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Tuesday, July 13, 2010

रवीश कुमार की किताब :पढने के पूर्व की समीक्षा

शेष नारायण सिंह

रवीश कुमार ने किताब लिख मारा. बहुत अच्छा किया . न लिखते तो कुढ़ते रहते. मैं किताब लेने जा रहा हूँ. पढने के पहले की टिप्पणी करना ज़रूरी है क्योंकि अगर किताब का औपचारिक विमोचन हुआ होता तो मैं ज़रूर जाता ( अगर पता लगता तब). बाकी लोगों को तो नहीं मालूम होगा लेकिन मेरे रवीश कुमार से सम्बन्ध अच्छे हैं . वे ज़रूर मुझे ' दो शब्द ' वाले खाने में रखवा देते . तो जैसी कि परिपाटी है ,बिना पढ़े किताब के बारे में करीब पंद्रह सौ शब्दों का भाषण देता जो कुछ इस प्रकार चलता .
मुझे खुशी है कि रवीश कुमार ने अपने करीब १५ साल के अनुभव को कलम बंद कर दिया. मैं रवीश को करीब १२ साल से जानता हूँ . बहुत अच्छी तरह . वे दो तीन बार मेरे घर आ चुके हैं . और मैं भी उनके घर कई बार गया हूँ . बहुत अपनापा है , हम लोगों के बीच . वे मेरे बच्चों के घर के नाम जानते हैं , और मैं उनकी बेटी को उसके बचपन से जानता हूँ . उनकी पत्नी बहुत विद्वान् है. मैं और रवीश कुमार जिस नौकरी के लिए हमेशा तरसते रहे , उसी दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे अच्छे कालेज में वह लेक्चरर है . रवीश कुमार को सूजी का हलवा बहुत पसंद है ( यह अंदाज़ कर कह रहा हूँ ). जब भी मेरे घर आते , हलवा ज़रूर खाते.( यह भी गलत है ).
इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है . जितने भी पुस्तक विमोचन समारोहों में मैंने डॉ नामवर सिंह को बोलते देखा है मेरा मन कह रहा है कि वह सब अपनी तरफ से लिख दूं . क्योंकि बिना किताब पढ़े और बिना लेखक या कवि को जाने उसकी तारीफ करने में उनके टक्कर का महात्मा कोई दूजा नहीं. तो कृपया रवीश कुमार की तारीफ में वे सारे भाषण मेरी तरफ से नोट कर लिए जाएँ, जो डॉ नामवर सिंह ने पिछले ५५ वर्षों में किताब के विमोचन समारोहों में दिए हैं .

किताब पढ़ कर जो राय बनेगी , कोशिश करूंगा कि उसे भी लिखूं . जय हिंद

Sunday, July 26, 2009

सेकुलर सरकार या गैर कांग्रेसी सरकार

लोकसभा चुनावों के पहले दौर में 124 सीटों पर मतदान संपन्न हो गया। अब तक के राजनीतिक और चुनावी संकेत ऐसे हैं, कि केंद्र में इस बार भी ऐसी सरकार बनेगी जिसमें बीजेपी का कोई योगदान नहीं होगा। ऐसा ही संकेत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिया जब उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद की परिस्थितियां तय करेगी कि सरकार बनाने में किन पार्टियों का सहयोग लिया जाए।

प्रधानमंत्री ने लेफ्ट फ्रंट की तारीफ की और स्वीकार किया कि कुम्युनिस्टों के सहयोग से सरकार चलाना एक अच्छा अनुभव था। अपने इस बयान से मनमोहन सिंह वामपंथी पार्टियों के सहयोग के संवाद को फिर से जिंदा कर दिया है।प्रधानमंत्री के इस बयान में जो न्यौता है उसमें राजनीतिक आचरण की कई परते हैं जिसे राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी प्रकाश करात ने तुरंत भांप लिया। गठबंधन राजनीति की स्थिति पर पहुंचने से पहले सभी पार्टियां चुनावी राजनीति के समुद्र में गोते लगा रहीं है। पूरे देश में राजनीतिक हार जीत की चर्चा चल रही है और कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों आमने सामने है।

