक्ट सार्वजनिक किया उसी दिन देश के एक बहुत बड़े अखबार ने नितिन गडकरी के भ्रष्टाचार के पुराने कारनामों को पहले  पन्ने पर छाप दिया .अब बीजेपी वाले नितिन गडकरी से ही जान छुडाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं . बीजेपी का वीरभद्र अभियान फ्लाप हो चुका है .

आज गडकरी की जो दुर्दशा हो  रही है उसके बाद बहुत सारे लोगों को निराशा होगी. इन पंक्तियों का लेखक भी उसमें शामिल है . १५ नवंबर २००९ को एक सम्पादकीय  में मैंने नितिन  गडकरी के बारे में जो लिखा था उसे अक्षरशः  उद्धृत करके बात को सही पृष्ठभूमि रखने की कोशिश की जायेगी .मैंने लिखा था ," नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं . पेशे से  इंजीनियर  , नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पी  डब्ल्यू डी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम  किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती. है.उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने  राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया  है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको  भी मालूम है कि  यह बात  चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां  दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं , वहां  नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे  राज्य में  मंत्री रह चुके हैं , उनके पीछे  आर एस एस का पूरा संगठन खडा है  तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं . और इस बात  को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में  ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं  . मुंबई, बेंगलुरु , हैदराबाद आदि शहरों  में भी राष्ट्रीय अनुभव  हो सकते हैं .  बहरहाल अब लग रहा  है कि नितिन गडकरी ही बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगें और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा . "  यह लेख उस वक़्त लिखा गया था अजाब दिल्ली वाले उनको राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की  योजना का विरोध कर रहे थे.नितिन गडकारी का विरोध मूल रूप से उनको  क्षेत्रीय नेता बता कर किया जा  रहा था.  बहरहाल जिन  लोगों ने नितिन गडकरी को ठीक नेता  माना था ,वे आज परेशानी में हैं .
जो भी हो नितिन गडकरी का कथित भ्रष्ट लोगों की सूची में काफी ऊंचे मुकाम पर स्थापित हो जाना बीजेपी के लिए बहुत बुरी खबर है . आगे की राजनीतिक गतिविधियां निश्चित रूप से बहुत ही दिलचस्प मोड लेने वाली हैं  .  एक राष्ट्र के रूपमें हमें चौकन्ना रहना पड़ेगा कि कहीं भ्रष्टाचार के चलते हमारा देश एक बार फिर गुलामी की जंजीरों में न जकड दिया जाए. हमें एक राष्ट्र के रूप  में यह संस्कृति  विकसित करने के एज़रूरत है जहां बे ईमानी से की गयी  कमाई को अपराध से की गयी कमाई  माना जाए. देश की एकता और अखंडता के लिए यह  बहुत ही ज़रूरी है. 

