मधु कोडा की भ्रष्टाचार कथा की चर्चा चारों तरफ हो रही है. झारखण्ड के इस पूर्व मुख्यमंत्री की दौलत के बारे में जो लोग भी सुन रहे हैं, दांतों तले उंगली दबाने का अभिनय कर रहे हैं .दुनिया के कई देशों में उन्होंने पैसा लगा रखा है, हर बड़े शहर में मकान है, कहीं दूकान है तो कहीं फैक्ट्री है, सोना चांदी, हीरे जवाहरात का कोई हिसाब ही नहीं है, बैंकों में लॉकर हैं,विदेशी बैंकों में खाते हैं. बे ईमानी के रास्ते अर्जित की गयी मधु कोडा की इस संपत्ति का स्रोत सौ फीसदी राजनीतिक भर्ष्टाचार है क्योंकि राजनीति के अलावा , उसने और कोई काम ही नहीं किया. अब इस वर्णन में से मधु कोडा का नाम हटाकर पढने की कोशिश करते हैं. अपने मुल्क में ऐसे बहुत सारे नेता हैं जिनके पास इसी तरह की संपत्ति है और जिन्होंने उस संपत्ति को चोरी और घूसखोरी के ज़रिये इकठ्ठा किया है. लेकिन जब उनका नाम आता है तो मीडिया इतने चटखारे नहीं लेता ,शायद इस प्रवृत्ति में किसी तरह के वर्ग पूर्वाग्रह भी हों लेकिन यहाँ उन पूर्वाग्रहों की चर्चा करके घूसखोरी के निजाम के खिलाफ चल रही बहस को कमज़ोर करना ठीक नहीं है. मधु कोडा की कृपा से सार्वजनिक जीवन में घूस की भूमिका एक बार फिर फोकस में आई है तो उस पर गंभीर चर्चा की शुरुआत करने की कोशिश की जानी चाहिए. नेताओं
की घूस महिमा पर चर्चा अक्सर होती रहती है और कुछ दिन बाद ख़त्म हो जाती है. आज़ादी के बाद भी नेताओं के घूस पर चर्चा होती थी लेकिन उस चर्चा का समाज को यह फायदा होता था कि उस नेता के खिलाफ जनमत बनता तह और ज़्यादातर मामलों में वह नेता सज़ा पा जाता था और उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर होना पड़ता था . जवाहरलाल नेहरु के पेट्रोलियम मंत्री , केशव देव मालवीय का ज़िक्र इस सन्दर्भ में अक्सर किया जाता है जिनके ऊपर मीडिया ने दस हज़ार रूपये की घूस का आरोप लगाया और उन्हें सरकार से बाहर होना पड़ा. लेकिन अब ऐसा नहीं होता . घूसखोर नेता मज़े से ऐश करता है और कहीं कुछ नहीं होता. इस लिस्ट में देश के वर्तमान नेताओं में से लगभग ९० प्रतिशत का नाम डाला जा सकता है . अब घूस को आमदनी बताया जाता है और डंके की चोट पर बा-हलफ ऐलान किया जाता है कि भाई, जब हम राजनीति में आये थे तो हमारे पास रोटी के पैसे नहीं थे लेकिन अब मेरे पास करोडों की संपत्ति है. सवाल पैदा होता है कि जांच एजेंसियों , अदालतों, और बाकी सरकारी तंत्र के बावजूद नेता कैसे इतनी रक़म इकट्ठी कर लेता है .और कहीं किसी को पता नहीं लगता. क्या समाज के बाकी वर्ग अपनी ड्यूटी सही तरीके से निभा रहे हैं. ? क्या सरकारी नौकर अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं ? क्या पत्रकार अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं ? जवाब में बहुत हे एतेज़ आवाज़ में ' नहीं' कहा आ सकता है. अफसरों की घूस की संपत्ति का ज़िक्र रोज़ ही अखबारों में रहता है लेकिन उसका ज़िक्र तब होता है जब से बी आई या और कोई जांच एजेन्सी उन अफसरों को पकड़ लेती है. आम तौर पर इस देश के अफसर घूसखोर हैं इसलिए उनका ज़िक्र यहाँ करके वक़्त और कागज़ की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हासिल होने वाला है .