पश्चिम बंगाल और केरल, जहां से अधिकतर कम्युनिस्ट सदस्य लोकसभा में पहुंचते है, वहां दोनों की पक्षों के गंठबंधन एक दूसरे के खिलाफ कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन की ओर से वामपंथियों को कड़ी चुनौती मिल रहीं है, ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री का यह संदेश कि अभी की लड़ाई तो ठीक है लेकिन चुनाव के बाद हम फिर एक होने की कोशिश करेंगे चुनाव में कार्यकर्ताओं के हौंसले को प्रभावित कर सकता है। ज़ाहिर है कि इससे वामपंथी चुनावी अभियान की धार कुंद हो सकती है।

शायद इसी संभावना की काट के लिए माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने तुरंत बयान दे दिया कि चुनाव के बाद भी कांग्रेस से कोई समझौता नहीं होगा।जानकार मानते है कि अपने अभियान की हवा निकालने वाले किसी भी बयान को बेमतलब साबित करने के उद्देश्य से ही माक्र्सवादी नेता ने यह बयान दिया है। वरना यह सभी जानते है कि लेफ्ट फ्रंट के नेता दिल्ली में एक सेकुलर सरकार बनाना चाहते हैं।

अभी उनकी पोजीशन है कि केंद्र में गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार बनानी है। यह उनकी इच्छा है और इस आदर्श स्थिति को हासिल करने के लिए वामपंथी नेता सारी कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि उन्हें मालूम है कि मौजूदा स्थिति में जो पार्टियां वामपंथी मोर्चा में शामिल है अगर उनके सभी उम्मीदवार जीत जायं तो भी 272 सीटों का लक्ष्य नहीं हासिल कर सकेंगे। जाहिर है ऐसी हालत में तीसरे मोर्चे को अपनी वैकल्पिक योजना को फौरन प्रस्तुत करना पड़ेगा क्योंकि अगर इसमें ज्यादा वक्त लगा तो तीसरा मोर्चा बिखरना शुरू हो जायेगा।

तीसरे मोर्चे में शामिल सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियां कभी न कभी भाजपा के साथ काम कर चुकी हैं और अगर बीजेपी की सरकार बनने की संभावना बनी तो इन पार्टियों को विचारधारा का कोई संकट पेश नहीं आयेगा क्योंकि सभी पार्टियां एनडीए या अन्य गठबंधनों में बीजेपी के साथ रही चुकी हैं। कभी किसी को अपना लक्ष्य मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। यहां सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि अगर गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार का लक्ष्य हासिल करने में तीसरे मोर्चे को सफलता न मिली तो क्या बीजेपी की सरकार बनने की स्थितियां उन्हें स्वीकार होगी अगर बीजेपी के सहयोग से बनने वाली सरकार में वामपंथी पार्टियों को कोई दिक्कत नहीं है, तब तो कोई बात नहीं।

लेकिन अगर बीजेपी को सत्ता में अपने से रोकने के अपने घोषित उद्देश्य को माक्र्सवादी नेता पूरी करना चाहते हैं तो उन्हें कांग्रेस का सहयोग जरुरी होगा। और प्रधानमंत्री का संवाद शुरु करने वाला बयान ऐसी परिस्थिति में सार्थक होगा। सरकार किसकी बनती है, यह उस वक्त की राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करेगा। वामपंथियों के सामने विकल्प दो ही हैं या तो सरकार कांग्रेस की हो और धर्मनिरपेक्ष ताकतें उसका समर्थन करें और या तीसरे मोर्चे का कोई नेता प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस उसे समर्थन दे।