Saturday, June 9, 2012

दिग्विजय सिंह कहा- नितिन गडकरी और रामदेव व्यापारिक हित साध रहे हैं





शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,७ जून. कांग्रेस के  महामंत्री दिग्विजय सिंह ने योग शिक्षक रामदेव पर फिर हमला बोला है . उन्होंने रामदेव से अपील की है कि काले धन के बारे में अभियान चलाना बहुत सही काम है लेकिन रामदेव को सबसे पहले अपने काले धन के बारे में जानकारी सार्वजनिक   करनी चाहिए.दिग्विजय  सिंह ने कहा कि रामदेव के बारे में अब तक उन्होंने जो कुछ भी कहा सब सही साबित हुआ है .उनके खिलाफ काला धन रखने और  टैक्स की चोरी के मामले लंबित हैं . उनके एक सहयोगी पर चार सौ बीसी और हेराफेरी का केस चल रहा है और अपने ऊपर से सरकारी एजेंसियों का ध्यान हटाने के लिए वे  सरकार के खिलाफ उल्टी सीधी बात करते हैं.
दिग्विजय सिंह ने बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का भी  मखौल उड़ाया और कहा  कि जब श्री गडकरी ने रामदेव  के चरण छुए उसी वक़्त नितिन गडकरी की राजनीति की गहराई का पता लग गया. दिग्विजय सिंह ने भी कहा कि नितिन गडकरी और रामदेव दोनों ही व्यापारी हैं और नितिन गडकरी ने अपने व्यापारिक हितों को साधने के लिए अपनी पार्टी को राम देव के चरणों में डाल दिया है. यह काम नितिन  गडकरी और बीजेपी के चाल चरित्र और चेहरे को एक बार फिर उजागर करता है .बीजेपी यह भी पता चला है कि रामदेव  ने भारत छोडो दिवस के दिन ९ अगस्त को दिल्ली में फिर भीड़ जुटाने की योजना बनायी  है . उसके  बाद उनको भारी प्रचार  मिलेगा .लेकिन उसके साथ साथ  ही दवा बेचने की उनकी नई दुकानों के खुलने की घोषणा भी होने वाली है .
कांग्रेस के प्रवक्ता राशिद अल्वी ने कल रामदेव के बारे में कुछ सहानुभूति पूर्ण बयान दिया था . उसके बाद लगने लगा था कि कांग्रेस अब रामदेव को बहुत नाराज़ नहीं करना चाहती . लेकिन आज दिग्विजय सिंह का यह बयान हालत को और भी कन्फ्यूज़ कर देता है . दिल्ली के राजनीतिक दरबारों में राम देव की स्वीकार्यता बढ़ रही है . बीजेपी के अध्यक्ष तो खुले आम उनके चरणों की वंदना कर रहे हैं जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश  के नेता अजित सिंह भी अब  खुल कर रामदेव के समर्थन की बात करने लगे हैं . एन सी पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और कृषि मंत्री शरद पवार भी रामदेव के समर्थकों में शामिल हो गए हैं . हालांकि  रामदेव के  साथी अन्ना हजारे के एक कथित समर्थक ने उन्हें अपमानित किया था . अन्ना के लोगों केंद्र सरकार में जिन मंत्रियोंको भ्रष्ट बताया है उसमें शरद  पवार का नाम भी है. ऐसी हालत में दिल्ली में बात बहुत ही अजीबोगरीब तर्कों के दायरे में घूम रही है. एन सी पी के एक नेता ने कहा कि अब राम देव अपनी औकात पर आ जायेगें क्योंकि अब वे राजनीतिक नेताओं के  दरवाजों पर नज़र आयेगे और दिल्ली में  नेताओं के इर्द गिर्द चक्कर काटने वालों की क्या हालत होती है, यह सभी जानते हैं .

Sunday, June 3, 2012

मीडिया की कृपा से राष्ट्रीय नेता बनने वालों से देश को बचाने की ज़रुरत है आडवाणी जी




शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१ जून . बीजेपी में बड़े नेताओं के बीच हमेशा से ही मौजूद रहा झगडा सामने आ गया है. लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष के काम काज के तरीकों पर सवाल उठाया है . कहते हैं कि मीडिया के लोग केंद्र  सरकार  पर हमला कर रहे हैं लेकिन उनका अपना गठबंधन भी 
सही काम नहीं कर रहा है.आडवाणी ने अपने ब्लॉग पर  अपनी  तकलीफों को कलमबंद किया है और ६० साल की अपनी  राजनीतिक यात्रा को याद किया है . उन्होंने लोगों को याद दिलाया है कि वे बीजेपी की पूर्ववर्ती  पार्टी जनसंघ के  संस्थापक सदस्य  हैं .
 उनको याद है कि १९८४ में उनकी पार्टी लोक सभा चुनावों में बुरी तरह से हार गयी थी. २२९ उम्मीदवार खड़े किये गए थे और केवल दो सीटें ही हाथ आई थीं .उत्तर प्रदेश , बिहार , राजस्थान , मध्य  प्रदेश और महाराष्ट्र में पार्टी जीरो पर थी लेकिन  कार्यकर्ता कहीं भी हार  मानने को तैयार नहीं था  ,वह अगली लड़ाई के लिए तैयार था और हमने आगे चल  कर कुशल रणनीति से चुनावी सफलता हासिल की और सरकारें  बनाईं. 
इस के बाद लाल कृष्ण आडवानी ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष , नितिन गडकरी के काम की आलोचना शुरू कर दिया . उन्होंने लिखा है कि जिस तरह से उत्तरप्रदेश के एक  भ्रष्ट नेता को साथ लिया गया  उस से पार्टी को बहुत नुकसान हुआ है . झारखण्ड और कर्नाटक में भी पार्टी ने भारी गलती की. यह सारी गलतियाँ नितिन गडकरी ने ही की हैं .तीनों ही मामलों में भ्रष्ट लोगों को साथ लेकर पार्टी ने यू पी ए के भ्रष्टाचार के  खिलाफ खड़े होने का नैतिक अधिकार खो दिया है . इसी लेख में आडवाणी   जी ने अरुण  जेटली और सुषमा स्वराज के काम को एक्सीलेंट बताया  है . ज़ाहिर है कि वे  नितिन गडकरी के काम काज से संतुष्ट नहीं है  और वे उनको दूसरा टर्म देने की बात से खासे नाराज़ हैं .
लाल कृष्ण आडवाणी की नाराज़गी के कारण समझ में आने वाले हैं . लेकिन केवल गडकरी की  आलोचना करके आडवाणी  जी ने अपने आपको एक गुट का नेता सिद्ध कर दिया है .  इस सारे घटनाक्रम से साफ़ नज़र आ रहा है कि वे गडकरी  गुट के खिलाफ अपने लोगों की तारीफ़ कर  रहे हैं . सच्चाई यह है कि उनकी पार्टी जिसमें कभी ज़मीन से जुड़े नेता  राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय होते थे लेकिन अब नहीं हैं . अब बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में है जिनका अपनी ज़मीन पर कोई असर नहीं है . १९७५ में यही काम कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने शुरू किया था  और कांग्रेस जो बहुत बड़ी और मज़बूत पार्टी हुआ करती थी , वह रसातल पंहुंच गयी थी. १९७१ के लोक सभा चुनाव के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को अपने बेटे संजय  गांधी के हाथ में थमा दिया था . संजय गांधी भी ज़मीन से जुड़े हुए नेता नहीं थे. उन्होंने दिल्ली में रहने वाले कुछ अपने साथियों के साथ पार्टी को काबू में कर लिया और उसका नतीजा सबने देखा . कांग्रेस १९७७ में कहीं की नहीं रही, इंदिरा गाँधी और संजय गांधी खुद चुनाव हार गए. १९८० में इंदिरा गाँधी की वापसी हुई लेकिन वह जनता पार्टी की हर ज्यादा थी , कांग्रेस को तो नेगेटिव वोट ने सत्ता दिलवा दी थी. उसके बाद केंद्र के किसी भी नेता को बाहैसियत नहीं बनने  दिया गया .  वी पी सिंह ने जब कांग्रेस से बगावत की तो जनता ने उन्हें तख़्त सौंप दिया . लेकिन उनके साथ भी वही लोग जुड़ गए जो राजीव गांधी को  राजनीतिक रूप से तबाह कर  चुके थे. बाद में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का झगड़ा हुआ और बीजेपी को धार्मिक ध्रुवीकरण का  चुनावी लाभ मिला और बीजेपी वाले अपने आप को बड़ा नेता मानने लगे. 
आज देश का दुर्भाग्य है कि दोनों की बड़ी पार्टियों में ऐसे नेताओं का बोलबाला है जो  दिल्ली के लुटेंस बंगलो ज़ोन में ही सक्रिय हैं . कांग्रेस में भी जो लोग पार्टी के भाग्य का फैसला  कर रहे हैं उनमें से सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अलावा किसी की हैसियत नहीं है कि वह लोक सभा का चुनाव जीत जाए. प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक उन्हीं लोगों की भरमार है जो राष्ट्रीय नेता हैं लेकिन राज्य सभा  के सदस्य हैं . यही हाल बीजेपी का है . अपने राज्य से चुनाव जीत कर आने वाला कोई भी नेता राष्ट्रीय नेता नहीं  है .जो लोग खुद ताक़तवर हैं उन्हें दरकिनार कर दिया गया है.  कुछ लोग जो लोक सभा में हैं  भी वे राज्यों के मुख्य मंत्रियों की कृपा से चुनाव जीतकर आये हैं . . दोनों ही पार्टियों में राज्य सभा के सदस्य राष्ट्रीय नेता मीडिया प्रबंधन में बहुत ही प्रवीण हैं और मीडिया के ज़रिये राष्ट्रीय नेता बने हुए हैं . जो लोग ज़मीन से जुड़े हैं .लोक सभा का चुनाव जीतकर आये हैं वे  टाप नेतृव नहीं  हैं . 
अगर अपने ब्लॉग  में आडवाणी जी ने दोनों की पार्टियों के इस मर्ज़  की तरफ संकेत किया होता तो यह माना जाता कि वे देश की राजनीति में कुछ शुचिता लाने की बात कर  रहे हैं . उनकी टिप्पणी से यही लगता है कि वे बीजेपी में अपने गुट के दबदबे के लिए कोशिश कर रहे हैं .मीडिया की कृपा से नेता बने लोगों से जब तक राष्ट्रीय राजनीति को मुक्त नहीं किया जाएगा , आम आदमी राजनीतिक रूप से सक्रिय  नहीं होगा.

Saturday, January 28, 2012

नितिन गडकरी चाहते क्या हैं ?

शेष नारायण सिंह

मुंबई,२७ जनवरी . बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ,नितिन गडकरी आजकल खूब मज़े ले रहे हैं . अपनी पार्टी के उन नेताओं का मजाक उड़ा रहे हैं जो अपने को २०१४ में प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं . अभी दो दिन पहले उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बताकर लाल कृष्ण आडवाणी को सन्देश देने की कोशिश की थी. आज किसी अखबार में खबर है कि उन्होंने अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधान मंत्री बनाने की पेशकश की है. उनके इस बयान से भी लाल कृष्ण आडवाणी और उनके क़रीबी लोगों को बहुत खुशी नहीं होगी क्योंकि नरेंद्र मोदी ,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज का नाम उछाल कर नितिन गडकरी जी, लाल कृष्ण आडवाणी के दावे को कमज़ोर करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे हैं. वैसे बीजेपी के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम पार्टी के उन अध्यक्षों की पंक्ति में लिख दिया गया है जिन्होंने जाने अनजाने बीजेपी को पिछले तीस वर्षों में एक अगंभीर पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश की है. वैसे भी लाल कृष्ण आडवानी को हल्का करने की कोशिश करके बीजेपी अध्यक्ष ने पार्टी के उन वफादार सदस्यों को तकलीफ पंहुचायी है जो नितिन गडकरी के राजनीति में आने से पहले से ही जनसंघ और बीजेपी में लाल कृष्ण आडवानी को एक बड़े नेता के रूप में देखते रहे हैं .

बीजेपी की राजनीति की अंतर्कथाओं के जानकार जानते हैं कि इन चार नेताओं को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बताकर नितिन गडकरी ने पार्टी के अंदर चल रही लड़ाई को एक नया आयाम दिया है . सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते नितिन गडकरी अब राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं . यह अलग बात है कि जिन नेताओं का नाम वे प्रधान मंत्री के दावेदार के रूप में पेश कर रहे हैं,उनमें से सभी नितिन गडकरी से बहुत बड़े क़द के नेता हैं . दिल्ली में बीजेपी बीट को कवर करने वाले पत्रकारों को मालूम है कि पार्टी का अध्यक्ष बनने के पहले ,जब भी नितिन गडकरी दिल्ली आते थे, वे लाल कृष्ण आडवाणी,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से मिलने की कोशिश ज़रूर करते थे और अक्सर उन्हें समय मिल भी जाता था . आज भी आम धारणा यह है कि वे बीजेपी के सी ई ओ भले हो गए हों लेकिन वे इन बड़े नेताओं के नेता नहीं हैं . लेकिन नितिन गडकरी अपनी अध्यक्ष की कुर्सी के सहारे अपने को सर्वोच्च साबित करने के लिए ऐसे काम कर रहे हैं जो बीजेपी का कोई भी शुभचिन्तक कभी न करता . मसलन उत्तर प्रदेश में उनकी राजनीतिक प्रबंधन की कृपा से बीजेपी कांग्रेस से भी पीछे चली गयी है. अभी कल एक टी वी चैनल पर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण देखने का मौक़ा मिला. वह चैनल ऐसे लोगों का है जिन्हें बीजेपी का करीबी माना जाता है. उनके सर्वे में भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को कांग्रेस से पीछे दिखाया गया था.