लेकिन घूस के इ स्दुनिया पर समाज को काबू करना होगा वरना एक राष्ट्र और समाज के रूप में अपनी तबाही को रोक पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. सत्ता को बेलगाम होने से अगर रोका न गया तो आनेवाली नस्लें हमें माफ़ नहीं करेंगीं. लेकिन कौन बांधेगा सत्ता के लगातार निरंकुश हो रहे इस घोडे को अनुशासन और ईमानदारी के खूंटे से . जवाब साफ़ है कि जिस जनता ने इस भ्रष्ट बे-ईमान अफसरों नेताओं को सत्ता दी है वही इन्हें लगाम लगा सकती है. देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का एक ही तरीका है कि जनता इनके खिलाफ लामबंद हो , वह तय करे कि चोरी-घूसखोरी का राज नहीं चलने देंगें. लेकिन उस जनता को बतायेगा कौन ? इसी सवाल के जवाब में अपने देश के भविष्य को संवारने का मन्त्र छुपा है. जनता को जाने वाला और कोई नहीं , हमारी अपनी बिरादरी है. अगर पत्रकार चेत ले तो बे-ईमान नेता और अफसर पनाह माँगने लगें.अपनी ड्यूटी संविधान सम्मत तरीके से करने लगें और अगर घूस की गिजा पर मौज करने वाली यह बिरादरी घूस लेने से डरने लगे तो समाज में शान्ति और खुशहाली आने में बहुत देर नहीं लगेगी.लेकिन इस बिरादरी को अपना फ़र्ज़ सही तरीके से करना पड़ेगा.
दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है. पत्रकार जिन अखबारों और टी वी चैनलों पर अपनी बात कह सकता है वह बड़े पूंजीपतियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जे में है . इस लिए मीडिया के परंपरागत माध्यमों से बहुत उम्मीद करना ठीक नहीं है.. वैसे भी पत्रकारों ने अजीब ख्याति हासिल कर ली है . इमर्जेंसी के ठीक बाद जब प्रेस पर बेजा कण्ट्रोल की बहस चली थी तो उस वक़्त की जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप से झुकने को कहा गया था लेकिन आप लोग तो रेंगने लगे थे. यह बात सभी पत्रकारों के लिए सच नहीं थी. कुलदीप नायर जैसे कुछ लोगों ने तानाशाही की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया था . आज भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लक्ष्मी की ताक़त के सामने झुकने से मना कर दिया है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मीडिया में काम करने वालों की एक बड़ी जमात आजकल घूस का वर्णन करने के लिए कमाई शब्द का इस्तेमाल करने लगी है. बस यही गड़बड़ है .अगर मीडिया तय कर ले कि देशहित में काम करना है और नेता-बाबू गठजोड़ को घूस का राज नहीं कायम करने देना है तो आधी से ज्यादा लड़ाई अपने आप जीत ली जायेगी. अब यहीं पर इस बात की जांच कर लेना ज़रूरी है कि क्या मीडिया की जो वर्तमान दशा है उसमें इतनी निर्णायक लड़ाई की उम्मीद की जा सकती है.हालांकि यह बहुत शर्म की बात है लेकिन आज के मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी नेता-बाबू गठजोड़ की कृपा से करोड़पति और अरबपति बन चुका है.. वह सच को छुपाने की बे-ईमानों की कोशिश का हिस्सा बन जाता है. मीडिया में घूसखोरी की वे ही घटनाएं रिपोर्ट होती हैं जिनकी जांच सरकार की एजेंसियाँ कर लेती हैं. इस देश में मीडिया ने बार बार सरकारों को जनहित में सच स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है. इंडियन एक्सप्रेस की खोजी पत्रकारिता के वजह से ही उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री , ए आर अंतुले को जाना पड़ा था , बोफोर्स का भांडा भी मीडिया ने फोड़ा था और बंगारू लक्ष्मण की नोटों की गड्डियाँ संभालती छवि भी मीडिया की कृपा से ही आई थी . इन कुछ उदाहरणों से यह बात साफ़ है कि अगर मीडिया तय कर ले तो वह परिवर्तन का वाहक बन सकता है लेकिन उसके लिए हिम्मत और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी की भावना चाहिए.. इन कुछ आदरणीय