शेष नारायण सिंह
झारखण्ड में अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है . उनकी ताजपोशी की जो खबरें आ रही हैं , वे दिल दहला देने वाली हैं . समझ में नहीं आता ,कभी साफ़ छवि के नेता रहे अर्जुन मुंडा इस तरह के खेल में शामिल कैसे हो रहे हैं . जहां तक नैतिकता वगैरह का सवाल है , आज की ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियों से उसकी उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है . यह कह कर कि झारखण्ड चुनावों के दौरान बी जे पी ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन के भ्रष्टाचार से जनता को मुक्ति दिलाने का वायदा किया था , वक़्त बर्बाद करने जैसा है . बी जे पी जैसी पार्टी से किसी नैतिकता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. लेकिन जिस तरह की लूट की योजना बनाकर नितिन गडकरी ने अर्जुन मुंडा को मुख्य मंत्री बनाने की साज़िश रची है उस से तो भ्रष्ट से भ्रष्ट आदमी भी शर्म से पानी पानी हो जाएगा. पता चला है कि खदानों के धंधे में शामिल कुछ लोगों के पैसे के बल पर विधायकों की खरीद फरोख्त हुई है . और सब कुछ नितिन गडकरी के निजी हस्तक्षेप की वजह से संभव हो सका है . झारखण्ड में बी जे पी विधायक दल के नेता रघुबर दास के साथ जो व्यवहार हुआ है ,उस से पार्टी के टूट जाने का ख़तरा भी बना हुआ है . पता चला है कि नितिन गडकरी के बहुत करीबी कहे जाने वाले और उनके ही नगर नागपुर के तीन व्यापारियों ने मुख्य भूमिका निभाई है. अजय संचेती, तुलसी अग्रवाल और नरेश ग्रोवर नाम के यह व्यापारी नितिन गडकरी के ख़ास माने जाते हैं . दिल्ली का एक साहूकार, सेठिया भी खेल में शामिल बताया जा रहा है . नरेश ग्रोवर ने ही चम्पई सोरेन, सीता सोरेन ,टेकलाल महतो और साइमन मरांडी को दिल्ली में नितिन गडकरी के मकान पर जाकर मिलवाया था .दिल्ली वाले सेठिया ने अर्जुन मुंडा की ताजपोशी की तैयारी के पहले जो भी विधायक दिल्ली लाये गए, सबके जहाज के टिकट और दिल्ली में पांच सितारा होटलों में रहने का इंतज़ाम किया. उपाध्याय नाम का एक खदान मालिक भी इसी काम में लगा हुआ है . नितिन गडकरी की इस टीम के व्यापारी कोई लल्लू पंजू टाइप लोग नहीं है . यह लोग पार्टी अध्यक्ष की ओर से लोगों को निर्देश भी दे देते हैं . मसलन अजय संचेती नाम के नागपुर के व्यक्ति ने ही रघुबर दास को फोन करके कहा था कि वे बी जे पी विधायक दल के नेता पद से इस्तीफा दे दें जिसके बाद अर्जुन मुंडा को नेता चुना जा सके. रघुबर दास ने उसे डांट दिया था और कहा था कि वे गडकरी जी से बात करेगें. कुछ देर बाद ही गडकरी जी का फोन आ गया और इस्तीफ़ा हो गया. शिबू सोरेन की पिछली सरकार में भी नितिन गडकरी नागपुर के इन व्यापारियों की मदद करते रहते थे. लोग बताते हैं कि उपाध्याय नाम के खदान मालिक के लिए गडकरी पहले भी सिफारिश करते रहते थे. अब विभागों को लेकर बहस चल रही है . शिबू सोरेन के बेटे , हेमंत सोरेन उप मुख्य मंत्री बनेगें. उनकी ख्याति भी अपने पिता से कम नहीं है . वे उन विभागों पर नज़र रखे हुए हैं जो मालदार माने जाते हैं लेकिन अर्जुन मुंडा और उनकी ताजपोशी में मदद करने वाले व्यापारी लोग इस बात पर अड़े हुए हैं कि खदान , बिजली और पुलिस का कंट्रोल अर्जुन मुंडा के पास ही रहेगा क्योंकि असली ताक़त तो इन्हीं विभागों से आती है . वैसे भी कांग्रेस की मदद से राज कर चुके मधु कोड़ा ने खानों के ज़रिये ही अरबों बनाया था.
राजनीति में शुचिता की बात करने वाली बी जे पी की पोल तो खैर उस वक़्त ही खुल गयी थी जब केंद्र में जोड़ गाँठ कर एक सरकार बनायी गयी थी जिसके दौरान सरकारी संपत्ति की लूट का भारतीय रिकार्ड बना था लेकिन अब तक यह माना जाता था कि बी जे पी वाले पहले से तय करके लूट करने के उद्देश्य से किसी सरकार को स्थापित नहीं करेगें . अजीब बात है कि अब वही हो रहा है और इस खेल में वे लोग मुख्य भूमिका निभा रहे हैं जो भारतीय जनता पार्टी के नेता नहीं हैं . इस बात में दो राय नहीं है कि दिल्ली में जमे हुए आडवाणी गुट के नेता लोग नितिन गडकरी को हाशिये पर लाने और उन्हें मजाक का विषय बना देने के चक्कर में रहते हैं लेकिन यह शायद पहली बार हो रहा है कि बिना पार्टी पदाधिकारियों को भरोसे में लिए बिचौलियों की मदद से मधु कोड़ा का उत्तराधिकारी तैनात किया जा रहा है . ज़ाहिर है अर्जुन मुंडा की हर गलती पर अडवानी गुट की नज़र रहेगी और मौक़ा मिलते ही उन्हें भी मधु कोड़ा के स्तर पर पंहुचा दिया जाएगा. इस बात की भी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि नितिन गडकरी का भी वही हाल किया जा सकता है जो दिल्ली दरबार के भाजपाइयों ने बंगारू लक्ष्मण का किया था .
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Saturday, September 11, 2010
Thursday, June 3, 2010
मध्यावधि चुनाव ही झारखण्ड में थोड़ी राहत दे सकेगा
शेष नारायण सिंह
झारखण्ड में एक बार फिर राष्ट्रपति राज लगा दिया गया है . राज्य के राजनीतिक हालात ऐसे हो गए थे कि राष्ट्रपति शासन लगाना ही एक रास्ता बचा था.हालांकि अगर केंद्र सरकार चाहती तो राजनीतिक क्षितिज पर बहुत सारे ऐसे खिलाड़ी हैं जो तोड़फोड़ की राजनीति की कला के उस्ताद हैं और अगर उनको खुली छूट दे दी जाती तो सरकार तो बन ही जाती . आखिर बिना किसी राजनीतिक समर्थन के इन्हीं मौकापरस्त नेताओं ने तो मधु कोड़ा की सरकार बनवा दी थी . राज्यपाल ने पूरी कोशिश की कि कोई सरकार बन जाए. उन्होंने कांग्रेस , बी जे पी और दीगर पार्टियों से पूछा लेकिन बात बनी नहीं. बी जे पी तो अपने किसी नेता को मुख्य मंत्री बनाना चाहती है , जो किसी को मंज़ूर नहीं . कांग्रेस के दिल्ली में बैठे नेता सच्चाई से बिलकुल अनभिज्ञ हैं . उनको लगता है कि झारखण्ड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी को आगे करके कोई खेल बनाया जा सकता है लेकिन वह भी होता नहीं दिखता. हालात ऐसे हैं कि जब तक बी जे पी या शिबू सोरेन की पार्टी को साथ न लिया जाए , कोई सरकार बनती नज़र नहीं आती. कांग्रेस वाले शिबू सोरेन को साथ लेने के लिए तो तैयार हैं लेकिन उन्हें मुख्य मंत्री बनवाकर अपना भी हाल बी जे पी जैसा नहीं करना चाहते .अभी विधान सभा को भंग नहीं किया गया है . यानी उम्मीद की जा रही है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में तोड़ फोड़ होगी और एक बार फिर कोई सरकार बना दी जायेगी. इस बात की संभावना इस लिए भी बहुत ज्यादा है कि झारखण्ड के मौजूदा राजनीतिक ड्रामे में कोई भी विधायक चुनाव नहीं चाहता . चुनाव तो बी जे पी और कांग्रेस भी नहीं चाहते . इसलिए पार्टी की लाइन से ऊपर हटकर विधायक लोग खुद ही सरकार बनाने की संभावना तलाश सकते हैं . इस लिहाज़ से जो छोटे दल हैं वे तो किसी भी सरकार के लिए उपलब्ध हैं . बड़े दलों में लगभग सभी में बड़े पैमाने पर दल बदल हो सकता है . इसलिए सरकार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता . राज्य में महत्वाकांक्षी लोगों की भी कमी नहीं है . शिबू सोरेन तो तो दुनिय जानती है . वे सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं . उनका बेटा भी उनसे कम नहीं है . बी जे पी से झगड़े के दौरान तो हालात यहाँ तक पैदा हो गए थे कि वह अपने पिता जी को ही धता बताकर सत्ता में आने के चक्कर में था . इसलिए अभी तोड़ फोड़ की संभावना पूरी है कि झारखण्ड में एक सरकार और बनेगी ता जाकर कहीं विधान सभा भंग होगी. .
तोड़ फोड़ की भावी सरकार में सबसे ज्यादा तोड़फोड़ की संभावना बी जे पी में ही है . जानकार बताते हैं कि स्थानीय बी जे पी विधायकों को लगता है कि अगर सरकार बनने की नौबत आई तो दिल्ली से कोई बी जे पी नेता वहां मुख्य मंत्री बनाकर भेज दिया जाएगा . इसलिए वे किसी को भी मुख्य मंत्री मानने को तैयार हैं , वह चाहे हेमंत सोरेन हो या शिबू सोरेन . ऐसी हालात में जो भी बी जे पी में फूट की व्यवस्था कर लेगा उसकी सरकार बन जायेगी. एक दूसरी संभावना यह है कि बी जे पी को तोड़ कर कांग्रेस सरकार बनाए . लेकिन कांग्रेस में आजकल दूर की सोचने का फैशन है . शायद इसी लिए कांग्रेस आलाकमान वाले चाहते है कि बाबू लाल मरांडी को साथ लेकर चला जाए जो आगे चलकर राज्य में पार्टी को मज़बूत करेगें . यह उम्मीद भी बेतुका है क्योंकि पिछले चुनाव तो बाबू लाल मरांडी कांग्रेस के साथ लड़ चुके हैं लेकिन अब वे राजनीतिक रूप से इतने मज़बूत हो चुके हैं कि उन्हें लगने लगा है कि वे अपने बल पर सरकार बनने लायक बहुमत जीत सकते हैं . इसलिए वे जल्दी चुनाव के लिए कोशिश कर रहे हैं . इसी मई में उन्होंने रांची में अपनी पार्टी का दो दिन का कार्यकर्ता सम्मलेन करके राजनीतिक विश्लेषकों को बता दिया है कि वे राज्य के विकास के लिए पूरी ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं और राज्य के हर गाँव में उनका संगठन बन चुका है . उन्होंने बताया कि दिल्ली और नागपुर से कंट्रोल होने वाली पार्टियों को मालूम ही नहीं है कि राज्य की समस्याएं क्या हैं और उनका हल कैसे निकाला जाए . इन तथाकथित बड़ी पार्टियों की नीतियों की वजह से ही ग्रामीण इलाकों का आदमी ठगा ठगा महसूस करता है . और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बाहर जाकर अपने कल्याण की बात सोचता है . शायद माओवादी आतंकवाद के फलने फूलने के पीछे भी बड़ी पार्टियों की यही अदूरदर्शिता सबसे बड़ा कारण है . बाबू लाल मरांडी को चुनाव से निश्चित फायदा होगा , और वे जो भी राजनीति कर रहे हैं , वह राज्य को चुनाव की तरफ ही बढ़ा रही है लेकन लगता हैकि अभी उसमें थोड़ी देर है क्योंकि विधान सभा अभी निलंबित ही की गयी है , भंग नहीं . इसलिए अभी तोड़फोड़ की मदद से एक सरकार और बनेगी और् शायद अगले साल कभी चुनाव होगा . तब तक राज्य के भ्रष्टाचार पीड़ित लोगों राहत मिलने की उम्मीद नहीं है . अगला चुनाव ही झारखण्ड के लोगों को कोई राहत दे सकेगा
झारखण्ड में एक बार फिर राष्ट्रपति राज लगा दिया गया है . राज्य के राजनीतिक हालात ऐसे हो गए थे कि राष्ट्रपति शासन लगाना ही एक रास्ता बचा था.हालांकि अगर केंद्र सरकार चाहती तो राजनीतिक क्षितिज पर बहुत सारे ऐसे खिलाड़ी हैं जो तोड़फोड़ की राजनीति की कला के उस्ताद हैं और अगर उनको खुली छूट दे दी जाती तो सरकार तो बन ही जाती . आखिर बिना किसी राजनीतिक समर्थन के इन्हीं मौकापरस्त नेताओं ने तो मधु कोड़ा की सरकार बनवा दी थी . राज्यपाल ने पूरी कोशिश की कि कोई सरकार बन जाए. उन्होंने कांग्रेस , बी जे पी और दीगर पार्टियों से पूछा लेकिन बात बनी नहीं. बी जे पी तो अपने किसी नेता को मुख्य मंत्री बनाना चाहती है , जो किसी को मंज़ूर नहीं . कांग्रेस के दिल्ली में बैठे नेता सच्चाई से बिलकुल अनभिज्ञ हैं . उनको लगता है कि झारखण्ड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी को आगे करके कोई खेल बनाया जा सकता है लेकिन वह भी होता नहीं दिखता. हालात ऐसे हैं कि जब तक बी जे पी या शिबू सोरेन की पार्टी को साथ न लिया जाए , कोई सरकार बनती नज़र नहीं आती. कांग्रेस वाले शिबू सोरेन को साथ लेने के लिए तो तैयार हैं लेकिन उन्हें मुख्य मंत्री बनवाकर अपना भी हाल बी जे पी जैसा नहीं करना चाहते .अभी विधान सभा को भंग नहीं किया गया है . यानी उम्मीद की जा रही है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में तोड़ फोड़ होगी और एक बार फिर कोई सरकार बना दी जायेगी. इस बात की संभावना इस लिए भी बहुत ज्यादा है कि झारखण्ड के मौजूदा राजनीतिक ड्रामे में कोई भी विधायक चुनाव नहीं चाहता . चुनाव तो बी जे पी और कांग्रेस भी नहीं चाहते . इसलिए पार्टी की लाइन से ऊपर हटकर विधायक लोग खुद ही सरकार बनाने की संभावना तलाश सकते हैं . इस लिहाज़ से जो छोटे दल हैं वे तो किसी भी सरकार के लिए उपलब्ध हैं . बड़े दलों में लगभग सभी में बड़े पैमाने पर दल बदल हो सकता है . इसलिए सरकार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता . राज्य में महत्वाकांक्षी लोगों की भी कमी नहीं है . शिबू सोरेन तो तो दुनिय जानती है . वे सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं . उनका बेटा भी उनसे कम नहीं है . बी जे पी से झगड़े के दौरान तो हालात यहाँ तक पैदा हो गए थे कि वह अपने पिता जी को ही धता बताकर सत्ता में आने के चक्कर में था . इसलिए अभी तोड़ फोड़ की संभावना पूरी है कि झारखण्ड में एक सरकार और बनेगी ता जाकर कहीं विधान सभा भंग होगी. .