दुनिया जानती है कि किसी भी पार्टी को अपने किसी कार्यकर्ता को भारत का प्रधान मंत्री बनाने के लिए उत्तर प्रदेश से बहुत बड़ी संख्या में संसद सदस्य जितवाने ज़रूरी हैं . जब उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी की रणनीति सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में अपने आपको स्थापित करने की लग रही हो तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे केंद्र में सरकार बनाने के बारे में सोच भी रही है.प्रधान मंत्री बनाने के नौबत तो तब आयेगी जब केंद्र में सरकार बनने के संभावना नज़र आयेगी, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में जिस तरह से नितिन गडकरी ने चुनाव संचालन का तंत्र बनाया है,उससे तो यही lagtaa है कि २०१४ में वे किसी भी हालत में केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार नहीं बनने देगें. उन्होंने राज्य के बड़े नेताओं राजनाथ सिंह , कलराज मिश्र, मुरली मनोहर जोशी, केशरी नाथ त्रिपाठी ,विनय कटियार , सूर्य प्रताप शाही, आदि को दरकिनार किया है उससे तो यही लगता है कि वे बीजेपी को उसी मुकाम पर पंहुचा देने के चक्कर में हैं जहां अभी पिछले चुनावों तक कांग्रेस विराजती थी. वरना उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में राज्य के सभी बड़े नेताओं को पैदल करने का और कोई मतलब समझ में नहीं आता

Monday, December 28, 2009

झारखण्ड में बी जे पी ने भ्रष्टाचार के सामने किया समर्पण

शेष नारायण सिंह

झारखण्ड विधानसभा चुनाव ने बहुत सारे मुगालते दूर कर दिए.चुनाव के पहले नक्सलवादी राजनीति की ताक़त का जो अनुमान लगाया जा रहा था, वह गलत निकला . कुछ इलाकों के अलावा राज्य में नक्सलों का प्रभाव सीमित है.. और दूसरी बात यह कि नक्सलवादियों की किसी धमकी या बहिष्कार की फ़रियाद को जनता बकवास समझती है ... एक मुगालता यह था कि बी जे पी में नए अध्यक्ष की तैनाती के बाद शायद मूल्य आधारित राजनीति का युग शुरू होगा क्योंकि जितने प्रचार के बाद आर एस एस ने नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया था, लगता था कि कुछ दिन के लिए ही सही, पार्टी भ्रष्टाचार आदि की राजनीति से दूर हो जायेगी लेकिन वह भी नहीं हुआ. गद्दी संभालते ही नितिन गडकरी ने उस आदमी को झारखण्ड का मुख्यमंत्री बना दिया जिसके भ्रष्टाचार के बारे में बी जे पी का हर नेता भाषण देता रहता था . यानी यह तय हो गया है कि नितिन गडकरी ने भी बी जे पी के उन्ही भ्रष्ट अध्यक्षों के पदचिन्हों पर चलने का फैसला कर लिया है जिसके शिखर पुरुष पूर्व बी जे पी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण माने जाते हैं.... एक मुगालता और टूटा है . अब तक आमतौर पर माना जाता था कि सत्ता के लिये कांग्रेस कुछ भी कर सकती है लेकिन झारखण्ड में शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री न बनाकर और बी जे पी को सरकार में शामिल होने का मौक़ा देकर कांग्रेस ने साबित कर दिया है कि कांग्रेस पार्टी दूरगामी लक्ष्य को हासिल करने के लिए छोटे छोटे स्वार्थों से उबरने की राजनीति को अपनी रणनीति का हिस्सा बना चुकी है ..राहुल गाँधी को आम तौर पर कांग्रेस की नयी नीतियों के मुख्य पैरोकार के रूप में देखा जाता है . अगर झारखण्ड में हुए ताज़ा कांग्रेसी फैसले में भी उनकी ही राजनीतिक सूझबूझ काम आई है तो इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस में फिर से एक मज़बूत राजनीतिक शक्ति बनने की योजना बन चुकी है और उस पर गंभीरता से काम हो रहा है.. और इस योजना की अगुवाई राहुल गाँधी ही कर रहे हैं...

