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Tuesday, January 14, 2014

बंगलादेश में राजनीतिक अस्थिरता और भारतीय डिप्लोमेसी की अग्निपरीक्षा


शेष नारायण सिंह
बंगलादेश में आम चुनाव हो गए लेकिन चुनाव नतीजों पर भारी सवाल खड़े हो गए हैं . ५ जनवरी को हुए चुनाव की वैधता पर मुख्य विपक्षी पार्टी  बांग्लादेश नैशनल पार्टी (बी एन पी) के बहिष्कार ने सवालिया निशान लगा दिया है .सत्ताधारी पार्टी ,अवामी लीग में नतीजे आने के बाद जश्न का माहौल है, .अवामी लीग  के नेता और प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा  है कि विपक्ष की मांगें नाजायज़ थीं और तथाकथित मांगों के बहाने संविधान के हिसाब से चुनाव करवाने की सरकार की कोशिश में डाला गया अडंगा बेमतलब है .बहरहाल सत्ताधारी पार्टी ,अवामी लीग ने  जातीय संसद (कौमी असेम्बली ) की ३०० में से २३२  सीटें जीत ली हैं और अब शेख हसीना के पास भारी बहुमत है लेकिन विपक्ष की नेता खालिदा जिया इस जीत को मान्यता देने को तैयार नहीं हैं . इस बीच अमरीका ने भी  सुझाव दे दिया है कि  दोबारा चुनाव कराया जाना चाहिए . दक्षिण एशिया में अमरीका की ताक़त को देखते हुए यह माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना को दोबारा चुनाव करवाना पड़ सकता है . बंगलादेश के चुनाव आयोग के शुरुआती आंकड़ों के अनुसार पांच जनवरी को हुए मतदान में करीब ४० प्रतिशत लोगों ने वोट डाला है . जाहिर है कि  चुनाव के बहिष्कार की खालिदा जिया की लाइन का ख़ासा असर पड़ा है . खालिदा जिया को शेख हसीना का विरोध करने के लिए जमाते इस्लामी का सहयोग मिल रहा है .
शेख हसीना भी बंगलादेश नैशनल पार्टी और उसकी नेता खालिदा जिया को कोई रियायत देने के लिए तैयार नहीं हैं . उन्होने चुनाव के अगले दिन बिलकुल साफ़ कर दिया कि मुख्य विपक्षी पार्टी जमाते इस्लामी के हाथों खेल रही है. जब उनसे पूछा गया कि क्या वे मौजूदा राजनीतिक हालात में विपक्ष से बात चीत करने के बारे में सोच रही हैं तो उन्होने साफ़ कह दिया कि जब ततक विपक्ष हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ देता तब तक किसी तरह की बात नहीं की जायेगी . उन्होंने कहा कि आज  लोकतंत्र के दामन पर बेगुनाह लोगों के खून के दाग लगा दिए गए हैं  .हमारे लोकतंत्र पर उन लोगों के आंसू का क़र्ज़ है जिन्होंने २०१३ में राजनीतिक हिंसा का सामना किया और अपनी जान गंवाई . आज राष्ट्र की चेतना पर राजनीतिक लाभ के लिए  हिंसा का सहारा लेने वालों  ने भारी हमला किया है और  उनको बातचीत का मौक़ा तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक वे हिंसा का रास्ता छोड़ न दें . शेख हसीना ने पत्रकारों को बताया कि उन्होने सेना  को हुक्म दे दिया है कि चुनाव के बाद भी जो आतंकवादी हिंसा जारी है उसको ठीक करने के लिए  सख्ती का  तरीका भी अपनाया जा सकता है .
 विपक्ष की नेता खालिदा ज़िया भी शुरू में अपने रुख में किसी तरह का  बदलाव करने को तैयार नहीं थीं  .उन्होने  कहा था कि यह चुनाव पूरी तरह से फर्जी है ,उनके आवाहन पर पूरे देश ने चुनाव का बहिष्कार किया है और मतदान का प्रतिशत किसी भी हालत में १० प्रतिशत से ज्यादा नहीं है . उन्होंने कहा कि सरकार की तरफ से जो ४० प्रतिशत मतदान की बात की जा रही है ,वह  भी फर्जी है . लेकिन शेख हसीना की सरकार की तरफ से मिल रहे सख्ती के संकेतों के बाद बी एन पी की नेता खालिदा जिया का रवैया भी बदला है . हालांकि वे चुनाव को अभी भी फर्जी बता रही हैं और सरकार पर हर तरह की बेईमानी करने के आरोप लगा रही  हैं लेकिन अब उनकी बोली बदली हुयी है और कह रही हैं की वे सरकार से बात चीत करने के सुझाव पर विचार कर सकती हैं लेकिन उनकी शर्त  है की उनकी पार्टी के उन नेत्ताओं को रिहा कर दिया  जाये जिनको राजनीतिक कारणों से जेलों में बंद कर दिया गया है . देश में पांच जनवरी को हुए  आम चुनाव के पहले बड़े पैमाने पर राजनीतिक नेताओं की धरपकड़ हुयी थी . खालिदा जिया का कहना है कि  अगर सरकार बातचीत करना चाहती है तो उन नेताओं को छोड़ना पडेगा .उन्होने कहा कि  जो नेता अभी जेलों में नहीं बंद हैं वे भी डर के मारे कहीं छुपे हुए हैं .