तोड़ फोड़ की भावी सरकार में सबसे ज्यादा तोड़फोड़ की संभावना बी जे पी में ही है . जानकार बताते हैं कि स्थानीय बी जे पी विधायकों को लगता है कि अगर सरकार बनने की नौबत आई तो दिल्ली से कोई बी जे पी नेता वहां मुख्य मंत्री बनाकर भेज दिया जाएगा . इसलिए वे किसी को भी मुख्य मंत्री मानने को तैयार हैं , वह चाहे हेमंत सोरेन हो या शिबू सोरेन . ऐसी हालात में जो भी बी जे पी में फूट की व्यवस्था कर लेगा उसकी सरकार बन जायेगी. एक दूसरी संभावना यह है कि बी जे पी को तोड़ कर कांग्रेस सरकार बनाए . लेकिन कांग्रेस में आजकल दूर की सोचने का फैशन है . शायद इसी लिए कांग्रेस आलाकमान वाले चाहते है कि बाबू लाल मरांडी को साथ लेकर चला जाए जो आगे चलकर राज्य में पार्टी को मज़बूत करेगें . यह उम्मीद भी बेतुका है क्योंकि पिछले चुनाव तो बाबू लाल मरांडी कांग्रेस के साथ लड़ चुके हैं लेकिन अब वे राजनीतिक रूप से इतने मज़बूत हो चुके हैं कि उन्हें लगने लगा है कि वे अपने बल पर सरकार बनने लायक बहुमत जीत सकते हैं . इसलिए वे जल्दी चुनाव के लिए कोशिश कर रहे हैं . इसी मई में उन्होंने रांची में अपनी पार्टी का दो दिन का कार्यकर्ता सम्मलेन करके राजनीतिक विश्लेषकों को बता दिया है कि वे राज्य के विकास के लिए पूरी ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं और राज्य के हर गाँव में उनका संगठन बन चुका है . उन्होंने बताया कि दिल्ली और नागपुर से कंट्रोल होने वाली पार्टियों को मालूम ही नहीं है कि राज्य की समस्याएं क्या हैं और उनका हल कैसे निकाला जाए . इन तथाकथित बड़ी पार्टियों की नीतियों की वजह से ही ग्रामीण इलाकों का आदमी ठगा ठगा महसूस करता है . और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बाहर जाकर अपने कल्याण की बात सोचता है . शायद माओवादी आतंकवाद के फलने फूलने के पीछे भी बड़ी पार्टियों की यही अदूरदर्शिता सबसे बड़ा कारण है . बाबू लाल मरांडी को चुनाव से निश्चित फायदा होगा , और वे जो भी राजनीति कर रहे हैं , वह राज्य को चुनाव की तरफ ही बढ़ा रही है लेकन लगता हैकि अभी उसमें थोड़ी देर है क्योंकि विधान सभा अभी निलंबित ही की गयी है , भंग नहीं . इसलिए अभी तोड़फोड़ की मदद से एक सरकार और बनेगी और् शायद अगले साल कभी चुनाव होगा . तब तक राज्य के भ्रष्टाचार पीड़ित लोगों राहत मिलने की उम्मीद नहीं है . अगला चुनाव ही झारखण्ड के लोगों को कोई राहत दे सकेगा
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Monday, May 24, 2010
झारखण्ड की जनता को राजकाज से जोड़ेगें बाबूलाल मरांडी
शेष नारायण सिंह
बीजेपी की राजनीतिक अदूरदर्शिता की जितनी धुनाई झारखंड में हुई है, उतनी कभी नहीं हुई। झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन ने बीजेपी का जो हाल किया है, इतिहास में किसी भी राजनीतिक पार्टी की ऐसी दुर्दशा नहीं हुई। बीजेपी ने झारखंड चुनाव पूरी तरह से शिबू सोरेन और भ्रष्टाचार के विरोध को मुद्दा बनाकर लड़ा था। लेकिन जब सरकार बनाने की नौबत आई तो बीजेपी ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनवाने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया।
सरकार बन गयी और भ्रष्टाचार का कारोबार शुरू हो गया। बीजेपी के ट्रेनी राष्ट्रीय अध्यक्ष को मुगालता था कि वे चक्रवर्ती सम्राट बन गये हैं। ब्रिटिश पीरियड के भारतीय राजाओं की तरह मनमानी के बादशाह हो गए हैं। उन्होंने जल्दबाजी में फैसले करके सब काम ठीक कर दिया। बीजेपी के कट मोशन पर जब शिबू सोरेन ने कांग्रेस का साथ दे दिया तो बीजेपी वालों ने उन्हें सबक सिखाने की धमकी दी। राजनीति का मामूली जानकार भी जानता है कि शिबू सोरेन के सामने बीजेपी के किसी नेता की कोई औकात नहीं है लेकिन सारे लोग नितिन गडकरी को ललकार रहे थे कि शिबू सोरेन को ठीक कर दिया जाए। बेचारे नौसिखिया नितिन गडकरी टूट पड़े और दिल्ली में आडवाणी गुट के नेताओं ने नितिन गडकरी की इज्जत का जो फालूदा बनाया है, वह तो बंगारू लक्ष्मण का भी नहीं बना था। आज बीजेपी के विधायकों ने राज्यपाल को सूचित कर दिया है कि वे शिबू सोरेन सरकार से समर्थन वापस ले रहे हैं। झारखंड की राजनीति के जानकार बताते हैं कि राज्य में बीजेपी की जग हंसाई का सिलसिला आज शुरू हुआ है। विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी के विधायकों की संख्या 18 थी। माना जा रहा है कि इसमें से कम से कम एक तिहाई तो अब बीजेपी छोड़ ही देंगे। शिबू सोरेन के करीबी लोगों का कहना है कि इससे ज्यादा भी छोड़ सकते हैं।
झारखंड में पूरी तरह से कुव्यवस्था का राज है। बिहार के हिस्से के रूप में रांची, धनबाद और जमशेदपुर का इलाका लूट का केन्द्र माना जाता था। अब यह और बढ़ गया है। राज्य की स्थापना के बाद कुछ दिन तक बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री रहे। सुलझी हुई राजनीतिक सोच के मालिक बाबूलाल मरांडी ने नए राज्य की संस्थाओं के निर्माण का काम शुरू किया लेकिन उन दिनों उनकी पार्टी बीजेपी थी, दिल्ली में राज था, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य का युग चल रहा था, उनकी कसौटी पर बाबूलाल मरांडी खरे नहीं उतरे। वे बेइमान और रिश्वतखोर नहीं थे। बीजेपी ने उन्हें पीछे धकेल दिया। उसके बाद तो लूट का अभियान शुरू हो गया। शिबू सोरेन और मधु कोड़ा की सरकारों ने भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड बनाए और झारखंड में भ्रष्टाचार की संस्कृति अब संस्थागत रूप लेने के मुकाम पर पहुंच चुकी है। बीजेपी के समर्थन वापसी के फैसले से कुछ बदलने वाला नहीं है क्योंकि खींचखांच कर जो सरकार बनेगी उसका स्थायी भाव भ्रष्टाचार ही होगा क्योंकि कांग्रेस के नेता भी बीजेपी वालों से किसी भी तरह से कम नहीं है। भ्रष्टाचार के हवाले से कांग्रेस का शिबू सोरेन से पुराना याराना है क्योंकि पीवी नरसिंहराव की सरकार को बचाने के लिए जो भ्रष्टाचार का रिकॉर्ड कांग्रेस ने बनाया था उसमें शिबू सोरेन मुख्य अभिनेता थे। उसके बाद भी जब भी मौका मिला कांग्रेस ने शिबू सोरेन मार्का भ्रष्टाचार का भरपूर उपयोग किया।
यह झारखंड का दुर्भाग्य है कि नए राज्य के गठन के बाद भी वहां उसी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। बिहार में तो नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद चीजें बदली लेकिन झारखंड में लूट-खसोट का सिलसिला जारी है। झारखंड में 32 वर्षों से पंचायत चुनाव नहीं हुए हैं। इसलिए केन्द्र सरकार की कई योजनाओं का लाभ राज्य को नहीं मिल पा रहा है। सत्ता लोभी बीजेपी, कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा की तिकड़मबाजी के चलते राज्य में किसी भी स्थिरता की संभावना नहीं है। राज्य में उद्योगों की हालत खस्ता है। दुनिया भर की कंपनियां राज्य की खनिज संपदा को लूटने की फिराक में हैं। तरह-तरह के पूंजीवादी जाल बिछाए गए हैं और जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
इस निराशा के माहौल में राज्य में एक व्यक्ति ऐसा है जो झारखंड को लोगों के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखा रहा है। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी पिछले चार वर्षों से झारखंड के गांव-गांव में घूम रहे थे। पिछले हफ्ते रांची में अपनी नवगठित पार्टी के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन किया और झारखंड के लोगों को राजनीतिक रूप से मजबूत करने के अपने मंसूबों का एलान किया। उन्होंने दिल्ली और नागपुर में बैठकर राज्य की राजनीति का भाग्यविधाता बनने का स्वांग रचने वालों को साफ बता दिया कि राज्य के समग्र विकास के लिए राष्ट्रीय नेताओं और पार्टियों को ईस्ट इंडिया कंपनी की मानसिकता से बाहर निकलना पड़ेगा।
राज्य के सीधे सादे लोगों को बाबूलाल मरांडी ने बता दिया है कि अपने यहां से किसी भी सूरत में खनिजों की कच्चे माल की निकासी का विरोध करेंगे। अब झारखंड की जनता यह मांग करेगी कि आइरन ओर का निर्यात नहीं, लोहे की बनी वस्तुओं का निर्यात होगा। कोयला निर्यात करने की जरूरत नहीं है, उससे बिजली बनाकर बाकी राज्यों और उद्योगों को दिया जाएगा। बड़ी कंपनियों को झारखंड राज्य की सीमा में ही मुख्यालय रखना होगा। उन्होंने टाटा को भी चेताया है कि टाटा स्टील का मुख्यालय जमशेदपुर में होना चाहिए, मुंबई में नहीं। बाबूलाल मरांडी ने बताया कि अगर जरूरत पड़ी और दिल्ली में बैठे कलर ब्लाइंड लोगों की समझ में झारखंडी अवाम की बात न आई तो जनता जाम भी लगाएगी और डंडा भी बजाएगी। झारखंड की तबाह हो चुकी राजनीति और भ्रष्टाचार का भोजन बनने के लिए तैयार अर्थव्यवस्था के लिए बाबूलाल मरांडी की योजना आशा की एक किरण है। देखना यह है कि सत्ता के बाहर का नेता क्या सत्ता पाने पर भी ईमानदार रह पाएगा
