शेष नारायण सिंह
कैफ़ी को गए धीरे धीरे १० साल हो गए. अवाम के शायर कैफ़ी इस बीच बहुत याद आये लेकिन मैं किसी से कह भी नहीं सकता कि मुझे कैफ़ी की याद आती है . मैं अपने आपको उस वर्ग का आदमी मानता हूँ जिसने कैफ़ी को करीब से कभी नहीं देखा . लेकिन हमारी पीढी के एक बड़ी जमात के लिए कैफ़ी प्रेरणा का स्रोत थे. आज उनकी मशहूर नज़्म ' औरत ' के कुछ टुकड़े लिख कर अपने उन दोस्तों तक पंहुचाने की कोशिश करता हूँ जो देवनागरी में उर्दू पढ़ते हैं . इस नज़्म को पढ़ते हुए मुझे अपनी दोनों बेटियाँ याद आती थीं. मैं गरीबी में बीत रहे उनके बचपन को इस नज़्म के टुकड़ों से बुलंदी देने की कोशिश करता था .हालांकि यह नज़्म मैंने कभी भी पूरी पढ़ कर नहीं सुनायी लेकिन इसके टुकड़ों को हिन्दी या अंग्रेज़ी में अनुवाद करके उनको समझाया करता था शुक्र है कि उन्होंने मेरी भावनाओं की कद्र की और इंसानी बुलंदियों का उनका सफ़र खुशगवार तरीके से गुज़र रहा है .अपने दोस्त खुर्शीद अनवर ने एक बार लिखा था कि कैफ़ी ने "उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे " कह कर लगाम अपने हाथ में ले ली थी. लेकिन यह नज़्म चालीस के दशक की है और उस वक़्त की क्रांतिकारी नज्मों में से एक है . दूसरी जंग के बाद के दौर में यह नज़्म बार बार गई गयी है .
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है फ़ज़ा तेरे लिए
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फूलना-फलना है तुझे
उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तिरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे