ईरान के चुनावों के बाद पश्चिमी देशों की प्रेरणा से तेहरान की सड़कों पर शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन अब थम गया है लेकिन उसके प्रेरक तत्व अभी भी सक्रिय हैं।
जिन अमरीकी नीति निर्धारकों की शह पर जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने इराक पर हमला करने की बेवकूफी की थी, वे फिर सक्रिय हो गए हैं। इस बिरादरी के लोग अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा पर वैसा ही दबाव बना रहे हैं जैसा इन लोगों ने बुश जूनियर के ऊपर 2003 में बनाया था। इस गैंग के एक नेता हैं पॉल वुल्फोविज़।
इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के खिलाफ अमरीका में जो जनमत बना था और चारों तरफ से सद्दाम को हटाने की बात शुरू हो गई थी उस जनमत को तैयार करने वाले गिरोह के प्रमुख नेताओं में पॉल वुल्फोविज का नाम लिया जाता है। यह महानुभाव फिर सक्रिय हो गए हैं। यह लोग ईरान में सत्ता परिवर्तन की बात तो नहीं कर रहे हैं लेकिन ओबामा को कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अवश्य दे रहे है।
वॉशिंगटन पोस्ट के अपने ताजा लेख में पॉल वुल्फोविज ने ओबामा को समझाने की कोशिश की है कि ईरान की सड़कों पर हुए प्रदर्शन में अमरीका को निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए। उनका कहना है कि ओबामा को अपनी सारी ताकत ईरानी विपक्षियों के समर्थन में लगा देनी चाहिए। यह लोग ईरान के वर्तमान शासकों के बारे में वही राग अलाप रहे हैं, जो कभी सद्दाम हुसैन के लिए अलापते थे। पॉल वुल्फोविज टाइप लोग अमरीका में भी दंभी, अतिवादी और बदतमीज माने जाते हैं लेकिन अगर जॉर्ज डब्लू बुश जैसा अदूरदर्शी शासक हो तो यह लोग कहर बरपा करने की ताकत रखते हैं।
ओबामा के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। अपने आठ साल के राज में जॉर्ज डब्लू बुश ने लगभग मसखरे के रूप में काम किया। अमरीकी अर्थव्यवस्था को चौपट किया और पूरी दुनिया में अमरीकी कूटनीति को मजाक का विषय बना दिया। जिन लोगों ने बुश को अफगानिस्तान और इराक में फंसाया, वही अमरीकी विचारक फिर लाठी भांज रहे हैं। यह लोग मूल रूप से किसी न किसी लॉबी गु्रप के एजेंट होते हैं। पॉल वुल्फोविज के बारे में बताया गया है कि यह हथियार बनाने वाली कुछ कंपनियों के लिए सक्रिय लोगों के साथी हैं।
इनके उकसाने में आकर अगर ओबामा ने कोई ऐसा काम किया जिसमें ईरान से झगड़ा हो जाय तो अमरीका के लिए तो मुश्किल होगी ही, ओबामा भी भारी मुसीबत में पड़ जाएंगे। एक राष्ट्र के रूप में अमरीका का वही हाल होगा जो वियतनाम और इराक में हुआ था। ओबामा को बहुत सोच समझकर काम करना होगा क्योंकि ईरान की सरकार बहुत ही मजबूत सरकार है और अहमदीनेजाद को चुनौती देने वाले मीर हुसैन मौसवी बिलकुल अलग थलग पड़ गए हैं। मौसवी के अलावा ईरान की राजनीति का हर छोटा बड़ा आदमी सरकार के साथ है।
विलायत-ए-फकीह का इकबाल बुलंद है और ईरान के खिलाफ किसी भी पश्चिमी साजिश को नाकाम करने के लिए ईरान की जनता एकजुट खड़ी है। ईरान के पुननिर्वाचित राष्टï्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने ऐलानियां कहा है कि ईरान की नई सरकार पश्चिमी देशों की तरफ ज्यादा निर्णायक और सख्त रुख अख्तियार करेगी। इस बार अगर पश्चिमी देश किसी मुगालते का शिकार होकर कोई गलती करेंगे तो ईरानी राष्ट्र का जवाब बहुत माकूल होगा।