अपवादों के सहारे आज भी प्रेस की आजादी और उसकी ताक़त का मानदंड बनते हैं लेकिन आज देश में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग बे-ईमानी की चपेट में है.. राजनेताओं से पैसे लेना, उनके मन माफिक खबरें छापना, एक से लेकर दूसरे के खिलाफ खबर छापना, कुछ ऐसी बातें हैं जिन्होंने मीडिया को कटघरे में खडा कर दिया है. . किसी एक पत्रकार की बे-ईमानी का साधारणीकरण करके पूरे पेशे को घेरने वाले हर कोने में मिल जायेंगें. इसलिए मीडिया के जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि वे इस तरह के लोगों की बात को गलत साबित करने के लिए पहल करें . इस पहल की शुरुआत अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा से की जा सकती है .लेकिन इस काम में उन लोगों की कोई भूमिका नहीं है जिन्होंने किसी सोसाइटी में मेम्बरशिप लेकर कहीं एक फ्लैट जुगाड़ लिया है.. पिछले दिनों भड़ास पर ऐसे कुछ ईमानदार लोगों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की . मामूली आर्थिक ताक़त वाले इन पत्रकारों की पहल से कुछ नहीं होने वाला है . हाँ अगर यह लोग अपनी संपत्ति के साथ साथ उन लोगों की संपत्ति की भी घोषणा करवाएं जिनके तीन चार प्लाट हैं, दूकान है , कई कारें हैं , और शाई जीवन शैली है , तो बात बनेगी.. उसके बाद घूस और पत्रकारिता के गठजोड़ की कड़ी टूटेगी और अगर यह कड़ी टूटती है तो कोई भी मधु कोडा हिम्मत नहीं करेगा कि वह आम आदमी के धन की इतने बड़े पैमाने पर चोरी कर सके.. उत्तर प्रदेश के घूसखोर आई ए एस अफसरों की सूची आखिर उन्हीं की बिरादरी के लोगों ने प्रकाशित की थी. यह अलग बात है उसके बाद भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. लेकिन जनता जागरूक हो रही है अगर उसे घूस की परिभाषा बताते हुए यह बता दिया जाए कि नेता-अफसर गिरोह द्बारा लिया गया वह पैसा जो आम आदमी की भलाई के लिए होता है जब वही भ्रष्ट तरीके से कोई और हड़प लेता है ,तो वह घूस हो जाता है . अगर यह बात जनता की समझ में आ गयी तो घूस के सिद्धांत पर चलने वाली सरकारों का बच रहना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन उसके पहले जनता तक सच्चाई पंहुचाने वाले पत्रकारों को अपनी ड्यूटी सही तरीके से करनी पड़ेगी.
Monday, November 2, 2009
घूस को घूस ही रहने दो कोई नाम न दो .
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प्रिय भाई, आपने मधु कोड़ा पर सही लिखा है, मैंने भी इस पर कार्टून बनाया है, आप जरूर देखें, आपका धन्यवाद् !
ReplyDeletehttp://cartoondhamaka.blogspot.com/2009/11/111.html
प्रिय भाई, आपने मधु कोड़ा पर सही लिखा है, मैंने भी इस पर कार्टून बनाया है, आप जरूर देखें, आपका धन्यवाद् !
ReplyDeletehttp://cartoondhamaka.blogspot.com/2009/11/111.html
झारखंडियों को पचाना नहीं आता. पहले भी नरसिंह राव सरकार के समय पैसा लेकर बैंकों में जमा करा बैठे थे. अब इस कोड़े को ही देख लो...चारों तरफ trail छोड़ता घूम रहा था.
ReplyDeleteअरे भई इस देश में सैकड़ों करोड़ के वारे-न्यारे तो बाबू लोग ही कर जाते हैं...फिर ये तो ठहरे मुख्यमंत्री, ज़रा भी अक्ल से काम लिया होता तो डकार लेने की भी ज़रूरत न होती (हमारी राजनीति में तो एसे उदाहरण चारों तरफ भरे ही पड़े हैं)..पर ये तो ठहरे भूखे-नंगे सो, पचना कहां था...कै कर बैठे न !
सही कहा..घूस को घूस ही रहने दो, कोई नाम न दो...
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