बीजेपी की राजनीतिक अदूरदर्शिता की जितनी धुनाई झारखंड में हुई है, उतनी कभी नहीं हुई। झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन ने बीजेपी का जो हाल किया है, इतिहास में किसी भी राजनीतिक पार्टी की ऐसी दुर्दशा नहीं हुई। बीजेपी ने झारखंड चुनाव पूरी तरह से शिबू सोरेन और भ्रष्टाचार के विरोध को मुद्दा बनाकर लड़ा था। लेकिन जब सरकार बनाने की नौबत आई तो बीजेपी ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनवाने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया।
सरकार बन गयी और भ्रष्टाचार का कारोबार शुरू हो गया। बीजेपी के ट्रेनी राष्ट्रीय अध्यक्ष को मुगालता था कि वे चक्रवर्ती सम्राट बन गये हैं। ब्रिटिश पीरियड के भारतीय राजाओं की तरह मनमानी के बादशाह हो गए हैं। उन्होंने जल्दबाजी में फैसले करके सब काम ठीक कर दिया। बीजेपी के कट मोशन पर जब शिबू सोरेन ने कांग्रेस का साथ दे दिया तो बीजेपी वालों ने उन्हें सबक सिखाने की धमकी दी। राजनीति का मामूली जानकार भी जानता है कि शिबू सोरेन के सामने बीजेपी के किसी नेता की कोई औकात नहीं है लेकिन सारे लोग नितिन गडकरी को ललकार रहे थे कि शिबू सोरेन को ठीक कर दिया जाए। बेचारे नौसिखिया नितिन गडकरी टूट पड़े और दिल्ली में आडवाणी गुट के नेताओं ने नितिन गडकरी की इज्जत का जो फालूदा बनाया है, वह तो बंगारू लक्ष्मण का भी नहीं बना था। आज बीजेपी के विधायकों ने राज्यपाल को सूचित कर दिया है कि वे शिबू सोरेन सरकार से समर्थन वापस ले रहे हैं। झारखंड की राजनीति के जानकार बताते हैं कि राज्य में बीजेपी की जग हंसाई का सिलसिला आज शुरू हुआ है। विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी के विधायकों की संख्या 18 थी। माना जा रहा है कि इसमें से कम से कम एक तिहाई तो अब बीजेपी छोड़ ही देंगे। शिबू सोरेन के करीबी लोगों का कहना है कि इससे ज्यादा भी छोड़ सकते हैं।
झारखंड में पूरी तरह से कुव्यवस्था का राज है। बिहार के हिस्से के रूप में रांची, धनबाद और जमशेदपुर का इलाका लूट का केन्द्र माना जाता था। अब यह और बढ़ गया है। राज्य की स्थापना के बाद कुछ दिन तक बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री रहे। सुलझी हुई राजनीतिक सोच के मालिक बाबूलाल मरांडी ने नए राज्य की संस्थाओं के निर्माण का काम शुरू किया लेकिन उन दिनों उनकी पार्टी बीजेपी थी, दिल्ली में राज था, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य का युग चल रहा था, उनकी कसौटी पर बाबूलाल मरांडी खरे नहीं उतरे। वे बेइमान और रिश्वतखोर नहीं थे। बीजेपी ने उन्हें पीछे धकेल दिया। उसके बाद तो लूट का अभियान शुरू हो गया। शिबू सोरेन और मधु कोड़ा की सरकारों ने भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड बनाए और झारखंड में भ्रष्टाचार की संस्कृति अब संस्थागत रूप लेने के मुकाम पर पहुंच चुकी है। बीजेपी के समर्थन वापसी के फैसले से कुछ बदलने वाला नहीं है क्योंकि खींचखांच कर जो सरकार बनेगी उसका स्थायी भाव भ्रष्टाचार ही होगा क्योंकि कांग्रेस के नेता भी बीजेपी वालों से किसी भी तरह से कम नहीं है। भ्रष्टाचार के हवाले से कांग्रेस का शिबू सोरेन से पुराना याराना है क्योंकि पीवी नरसिंहराव की सरकार को बचाने के लिए जो भ्रष्टाचार का रिकॉर्ड कांग्रेस ने बनाया था उसमें शिबू सोरेन मुख्य अभिनेता थे। उसके बाद भी जब भी मौका मिला कांग्रेस ने शिबू सोरेन मार्का भ्रष्टाचार का भरपूर उपयोग किया।
यह झारखंड का दुर्भाग्य है कि नए राज्य के गठन के बाद भी वहां उसी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। बिहार में तो नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद चीजें बदली लेकिन झारखंड में लूट-खसोट का सिलसिला जारी है। झारखंड में 32 वर्षों से पंचायत चुनाव नहीं हुए हैं। इसलिए केन्द्र सरकार की कई योजनाओं का लाभ राज्य को नहीं मिल पा रहा है। सत्ता लोभी बीजेपी, कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा की तिकड़मबाजी के चलते राज्य में किसी भी स्थिरता की संभावना नहीं है। राज्य में उद्योगों की हालत खस्ता है। दुनिया भर की कंपनियां राज्य की खनिज संपदा को लूटने की फिराक में हैं। तरह-तरह के पूंजीवादी जाल बिछाए गए हैं और जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
इस निराशा के माहौल में राज्य में एक व्यक्ति ऐसा है जो झारखंड को लोगों के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखा रहा है। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी पिछले चार वर्षों से झारखंड के गांव-गांव में घूम रहे थे। पिछले हफ्ते रांची में अपनी नवगठित पार्टी के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन किया और झारखंड के लोगों को राजनीतिक रूप से मजबूत करने के अपने मंसूबों का एलान किया। उन्होंने दिल्ली और नागपुर में बैठकर राज्य की राजनीति का भाग्यविधाता बनने का स्वांग रचने वालों को साफ बता दिया कि राज्य के समग्र विकास के लिए राष्ट्रीय नेताओं और पार्टियों को ईस्ट इंडिया कंपनी की मानसिकता से बाहर निकलना पड़ेगा।
राज्य के सीधे सादे लोगों को बाबूलाल मरांडी ने बता दिया है कि अपने यहां से किसी भी सूरत में खनिजों की कच्चे माल की निकासी का विरोध करेंगे। अब झारखंड की जनता यह मांग करेगी कि आइरन ओर का निर्यात नहीं, लोहे की बनी वस्तुओं का निर्यात होगा। कोयला निर्यात करने की जरूरत नहीं है, उससे बिजली बनाकर बाकी राज्यों और उद्योगों को दिया जाएगा। बड़ी कंपनियों को झारखंड राज्य की सीमा में ही मुख्यालय रखना होगा। उन्होंने टाटा को भी चेताया है कि टाटा स्टील का मुख्यालय जमशेदपुर में होना चाहिए, मुंबई में नहीं। बाबूलाल मरांडी ने बताया कि अगर जरूरत पड़ी और दिल्ली में बैठे कलर ब्लाइंड लोगों की समझ में झारखंडी अवाम की बात न आई तो जनता जाम भी लगाएगी और डंडा भी बजाएगी। झारखंड की तबाह हो चुकी राजनीति और भ्रष्टाचार का भोजन बनने के लिए तैयार अर्थव्यवस्था के लिए बाबूलाल मरांडी की योजना आशा की एक किरण है। देखना यह है कि सत्ता के बाहर का नेता क्या सत्ता पाने पर भी ईमानदार रह पाएगा
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Monday, December 28, 2009
झारखण्ड में बी जे पी ने भ्रष्टाचार के सामने किया समर्पण
शेष नारायण सिंह
झारखण्ड विधानसभा चुनाव ने बहुत सारे मुगालते दूर कर दिए.चुनाव के पहले नक्सलवादी राजनीति की ताक़त का जो अनुमान लगाया जा रहा था, वह गलत निकला . कुछ इलाकों के अलावा राज्य में नक्सलों का प्रभाव सीमित है.. और दूसरी बात यह कि नक्सलवादियों की किसी धमकी या बहिष्कार की फ़रियाद को जनता बकवास समझती है ... एक मुगालता यह था कि बी जे पी में नए अध्यक्ष की तैनाती के बाद शायद मूल्य आधारित राजनीति का युग शुरू होगा क्योंकि जितने प्रचार के बाद आर एस एस ने नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया था, लगता था कि कुछ दिन के लिए ही सही, पार्टी भ्रष्टाचार आदि की राजनीति से दूर हो जायेगी लेकिन वह भी नहीं हुआ. गद्दी संभालते ही नितिन गडकरी ने उस आदमी को झारखण्ड का मुख्यमंत्री बना दिया जिसके भ्रष्टाचार के बारे में बी जे पी का हर नेता भाषण देता रहता था . यानी यह तय हो गया है कि नितिन गडकरी ने भी बी जे पी के उन्ही भ्रष्ट अध्यक्षों के पदचिन्हों पर चलने का फैसला कर लिया है जिसके शिखर पुरुष पूर्व बी जे पी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण माने जाते हैं.... एक मुगालता और टूटा है . अब तक आमतौर पर माना जाता था कि सत्ता के लिये कांग्रेस कुछ भी कर सकती है लेकिन झारखण्ड में शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री न बनाकर और बी जे पी को सरकार में शामिल होने का मौक़ा देकर कांग्रेस ने साबित कर दिया है कि कांग्रेस पार्टी दूरगामी लक्ष्य को हासिल करने के लिए छोटे छोटे स्वार्थों से उबरने की राजनीति को अपनी रणनीति का हिस्सा बना चुकी है ..राहुल गाँधी को आम तौर पर कांग्रेस की नयी नीतियों के मुख्य पैरोकार के रूप में देखा जाता है . अगर झारखण्ड में हुए ताज़ा कांग्रेसी फैसले में भी उनकी ही राजनीतिक सूझबूझ काम आई है तो इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस में फिर से एक मज़बूत राजनीतिक शक्ति बनने की योजना बन चुकी है और उस पर गंभीरता से काम हो रहा है.. और इस योजना की अगुवाई राहुल गाँधी ही कर रहे हैं...