महमूद अहमदीनेजाद के फिर से राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अमरीका और ब्रिटेन ने लोकतंत्र के खून होने और चुनावों में हेराफेरी के नाम पर ईरान में एक आंदोलन खड़ा करने की तैयारी कर दी थी। मीर हुसैन मौसवी के नाम पर उनके कुछ चाहने वाले सड़कों पर आ गए। यू ट्यूब और ट्विटर की मदद से पूरी दुनिया को ईरान के अंदर बढ़ रहे तथाकथित असंतोष को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। लेकिन कोई आंदोलन बन नहीं सका। अब सब कुछ खत्म हो चुका है और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ब्राउन बहुत ज्यादा मुसीबत में हैं। ईरानी सत्ताधारी वर्ग ने उन्हें ही निशाने पर ले रखा है।
ओबामा पर हमले उतने तेज नहीं हैं जितना ब्राउन पर हैं। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्ला अली खमनेई ने इन दोनों देशों को धमकाते हुए कहा है कि ईरान पिछले महीने की पश्चिमी देशों की करतूतों को कभी नहीं भूलेगा। उन्होंने कहा कि अमरीका और कुछ यूरोपीय देश ईरान के बारे में बेवकूफी की बातें कर रहे हैं। उनके आचरण से ऐसा लगता है कि उनकी मुसीबतें इराक और अफगानिस्तान में खत्म हो गई हैं, बस ईरान को दुरुस्त करना बाकी है।
ईरान के हमले ब्रिटेन पर ज्यादा तेज हैं। अयातोल्ला अली खमनेई ने ब्रिटेन को सबसे ज्यादा खतरनाक और धोखेबाज विदेशी ताकत बताया है। ब्रिटेन के दूतावास में तैनात दो खुफिया अफसरों को देश से निकाल दिया गया है और वहां काम करने वाले स्थानीय ईरानी नागरिकों से पूछताछ की जा रही है। ब्रिटेन को भी ईरान की ताकत का अंदाज लगने लगा है। मौसवी के समर्थकों को हवा देने के बाद ब्रिटेन इस चक्कर में है कि किसी तरह जान बचाई जाए क्योंकि अगर ईरान नाराज हो जाएगा तो ब्रिटेन की अर्थ व्यवस्था पर भी उलटा असर पड़ेगा।
शायद इसीलिए ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय से एक बयान जारी किया गया है जिसमें कहा गया कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री ईरान में मानवाधिकारों के उल्लंघन की वजह से नाराज नहीं है। उन्हें तो ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर एतराज है। अब तक के संकेतों से ऐसा लगता है कि ईरान ब्रिटेन को गंभीरता से नहीं ले रहा है और उसे अलग थलग करने के चक्कर में ही है।
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए प्रदर्शनों पर जो रुख अपनाया, उसे ईरान में पसंद नहीं किया गया। ओबामा और उनके बंदों को उम्मीद थी कि ईरान में जो राजनेता सत्ता से बाहर हैं, वे महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए मौसवी के आंदोलन में शामिल हो जांएगे लेकिन ऐसा न हो सका। अमरीकी प्रशासन को ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अकबर हाशमी रफसंजानी से बड़ी उम्मीदें थीं। अमरीका को अंदाज था कि रफसंजानी सर्वोच्च नेता के खिलाफ किसी साजिश में शामिल हो जाएंगे लेकिन 28 जून को उन्होंने एक बयान दिया जिसके बाद अमरीकी रणनीतिकारों के होश उड़ गए।
उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद जो कुछ हुआ वह एक साजिश का नतीजा था। इस साजिश में वे लोग शामिल थे जो ईरान की जनता और सरकार के बीच फूट डालना चाहते है। इस तरह की साजिशें हमेशा ही नाकाम रही हैं और इस बार भी ईरानी अवाम ने किसी साजिश का शिकार न होकर बहादुरी का परिचय दिया है। रफसंजानी ने अयातोल्ला की तारीफ की और कहा कि उनके उम्दा नेतृत्व की वजह से चुनाव प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बढ़ा है।
रफसंजानी के अलावा विपक्ष के बाकी नेता भी सर्वोच्च नेता की इच्छा के अनुरूप महमूद अहमदीनेजाद के समर्थन में लामबंद है। विपक्षी नेता मोहसिन रेज़ाई, मजलिस के पूर्व अध्यक्ष नातेक नौरी जैसे लोग भी अब पश्चिमी साजिशों से वाकिफ है और नई ईरानी सरकार के साथ हैं। अमरीका और पश्चिमी देशों को उम्मीद थी मजलिस के अध्यक्ष, अली लारीजानी को अहमदीनेजाद के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है लेकिन उन उम्मीदों पर भी पानी फिर चुका है। लारीजानी अल्जीयर्स गए थे जहां इस्लामी देशों के संगठन का सम्मेलन था।
अपने भाषण में लारीजानी ने ओबामा को चेतावनी दी कि उन्हें पहले के अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह पश्चिमी एशिया के मामलों में बेवजह दखल नहीं देना चाहिए। उन्होंने कहा कि ओबामा को इस नीति को बदलना चाहिए जिससे इलाके में तो शांति स्थापित होगी ही, अमरीका भी चैन से रह सकेगा। नई राजनीतिक सच्चाई ऐसी है कि ओबामा के सामने कठिन फैसला लेने की चुनौती है। अपने पूर्ववर्ती बुश की तरह वे कोई बेवकूफी नहीं करना चाहते, लेकिन पॉल वुल्फोविज टाइप अमरीकी लॉबीबाजों का दबाव रोज ही बढ़ता जा रहा है।
हथियार निर्माताओं की तरफ से काम करने वाले ऐसे लोगों की अमरीका में एक बड़ी जमात है। शायद इन्हीं के चक्कर में ओबामा प्रशासन ने ईरानी शासन के खिलाफ शुरू हुए विरोध को हवा दी थी लेकिन लगता है बात बिगड़ चुकी है। काहिरा में मुसलमानों से अस्सलाम-अलैकुम कहकर मुखातिब होने वाले बराक ओबामा ने ईरान में बहुत कुछ खोया है। उस पर तुर्रा यह कि अमरीका की दखलंदाजी के कारण अहमदीनेजाद और अयातोल्ला के खिलाफ जो थोड़ा बहुत भी जनमत था भी, वह सब एकजुट हो गया है। ओबामा को अब ज्यादा ताकतवर ईरान से बातचीत करनी पड़ेगी ईरान के रिश्ते पड़ोसियों से भी बहुत अच्छे हैं।
तुर्की, अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान अफगानिस्तान सब ईरान के साथ हैं। सीरिया, हिजबोल्ला और हमास भी ईरान के साथ पहले जैसे ही संबंध रख रहे हैं। चीन खुले आम ईरान की नई सरकार के साथ है। भारत भी ईरान से अच्छे रिश्तों का हमेशा पक्षधर रहा है और आगे तो दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध और भी गहराने वाले है। सीरिया ने सऊदी अरब और अमरीका से कुछ बातचीत का सिलसिला शुरू किया था लेकिन कई अवसरों पर उसने साफ कर दिया है कि ईरान से रिश्तों की कीमत पर कोई नई दोस्ती नहीं की जाएगी। ऐसी हालात में अमरीकी कूटनीति का एक बार फिर इम्तहान होगा।
इस बार की मुश्किल यह है कि अमरीका के पास इस बार फेल होने का विकल्प नहीं है। ओबामा के लिए फैसला करना आसान नहीं है। अमरीका जनमत को गुमराह कर रहे दंभी और बदतमीज पत्रकारों और नेताओं का एक वर्ग है जो ओबामा को वही इराक वाली गलती करने के लिए ललकार रहा है। दूसरी तरफ उनकी अपनी समझदारी और पश्चिम एशिया की जमीनी सच्चाई की मांग है कि इराक और वियतनाम वाली गलती न की जाय। बहरहाल एक बात सच है कि अगर इस बार अमरीका ने पश्चिमी एशिया में कोई गलती की तो उसका भी वही हश्र होगा जो ब्रिटेन का हो चुका है।
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Monday, July 27, 2009
Sunday, July 26, 2009
इंसाफ के पक्के इंतज़ाम की जरुरत
जूता राजनीति स्थायी भाव होता जा रहा है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति के ऊपर बगदाद में चला जूता एक नई राजनीति के व्याकरण को जन्म देने की क्षमता रखता है। जब गृहमंत्री पी.चिदंबरम के ऊपर नई दिल्ली में जूता चला तो उसकी धमक दूर तलक सुनी गई। दिल्ली की राजनीति में मजबूती से जमे हुए संजय गांधी युग के दो नेताओं को संसदीय राजनीति से अलविदा कहना पड़ा।
