Showing posts with label शेष नारायण सिंह .. Show all posts
Showing posts with label शेष नारायण सिंह .. Show all posts

Tuesday, January 14, 2014

बंगलादेश में राजनीतिक अस्थिरता और भारतीय डिप्लोमेसी की अग्निपरीक्षा


शेष नारायण सिंह
बंगलादेश में आम चुनाव हो गए लेकिन चुनाव नतीजों पर भारी सवाल खड़े हो गए हैं . ५ जनवरी को हुए चुनाव की वैधता पर मुख्य विपक्षी पार्टी  बांग्लादेश नैशनल पार्टी (बी एन पी) के बहिष्कार ने सवालिया निशान लगा दिया है .सत्ताधारी पार्टी ,अवामी लीग में नतीजे आने के बाद जश्न का माहौल है, .अवामी लीग  के नेता और प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा  है कि विपक्ष की मांगें नाजायज़ थीं और तथाकथित मांगों के बहाने संविधान के हिसाब से चुनाव करवाने की सरकार की कोशिश में डाला गया अडंगा बेमतलब है .बहरहाल सत्ताधारी पार्टी ,अवामी लीग ने  जातीय संसद (कौमी असेम्बली ) की ३०० में से २३२  सीटें जीत ली हैं और अब शेख हसीना के पास भारी बहुमत है लेकिन विपक्ष की नेता खालिदा जिया इस जीत को मान्यता देने को तैयार नहीं हैं . इस बीच अमरीका ने भी  सुझाव दे दिया है कि  दोबारा चुनाव कराया जाना चाहिए . दक्षिण एशिया में अमरीका की ताक़त को देखते हुए यह माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना को दोबारा चुनाव करवाना पड़ सकता है . बंगलादेश के चुनाव आयोग के शुरुआती आंकड़ों के अनुसार पांच जनवरी को हुए मतदान में करीब ४० प्रतिशत लोगों ने वोट डाला है . जाहिर है कि  चुनाव के बहिष्कार की खालिदा जिया की लाइन का ख़ासा असर पड़ा है . खालिदा जिया को शेख हसीना का विरोध करने के लिए जमाते इस्लामी का सहयोग मिल रहा है .
शेख हसीना भी बंगलादेश नैशनल पार्टी और उसकी नेता खालिदा जिया को कोई रियायत देने के लिए तैयार नहीं हैं . उन्होने चुनाव के अगले दिन बिलकुल साफ़ कर दिया कि मुख्य विपक्षी पार्टी जमाते इस्लामी के हाथों खेल रही है. जब उनसे पूछा गया कि क्या वे मौजूदा राजनीतिक हालात में विपक्ष से बात चीत करने के बारे में सोच रही हैं तो उन्होने साफ़ कह दिया कि जब ततक विपक्ष हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ देता तब तक किसी तरह की बात नहीं की जायेगी . उन्होंने कहा कि आज  लोकतंत्र के दामन पर बेगुनाह लोगों के खून के दाग लगा दिए गए हैं  .हमारे लोकतंत्र पर उन लोगों के आंसू का क़र्ज़ है जिन्होंने २०१३ में राजनीतिक हिंसा का सामना किया और अपनी जान गंवाई . आज राष्ट्र की चेतना पर राजनीतिक लाभ के लिए  हिंसा का सहारा लेने वालों  ने भारी हमला किया है और  उनको बातचीत का मौक़ा तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक वे हिंसा का रास्ता छोड़ न दें . शेख हसीना ने पत्रकारों को बताया कि उन्होने सेना  को हुक्म दे दिया है कि चुनाव के बाद भी जो आतंकवादी हिंसा जारी है उसको ठीक करने के लिए  सख्ती का  तरीका भी अपनाया जा सकता है .
 विपक्ष की नेता खालिदा ज़िया भी शुरू में अपने रुख में किसी तरह का  बदलाव करने को तैयार नहीं थीं  .उन्होने  कहा था कि यह चुनाव पूरी तरह से फर्जी है ,उनके आवाहन पर पूरे देश ने चुनाव का बहिष्कार किया है और मतदान का प्रतिशत किसी भी हालत में १० प्रतिशत से ज्यादा नहीं है . उन्होंने कहा कि सरकार की तरफ से जो ४० प्रतिशत मतदान की बात की जा रही है ,वह  भी फर्जी है . लेकिन शेख हसीना की सरकार की तरफ से मिल रहे सख्ती के संकेतों के बाद बी एन पी की नेता खालिदा जिया का रवैया भी बदला है . हालांकि वे चुनाव को अभी भी फर्जी बता रही हैं और सरकार पर हर तरह की बेईमानी करने के आरोप लगा रही  हैं लेकिन अब उनकी बोली बदली हुयी है और कह रही हैं की वे सरकार से बात चीत करने के सुझाव पर विचार कर सकती हैं लेकिन उनकी शर्त  है की उनकी पार्टी के उन नेत्ताओं को रिहा कर दिया  जाये जिनको राजनीतिक कारणों से जेलों में बंद कर दिया गया है . देश में पांच जनवरी को हुए  आम चुनाव के पहले बड़े पैमाने पर राजनीतिक नेताओं की धरपकड़ हुयी थी . खालिदा जिया का कहना है कि  अगर सरकार बातचीत करना चाहती है तो उन नेताओं को छोड़ना पडेगा .उन्होने कहा कि  जो नेता अभी जेलों में नहीं बंद हैं वे भी डर के मारे कहीं छुपे हुए हैं .