झारखण्ड में अब बी जे पी के सहयोग से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की सरकार बनना तय है .बी जे पी के नए अध्यक्ष ने घोषणा कर दी है कि वास्तव में वह बी जे पी की सरकार होगी क्योंकि उसे वे बी जे पी की नौवीं राज्य सरकार बता रहे हैं. यानी जो शिबू सोरेन कल तह संघी बिरादरी के लिए भ्रष्टाचार और अपराध का पर्याय था वह आज नितिन गडकरी का अपना बंदा बन चुका है .. जहां उन्होंने शिबू सोरेन को अपना मुख मंत्री बताया उसी भाषण में उन्होंने दावा किया कि वे जल्दी ही लाल किले पर बी जे पी का झंडा फहराने की फ़िराक में हैं ..यहाँ उनकी राजनीतिक नासमझी को रेखांकित करना उद्देश्य नहीं है लेकिन उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि लाल किले पर राष्ट्रीय झंडा फहराया जाता है किसी पार्टी का नहीं. झारखण्ड में जिन चुनावों के बाद बी जे पी के सहयोग से गठबंधन सरकार बनने जा रही है उसके लिए जो चुनाव प्रचार हुए वे बहुत ही दिलचस्प थे..पूरे चुनाव में बी जे पी वालों ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि शिबू सोरेन जैसे भ्रष्ट आदमी का साथी होने की वजह से कांग्रेस बहुत ही भ्रष्ट राजनीतिक पार्टी है. और जनता को चाहिय कि उसे बिलकुल वोट न दें . शिबू सोरेन के खिलाफ भी बी जे पी ने बहुत ही ज़हरीला प्रचार अभियान चलाया था और उन्हें अपराध और भ्रष्टाचार का देवता बना कर पेश किया था. चुनाव के दौरान टी वी चैनलों पर चले बहस मुबाहसों में बी जे पी वाले शिबू सोरेन की धज्जियां उड़ाते नज़र आते थे ..लगता था कि अगर कहीं शिबू सोरेन या उनके सहयोगी रहे कांग्रेसी जीत गए तो सर्वनाश हो जाएगा लेकिन सरकार में शामिल होने की जो उतावली बी जे पी ने दिखाई उस से साफ़ साबित हो गया कि बी जे पी वाले भी भ्रष्टाचार से कोई परहेज़ नहीं करते..

बी जे पी ने शिबू सोरेन को हमेशा ही भ्रष्टाचार का पर्याय माना है . जिन लोगों को याद होगा वे बी जे पी का वह अभियान कभी नहीं भूल पायेंगें कि किस तरह से बी जे पी ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी थी जब शिबू सोरेन केंद्र में मंत्री थे और उनके भ्रष्टाचार बी जे पी को राजनीतिक प्वाइंट स्कोर करने का एक बड़ा हथियार दिखता था . शिबू सोरेन पर अपने सहायक शशि नाथ झा की हत्या का आरोप भी लग चुका है . जिसके चक्कर में वेह जेल की हवा खा चुके हैं .. बी जे पी को अब तक यह सबसे बड़ा अधर्म का काम लगता था. लेकिन अब दिल्ली में उनके एक प्रवक्ता ने बता दिया कि शिबू सोरेन को दुमका की एक अदालत ने बरी कर दिया है और अब वे पवित्र हो गए हैं... शिबू सोरेन के साथ बंधू तिर्की भी हैं और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो भ्रष्टाचार की पाठ्यपुस्तकों में उदाहरण के रूप में दर्ज हैं..जब पी वी नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में अविश्ववास मत से बचाने के लिए शिबू सोरेन से रिश्वत ली थी,तो उनके खिलाफ सबसे बड़े राजनीतिक मोर्चे की कमान भी बी जे पी वालों के हाथ में थी.

इतनी सारी राजनीतिक दुविधाओं के चलते यह बात समझ में नहीं आती कि बी जे पी वाले शिबू सोरेन के साथ सरकार कैसे चलायेंगें . शिबू सोरेन के साथ कई ऐसे विधायक हैं जो बी जे पी के साथ नहीं जाना चाहते . क्योंकि कंधमाल और अन्य जगहों पर ईसाईयों और मुसलमानों के साथ बी जे पी वालों ने जो सुलूक किया है उसके चलते किसी भी अल्पसंख्यक के लिए बी जे पी के साथ रहना असंभव माना जाता है अगर उसकी आदतें शाहनवाज़ हुसैन या मुख्तार अब्बास नकवी जैसी न हों... इस लिए बी जे पी के साथ जाने के बाद शिबू सोरेन के कुछ अपने साथी भी उनका साथ छोड़ सकते हैं .शायद कांग्रेस इसी अवसर का इंतज़ार करेगी . जो भी हो जल्दबाजी करके बी जे पी ने राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय दिया है जबकि कांग्रेस ने शिबू सोरेन को मुख्य मंत्री पद से दूर रख कर राजनीतिक कुशलता का उदाहरण दिया है .