ज़ाहिर है कि बातचीत  करने  के लिए सरकार को बातचीत का माहौल बनाना  पडेगा . खालिदा जिया को चुनाव के एक हफ्ते पहले से ही उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया था और किसी को भी उनसे मिलने की अनुमति नहीं दी गेई थी लेकिन चुनाव के बाद अमरीकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स के संवाददाता को मिलने दिया गया . उसके साथ हुयी बातचीत में खालिदा जिया ने कहा कि वे जमाते इस्लामी से भी दोस्ताना सम्बन्ध ख़त्म करने पर विचार कर सकती हैं .उन्होने संवाददाता को बताया कि  जमात के साथ उनको कोई परमानेंट सम्बन्ध नहीं है . उनसे पूछा गया कि क्या ज़रुरत पड़ने पर वे जमाते इस्लामी के साथ संबंधों को खत्म भी कर सकती हैं  तो बी एन पी की अध्यक्ष ने कहा कि अभी  तुरंत तो खत्म नहीं कर सकती लेकिन जब वक़्त आयेगा तो विचार किया जा सकता है .यानी राजनीतिक सुविधा अगर आकर्षक लगी तो खालिदा जिया जमाते इस्लामी वालों को औकात बता सकती हैं .
उधर अमरीका और ब्रिटेन ने चुनाव नतीजों को नाकाफी बताकर माहौल में असमंजस की स्थिति पैदा कर दिया है . १९९६ का उदाहरण दिया जा रहा  है जब सत्ताधारी पार्टी बंगलादेश नैशनल पार्टी थी और खालिदा जिया प्रधानमंत्री थीं . शेख हसीना की अवामी लीग ने चुनाव के बहिष्कार का आवाहन किया था . बहुत कम लोग वोट डालने आये थे . लेकिन दुनिया ,  भर के नेताओं के दबाव के बाद खालिदा जिया ने  चार महीने बाद ही दोब़ारा चुनाव करवा दिया था . अमरीका  ब्रिटेन और खालिदा जिया इस बार भी वही उम्मीद कर रहे हैं कि शायद १९९६ की तरह इस बार  भी  शेख हसीना पर दबाव डालकर दोबारा चुनाव करवाया जा सकता है . लगता है कि शेख हसीना भी  इस संभावना पर विचार कर रही हैं क्योंकि उन्होंने भी मीडिया के ज़रिये मुख्य विपक्षी पार्टी को सुझाव दे दिया  है की बातचीत के बिना कोई रास्ता नहीं निकाला जा सकता .
उधर खालिदा जिया और उनके साथी यह कहकर चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं कि अवामी लीग सरकार को इस्तीफ़ा देकर कार्यवाहक सरकार की निगरानी में चुनाव कराने चाहिए था .सत्ताधारी पार्टी विपक्ष की इस मांग को ये कहते हुए सिरे से ख़ारिज़ कर चुकी है कि चुनाव एक संवैधानिक ज़रूरत है और समय से चुनाव होना ज़रूरी है  क्योंकि जब २४ जनवररी को संसद का कार्यकाल ख़त्म हो रहा है तो उसके ९० दिन के पहले चुनाव की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है लेकिन सत्ता की उम्मीद लगाए बैठी बांगलादेश नैशनल पार्टी की अध्यक्ष खालिदा जिया कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं . वे एक तरह से जमाते इस्लामी की आवाज़ में बात कर रही है . सबको  मालूम है कि १९७१ में जमाते इस्लामी की भूमिका  बंगलादेश की स्थापना  के विरोध में थी . सबको यह भी मालूम है कि जब जनरल याहया खान ने १९७१ में बंगलादेश के  मुक्ति संग्राम को कुचल देने के लिए ढाका में जनरल टिक्का खान को तैनात किया था तो  बलात्कार की सारी घटनाएं इसी जमाते इस्लामी के रजाकारों की मिलीभगत से हुयी थीं . इसलिए जमाते इस्लामी की ख्याति एक खूंखार आतंकी संगठन के रूप में बंगलादेश में मानी जाती है और इसी कारण से सरकार ने उसपर पाबंदी लगा रखी है लेकिन खालिदा जिया , पता नहीं किस मजबूरी के चलते जमात का साथ पकडे हुए हैं .इसी जमाते इस्लामी की मदद से उन्होने २०१३ में कई बार हड़ताल करवाई , हिंसा हुयी और ८५ दिन तक बंद रखवाया .खालिदा जिया के उत्साह का कारण शायद यह है कि कुछ नगरों में हुए मेयर पद के चुनाव में खालिदा जिया की पार्टी ने सत्तधारी पार्टी को बुरी तरह से हरा दिया था .इसीलिए वे चुनाव के पहले एक ऐसी सरकार के अधीन चुनाव संपन्न करवाना चाहती थीं जो शुद्ध रूप से टेक्नोक्रेट लोगों की सरकार हो उसमें कोई राजनीतिक व्यक्ति न हो लेकिन शेख हसीना ने इस बात को यह कह कर खारिज कर दिया कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है .लेकिन खालिदा जिया एक नहीं मानीं . २९ दिसंबर २०१३ को उन्होने एक जुलूस निकाला और उसे मार्च आफ डेमोक्रेसी नाम दिया . उस दौरान बहुत हिंसा हुई . चुनाव के ऐन पहले ४ जनवरी के दिन कई बूथों में आग लगा दी गयी. सडकों पर ब्लाकेड लगा दिए  गए .और ऐसी हालात पैदा कर दिए गए कि सरकार को बहुत सारे  राजनीतिक नेताओं को जेल में डालना पडा .