इंसाफ के पक्के इंतज़ाम की जरुरत

जूता राजनीति स्थायी भाव होता जा रहा है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति के ऊपर बगदाद में चला जूता एक नई राजनीति के व्याकरण को जन्म देने की क्षमता रखता है। जब गृहमंत्री पी.चिदंबरम के ऊपर नई दिल्ली में जूता चला तो उसकी धमक दूर तलक सुनी गई। दिल्ली की राजनीति में मजबूती से जमे हुए संजय गांधी युग के दो नेताओं को संसदीय राजनीति से अलविदा कहना पड़ा।

जूता कांड के ताजा शिकार बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी पर चला जूता कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। यहां यह साफ कर देने की जरुरत है कि सभ्य समाज में जूता मारने की संस्कृति को सही नहीं ठहराया जा सकता। असहमति व्यक्त करने के लिए जूते का सहारा लेना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भविष्य में कोई भी किसी पर जूता चलाकर अपनी बात न बताए। और यह सबसे जरुरी बात है। रही आडवाणी पर जूता चलना महत्वपूर्ण होने की बात, तो वह इसलिए कि उन पर जूता उनके अपने कार्यकर्ता ने चलाया। वह भी एक ऐसी जगह जहां बीजेपी का शासन है। दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेताओं को उम्मीद है कि मध्यप्रदेश से बीजेपी के सार्वधिक सांसद जीतकर आएंगे।

सवाल उठता है कि अगर सब कुछ पक्ष में ही है तो जूता क्यों चला। इस सच्चाई को समझने की कोशिश गंभीर राजनीतिक चर्चा की शुरुआत हो सकती है। बगदाद, नई दिल्ली और कटनी में चले जूतों में एक समानता है, वह यह कि सभी जूते राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर लेगों पर चले हैं। सवाल उठता है कि जूता चलाकर अपनी ओर ध्यान बंटाने की कोशिश भर है, किसी के उकसाने में किया गया कार्य है या क्षणिक भावावेश में किया गया काम है। जहां तक राजनीतिक नेताओं की टिप्पणी की बात है, लगता है कि इस मामले में उनको गंभीरता से लेने की जरुरत नहीं बीजेपी के प्रवक्ता ने पी चिदंबरम पर चले जूते पर बहुत गदगद होकर प्रतिक्रिया दी थी, जबकि आडवाणी पर जूता चलने पर बहुत मायूस नजर आए।

लिहाजा नेताओं की बात को विचार में न लेकर सामान्य आदमी के विवेक से विचार करने पर जूता फेंकने वालों की मनोदशा को समझा जा सकता है। लगता है कि जूता फेंकने वाला हर व्यक्ति हताश है, समस्याओं का निदान करने की जो भी व्यवस्था है उसने निराश है और किसी समस्या विशेष की ओर संबंधित लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश कर रहा है। पी चिदंबरम के ऊपर जूता फेंकने की घटना की मीडिया में सबसे ज्यादा चर्चा हुई।

जूता फेंकने वाले की भी सबसे ज्यादा चर्चा हुई। जूता फेंकने वाले ने भी बताया कि 1984 के दंगों में कांग्रेसी नेता जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की भूमिका पर कानून की लाचारी से वह हताश है। उसे यह भी शक था कि कांग्रेस के बड़े नेताओं की शह पर ही सी.बी.आई ने इन दो नेताओं को बरी करने की प्रक्रिया की शुरूआत की है। यहां उसके आरोप या शक की पड़ताल करने का कोई औचित्य नहीं है। यहां बस यह समझ लेना जरूरी है कि उस व्यक्ति को हताशा थी और उसी हताशा के चलते उसने यह काम किया।

जॉर्ज बुश और आडवाणी पर फेंके गए जूते भी कहीं न कहीं इस हताशा से संबंधित नजर आते हैं। जब व्यक्ति को लगता है कि उपलब्ध तरीकों से उसे न्याय नहीं मिल पा रहा है, बल्कि वह दोषी न होते हुए भी दंडित हो रहा है तो वह व्यवस्था से निराश होता है, हताश होता है और बागी हो जाता है। ऊपर लिखे जूता प्रकरणों में भी न्याय न मिलने से हताश व्यक्ति बागी हो गए और उन्होंने जूता फेंक कर अपनी बगावत की भावना को दर्ज किया। यही बगावत की भावना आदमी को हथियार उठाने को मजबूर करती है।

चंबल के बीहड़ों में जो नौजवान इंसाफ की तलाश में भटकता हुआ हथियार उठा लेता है। उसे डाकू का नाम दे दिया जाता है। और पूरी दुनिया में अमरीका और उसकी कठपुतली हुकूमतों के खिलाफ बगावत करने वाले को आतंकवादी करार दे दिया जाता है। जरूरत इस बात की है कि समाज और सरकारें यह सुनिश्चित करें कि आम आदमी को हर हाल में इंसाफ मिले और वह हताशा में जूता फेंकने को मजबूर न हो और हथियार की शरण में न जाय।

एक और ऐतिहासिक भूल

केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी की वाम मोर्चा की नीति कुतूहल का विषय तो तब से ही थी, जब प्रकाश करात ने इसकी घोषणा की थी। 2004 में कांग्रेस ने वामपंथी दलों के सहयोग से केंद्र में सरकार बनाने का फैसला किया था, तभी से जानकारों को विश्वास था कि सरकार के चार सला पूरा होने के बाद ही समर्थन वापसी हो जायेगी।

इस सोच का आधार यह था कि बाहर से रहकर समर्थन दे रही पार्टी चुनाव में जाने के पहले कांग्रेस से झगड़ा करके कांग्रेस पार्टी के उन कामों से पल्ला झाड़ लेगी जो अलोक प्रिय होंगे और उन कामों के लिए क्रेडिट लेगी जिनसे चुनावी फायदा होगा, जो जनहित में होंगी। आजकल वामपंथी पार्टियों के प्रवक्ता चारों तरफ यह कहते फिर रहे हैं कि देश की अर्थ व्यवस्था को तबाह होने से कम्युनिस्टों ने बचाया। उनका दावा है कि मनमोहन सिंह सरकार तो ऐसी नीतियां बनाने और लागू करने की फिराक में थी जो देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अमरीकियों का मोहताज बना देतीं और उनका विरोध परमाणु संधि से था, जिसके कारण उन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

सब जानते है कि यह बहाना है क्योंकि अगर समर्थन वापसी का यही कारण है तो जब परमाणु समझौते की बात शुरू हुई, यह काम तभी हो जाना चाहिए था। दरअसल समर्थन वापसी की कुछ गुत्थियां अब सुलझने लगी हैं। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े लेकिन बरखास्त नेता सोमनाथ चटर्जी ने कहा है कि उन्होंने माकपा नेत्तत्व को समझाने की कोशिश की थी और आगाह किया था कि 1996 वाली गलती की तरह फिर ऐतिहासिक भूल न करें। 1996 में गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने का काम माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योति बसु को मिल रहा था, लेकिन माकपा की केंद्रीय कमेटी ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया और एच. डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन गए।

सोमनाथ चटर्जी ने दावा किया है कि उन्होंने माकपा के नेताओं को समझाया था कि परमाणु समझौते के खिलाफ अपना रूख ज्यों का त्यों रखो- देश की जनता को अपनी बात से अवगत कराओ लेकिन समर्थन वापस मत लो। सोमनाथ चटर्जी का कहना है कि समर्थन वापसी से वही ताकते मजबूत होंगी जिनके खिलाफ हम जीवन भर संघर्ष करते रहे हैं। लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा और अपनी जिद पर आमादा वामपंथी नेतृत्व ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। नतीजा सामने है एक सरकार सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थी, उसके सामने अस्त्तित्व का संकट पैदा हो गया। आज वामपंथी पार्टियां चुनाव मैदान में हैं अब तक के संकेतों से साफ है कि लोकसभा में वामपंथी सदस्यों की जो संख्या थी, इस बार उससे कम होगीं यानी सरकार से समर्थन वापसी से जिस राजनीतिक फायदे की उम्मीद थी, वह नहीं हुई उल्टे घाटा होने का खतरा पैदा हो गया है।

Friday, June 26, 2009

पद की गरिमा

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपाल स्वामी ने जाते जाते एक और कारनामा कर दिखाया है जिससे उनके बारे में जो शक शुरू था, उसके सच्चाई में बदलने के आसार बढ़ गए हैं इसके पहले भी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश करके श्री गोपाल स्वामी, विवादों में घिर चुके हैं। बीजेपी के नेताओं की शिकायत पर उन्होंने नवीन चावला के खिलाफ कार्रवाई की शुरूआत कर दी थी।

उस वक्त आम धारणा यह बनी थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त ने फैसला करने के लिए कुछ ऐसे तथ्यों पर भी विचार किया था जो फाइल में नहीं थे। इस बार भी उन्होंने कांगेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा जता कर, एक खास राजनीतिक दल के लिए अपनी मुहब्बत का खुलासा कर दिया है।

वर्तमान मामला ऐसा नहीं था जिसमें बहुत कुछ किया जा सके। मामला 2006 का है जब बेल्जियम की सरकार ने सोनिया गांधी को एक नागरिक सम्मान देकर उनका अभिनंदन किया था। यह वह दौरा था जब बीजेपी वाले यह मानते थे कि सोनिया गांधी बहुत मामूली राजनीतिक नेता हैं उसके दो साल पहले ही बीजेपी नेता सुषमा स्वराज ने धमकी दे रखी थी कि अगर सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री बनीं तो सुषमा जी सिर मुंडवा लेंगी। 2006-07 तक भी बीजेपी के सोनिया गांधी के प्रति रूख में यही हल्कापन नजर आता था।

इसी सोच के तहत सोनिया गांधी को फूंक कर उड़ा देने की मंशा के तहत यह कदम उठाया गया था शायद दिमाग में कहीं यह विचार भी रहा हो कि गोपाल स्वामी साहब से अच्छे रसूखा के चलते सोनिया गांधी को अपमानित करने का एक मौका हाथ आ जाएगा। चुनाव आयोग में इस तरह की बहुत सारी शिकायतें आती रहती हैं और उनका निपटारा होता रहता है, लेकिन गोपाल स्वामी ने न केवल मामले को महत्व दिया बल्कि इस पर कार्रवाई करने के अपने मंसूबे का भी इजहार किया। यह अलग बात है कि अपने रिटायर होने के ठीक एक दिन पहले इस तरह का आचरण करके उन्होंने अपनी प्रतिबद्घता का साफ संकेत दिया है।

और निर्वाचन आयोग की गरिमा पर ठेस पहुंचाने की कोशिश की है। माना जाता है कि संवैधानिक मर्यादा सुनिश्चित करने वाले संगठनों के खिलाफ आम तौर पर बयान नहीं दिया जाना चाहिए ऐसा करना लोकतंत्र के हित में नहीं हैं। यहां यह बात दिलचस्प है कि चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संगठनों की मार्यादा को सर्वोच्च रखने का जिम्मा उन लोगों पर भी तो है जो वहां बड़े पदों पर बैठे हुए हैं अगर सर्वोच्च पद पर बैठे हैं। व्यक्ति के कार्यकलाप से ही यह संकेत मिलने लगे कि वह अपने पद की गरिमा को नहीं संभाल पा रहा है तो यह देश का दुर्भाग्य है।

यहां यह कहने की बिल्कुल मंशा नहीं है कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का किसी खास राजनीतिक पार्टी से संबंध है लेकिन इस बात पर हैरत जरूर है कि उनके ज्यादातर फैसलों से देश की राजनीति में एक खास सोच के लोगों का फायदा होता था। बहरहाल अब तो वे रिटायर हो गए लेकिन अपने पद की गरिमा के साथ उन्होंने जो ज्यादती की है उसे दुरूस्त होने में बहुत समय लगेगा।