जूता कांड के ताजा शिकार बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी पर चला जूता कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। यहां यह साफ कर देने की जरुरत है कि सभ्य समाज में जूता मारने की संस्कृति को सही नहीं ठहराया जा सकता। असहमति व्यक्त करने के लिए जूते का सहारा लेना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भविष्य में कोई भी किसी पर जूता चलाकर अपनी बात न बताए। और यह सबसे जरुरी बात है। रही आडवाणी पर जूता चलना महत्वपूर्ण होने की बात, तो वह इसलिए कि उन पर जूता उनके अपने कार्यकर्ता ने चलाया। वह भी एक ऐसी जगह जहां बीजेपी का शासन है। दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेताओं को उम्मीद है कि मध्यप्रदेश से बीजेपी के सार्वधिक सांसद जीतकर आएंगे।
सवाल उठता है कि अगर सब कुछ पक्ष में ही है तो जूता क्यों चला। इस सच्चाई को समझने की कोशिश गंभीर राजनीतिक चर्चा की शुरुआत हो सकती है। बगदाद, नई दिल्ली और कटनी में चले जूतों में एक समानता है, वह यह कि सभी जूते राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर लेगों पर चले हैं। सवाल उठता है कि जूता चलाकर अपनी ओर ध्यान बंटाने की कोशिश भर है, किसी के उकसाने में किया गया कार्य है या क्षणिक भावावेश में किया गया काम है। जहां तक राजनीतिक नेताओं की टिप्पणी की बात है, लगता है कि इस मामले में उनको गंभीरता से लेने की जरुरत नहीं बीजेपी के प्रवक्ता ने पी चिदंबरम पर चले जूते पर बहुत गदगद होकर प्रतिक्रिया दी थी, जबकि आडवाणी पर जूता चलने पर बहुत मायूस नजर आए।
लिहाजा नेताओं की बात को विचार में न लेकर सामान्य आदमी के विवेक से विचार करने पर जूता फेंकने वालों की मनोदशा को समझा जा सकता है। लगता है कि जूता फेंकने वाला हर व्यक्ति हताश है, समस्याओं का निदान करने की जो भी व्यवस्था है उसने निराश है और किसी समस्या विशेष की ओर संबंधित लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश कर रहा है। पी चिदंबरम के ऊपर जूता फेंकने की घटना की मीडिया में सबसे ज्यादा चर्चा हुई।
जूता फेंकने वाले की भी सबसे ज्यादा चर्चा हुई। जूता फेंकने वाले ने भी बताया कि 1984 के दंगों में कांग्रेसी नेता जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की भूमिका पर कानून की लाचारी से वह हताश है। उसे यह भी शक था कि कांग्रेस के बड़े नेताओं की शह पर ही सी.बी.आई ने इन दो नेताओं को बरी करने की प्रक्रिया की शुरूआत की है। यहां उसके आरोप या शक की पड़ताल करने का कोई औचित्य नहीं है। यहां बस यह समझ लेना जरूरी है कि उस व्यक्ति को हताशा थी और उसी हताशा के चलते उसने यह काम किया।
जॉर्ज बुश और आडवाणी पर फेंके गए जूते भी कहीं न कहीं इस हताशा से संबंधित नजर आते हैं। जब व्यक्ति को लगता है कि उपलब्ध तरीकों से उसे न्याय नहीं मिल पा रहा है, बल्कि वह दोषी न होते हुए भी दंडित हो रहा है तो वह व्यवस्था से निराश होता है, हताश होता है और बागी हो जाता है। ऊपर लिखे जूता प्रकरणों में भी न्याय न मिलने से हताश व्यक्ति बागी हो गए और उन्होंने जूता फेंक कर अपनी बगावत की भावना को दर्ज किया। यही बगावत की भावना आदमी को हथियार उठाने को मजबूर करती है।
चंबल के बीहड़ों में जो नौजवान इंसाफ की तलाश में भटकता हुआ हथियार उठा लेता है। उसे डाकू का नाम दे दिया जाता है। और पूरी दुनिया में अमरीका और उसकी कठपुतली हुकूमतों के खिलाफ बगावत करने वाले को आतंकवादी करार दे दिया जाता है। जरूरत इस बात की है कि समाज और सरकारें यह सुनिश्चित करें कि आम आदमी को हर हाल में इंसाफ मिले और वह हताशा में जूता फेंकने को मजबूर न हो और हथियार की शरण में न जाय।