अब तो  खालिदा जिया बातचीत के लिए तैयार नज़र आती हैं लेकिन हड़ताल और आन्दोलन के दौरान वे विजेता की तरह चलती थीं . बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम मे  भारत के योगदान से कोई नहीं इनकार करता लेकिन बेगम खालिदा जिया भारतीय नेताओं की कोई बात सुनने को तैयार नहीं थीं . राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब बंगलादेश की यात्रा पर गए थे और खालिदा जिया से मुलाक़ात का कार्यक्रम बन चुका था . उसके बावजूद उन्होने मना कर दिया . जमाते इस्लामी वाले प्रधानमंत्री शेख  हसीना  को भारत की कठपुतली साबित करने पर आमादा रहते हैं और उनको सिक्किम के पूर्व मुख्यमंत्री काजी लेंदुप दोरजी की तरह का बताते हैं . आन्दोलन के दौर में खालिदा जिया ने भी कई बार शेख हसीना को काजी लेंदुप दोरजी जैसा कहा जबकि उनको मालूम है कि ऐसा नहीं  है.
लेकिन अब लगता है कि  उनको अहसास हो गया है की ज़्यादा बढ़ बढ़ कर बात करने से कुछ नहीं होने वाला था  और शायद इसीलिये न्यूयार्क टाइम्स को दिये गये इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया कि जमाते इस्लामी से रिश्ता स्थाई नहीं है और दोबारा चुनाव पर भी बात हो सकती है . जहां तक शेख हसीना की बात है वे तो बातचीत का आमंत्रण पहले ही दे चुकी हैं . बस उनकी एक शर्त है कि हिंसा का रास्ता छोड़ना पडेगा 

Friday, January 15, 2010

स्थिर और खुशहाल बंगलादेश भारत के हित में है .

शेष नारायण सिंह


बंगला देश की प्रधान मंत्री शेख हसीना वाजेद की भारत यात्रा सही मायनों में ऐतिहासिक रही ..ख़ास कर खालिदा जिया के ६ साल के कुशासन के बाद लगता है कि बंगलादेश में बदलाव की बयार बह रही है .. भारत ने भी शेख हसीना का ज़ोरदार स्वागत किया . उन्हें इंदिरा गाँधी शान्ति पुरस्कार से नवाज़ा और उनके साथ ऐसे समझौते किये जो उनको अपने मुल्क में राजनीतिक मजबूती देंगें ..भारत ने बंगलादेश को करीब ५ हज़ार करोड़ रूपये की लाइन ऑफ़ क्रेडिट देने का फैसला किया है जो कि वहां की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए आक्सीजन का काम करेगी. . पिछले कुछ वर्षों में बंगलादेश, भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बनता जा रहा था जिसकी वजह से दोनों देशों के बीच रिश्ते बहुत ही खराब होने का ख़तरा बना हुआ था . ऐसा शायद इस लिए हो रहा था कि पूर्व प्रधानमंत्री, खालिदा जिया की सोच ऐसी थी जिसके तहत भारत को सबसे ख़ास दोस्त मानने से उनकी संप्रभुता पर आंच आ सकती थी . शायद इसीलिए उन्होंने बहुत सारे ऐसे काम किये जिससे भारत विरोध की बू आती थी. दोनों देशों के बीच रिश्ते खराब होने का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने भारत विरोधी लोगों को महत्व दिया , बंगलादेश में रहने वाले उन लोगों को संरक्षण दिया जो भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियाँ चलाते हैं , धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जिसकी वजह से भारत से उनके रिश्ते बहुत बिगड़ गए. सही बात यह है कि बेगम खालिदा के वक़्त में भारत के साथ बंगलादेश के रिश्ते बहुत खराब थे .इस चक्कर में बंगलादेशी हुक्मरान ने बहुत सारे ऐसे फैसले भी लिए जिससे उनका नुकसान ज्यादा हो रहा था लेकिन भारत के खिलाफ बाकी दुनिया में शेखी मारने में मदद मिलती थी. . इस तरह का एक फैसला ट्रांस एशियन हाइवे प्रोजेक्ट का था . जिस से बंगलादेश को तो लाभ होता ही लेकिन भारत का ज्यादा लाभ होता . खालिदा जिया ने उस पर रोक लगा दी क्योंकि वे भारत की पक्षधर के रूप में नहीं देखी जाना चाहती थीं. उनको लगता था कि भारत के सामने अपनी नक़ली शान दिखाने से उनकी संप्रभुता को ताक़त मिलती है . दुनिया जानती है कि बंगलादेश की अर्थव्यवस्था आज मुश्किल दौर से गुज़र रही है . शेख हसीना की भारत यात्रा को बहुत ही उपयोगी बनाने में भारत ने भी कोई कसर नहीं छोडी है .नेपाल और भूटान से बंगलादेश के व्यापार को बढ़ावा देने के दिशा में भारत ने बहुत ही अहम् फैसला किया . अब इन दोनों देशों से बंगलादेशी व्यापारियों को काम करने में बहुत सुविधा रहेगी क्योंकि भारत ने ट्रांज़िट की बात को मान लिया है .भारत आतंकवाद से परेशान है लेकिन बंगलादेश उस से भी ज्यादा पीड़ित देश है. वहां तो एक मौक़ा ऐसा भी आया था जब कि शेख हसीना की पार्टी, अवामी लीग के सभी बड़े नेता काल के गाल में चले गए होते जब अगस्त २००४ में उनकी एक रैली के ऊपर बम फेंके गए थे . इस मुद्दे पर दोनों देशों के बीच समझदारी होनी चाहिए . शेख हसीना की सरकार ने आतंक् से मुकाबला करने के लिए कई महत्वपूर्ण क़दम उठाये हैं.. आतंकवादियों के संगठनों को तबाह किया है ,भारत के खिलाफ काम करने वाले आतंकवादी संगठनों के बड़े नेताओं को पकड़ा है, इस से लगता है कि इस क्षेत्र को आतंकवादियों का स्वर्ग न बनने देने की शेख हसीना की चुनावी घोषणा को उनकी सरकार गंभीरता से ले रही है और भारत सरकार उसमें पूरी मदद कर रही है .. शेख हसीना और खालिदा जिया के बीच बुनियादी फर्क भी है . हसीना ने बंगलादेश देश की मुक्ति के आन्दोलन में हिस्सा लिया था और सच्ची बात यह है कि बंगलादेश की आज़ादी में उनका बहुत कुछ दांव पर लगा था. उनके स्वर्गीय पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने तो बंगलादेश की मुक्ति के संग्राम का नेतृत्व किया था लेकिन ढाका की सडकों पर जो लाखों नौजवान उस वक़्त के पाकिस्तानी तंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए निकल पड़े थे , शेख हसीना भी उसमें शामिल थीं. और बंगलादेश की आज़ादी के बाद फौज के कुछ बागियों ने उनके पूरे परिवार को ख़त्म कर दिया था जिसमें उनके पिता मुजीबुर्रहमान भी थे . शेख हसीना को मालूम है कि आजादी के लिए कैसे कुर्बानी दी जाती है .और वह उन्होंने दी है . इसलिए उस आजादी के रक्षा के लिए वे वह सब कुछ करेगीं जो करना चाहिए.

ऐसी स्थिति में भारत का भी फ़र्ज़ है कि वह उन्हें पूरी मदद दे क्योंकि भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से हालात ऐसे हैं कि भारत की सुरक्षा भी बंगलादेश की स्थिरता और खुशहाली से जुडी हुई है . क्योंकि अगर वहां मजबूती होगी तो भारत में भी चैन की सांस ली जा सकेगी. हो सकता है कि ऐसा करने में भारत को थोडा आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़े लेकिन आर्थिक नुकसान उठा कर सुरक्षा को मुकम्मल करना भी कूटनीति का एक प्रमुख हिस्सा है . बहरहाल शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान हुए समझौतों और फैसलों से इस इलाके की जनता को राहत मिलेगी इसमें कोई दो राय नहें है ...हाँ एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी रहेगा कि दोनों देशों के बीच होने वाले समझौतों में बहुत सारा राजनीतिक तत्व रहता है इसलिए उसमें राजनीति को प्रमुख भूमिका अदा करनी पड़ेगी .अगर सब कुछ नौकरशाहों के हवाले कर दिया गया तो सब कुछ लाल फीताशाही हजम कर जायेगी और सरकारें ताकती रह जायेंगीं.ऐसा एक बार हो चुका है जब भारत सरकार ने बंगलादेश को चावल देने की घोषणा की थी और वह वहां पंहुचा ही नहीं . सारा मामला नौकरशाही की भूल भुलैया में फंस कर रह गया..

Wednesday, December 16, 2009

बंगलादेश--इंसानी हौसलों की जीत का मुल्क

शेष नारायण सिंह


३८ साल पहले बंगलादेश का जन्म हुआ था. और उसके साथ ही असंभव भौगोलिक बंटवारे का एक अध्याय ख़त्म हो गया था. नए राष्ट्र के संस्थापक , शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बंगलादेश की आज़ादी का आन्दोलन भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया.. बंगलादेश का जन्म वास्तव में दादागीरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक़्त ने जड़ दिया था. आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पंहुच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही १९४७ में रख दी गयी थी लेकिन इस उप महाद्वीप की ६० के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज़ रफ़्तार दे दी थी.. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो गयी. . प्रधानमंत्री लियाक़त अली को पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे ,. और उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया. जब जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो वहां गैर ज़िम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज़ हो गया.. याह्या खां की हुकूमत पाकिस्तानी इतिहास में सबसे गैर ज़िम्मेदार सत्ता मानी जाती है. ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते , जनरल याहया खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने क्लब का ही विस्तार समझा था . मानसिक रूप से कुंद ,याहया खान किसी न किसी की सलाह पर ही निर्भर करते थे , उन्हें अपने तईं राज करने की तमीज नहीं थी. कभी प्रसिद्द गायिका नूरजहां की राय मानते ,तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की. सच्ची बात यह है कि सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याहया खान से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए..ऐसा ही एक मूर्खतापूर्ण फैसला था कि जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ( संसद) में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी, अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया..पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ़ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सडकों पर आ गए. . मुक्ति का युद्ध शुरू हो गया, मुक्तिबाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना हो गयी.. इस तरह १६ दिसंबर १९७१ का दिन बंगलादेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया. दूसरी तरफ बचे खुचे पाकिस्तान के इतिहास में यह तारीख सबसे काले अक्षरों में लिख दी गयी. . उसकी फौज के करीब १ लाख सैनिको ने घुटने टेक दिए और भारतीय सेना के सामने समर्पण कर दिया. . बाद में बंगलादेश ने भी बहुत परेशानियां देखीं , शेख मुजीब को ही शहीद कर दिया गया. वहां भी फौज ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया, कई बार तो वही लोग सत्ता पर काबिज़ हो गए जो पाकिस्तानी आततायी, जनरल टिक्का खान के सहयोगी रह चुके थे. लेकिन अब वहां लोकशाही की स्थापना हो चुकी है और शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना ने नागरिक प्रशासन को मजबूती देने की कोशिश शुरू कर दी है..
बंगलादेश का गठन इंसानी हौसलों की फ़तेह का एक बेमिसाल उदाहरण है..जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगा, उसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था. सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज ने वे सारे अत्याचार किये, जिनकी कल्पना की जा सकती है .. .आतंक का राज कायम कर रखा था सेना ने .. लोगों को पकड़ पकड़ कर मार रहे थे पाकिस्तानी फौजी. बलात्कार की घटनाएं उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में जितना हुईं उतनी शायद ज्ञात इतिहास में कहीं भी ,कभी न हुई हों .. लेकिन बंगलादेशी नौजवान भी किसी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं था. जिस समाज में बलात्कार पीड़ित महिलाओं को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता था उसी समाज में स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना के बाद पूरे देश का नौजवान उन लड़कियों से शादी करके उन्हें सामान्य जीवन देने के लिए आगे आया. और पाकिस्तानी फौज के सबसे खूंखार हाथियार को भोथरा कर दिया.जिन लोगों ने उस दौर में बंगलादेशी युवकों का जज्बा देखा है वे जानते हैं कि इंसानी हौसले पाकिस्तानी फौज़ जैसी खूंखार ताक़त को भी शून्य पर ला कर खड़ा कर सकते हैं .. . बंगलादेश की स्थापना में भारत और उस वक़्त की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी का भी योगदान है . सच्चाई यह है कि अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बंगलादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता..

लेकिन यह बात भी सच है कि अपनी स्थापना के इन ३८ वर्षों में बंगलादेश ने बहुत सारी मुसीबतें देखी हैं . अभी वहां लोकशाही की जड़ें बहुत ही कमज़ोर हैं..शेख हसीना एक मज़बूत, दूरदर्शी और समझदार नेता तो हैं लेकिन उनको उखाड़ फेंकने के लिए अभी तक वही शक्तियां जोर मार रही हैं जिन्होंने बंगलादेश की स्थापना का विरोध किया था या उनके परिवार को ही ख़त्म कर दिया था . इस लिए अपने पड़ोसी देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए भारत को शेख हसीना को हर तरह की मदद देनी होगी. लगभग उसी तरह की मदद,जैसी १९७१ में दी गयी थी.