ज़ाहिर है कि बातचीत  करने  के लिए सरकार को बातचीत का माहौल बनाना  पडेगा . खालिदा जिया को चुनाव के एक हफ्ते पहले से ही उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया था और किसी को भी उनसे मिलने की अनुमति नहीं दी गेई थी लेकिन चुनाव के बाद अमरीकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स के संवाददाता को मिलने दिया गया . उसके साथ हुयी बातचीत में खालिदा जिया ने कहा कि वे जमाते इस्लामी से भी दोस्ताना सम्बन्ध ख़त्म करने पर विचार कर सकती हैं .उन्होने संवाददाता को बताया कि  जमात के साथ उनको कोई परमानेंट सम्बन्ध नहीं है . उनसे पूछा गया कि क्या ज़रुरत पड़ने पर वे जमाते इस्लामी के साथ संबंधों को खत्म भी कर सकती हैं  तो बी एन पी की अध्यक्ष ने कहा कि अभी  तुरंत तो खत्म नहीं कर सकती लेकिन जब वक़्त आयेगा तो विचार किया जा सकता है .यानी राजनीतिक सुविधा अगर आकर्षक लगी तो खालिदा जिया जमाते इस्लामी वालों को औकात बता सकती हैं .
उधर अमरीका और ब्रिटेन ने चुनाव नतीजों को नाकाफी बताकर माहौल में असमंजस की स्थिति पैदा कर दिया है . १९९६ का उदाहरण दिया जा रहा  है जब सत्ताधारी पार्टी बंगलादेश नैशनल पार्टी थी और खालिदा जिया प्रधानमंत्री थीं . शेख हसीना की अवामी लीग ने चुनाव के बहिष्कार का आवाहन किया था . बहुत कम लोग वोट डालने आये थे . लेकिन दुनिया ,  भर के नेताओं के दबाव के बाद खालिदा जिया ने  चार महीने बाद ही दोब़ारा चुनाव करवा दिया था . अमरीका  ब्रिटेन और खालिदा जिया इस बार भी वही उम्मीद कर रहे हैं कि शायद १९९६ की तरह इस बार  भी  शेख हसीना पर दबाव डालकर दोबारा चुनाव करवाया जा सकता है . लगता है कि शेख हसीना भी  इस संभावना पर विचार कर रही हैं क्योंकि उन्होंने भी मीडिया के ज़रिये मुख्य विपक्षी पार्टी को सुझाव दे दिया  है की बातचीत के बिना कोई रास्ता नहीं निकाला जा सकता .
उधर खालिदा जिया और उनके साथी यह कहकर चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं कि अवामी लीग सरकार को इस्तीफ़ा देकर कार्यवाहक सरकार की निगरानी में चुनाव कराने चाहिए था .सत्ताधारी पार्टी विपक्ष की इस मांग को ये कहते हुए सिरे से ख़ारिज़ कर चुकी है कि चुनाव एक संवैधानिक ज़रूरत है और समय से चुनाव होना ज़रूरी है  क्योंकि जब २४ जनवररी को संसद का कार्यकाल ख़त्म हो रहा है तो उसके ९० दिन के पहले चुनाव की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है लेकिन सत्ता की उम्मीद लगाए बैठी बांगलादेश नैशनल पार्टी की अध्यक्ष खालिदा जिया कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं . वे एक तरह से जमाते इस्लामी की आवाज़ में बात कर रही है . सबको  मालूम है कि १९७१ में जमाते इस्लामी की भूमिका  बंगलादेश की स्थापना  के विरोध में थी . सबको यह भी मालूम है कि जब जनरल याहया खान ने १९७१ में बंगलादेश के  मुक्ति संग्राम को कुचल देने के लिए ढाका में जनरल टिक्का खान को तैनात किया था तो  बलात्कार की सारी घटनाएं इसी जमाते इस्लामी के रजाकारों की मिलीभगत से हुयी थीं . इसलिए जमाते इस्लामी की ख्याति एक खूंखार आतंकी संगठन के रूप में बंगलादेश में मानी जाती है और इसी कारण से सरकार ने उसपर पाबंदी लगा रखी है लेकिन खालिदा जिया , पता नहीं किस मजबूरी के चलते जमात का साथ पकडे हुए हैं .इसी जमाते इस्लामी की मदद से उन्होने २०१३ में कई बार हड़ताल करवाई , हिंसा हुयी और ८५ दिन तक बंद रखवाया .खालिदा जिया के उत्साह का कारण शायद यह है कि कुछ नगरों में हुए मेयर पद के चुनाव में खालिदा जिया की पार्टी ने सत्तधारी पार्टी को बुरी तरह से हरा दिया था .इसीलिए वे चुनाव के पहले एक ऐसी सरकार के अधीन चुनाव संपन्न करवाना चाहती थीं जो शुद्ध रूप से टेक्नोक्रेट लोगों की सरकार हो उसमें कोई राजनीतिक व्यक्ति न हो लेकिन शेख हसीना ने इस बात को यह कह कर खारिज कर दिया कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है .लेकिन खालिदा जिया एक नहीं मानीं . २९ दिसंबर २०१३ को उन्होने एक जुलूस निकाला और उसे मार्च आफ डेमोक्रेसी नाम दिया . उस दौरान बहुत हिंसा हुई . चुनाव के ऐन पहले ४ जनवरी के दिन कई बूथों में आग लगा दी गयी. सडकों पर ब्लाकेड लगा दिए  गए .और ऐसी हालात पैदा कर दिए गए कि सरकार को बहुत सारे  राजनीतिक नेताओं को जेल में डालना पडा .

अब तो  खालिदा जिया बातचीत के लिए तैयार नज़र आती हैं लेकिन हड़ताल और आन्दोलन के दौरान वे विजेता की तरह चलती थीं . बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम मे  भारत के योगदान से कोई नहीं इनकार करता लेकिन बेगम खालिदा जिया भारतीय नेताओं की कोई बात सुनने को तैयार नहीं थीं . राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब बंगलादेश की यात्रा पर गए थे और खालिदा जिया से मुलाक़ात का कार्यक्रम बन चुका था . उसके बावजूद उन्होने मना कर दिया . जमाते इस्लामी वाले प्रधानमंत्री शेख  हसीना  को भारत की कठपुतली साबित करने पर आमादा रहते हैं और उनको सिक्किम के पूर्व मुख्यमंत्री काजी लेंदुप दोरजी की तरह का बताते हैं . आन्दोलन के दौर में खालिदा जिया ने भी कई बार शेख हसीना को काजी लेंदुप दोरजी जैसा कहा जबकि उनको मालूम है कि ऐसा नहीं  है.
लेकिन अब लगता है कि  उनको अहसास हो गया है की ज़्यादा बढ़ बढ़ कर बात करने से कुछ नहीं होने वाला था  और शायद इसीलिये न्यूयार्क टाइम्स को दिये गये इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया कि जमाते इस्लामी से रिश्ता स्थाई नहीं है और दोबारा चुनाव पर भी बात हो सकती है . जहां तक शेख हसीना की बात है वे तो बातचीत का आमंत्रण पहले ही दे चुकी हैं . बस उनकी एक शर्त है कि हिंसा का रास्ता छोड़ना पडेगा 

