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Wednesday, December 22, 2010

अलविदा ब्रायन हनरहन

शेष नारायण सिंह

बीबीसी के कूटनीतिक सम्पादक ब्रायन हनरहन की ६१ साल की उम्र में लन्दन में मृत्यु हो गयी. उन्हें कैंसर हो गया था. १९७० में बीबीसी से जुडे ब्रायन हनरहन ने हालांकि क्लर्क के रूप में काम शुरू किया था लेकिन बाद वे बहुत नामी रिपोर्टर बने . भारत में उन्हें पहली बार १९८४ में नोटिस किया गया जब वे मार्क टली और सतीश जैकब के साथ इंदिरा गाँधी की हत्या की रिपोर्ट करने वाली टीम के सदस्य बने . इंदिरा गाँधी की हत्या की रिपोर्ट करके बीबीसी ने पत्रकारिता की दुनिया में अपनी हैसियत को और भी बड़ा कर दिया था . यह वह दौर था जब बीबीसी की हर रिपोर्ट को पूरा सच माना जाता था .ब्रायन हनरहन हांग कांग में रहकर एशिया की रिपोर्टिंग करते थे . बीबीसी ने ही बाकी दुनिया को बताया था कि इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी थी जबकि सरकारी तौर पर इस बात को बहुत बाद में घोषित किया गया. इंदिरा गाँधी की हत्या के दौरान भारत की राजनीति बहुत भरी उथल पुथल से गुज़र रही थी .पंजाब में आतंकवाद उफान पर था . पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था और उन्होंने बंगलादेश की हार का बदला लेने का मंसूबा बना लिया था . उनको भरोसा था कि आतंकवादियों को सैनिक और आर्थिक मदद देकर वे पंजाब में खालिस्तान बनवाने में सफल हो जायेगें. इंदिरा गाँधी के एक बेटे की बहुत ही दुखद हालात में मौत हो चुकी थी वे अन्दर से बहुत कमज़ोर हो चुकी थीं . हालांकि राजीव गाँधी राजनीति में शामिल हो चुके थे और कांग्रेस पार्टी के महासचिव के रूप में काम कर रहे थे लेकिन आम तौर पर माना जा रहा था कि अभी उनके प्रधान मंत्री बनने का समय नहीं आया था. लोगों को उम्मीद थी कि वे कुछ वर्षों बाद ही प्रधान मंत्री बनेगें . इंदिरा गाँधी की उम्र केवल ६७ साल की थी और लोग सोचते थे कि वे कम से कम १० साल तक और सत्ता संभालेगीं. दिल्ली में अरुण नेहरू और उनके साथियों की तूती बोलती थी . यह सारी बातें दुनिया को बीबीसी ने बताया जिसके सदस्यों में ब्रायन हनरहन भी एक थे . यह अलग बात है कि इस टीम के सबसे बड़े पत्रकार तो मार्क टली ही थे .इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद १ नवम्बर से शुरू हुए सिख विरोधी दंगों और राजीव गाँधी की ताजपोशी की रिपोर्ट करने में भी बीबीसी ने दुनिया भर में अपनी धाक जमाई थी . सिख विरोधी दंगोंमें कांग्रेस के कई मुकामी नेता शामिल थे और जब बीबीसी ने सबको बता दिया कि सच्चाई क्या है तो किसी की भी हिम्मत सच को तोड़ने की नहीं पड़ी. यह ब्रायन हनरहन की रिपोर्टिंग की ज़िंदगी का दूसरा बड़ा काम था . वे इसके पहले ही अपनी पहचान बना चुके थे. उन्होंने ब्रिटेन के फाकलैंड युद्ध की रिपोर्टिंग की थी और बीबीसी रेडियो के श्रोताओं में उनकी पहचान बन चुकी थी. हांग कांग में अपनी तैनाती के दौरान ब्रायन हनरहन ने दुनिया को बताया था कि कम्युनिस्ट चीन में डेंग शियाओपिंग ने परिवर्तन का चक्र घुमा दिया है . बाद में वे १९८९ में चीन फिर वापस गए और तियान्मन चौक से रिपोर्ट किया . इ ससाल के नोबेल पुरस्कार विजेता लिउ जियाबाओ के बारे में पहली रिपोर्ट १९८९ में ब्रायन हनरहन ने ही की थी .१९८६ में जब रूस में गोर्बाचेव की परिवर्तन की राजनीति शुरू हुई तो ब्रायन हनरहन बतौर नामाबर मौजूद थे. पश्चिम की दुनिया को उन्होंने ही बताया कि रूस में पेरेस्त्रोइका और ग्लैस्नास्त के प्रयोग हो रहे हैं . गोर्बाचेव की इन्हीं नीतियों के कारण और बाद में सोवियत संघ का विघटन हुआ... कोल्ड वार के बाद पूर्वी यूरोप में जो भी परिवर्तन हुए उनके गवाह के रूप में ब्रायन लगभग हर जगह मौजूद थे .जब जर्मन अवाम ने बर्लिन की दीवार पर पहला हथौड़ा मारा तो बीबीसी ने वहीं मौके से रिपोर्ट किया था और वह रिपोर्ट ब्रायन की ही थी .बर्लिन दीवार का ढहना समकालीन इतिहास की बड़ी घटना है और हमें उसका आँखों देखा हाल ब्रायन ने ही बताया था. बीबीसी रेडियो और टेलिविज़न के दर्शक उनकी रिपोर्ट को बहुत दिनों तक याद रखेगें . जब अमरीका पर ११ सितम्बर २००१ को आतंकवादी हमला हुआ तो ब्रायन हनरहन बीबीसी स्टूडियो में मौजूद थे और उनकी हर बात पर बीबीसी के टेलिविज़न के श्रोता को विश्वास था.बाद में उन्होंने न्यू यार्क जाकर अमरीका की एशियानीति को करवट लेते देखा था और पूरी दुनिया को बताया था . एशिया की बदली राजनीतिक हालात के चश्मदीद के रूप में उन्होंने आतंकवादी हमलों की बारीकी को दुनिया के सामने खोल कर रख दिया था. बीबीसी रेडियो के रिपोर्टर के रूप में ब्रायन ने पोलैंड में सत्ता परिवर्तन और उस से जुडी राजनीति को बहुत बारीकी से समझा था और उसे रिपोर्ट किया था. जब पोलैंड में राष्ट्रपति के रूप में कम्युनिस्ट विरोधी लेक वालेंचा ने सत्ता संभाली थी तो ब्रायन हनरहन वहां मौजूद थे. उन्होंने पोप जान पाल द्वितीय की मृत्यु और उनके उत्तराधिकारी के गद्दी संभालने की घटना को बहुत ही करीब से देखा था और रिपोर्ट किया था.एशिया और पूर्वी यूरोप की राजनीति के जानकार के रूप में ब्रायन हनरहन को हमेशा याद किया जाएगा . ब्रायन अपने पीछे पत्नी, आनर हनरहन और एक बेटी छोड़ गए हैं

Sunday, November 14, 2010

सुदर्शन से पल्ला नहीं झाड़ सकते आर एस एस के नेता

शेष नारायण सिंह

बी जे पी से अलग होकर राजनीतिक लड़ाई लड़ने की आर एस एस की कोशिश को ज़बरदस्त धक्का लगा है . बड़े जोर शोर से जुटने के बाद आर एस एस के धरनों पर इतने आदमी भी नहीं जुट पाए कि पुलिस को कोई अलग से बंदोबस्त करना पड़े. नतीजा साफ़ है . आर एस एस के नेता बौखला गए हैं . इसी बौखलाहट में बेचारे उल जलूल बयान दे रहे हैं . आर एस एस के पूर्व मुखिया सुदर्शन ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के खिलाफ बहुत ही अमर्यादित टिप्पणी कर डाली. उन्हें सी आई से एजेंट कहा और आरोप लगाया कि इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की ह्त्या में भी सोनिया गाँधी का हाथ था. ऊपरी तौर पर देखें तो यह किसी पागल का बयान लगता है लेकिन ऐसा है नहीं .जो व्यक्ति देश के सबसे बड़े आतंकवादी संगठन का मुखिया रह चुका हो,तत्कालीन प्रधान मंत्री और गृह मंत्री जिस के हुक्म से काम करते हों, प्रेस के सामने दिए गए उसके बयान को पागल का बयान कहना ठीक नहीं है . यह बयान आर एस एस के धरने पर बैठे लोगों के बीच में दिन भर वक़्त बिताने के बाद ही सुदर्शन ने दिया है . वह पूरे होशो हवास में दिया गया बयान है.ऐसे राज्य की राजधानी के मुख्य धरना स्थल से दिया गया है जहां आर एस एस की सरकार है .ऐसी हालत में इस बयान को सुदर्शन का अपना दृष्टिकोण यह कहकर टालना संभव नहीं है . हालांकि आर एस एस के आला नेतृत्व ने कोशिश शुरू कर दी है कि सुदर्शन से किनारा कर लिया जाय. उनके बयान को नकार कर के जान बचाई जाय. आर एस एस के प्रभाव वाले मीडियाकर्मी सक्रिय हो गए हैं और प्रचार किया जा रहा है कि सुदर्शन वास्तव में थोडा खिसक गए हैं . इसीलिए आर एस एस की परंपरा से हटकर उन्हें पद से बर्खास्त किया गया था. आर एस एस का नेतृत्व उनको एक गैरजिम्मेदार आदमी के रूप में पेश करके सोनिया के बारे में दिए गए उनके बयान से पल्ला झाड़ने की कोशिश में है . लेकिन लगता है कि यह संभव नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस वाले भी अपनी सर्वोच्च नेता की शान में की गयी गुस्ताखी को राजनीतिक रंग देकर आर एस एस को उसकी औकात बताने की राजनीति पर उतर आये हैं. तोड़ फोड़ और सडकों पर तूफ़ान मचाने में कांग्रेसी भी आर एस एस वालों से कम नहीं होते. बस उनको मौक़ा मिलना चाहिए . और लगता है कि पार्टी के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने यह मौक़ा दे दिया है . उन्होंने जब सुदर्शन की टिप्पणी पर उसकी थुक्का फजीहत करने के लिए पत्रकारों से बात की तो तर्ज लगभग वहीं था जो इंदिरा जी की हत्या के बाद राजीव गाँधी के बयान में था . जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आर एस एस के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर करते वक़्त शान्ति बनाए रखनी चाहिए . साधारण राजनीतिक आचरण की भाषा में इसका अनुवाद करने पर पता चलेगा कि यह मार पीट करने का संकेत है. इसका भावार्थ यह हुआ कि आने वाले कुछ दिनों में कांग्रेसी नौजवान आर एस एस वालों को अपने हमलों का निशाना बनायेगें. अपने को ज़्यादा वफादार साबित करने की कोशिश में कांग्रेसी नेता सक्रिय हो गए हैं .कोई सुदर्शन के खिलाफ आपराधिक मामला चलाने की बात कर रहा है तो कोई उन्हें पागलखाने भेजने की बात कह रहा है . अजीब बात है कि आर एस एस और बी जे पी वाले भी लगभग यही कह रहे हैं . आर एस एस के मुख्यालय से बयान आया है कि सुदर्शन ने जो कहा है वह उनकी अपनी बात है, संघ का उस बयान से कुछ लेना देना नहीं है. यही बात बी जे पी के नेता भी कह रहे हैं. यानी उनके दिमागी संतुलन को मुद्दा बना कर संघी बिरादरी अपने आपको उनसे अलग करना चाहती है .
आर एस एस को जानने वाले जानते हैं कि सुदर्शन का बयान हवा में नहीं आया है . सच्चाई यह है कि यह आर एस एस की सोची समझी राजनीतिक चाल का हिस्सा है . अगर बी जे पी से अलग होकर किये गए राजनीतिक विरोध प्रदर्शन को सफलता मिल गयी होती तो सुदर्शन का बयान न आता अ. उस स्थिति में तो संघी मीडिया में आर एस एस की महान संगठन क्षमता के ही गीत गाये जा रहे होते लेकिन जब धरना प्रदर्शन बुरी तरह से फ्लाप हो गया ,तो सुदर्शन जैसी बुझी कारतूस को आगे कर दिया गया और निहायत ही बेहूदा बयान दिलवा दिया गया . ज़ाहिर है इस बयान के आर एस एस के आयोजन की असफलता गौड़ हो जायेगी . मुख्य चर्चा सुदर्शन की फजीहत पर केन्द्रित हो जायेगी. इसका एक दूसरा मकसद भी संभव है .हो सकता है कि यह सोचा गया हो कि आम आदमी की नाराज़गी का स्तर टेस्ट करने के लिए एक शिगूफा छोड़ दिया जाय. अगर देशभर में लोग नाराज़ हो जाएँ तो सुदर्शन बेचारे को डंप कर दिया जाय और अगर आम आदमी की प्रतिक्रिया ज्यादा गुस्से वाली न हो तो इस लाइन को धीरे धीरे चला दिया जाये. आर एस एस की नीति है कि वह किसी भी बात में पक्ष विपक्ष दोनों का स्पेस अपने ही पास रखना चाहता है . लेकिन लगता है कि बी जे पी को कमज़ोर करके किसी और पार्टी या विश्व हिन्दू परिषद् को अपनी राजनीति के कारोबार को देखने के ज़िम्मा देने की आर एस एस की चाल बेकार साबित हो गयी है . इसके कुछ नतीजे बहुत ही साफ़ होंगें. एक तो बी जे पी के दिल्ली दरबार वाले नेता आर एस एस की धमकियों को अब उतनी गंभीरता से नहीं लेगें जितनी अब तक लेते थे . दूसरा जिस नितिन गडकरी को मज़बूत करने के लिए मोहन भागवत सारा खेल कर रहे हैं, वह अब और भी कमज़ोर हो जायेगें. कुल मिलाकर संघी आतंकवाद के स्रोत के रूप में स्थापित हो चुके आर एस एस को यह झटका शायद कुछ सद्बुद्धि देने में सफल हो और देश की लोकशाही की परंपरा को कमज़ोर करने की उसकी योजना को लगाम लगे.

Wednesday, December 16, 2009

बंगलादेश--इंसानी हौसलों की जीत का मुल्क

शेष नारायण सिंह


३८ साल पहले बंगलादेश का जन्म हुआ था. और उसके साथ ही असंभव भौगोलिक बंटवारे का एक अध्याय ख़त्म हो गया था. नए राष्ट्र के संस्थापक , शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बंगलादेश की आज़ादी का आन्दोलन भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया.. बंगलादेश का जन्म वास्तव में दादागीरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक़्त ने जड़ दिया था. आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पंहुच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही १९४७ में रख दी गयी थी लेकिन इस उप महाद्वीप की ६० के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज़ रफ़्तार दे दी थी.. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो गयी. . प्रधानमंत्री लियाक़त अली को पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे ,. और उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया. जब जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो वहां गैर ज़िम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज़ हो गया.. याह्या खां की हुकूमत पाकिस्तानी इतिहास में सबसे गैर ज़िम्मेदार सत्ता मानी जाती है. ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते , जनरल याहया खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने क्लब का ही विस्तार समझा था . मानसिक रूप से कुंद ,याहया खान किसी न किसी की सलाह पर ही निर्भर करते थे , उन्हें अपने तईं राज करने की तमीज नहीं थी. कभी प्रसिद्द गायिका नूरजहां की राय मानते ,तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की. सच्ची बात यह है कि सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याहया खान से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए..ऐसा ही एक मूर्खतापूर्ण फैसला था कि जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ( संसद) में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी, अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया..पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ़ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सडकों पर आ गए. . मुक्ति का युद्ध शुरू हो गया, मुक्तिबाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना हो गयी.. इस तरह १६ दिसंबर १९७१ का दिन बंगलादेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया. दूसरी तरफ बचे खुचे पाकिस्तान के इतिहास में यह तारीख सबसे काले अक्षरों में लिख दी गयी. . उसकी फौज के करीब १ लाख सैनिको ने घुटने टेक दिए और भारतीय सेना के सामने समर्पण कर दिया. . बाद में बंगलादेश ने भी बहुत परेशानियां देखीं , शेख मुजीब को ही शहीद कर दिया गया. वहां भी फौज ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया, कई बार तो वही लोग सत्ता पर काबिज़ हो गए जो पाकिस्तानी आततायी, जनरल टिक्का खान के सहयोगी रह चुके थे. लेकिन अब वहां लोकशाही की स्थापना हो चुकी है और शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना ने नागरिक प्रशासन को मजबूती देने की कोशिश शुरू कर दी है..
बंगलादेश का गठन इंसानी हौसलों की फ़तेह का एक बेमिसाल उदाहरण है..जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगा, उसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था. सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज ने वे सारे अत्याचार किये, जिनकी कल्पना की जा सकती है .. .आतंक का राज कायम कर रखा था सेना ने .. लोगों को पकड़ पकड़ कर मार रहे थे पाकिस्तानी फौजी. बलात्कार की घटनाएं उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में जितना हुईं उतनी शायद ज्ञात इतिहास में कहीं भी ,कभी न हुई हों .. लेकिन बंगलादेशी नौजवान भी किसी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं था. जिस समाज में बलात्कार पीड़ित महिलाओं को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता था उसी समाज में स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना के बाद पूरे देश का नौजवान उन लड़कियों से शादी करके उन्हें सामान्य जीवन देने के लिए आगे आया. और पाकिस्तानी फौज के सबसे खूंखार हाथियार को भोथरा कर दिया.जिन लोगों ने उस दौर में बंगलादेशी युवकों का जज्बा देखा है वे जानते हैं कि इंसानी हौसले पाकिस्तानी फौज़ जैसी खूंखार ताक़त को भी शून्य पर ला कर खड़ा कर सकते हैं .. . बंगलादेश की स्थापना में भारत और उस वक़्त की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी का भी योगदान है . सच्चाई यह है कि अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बंगलादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता..

लेकिन यह बात भी सच है कि अपनी स्थापना के इन ३८ वर्षों में बंगलादेश ने बहुत सारी मुसीबतें देखी हैं . अभी वहां लोकशाही की जड़ें बहुत ही कमज़ोर हैं..शेख हसीना एक मज़बूत, दूरदर्शी और समझदार नेता तो हैं लेकिन उनको उखाड़ फेंकने के लिए अभी तक वही शक्तियां जोर मार रही हैं जिन्होंने बंगलादेश की स्थापना का विरोध किया था या उनके परिवार को ही ख़त्म कर दिया था . इस लिए अपने पड़ोसी देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए भारत को शेख हसीना को हर तरह की मदद देनी होगी. लगभग उसी तरह की मदद,जैसी १९७१ में दी गयी थी.