झारखण्ड में अब बी जे पी के सहयोग से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की सरकार बनना तय है .बी जे पी के नए अध्यक्ष ने घोषणा कर दी है कि वास्तव में वह बी जे पी की सरकार होगी क्योंकि उसे वे बी जे पी की नौवीं राज्य सरकार बता रहे हैं. यानी जो शिबू सोरेन कल तह संघी बिरादरी के लिए भ्रष्टाचार और अपराध का पर्याय था वह आज नितिन गडकरी का अपना बंदा बन चुका है .. जहां उन्होंने शिबू सोरेन को अपना मुख मंत्री बताया उसी भाषण में उन्होंने दावा किया कि वे जल्दी ही लाल किले पर बी जे पी का झंडा फहराने की फ़िराक में हैं ..यहाँ उनकी राजनीतिक नासमझी को रेखांकित करना उद्देश्य नहीं है लेकिन उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि लाल किले पर राष्ट्रीय झंडा फहराया जाता है किसी पार्टी का नहीं. झारखण्ड में जिन चुनावों के बाद बी जे पी के सहयोग से गठबंधन सरकार बनने जा रही है उसके लिए जो चुनाव प्रचार हुए वे बहुत ही दिलचस्प थे..पूरे चुनाव में बी जे पी वालों ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि शिबू सोरेन जैसे भ्रष्ट आदमी का साथी होने की वजह से कांग्रेस बहुत ही भ्रष्ट राजनीतिक पार्टी है. और जनता को चाहिय कि उसे बिलकुल वोट न दें . शिबू सोरेन के खिलाफ भी बी जे पी ने बहुत ही ज़हरीला प्रचार अभियान चलाया था और उन्हें अपराध और भ्रष्टाचार का देवता बना कर पेश किया था. चुनाव के दौरान टी वी चैनलों पर चले बहस मुबाहसों में बी जे पी वाले शिबू सोरेन की धज्जियां उड़ाते नज़र आते थे ..लगता था कि अगर कहीं शिबू सोरेन या उनके सहयोगी रहे कांग्रेसी जीत गए तो सर्वनाश हो जाएगा लेकिन सरकार में शामिल होने की जो उतावली बी जे पी ने दिखाई उस से साफ़ साबित हो गया कि बी जे पी वाले भी भ्रष्टाचार से कोई परहेज़ नहीं करते..
बी जे पी ने शिबू सोरेन को हमेशा ही भ्रष्टाचार का पर्याय माना है . जिन लोगों को याद होगा वे बी जे पी का वह अभियान कभी नहीं भूल पायेंगें कि किस तरह से बी जे पी ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी थी जब शिबू सोरेन केंद्र में मंत्री थे और उनके भ्रष्टाचार बी जे पी को राजनीतिक प्वाइंट स्कोर करने का एक बड़ा हथियार दिखता था . शिबू सोरेन पर अपने सहायक शशि नाथ झा की हत्या का आरोप भी लग चुका है . जिसके चक्कर में वेह जेल की हवा खा चुके हैं .. बी जे पी को अब तक यह सबसे बड़ा अधर्म का काम लगता था. लेकिन अब दिल्ली में उनके एक प्रवक्ता ने बता दिया कि शिबू सोरेन को दुमका की एक अदालत ने बरी कर दिया है और अब वे पवित्र हो गए हैं... शिबू सोरेन के साथ बंधू तिर्की भी हैं और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो भ्रष्टाचार की पाठ्यपुस्तकों में उदाहरण के रूप में दर्ज हैं..जब पी वी नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में अविश्ववास मत से बचाने के लिए शिबू सोरेन से रिश्वत ली थी,तो उनके खिलाफ सबसे बड़े राजनीतिक मोर्चे की कमान भी बी जे पी वालों के हाथ में थी.
इतनी सारी राजनीतिक दुविधाओं के चलते यह बात समझ में नहीं आती कि बी जे पी वाले शिबू सोरेन के साथ सरकार कैसे चलायेंगें . शिबू सोरेन के साथ कई ऐसे विधायक हैं जो बी जे पी के साथ नहीं जाना चाहते . क्योंकि कंधमाल और अन्य जगहों पर ईसाईयों और मुसलमानों के साथ बी जे पी वालों ने जो सुलूक किया है उसके चलते किसी भी अल्पसंख्यक के लिए बी जे पी के साथ रहना असंभव माना जाता है अगर उसकी आदतें शाहनवाज़ हुसैन या मुख्तार अब्बास नकवी जैसी न हों... इस लिए बी जे पी के साथ जाने के बाद शिबू सोरेन के कुछ अपने साथी भी उनका साथ छोड़ सकते हैं .शायद कांग्रेस इसी अवसर का इंतज़ार करेगी . जो भी हो जल्दबाजी करके बी जे पी ने राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय दिया है जबकि कांग्रेस ने शिबू सोरेन को मुख्य मंत्री पद से दूर रख कर राजनीतिक कुशलता का उदाहरण दिया है .
झारखण्ड विधानसभा चुनाव ने बहुत सारे मुगालते दूर कर दिए.चुनाव के पहले नक्सलवादी राजनीति की ताक़त का जो अनुमान लगाया जा रहा था, वह गलत निकला . कुछ इलाकों के अलावा राज्य में नक्सलों का प्रभाव सीमित है.. और दूसरी बात यह कि नक्सलवादियों की किसी धमकी या बहिष्कार की फ़रियाद को जनता बकवास समझती है ... एक मुगालता यह था कि बी जे पी में नए अध्यक्ष की तैनाती के बाद शायद मूल्य आधारित राजनीति का युग शुरू होगा क्योंकि जितने प्रचार के बाद आर एस एस ने नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया था, लगता था कि कुछ दिन के लिए ही सही, पार्टी भ्रष्टाचार आदि की राजनीति से दूर हो जायेगी लेकिन वह भी नहीं हुआ. गद्दी संभालते ही नितिन गडकरी ने उस आदमी को झारखण्ड का मुख्यमंत्री बना दिया जिसके भ्रष्टाचार के बारे में बी जे पी का हर नेता भाषण देता रहता था . यानी यह तय हो गया है कि नितिन गडकरी ने भी बी जे पी के उन्ही भ्रष्ट अध्यक्षों के पदचिन्हों पर चलने का फैसला कर लिया है जिसके शिखर पुरुष पूर्व बी जे पी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण माने जाते हैं.... एक मुगालता और टूटा है . अब तक आमतौर पर माना जाता था कि सत्ता के लिये कांग्रेस कुछ भी कर सकती है लेकिन झारखण्ड में शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री न बनाकर और बी जे पी को सरकार में शामिल होने का मौक़ा देकर कांग्रेस ने साबित कर दिया है कि कांग्रेस पार्टी दूरगामी लक्ष्य को हासिल करने के लिए छोटे छोटे स्वार्थों से उबरने की राजनीति को अपनी रणनीति का हिस्सा बना चुकी है ..राहुल गाँधी को आम तौर पर कांग्रेस की नयी नीतियों के मुख्य पैरोकार के रूप में देखा जाता है . अगर झारखण्ड में हुए ताज़ा कांग्रेसी फैसले में भी उनकी ही राजनीतिक सूझबूझ काम आई है तो इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस में फिर से एक मज़बूत राजनीतिक शक्ति बनने की योजना बन चुकी है और उस पर गंभीरता से काम हो रहा है.. और इस योजना की अगुवाई राहुल गाँधी ही कर रहे हैं...