Sunday, June 2, 2013

म्यांमार में मुसलमानों पर जारी है बौद्ध और सरकारी आतंक का कहर




शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, ३१ मई .म्यांमार में मुसलमानों के ऊपर कहर जारी है . देश में पांच फीसदी आबादी मुसलमानों की है .दुनिया भर के अखबारों में म्यांमार में मुसलमानों के ऊपर हो रहा अत्याचार बड़ी खबर बन रहा है . न्यूयार्क टाइम्स ने तो सम्पादकीय लिखकर इस समस्या पर अमरीका सहित पश्चिमी देशों का ध्यान खींचने की कोशिश की है .मुसलमानों के ऊपर हो रहे इस अत्याचार का नतीजा यह है कि पिछले कई वर्षों से तानाशाही और फौजी हुकूमत झेल रहे म्यांमार के ऊपर मुसीबतों का एक पहाड टूट  पड़ा है . देश की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि अब वहाँ स्थिरता ला पाना बहुत मुश्किल होगा ,देश में लोकतंत्र को स्थिर बनाने की उम्मीदें और दूर चली जायेगीं.
म्यांमार में जातीय और धार्मिक हिंसा का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि वहाँ मुसलमानों को मारने वाले बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और हिंसा को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि बौद्ध धर्म की बुनियाद में अहिंसा सबसे अहम शर्त है .जानकार बताते हैं कि अगर देश के पांच फीसदी मुसलमानों के ऊपर अत्याचार जारी रहा तो वहाँ लोकतंत्र की स्थापना असंभव हो जायेगी ,पहले की तरह तानाशाही निजाम ही चलता रहेगा. म्यांमार में बौद्ध धर्म के अनुयायी बहुमत में हैं.
उत्तरी शहर लाशियो से ख़बरें आ रही हैं कि वहाँ मुसलमानों की दुकानें ,घर और स्कूल जला दिए गए हैं .एक बौद्ध महिला डीज़ल बेच रही थी और उसकी किसी मुस्लिम खरीदार से कहा सूनी हो गयी . बहुमत वाली बौद्ध आबादी के कुछ गुंडे आये और एक मसजिद में आग लगा दी . मुसलमानों ने भी अपनी जान बचाने की कोशिश की . झगड़े में एक मुसलमान की मौत हो गयी जबकि चार बौद्धों को चोटें आयीं . मामूली सी बात पर आगजनी की नौबत आने का मतलब यह है कि म्यांमार में बहुमत वाले बौद्धों में जो लोग धर्म को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते है उनकी संख्या बढ़ रही है . ऐसा लगता है कि लोकतंत्र विरोधियों का एक खेमा भी पूरी तरह से सक्रिय है क्योंकि अगर धार्मिक हिंसा का यह सिलसिला जारी रहा तो पिछले पचास साल से जारी तानाशाही की सत्ता को हटाकर कर लोकतंत्र की स्थापना असंभव है .तानाशाही फौजी सरकार ने मुसलमानों के रोहिंग्या जाति को म्यांमार की नागरिकता ही नहीं दी है .उनकी आबादी पश्चिमी राज्य राखिने में हैं और वहाँ उनको हर तरह का भेदभाव झेलना पड़ता है , अपमानित होना पड़ता है .वहाँ की सरकार ने रोहिंग्या आबादी पर यह पाबंदी लगा रखी है कि एक परिवार में दो बच्चों से ज्यादा नहीं  पैदा किये जायेगें .अगर ज्यादा बच्चे हो गए तो सरकारी प्रताडना का शिकार होना पड़ता है .और देश छोडना पड़ता है . म्यांमार में इस चक्कर में  लाखों मुसलमानों को सज़ा दी जा चुकी है .अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों को रोकने में पुलिस और अन्य सुरक्षाबल पूरी तरह से नाकाम हैं . आरोप हैं कि वे बौद्ध सम्प्रदाय वाले हैं इसलिए मुसलमानों की रक्षा करना ही नहीं चाहते .इस बीच खबर है कि लाशियो के एक बौद्ध मठ में सैकड़ों मुस्लिम परिवारों ने पनाह ली है क्योंकि उनके घरों में बौद्ध गुंडों ने उन्हें घेर लिया था और कुछ घरों में आग भी लगा दी थी .मामला जब बहुत बिगड गया तो सुरक्षा बलों ने हस्तक्षेप किया और  उन लोगों को मठ में पंहुचाया . मयांमार में सुरक्षा बल पिछले पचास साल से लोगों धमकाने के काम में ही ज्यादातर इस्तेमाल होते रहे हैं इसलिए उनसे शान्ति स्थापित करने के काम सफलता की उम्मीद  नहीं की जानी चाहिए .उनको सही ट्रेनिंग देने की ज़रूरत है .

