Tuesday, October 5, 2010
चुनाव में पेड न्यूज़ के चलते लोकशाही पर ही मुसीबत आ सकती है
सोमवार को सभी पार्टियों के नेताओं के साथ मुख्य चुनाव आयुक्त ने नयी दिल्ली में बैठक की और उनसे पैसा लेकर खबर लिखने और प्रकाशित करने की समस्या पर बात की. लगभग सभी पार्टियों की राय थी कि चुनाव आयोग ने जो खर्च पर सीमा बाँध दी है उसकी वजह से पेड न्यूज़ का सहारा लेना पड़ रहा है. नेताओं ने कहा कि जुलूस, पोस्टर,भोंपू और अखबारों में विज्ञापन पर लगे प्रतिबन्ध की वजह से सभी पार्टियां अपनी बात पंहुचाने के लिए कोई न कोई रास्ता तलाशती हैं और पेड न्यूज़ उसमें से एक है . नेताओं ने इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए चुनाव आयोग से आग्रह तो किया लेकिन यह भी सुझाव दिया कि इस से बचने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका यह होगा अकी चुनाव आयोग प्रचार के पुराने तरीकों पर लगी पाबंदी पर एक बार और नज़र डाले और यह जांच करे कि क्या पुराने तरीकों की बहाली से हालात सुधारे जा सकते हैं .बी जे पी के प्रतिनिधि ने कहा कि पेड न्यूज़ की वजह से निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा को ज़बरदस्त चुनौती मिल रही है और इसे फ़ौरन रोका जाना चाहिए . बी जे पी के इस सुझाव का सभी पार्टियों ने समर्थन किया . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बासुदेव आचार्य कि पेड न्यूज़ को भ्रष्ट आचरण की लिस्ट में डाल देना चाहिए जिस से अगर कोई पेड न्यूज़ के बाद चुनाव जीतता है तो उसका चुनाव रद्द किया जा सके. लेकिन उन्होंने कहा कि इस सारे खेल में पत्रकारों की सुरक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए और सज़ा का भागीदार मालिकों को ही बनाया जाना चाहिए क्योंकि पेड न्यूज़ में पैसा मीडिया संस्थानों के मालिक ही खाते हैं ,पत्रकार नहीं . उनका कहना था कि अगर यह सुनिश्चित न किया गया तो हर केस में बलि का बकरा पत्रकार ही बनाया जाएगा. बी जे पी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर उठ रहे सवालों की बाकायदा जांच करने का आग्रह किया और कहा कि कुछ ऐसा किया जाना चाहिए जिससे इन मशीनों में पड़े वोटों का कोई कागजी रिकार्ड भी बन जाय जिस से मन में उठ रही शंकाओं को शांत किया जा सके. चुनाव में धन की बढ़ रही भूमिका पर भी चिंता जताई गयी और चुनाव आयोग से निवेदन किया गया कि इस पर भी उनकी पूरा ध्यान जाना कहिये . मुद्दा राजनीति के अपराधीकरण का भी उठा लेकिन कोई भी पार्टी अपराधियों को चुनाव लड़ाने के बारे में संभावित सख्ती से सहमत नहीं थी . चुनाव आयोग समेत देश के सभी ठीक सोचने वाले लोगों में आमतौर पर एक राय है कि राजनीति के अपराधीकरण के ज़हर को ख़त्म करने के लिए पार्टियों को ही आगे आना पडेगा लेकिन अभी इस मसले पर राजनीतिक आम राय कायम होने में वक़्त लगेगा. राजनीति के अपराधीकरण के बाद सबसे बड़ा ज़हर मीडिया संस्थानों की पैसे लेकर खबर लिखने की प्रवृत्ति है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पेड़ न्यूज़ की वजह से लोकशाही की बुनियाद पर ही हमला हो रहा है. पिछले चुनावों में यह बात बहुत ज्यादा चर्चा में रही. नतीजा यह हुआ कि एक ही पेज पर उसी क्षेत्र के तीन तीन उम्मीदवारों की जीत की मुकम्मल भविष्यवाणी की खबरें छपी देखी गयीं. दिल्ली विधान सभा चुनाव के दौरान एक दिन एक बहुत बड़े अखबार में खबर थी कि मुख्य मंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ कोई राजीव जी पक्के तौर पर जीत रहे हैं .खुशी हुई कि चलो स्थापित सत्ता की एक बड़ी पैरोकार की हार से सत्ताधारियों को कुछ सबक मिलेगा. ढूंढ कर राजीव जी को तलाशा . एक राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार थे. अपनी जीत के प्रति वे खुद आश्वस्त नहीं थे बल्कि वे अपनी हार को निश्चित मान रहे थे .मैंने कहा कि अखबार में तो छपा है . उन्होंने कहा कि यह तो मैं आपके लिए भी छपवा दूंगा अगर आप सही रक़म अखबार के दफ्तर में जमा करवा दें . कई लोगों से इसका जिक्र किया. सबके पास ऐसी ही कहानियाँ थीं. उसके बाद तो दुनिया जान गयी कि पेड न्यूज़ का ग्रहण मीडिया को लग चुका है और वह लोकशाही के लिए दीमक का काम कर रहा है . अपने जीवन काल में प्रभाष जोशी ने पेड न्यूज़ के मामले पर बहुत काम किया था और जनमत बनाने की कोशिश की थी लेकिन जल्दी चले गए. अब भी बहुत सारे पत्रकार इस समस्या से चिंतित हैं और कोई राष्ट निकालने की कोशिश चल रही है . वरिष्ठ पत्रकार ,प्रनंजोय गुहा ठाकुरता इस सन्दर्भ में एक अभियान चला रहे हैं . उम्मीद की जानी चाहिये कि बहुत जल्दी पेड न्यूज़ की मुसीबत से भी लोकतंत्र को छुटकारा मिलेगा
Monday, August 3, 2009
कांग्रेस ने किया मीडिया और विपक्ष का इस्तेमाल
मिस्र के नगर शर्म-अल-शैख में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बीच हुई बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था। दोनों देशों के नेता अपनी घोषित पोजीशन से हटने को तैय्यार नहीं थे। पाकिस्तान लगातार कंपोजि़ट डायलाग की बात करता रहा तो भारत का आग्रह था कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंकवादी हमलों पर पाकिस्तान सही तरीके से विचार करे और अपने मुल्क में काम कर रहे आतंक के ढांचे का विनाश करे।
दोनों ही देशों पर अमरीका का दबाव था। भारत पर अमरीकी दबाव का असर कम पड़ता है लेकिन पाकिस्तान तो लगभग पूरी तरह से अमरीकी मदद पर ही निर्भर है। अमरीका डांट फटकार का पाकिस्तान से कुछ भी करवा सकता है लेकिन उसे एक सीमा से ज्यादा दबाने से सिविलियन सरकार के लिए बहुत मुश्किलें पेश आ सकती हैं। इसलिए शर्म-अल-शैख में भारत ने कंपोजिट डायलाग की बात मानने से इनकार कर दिया और अपने आपको किसी शर्त से मुक्त कर लिया। दोनों नेताओं की बातचीत के बाद जो बयान जारी किया गया उसके अनुसार अभी कोई कंपोजिट डायलाग नहीं होगा, दोनों देशों के विदेश सचिव आपस में मिलते जुलते रहेंगे और अपने विदेश मंत्रियों को बातचीत की जानकारी देते रहेंगे।
जब सही वक्त आएगा तो बातचीत शुरू की जाएगी। ज़ाहिर है कि भारत ने पाकिस्तान को झिटक दिया था और कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया था कि जब भारत चाहेगा तो बातचीत होगी। पहले के भारतीय राजनीतिक कहते रहते थे कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंक के नेटवर्क को जब तक पाकिस्तान खत्म नहीं करता, उससे कोई बातचीत नहीं होगी। शर्म-अल-शैख की यही उपलब्धि है कि वहां यह बात साफ कर दी गई कि आतंक और कंपोजिट डॉयलाग अलग-अलग बातें हैं, दोनों एक दूसरे पर निर्भर नहीं हैं। यानी भारत जब चाहे तब पाकिस्तान से बात करने को स्वतंत्र है, उस पर कोई पाबंदी नहीं है।
इस बातचीत के दौरान पाकिस्तानी खेमे ने भारतीय अधिकारियों को कथित रूप से एक पुलिंदा भी पकड़ा दिया था जिसमें बलूचिस्तान की आजादी की लड़ाई में भारत का हाथ होने की बात कही गई थी। यहां यह समझना जरूरी है कि शर्म-अल-शैख में दोनों पक्षों के बीच में किसी तरह की सहमति नहीं हुई थी बातचीत के बाद तय हुआ था कि फिर मौका लगा तो बातचीत की जायेगी। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गीलानी ने स्वदेश लौटकर अपनी यात्रा को बहुत सफल बताया और मीडिया में इस तरह का माहौल बनाया जैसे भारत विजय करके लौटे हों। पाकिस्तानी मीडिया भी उनकी रौ में बह गया लेकिन सच्चाई सबको मालूम थी। पाकिस्तानी फौज, आईएसआई पाकिस्तानी मीडिया, चीन, अमरीका और यूसुफ रजा गीलानी सबको मालूम था कि भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को एक इंच नहीं दिया है लेकिन सबकी अपनी मुकामी मजबूरियां होती हैं, सबने उसी तरह से बात करना शुरू कर दिया। भारत के मुख्य विपक्षी दल ने भी कहना शुरू कर दिया कि डा. मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में सब कुछ लुटा दिया। भारत में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग अंतर्राष्टï्रीय मामलों की साफ समझ नहीं सकता। इस वर्ग के वरिष्ठ लोग सरकार की विदेश नीति संबंधी आलोचना मुख्य विपक्षी दल की राय को ध्यान में रखकर करते हैं। ज़ाहिर है कि पूरे देश में माहौल बन जाता है कि विपक्षी पार्टी के कुछ लोग जो कह रहे हैं, वही जनता का भी मत है। इस बार भी वही हुआ। पराश्रयी चिंतन पर आधारित मीडिया के मर्मज्ञों ने भारत-पाक रिश्तों पर राग बीजेपी में अलाप लेना शुरू कर दिया। उसी में तरह-तरह की रागिनियां गाई जाने लगीं।
बीजेपी की प्रिय रागिनी जो कमजोर प्रधानमंत्री की कथा पर आधारित है, एक बार फिर चर्चा में आ गई। बीजेपी के प्रवक्ताओं ने कहना शुरू कर दिया कि मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में मनमानी की है और कांग्रेस पार्टी भी उनके साथ नहीं है, उन्होंने संसद को विश्वास में लिए बिना इतनी बड़ी बात कर दी वगैरह-वगैरह। यह बात दस दिनों तक चली और पूरे विपक्ष ने शर्म-अल-शेख में हुई बातचीत और कांग्रेस के ताथाकथित मतभेद पर अपनी सारी ताकत लगा दी। कांग्रेस पार्टी के लिए यह स्थिति बहुत ही अच्छी थी। केंद्रीय बजट पर बहस चल रही थी और मंहगाई का मुद्दा बहुत ही भयानक रुख ले चुका है।
सरकार दावा कर रही है कि मंहगाई की दर बिलकुल घट गई है, हालत बहुत सुधर गए हैं। सच्चाई यह है कि जब आम आदमी दुकान पर कुछ भी खरीदने जाता है तो मंहगाई का दानव उसे घेर लेता है। मंहगाई पूरी तरह से मध्यवर्ग की कमर तोड़ रही है। लेकिन विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे पर संसद में बजट पर बहस के दौरान कोई सवाल नहीं उठाया। जितना महत्व सरकारी प्रधानमंत्री का है, उतना ही महत्व विपक्ष के नेता का भी है। लोकतंत्र में जनता उम्मीद करती है कि नेता विपक्षी दल उसकी तरफ से सरकार पर लगाम लगाए लेकिन दुर्भाग्य है कि इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। मुख्य विपक्ष के नेता वॉक आउट करते रहे, हल्ला मचाते रहे और कांग्रेस के भीतर की कलह के प्रहसन पर उल्टी सीधी टिप्पणी करते रहे।
बिना किसी संकोच कहा जा सकता है कि विपक्ष ने बजट पर हुई बहस के दौरान कोई रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई हां, अगर कोई राष्टï्रीय संकट होता, देश की एकता और अखंडता पर प्रश्न उठ रहे होते तो नून, तेल, लकड़ी की चर्चा को भूल जाना उचित था लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के जिस मतभेद की चर्चा की जा रही थी, उसका आम आदमी से कोई लेना देना नहीं है। वैसे भी दस दिन के हल्ले के बाद कांग्रेस ने स्पष्टï कर दिया कि वह पूरी तरह से प्रधानमंत्री के साथ है, यानी विपक्षी पार्टियों ने एक नॉन इश्यू पर अपनी ताकत बर्बाद की। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने बजट और मंहगाई से विपक्ष का ध्यान बंटाने के लिए यह हालात जान बूझकर पैदा किया था और विपक्ष उस जाल में पूरी तरह उलझ गया। लेकिन इस सारी प्रक्रिया में लोकतंत्र और राजनीति का भारी नुकसान हुआ।
विपक्षी पार्टियों को चाहिए कि आगे इस तरह की स्थिति न आने दें। इस सारे गोरखधंधे में मीडिया की भूमिका पर भी गौर करने की जरूरत है। हमने शर्म-अल-शेख की दोनों प्रधान मंत्रियों की बातचीत के बात जारी की गई विज्ञप्ति को इस तरह से पेश किया जैसे वह किसी समझौते के बाद जारी किया गया घोषणा पत्र हो। ऐसा नहीं था, वह बातचीत की एक तरह से रिपोर्ट थी। उसमें जो सहमति हुई थी वह यह कि जब भी कभी दोनों विदेश सचिव मिलेंगे तो बातचीत करेंगे और अपने विदेश मंत्री को बता देंगे। हां आतंकवाद और कंपोजिट डॉयलाग को एक दूसरे से अलग कर दिया गया था। शर्म-अल-शेख से लौटकर कूटनीति और अंतर्राष्टï्रीय संबंधों के जानकार कद्दावर पत्रकारों ने अपने-अपने अखबारों में इसी तरह के विश्लेषण भी लिखे लेकिन जिन भाइयों की समझ में विज्ञप्ति की भाषा नहीं आई या कूटनीति की बारीकियां नहीं आईं, उन्होंने विपक्षी पार्टी के नेताओं के वक्तव्यों को आधार बनाकर राजनीतिक कूटनीतिक विश्लेषण लिख मारा।
विपक्ष की तो डयूटी है कि वह सरकार को कटघरे में खड़ा करे लेकिन मीडिया की डयूटी सच्चाई को बिना किसी लाग लपेट के बयान करना है। शर्म-अल-शेख वाले मामले में मीडिया का एक बड़ा वर्ग सच्चाई को पकडऩे में गफलत का शिकार हुआ है। कोशिश की जानी चाहिए कि ऐसे मौके दुबारा न आएं। जहां तक विपक्ष का सवाल है वह कांग्रेसी चाल का शिकार हुआ है, उन्हें भी आगे से संभल कर रहना होगा और कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को जनता के हित में काम करने को मजबूर करना होगा।
Saturday, August 1, 2009
बलराज मधोक से एलके आडवाणी तक
आज की भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व अवतार में भारतीय जनसंघ नाम से जानी जाती थी। 60 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद जब कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई तो जनसंघ एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में उभरी। जनसंघ के बड़े नेता थे, प्रो. बलराज मधोक। 1967 में इनके नेतृत्व में ही जनसंघ ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और उत्तर भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में आगे बढ़ रही थी लेकिन 1971 के लोकसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई।
बलराज मधोक भी चुनाव हार गए, उनकी पार्टी में घमासान शुरू हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी नए नेता के रूप में उभरे और बलराज मधोक को जनसंघ से निकाल दिया। पार्टी से निकाले जाने के पहले बलराज मधोक ने 1971 के चुनावों की ऐसी व्याख्या की थी जिसे समकालीन राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी बहुत ही कुतूहल से याद करते है। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और उनकी पार्टी भारी बहुमत से विजयी रही। भारतीय जनसंघ को भारी नुकसान हुआ लेकिन मधोक हार मानने को तैयार नहीं थे।
उन्होंने एक आरोप लगाया कि चुनाव में प्रयोग हुए मतपत्रों में ऐसा केमिकल लगा दिया गया था जिसकी वजह से, वोट देते समय मतदाता चाहे जिस निशान पर मुहर लगाता था, मुहर की स्याही खिंचकर इंदिरा गांधी के चुनाव निशान गाय बछड़ा पर ही पहुंच जाती थी। इस तरह का काम कांग्रेस और चुनाव आयोग ने पूरे देश में करवा रखा था। बलराज मधोक ने कहा कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव जीती नहीं है, केमिकल लगे मतपत्रों की हेराफेरी की वजह से कांग्रेस को बहुमत मिला है। मधोक के इस सिद्घांत को आम तौर पर हास्यास्पद माना गया।
इसके कुछ समय बाद ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। बैलट पेपर पर केमिकल की बात अब तक भारतीय राजनीति में चुटकुले के रूप में इस्तेमाल होती रही है। लोकसभा चुनाव 2009 के बाद भी कांग्रेस को सीटें उसकी उम्मीद से ज्यादा ही मिली हैं। बीजेपी के नेताओं की उम्मीद से तो दुगुनी ज्यादा सीटें कांग्रेस को मिली हैं। बीजेपी वाले चुनाव नतीजों के आने के बाद दंग रह गए। कुछ दिन तो शांत रहे लेकिन थोड़ा संभल जाने के बाद पार्टी के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया कि चुनाव में जो इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन इस्तेमाल की गई उसकी चिप के साथ बड़े पैमाने पर हेराफेरी की गई थी लिहाजा कांग्रेस को आराम से सरकार चलाने लायक बहुमत मिल गया और आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। उसके बाद तेलुगू देशम और राष्ट्रीय जनता दल ने भी यही बात कहना शुरू कर दिया।
ताजा खबर यह है कि दक्षिण मुंबई से शिवसेना के पराजित उम्मीदवार मोहन रावले ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है और प्रार्थना की है कि पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव रद्द कर दिया जाय। उनका कहना है कि ईवीएम से चुनाव करवाने में पूरी तरह से हेराफेरी की गई है। अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में तो उन्होंने लगभग पूरी तरह से ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी पर भरोसा जताया है और वहां के चुनाव को रद्द करने की मांग की है। मानवीय व्यक्तित्व बहुत ही पेचीदा होता है। आम तौर पर सबको जीत की खुशी होती है और पराजय सबको तकलीफ पहुंचाती है। इंसान के व्यक्तित्व की ताकत की परीक्षा पराजय के बाद ही होती है।
मजबूत आदमी अपनी हार से खुश तो नहीं होता लेकिन हारने के बाद अपना संतुलन नहीं खोता। हार के बाद खंभा नोचने वालों को इंसानी बिरादरी में शामिल करना भी बहुत मुश्किल होता है। हार के बाद संतुलन खो बैठना कमजोर आदमी की निशानी है। ईवीएम के अभियान चलाने वाले नेताओं को पता होना चाहिए कि इन मशीनों का आविष्कार लोकतंत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। ईवीएम के खिलाफ आने के बाद बाहुबलियों और बदमाशों की बूथ कैप्चर करने की क्षमता लगभग पूरी तरह से काबू में आ गई है। बैलट पेपर के जमाने में इनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। बंडल के बंडल बैलट पेपर लेकर बदमाशों के कारिंदे बैठ जाते थे और मनपसंद उम्मीदवार को वोट देकर विजयी बना देते थे।
ईवीएम के लागू होने के बाद यह संभव नहीं है। मशीन को डिजाइन इस तरह से किया गया है कि एक वोट पूरी तरह से पड़ जाने के बाद ही अगला वोट डाला जा सकता है। ऐसी हालत में अगर पूरी व्यवस्था ही बूथ कैप्चर करना चाहे और किसी भी उम्मीदवार का एजेंट विरोध न करे तभी उन्हें सफलता मिलेगी। सबको मालूम है कि अस्सी के दशक में गुडों ने जब राजनीति में प्रवेश करना शुरू किया तब से जनता के वोट को लूटकर लोकतंत्र का मखौल उड़ाने का सिलसिला शुरू हुआ था, क्योंकि बूथ कैप्चर करने की क्षमता को राजनीतिक सद्गुण माना जाने लगा था। इसके चलते हर पार्टी ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था।
इस बार बहुत कम बाहुबली चुनाव जीतने में सफल हो सके। जानकार कहते हैं कि बदमाशों के चुनाव हारने में ईवीएम मशीन का भी बड़ा योगदान है। इसलिए इसको बंद करने की मांग करना ठीक नहीं है। अगर फिर बैलट पेपर के जरिए वोट पडऩे लगे तो देश अस्सी के उसी रक्त रंजित दशक की तरह अराजकता की तरफ बढ़ जाएगा। ई.वी.एम. के खिलाफ शुरू किए गए अभियान पर चुनाव आयोग को भी खासी नाराजगी है। चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने एक सेमिनार में कहा कि ई.वी.एम. लगभग फूल-प्रूफ है। इसकी किसी भी गड़बड़ी को कभी भी जांचा परखा जा सकता है। उन्होंने केन्या का उदाहरण दिया जहां चुनाव व्यवस्था बिल्कुल तबाह हो चुकी है, लोकतंत्र रसातल में पहुंचने वाला है।
श्री कुरैशी ने कहा कि केन्या के प्रबुद्घ लोगों ने यह सुझाव दिया कि भारत की तर्ज पर वहां भी ईवीएम का इस्तेमाल किया जाय और चुनाव प्रक्रिया में काम करने वाले अधिकारियों को भारत की मदद से टे्रनिंग दी जाय। इसके अलावा दुनिया के और कई देशों में भी भारतीय ई.वी.एम. मशीनों की तारीफ हो रही है। ज़ाहिर है प्रयोग सफल है और उसके आगे बढ़ते रहने की जरूरत है। ई.वी.एम. मशीनों का विरोध कर रही पराजित पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि चुनाव होता ही इसीलिए है कि कोई हारे और कोई जीते। जो लोग एक बार लोकसभा या विधानसभा चुनाव जीत जाते हैं उन्हें पता चल जाता है कि चुनाव जीतने के बाद सुख सुविधा और ताकत का अंबार लग जाता है। चुनाव हारने के बाद वह सब कुछ काफूर हो जाता है।
ज़ाहिर है कि पराजित व्यक्ति को पछतावा बहुत ज्यादा होता है लेकिन लोकतंत्र के हित में आदमी को धीरज से काम लेना चाहिए। अगर लोकतंत्र रहेगा तो सब कुछ रहेगा और मोहन रावले सहित बाकी लोगों को दुबारा चुनाव जीतने का मौका मिलेगा और अगर बैलट पेपर युग की फिर वापसी हो गई तो पूरी आशंका है कि अपराधियों और बाहुबलियों का लोकतंत्र पर कब्जा हो जाएगा और चुनाव प्रक्रिया पर भी खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। इसलिए राजनीतिक नेताओं को चाहिए कि लोकतंत्र के विकास के रास्ते में कांटे न बिछाएं।
Sunday, July 26, 2009
एक और ऐतिहासिक भूल
केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी की वाम मोर्चा की नीति कुतूहल का विषय तो तब से ही थी, जब प्रकाश करात ने इसकी घोषणा की थी। 2004 में कांग्रेस ने वामपंथी दलों के सहयोग से केंद्र में सरकार बनाने का फैसला किया था, तभी से जानकारों को विश्वास था कि सरकार के चार सला पूरा होने के बाद ही समर्थन वापसी हो जायेगी।
इस सोच का आधार यह था कि बाहर से रहकर समर्थन दे रही पार्टी चुनाव में जाने के पहले कांग्रेस से झगड़ा करके कांग्रेस पार्टी के उन कामों से पल्ला झाड़ लेगी जो अलोक प्रिय होंगे और उन कामों के लिए क्रेडिट लेगी जिनसे चुनावी फायदा होगा, जो जनहित में होंगी। आजकल वामपंथी पार्टियों के प्रवक्ता चारों तरफ यह कहते फिर रहे हैं कि देश की अर्थ व्यवस्था को तबाह होने से कम्युनिस्टों ने बचाया। उनका दावा है कि मनमोहन सिंह सरकार तो ऐसी नीतियां बनाने और लागू करने की फिराक में थी जो देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अमरीकियों का मोहताज बना देतीं और उनका विरोध परमाणु संधि से था, जिसके कारण उन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
सब जानते है कि यह बहाना है क्योंकि अगर समर्थन वापसी का यही कारण है तो जब परमाणु समझौते की बात शुरू हुई, यह काम तभी हो जाना चाहिए था। दरअसल समर्थन वापसी की कुछ गुत्थियां अब सुलझने लगी हैं। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े लेकिन बरखास्त नेता सोमनाथ चटर्जी ने कहा है कि उन्होंने माकपा नेत्तत्व को समझाने की कोशिश की थी और आगाह किया था कि 1996 वाली गलती की तरह फिर ऐतिहासिक भूल न करें। 1996 में गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने का काम माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योति बसु को मिल रहा था, लेकिन माकपा की केंद्रीय कमेटी ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया और एच. डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन गए।
सोमनाथ चटर्जी ने दावा किया है कि उन्होंने माकपा के नेताओं को समझाया था कि परमाणु समझौते के खिलाफ अपना रूख ज्यों का त्यों रखो- देश की जनता को अपनी बात से अवगत कराओ लेकिन समर्थन वापस मत लो। सोमनाथ चटर्जी का कहना है कि समर्थन वापसी से वही ताकते मजबूत होंगी जिनके खिलाफ हम जीवन भर संघर्ष करते रहे हैं। लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा और अपनी जिद पर आमादा वामपंथी नेतृत्व ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। नतीजा सामने है एक सरकार सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थी, उसके सामने अस्त्तित्व का संकट पैदा हो गया। आज वामपंथी पार्टियां चुनाव मैदान में हैं अब तक के संकेतों से साफ है कि लोकसभा में वामपंथी सदस्यों की जो संख्या थी, इस बार उससे कम होगीं यानी सरकार से समर्थन वापसी से जिस राजनीतिक फायदे की उम्मीद थी, वह नहीं हुई उल्टे घाटा होने का खतरा पैदा हो गया है।
Friday, June 26, 2009
कांग्रेस और राजनीतिक आत्महत्या की प्रवृत्ति
चुनाव प्रचार के दौरान वीपी सिंह ने दावा किया था कि 100 दिन के अंदर बोफोर्स दलाली केस के अभियुक्तों की शिनाख़्त हो जाएगी और दलाली की रकम प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा हो जाएगी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। पिछले बीस वर्षो से कई सरकारें आती जाती रहीं लेकिन बोफोर्स का मद्दा ज्यों का त्यों है। जहां तक बोफोर्स दलाली की बात है, आम धारणा है कि इटली के व्यापारी ओतावियो क्वात्रोची ने दलाली ली थी और उनके राजीव गांधी के सुसराल वालों से बहुत अच्छे संबंध थे। यानी ठीकरा राजीव गांधी के परिवार के सिर पर फोड़ा जा सकता है।
बोफोर्स दलाली केस पिछले बीस वर्षो से बीजेपी के नेताओं का बहुत ही प्रिय विषय रहा है। इस चाबुक का इस्तेमाल करके बीजेपी वाले राजीव गांधी की पत्नी और बच्चों को डराते रहते हैं और इस मुद्दे का यही इस्तेमाल है। इस बार भी यह मुद्दा चुनाव प्रचार के मध्य में एक बार फिर उठ गया है। ताज्जुब यह है कि सरकार की तरफ से इसे उठाया गया है। कुछ लोगों को शक है कि कांग्रेस के अंदर ही नेताओं का एक गुट है जो सोनिया गांधी को चेतावनी देना चाह रहा है कि अगर उन्होंने इस गुट को हाशिए पर लाने की कोशिश की तो नतीजा ठीक नहीं होगा।
जाहिर है कि कांग्रेस नेतृत्व जानबूझ कर तो इस मामले को ऐन चुनाव प्रचार के सीजन में सामने नहीं लाना चाहेगा। और अगर कांग्रेस के नेतृत्व ने सोची समझी राजनीति के तहत इस मामले को आगे करने की कोशिश की है, तो इसमे कोई शक नहीं कि कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक हत्या करने की इच्छा बहुत ही प्रबल है। जहां तक चुनाव नतीजों की बात है, बोफोर्स केस की अब यह औक़ात नहीं है कि वह उसे प्रभावित कर सके। 1987-88 में जब यह मामला सामने आया था, तो 65 करोड़ रूपये की दलाली बड़ी रकम माना जाता था लेकिन पिछले बीस वर्षो मे सत्ताधारी पार्टियों के नेताओं की दलाली के जो कारनामे सामने आए हैं, उसके सामने 65 करोड़ की कोई अहमियत नहीं रह गई है।
1989 में जब वीपी सिंह और भारतीय जनता पार्टी ने बोफोर्स को चुनावी मुद्दा बनाया था तो बीजेपी भी अपेक्षाकृत ईमानदार पार्टी मानी जाती थी और वीपी सिंह की तो ईमानदार नेता की छवि थी ही। लेकिन आज बीस साल बाद जब बीजेपी के नेताओं की दलाली की कहानियां सुनाई पड़ती हैं तो लगता है कि उनकी घूस लेने की क्षमता बहुत बड़ी है। एक पूर्व प्रधानमंत्री के तथाकथित दामाद और एक स्वर्गीय भाजपाई मंत्री और तिकड़म बाज़ के दलाली संबंधी कारनामों के सामने बोफोर्स दलाली की र$कम फुटकर पैसे की हैसियत रखती है।
इसलिए बीजेपी में यह राजनीतिक ता$कत नहीं है कि वह बोफोर्स या किसी भी दलाली के सौदे को चुनावी मुद्दा बना सके। बीजेपी के अपने दलाली के कारनामे ऐसे हैं कि जिस के सामने बोफोर्स दलाली मामला एक दम बौना लगेगा। हां इस मुद्दे का इस्तेमाल बीजेपी वाले अखबारों और टीवी चैनलों में भगवा पत्रकारों के सहयोग से हड़बोंग मचाने में कर सकते हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, इस के नेता इस मामले को वर्तमान चुनाव के अंत तक टाल सकते थे लेकिन उन्होंने राजनीतिक आत्महत्या करने का फैसला किया। वैसे भी इस देश में राजनीतिक आत्माहत्या करने की कोई पाबंदी नहीं है।
Wednesday, June 24, 2009
राजनीति की विश्वसनीयता और मतदान
वैसे गर्मी के मौसम में जब भी चुनाव होता है, अपेक्षाकृत कम लोग बूथ तक जाने की ज़हमत उठाते हैं। देश की अगली सरकार को चुनने के लिए आधी से भी कम आबादी की शिरकत चिंता का विषय है। वास्तव में लोकतंत्र की सफलता की बुनियादी शर्त है कि उसमें अधिक से अधिक लोग शामिल हों और अगर ऐसा न हुआ तो दिन ब दिन लोकशाही की ता$कत कम होती जायगी।
इस बार चुनाव प्रक्रिया में कम लोगों के शामिल होने पर चिंता की बात इस लिए भी है कि चुनाव आयोग ने पूरे देश में अखबार, रेडियो और टेलीविज़न के जरिये अभियान चला रखा था। संदेश यह था कि ज्यादा से ज्यादा लोग वोट देने पहुंचें। चुनाव आयोग के विज्ञापनों में वोट न देने वालों को लगभग फटकारा तक गया था कि वोट ना देने वाले लोग अपनी महत्वपूर्ण डयूटी से किनारा कर लेते है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
कई गैर सरकारी संगठनों ने भी नागरिकों से अपील की थी कि वोट देना राष्ट्ररीय कर्तव्य है लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी इस भावना की परवाह नहीं की। आर एस एस के पराने मुखिया को बदल दिया गया है, जो नए महानुभाव आए हैं उन्होंने भी आते ही नारा दिया कि अधिक से अधिक हिंदुओं को वोट देना चाहिए। उनको मुग़ालता है कि उनकी पार्टी को ही वोट देगा। भारत में रहने वाले आम हिन्दू की मानसिकता की इससे गलत समझ हो ही नहीं सकती।
इस देश में रहने वाला हिंदू आमतौर पर सहनशील है क्योंकि अगर वह सहनशील न होता तो जनसंघ हिंदू महासभा और भारतीय जनता पार्टी आजादी के 50 साल बाद तक हाशिए पर न बैठे रहते। इस देश के हिन्दू ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नहरू में हमेशा विश्वास किया और अगर 1980 में दुबारा सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी ने साफ्ट हिंदुत्व की आर एस एस वाली लाइन को न अपना लिया होता तो आर एस एस के हिन्दुत्व वाले मंसूबे कभी न पूरे होते।
इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया जिनकी राजनीति की समझ पर ही सवालिया निशान लगा हुआ था। राजीव गांधी के शासन के दौरान पब्लिक स्कूल टाइप ऐसे लोग कांग्रेस के नीति नियामक बन गये जो दूर तक भी राष्ट्रहित की बात सोच ही नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने इस देश की एकता की भावना का बहुत नुकसान किया और देश में हिन्दुत्ववादी शक्तियों के विकास के लिए जगह मिल गई। राजीव गांधी की मंडली के ज्यादातर लोग कहीं गायब हो गए है लेकिन देश के मत्थे हलकी राजनीतिक सोच की विरासत मढ़ गये हैं।
देश में मुख्यधारा की सभी पार्टियां भी हल्की राजनीतिक सोच की बीमारी की चपेट में हैं। इसीलिए अब नताओं की सभा में वैसी भीड़ नहीं जुटती जैसी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी की सभाओं में जुटती थी। अब भीड़ जुटाने के लिए किसी हेमा मालिनी, संजय दत्त, सलमान खां, या अज़हरूद्दीन की तलाश की जाती है।
इन लोगों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है लेकिन उसका राजनीतिक दिशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इसीलिए चुनाव के प्रति लोगों की रुचि घट रही है और मतदान का प्रतिशत लगातार कम हो रहा है।