जूता कांड के ताजा शिकार बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी पर चला जूता कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। यहां यह साफ कर देने की जरुरत है कि सभ्य समाज में जूता मारने की संस्कृति को सही नहीं ठहराया जा सकता। असहमति व्यक्त करने के लिए जूते का सहारा लेना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भविष्य में कोई भी किसी पर जूता चलाकर अपनी बात न बताए। और यह सबसे जरुरी बात है। रही आडवाणी पर जूता चलना महत्वपूर्ण होने की बात, तो वह इसलिए कि उन पर जूता उनके अपने कार्यकर्ता ने चलाया। वह भी एक ऐसी जगह जहां बीजेपी का शासन है। दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेताओं को उम्मीद है कि मध्यप्रदेश से बीजेपी के सार्वधिक सांसद जीतकर आएंगे।
सवाल उठता है कि अगर सब कुछ पक्ष में ही है तो जूता क्यों चला। इस सच्चाई को समझने की कोशिश गंभीर राजनीतिक चर्चा की शुरुआत हो सकती है। बगदाद, नई दिल्ली और कटनी में चले जूतों में एक समानता है, वह यह कि सभी जूते राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर लेगों पर चले हैं। सवाल उठता है कि जूता चलाकर अपनी ओर ध्यान बंटाने की कोशिश भर है, किसी के उकसाने में किया गया कार्य है या क्षणिक भावावेश में किया गया काम है। जहां तक राजनीतिक नेताओं की टिप्पणी की बात है, लगता है कि इस मामले में उनको गंभीरता से लेने की जरुरत नहीं बीजेपी के प्रवक्ता ने पी चिदंबरम पर चले जूते पर बहुत गदगद होकर प्रतिक्रिया दी थी, जबकि आडवाणी पर जूता चलने पर बहुत मायूस नजर आए।
लिहाजा नेताओं की बात को विचार में न लेकर सामान्य आदमी के विवेक से विचार करने पर जूता फेंकने वालों की मनोदशा को समझा जा सकता है। लगता है कि जूता फेंकने वाला हर व्यक्ति हताश है, समस्याओं का निदान करने की जो भी व्यवस्था है उसने निराश है और किसी समस्या विशेष की ओर संबंधित लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश कर रहा है। पी चिदंबरम के ऊपर जूता फेंकने की घटना की मीडिया में सबसे ज्यादा चर्चा हुई।
जूता फेंकने वाले की भी सबसे ज्यादा चर्चा हुई। जूता फेंकने वाले ने भी बताया कि 1984 के दंगों में कांग्रेसी नेता जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की भूमिका पर कानून की लाचारी से वह हताश है। उसे यह भी शक था कि कांग्रेस के बड़े नेताओं की शह पर ही सी.बी.आई ने इन दो नेताओं को बरी करने की प्रक्रिया की शुरूआत की है। यहां उसके आरोप या शक की पड़ताल करने का कोई औचित्य नहीं है। यहां बस यह समझ लेना जरूरी है कि उस व्यक्ति को हताशा थी और उसी हताशा के चलते उसने यह काम किया।
जॉर्ज बुश और आडवाणी पर फेंके गए जूते भी कहीं न कहीं इस हताशा से संबंधित नजर आते हैं। जब व्यक्ति को लगता है कि उपलब्ध तरीकों से उसे न्याय नहीं मिल पा रहा है, बल्कि वह दोषी न होते हुए भी दंडित हो रहा है तो वह व्यवस्था से निराश होता है, हताश होता है और बागी हो जाता है। ऊपर लिखे जूता प्रकरणों में भी न्याय न मिलने से हताश व्यक्ति बागी हो गए और उन्होंने जूता फेंक कर अपनी बगावत की भावना को दर्ज किया। यही बगावत की भावना आदमी को हथियार उठाने को मजबूर करती है।
चंबल के बीहड़ों में जो नौजवान इंसाफ की तलाश में भटकता हुआ हथियार उठा लेता है। उसे डाकू का नाम दे दिया जाता है। और पूरी दुनिया में अमरीका और उसकी कठपुतली हुकूमतों के खिलाफ बगावत करने वाले को आतंकवादी करार दे दिया जाता है। जरूरत इस बात की है कि समाज और सरकारें यह सुनिश्चित करें कि आम आदमी को हर हाल में इंसाफ मिले और वह हताशा में जूता फेंकने को मजबूर न हो और हथियार की शरण में न जाय।
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