Saturday, June 9, 2012

दिग्विजय सिंह कहा- नितिन गडकरी और रामदेव व्यापारिक हित साध रहे हैं





शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,७ जून. कांग्रेस के  महामंत्री दिग्विजय सिंह ने योग शिक्षक रामदेव पर फिर हमला बोला है . उन्होंने रामदेव से अपील की है कि काले धन के बारे में अभियान चलाना बहुत सही काम है लेकिन रामदेव को सबसे पहले अपने काले धन के बारे में जानकारी सार्वजनिक   करनी चाहिए.दिग्विजय  सिंह ने कहा कि रामदेव के बारे में अब तक उन्होंने जो कुछ भी कहा सब सही साबित हुआ है .उनके खिलाफ काला धन रखने और  टैक्स की चोरी के मामले लंबित हैं . उनके एक सहयोगी पर चार सौ बीसी और हेराफेरी का केस चल रहा है और अपने ऊपर से सरकारी एजेंसियों का ध्यान हटाने के लिए वे  सरकार के खिलाफ उल्टी सीधी बात करते हैं.
दिग्विजय सिंह ने बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का भी  मखौल उड़ाया और कहा  कि जब श्री गडकरी ने रामदेव  के चरण छुए उसी वक़्त नितिन गडकरी की राजनीति की गहराई का पता लग गया. दिग्विजय सिंह ने भी कहा कि नितिन गडकरी और रामदेव दोनों ही व्यापारी हैं और नितिन गडकरी ने अपने व्यापारिक हितों को साधने के लिए अपनी पार्टी को राम देव के चरणों में डाल दिया है. यह काम नितिन  गडकरी और बीजेपी के चाल चरित्र और चेहरे को एक बार फिर उजागर करता है .बीजेपी यह भी पता चला है कि रामदेव  ने भारत छोडो दिवस के दिन ९ अगस्त को दिल्ली में फिर भीड़ जुटाने की योजना बनायी  है . उसके  बाद उनको भारी प्रचार  मिलेगा .लेकिन उसके साथ साथ  ही दवा बेचने की उनकी नई दुकानों के खुलने की घोषणा भी होने वाली है .
कांग्रेस के प्रवक्ता राशिद अल्वी ने कल रामदेव के बारे में कुछ सहानुभूति पूर्ण बयान दिया था . उसके बाद लगने लगा था कि कांग्रेस अब रामदेव को बहुत नाराज़ नहीं करना चाहती . लेकिन आज दिग्विजय सिंह का यह बयान हालत को और भी कन्फ्यूज़ कर देता है . दिल्ली के राजनीतिक दरबारों में राम देव की स्वीकार्यता बढ़ रही है . बीजेपी के अध्यक्ष तो खुले आम उनके चरणों की वंदना कर रहे हैं जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश  के नेता अजित सिंह भी अब  खुल कर रामदेव के समर्थन की बात करने लगे हैं . एन सी पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और कृषि मंत्री शरद पवार भी रामदेव के समर्थकों में शामिल हो गए हैं . हालांकि  रामदेव के  साथी अन्ना हजारे के एक कथित समर्थक ने उन्हें अपमानित किया था . अन्ना के लोगों केंद्र सरकार में जिन मंत्रियोंको भ्रष्ट बताया है उसमें शरद  पवार का नाम भी है. ऐसी हालत में दिल्ली में बात बहुत ही अजीबोगरीब तर्कों के दायरे में घूम रही है. एन सी पी के एक नेता ने कहा कि अब राम देव अपनी औकात पर आ जायेगें क्योंकि अब वे राजनीतिक नेताओं के  दरवाजों पर नज़र आयेगे और दिल्ली में  नेताओं के इर्द गिर्द चक्कर काटने वालों की क्या हालत होती है, यह सभी जानते हैं .