झारखण्ड में अब बी जे पी के सहयोग से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की सरकार बनना तय है .बी जे पी के नए अध्यक्ष ने घोषणा कर दी है कि वास्तव में वह बी जे पी की सरकार होगी क्योंकि उसे वे बी जे पी की नौवीं राज्य सरकार बता रहे हैं. यानी जो शिबू सोरेन कल तह संघी बिरादरी के लिए भ्रष्टाचार और अपराध का पर्याय था वह आज नितिन गडकरी का अपना बंदा बन चुका है .. जहां उन्होंने शिबू सोरेन को अपना मुख मंत्री बताया उसी भाषण में उन्होंने दावा किया कि वे जल्दी ही लाल किले पर बी जे पी का झंडा फहराने की फ़िराक में हैं ..यहाँ उनकी राजनीतिक नासमझी को रेखांकित करना उद्देश्य नहीं है लेकिन उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि लाल किले पर राष्ट्रीय झंडा फहराया जाता है किसी पार्टी का नहीं. झारखण्ड में जिन चुनावों के बाद बी जे पी के सहयोग से गठबंधन सरकार बनने जा रही है उसके लिए जो चुनाव प्रचार हुए वे बहुत ही दिलचस्प थे..पूरे चुनाव में बी जे पी वालों ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि शिबू सोरेन जैसे भ्रष्ट आदमी का साथी होने की वजह से कांग्रेस बहुत ही भ्रष्ट राजनीतिक पार्टी है. और जनता को चाहिय कि उसे बिलकुल वोट न दें . शिबू सोरेन के खिलाफ भी बी जे पी ने बहुत ही ज़हरीला प्रचार अभियान चलाया था और उन्हें अपराध और भ्रष्टाचार का देवता बना कर पेश किया था. चुनाव के दौरान टी वी चैनलों पर चले बहस मुबाहसों में बी जे पी वाले शिबू सोरेन की धज्जियां उड़ाते नज़र आते थे ..लगता था कि अगर कहीं शिबू सोरेन या उनके सहयोगी रहे कांग्रेसी जीत गए तो सर्वनाश हो जाएगा लेकिन सरकार में शामिल होने की जो उतावली बी जे पी ने दिखाई उस से साफ़ साबित हो गया कि बी जे पी वाले भी भ्रष्टाचार से कोई परहेज़ नहीं करते..
बी जे पी ने शिबू सोरेन को हमेशा ही भ्रष्टाचार का पर्याय माना है . जिन लोगों को याद होगा वे बी जे पी का वह अभियान कभी नहीं भूल पायेंगें कि किस तरह से बी जे पी ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी थी जब शिबू सोरेन केंद्र में मंत्री थे और उनके भ्रष्टाचार बी जे पी को राजनीतिक प्वाइंट स्कोर करने का एक बड़ा हथियार दिखता था . शिबू सोरेन पर अपने सहायक शशि नाथ झा की हत्या का आरोप भी लग चुका है . जिसके चक्कर में वेह जेल की हवा खा चुके हैं .. बी जे पी को अब तक यह सबसे बड़ा अधर्म का काम लगता था. लेकिन अब दिल्ली में उनके एक प्रवक्ता ने बता दिया कि शिबू सोरेन को दुमका की एक अदालत ने बरी कर दिया है और अब वे पवित्र हो गए हैं... शिबू सोरेन के साथ बंधू तिर्की भी हैं और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो भ्रष्टाचार की पाठ्यपुस्तकों में उदाहरण के रूप में दर्ज हैं..जब पी वी नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में अविश्ववास मत से बचाने के लिए शिबू सोरेन से रिश्वत ली थी,तो उनके खिलाफ सबसे बड़े राजनीतिक मोर्चे की कमान भी बी जे पी वालों के हाथ में थी.
इतनी सारी राजनीतिक दुविधाओं के चलते यह बात समझ में नहीं आती कि बी जे पी वाले शिबू सोरेन के साथ सरकार कैसे चलायेंगें . शिबू सोरेन के साथ कई ऐसे विधायक हैं जो बी जे पी के साथ नहीं जाना चाहते . क्योंकि कंधमाल और अन्य जगहों पर ईसाईयों और मुसलमानों के साथ बी जे पी वालों ने जो सुलूक किया है उसके चलते किसी भी अल्पसंख्यक के लिए बी जे पी के साथ रहना असंभव माना जाता है अगर उसकी आदतें शाहनवाज़ हुसैन या मुख्तार अब्बास नकवी जैसी न हों... इस लिए बी जे पी के साथ जाने के बाद शिबू सोरेन के कुछ अपने साथी भी उनका साथ छोड़ सकते हैं .शायद कांग्रेस इसी अवसर का इंतज़ार करेगी . जो भी हो जल्दबाजी करके बी जे पी ने राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय दिया है जबकि कांग्रेस ने शिबू सोरेन को मुख्य मंत्री पद से दूर रख कर राजनीतिक कुशलता का उदाहरण दिया है .
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Monday, November 2, 2009
घूस को घूस ही रहने दो कोई नाम न दो .
मधु कोडा की भ्रष्टाचार कथा की चर्चा चारों तरफ हो रही है. झारखण्ड के इस पूर्व मुख्यमंत्री की दौलत के बारे में जो लोग भी सुन रहे हैं, दांतों तले उंगली दबाने का अभिनय कर रहे हैं .दुनिया के कई देशों में उन्होंने पैसा लगा रखा है, हर बड़े शहर में मकान है, कहीं दूकान है तो कहीं फैक्ट्री है, सोना चांदी, हीरे जवाहरात का कोई हिसाब ही नहीं है, बैंकों में लॉकर हैं,विदेशी बैंकों में खाते हैं. बे ईमानी के रास्ते अर्जित की गयी मधु कोडा की इस संपत्ति का स्रोत सौ फीसदी राजनीतिक भर्ष्टाचार है क्योंकि राजनीति के अलावा , उसने और कोई काम ही नहीं किया. अब इस वर्णन में से मधु कोडा का नाम हटाकर पढने की कोशिश करते हैं. अपने मुल्क में ऐसे बहुत सारे नेता हैं जिनके पास इसी तरह की संपत्ति है और जिन्होंने उस संपत्ति को चोरी और घूसखोरी के ज़रिये इकठ्ठा किया है. लेकिन जब उनका नाम आता है तो मीडिया इतने चटखारे नहीं लेता ,शायद इस प्रवृत्ति में किसी तरह के वर्ग पूर्वाग्रह भी हों लेकिन यहाँ उन पूर्वाग्रहों की चर्चा करके घूसखोरी के निजाम के खिलाफ चल रही बहस को कमज़ोर करना ठीक नहीं है. मधु कोडा की कृपा से सार्वजनिक जीवन में घूस की भूमिका एक बार फिर फोकस में आई है तो उस पर गंभीर चर्चा की शुरुआत करने की कोशिश की जानी चाहिए. नेताओं
की घूस महिमा पर चर्चा अक्सर होती रहती है और कुछ दिन बाद ख़त्म हो जाती है. आज़ादी के बाद भी नेताओं के घूस पर चर्चा होती थी लेकिन उस चर्चा का समाज को यह फायदा होता था कि उस नेता के खिलाफ जनमत बनता तह और ज़्यादातर मामलों में वह नेता सज़ा पा जाता था और उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर होना पड़ता था . जवाहरलाल नेहरु के पेट्रोलियम मंत्री , केशव देव मालवीय का ज़िक्र इस सन्दर्भ में अक्सर किया जाता है जिनके ऊपर मीडिया ने दस हज़ार रूपये की घूस का आरोप लगाया और उन्हें सरकार से बाहर होना पड़ा. लेकिन अब ऐसा नहीं होता . घूसखोर नेता मज़े से ऐश करता है और कहीं कुछ नहीं होता. इस लिस्ट में देश के वर्तमान नेताओं में से लगभग ९० प्रतिशत का नाम डाला जा सकता है . अब घूस को आमदनी बताया जाता है और डंके की चोट पर बा-हलफ ऐलान किया जाता है कि भाई, जब हम राजनीति में आये थे तो हमारे पास रोटी के पैसे नहीं थे लेकिन अब मेरे पास करोडों की संपत्ति है. सवाल पैदा होता है कि जांच एजेंसियों , अदालतों, और बाकी सरकारी तंत्र के बावजूद नेता कैसे इतनी रक़म इकट्ठी कर लेता है .और कहीं किसी को पता नहीं लगता. क्या समाज के बाकी वर्ग अपनी ड्यूटी सही तरीके से निभा रहे हैं. ? क्या सरकारी नौकर अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं ? क्या पत्रकार अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं ? जवाब में बहुत हे एतेज़ आवाज़ में ' नहीं' कहा आ सकता है. अफसरों की घूस की संपत्ति का ज़िक्र रोज़ ही अखबारों में रहता है लेकिन उसका ज़िक्र तब होता है जब से बी आई या और कोई जांच एजेन्सी उन अफसरों को पकड़ लेती है. आम तौर पर इस देश के अफसर घूसखोर हैं इसलिए उनका ज़िक्र यहाँ करके वक़्त और कागज़ की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हासिल होने वाला है .लेकिन घूस के इ स्दुनिया पर समाज को काबू करना होगा वरना एक राष्ट्र और समाज के रूप में अपनी तबाही को रोक पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. सत्ता को बेलगाम होने से अगर रोका न गया तो आनेवाली नस्लें हमें माफ़ नहीं करेंगीं. लेकिन कौन बांधेगा सत्ता के लगातार निरंकुश हो रहे इस घोडे को अनुशासन और ईमानदारी के खूंटे से . जवाब साफ़ है कि जिस जनता ने इस भ्रष्ट बे-ईमान अफसरों नेताओं को सत्ता दी है वही इन्हें लगाम लगा सकती है. देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का एक ही तरीका है कि जनता इनके खिलाफ लामबंद हो , वह तय करे कि चोरी-घूसखोरी का राज नहीं चलने देंगें. लेकिन उस जनता को बतायेगा कौन ? इसी सवाल के जवाब में अपने देश के भविष्य को संवारने का मन्त्र छुपा है. जनता को जाने वाला और कोई नहीं , हमारी अपनी बिरादरी है. अगर पत्रकार चेत ले तो बे-ईमान नेता और अफसर पनाह माँगने लगें.अपनी ड्यूटी संविधान सम्मत तरीके से करने लगें और अगर घूस की गिजा पर मौज करने वाली यह बिरादरी घूस लेने से डरने लगे तो समाज में शान्ति और खुशहाली आने में बहुत देर नहीं लगेगी.लेकिन इस बिरादरी को अपना फ़र्ज़ सही तरीके से करना पड़ेगा.
दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है. पत्रकार जिन अखबारों और टी वी चैनलों पर अपनी बात कह सकता है वह बड़े पूंजीपतियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जे में है . इस लिए मीडिया के परंपरागत माध्यमों से बहुत उम्मीद करना ठीक नहीं है.. वैसे भी पत्रकारों ने अजीब ख्याति हासिल कर ली है . इमर्जेंसी के ठीक बाद जब प्रेस पर बेजा कण्ट्रोल की बहस चली थी तो उस वक़्त की जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप से झुकने को कहा गया था लेकिन आप लोग तो रेंगने लगे थे. यह बात सभी पत्रकारों के लिए सच नहीं थी. कुलदीप नायर जैसे कुछ लोगों ने तानाशाही की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया था . आज भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लक्ष्मी की ताक़त के सामने झुकने से मना कर दिया है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मीडिया में काम करने वालों की एक बड़ी जमात आजकल घूस का वर्णन करने के लिए कमाई शब्द का इस्तेमाल करने लगी है. बस यही गड़बड़ है .अगर मीडिया तय कर ले कि देशहित में काम करना है और नेता-बाबू गठजोड़ को घूस का राज नहीं कायम करने देना है तो आधी से ज्यादा लड़ाई अपने आप जीत ली जायेगी. अब यहीं पर इस बात की जांच कर लेना ज़रूरी है कि क्या मीडिया की जो वर्तमान दशा है उसमें इतनी निर्णायक लड़ाई की उम्मीद की जा सकती है.हालांकि यह बहुत शर्म की बात है लेकिन आज के मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी नेता-बाबू गठजोड़ की कृपा से करोड़पति और अरबपति बन चुका है.. वह सच को छुपाने की बे-ईमानों की कोशिश का हिस्सा बन जाता है. मीडिया में घूसखोरी की वे ही घटनाएं रिपोर्ट होती हैं जिनकी जांच सरकार की एजेंसियाँ कर लेती हैं. इस देश में मीडिया ने बार बार सरकारों को जनहित में सच स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है. इंडियन एक्सप्रेस की खोजी पत्रकारिता के वजह से ही उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री , ए आर अंतुले को जाना पड़ा था , बोफोर्स का भांडा भी मीडिया ने फोड़ा था और बंगारू लक्ष्मण की नोटों की गड्डियाँ संभालती छवि भी मीडिया की कृपा से ही आई थी . इन कुछ उदाहरणों से यह बात साफ़ है कि अगर मीडिया तय कर ले तो वह परिवर्तन का वाहक बन सकता है लेकिन उसके लिए हिम्मत और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी की भावना चाहिए.. इन कुछ आदरणीय अपवादों के सहारे आज भी प्रेस की आजादी और उसकी ताक़त का मानदंड बनते हैं लेकिन आज देश में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग बे-ईमानी की चपेट में है.. राजनेताओं से पैसे लेना, उनके मन माफिक खबरें छापना, एक से लेकर दूसरे के खिलाफ खबर छापना, कुछ ऐसी बातें हैं जिन्होंने मीडिया को कटघरे में खडा कर दिया है. . किसी एक पत्रकार की बे-ईमानी का साधारणीकरण करके पूरे पेशे को घेरने वाले हर कोने में मिल जायेंगें. इसलिए मीडिया के जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि वे इस तरह के लोगों की बात को गलत साबित करने के लिए पहल करें . इस पहल की शुरुआत अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा से की जा सकती है .लेकिन इस काम में उन लोगों की कोई भूमिका नहीं है जिन्होंने किसी सोसाइटी में मेम्बरशिप लेकर कहीं एक फ्लैट जुगाड़ लिया है.. पिछले दिनों भड़ास पर ऐसे कुछ ईमानदार लोगों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की . मामूली आर्थिक ताक़त वाले इन पत्रकारों की पहल से कुछ नहीं होने वाला है . हाँ अगर यह लोग अपनी संपत्ति के साथ साथ उन लोगों की संपत्ति की भी घोषणा करवाएं जिनके तीन चार प्लाट हैं, दूकान है , कई कारें हैं , और शाई जीवन शैली है , तो बात बनेगी.. उसके बाद घूस और पत्रकारिता के गठजोड़ की कड़ी टूटेगी और अगर यह कड़ी टूटती है तो कोई भी मधु कोडा हिम्मत नहीं करेगा कि वह आम आदमी के धन की इतने बड़े पैमाने पर चोरी कर सके.. उत्तर प्रदेश के घूसखोर आई ए एस अफसरों की सूची आखिर उन्हीं की बिरादरी के लोगों ने प्रकाशित की थी. यह अलग बात है उसके बाद भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. लेकिन जनता जागरूक हो रही है अगर उसे घूस की परिभाषा बताते हुए यह बता दिया जाए कि नेता-अफसर गिरोह द्बारा लिया गया वह पैसा जो आम आदमी की भलाई के लिए होता है जब वही भ्रष्ट तरीके से कोई और हड़प लेता है ,तो वह घूस हो जाता है . अगर यह बात जनता की समझ में आ गयी तो घूस के सिद्धांत पर चलने वाली सरकारों का बच रहना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन उसके पहले जनता तक सच्चाई पंहुचाने वाले पत्रकारों को अपनी ड्यूटी सही तरीके से करनी पड़ेगी.
की घूस महिमा पर चर्चा अक्सर होती रहती है और कुछ दिन बाद ख़त्म हो जाती है. आज़ादी के बाद भी नेताओं के घूस पर चर्चा होती थी लेकिन उस चर्चा का समाज को यह फायदा होता था कि उस नेता के खिलाफ जनमत बनता तह और ज़्यादातर मामलों में वह नेता सज़ा पा जाता था और उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर होना पड़ता था . जवाहरलाल नेहरु के पेट्रोलियम मंत्री , केशव देव मालवीय का ज़िक्र इस सन्दर्भ में अक्सर किया जाता है जिनके ऊपर मीडिया ने दस हज़ार रूपये की घूस का आरोप लगाया और उन्हें सरकार से बाहर होना पड़ा. लेकिन अब ऐसा नहीं होता . घूसखोर नेता मज़े से ऐश करता है और कहीं कुछ नहीं होता. इस लिस्ट में देश के वर्तमान नेताओं में से लगभग ९० प्रतिशत का नाम डाला जा सकता है . अब घूस को आमदनी बताया जाता है और डंके की चोट पर बा-हलफ ऐलान किया जाता है कि भाई, जब हम राजनीति में आये थे तो हमारे पास रोटी के पैसे नहीं थे लेकिन अब मेरे पास करोडों की संपत्ति है. सवाल पैदा होता है कि जांच एजेंसियों , अदालतों, और बाकी सरकारी तंत्र के बावजूद नेता कैसे इतनी रक़म इकट्ठी कर लेता है .और कहीं किसी को पता नहीं लगता. क्या समाज के बाकी वर्ग अपनी ड्यूटी सही तरीके से निभा रहे हैं. ? क्या सरकारी नौकर अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं ? क्या पत्रकार अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं ? जवाब में बहुत हे एतेज़ आवाज़ में ' नहीं' कहा आ सकता है. अफसरों की घूस की संपत्ति का ज़िक्र रोज़ ही अखबारों में रहता है लेकिन उसका ज़िक्र तब होता है जब से बी आई या और कोई जांच एजेन्सी उन अफसरों को पकड़ लेती है. आम तौर पर इस देश के अफसर घूसखोर हैं इसलिए उनका ज़िक्र यहाँ करके वक़्त और कागज़ की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हासिल होने वाला है .लेकिन घूस के इ स्दुनिया पर समाज को काबू करना होगा वरना एक राष्ट्र और समाज के रूप में अपनी तबाही को रोक पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. सत्ता को बेलगाम होने से अगर रोका न गया तो आनेवाली नस्लें हमें माफ़ नहीं करेंगीं. लेकिन कौन बांधेगा सत्ता के लगातार निरंकुश हो रहे इस घोडे को अनुशासन और ईमानदारी के खूंटे से . जवाब साफ़ है कि जिस जनता ने इस भ्रष्ट बे-ईमान अफसरों नेताओं को सत्ता दी है वही इन्हें लगाम लगा सकती है. देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का एक ही तरीका है कि जनता इनके खिलाफ लामबंद हो , वह तय करे कि चोरी-घूसखोरी का राज नहीं चलने देंगें. लेकिन उस जनता को बतायेगा कौन ? इसी सवाल के जवाब में अपने देश के भविष्य को संवारने का मन्त्र छुपा है. जनता को जाने वाला और कोई नहीं , हमारी अपनी बिरादरी है. अगर पत्रकार चेत ले तो बे-ईमान नेता और अफसर पनाह माँगने लगें.अपनी ड्यूटी संविधान सम्मत तरीके से करने लगें और अगर घूस की गिजा पर मौज करने वाली यह बिरादरी घूस लेने से डरने लगे तो समाज में शान्ति और खुशहाली आने में बहुत देर नहीं लगेगी.लेकिन इस बिरादरी को अपना फ़र्ज़ सही तरीके से करना पड़ेगा.
दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है. पत्रकार जिन अखबारों और टी वी चैनलों पर अपनी बात कह सकता है वह बड़े पूंजीपतियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जे में है . इस लिए मीडिया के परंपरागत माध्यमों से बहुत उम्मीद करना ठीक नहीं है.. वैसे भी पत्रकारों ने अजीब ख्याति हासिल कर ली है . इमर्जेंसी के ठीक बाद जब प्रेस पर बेजा कण्ट्रोल की बहस चली थी तो उस वक़्त की जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप से झुकने को कहा गया था लेकिन आप लोग तो रेंगने लगे थे. यह बात सभी पत्रकारों के लिए सच नहीं थी. कुलदीप नायर जैसे कुछ लोगों ने तानाशाही की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया था . आज भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लक्ष्मी की ताक़त के सामने झुकने से मना कर दिया है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मीडिया में काम करने वालों की एक बड़ी जमात आजकल घूस का वर्णन करने के लिए कमाई शब्द का इस्तेमाल करने लगी है. बस यही गड़बड़ है .अगर मीडिया तय कर ले कि देशहित में काम करना है और नेता-बाबू गठजोड़ को घूस का राज नहीं कायम करने देना है तो आधी से ज्यादा लड़ाई अपने आप जीत ली जायेगी. अब यहीं पर इस बात की जांच कर लेना ज़रूरी है कि क्या मीडिया की जो वर्तमान दशा है उसमें इतनी निर्णायक लड़ाई की उम्मीद की जा सकती है.हालांकि यह बहुत शर्म की बात है लेकिन आज के मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी नेता-बाबू गठजोड़ की कृपा से करोड़पति और अरबपति बन चुका है.. वह सच को छुपाने की बे-ईमानों की कोशिश का हिस्सा बन जाता है. मीडिया में घूसखोरी की वे ही घटनाएं रिपोर्ट होती हैं जिनकी जांच सरकार की एजेंसियाँ कर लेती हैं. इस देश में मीडिया ने बार बार सरकारों को जनहित में सच स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है. इंडियन एक्सप्रेस की खोजी पत्रकारिता के वजह से ही उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री , ए आर अंतुले को जाना पड़ा था , बोफोर्स का भांडा भी मीडिया ने फोड़ा था और बंगारू लक्ष्मण की नोटों की गड्डियाँ संभालती छवि भी मीडिया की कृपा से ही आई थी . इन कुछ उदाहरणों से यह बात साफ़ है कि अगर मीडिया तय कर ले तो वह परिवर्तन का वाहक बन सकता है लेकिन उसके लिए हिम्मत और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी की भावना चाहिए.. इन कुछ आदरणीय अपवादों के सहारे आज भी प्रेस की आजादी और उसकी ताक़त का मानदंड बनते हैं लेकिन आज देश में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग बे-ईमानी की चपेट में है.. राजनेताओं से पैसे लेना, उनके मन माफिक खबरें छापना, एक से लेकर दूसरे के खिलाफ खबर छापना, कुछ ऐसी बातें हैं जिन्होंने मीडिया को कटघरे में खडा कर दिया है. . किसी एक पत्रकार की बे-ईमानी का साधारणीकरण करके पूरे पेशे को घेरने वाले हर कोने में मिल जायेंगें. इसलिए मीडिया के जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि वे इस तरह के लोगों की बात को गलत साबित करने के लिए पहल करें . इस पहल की शुरुआत अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा से की जा सकती है .लेकिन इस काम में उन लोगों की कोई भूमिका नहीं है जिन्होंने किसी सोसाइटी में मेम्बरशिप लेकर कहीं एक फ्लैट जुगाड़ लिया है.. पिछले दिनों भड़ास पर ऐसे कुछ ईमानदार लोगों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की . मामूली आर्थिक ताक़त वाले इन पत्रकारों की पहल से कुछ नहीं होने वाला है . हाँ अगर यह लोग अपनी संपत्ति के साथ साथ उन लोगों की संपत्ति की भी घोषणा करवाएं जिनके तीन चार प्लाट हैं, दूकान है , कई कारें हैं , और शाई जीवन शैली है , तो बात बनेगी.. उसके बाद घूस और पत्रकारिता के गठजोड़ की कड़ी टूटेगी और अगर यह कड़ी टूटती है तो कोई भी मधु कोडा हिम्मत नहीं करेगा कि वह आम आदमी के धन की इतने बड़े पैमाने पर चोरी कर सके.. उत्तर प्रदेश के घूसखोर आई ए एस अफसरों की सूची आखिर उन्हीं की बिरादरी के लोगों ने प्रकाशित की थी. यह अलग बात है उसके बाद भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. लेकिन जनता जागरूक हो रही है अगर उसे घूस की परिभाषा बताते हुए यह बता दिया जाए कि नेता-अफसर गिरोह द्बारा लिया गया वह पैसा जो आम आदमी की भलाई के लिए होता है जब वही भ्रष्ट तरीके से कोई और हड़प लेता है ,तो वह घूस हो जाता है . अगर यह बात जनता की समझ में आ गयी तो घूस के सिद्धांत पर चलने वाली सरकारों का बच रहना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन उसके पहले जनता तक सच्चाई पंहुचाने वाले पत्रकारों को अपनी ड्यूटी सही तरीके से करनी पड़ेगी.
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