Sunday, May 6, 2012

कैफ़ी आज़मी को गए १० साल होने को आये.





शेष नारायण सिंह 

कैफ़ी को गए धीरे धीरे १० साल हो गए. अवाम के शायर कैफ़ी इस बीच बहुत याद आये लेकिन मैं किसी से कह भी नहीं सकता कि मुझे कैफ़ी की याद आती है . मैं अपने आपको उस  वर्ग का आदमी मानता हूँ जिसने कैफ़ी को करीब से कभी नहीं देखा . लेकिन हमारी पीढी के एक बड़ी जमात के लिए कैफ़ी  प्रेरणा का स्रोत थे. आज उनकी मशहूर नज़्म ' औरत ' के कुछ टुकड़े लिख कर अपने उन दोस्तों तक पंहुचाने की  कोशिश करता हूँ  जो देवनागरी में उर्दू पढ़ते हैं . इस नज़्म को पढ़ते हुए  मुझे अपनी दोनों बेटियाँ  याद आती थीं. मैं गरीबी में बीत रहे उनके बचपन को इस नज़्म  के टुकड़ों से  बुलंदी देने की कोशिश करता था .हालांकि यह नज़्म मैंने  कभी भी पूरी पढ़ कर नहीं सुनायी लेकिन इसके टुकड़ों को हिन्दी या अंग्रेज़ी में अनुवाद करके उनको समझाया करता था  शुक्र  है कि उन्होंने  मेरी भावनाओं की कद्र की और इंसानी बुलंदियों का उनका सफ़र खुशगवार तरीके से गुज़र रहा है .अपने दोस्त खुर्शीद अनवर ने एक बार लिखा था कि कैफ़ी ने  "उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे " कह कर लगाम अपने  हाथ में ले ली थी. लेकिन  यह नज़्म चालीस के दशक की है और उस वक़्त की क्रांतिकारी नज्मों में से एक है . दूसरी जंग के बाद के  दौर में  यह नज़्म बार बार गई गयी है .


 
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए 
फ़र्ज़  का भेस बदलती है फ़ज़ा तेरे लिए 
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए 
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए 
रुत बदल डाल अगर फूलना-फलना है तुझे
उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे 

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं 
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं 
तू हक़ीक़त भी  है दिलचस्प  कहानी ही नहीं 
तिरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं 
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे 
उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे